Dummy post
नुक्ताचीनी का नया पता
घबराईये नहीं नुक्ताचीनी बंद नहीं हुई, बस अब नई जगह होती है ! नुक्ताचीनी का नया पता है http://nuktachini.debashish.com नुक्ताचीनी की फीड का पाठक बनने हेतु यहाँ क्लिक करें।
हालिया नुक्ताचीनी
- सप्ताह 40 के स्वादिष्ट पुस्तचिन्ह - 5 Oct, 2007
- सप्ताह 39 के स्वादिष्ट पुस्तचिन्ह - 28 Sep, 2007
- बीच बजरिया - 24 Sep, 2007
- सप्ताह 38 के स्वादिष्ट पुस्तचिन्ह - 21 Sep, 2007
- सप्ताह 37 के स्वादिष्ट पुस्तचिन्ह - 16 Sep, 2007
Friday, January 19, 2007
Sunday, January 01, 2006
२००६ मुबारक
नुक्ताचीनी के समस्त पाठकों व उनके परिवार को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।
Posted by Debashish at 1/01/2006 09:37:00 AM 1 comments
Wednesday, November 30, 2005
हर तरह से पसंद हैं फिल्में
फिल्में क्यों देखता हूँ? मुझे अच्छा लगता है। हम सभी आक्सीजन, जल और हवा पर जीते हैं पर मन की खुराक कुछ और ही होती है। फिल्में मुझे भाती हैं। जब कभी मन खराब होता है तो यह मुझे गुदगुदाकर हंसा देती है, जब अकेला होता हूँ तो मेरा साथ देती हैं, जब परिवार और मित्र साथ होते हैं तो बढ़िया दोस्त बन जाती है। आजकल तो खैर सिनेमा हॉल जाकर फिल्म देखना मुश्किल होता है तो टीवी या कंप्यूटर ही माध्यम बने हैं सिनेमा दर्शन के। मैंने अक्सर यह सोचा है कि मुझे किस तरह की फिल्में पसंद हैं पर सचाई यही लगती है कि स्थितिजन्य कारणों से कोई फिल्म पसंद आती है और कोई नहीं, कई बार उद्देश्यपूर्ण सिनेमा पसंद आ जाता है तो कई बार बेसिरपैर का धमाल भा जाता है। शायद इसीलिये सलाम नमस्ते पसंद आई पर जेम्स नहीं, सत्या अच्छी लगी पर सेहर नहीं।
फिल्मों के अलावा मुझे फिल्म निर्माण की तकनीक में भी खासी रुचि रहती है, शायद यह बहुत लोगों को पसंद होता है शायद इसीलिये "बिहाईंड द सीन्स" कार्यक्रमों की भरमार है छोटे पर्दे पर। पहले जैकी चैन की फिल्मों के "एंड क्रेडिट्स" के पहले "गूफ अप्स" और खतरनाक शॉट्स के नज़ारों का इंतज़ार रहता था आजकल तो तकरीबन हर फिल्म में यह करने का रिवाज़ हो गया है। बहुत पहले मुम्बई दूरदर्शन से एक कार्यक्रम आता था, "बातें फिल्मों की" जिसे बेंजामिन गिलानी प्रस्तुत करते थे, यह फिल्म निर्माण विधा पर बड़ा अच्छा कार्यक्रम था, तब मैं छोटा था पर मुझे यही लगता था की मैं बड़ा होकर फिल्म निर्माण ज़रूर करूंगा, बाबा ने एक मिनी प्रोजेक्टर भी ला दिया था, फिल्मों के टुकड़ों को माँ की साड़ी तब तक दिखाना जब तक की ब्लब वाला टीन का डिब्बा इतना गर्म न हो जाय जब तक की जलने की बू आने लगे। गणेशोत्सव के समय मुहल्ले के सबसे बड़े मैदान पर फिल्म दिखाई जाती तो बड़ा मज़ा आता, चादर बिछा कर प्रोजे्क्टर के सबसे नज़दीक बैठने की होड़ होती, उससे निकलते प्रकाश के रेले में तैरते कणों पर ही नज़र टिकी रहती, और जब गर्मी कई बार रील पिघलकर टूट जाती तो ऐसा लगता की परदे पर किसी ने मर्तबान भर शहद फेंक दिया हो, तब अपना मिनी प्रोजेक्टर याद आ जाता।
फिल्मों में जो चीज़ भाती है वह संगीत भी है। फिल्मी संगीत तो खैर भारतियों की रुह में बसती है। आजकल संगीत फिल्म के काफी पहले जारी हो जाता है, फिर चैनलों पर लगातार बजते बजते हिट भी घोषित हो जाता है। बावजूद इसके मुझे लगता है कि कर्णप्रिय संगीत अक्सर सुनने को मिल जाता है, हीमेश रेशमिया, प्रीतम जैसे नये लोग नये संगीत के साथ मकबूल हो रहे हैं। आजकल की फिल्मों में हॉलीवुड की नकल की बजाय उसकी तर्ज पर चलने का माहौल गर्माया है, "एक अजनबी" जैसी फिल्मों के साथ हॉलिवुड के कथित निर्देशक भी मैदान में हैं। इससे अब्बास मस्तान, विक्रम भट्ट और संजय गुप्ता जैसे निर्देशकों को, जो या हॉलिवुड की फिल्मों से सीधे "इंस्पायर" हो जाते रहे हैं को सबक मिलेगा। हमें हॉलीवुड जैसी प्रोफेशनलिज़्म और प्रबंधन तथा तकनीकी कौशल को अपनाने की ज्यादा ज़रूरत है बनिस्बत की इनकी पटकथाओं का अनुसरण करने की। फिल्में जल्दी बनें, पेशेवराना रूप से बने, तो लागत भी घटे।
फिल्में मुझे हर रूप में पसंद आती हैं, चाहे फंतासी हो या यथार्थ के नज़दीक। आजकल की फिल्मों में खास यह बात अच्छी लगती है कि तकनीक बढ़िया हुई है और अदाकारी से भी हैम और मेलोड्रामा का अंश लगभग खत्म हो गया है। सुना है की भारतीय कंपनियाँ एनीमेशन और स्पेशल अफेक्ट्स में हॉलिवुड से काम पा रही हैं। मुझे इंतज़ार उस दिन का रहेगा जब हम जूरासिक पार्क जैसी कोई करिश्माई फिल्म मूल पटकथा और अपने माद्दे पर बनायेंगे, जिसे आस्कर में किसी से होड़ नहीं करनी होगी।
Posted by Debashish at 11/30/2005 08:30:00 AM 0 comments
Thursday, October 27, 2005
आवरण ~ चिट्ठों के ब्लॉगर टेम्प्लेट
काफी दिनों से ये विचार मन में मचल रहा था। वर्डप्रेस के रेड ट्रेन जैसे कुछ ब्लॉग थीम पहली ही नजर में मन को भा गये थे पर अपने ब्लॉगर के ब्लॉग पर उसे लाने की बात पर मन मसोस कर रह जाता था। अब थोड़ा खाली समय मिला तो सोचा क्यों न खुशियाँ बाँटी जाय। बस इसी से जन्म हुआ आवरण का। आवरण के माध्यम से पहले पहल मैं वर्डप्रेस के दो लोकप्रिय थीम ब्लॉगर के लिये टेम्पलेट की शक्ल में पेश करने वाला हूँ। शायद यह पहली बार होगा कि हिन्दी चिट्ठाकारों के लिये "तैयार" टेम्पलेट उपलब्ध कराये जा रहे हों। इस कार्य पर आपकी प्रतिक्रिया के अलावा मैं चाहुँगा आपके योगदान की भी। यदि आप को कोई थीम बेहद पसंद है और आप उसे ब्लॉगर के लिये चाहते हैं तो बेहिचक बतायें, संभव हुआ तो हम प्रयास ज़रूर करेंगे उसे रूपान्तरित करने का। और यदि आप नये टेम्प्लेट बनाने को उत्सुक हैं तो आईये, मंच तैयार हैं।
Posted by Debashish at 10/27/2005 03:35:00 AM 2 comments
Tuesday, October 04, 2005
खेलों देशभक्ति का विकेंद्रीकरण
ज़रा इस सवाल का जल्दी से बिना ज़्यादा सोचे जवाब दें। भारत का राष्ट्रीय खेल कौन सा है?
अगर आप सोच में पड़ गये या फिर आपका जवाब क्रिकेट, टेनिस जैसा कुछ था तो जनाब मेरी चिंता वाजिब है। हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी है। पर पिछले कई दशकों में खेलों की हवा का रुख कुछ यों हुआ है कि हम मुरीद बने बैठे हैं एक औपनिवेशिक खेल के। और इस खेल में भी चैपल-गांगुली की हालिया हाथापाई दे तो यही पता चलता है कि खेलों पर आयोजक, चैलन, चयनकर्ता और राजनीति इस कदर हावी हो गई है कि अब खिलाड़ी और कोच भी अपने हुनर नहीं राजनीतिक दाँवपेंचों के इस्तेमाल में ज्यादा रुचि दिखाते हैं।
हम बरसों से सुनते देखते आये हैं राष्ट्रीय और आलम्पिक्स जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में चयन के सियासी खेल की, कहानी जो हर बार बेहयाई से दोहराई जाती है। हमारे स्क्वॉड में जितने खिलाड़ी नहीं होते उनसे ज़्यादा अधिकारी होते हैं। हॉकी जैसे खेल, जिनमें हम परंपरागत रूप से बलशाली रहे, में हम आज फिसड्डी हैं और निशानेबाजी जैसे नए खेलों पर अब हमें आस लगानी पड़ रही है। 100 करोड़ की जनसंख्या वाला हमारा राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में एक स्वर्ण पदक के लिये तरसता है।
हम यह भी सुनते रहते हैं कि भारतीय ट्रैक एंड फील्ड आयोजनों में स्टैमिना के मामले में युरोपिय देशों का सामना नहीं कर सकते, या फिर कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने जानबूझ कर हॉकी जैसे खेलों के नियमों में इस कदर बदलाव किये हैं कि सारा खेल ड्रिबलिंग जैसे एशियाई कौशल की बजाय दमखम का खेल बन गया। मुझे यह समझ नहीं आता कि कब तक हम ये बहाने बनायेंगे। चीन भी तो एशियाई देश है और हॉकी पाकिस्तान भी खेल रहा है। अंतर्राष्ट्रीय खेलों को छोड़ें, हमारे अपने घरेलू स्तर पर कितने बड़े आयोजन होते हैं? क्या स्कूलों में क्रिकेट के अलावा किसी और खेल पर जोर दिया जाता है?
