अपनी बात

कुछ ज़िन्दगी के बारे में और कुछ इधर उधर की बातें

Name:Raman B
Location:Bay Area, California

३.१०.२००५

बचपन के मीत :: पर्चे की अदला-बदली

Akshargram Anugunj
बहुत से मित्र थे बचपन के. कुछ एक का साथ छूट गया. लेकिन अभी भी कुछ एक से साथ कायम है और बाकियों की ख़बरें इधर उधर से मिलती रहती है.सब दोस्तों के बारे में तो शायद बाद में कभी लिखूंगा लेकिन अपने दोस्त महेश के बारे में इस लेख में लिख रहा हूं. हम लोगों ने न जाने कितना वक्त एक दूसरे के साथ गुजारा है. महेश , मैं और कभी कभार कुछ दूसरे दोस्त शाम को मटरगश्ती पर निकल जाते थे. कभी महफ़िल पार्क में सजती थी, कभी नदी के किनारे, कभी पहाड़ पर तो कभी स्टेशन रोड के बाज़ार में. चाय , समोसे, मूँगफली, लुड़ईयों और कभी हरी चटनी के साथ सिंघाड़ों का दौर चलता था. दुनिया भर की लफ्फाजी,हँसी,मजाक और इधर उधर की बातों में तुरंत सारी शाम गुजर जाती थी. जब वापस घर जाने का समय आता तो पान खाकर सब लोग वापस जाते थे.मैं ज्यादा पान नहीं खाता था तो पान के लिये कभी कभी मना कर देता था लेकिन मजाल है कि यूपी में यार दोस्त मिलें और पान न हो. कई बार तो लोग बाग कहते थे अरे भईया पान खाये बग़ैर कैसे चले जाओगे.

एक वाकया बताता हूँ. यूपी बोर्ड के हाईस्कूल के इम्तहान चल रहे थे. महेश की तैयारी ठीक नहीं थी और गणित के पर्चे में उसे मेरी मदद की जरुरत थी और प्लान ये बना की मैं अपने पर्चे में कुछ प्रश्नों के उत्तर लिख दूंगा और हम लोग परीक्षा शुरू होने के एक घंटे के बाद बाथरूम मेँ मिलेंगे और पर्चा बदल लेंगे. तयशुदा वक्त पर हम लोग बाथरूम में मिले और हम लोगों ने पर्चे की अदलाबदली की. लेकिन महेश कुछ और प्रश्नों के बारे में भी पूछना चाहता था. मैंने जल्दीबाजी में उसे एकाध सवालों के जवाब समझाये लेकिन महेश को कुछ ज्यादा ही मदद की जरूरत थी और उसकी जिद पर हम लोग गलियारे में एक दीवार से सटकर खड़े हो गये और मैं उसे बताने लगा. तभी मैंने देखा कि एक अध्यापक गलियारे से गुजरा और उसने हम लोगों को देख लिया. मेरी तो सिट्टी पिट्टी ग़ुम हो गयी. लेकिन वो अध्यापक बहुत ही शरीफ़ निकला और हम लोग को बिना कुछ कहे निकल गया. और इस तरह से मेरी जान में जान आई और मैं अपने कमरे में भागा और महेश अपने कमरे में.

मैंने भगवान का नाम लेते हुये चुपचाप अपना पर्चा खतम किया और बाहर निकला. बाहर निकलने के बाद महेश ने मुझे बताया कि अपने कमरे में पहुँचने के बाद उसने बदले हुये पर्चे की मदद से लिखना शुरू किया लेकिन थोड़ी देर के बाद पता नहीं कैसे उसके कमरे के निरीक्षक को ये शक हो गया कि उसने पर्चा बदला है क्यूंकि उसने पर्चे में कुछ लिखा हुआ देख लिया था. उसने महेश को बहुत सताया और बार बार उस पर दबाव डाला कि बताओ किससे पर्चा बदला है. उसने एड़ी चोटी का जोर लगाया ये पता लगाने के लिये कि पर्चा किस से बदला गया है. यहीं नहीं उसने सारे कमरे में दूसरे लड़कों से भी पूछताछ की लेकिन उसे कुछ पता नहीं चला. उसे ये लग रहा था की पर्चा इसी कमरे में बदला गया है और उसे ये जरा भी अहसास नहीं हुआ कि पर्चा बाहर से बदला गया है. अगर निरीक्षक को इस बात की जरा भी भनक मिल जाती कि पर्चा बाहर से बदला गया तो निश्चित रूप से हम दोनों पकड़े जाते थे और हम लोग जरुर रस्टीकेट कर दिये जाते थे. महेश की बातें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गये और मुझे ऐसे लगा जैसे मौत के मुंह से बच के निकल के आया हूँ.

