मंगलवार, मार्च १५, २००५

सौर ऊर्जा

आज मैं शोध संबन्धित विषय पर कुछ पढ़ते समय सौर बैटरी के बारे में सोच रहा था (जिसमें कि मेरी रुचि है), तो मन में खयाल आया कि क्या सौर ऊर्जा को बिजली में बदलने का केवल सौर बैटरी ही एक ज़रिया है या फिर कुछ और भी विकल्प हो सकता है जो कि सौर बैटरी से बेहतर हो। ये इसलिये क्योंकि सौर बैटरियां सेमीकंडक्टर पदार्थों की बनी होती हैं जो कि बहुत मंहगे होते हैं, उनको बनाने में काफ़ी प्रदूषण होता है और चूंकि उनकी ऊर्जा को परिवर्तित करने की क्षमता बहुत कम (~१-१५%) होती है इसलिये बहुत बड़े सौर पैनलों का प्रयोग किया जाता है। हालांकि पॉलीमर पदार्थ इस दिशा में काफ़ी कारगर साबित हो सकते हैं पर उनकी ऊर्जा परिवर्तन क्षमता तो अभी और भी कम है (~1%)। इसलिये खयाल आया कि क्या और भी कोई विकल्प हो सकता है इस अथाह सौर ऊर्जा को बिजली में परिवर्तित करने का जो कि बेहतर हो।

विचार जारी है!!!! ह्म्म्म्म्म्म्म! विचार आमन्त्रित हैं।

सोमवार, मार्च १४, २००५

ग्लेशियर पिघल रहे हैं

अब गर्मी से हिमनाद यानी ग्लेशियर भी अछूते नहीं है, पिघल रहे हैं जम कर और इसका खामियाज़ा भुगतेंगे भारत, चीन और नेपाल मुखय रूप से। क्या वैज्ञानिक तरक्की है इन देशों कि प्रकृति को भी नहीं छोड़ा। पश्चिम वाले तो हमसे ज़्यादा जागरूक हैं इस दिशा में। जब नदियों में पानी ही नहीं बचेगा तो बेचारे किसान और उसकी खेती का क्या होगा और फिर जो हम सस्ता अनाज खाते हैं उसका क्या होगा?

शनिवार, मार्च ०५, २००५

धुंआ सूंघक की कार्यप्रणाली

विदेश जाने के पहले मुझे पता नहीं था कि घरों या मकानों 'धुंआ सूंघक या घ्राणक' यानी Smoke Detector जैसी कोई चीज लगी रहती है। वैसे चीज़ है बड़े काम की और आजकल तो भारत में भी कई आलीशान इमारतों यानी होटलों, इनफ़ोसिस जैसी कम्पनियों की आलीशान इमारतों इत्यादि में ये महाशय या महाशया लगे रहते/लगी रहती हैं। वैसे अब आगे के लेख में मैं पुर्लिंग का ही प्रयोग करूंगा , महिलाओं से क्षमा मांगता हूं।




वैसे ये महाशय हैं बड़ी काम की चीज। ये कई लोगों की आग से जान बचा सकते हैं, कीमत भी कुछ खास नहीं है, सबसे सस्ता करीब ५०० रूपये का आता है। और आकार भी छोटा सा ही होता है, तकरीबन ८-१२ सेमी व्यास यानी डायामीटर घरेलू उपयोग के लिये। और इनकी ऊर्जा की मांग भी काफ़ी कम होती है, आप इनको ९-१२ वोल्ट की बैटरी लगाकर चला सकते हैं।

हां, तो मैंने ये सोचा कि ये भाई साहब काम कैसे करते हैं, इनकी नाक इतनी दिव्य कैसे है?

इन भाई साहब के दो मुख्य भाग होते हैं: एक तो मुख्य यंत्र जो कि धुंआ सूंघता है और दूसरा होता है एक जोरदार हार्न यानी भोंपू जिनका काम होता है लोगों को चेताना। मैं इस लेख में सूंघने वाले यंत्र की चर्चा विस्तार से करूंगा क्योंकि पता तो वही लगाते हैं।

तो ये जो यंत्र है वो दो प्रकार के हो सकते हैं: - फोटोइलेक्ट्रिक सूंघक, -आयोनाइज़ेशन सूंघक

तो पहले देखते हैं ये फोटोइलेक्ट्रिक सूंघक कैसे काम करते हैं:

फोटोइलेक्ट्रिक सूंघक का यदि हम संधिविच्छेद करें तो फोटो का मतलब है प्रकाश फोटोन से यानी प्रकाश ऊर्जा को लेकर चलने वाला अतिसूक्ष्म कण, इलेक्ट्रिक मतलब विद्युत से, और सूंघक यानी डिटेक्टर जो कि इन दोनों प्रभावों से मिलकर बनता है और काम करता है। फोटोइलेक्ट्रिक सिद्धांत के अनुसार कुछ पदार्थों पर यदि प्रकाश पड़ता है तो उससे इलेक्ट्रान उत्पन्न होते हैं और फिर विद्युत धारा का प्रवाह उत्पन्न हो जाता है, जैसा कि नीचे चित्र में दिखाया गया है।



अब सूंघक पर फोटोन की जितनी ऊर्जा पड़ेगी वो उतनी ही विद्युत धारा (और वोल्टेज यानी विभव) उत्पन्न करेगा और यदि बिल्कुल प्रकाश नहीं पड़ेगा तो धारा बिल्कुल उत्पन्न नहीं होगी।

नीचे दिखाये गये चित्र १ में यदि देखें तो उसमें श्रोत किनारे ऊपर की ओर लगा है, सूंघक नीचे की तरफ़ बीच में और प्रकाश बिना सूंघक की तरफ जाये बाहर जा रहा है।

(१) (२)
(A-प्रकाश श्रोत, B-डिटेक्टर यानी सूंघक)

अब यदि हम श्रोत के सामने कुछ ऐसे कण डाल दें जिससे कि प्रकाश छितर जाये तो कुछ प्रकाश सूंघक की ओर भी जायेगा। जैसे ही वहां प्रकाश जायेगा, तो वहां कुछ धारा प्रवाहित होगी और पीछे का जुड़ा हुआ कोई भी सर्किट काम करने लगेगा क्योंकि हम अब उसमें विद्युत प्रवाह उत्पन्न कर सकते हैं (उदाहरणार्थ सौर बैटरी) और वो सर्किट हार्न का हो सकता है। एक चीज है कि इस सूंघक में बहुत कम धुयें जैसे कि सिगरेट के धुयें से हार्न नहीं चलेगा क्योंकि धुयें की मात्रा विद्युत धारा के प्रवाह को रोकने या कम करने के लिये बहुत कम होगी।

अब दूसरे तरह के सूंघक को देखते हैं: आयनाइज़ेशन सूंघक

ये सूंघक काफ़ी प्रचलित हैं क्योंकि ये एक तो कम धुयें में काम कर सकते हैं और दूसरा ये काफ़ी सस्ते भी होते हैं। पर इसमें होता है एक नाभिकीय या रेडियोएक्टिव तत्व अमेरिसियम-२१ जो कि अल्फा कण का अच्छा श्रोत है और इसकी अर्ध आयु है ४३२ साल। अल्फा किरणें गामा किरणों की तरह बहुत घातक भी नहीं होती हैं इसलिये कोई खतरा भी नहीं है और सूंघक के अन्दर इसकी मात्रा भी बहुत कम होती है: लगभग १ माइक्रोग्राम। हां एक चीज का खयाल रखना पड़ता है कि इसको मुंह या नाक के रास्ते अंदर नहीं जाने देना चाहिये।

अब बात करते हैं कि ये काम कैसे करता है। इसका सिद्धांत कहुत ही सरल है, दो विपरीत आवेशित प्लेटों के बीच में अमेरीसियम के कणों द्वारा बनी हुयी अल्फ़ा किरणें प्लेटों के बीच हवा में मौज़ूद नाइट्रोजन और आक्सीजन गैस के अणुओं को आयनीकृत कर देती हैं अर्थात उनके बाहरी इलेक्ट्रानों को निकाल देती हैं जिससे कि ये अणु धनावेशित हो जाते हैं और ये और ऋणावेशित इलेक्ट्रान क्रमशः विपरीत आवेशित प्लेटों की तरफ़ प्रवाहित होते हैं, जिससे कि विद्युत धारा का प्रवाह होता है (नीचे दिये गये चित्र में देखें)। इस सूंघक में इलेक्ट्रानिक्स इस तरह की होती है कि वो कम से कम विद्युत धारा के प्रवाह को भी माप सके। अब जब धुंआ इस प्रवाह के बीच में आता है







तो वो इस आयनीकृत आक्सीजन और नाइट्रोजन के अणुओं से चिपक जाता है और उनको आवेश हीन या न्यूट्रल बना देता है जिससे कि विद्युत धारा का प्रवाह कम हो जाता है और इस कमी को सूंघक की इलेक्ट्रानिक्स द्वारा माप लिया जाता है और ये सिग्नल हार्न बजा देता है।

अब आइये देखते हैं कि ये अन्दर से कैसा दिखता है:




इसके अन्दर की चीज़े हैं: एक बक्सा जहां आयनीकरण होता है और वहीं अमेरीसियम स्थित है, एक हार्न और बाकी इलेक्ट्रानिक्स।

है न एक छोटी सी चीज पर कितने काम की और कितने सरल सिद्धांत पर काम करती है। यही है विज्ञान की विशेषता, इन्हीं सरल सिद्धांतो को खोजने में बड़े बड़े वैज्ञानिकों ने अपनी जिन्दगी को लगा दिया है और हम उसका महत्व तब भी शायद ही समझ पाते हैं जब वो मूर्त रूप में सामने भी आ जाता है और हमारे जीवन में क्रांति लाता है।

आगे कुछ और ऐसा ही एक और यंत्र लेकर आऊंगा आपके सामने।

शुक्रवार, मार्च ०४, २००५

सूमो चूहे और मोटापे का इलाज

भारत के हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान (National Institute of Nutrition)) के कुछ वैज्ञानिक बहुत मोटे चूहों को पाल रहे हैं जिनका वजन लगभग ९०० ग्राम से लेकर १ किलो तक है। और सबसे मोटा चूहा तो १.४ किलो का है जो एक साधारण चूहे के वजन से ४ गुना ज़्यादा है। इन चूहों का भोजन होता है गेहूं, भुना चना और दूध युक्त जो कि प्रोटीन युक्त है और ये काफ़ी खाते भी हैं।

अब आप ये सोच कर चकरा रहे होंगे कि भाई ये क्या माजरा है। बात ये है कि इन चूहों में एक ऐसा जीन हो सकता है जो कि मोटापे के इलाज के लिये बहुत कारगर साबित हो सकता है। १९९४ में न्यूयार्क की रॉकफेलर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने जेफरी फ्रीडमैन के नेतृत्व में लेप्टीन प्रोटीन नामक एक जीन की खोज की थी जिसका मोटापे की बीमारी से सम्बन्ध है। लेप्टीन प्रोटीन वसा कोशिकाओं से निकलने वाला एक हार्मोन है। डॉ. फ्रीडमैन का कहना है कि अगर मोटे चूहों पर लेप्टीन प्रोटीनयुक्त इंजेक्शन लगाया जाता है तो उनका वज़न 30 प्रतिशत कम होता है। हालांकि भारत के सूमो चूहों पर लेप्टीन प्रोटीन का कोई असर नहीं पड़ा है यानी कोई और जीन भी है जो मोटापे के लिए ज़िम्मेदार है।

विस्तृत जानकारी के लिये यहां पढ़ें।

शुक्रवार, फ़रवरी २५, २००५

पनबिजली और प्रदूषण

ज्यादातर लोग ये सोचते हैं कि पनबिजली कोयले या किसी और जीवाश्म ईंधन से बनायी गयी ऊर्जा की अपेक्षा कम प्रदूषण पैदा करती है। पर हाल में किये गये एक शोध के अनुसार ये सहीं नहीं हो सकता है। इसका कारण है कि जब काते गये पेड़ों का तालाबों में क्षय होता है तो इस प्रक्रिया से काफ़ी मेथेन गैस उत्पन्न होती है जो कि औद्योगिक या जीवाश्म ईंधन (fossil fuel) से बनायी जाने वाली ऊर्जा से कहीं ज़्यादा होती है। इसका कारण है पेड़ों में अत्यधिक कार्बन का होना। इसके अलावा मानव निर्मित इस तालाबों के कारण वातावरण की कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस भी मेथेन में परिवर्तित हो जाती है। गौरतलब है कि मेथेन का दुश्प्रभाव कार्बन डाइ ऑक्साइड की तुलना में २१ गुना ज़्यादा होता है।

विस्तृत जानकारी के लिये ये लेख पढ़ें।

बुधवार, फ़रवरी २३, २००५

न्यू साइंटिस्ट पत्रिका का भारत विशेषांक

इस सम्माननीय पत्रिका ने अब भारत के ऊपर एक विशेष अंक निकाला है। इसको पढ़ना न भूलें। हो सकता है कि इसमें कुछ बड़बोलापन हो पर कुछ सत्य भी है। खासतौर से एक डॉक्टर द्वारा कम कीमत की शल्य चिकित्सा के विकास के बारे में।

सोमवार, फ़रवरी २१, २००५

धुआं और तापमान

अब ये काफ़ी हद तक माना जा सकता है कि बढ़ते हुये तापमान का मुख्य कारण है धुआं जो कि औद्योगिक इकाइयों, वाहनों इत्यादि से आता है। जानकारी के लिये लेख पढ़ें। भारत में तो टैंपो इस मामले में इन सबको मात दे देगा। हमारा महान टैंपो।