जाने आपने यह टाईम्स में प्रकाशित गेल आम्वेट का यह हालिया लेख पढ़ा की नहीं! उन्होंने अमरीका से तुलना करते हुये बहुत ही अच्छा विश्लेषण पेश किया है। मुझे उनका यह विचार बड़ा रोचक लगा कि, "छोटी या स्थानीय देशभक्ति से खेलों का प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण हो सकेगा और इससे खेलों की राष्ट्रीय देशभक्ति फलेगी फूलेगी ही"। गेल का कहना यही है कि खेल की देशभक्ति भारत में केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों के लिये ही सामने आती है जबकि अमेरिका में ऐसा नहीं हैं।
तकरीबन कोई भी ध्यान नहीं देता अगर अमेरीका किसी अन्य देश के साथ खेल रहा हो जब तक की मामला आलम्पिक्स का न हो। अमेरिका में बड़े खेल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बल्कि महानगरीय या राज्य विश्वविद्यालय स्तर पर होते हैं...वहाँ छोटे शहरों, स्कूलों के स्तर पर देशभक्ति है। हर हाईस्कूल का अपना चिन्ह है, गीत है, विरोधी हैं। अमेरिका का ध्यान केवल फुटबॉल, बास्केटबॉल, बेसबॉल जैसे बड़े खेल ही नहीं खींचते। बच्चे हर स्पर्धा में भाग लेते हैं, बैडमिन्टन, टेबल टेनिस, बॉली बॉल, आइस हॉकी, जो भी खेल हो।
निःसंदेह दिक्कतें और भी हैं। कब्बडी, खोखो, मलखम्ब जैसे घरेलू खेलों के खिलाड़ियों का न तो नाम हमारे राष्ट्रीय अखबारों में आता है न ही कोई उन पर पैसा लगाने को तैयार होता है। पैसों की बात तो अहम है, खास तौर पर जब खेल टेनिस जैसा ग्लैमर वाला न हो। कई दफा यह लगता है कि खेलों का बजट आखिर रक्षा या विज्ञान जितना क्यों नहीं होना चाहिये? गेल का इस विषय पर विचार अलग है। उनका कहना है कि सरकारी पैसे पर निर्भरता हो ही क्यों? अमरीका के विश्वविद्यालय खेलों के मर्केन्डाईज़ और टिकटों से कमा लेते हैं, खेलों से कमाई होती है तो इनके भरोसे गरीब परिवारों के बच्चे खेल वज़िफों पर विश्वविद्यालय में पढ़ लेते हैं। निजी फंडिंग से ही स्टेडियमों और खेल का साजो सामान का जुगाड़ होता है।
सानिया मैनिया के दौर में क्या कोई इस बात को सुनेगा?
टैगः देशभक्ति, कब्बडी, खेल, सानिया मिर्ज़ा
Posted by Debashish at 10/04/2005 08:30:00 PM 0 comments
Monday, October 03, 2005
लताजी को नहीं पता जी?
व्यक्तिपूजन हमारे यहाँ की खासियत है। मकबूलियत मिल जाने भर की देर है चमचों की कतार लग जाती है। मैंने एक दफा लिखा था राजनीति में अंगद के पाँव की तरह जमें डाईनॉसारी नेताओं की, दीगर बात है कि आडवानी ने बाद में दिसंबर तक तख्त खाली करने की "घोषणा" की। पर समाज के अन्य जगहों पर यह व्यक्तिपूजन चलता रहता है। हाल ही में प्रख्यात पार्श्व गायिका लता मंगेशकर का ७६वां जन्मदिवस था। टी.वी. पर अनिवार्यतः संदेसे दे रहे थे दिग्गज लोग। लता ग्रेट हैं। बिल्कुल सहमत हूँ। एक नये संगीत निर्देशक, जिनका संगीत आजकल हर चार्ट पर "रॉक" कर रहा है और जिन्हें अचानक पार्श्वगायन का भी शौक लगा है, ने कहा वे आज भी इंतज़ार कर रहे हैं कि कब लता दीदी उनकी किसी फिल्म में गा कर उन पर एहसां करेंगी। माना कि भैये वक्त रहते तुम गवा नहीं पाये उनसे, जब वे गाती थीं तब तुम नैप्पी में होते थे, पर कम से कम उनके गाने के नाम पर श्रोताओं को गिनी पिग मान कर प्रयोग तो ना करो यार! जिनकी आवाज़ अब जोहरा सहगल पर भी फिट न बैठे उसे तुम जबरन षोडशी नायिकाओं पर फिल्माओगे? हद है!
जावेद अख़्तर ने सही कहा, लता जैसी न हुई न होगी। बिल्कुल सहमत हूँ। मुझे बुरा न लगेगा अगर आप उन्हें नोबल सम्मान दे दो, उनकी मूर्ति बना दो, मंदिर बना दो, १५१ एपिसोड का सीरियल बना दो चलो, पर सच तो स्वीकारो। मानव शरीर तो एक बायोलॉजीकल मशीन ठहरी, जब हर चीज़ की एकसपाईरी होती है तो क्या वोकल कॉर्ड्स की न होगी? मुझे लता जी के पुराने गीत बेहद पसंद है, उनके गाये बंगला गीत भी अद्वितीय है, पर "वीर ज़ारा" में उन को सुन कर लगा कि मदन मोहन भी अपनी कब्र में कराहते होंगे। बहुत राज किया है इन्होंने, लता आशा के साम्राज्य में सर उठाने को आमादा अनुराधा पौडवाल को गुलशन कुमार जैसे लोगों का दामन थामना पड़ा, और जब तक आवाज़ का लोहा माना तब तक बेटी गाने लायक उम्र में पहुँच गई। आज भी टेलेंट शो न जाने कितने ही माहिर लोगों को सामने लाते हैं पर सब "वन नंबर वंडर" बन कर गायब हो जाते हैं। श्रेया घोषाल जैसे इक्का दुक्का ही नाम पा सके।
मेरे विचार से यह ज़रूरी है कि निर्माता और संगीत निर्देशक इस बात को समझे और लता स्तुति छोड़ें, हर चीज़ का वक्त होता है, लता आशा अपने अच्छे वक्त को बहुत अच्छे से बिता चुकी हैं, वानप्रस्थ का समय है, उन्हें इस का ज्ञान नहीं हुआ पर आप तो होशमंद रहें।
टैगः व्यक्तिपूजन, लता मंगेशकर, मदन मोहन, वीर ज़ारा
Posted by Debashish at 10/03/2005 08:30:00 PM 6 comments
Sunday, October 02, 2005
याहू की ब्लॉग सर्च?
खबर तो लीक पहले भी हुई थी पर गूगल भैया ब्लॉग खोज का यंत्र पहले ले आये बाजार में। सुनते हैं कि अब याहू कमर कस चुका है अपने ब्लॉग खोज तंत्रांश को मैदान में उतारने के लिये। ब्लॉगिंग के तो दिन फिर गये लगते हैं!
Posted by Debashish at 10/02/2005 11:01:00 PM 0 comments
गूगल चींटी
गूगल अब एक प्रजाति का भी नाम है। खबर है कि चींटीयों की एक नई प्रजाति का नाम "प्रोसिरेटियम गूगल" रखा गया है। चींटियाँ खोजी प्रवृत्ति की तो होती ही हैं पर यह नाम गूगल अर्थ के द्वारा दी गई मदद के एवज में है। देखा? कोई भी काम छोटा नहीँ होता!
Posted by Debashish at 10/02/2005 10:57:00 PM 0 comments
कौड़ियों से करोड़ों?
जो यह हजरत कह रहे है कुछ कुछ वैसा ही ख्याल मेरा भी है। पर पहले बात इस पेंटिंग, जिसका नाम यकीनन कुछ भी हो सकता था, "महिशासुर" की, यह तैयब मेहता साहब की पेंटिंग है। आपने सुना ही होगा कि यह तिकड़म १ नहीं २ नहीं ३ नहीं पूरे ७ करोड़ रुपये में किसी हज़रत ने खरीदी है। हम यह बहस नहीं करे तो अच्छा कि यह पैसा पसीने की कमाई है या नहीं या फिर खरीददार की मानसिक हालत कैसी है। अब सुनिये कथित जानकार लोग क्या कहते हैं इसके बारे में:
- तैयब ने मॉडर्न आर्ट की नई भाषा रची है। उनका रंगों का "सीधा और तीक्ष्ण" प्रयोग उनके युग के चित्रकारों के हिसाब से अनूठा है।
- तैयब का तरीका नायाब है, तिस पर महिशासुर का विषय जीवन और आशा की भावना जगाता है।
गौरतलब है कि तैयब कि पिछली एक पेंटिंग जो "काली" देवी पर बनी थी १ करोड़ में बिकी थी। मुझे नहीं मालूम कि ये बनाने और खरीदने वाले पागल है या नहीं पर जो बात साफ साफ समझ आती है वह यह कि पैसे का यह लेनदेन कोई सीधी सच्ची कहानी तो नहीं है। खरीदने की "एन.आर.आई शक्ति" सारे रिकार्ड तोड़ रही है, लोग अपना कलेक्शन बना कर शेखी बघारने के लिये कूछ भी कीमत दे रहे हैं कचरा कला के लिये। बिलाशक कंटेम्पररी आर्ट पर खामखां का हाईप बना रखा है मीडिया ने। ग्रामीण हस्तकला कलाकारों की कला की नकल करने वाले लोगों के वारे न्यारे हैं और असली कलाकार दो जून की रोटी के लिये तरस रहे हैं।
खैर, जब तक अंधेरा कायम है रोटी सेंकतें रहेंगे तैयब और उनकी बेशर्म जमात।
[उत्तरकथाः बड़ा अजब संयोग है, मैंने यह चिट्ठा १ अक्टूबर को लिखा पर प्रेषित नहीं कर पाया, आज देखता हूँ कि तैयब की यह कृति टाईम्स और एक्सप्रेस में भी चर्चा का सबब बनी है। लगता है मेरे विचार संप्रेषित भी हो रहे हैं ;) बहरहाल इससे मुझे जो बात पता चली वह यह है कि इन चित्रों के इतने हाईप्ड कीमत पर बिकने पर भी इनके बनाने वालों को कोई रॉयल्टी नहीं मिलती। अब शायद इस लेख का आखिरी वक्तव्य मुझे वापस ले लेना चाहिये!]
टैगः तैयब मेहता, महिशासुर, मॉडर्न आर्ट, कंटेम्पररी आर्ट
Posted by Debashish at 10/02/2005 07:08:00 AM 1 comments
Friday, September 30, 2005
नया ब्लॉग वर्गीकरण
क्षेत्रियता और विषय के आधार पर ब्लॉगों के वर्गीकरण तो होते रहते हैं, पहली बार देखा धर्म के नाम पर वर्गीकरण। गॉडब्लॉगकॉन क्रिस्तान ब्लॉगरों का पहला सम्मेलन है जो कथित रूप से इस समुदाय के ब्लॉगरों को एकजुट करेगा। एकजुट ही करना भाया, पृथकता से डर लगता है!
Posted by Debashish at 9/30/2005 05:45:00 AM 1 comments
नासा और गूगल
खबर है कि नासा और गूगल अब मिल कर काम करेंगे, दोनों एक विशाल शोध केंद्र बनाने जा रहे हैं। क्या हमारे लालफीताशाह मुल्क में हम इसरो से यह उम्मीद कर सकते थे कभी?