उस दिन अगर मैं पकड़ा जाता तो जरूर दसवी में फेल हो जाता और बाद में शायद मेरे कैरियर का कबाड़ा भी हो सकता था. इस घटना के बाद भी हम लोगों की दोस्ती में फ़र्क नही आया. अब आजकल मैं अपनी नौकरी में व्यस्त हूँ और मेरा दोस्त अपनी दुकानदारी में व्यस्त रहता है. लेकिन अब भी जब अपने कस्बे में छुट्टियों में वापस जाता हूं तो उसके साथ काफ़ी वक्त गुजरता है और बीते हुये दिनों की यादें ताजा होती हैं.

२.२४.२००५

अनुगूँज ६ - शरीर और आत्मा का मिलन

Akshargram Anugunj
भूत-प्रेत, जादूटोना, ज्योतिष और तरह तरह की चमत्कारिक चीजों के बारे मे जानने और सुनने की मुझे हमेशा उत्सुकता रही है. इन विषयों पर अच्छी किताबें पढ़ना और लोगों से सुनना मुझे हमेशा अच्छा लगता है. जैसे इस बार की अनुगूँज मे जीतू भाई का सच्चा किस्सा पढ़ के बहुत ही आश्चर्य हुआ.

वैसे मेरा अपना कोई भी अनुभव नहीं है, जिसे चमत्कार की श्रेणी में डाला जा सके. लेकिन दूसरों से सुनी सुनाई बातों के बारे में जरूर लिख सकता हूं. आपने ओशो रजनीश का नाम तो सुना ही होगा जोकि एक तरफ़ काफ़ी पहुँचे हुये दार्शनिक माने गये हैं तो दूसरी तरफ़ काफ़ी विवादों में घिरे और बदनाम रहे हैं. उन्हीं की मुँहज़बानी उनके कैसेट में सुना ये किस्सा याद आ रहा है.

एक बार वो पेड़ के ऊपर काफी देर से ध्यानमग्न थे और जब बहुत ज्यादा गहरे ध्यान की स्थति में थे तो अचानक उनका शरीर पेड़ से गिर गया. उन्होने लिखा है कि उस छण में उनका शरीर उनकी आत्मा से अलग हो गया था. अब उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि इन दोनों का आपस में मिलन कैसे होगा तो उन्होने लिखा है कि कुछ देर में वहां से एक ग्रामीण औरत निकली और उसने उन्हें मरा हुआ समझकर छुआ, इससे उनके शरीर और आत्मा का पुनर्मिलन हो गया. उनकी बातों के अनुसार पुरूष शरीर में मादा स्पर्श से ऐसा संभव है और इसके विपरीत मादा शरीर में पुरूष स्पर्श से.

उन्होंने आगे ये भी बताया है कि बाद में फिर कुछ और दफ़ा भी उन्होने यही घटना दोहराई. ऐसा कुछेक बार करने के बाद उन्होंने ये भी महसूस किया कि उनके शरीर का तालमेल बिगड़ गया है. बहरहाल इसमें कितना सच है, ये कहना तो बहुत मुश्किल है लेकिन अगर ये सचमुच सच है तो ये वाकई बहुत बड़ा चमत्कार है.