Posted by Debashish at 9/30/2005 12:15:00 AM 1 comments
Tuesday, September 27, 2005
पब्लिक सब जानती है
क्या गांगुली की कप्तानी २००५ के अंत तक टिकेगी? क्या राहुल गांधी २०१० में भारत के प्रधानमंत्री होंगे? ऐसे सवालों के जवाबों की उम्मीद तो अब तक तो हम बेजॉन दारूवाला जैसे लोगों से ही करते थे पर अब ये कयास वैज्ञानिक प्रयासों से काफी सच भी साबित हो सकते हैं। मेरे पसंदीदा चिट्ठाकारों में शामिल नितिन पई और श्रीजीत ने प्रेडिक्शन मार्केट के आर्थिक सिद्धांत पर एक नया प्रयोग किया है, पब्लिक ज्ञान के रूप में। प्रेडिक्शन मार्केट का सिद्धांत कहता है कि अगर ढेर सारे लोगों की व्यक्तिगत राय को सम्मिश्रित कर दिया जाय तो नतीजे वास्तविक नतीजों के काफी करीब होते हैं, जिसका ज़िक्र जेम्स सोरोविकी की कामयाब पुस्तक विस्डम आफ क्राउड में भी है।
पब्लिक ज्ञान में आप अनुमान शेयर बाजार की तईं लगाते हैं फर्क बस इतना है कि खर्च कुछ नहीं करना पड़ता, सारा कारोबार रूपये या डॉलर में नहीं "मूलर" में होता है। मंच पर फिलहाल प्रवेश के लिये निमंत्रण की दरकार होगी। नितिन के इस अभिनव प्रयास के लिये ढेरों शुभकामनायें! स्मार्ट मॉब्स क्या कर सकती हैं यह इसका बेहतरीन उदाहरण बन कर उभरेगा।
टैग: प्रेडिक्शन, मार्केट, पब्लिक, ज्ञान, मूलर, नितिन, पई
Posted by Debashish at 9/27/2005 11:10:00 PM 1 comments
आज तन्मय का जन्मदिन
आज यानि २८ सितंबर २००५ को मेरे पुत्र तन्मय का जन्मदिन है जो अब तीन वर्ष के हो चुके हैं। बेटा तो अभी हैं दादा दादी के पास तो मुझे भी मन मसोस कर फोन पर ही बधाई देनी पड़ेगी।
बूबू हम सभी की ओर से तुम्हें हैप्पी बर्थडे और दीर्घ, सुखी और स्वस्थ जीवन के लिये आशीर्वाद और प्यार। तुम जीयो हज़ारों साल, साल के दिन हो पचास हज़ार!
Posted by Debashish at 9/27/2005 11:44:00 AM 12 comments
Monday, September 26, 2005
बोले तो...
- सिक्स अपार्ट २००६ में छोड़ने जा रहा है नया शगूफा, प्रोजेक्ट कॉमेट, जो कहते हैं कि लाईव जर्नल, टाईप पैड और मूवेबल टाईप का सम्मिश्रण है। अब यह कॉमेट कैसा होगा यह तो वो ही जाने पर म्हारे को तो जै याहू ३६० डिग्रीज़ जैसी ही बात लगे है।
- फीड के दीवानों के लिये एक और नया आनलाईन फीडरीडर है फिंडोरी। ब्लॉगलाईंस का सफाया करने को उतारु यह हजरत न केवल कोई भी OPML सूची बल्कि ब्लॉगलाईंस के सब्सक्रिप्शन्स को भी इम्पोर्ट करने का माद्दा रखते हैं। कहा जा रहा कि यह बहुत "तेज़" है, यह बात है तो आज़मा कर देखना पड़ेगा!
- नाम कमाना है तो जर्मनी के देशवैले द्वारा आयोजित ब्लॉग अवार्ड में शुमार हों। बताना तो वैबी अवार्ड के बारे में भी चाहता हूँ पर यहाँ तो कुछ जीतने के लिये दमड़ी लगेगी। दूर से प्रणाम!
Posted by Debashish at 9/26/2005 05:27:00 AM 1 comments
Sunday, September 11, 2005
अब तो छोड़ो मोह!
हाल ही में हास्य कवि प्रदीप चौबे के दो लाईना पर पुनः नज़र पड़ीः
काहे के बड़े हैं,
अगर दही में पड़े हैं।
सत्ता को लालायित भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के बारे में यह काफी सटीक वचन हैं। सत्ता से विछोह के बाद से उपरी तौर पर सुगठित दिखने वाले संगठन की अंदरूनी दरारें तो खैर काफी दिनों से नज़र आ ही रही थीं। सुषमा स्वराज, प्रमोद महाजन, उमा भारती जैसे अनेकों टकटकी लगाये बैठे रहे हैं की पार्टी में उनका कुछ दबदबा कायम हो। राजनीति के पानी की सचाई यही है कि जो नेता मुखरित रूप से सतह पर नज़र आते हैं उनका वज़न वैज्ञानिक नियमों के तहत हल्का ही होता है। जिन्ना की तारीफ में कसीदे पढ़ने के बाद से ही आडवाणी का सिंहासन डोल उठा था, खुराना जैसे लोग इस फ़िराक में थे कि इसी तेज़ कैटरियानी बयार की ओट में अपना उल्लू सीधा हो जाय तो अच्छा। खुराना और उमा जैसे नेताओं का पार्टी में आधार ठीकठाक है पर समय समय पर पार्टी इनसे कर्त्तव्य पालन के नाम पर बलिदान भी मांगती रही है, उमा को मध्यप्रदेश का ताज़ सौंपना पड़ा गौर को तो खुराना भी हाशिये पर आने को मजबूर हुए। कल वाजपेयी और आडवाणी के मनमुटाव का फायदा ले कर बचने की सोच रहे खुराना के राजनैतिक करियर की ताबूत में आखिरकार अंतिम कील जड़ ही दी गई, हालांकि काँग्रेस शायद जल्द ही प्राणवायु पुनः फूंकने का प्रयास करे। खुराना के खुर कतरने के पीछे पार्टी का साफ संकेत यहः की पंगा ना लै मेरे नाल।
वाजपेयी के हालिया राजनैतिक चुप्पी से उपजते मोहभंग के शब्द से मेरा यह विचार बना था कि चलो शायद भाजपा इस बारे में राजनैतिक अपवाद बने और शीर्ष नेता ससम्मान पदत्याग कर नये लोगों को, खास तौर पर पुराने मोहरों को, आगे आने का मौका दें। पार्टी की सेहत की ज़मीन के लिये भी यह गुड़ाई अच्छी होती, नीचे की उपजाउ ज़मीन उपर आती और खरपतवार भी साफ होते। पर परिणाम में फिर वही ढाक के तीन पात! फिर वही पॉवर स्ट्रगल, वही पुरानी लड़ाई वर्चस्व की। अरे भैये, ८५-९० पार कर लिये आपने, जाने कब बुलावा आ जाय, जितनी इज़्जत और पैसा बनाना था सो तो बना ही लिया होगा, अब तो छोड़ो मोह। पद पर रह कर भी क्या रहे हो? क्या अगले चुनाव की ज़मीनी तैयारी है? क्या सहयोगी दल से अभी भी यारी है? इन दलों की छोड़ो, क्या संघ और शिव सेना अब भी मन के मीत हैं? क्या संगठन की मजबूती भीत है? हर रोज़ तो आप लोग बयान बदलते हो, दोनों शीर्ष नेताओं में ही नहीं पट रही। फिर काहे के बड़े हो? सचाई का सामना करो, उम्र का लिहाज़ करो, सचमुच बड़ा बने रहना है तो बड़ा निर्णय तो लेना ही होगा।
Posted by Debashish at 9/11/2005 10:26:00 AM 5 comments
Thursday, September 08, 2005
मंगल पर दंगल
कहने को तो हम एक मुक्त समाज हैं, जहाँ हमें बोलने की मुकम्मल आज़ादी है पर यही आज़ादी बहस के नाम पर रोक टोक लगाने के भी काम आ जाती है। फिल्में तो ऐसे मामलों में ज्यादा प्रकाश में आती हैं। कभी आपत्ति फिल्म के टाईटल पर तो कभी एतराज़ कथानक या किरदार पर। आमिर खान की मंगल पांडे को पहले तो खराब प्रेस ज़्यादा मिली फिर फिल्म पिट भी गई। अव्वल तो ऐतिहासिक और पौराणिक पटकथाओं के कद्रदान ही कम होते हैं, तिस पर आज के ज़माने में चीज़ रीमिक्स न की हो तो जंचती नहीं। बहरहाल, आमिर मेहनती अभिनेता हैं, फिल्म के लिये स्वयं को "झोंक" देते हैं (वैसे जिस तरह से वह स्वयं को थोपते हैं, उस लिहाज़ से इस वाक्य में निर्देशक "जोंक देते हैं" जुमले का भी प्रयोग सही मानते), अपने होमवर्क और रीसर्च का गुणगान करते वे थकते नहीं थे। इस बीच बी.बी.सी के एक कर्मी मधुकर उपाध्याय ने १८६० में ब्रितानी सेना के एक सूबेदार सीता राम पाण्डेय की आत्मकथा का अवधी रूपांतर जारी किया है। कहना न होगा कि मौका भी था और दस्तूर भी। अब उपाध्याय का कहना है कि केतन मेहता और आमिर का फिल्म के कथानक की ऐतिहासिक सचाई का दावा बकवास है। कहा कि उन्होंने कोई शोध नहीँ किया, यहाँ तक कि दिल्ली स्थित राष्ट्रीय पुरालेखागार में तक नहीं गये जहाँ मंगल पांडे के कोर्ट मार्शल आर्डर की मूल प्रति संचित है। यानी कुल जमा यह लांक्षन लगा दिया कि फिल्म ऐतिहासिक रूप से सटीक नहीं हैं।
किसी ऐतिहासिक या पौराणिक घटनाक्रम के नाट्य रूपांतरण में वाकई यह बड़ी दिक्कत है। निर्माता पर वाहवाही व ईनामात बटोरने और बॉक्स आफिस, सब का दबाव रहता है। ओथेंटिसिटी व ऍक्यूरेसी का दावा करना पड़ता है और आलोचक तुरंत जुट जाते हैं दावों में दोष निकालने पर। वैसे न मैंने यह फिल्म देखी है और न ही १८५७ के संग्राम की मेरी जानकारी स्कूली ज्ञान से ज्यादा है, पर मेरा विचार है कि निर्माताओं को अब परिपक्व हो कर ऐतिहासिक और पौराणिक घटनाओं में "फिक्शन" या काल्पनिक घटानक्रम का समावेश करने पर उसे स्वीकारने का साहस करना होगा। क्रियेटिव फ्रीडम के आधार पर मुझे यह स्वीकार्य होगा की ऐसी फिल्म बनें जिस में पटकथाकार यह कल्पना करे कि महात्मा गांधी आज जीवित होते तो क्या होता, या फिर कि महाभारत में अर्जुन किसी हालत में भी शस्त्र नहीँ उठाते तो कथानक की दिशा क्या होती। दिक्कत यही है कि निर्माता स्वयं भी परिभाषित नहीं करना चाहते असलियत और कल्पना के दायरे को। जहाँ पौराणिक घटनाओं से अक्सर धार्मिक संवेदनाएँ जुड़ी रहती हैं, तो ऐतिहासिक किरदारों के साथ समुदायों की प्रतिष्ठा और विश्वास का सवाल पैदा हो जाता है। हाँ, ऐतिहासिक घटनाओं के फिल्मीकरण में रिस्क अपेक्षाकृत कम होता है।
मेरे पसंदीदा निर्देशकों में से एक श्याम बेनेगल की एक फिल्म "कलयुग" में उन्होंने महाभारत को समकालीन सन्दर्भ में बयां किया था, एक फिक्शनल कथा का जामा पहनाकर। पूरी फिल्म में कहीं भी महाकाव्य का हवाला नहीँ दिया, निर्णय दर्शकों पर छोड़ दिया; पात्रों का पौराणिक टेम्पलेट पर चित्रण किया पर हूबहू फॉलो नहीं किया। यह दीगर बात है कि फिल्म उतनी चली नहीं, शायद सन्दर्भ दर्शकों के पल्ले नहीं पड़ा। और शायद इसी बात से फिल्म निर्माता डरते भी हैं। संदेश अगर परोक्ष रूप से, प्रतीकात्मक रूप से दिये जाय, कथानक अगर क्लिष्ट हो तो, फिल्म क्लासेस की बजाय प्रज्ञावान मॉसेस तक सिमट कर रह जाती है। मंगल पांडे फिल्म की कहानी १८५७ के स्वातंत्र्य संग्राम की पृष्ठभूमि में पांडे जैसे सैनिकों के क्रोध से समाज के भीतर बर्तानी हुकुमत और नीतियों के खिलाफ बढ़ते रोष का चित्रण संभव था, पर शायद यह फिर मॉसेस कि फिल्म न रहती, यह किसी कला फिल्म या एब्सट्रैक्ट चित्र जैसा हो जाता, जो चाहे सो मतलब निकाल ले। दूजा सच यह कि आज के ज़माने में हमें हर कथा में सुपरमैन नुमा किरदार चाहिये ही, यह सुपरमैन "डी" के पढ़े लिखे अंडरवर्ल्ड सरगना या "बंटी और बबली" के बंटी हो सकते हैं जो थ्रिल के लिये जुर्म करते है या फिर "सेहेर" का आदर्शवादी एसीपी जो कर्तव्य के लिये जान दे देता है, या फिर डबल्यू.डबल्यू.एफ हूंकार भरता बलवाकारी मंगल। तीजा ये कि, भैया टाईमिंग तो सही रखो, जब "भगत सिंह" टाईप फिल्मों का बाजार गरम था तब आपने ये बनानी शुरु की और फिर तीन चार साल तक बनाते ही रहे और यहाँ ज़माना वाया शाहिद करीना एम.एम.एस "नो एंट्री" तक आ पहुंचा, अब आप परोस रहे हो। हैं भई!
वैसे निर्माताओं से ज्यादा दर्शकों पर निर्भर होता है कि दिशा क्या होगी। यहाँ "इकबाल" भी बनती है और "क्या कूल है हम" भी। तो उम्मीद यही की जाय कि प्रयोगधर्मी फिल्मकार ऐतिहासिक और पौराणिक विषयों को तौल कर लें, पर लें ज़रूर। सच्ची बनाओ या कोरी काल्पनिक, पर बनाओ दिल से। फिर नतीज़ा भले ही डेविड सेल्टज़र लिखित "ओमेन" जैसा बाईबल का सरलीकृत बयान हो या फिर अशोक बैंकर के "रामायण" की तरह यप्पी और टेक्नो, पसंद ज़रूर की जायेगी। आखिरकार बाज़ार में पिज़्ज़ा और नान दोनों की खपत होती है।
Posted by Debashish at 9/08/2005 12:24:00 PM 1 comments
Sunday, September 04, 2005
अब अबला कहाँ?
फिल्म माई वाईफ्स मर्डर में अनिल कपूर के निभाये पात्र के हाथों अपनी पत्नी का कत्ल हो जाता है। यह फिल्म वैसे किसी चर्चा के लायक नहीं हैं, पर स्टार के ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो में व्यंग्य किया गया कि जहाँ महिलायें कथानक में गुस्सेल पति के बड़ी आसानी से छूट जाने पर खफा हैं तो पतियों को "एक्सीडेंट" के आईडिया मिल रहे हैं। कथानकों में आम तौर पर पति का निर्दोष पक्ष यदा कदा ही दिखता है। यह एक विचित्र सत्य भी है कि हमारे लतीफों में नारी बेलनधारी खलनायिका तो साहित्य में पीड़ित नायिका के रूप में चित्रित होती रही हैं। इन दोनों पक्षों में पुरुष का चित्रण दयनीय ही रहता है। अब मुझे नारी विरोधी या मेल शॉवीनिज़्म के आरोपों से अलंकृत न किया जाय तो मैं यह कहुँगा कि कम से कम आज के युग में छुइमुइ, निरीह और भारतीय संस्कारों के बुरके में कैद नारी की छवि अपने मन में चित्रित करना मुश्किल ही होता जा रहा है। ज़माना बदल गया है और स्त्री हर पल यह जता भी रही हैं। सिनेमा और टीवी के पर्दों पर कंधा न सही अन्य सारे अंग पुरुषों के साथ मिला कर आगे बढ़ रही हैं। मुम्बई व पुणे आने के बाद मैंने देखा कि दरअसल जो सिनेमा में दिख रहा है वो समाज का अक्स ही है, सिर्फ अंतर्वस्त्र दर्शना जीन्स (मराठी में जिसे मज़ाक में ABCD यानि "अगो बाइ चड्डी दिसते" भी कहते हैं) ही नहीं आर्दश भी हैं आल टाईम लो। पुणे यूनिवर्सिटी हो या सिम्बी, देर रात तक काममोहित जोड़ों को मंडराते देखना आम बात है। मेरे एक मित्र ने कहा कि पुणे मुम्बई में ज्यादा सुरक्षा होने का कॉलेज षोडषियां अब नाजायज फायदा उठा रही हैं।
बहरहाल, अबला नारी का जो तमगा साहित्य में जड़ा जा चुका है वह शहरी क्षेत्र में किसी भी हालत में लागू नहीं हो सकता। यहां की नार गाड़ियाँ ही नहीं हर जगह "स्पीड" की ख्वाहिशमंद हैं। नौकरियों ने उन्हें जरूरी आत्मविश्वास भी दिया है। जो नौकरी न भी करती हों पर जिनके मम्मी पापा ने उन्हें बहुत कुछ दिया है उनके पतियों को भी यह बात भूलने नहीं दी जाती। दरवाज़े पर नेमप्लेट से लेकर, मेडेन सरनेम रखने की जिद तक। "माई वाईफ्स मर्डर" में बोमन ईरानी के निभाये ईंस्पेक्टर के किरदार को उसकी पत्नी यह भूलने नहीं देती कि उसकी पदौन्नति "पापा" की कृपा है। आज लक्ष्मण का कार्टून (देखें चित्र) देखा तो फिल्म का यह अंश याद आ गया। तो भैया अगली दफा किसी शहरी अबला नारी के संतापों की कहानी देखने पढ़ने के पहले हम नमकदानी साथ ज़रूर रखेंगे।
Posted by Debashish at 9/04/2005 09:59:00 AM 3 comments
Friday, September 02, 2005
पौ बारह
और मुझे लगता था कि ब्लॉगिंग कर भारी पैसा नहीं बनाया जा सकता। डैरेन हर रोज लगभग २३००० रुपये कमाते हैं।
Posted by Debashish at 9/02/2005 01:53:00 AM 3 comments
Saturday, August 06, 2005
छा न पाई बदली
टैगिंग का जोर बढ़ता जा रहा है। इस बीच देसीपंडित पर देखा तो पता चला टैगक्लाउड यानी "टैगों की घटा" के बारे में। मज़ेदार चीज़ है, काफी कुछ टेक्नोराती टैग जैसी। अब जब हिंदी ब्लॉगमंडल में ८० से ज्यादा चिट्ठों का जमघट हो गया है तो टैगक्लाउड से ब्लॉगमंडल में चलती बातचीत के लोकप्रिय विषय जानने के लिये यह बेहतरीन तरीका होता और मैं यह बदली चिट्ठाविश्व पर डालने की सोच रहा था, दुर्भाग्य से यह अंग्रेज़ी शब्द ही बटोरकर दिखाता रहा। टैगक्लाउड वालों को लिखा कोई जवाब न आया, फिर पता लगा कि हजरत याहू की टर्म एक्सट्रैक्शन प्रणाली की मदद लेते हैं। आनन फानन एक जुगाड़ बनाया और तफ्तीश की तो पता लगा कि परेशानी की जड़ यही है, यह अंग्रेज़ी के अलावा कोई और भाषा पर ध्यान नहीं देता। इस टेस्ट पृष्ठ पर हिन्दी के वाक्यांश दे कर देखें तो पता लगेगा।
वैसे याहू की REST पर आधारित यह मुफ्त सेवा सीधी और सरल है। एक्टिवेशन कुंजी पट मिल जाती है और गति तो कमाल की है, वाक्यांश चाहे जितने भारी भरकम हो, जवाबी क्षमल तुरंत हाज़िर। इस सेवा को लोग अलग अलग तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं, कुछ लोग सख्त ख़फा भी हैं, टैगक्लाउड वाले टर्म यानि पद की श्रेष्ठता के आधार पर घटा बनाता है तो साईमन ने इसे आटोमैटिक टैग बनाने के अस्त्र के रूप में ढाल लिया। मैंने अपने अंग्रेज़ी चिट्ठे पर टैगक्लाउड डाल भी दिया। आप भी कुछ सोचिये!