२.२१.२००५

शापिंग

एक ज़माना था जब मेरे लिये शापिंग का मतलब होता था सौदा सुल्फ़ ख़रीदना. किशोरावस्था के दिनों में माताजी मुझे सब सौदा बोलतीं थीं और मैं उसकी सूची बना लेता था. जब मैं सौदा सुल्फ़ लेने जाता था तो रास्ते में मिलने वाले परिचितों से जय राम जी की करता हुआ और बाज़ार से गुजरने वाली लड़कियों पर नज़र डालता हुये अपनी धुन में मस्त निकल जाता था. फिर दुकानदार के पास पहुँच कर उसे सूची पकड़ा देता था. मै बैठकर सेठ से राजनीतिक और दूसरी इधर उधर की बातें बतियाता रहता था, थोड़ी ही देर मे नौकर लोग सामान बांध देते थे और मैं दुकानदार को पैसे चुकाकर वापस घर का रास्ता नापता था. लेकिन आजकल आधुनिक समाज में शापिंग को कई नये आयाम दिये गये हैं और शापिंग को एक नये शिखर पर पहुंचाया गया है.

अमेरिका मेँ तो ख़ास तौर से शापिंग को काफ़ी महत्व दिया जाता है. यहां की पूरी अर्थव्यवस्था ही उपभोक्तावाद पर कायम है. यहां पर शापिंग पर कई तरीके के अनुसंधान होते है. कुछ लोग शापिंग और उपभोक्ताओं की जरूरतों के गुरू माने जाते हैं तो कुछ लोगों ने इन विषयों मे डाक्टरेट तक किया हुआ होता है. कई विश्वविद्यालय शायद इन विषयों पर डिग्री भी प्रदान करते हैं. कई लोगों के लिये और खास तौर से महिलाओं के लिये शापिंग एक बहुत ही आनन्ददायी कृत्य होता है लेकिन कुछ लोगों के लिये शापिंग मुसीबत का पर्याय बन के आती है.

वैसे तो कई तरह के शापर्स होते हैं, लेकिन कुछ ख़ास की बानगी नीचे देखिये.

१. पुराने धाकड़, महारथी या मंजे हुये खिलाड़ी

इस श्रेणी के जन्तु शापिंग के बहुत मंजे हुये खिलाड़ी होते हैं. शापिंग आयडियाज़ के लिये इनके पास काफ़ी मजबूत नेटवर्क होते हैं. शापिंग इन के लिये किसी साधना से कम नहीं होती है. ये शापिंग की विद्या मे पूर्णतया पारंगत होते हैं. अगर इन्हें शापिंग के जंगलों के शेर कहे तो कोई मुग़ालता नहीं होगा. अक्सर नौसिखये शापर्स इनकी सेवायें प्राप्त करके अपने आपको धन्य समझते हैं.

कई देसी भाई भी इसी श्रेणी में आते हैं और ये पाया गया है कि कोई भी सामान लेने से पहले वे अपने सारे नेटवर्क में चेक कर लेते हैं और उसी के बाद ही वो कोई सामान ख़रीदते हैं. कईयों के नेटवर्क तो इतने मजबूत और विशाल होते हैं कि कोई भी नई और खास किस्म की चीज़ या कोई खास प्रमोशन या डील इनकी निगाहों से नही बच सकती.

२. मध्यमार्गी

ये लोग हमेशा बीच का रास्ता अख़्तयार करना पसंद करते हैं. न शापिंग इनके लिये मुसीबत होती है और न ही कोई खास आनन्दप्रदायक कृत्य. शापिंग को ये लोग एक अनिवार्य जरुरत या धर्म की तरह निभाते है. इनका सिद्धांत एकदम सरल होता है. बस जब जितना सामान जरूरी है तब उतना सामान खरीदा और अपने काम से मतलब रखा. ये लोग शापिंग पर ज्यादा माथापच्ची नहीं करते है और न हीं शापिंग पर बहुत ज्यादा समय नष्ट करते हैं.