Posted by Debashish at 8/06/2005 05:55:00 AM 2 comments
Wednesday, July 20, 2005
चांद पर चीज़
रश्क होता है गूगल के लोगों की खिलंदड़ी पर। गूगल मैप्स के कुछ लोगों का ताज़ा शगल है गूगल मैप्स पर आधारित गूगल मून। १९६९ की मानव के चंद्रमा पर पदार्पण के नासा के चित्रों पर आधारित जालस्थल। अब आप पूछेंगे कि शीर्षक में यह "चीज़" क्या बला है! ये तो आपको तभी पता चलेगा जब आप चित्र पर ज़ूम इन करेंगे।
Posted by Debashish at 7/20/2005 06:32:00 AM 2 comments
Tuesday, July 19, 2005
नाम गुम जायेगा
वैसे मैं जीमेल नाम का इस्तेमाल गूगल मेल की तुलना में कम ही करता था, पर खबर है कि ट्रेडमार्क की लड़ाई में हार के नतीजतन गूगल मेल "जीमेल" नाम का प्रयोग अब नहीं कर पायेगा। तो क्या नाम होना चाहिये आपके मुताबिक? [कड़ी आभार: एरिक]
Posted by Debashish at 7/19/2005 09:36:00 PM 2 comments
Thursday, June 23, 2005
असली या नकली
अमर सिंह का कथित ब्लॉग पढ़ा। इतने दिनों से सबका लेखन पढ़ते पढ़ते पता चल जाता है कि कौन "में" को "मे" लिखता है, कौन पूर्णविराम की जगह बिंदु लगाता है, कौन किताबें "पड़ता" है, कौन पढ़ता नहीं, कौन लेखन की "ईच्छा" रखता है और कौन कॉमा के पहले "स्पेस" छोड़ता है, कौन लेफ्टी और कौन समाजवादी। यू.पी वाले सबूत बहुत छोड़ जाते हैं, पर कनपुरिये ही बनाये और बन भी जायें, अटल जी कहते "ये अच्छी बात नहीं है"! बहरहाल जब तक संदेह की पुष्टि न हो, संकेत बस इतने ही।
Posted by Debashish at 6/23/2005 03:08:00 AM 1 comments
Wednesday, June 15, 2005
कोई कहे कहता रहे
नेता बनने के लिये जिस्मानी और रूहानी खाल दोनों का मोटी होना ज़रूरी है। जीवन का आदर्श वाक्य होना चाहिये "कोई कहे कहता रहे कितना भी हम को..."। बेटे के साथ अन्याय के नाम पर कब्र मे पैर लटकाये करूणानिधि ने नई पार्टी तैरा दी, राज्यपाल बूटा सिंह के राज्य की नौका के पाल खुलम्म खुल्ला उनके बेटे संभाल रहे हैं, काबिना मंत्री और मातृभक्त मणिशंकर अय्यर एक तेल कूँए का उद्घाटन करने पहुँचे तो उसका नामकरण अपनी अम्मा के नाम पर कर दिया, गोया यह देश की नहीं व्यक्तिगत संपत्ति हो। दागी मंत्रियों को निकालने के लिये संघटन और विपक्ष दोनों लामबंद हैं पर वे बेफिक्री से सत्तासुख भोगते हुए अपनी सात पुश्तों की पेंशन फंड तैयार कर रहे हैं। वर्तमान काँग्रेसी सरकार ने तो सरकारी तंत्र में एक और सतह का परोक्ष निर्माण कर दिया है। पहले राष्ट्रपति को लोग रबर स्टैम्प का पद कहते थे अब ऐसा पद प्रधानमंत्री के लिये भी बन गया। पराये खड़ाउं रख कर राज चला रहे हैं मनमोहन। लोग हाय तौबा करते रहें सत्ता के दो केद्रों पर, अपन तो कानों में रुई डाल कर रूस की राजकीय यात्रा करेंगे।
एक दिन समाचार देख रहा था दूरदर्शन पर। समाचार वाचक ने अमेठी की खबर दी, राजकुमार ने सगरे गाँव बिजली देने का वादा पूरा किया था, गाँव वालों को याद भी न होगा कि ये वादे कितनी बार किये गये। सरकारी उद्यम भेल के लोग भी मंच पर थे। प्रसारण "सीधा" हो रहा था, मानो संयुक्त राष्ट्र में पी.एम भाषण दे रहे हों। कैमरे के दायरे में फंसे सज्जन पात्र परिचय के बाद राजकुमार के गुण गाने लगे। प्रसारण सीधा चलता रहा। काफी देर बाद शायद निर्माता की तंद्रा भंग हुई और वे वापस लौटे सामंती सम्मोहन से। हैरत तब हुई जब दूरदर्शन ने दूसरे दिन के समाचारों में पुनः इसी समारोह की टीवी रपट दिखलाई। पी.एम.ओ ने डपट लगाई होगी, "टाईम का हिसाब नहीं रखते, समाचार को दस मिनट डीले नहीं कर सकते थे। राजकुमार का क्लोज़अप तक नहीं। अगर मैडम ने देख लिया होता तो मैं जाता इम्फाल और तुम जाते श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र!" वैसे राहुल मुँहफट हैं, राजनयिक बोली अभी सीखी नहीं हैं सो चचा संजय नुमा निपट सोचते बोलते हैं, जतला दिया कि बुलाया था सो आये बाकी कुछ खबर नहीं।
तो हम लोग ये देखते रहेंगे, सोचते रहेंगे, लिखते रहेंगे। इस बीच ईमेज बिल्डिंग की कवायद पूरी हो जायेगी, भाड़े की संस्थायें बाजार सर्वेक्षण कर हवा का रूख बतलायेंगी और उचित समय देखकर हो जायेगा राज्याभिषेक। मनमोहन जी खड़ाउं राज करने के लिये शुक्रिया! आप जायें। एकाध संस्मरण छपवा लें, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, फिर जो आप कहें। हमारे बच्चे स्कूली निबंध में लिखेंगे कि जमींदार होते थे कभी। पत्रकार भवें उमेठकर परिवारवाद की भर्त्सना करेंगे फिर सरकार की पहली वर्षगाँठ पर ६ चिकने पेज का परिशिष्ट छापेंगे। उधर इतालवी स्पा में बबल बाथ लेते राजकुमार की त्वचा भाप से कठोर होने के गुर लेती रहेगी। कोई कहे कहता रहे...
Posted by Debashish at 6/15/2005 10:14:00 AM 6 comments
Monday, June 13, 2005
असाधारण है रियली सिंपल सिंडिकेशन
ब्लॉग जब खूब चल पड़े और चारों और इनके चर्चे मशहूर हो गये तो इसी से जुड़ा एक और तंत्र सामने आया। जिस नाम से यह पहले पहल जाना गया वह ही इसका परिचय भी बन गया। यूं तो आर.एस.एस एक तरह का क्षमल प्रारूप है और इसके बाद आर.डी.एफ, एटम यानि अणु जैसे अन्य प्रारूप भी सामने आये हैं पर आर.एस.एस एक तरह से क्षमल फीड का ही पर्याय बन गया है। जिस भी जालस्थल से आर.एस.एस फीड प्रकाशित होती है पाठक ब्लॉगलाईंस जैसे किसी न्यूज़रीडर के द्वारा बिना उस जालस्थल पर जाये उसकी ताज़ा सार्वजनिक प्रकाशित सामग्री, जब भी वह प्रकाशित हो, तब पढ़ सकते हैं। यह बात दीगर है कि जालस्थल के मालिक ही यह तय करते हैं कि फीड में सामग्री की मात्रा कितनी हो और यह कितने अंतराल में अद्यतन रखी जावेगी।
किसी भी जालस्थल की आर.एस.एस फीड होने का मतलब है कि लोग आपकी साईट बिना वहाँ आये पढ़ सकते हैं, भला कौन जालस्थल संचालक ये चाहेगा। इसे रोकने का एक तरीका तो यह हो सकता है कि आप संपूर्ण सामग्री न देकर फीड में कड़ी के साथ केवल सामग्री का सारांश प्रकाशित करें। इससे पाठक को पूरी सामग्री पढ़ने के लिये आपकी साईट पर आना ही पढ़ेगा। समाचार साईटों के लिये ये आला उपाय है जो सिर्फ समाचार शीर्षक ही प्रकाशित करें। हालांकि कालक्रम में यह पाठकों को उबा भी सकता है। दूसरा तरीका यह कि फीड में सामग्री थोड़ी ज्यादा या पूर्णतः रखी जाये पर हर प्रविष्टि के साथ विज्ञापन हों। यह तकनीक अभी इतनी परिष्कृत नहीं हुई है हालांकि गूगल एडसेंस के फीड के मैदान में उतरने के बाद माज़रा ज़रूर बदलेगा। एडसेंस की मूल भावना की तर्ज़ पर ही विज्ञापनों को टेक्स्ट या चित्र के रूप में फीड में प्रकाशित कर दिया जायेगा। तकनीक ये सुनिश्चित करेगी कि विज्ञापन का मसौदा जब पाठक फ़ीड पढ़ रहे हों तभी आनन फानन तैयार हो, बजाय इसके कि जब इसका अभिधारण हो रहा हो। सब्सक्रिप्शन आधारित सामग्री के प्रकाशन के लिये ये नये युग का सूत्रपात करेगा।
इसके अलावा भी लोग दिमाग पर ज़ोर लगा रहे हैं। आर.एस.एस फीड किसी भी साइट को बिना वहाँ जाये पढ़ना तो बायें हाथ का खेल बना देता है पर पारस्परिक व्यवहार या बातचीत का तत्व हटा देता है, संवाद दो तरफा नहीं रहता। अक्सर प्रविष्टि के साथ टिप्पणी की कड़ी तो रहती है पर टिप्पणी करनी हो तो अंततः जाना आपको साईट पर पड़ेगा ही। अब लोगों ने फीड में HTML फार्म का समावेश कर संवाद का पुट जोड़ने की कोशिश की है। स्कॉट ने अपनी फीड में यह प्रयोग किया ताकि लोग गुमनाम रहकर भी उनकी किसी भी प्रविष्टि को "टैग" कर सकें। याहू में कार्यरत रस्सेल एक कदम और आगे निकले, हाल ही में अपनी फीड में उन्होंने टिप्पणी करने का नन्हा सा HTML फार्म ही जोड़ दिया।
तकनलाजी के दीवाने आर.एस.एस के और उन्नत प्रयोगों के बारे में भी कयास लगा रहे हैं। जैसे कि इनका ऐसे ऐजेंट के रूप में प्रयोग जो समय समय पर अंतर्जाल से वांछित ताज़ी सामग्री खंगाल कर ला दे। या फिर ऐसे औज़ार के रूप में जिससे आप अपने कैलेंडर, संपर्क पते जैसी जानकारी साझा कर सकें। कल्पना कीजिये कि विभिन्न कंपनियाँ अपने उत्पादों के बारे में नवीनतम जानकारी, मूल्य सूची ईमेल के बजाय फीड से भेजें तो कितनी आसानी हो जाये। या फिर विश्वविद्यालय अपनी पाठ्य सामग्री इस तरह से भेजें। ये बातें बहुत उम्मीदें जगाती हैं। साथ में अनगिनत परेशानियाँ भी जुड़ी हैं, सिक्योरिटी और व्यक्तिगत पसंद संबंधी। क्या फीड को पासवर्ड द्वारा सुरक्षित कर या ईमेल ग्रुप की तरह किसी विशिष्ट समूह लोगों तक ही इसकी पहुँच सुनिश्चित करना मुमकिन है? आजकल के न्यूज़रीडर तो केवल सामग्री को फीड से अभिधारित कर तय प्रारूप में आप दर्शाते हैं। क्या पाठक यह तय कर सकेगा कि फीड में कौन सी जानकारी कितनी आये, कब और किस रूप में आये? क्या वह सामग्री का विश्लेषण कर पायेगा? ऐसे कई अनुत्तरित सवालों का जवाब लोग खोज रहे हैं। और मुझे लगता है कि जवाब जल्द ही आयेंगे?