३ कंजूस मक्खीचूस या पेनीपिंचर या कूपन कटर

इस श्रेणी के लोगों में हमेशा समय की अधिकता होती है और पैसों की कमी होती है. कुछ एक डालर बचाने के लिये ये लोग कितनी ही दुकानों के चक्कर लगा सकते हैं और न जाने कितना वक्त बरबाद कर सकते हैं. कुछ कुछ अमेरीकन दुकानदार इन्हें शैतान ग्राहक (Demon Customers) भी कहते हैं. इनका बस चले तो हर दुकानदार को चूस चूस कर उस का दिवाला निकाल दें. कहा जाता है कि लगभग ८०% छोटे कारोबार अपने पहले ही साल मेँ ध्वस्त हो जाते हैं. इसमें काफ़ी सारा योगदान शैतान ग्राहकों का भी रहता है. ऐसे शापर्स की वजह से उपभोक्ता खर्च इंडेक्स के कम हो जाने की होने की आशंका बनी रहती है और पूरी की पूरी मैक्रो अर्थव्यवस्था पर भी खतरों के बादल मंडराने के आसार नज़र आने लगते हैं.

अपने हमवतन कुछ देसी भाई भी इसी श्रेणी में आते हैं. वो शापिंग के मामलों में महा-जुगाड़ू होते हैं. कई बार सामान मन मुआफ़िक न हुआ तो ऐसे देसी झूठमूठ का टंटा फैलाकर अपना कारज सिद्ध कर लेते हैं. कुछ लोग तो सामान लेते हैं और थोड़े दिन उसका मज़ा लेने के बाद झूठमूठ का बहाना बना कर या फिर जानबूझकर किसी सामान को तोड़फोड़ कर उसे वापस कर देते है.

अमेरिका में ऐसे कई देसियों का पूरा का पूरा शनिवार शापिंग मेँ गुजर जाता है. आप पूछेंगे कि पूरा का पूरा दिन शापिंग में कैसे गुजर सकता है, तो इसकी वजह ये है की तरह तरह की शापिंग जो कि पैसों की बचत के लिये बहुत जरूरी है. मिसाल के तौर पर नीचे देखिये.

१. अमेरीकन ग्रासरी शापिंग ‍ ( सेफ़वे वग़ैरह )
२. भारतीय ग्रासरी शापिंग ‍ ( इंडिया बाज़ार या देसी दुकान )
३. कास्को शापिंग ‍ ( थोक में सस्ता सामान )
४. जनरल शापिंग ( वालमार्ट वग़ैरह )
५. कपड़ों आदि की शापिंग ( जे सी पेनी , मेसीज , सीअर्स वगैरह )
६. खिड़की शापिंग ‍ ( सिर्फ़ सामान देखने वाली शापिंग )

एक दूसरे सज्जन हैं, जिन्होने कार तो नयी नवेली SUV ले ली, लेकिन पेट्रोल के पैसे बचाने के चक्कर में कास्को जाना नहीं भूलते हैं. दूसरे एक दंपति जोकि वैसे अपने स्टेटस के बारे में काफ़ी सतर्क रहते है लेकिन चन्द डालर बचाने के लिये खासतौर से कास्को जाने में नहीं हिचकिचाते. मेरी कंपनी के भारत से जो कंसलटैन्ट आते हैं वो भी चाकलेट पर एक एक डालर बचाने के लिये खासतौर से कास्को जाने का इंतजाम करते हैं.

ऐसे लोगों के बारे में एक लतीफ़ा भी मशहूर है.एक साहब मोल-तोल में काफ़ी उस्ताद थे. एक दिन बाज़ार में वो किसी दुकानदार से मोलतोल कर रहे थे. ५० रुपये की शर्ट पर एक घंटा मोलतोल करने के बाद दुकानदार एक रुपये में बेचने के लिये तैयार हो गया. लेकिन भाईसाहब अड़े रहे और फिर भी मोलतोल करते रहे. तंग आकर दुकानदार ने कहा कि ठीक है मेरे बाप आप मुफ़्त में ले जाईये. भाईसहब ने थोड़ी देर सोचा फिर कहा, मुफ़्त में दो शर्ट दोगे क्या?