Posted by Debashish at 6/13/2005 10:32:00 AM 1 comments
Tuesday, June 07, 2005
सृजनात्मकता और गुणता नियंत्रण
उत्पाद चाहे कैसा भी हो गुणता यानि क्वालिटी की अपेक्षा तो रहती ही है। भारतीय फिल्मों के बारे में कुछ ऐसा लगता नहीं है। शायद इसलिये कि सफलता के कोई तय फार्मुले नहीं हैं और गुणता नियंत्रण की संकल्पना किसी क्रियेटिव माध्यम में लाना भी दुष्कर है। यह बात भी है कि जब बड़े पैमाने पर कोई फिल्म बनती है तो कुछ न कुछ कमियां तो रह जाना वाजिब है। नायिका नीले रंग की साड़ी पहन कर घर से निकले और बाज़ार में विलेन द्वारा किडनेप किये जाते वक्त साड़ी का रंग पीला हो जाये (ये कथन रंग के ताल्लुक में ही है)। नायक को चोट दायें हाथ में लगे और अगले दृश्य में पट्टी बायें हाथ पर दिखे। यह सब तो हजम करना ही पड़ता है, फिल्मों में कंटिन्युटि ग्लिच तो बड़ी आम बात है। वैसे मैंने यह कहने कि लिये लिखना शुरू किया था कि फिल्म के कुछ दूसरे विभाग भी इस से अछूते नहीं रहते।
बेनेगल की फिल्म सुभाष के संगीत को ही ले लिजिये। मैं रहमान का प्रशंसक हूं पर ईमानदारी से कहें तो उनकी आवाज़ प्लेबैक के लायक नहीं है। यह सच है कि उन्होंने अपने गानों में कई बार अनगढ़ आवाजों का प्रयोग किया है पर हर गाना तो पट्टी रैप नहीं होता न! सबसे बड़ी बात यह है कि उनका हिन्दी उच्चारण काफी खराब है (मुझे मालूम है की यह उनकी मातृभाषा नहीं है, यह बात किसी भी गैर हिन्दी गायक के लिये लागू होगी पर यह भी कहना पड़ता है कि फिर यशोदास, एस.पी.बालसुब्रमन्यम जैसे गायक यह करिश्मा कैसे कर दिखाते थे)। यहीं मुझे एहसास होता है कि काफी तरीकेवार सिनेमा निर्माण करने वाले बेनेगल ने ऐसी एपिक सागा बनाते वक्त संगीत पक्ष पर ध्यान क्यों नहीं दिया। क्या रहमान का कद निर्देशक से भी उँचा हो गया कि वे कह न सके, "अरे रहमान, यह गाना रूपकुमार राठौर से गवा लो"। हो सकता है रहमान रूठ कर बोले हों, "गाना मुझे नहीं तो संगीत ही नहीं", तो कम से कम यह तो बोला जाना चाहिये था कि ऐसा है तो हिन्दी उर्दु की ट्यूशन ले कर आवो, कम से कम "था" को "ता" तो नहीं बोलोगे। अगर रहमान फिर भी अड़े रहें कि रेमो ने "पियार टो हुना हि ता" गाया तो आप क्यों चुप थे तो मेरे ख्याल से बेनेगल यह निर्णय ले सकते थे कि रहमान को काला पानी कहाँ भेजा जाये। जब आत्ममुग्धता सृजनात्मकता पर हावी हो जाये तो गुणवत्ता की वाट तो लगनी ही है।
Posted by Debashish at 6/07/2005 08:30:00 PM 4 comments
Monday, June 06, 2005
संदेशों में दकियानूसी
अपना मुल्क भी गजब है। सवा १०० करोड़ लोग उत्पन्न हो गये पर सेक्स पर खुली बात के नाम पर महेश भट्ट के मलिन मन की उपज के सिवा कुछ भी खुला नहीं। भारत किसी अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता में कोई रिकार्ड भले न तोड़ पाया हो पर एड्स के क्षेत्र में सतत उन्नति की राह पर अग्रसर है। सरकारी बजट बनते हैं तो करोड़ो की रकम रोग का फैलाव रोकने और जन जागृति लाने के लिये तय होती है पर न जाने किन उदरों में समा जाती है। जब युवाओं में खुल्लम खुल्ला प्रेम के प्रायोगिक इज़हार की बातें सुनता देखता हुँ तो लगता है कि या तो इन तक संदेश की पहुँच तो है ही नहीं या फिर संवाद का तरीका ही ऐसा है कि कान पर जूं नहीं रेंगती।
गत कुछ सालों तक शहर देहातों तक सरकार कहती थी "एड्सः जानकारी ही बचाव है"। बढ़िया है, जानकारी होनी चाहिये। पर कौन सी जानकारी? "क्यों दद्दा? एड्स से कैसे बचोगे?", "जानकारी से भईया, और कैसे?" गोया जानकारी न हो गयी, एस.पी.जी के कमांडो हो गये। मिर्ज़ा बोले, "अरे मियां! अहमक बातें करते हो। सारा पाठ एक बार में थोड़े ही पढ़ाया जाता है। पहले साल कहा, जानकारी होनी चाहिये। फिर दूसरे साल कहेंगे, थोड़ी और जानकारी होनी चाहिये। जब पाँचेक साल में यह पाठ दोहरा कर बच्चे जान जायेंगे कि भई हाँ, जानकारी होनी चाहिये तब पैर रखेंगे अगले पायदान पर"। सरकारी सोच वाकई ऐसी ही लगती है। आश्चर्य होता है कि जिन एजेंसियों को काम सोंपा जाता है उनकी कैसी समझ है मास कम्यूनिकेशन की। मुद्दे पर सीधे वार करने की बजाय अपनी डफली पर वही पुराना राग। अरे सीधे क्यों नहीं बताते कि भईये अनजान लोगों से सेक्स संबंध रखने से बचो, खास तौर पर जिस्म की मंडियों से परहेज़ रखो। और अगर चमड़ी मोटी है और बाज़ नहीं आ सकते अपनी आदतों से तो काँडोम का सही इस्तमाल करो। अस्पतालों में, होशियार रहो कि "नये डिस्पोजेबल" या अच्छी तरह उबले सिरिंज ही छुएं शरीर को। यदि रोग लग गया है तो दूसरो को संक्रमित करने या बच्चे को जन्म देने की न सोचो।
बहरहाल, पिछले साल से सरकारी भोंपू पर राग बदला है। बढ़े अच्छे और दो टूक बात करने वाले कुछ सीरियलों की बात मैं कर चुका हूँ, यह बात अलग हैं कि अब ये कार्यक्रम प्राईम टाईम से नदारद हैं। निःसंदेह संदेश कुछ स्पष्ट होना शुरु हुये हैं। इसके अलावा गर्भपात और गुप्त रोगों पर भी बात स्पष्ट रूप से रखी जा रही है। जिस दकियानूसी की सेंसर बोर्ड में ज़रूरत है वह सरकारी संदेशों में न ही आये तो अच्छा।
Posted by Debashish at 6/06/2005 08:30:00 PM 1 comments
Sunday, June 05, 2005
मुगालते में ऐश है
हम भारतीय तो जन्मजात हिपोक्रिट हैं ही। कथनी और करनी का अंतर न हो तो हमारी पहचान ही विलीन हो जाये। कुछ दिनों पहले जब देह मल्लिका के कॉन्स के पहनावे की बात आयी जिसमें कपड़ा कम और जिस्म ज़्यादा था तो मुझे मल्लिका और ऐश्वर्या कि महत्वाकाक्षांओं में कुछ खास फर्क नहीं नज़र आया। दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय रूपहले पर्दे पर जाने को आशावान हैं। इस राह में जिस्म की खास भूमिका है, बस दोनों अभिनेत्रियों का अप्रोच खासा अलग है। मल्लिका की साफगोई की दाद देनी पड़ेगी। वे जानती हैं और स्वीकार भी करती हैं कि चमड़ी के भरोसे सफलता मिलना तय है। इसके उलट अपनी भोली भाली छवि के अनुरूप ऐश ऐसा दिखाती हैं कि वे काजल की कोठरी में रहकर भी दूध सी सफेद बाहर निकलेंगी। "मैं सेक्स सीन नहीं दूँगी, किस नहीं नहीं।" देसी फिल्मों में उन्होंने कोई तरीका तो नहीं छोड़ा जिस से उनके शरीर कि रचना की गणना न की जा सके। ज़्यादा दूर क्या जाना, हाल का लक्स का नया विज्ञापन देखें, छुईमुई ऐश्वर्या न जाने कहाँ कहाँ गोदना गुदवा रही हैं वो भी इतने अशोभनीय (ओह माफ कीजियेगा, नयी भाषा में इसे सेक्सी कहा जाता है, है न!) तरीके से कि...। इससे तो मल्लिका जैसी अभिनेत्रियाँ ही भली, चमड़ी बेच रही हैं तो किसी मुगालते में नहीं हैं और न ही छूईमुई और बुद्धिमान बने रहने का दिखावा करती हैं। मर्द को लुभाने वाली चीज़ स्त्री के मस्तिष्क के काफी नीचे बसती हैं यह बात तो ऐश भी जानती हैं। पर मुगालते पालना भी कोई बुरी बात नहीं। जब भविष्य में भारतीय पुरुष उनकी पंद्रह मिनट की भूमिका वाली जगमोहन मूँदड़ा निर्मित हॉलीवुड की कोई फिल्म जब देखेंगे तो ऐश्वर्या के शरीर और "अभिनय क्षमता" को ज्यादा बेहतर सराह पायेंगे।
Posted by Debashish at 6/05/2005 08:30:00 PM 3 comments
Tuesday, May 03, 2005
जेनेरिक गोरखधंधा
पुणे में आईटी वालों की भरमार है। शहर भी ऐसा है कि लोग बस जाने की सोचते हैं। शहर भी आखिर कितना समोये, सो गुब्बारे की तरह फैल रहा है। वैसे यहाँ के औंध और बानेर जैसे इलाके लोगों की पहली पसंद हैं, सुविधाओं और कार्यस्थल से नज़दीक होने के कारण। चुंकि दावेदार ज्यादा हैं तो दाम सर चढ़कर बोल रहे हैं। हजारों की संख्या में नये प्रोजेक्ट आ रहे हैं। लोकल अखबारों को विज्ञापन समेटने के लिये अतिरिक्त परिशिष्ट निकालने पड़ रहे हैं। मज़े की बात यह की शहर के किसी भी कोने में बना हर अपार्टमेंट पहले से ही ७० प्रतिशत बुक्ड होता है, अब लीजिये पांचवी मंजिल का फ्लैट जहाँ टैरेस किचन में खुलता है, लिविंग रूम में नहीं। यह तो तब, जब अंटी में खासी रकम हो। मध्यम वर्गीय परिवार के लिये आस लगाये बैठने के अलावा चारा नहीं।
खैर जो बात कहना चाहता था वह रह ही गई। अपने आफिस के नज़दीक औंध जैसे अच्छे इलाके में ज्यादातर लोग आशियानां बनाना चाहते हैं। जब आप फ्लैट देखने पहूँचे तो पहली नज़र में ही लगेगा कि काफी बहुत दूर है। "अजी दूर कहाँ, ये जेनेरिक औंध हैं", बिल्डर तपाक से कहेगा। आप खुश! अभी कुछ दिन पहले अखबार में एक पाठक का पत्र पढ़ा। लिखा था, "सारी जिंदगी पुणे में बिता दी, शहर के चप्पे चप्पे से वाकिफ हूँ पर आज तक कभी औंध एनेक्स या जेनेरिक औंध नहीं देखा।" भई देखेंगे तो तब जब ये होंगे। दरअसल ये सारी मिलीभगत बिल्डरों की ही है। अब औंध से २०-२५ किमी दूर के इलाके भी इन्होंने औंध में खींचने के ईरादे से इन नये काल्पनिक नामों की रचना कर दी। शहर में नये आये लोगों को औंध से मीलों दूर का इलाका औंध के नाम पर बेचना आसान है इस तरह। बड़ा अजीब गोरखधंधा है यह। इनका बस चले तो लोनावला को भी पुणे एनेक्स पुकारने लगे कल।
Posted by Debashish at 5/03/2005 06:45:00 AM 5 comments
Monday, May 02, 2005
नैन भये कसौटी
दूरदर्शन पर "गोदान" पर आधारित गुलज़ार की टेलिफिल्म आ रही है। पंकज कपूर के किरदार का मृत्यु द्श्य है। श्रीमतीजी, पुत्र और मैं सभी देख रहे हैं। पर अविरल अश्रु बह रहे हैं मेरी आँखों से। जी नहीं, बंद कमरे में भला आंखों में किरकिरी कैसी? यह कोई नयी बात नहीँ है। टी.वी. हो या फिल्म, कोई पात्र दम तोड़ रहा हो या हो कोई भारी इमोशनल सीन, मेरे नेत्र फफकने में देर नहीं लगाते। मज़ा तब और आता है जब मैं अपनी माँ के साथ बैठा हूँ, तब दो जोड़ी आँखों से बहती गंगा जमुना का दृश्य भी देखा जा सकता है।
मैं अंदाज़ लगा सकता हूँ आप क्या सोच रहे हैं इस समय। हैं! पुरुष होकर रोता है? रोना तो मूलतः जनाना गुण है। भई क्या करें, "मर्द को दर्द नहीं होता" या "ब्यॉज़ डोंट क्राई" जैसे जुमले अपने लिये फिट नहीं बैठते। इतने वर्षों के अनुभव के बाद तो अब मेरी आँखें भावनाओं की गहराई नापने की कसौटी बन चुकी हैं। हर ऐरे गैरे दृश्य पर नहीं बहती ये धारा।
अब तो कोई ऐसा दृश्य शुरु हुआ नहीं कि पत्नी बार बार पलट पलट कर मेरे नैनों में झांक लेती हैं। मैं प्रयास करता हूँ कि टोंटी बंद रहे, गला ईमोशन से चोक हुआ जाता है, आखों का मर्तबान लबालब भरा, पर कोशिश जारी रहती है, हो सकता है दृश्य खत्म होने तक भाप बनकर उड़ जायें। पर १०० में से ९० मौकों पर ऐसा होता नहीं। पत्नी कनखियों से मेरे डबडबाते नैन देख कर मुस्करा भर देती हैं, ज्यों कहती हों कि चलो रो लो जी भर, मैंने नहीं देखा। पर म्युनिसिपल्टी की नलों की नाई सुष्क उनकी भली आँखों में नाराजगी साफ दर्ज होती है, "कभी दो आँसू मेरे लिये भी टपका लिया करो आर्यपुत्र!"
Posted by Debashish at 5/02/2005 09:39:00 AM 1 comments
Tuesday, April 19, 2005
हाईकू हुए विचार - १
दिन न दूर
मेड इन चाइना
आलू भी बिकें।
Posted by Debashish at 4/19/2005 05:21:00 AM 6 comments
Thursday, February 24, 2005
अनुगूंज ६: चमत्कार या संयोग?
वैसे तो मैं सर्टिफाईड नास्तिक हूँ पर मेट्रिक्स देखने के बाद से मैं इसकी थ्योरी का कायल भी हो गया। कई दफा जीवन में ऐसा हो जाता है कि इस बात पर यकीन सा होने लगता है कि जीवन मानो कोई कंप्यूटर सिमुलेशन हो। एम.आई.बी के अंतिम हिस्से में मेरे इस विचार से मिलता जुलता दृश्य था जिसमें पृथ्वी पर से कैमरा ज़ूम आउट करता है और हमारी आकाशगंगा से होते हुए बाहर चलता ही जाता है। जान पड़ता है कि जो हमारे लिए विहंगम है, विराट है वो किसी और के लिए हैं महज़ खेलने की गोटियाँ। ये रिलेटिविटि मुझे बड़ा हैरान करती है। हाल ही मैं अपनी पुरानी कंपनी की प्रॉविडेन्ट फंड के बारे मे दरियाफ्त कर रहा था, रकम के अंक पर नज़र पड़ी १९४७८। बड़ा जाना पहचाना सा अंक लगा, पर हैरत भी हुई, दो चार अंक का मेल संयोग वश हो ही जाता है, ये तो पाँच अंक थे। दिमाग पर ज़ोर डाला तो याद आया कि ये तो किसी पूर्व नियोक्ता के यहाँ मेरी इम्प्लाई आई.डी थी। हूबहू वही नंबर! कैसा चमत्कार था यह?
Posted by Debashish at 2/24/2005 08:55:00 PM 0 comments
Friday, January 14, 2005
पहला ख़ुमार
पहले प्यार की बात चल पड़ी तो मुझे भी पहला प्यार याद आ गया। परिणती तक भले न पहुँचा हो पर मन में किसी कोने में यादों की महक तो बाक़ी है। किस्सा चुंकि नितांत निजी है इसलिए सुना कर बोर नहीं करूँगा। पर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ उन दिनों लिखा एक गीत। कॉलेज के समय तो पूरा जीवन ही मेलोड्रामा से लबरेज़ रहता है, लिहाज़ा यह गीत भी काफी हद तक फ़िल्मी है। विनयजी बता पायेंगे कि मीटर ठीक ठाक है या नहीं। उन दिनों इस गीत के सस्वर पाठ करने की मेरे मित्र बड़ी गुजारिश करते थे खास तौर पर वो जिन्हें इश्क का नया नया रोग लगा था। तो प्रस्तुत है यह गीत "मित्र मान लो"।
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
याद आता है समां वो जब हुआ था रुबरु,
दिल ने तभी था चाहा कि हो दोस्ती शुरु,
बुज़दिल था मैं जो कह न पाया, यही मान लो,
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
कितने किये इशारे पर रही तू बेखब़र,
थे अरमां अपने कबसे बने तू हमसफ़र,
आसां न रहा लिखना प्रेमपत्र जान लो,
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
तेरे सलोने रूप में खोया हुँ मैं सदा,
उन्मुक्त सी हँसी तेरी जाती है गुदगुदा,
रह न पाऊँगा तेरे बिन इतना जान लो,
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
चेहरा तेरा निर्दोष है मासूमियत भरा,
हिरणी सी आँखों में हो जैसे भरी सुरा,
अनुराग मेरा तुमसे है पवित्र जान लो।
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
मित्र मान लो, प्रिये मुझे मित्र मान लो!
Posted by Debashish at 1/14/2005 03:37:00 AM 0 comments
Saturday, January 01, 2005
शुभ नववर्ष!
नुक्ताचीनी के पाठकों और सभी मित्रों व उनके परिवार को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ। २००५ आपके मन की हर मुराद पूर्ण करे, यही मेरी मंगलकामना है।
Posted by Debashish at 1/01/2005 05:28:00 AM 0 comments
Monday, December 20, 2004
मेहमान का चिट्ठाः नितिन
नुक्ताचीनी ने मेज़बानी की तीसरी अनुगूँज की, और विषय ऐसा था जिस पर एक अंग्रेज़ी ब्लॉगर लगातार लिखते रहे हैं, "द एकार्न" के रचनाकार, सिंगापुर में बसे, नितिन पई। पेशे से दूरसंचार इंजीनियर नितिन एक प्रखर व मौलिक चिट्ठाकार हैं। अपने चिट्ठे में वे दक्षिण एशियाई राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर खरी खरी लिखतें हैं, इस्लामिक व एटमी ताकत़ वाले राष्टृ खासतौर पर पाकिस्तान पर इनकी पैनी नज़र रहती है। मेरी गुज़ारिश पर नितिन ने अनुगूँज में शिरकत की जिसके लिए उनका धन्यवाद!
जिहादी आतंक ने जम्मू-कश्मीर राज्य की आर्थिक व्यवस्ता को गम्भीर हानि पहुँचायी है। पर्यटन और ग्रामोद्योग इस राज्य के प्रमुख व्यव्साय रहे हैं, लेकिन आतंकवादियों ने इन्हीं व्यवसायों को खास रूप से अपना निशाना बनाया है। कारण साफ है - आम जनता की उम्मीद जब तब बुझी रहे तब तक आतंकवादी दलों में शामिल होनेवालों कि कमी नही रहेगी। आतंकवाद के बीते दस-बारह सालों ने दो पीढ़ीयों की शिक्षा चौपट की है, जिसके कारण राज्य के आर्थिक सुधार की राहों में काफी मुश्किलें पैदा हो गयीं है।
इस समस्या का पूरा हल आसान नही है। सरकार की आर्थिक मदद तो ज़रूरी है ही पर आतंक का पूर्ण रूप से रुकना उस से भी ज़्यादा ज़रूरी है। यह दक्षिण अफ़्रीका की 'सत्य और समाधान#' समिति ने कर दिखाया है। अगर आम आतंकवादी अपनी हिंसा को पूरी तरह से त्याग कर अपने किये अपराधों को मान ले तो सरकार उन्हें माफ़ कर सकती है। इसके बाद पहला कदम है समाज में उनकी वापसी और दूसरा कदम, आर्थिक अनुकलन।
#नितिन मानते हैं कि कश्मीर समस्या का हल दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के अपराधियों के साथ न्यायोचित व्यवहार के लिए स्थापित सत्य और समाधान कमीशन की तर्ज पर किया जा सकता है।
Posted by Debashish at 12/20/2004 10:23:00 PM 2 comments
Sunday, December 19, 2004
आतंक से मुख्यधारा की राह क्या हो?