४. पुराने क़ाहिल

इन लोगों के लिये शापिंग एक बहुत भारी मुसीबत का नाम है. बीवी के मुँह से शापिंग का नाम सुनते ही इनके पसीने छूटने लगते हैं. मेरी श्रीमतीजी जब भी मुझे बाज़ार ले जाती हैं तो मुझे लगता है कि जितना जल्दी से जल्दी हो सके शापिंग ख़तम की जाये, इसीलिये हमेशा श्रीमतीजी मुझसे तंग आ जाती हैं.

वैसे हर शापिंग-खिलाफ़ पति का अपनी शापिंग‍-पसन्द पत्नि से कुछ न कुछ अरेंजमेन्ट होता है. अब अपने काली भाई को ही ले लीजिये, इनकी श्रीमतीजी भी काफ़ी हमदर्द हैं और जब भी काली भाई थके हुये होते हैं तो इनकी पत्नि काफ़ी मुरव्वत करके शापिंग बैग खुद ही उठा लेती हैं. मेरी बीवी भी जब मैं थका हुआ या शापिंग मूड में नहीं होता हूँ तो सिर्फ पिकअप , ड्राप और बेबीसिटिंग के लिये मुझे याद करती हैं और मुझ पर भारी अहसान करते हुये शापिंग के कष्ट से मुझे बचाती हैं.

५. अनियंत्रित शापर्स (compulsive shoppers)

ये शापर्स अपने आप पर बिल्कुल भी नियंत्रण नहीं कर सकते. कोई भी नई चीज़ जिस पर इनकी नज़र पड़ जाती है ये लोग उसे खरीदना चाहते हैं भले ही उस चीज़ की उन्हें बिलकुल भी जरूरत न हो या फिर वो उनकी हैसियत के बाहर हो. अगर इन्हें इनकी पसंद की चीज़ लेने से रोकने की कोशिश की जाये तो ये खुदकुशी करने पर उतारू हो जाते हैं.

दुकानदार और क्रेडिट कार्ड कंपनियां इन्हें काफ़ी पसन्द करते हैं और ऐसे लोगों को आदर्श ग्राहक मानते हैं. सामान तो ये लोग बहुत सारा ले आते हैं लेकिन कई बार सामान इस्तेमाल करना तो दूर, ये सामान खोलते तक नहीं हैं. ऐसे लोगों के घर और गैराज़ में तिल रखने की भी जगह नहीं होती है. कई बार इनके गैराज़ सामानों के बन्द डब्बों से गंधाते रहते हैं.

तो ये थे शापिंग के बारे में इस नाचीज़ के तुच्छ विचार. लेकिन आप किस सोच में डूब गये हैं? ज़्यादा सोचिये मत, अपनी श्रीमतीजी से इस वीकेन्ड का शापिंग प्लान पूछिये और अपना बटुआ हल्का करने का इंतज़ाम कीजिये ;)

२.१०.२००५

आ जा सांवरिया तोहें गरवां लगा लूं

कुछ सालों पहले देसी वीडीयो के दुकान में और कोई फ़िल्म न होने की वजह से मजबूरी में गमन फ़िल्म का वीडियोकैसेट ले आया था. मुज़फ़्फ़र अली की इस बेहतरीन फ़िल्म की शुरूआत ही इस haunting ठुमरी के साथ होती है. गाने के साथ ही बैकग्राउन्ड में उनके पैतृक गांव के दृश्य दिखाये गये हैं. इस ठुमरी में और इस सीन में इतनी कसक थी कि न जाने कितनी बार रिवाइन्ड करके मैंने ये सीन और गाना देखा.३-४ मिनिट के इस सीन और इस गाने में इतनी कसक और नोस्तालजिया है कि आपके सामने सीधे अपने गांव या वतन की तस्वीर आ जायेगी और बार बार ये ठुमरी सुनने की और ये सीन देखने की आपकी इच्छा होगी.

इस जबर्दस्त ठुमरी को संगीतबद्ध किया है पंडित जयदेव ने और गाया है हीरा देवी मिश्रा ने. हीरादेवी मिश्रा ने इस ठुमरी को इतना बढ़िया गाया है कि इसे बार बार सुनने की इच्छा होती है. वैसे अच्छे गाने और ठुमरियां काफ़ी सुनी हैं लेकिन कसम से इतनी जबर्दस्त ठुमरी पहले कभी नहीं सुनी है.

गमन की वीडियो कैसेट तो मिल रही है लेकिन इस गाने का आडियो नहीं मिल रहा है.. मैंने नेट पर भी ढ़ूंढ़ा और सारेगामा से भी पूछा लेकिन ये आडियो नहीं मिला. HMV ने गमन का कैसेट निकाला है लेकिन उसमें भी ये गाना उपलब्ध नही हैं. अफ़सोस सद अफ़सोस कि इतना बेहतरीन गाना कहीं पर मिल ही नहीं रहा है.

कुछ साल पहले रिलीज हुई फ़िल्म 'मानसून वैडिंग' में इसी ठुमरी का रिमिक्स फैब्रिक नाम से पेश किया गया है. हलांकि एक तरफ रिमिक्स बनाकर इस अच्छी खासी ठुमरी का ठुमरा बना दिया गया है लेकिन दूसरी तरफ़ ओरिजनल नहीं तो कम से कम रिमिक्स तो सुनने को मिल रहा है..

मुझे लगता है इस ठुमरी के बोल काफ़ी पुराने हैं क्योंकि कुछ दिनों पहले मुझे भीमसेन जोशी द्वारा बहुत पहले गाई गई इसी ठुमरी का mp3 मिला है.. लेकिन गमन वाले version की बात ही कुछ और है.

अगर किसी को गाने के बारे में या गायिका के बारे में और जानकारी हो तो जरूर बताएं.

१.२७.२००५

टेनिस , आस्ट्रेलियन ओपेन और सानिया

इधर आस्ट्रेलियन ओपेन के कुछ कुछ मैचों का मज़ा ले रहा हूँ. समाचारों में पढ़ा कि रोजर फेडरेर और सफ़िन के बीच बहुत ही ज़बरदस्त मुक़ाबला हुआ. रोजर भैय्या , जो कि पिछले १-२ सालों से एकदम अपराजेय थे, उनको सफ़िन ने साढ़े ४ घंटे के जबरदस्त युद्ध के बाद मात दी. आज मै बहुत ही बेचैन हूं और रोजर फेडरेर और सफ़िन का ये मैच देखना चाहता हूं लेकिन ये मैच ठीक दोपहर में आ रहा है जब मैं आफ़िस में मैं अपना सर खपा रहा हूंगा. इस नये प्रोजेक्ट की ८ १० घंटे की मशक्कत और २ ३ घंटे की commuting ने मेरे weekdays की ऐसी मट्टीपलीद की है कि पूछिये मत. समय की इतनी जबरदस्त कमी चली रही कि क्या बतायें.

कल रात को मारिया शरापोवा और सेरिना विलियम्स का मैच भी बहुत ही धुआंधार हुआ. आखिरी सैट में तो दोनों बिल्कुल करो य मरो के मूड में आकर खेल रहीं थी. तीन बार मारिया जीत के बिल्कुल करीब पहुँच गई थी लेकिन सेरीना ने मारिया के मुँह से जीत निकालकर अपनी जीत दर्ज की.

ओपेन की शुरूआत में अपनी हैदराबादी पोट्टी सानिया ने भी बहुत ही धमाकेदार तरीके से खेला और पूरे हिन्दुस्तान में सनसनी फैला दी. उम्मीद है सानिया दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की करेगी और भारत का नाम रौशन करेगी. सानिया के प्रदर्शन से टेनिस की तरफ़ लोगों का ध्यान बढ़ेगा और बहुत सारे नये उभरते खिलाड़ियों को प्रोत्साहन मिलेगा.

१.११.२००५

अरेंज्ड लव

मुझसे जब भी कोई कोई पूछता है कि आपकी अरेंज्ड मैरिज हुई थी या फिर लव मैरिज, तो मैं बोलता हूँ कि जी नहीं हमारा अरेंज्ड लव हुआ था. सच पूछये तो मेरा पहला प्यार भी मेरी अरेंज्ड मैरिज से ही शुरू हुआ था.

Akshargram Anugunj


इससे पहले की मैं आपको अपने अरेंज्ड लव के बारे मेँ बताऊं, मैं उससे पहले के प्यार संबंधी जो भी मेरे अनुभव है वो आपके सामने हाज़िर करता हूं.. किशोरावस्था में लड़कियों की तरफ़ आकर्षण और इकतरफ़ा प्यार तो कई बार हुआ लेकिन कोई भी बात मेरी तरफ़ से दूसरी तरफ़ न गई और दिल की बात दिल ही में रह गई .. इसकी मुख्य वजह ये थी कि मैं लड़कियों के साथ बात करने में असहज हो जाता था और लड़कियों से कभी खुल के बात नहीं कर पाता था. शायद इस लिये कि जिस माहौल में मैं पला बढ़ा उसमें हमारा लड़कियों के साथ मिलना जुलना बहुत कम ही था, या फिर मैं लड़कियों के मामले में मैं शुरु से ही डरपोक था.

कालेज की पढ़ाई ख़त्म होने के बाद मैं नया नया बंबई पहुँचा था .. जल्द ही मुझे एक अच्छी नौकरी मिल गई .. हम लोगों का २०-२५ trainees का एक ग्रुप था .. इसमें ४-५ लड़कियां भी थीं .. मैं इनमें से एक लड़की संजना को मन ही मन चाहने लगा और उससे मेलजोल बढ़ाने की कोशिश करने लगा लेकिन संजना ने उल्टा मुझसे दूरी बनाना शुरु कर दी, शायद उसे ऐसा लगता था कि मैं सिर्फ़ उसे पटाना चाहता हूँ .उस वक्त तो मुझे बहुत बुरा लगता था लेकिन अब सोचता हूं तो लगता है वो सिर्फ़ जवानी का एक शग़ल था.

कुछ दिनों बाद ही मेरे लिये एक रिश्ता आया. मैं अपने मां और पिताजी के साथ अपनी होने वाली पत्नि के घर पहुंचा. सबकी मौज़ूदगी में ही में मैंने अपनी भावी पत्नि से १०-१५ मिनट तक बात की. मेरे सामने बैठी हुई लड़की मुझे हर तरह से अच्छी लग रही थी और मैं मन ही मन फूला नहीं समा रहा था. जल्द ही हमारा रिश्ता तय हो गया. इसके बाद शुरु हुआ हमारा अरेंज्ड लव. रोज़ रात को देर देर तक हम लोगों की फोन पर बातें होती थीं. आफ़िस में मेरा मन नहीं लगता था और अपनी मंगेतर का ख़ूबसूरत चेहरा सपनों में नज़र आता था. अक्सर वीकेन्ड पर हम लोग बाहर जाते थे और होता था साथ में घूमना, पिक्चर देखना और रेस्तरां में प्यार भरी बातें करना. सोते जागते हर पल मेरे दिमाग में मेरी मंगेतर की तस्वीर रहती थी.

इधर आफ़िस में संजना के स्वभाव में मैने तब्दीली महसूस की, और वो मुझे Ignore करने के बजाय मुझ पर ज्यादा ही मेहरबान होने लगी थी. शायद अब मुझसे उसे किसी किस्म के खतरे का अहसास नहीं था या फिर उसे कुछ लड़कियों वाली ईर्ष्या होने लगी थी. बहरहाल जो भी हो अब मैं तो उससे सिर्फ़ औपचारिक तौर पर ही मिलता था.

मंगनी के कुछ महीने बाद ही कम्पनी ने मुझे लंदन १ साल के प्रोजेक्ट पर भेज दिया. और फिर शुरू हुआ हम लोगों का लांग डिसटैन्स रोमांस. हम लोग काफ़ी देर तक फोन पर बातें करते थे.. इससे और कोई ख़ुश हो न हो लेकिन ब्रिटिश टेलीकाम वाले जरुर ख़ुश रहते थे क्योंकि मेरा टेलीफोन बिल काफ़ी बढ़ जाता था. मैं फोन के जरिये अपनी मंगेतर को लंदन के नजारे दिखाता था. कभी कभी हम दोनों का इतना दूर होना मुझे बहुत अखरता था. कहते है कि दूरी से प्यार की कसक और बढ़ जाती है.

लगभग एक साल के बाद मैं लंदन से वापस लौटा. हम लोगों का मिलना जुलना फिर से शुरु हो गया. कुछ महीनों बाद हम लोगों की शादी हो गई और हमारा प्यार शादी के अटूट बंधन में बंध गया.

१.५.२००५

बम्बई मेरी जान

कुछ दिनों पहले सुकेतू मेहता की क़िताब maximum-city पढी तो बम्बई की यादें ताज़ा हो गईं. अपने कालेज के दिनों में मुझे बंबई के प्रति ज़बरदस्त आकर्षण था. जब भी किसी बातचीत में बंबई का नाम आता था तो मेरे चहरे पे एक ख़ास क़िस्म की मुस्कान आ जाती थी जैसे की किसी ने मेरी स्वपन नगरी का नाम ले लिया या फिर मेरे मन की बात कह दी हो. कालेज की पढ़ाई ख़त्म होने के बाद मैं अपना बोरिया बिस्तर ले के अपनी कर्मभूमि बंबई में पहुँच गया.

बंबई के एक सुदूर उपनगर में मैं अपने एक रिश्तेदार के यहां रहता था. मैंने नौकरी ढूंढना शुरू कर दी. और बंबई की लोकल ट्रेनों में मेरी आवाजाही शुरू हो गई. ६ महीने के शुरूआती संघर्ष के बाद मुझे एक बहुत ही अच्छी नौकरी मिल गई और इस तरह से बंबई के साथ मेरा रोमांटिक अफ़ेयर शुरू हो गया.

मुझे बंबई की ज़िन्दगी रास आने लगी और मैं बंबईया रंग में डूबने लगा. शुरू शुरू में बंबई की हर शै मस्त लगती थी, ट्रेनों मे भजन मंडली गाते लोग , बंबईया हिन्दी बोलते लोग , हर वक़्त व्यस्त रहने वाले लोग, घूमने की जगहें जैसे गेटवे आफ़ इंडिया, जूहू बीच , चौपाटी बीच , मछलीघर आदि. तरह तरह के रेस्टारेन्ट और पब्स. मेरे दिन हंसीख़ुशी में गुज़र रहे थे. इन दिनों मेरे दिल में इस तरह के विचार आते थे.

न जाने क्या बात है , बम्बई तेरे शबिस्तां में
कि हम शामे-अवध, सुबहे-बनारस छोड़ के आ गये

लेकिन धीरे धीरे हालात बदलने लगे या फिर मेरा नज़रिया बदलने लगा. कुछ तो आफ़िस में काम का प्रेशर , कुछ commuting की थकान , कुछ मेरी सेहत की बदहाली , कुछ बंबई की भागदौड़ वाली ज़िन्दगी इन सब चीज़ों ने मेरा जीवन मुश्किल कर दिया. जैसे जैसे ३‍ ४ साल गुज़रे बंबई से मेरा मोहभंग होता गया और मुझे बंबई के जीवन से घ्रणा और डर लगने लगा. चारों तरफ़ भीड़, गन्दगी , भागदौड़ , ग़रीबी और मारामारी ये सब देखकर मेरे अंदर घबराहट सी पैदा हो जाती थी और मेरे हौसले पस्त होने लगे थे. मुझे अपनी हालत 'गमन' फ़िल्म के हीरो की तरह लगती जो बंबई मे परेशानहाल होके ऐसे कहता है.

सीने में जलन , आंखों में तूफ़ान सा क्यों है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है

आज़ भी हलांकि मैं एक तरह से बंबई के नाम से घबराता हूं या फिर नफ़रत करता हूं,लेकिन फिर भी मेरे दिल का कोई कोना अभी भी बंबई से जुड़ा हुआ महसूस करता है बिल्कुल ऐसे जैसे आदमी अपने पहले प्यार को कभी भुला नहीं पाता है.

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