पुर्नवास का प्रश्न केवल हथियार डाल चुके आतंकवादियों के लिए ही नहीं वरन् समाज के पूर्वाग्रहों के शिकार अनेक वर्गों के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक है, चाहे वो परित्यक्त या व्यभिचार से पीड़ित महिलाएँ हों, किन्नर, अपंग, सजा भुगत चुके अपराधी हों, या एड्स जैसी कलंकित बीमारियों के पीड़ित। इन्हें मुख्यधारा में शामिल करने, अपने साथ समाज में उठने बैठने देने के विचार मात्र से ही हमारे पूर्वाग्रह हमें सिहरा देते हैं। हमें इनमें निहित कथित बुराईयों से संक्रमण का डर सताता है जबकि हममें से कई ऐसे हैं जो स्वभावगत रूप किसी न किसी समय व्यभिचारी, अपंग या किन्नर बन जाते हैं पर समाज के हंटर से बचे रहते हैं।
आतंकवाद का मसला वैसे भी बड़ा संवदनशील मुद्दा है, सरकार के लिए जो आतंकवादी है वो किसी वर्ग के लिए आज़ादी के सिपाही हो सकते हैं। राज्यों के विलय की पटेल नीति की कमी या हो या राजनयिक स्तर पर भारत का अंर्तराष्ट्रीय मंचों पर कमज़ोर प्रर्दशन या राजनेताओं के स्वार्थ का समर, कश्मीर का स्वर्ग सेना के हवाले करके समाधान की राहें तो बरसों पहले ही बंद कर दी गईं। भारत में सेना का इस्तेमाल भी बड़ा हास्यास्पद है, किसी भी राज्य के पुलिस और प्रशासनिक ढांचा इतना बलहीन है कि अपने माद्दे पर किसी भी आपदा से निबटने की कुव्वत नहीं, ज़रा भी परेशानी में फंसे नहीं कि केन्द्र से सेना भेजने का अनुरोध करने में पलक झपकने की भी देर नहीं लगती। आतंकवाद जैसे मसलों पर सेना के निबटने का तरीका ज़रा अलाहदा ही रहता है, इनके लिए दिल से ज्यादा दिमाग से लिए निर्णय ज़्यादा मायने रखते हैं। ऐसे में गेहूँ के साथ घुन का पिस जाना कोई अस्वाभाविक बात नहीं जिन्हें मानवाधिकार संगठन ज़्यादतियाँ कह कर पुकारती रही हैं।
मेरे विचार से सुबह के भूलों का विस्थापन ज़रूरी है क्योंकि यह आतंक के साये तले रह रही जनता में विश्वास जगाता है। कशमीर के लिए खास "पैकेज" राजनैतिक रूप से भी हमारा पक्ष दुनिया के सामने पेश कर सकते हैं। पर इन सभी से ज़रूरी है समस्या के निदान की ओर तेज राजनयिक कदमों की। यहीं गाड़ी बरसों से अटकी पड़ी है। हर बार दोनों तरफ के नौकरशाह कुछ न कुछ मसला उठा कर मुँह फुला कर बैठ जाते हैं। देशभक्ति ठीक है पर हमें यह सत्य भी स्वीकारना चाहिए कि कश्मीर की २२२२३६ वर्ग की.मी. ज़मीन में से पाकिस्तान लगभग ३५फीसदी (७८००० कि.मी) पर काबिज़ है। १९६३ के एक विवादास्पद समझौते के आधार पर पाकिस्तान लगभग ५१८० कि.मी. ज़मीन चीन के सुपुर्द कर चुका है। हमारे देश के अलावा सारी दुनिया में भारत के नक्शे में से पाकिस्तान के कब्ज़े वाली ज़मीन निकाल कर दिखाई जाती है। इस परोक्ष युद्ध में हम करोड़ो की रकम ओर बहुमूल्य जानें झोंक चुके हैं। मैं नहीं कहता ये कोई तुरत फुरत हल हो जाने वाला मसला है, पर हल की ओर कुछ कदम तो बढ़ें। बरसों से हम राजनीतिक स्टेलमेट के शिकार हैं।
छोटे मुँह बड़ी बात, पर रास्ते तो कई दिखते हैं, पहलाः पाकिस्तान को मटियामेट करने का ईरादा बना कर उस पर हमला बोल दें, परमाणु शक्तियों के बीच का यह युद्ध दुनिया और हमें किस मुक़ाम तक ले जाएगा इसकी भविष्यवाणी तो नेस्त्रादम भी शायद ही कर पायें। इसमें ग़र विजयी भी हुए तो टूटी आर्थिक कमर पर विश्व भर में पाकिस्तान के खैख्वाहों, जिसमें दुनिया का दरोगा भी शुमार है, की लात सहते हुए हम कभी उबर पायेंगे इस बात पर शंका होती है। एक और रूखः चीन से ज़मीन वापस ले कर वर्तमान नियंत्रण रेखा को सीमा रेखा का दर्जा दें दे, सबसे व्यावहारिक हल, या तीसराः संयुक्त राष्टृ को सर्वौच्च और निष्पक्ष मान कर (दुनिया के दरोगा के रहते इस बात पर यकीन करना ज़रा मुश्किल ही है) उसके और अन्य तटस्थ देशों की निगरानी में जनमत संग्रह हो, पर पूर्ण कश्मीर के लिए, भारत पाकिस्तान और चीन की ज़मीन मिला कर। अगर फैसला हमारी तरफ हो तो निगरानी रखने वाले देशों, संगठनों से लिखित गारंटी लें की पाकिस्तान आतंक के प्रायोजन से तौबा करे या सैंन्कशन्स झेल कर आर्थिक रूप से मिट जाने को तैयार रहे। भारत के पत्रकारों की हाल की पाकिस्तान यात्रा से सपष्ट है कि पाकिस्तान के कब्ज़े वाला आज़ाद कश्मीर भी कोई आज़ाद नहीं है। जे.के.एल.एफ जैसे संगठन न पाकिस्तान के साथ जाना चाहते हैं न भारत के,कश्मीर के ज्याद़ातर बाशिंदे आतंक से मुक्ति और खुशहाली वापस चाहते हैं, पाकिस्तान से उनका कोई मोह नहीं।
अब यह तो एक दिवास्वप्न ही होगा कि हम यह मानें कि कश्मीर की समस्या तो सुलझती रहेगी, पूर्व आतंकियों को पुर्नस्थापन का लॉलीपॉप देने भर से आतंक का वीभत्स खेल स्वतः ही बंद हो जाएगा। सीमा पार आतंक से समस्या उपजी, पर इसे बंद कराने के लिए वैश्विक जनमत बनाने तक में हमारा राजनैतिक नेतृत्व नाकामयाब रहा है। सारा मामला राजनयिक बयानबाज़ी के पाश में फँस गया है। राजनीतिज्ञ पाकिस्तान के खिलाफ एक ओर तो ज़हर उगल कर लोगों को बरगलाते रहें और दूसरी ओर रेल, बस मार्ग खोलने और क्रिकेट खेलने के दोगले कदम भी उठाते रहें। दुर्भाग्य की बात है कि रीढ़ विहीन राजनैतिक पाटो के बीच में पिसना ही इस राज्य की नियती बन चुकी है। कोई ऐसा नेतृत्व नहीं जो ये ठान ले की हल एक निर्धारित समय सीमा में निकालना ही है। नतीजतन, कैंसर का ईलाज़ नीम हकीम कर रहे हैं और रोग बढ़ा जा रहा है। डर कि बात यह है कि कहीं सही इलाज के अभाव में यह कैंसर कश्मीर को ही निगल न ले।
Posted by Debashish at 12/19/2004 07:40:00 PM 0 comments
Saturday, December 11, 2004
भारतीय ब्लॉग मेला: ३७वां संस्करण
भारतीय ब्लॉग मेला में आपका स्वागत है। प्रकाशन में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ और बिना लाग लपेट शुरु करता हूँ यह आयोजन:
- अतुल सी.एन.एन की एक ख़बर, जिसमें अमेरिकी पयर्टकों को युरोप में परेशानी से बचाने वाले कैनेडियन प्रतीक चिन्हों वाले लिबासों के प्रचलन का ज़िक्र था, का हवाला देते हुए पर्यटन के पहलुओं पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी कर रहे हैं।
- साइकिल सवार साधनहीन बुढऊ की पीक के छींटों से व्यथित अनूप ने ठीकरा थूककर चाटने के हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर फोड़ डाला।
कुछ विद्वानों का मत है कि 'थूककर चाटना' वैज्ञानिक प्रगति का परिचायक है। नैतिकता और चरित्र जैसी संक्रामक बीमारियों के डर से लोग थूककर चाटने से डरते थे। अब वैज्ञानिक प्रगति के कारण इन संक्रामक बीमारियों पर काबू पाना संभव हो गया है।
- हिंदी के कदम बढ़ते हुए आ पहुँचे मोज़िला फ़ायरफ़ाक्स 1.0 ब्राउज़र और ई-मेल क्लाएंट मोजिला थंडरबर्ड के हिन्दी संस्करण तक, बता रहे हैं रवि।
- नीलेश अपने चिट्ठे में बात कर रहे हैं, कैप्चास के विषय में जिनकी मदद से आप अपने ब्लॉग कि टिप्पणीयों में शरीर के अंग के विशालिकरण के तरीकों और वियाग्रा कि दुकानों कि फेहरिस्त से बच सकते हैं। हालाँकि वे बताते हैं
स्पैमर्स ने कैप्चास की भी तोड़ निकाल ली है। किसी ने ऐसे सॉफ्टवेयर रोबो का ईजाद किया है जो किसी पंजीकरण फॉर्म में कैप्चा परीक्षण से पाला पड़ते ही उसे किसी पोर्न जालस्थल पर प्रेषित कर देगा जहाँ आगंतुकों को कहा जाएगा कि और पोर्नोग्राफी देखनी है तो इस टेस्ट को पास किजीए। उनके दिए जवाब का रोबो इस्तेमाल करेगा ईमेल पंजीकरण फॉर्म पर।
- विजय ठाकुर ने प्रस्तुत की बाबा नागार्जुन की मैथिली कविता का हिन्दी रुपांतर, हालाँकि अनुवाद ज़रा क्लिष्ट हो गया है।
- जितेन्द्र शर्मा सूडान में तेल और जातियता से उपजी दोगली घरेलू और अंर्तराष्ट्रीय राजनीति के घालमेल और वहाँ जारी संघर्ष से आम जनता की तकलीफों का ज़िक्र कर रहे हैं अपने चिट्ठे में। एक अन्य चिट्ठे में वे सामाजिक और आर्थिक संकट के पाटों के बीच फंसे नाईजीरिया के राष्ट्रपति के विदेश यात्राओं पर हो रही चर्चाओं के दोनों पहलू पेश कर रहे हैं।
- अंततः आशीष का चिट्ठा जहाँ वे यातायात की एक ख़बर का भारतीय परिप्रेक्ष्य में ज़िक्र कहते हुए कहते हैं कि पूर्वनिर्धारित यातायात के नियमों को सीखना भर काफी नहीं है क्योंकि समय और परिस्थिति के अनुसार बदलाव न होने के कारण इनका कारगर होना मुश्किल है।
माफी चाहता हूँ, कुछ नामित चिट्ठे व्यक्तिगत थे जो मेले के नियमानुसार शामिल नहीं किए जा सके। सभी प्रतिभागियों का शुक्रिया। धन्यवाद शांति का भी मुझे आतिथ्य का मौका देने के लिए। अगले मेले के मेज़बान हैं याज़ाद।
Posted by Debashish at 12/11/2004 02:23:00 AM 0 comments
हिन्दी ब्लॉगरोल
मुझे याद आता है कि जितेन्द्र ने संभवतः सबसे पहले यह कहा था कि ब्लॉग जगत से सुर्खियों की तरह वे हिन्दी ब्लॉगरोल जैसा भी कुछ चाहते हैं। मंतव्य यह था कि हर चिट्ठाकार और उनके पाठकों को नए चिट्ठों का पता उसी ब्लॉग से मिल जाए और हर बार टेम्प्लेट से छेड़छाड़ की माथापच्ची भी खत्म हो। तो पेश है हिन्दी ब्लॉगरोल स्क्रिप्ट इस्तेमाल का तरीका वही, बस निम्न HTML अपने ब्लॉग टेम्प्लेट पर चस्पा कर लें।
<script language="javascript" src="http://www.myjavaserver.com/~hindi/BlogRoll.jsp" type="text/javascript"></script>
नमूना मेरे ब्लॉग पर ही मौजूद है। आप से एक मदद की गुजारिश है, किसी नए हिन्दी चिट्ठे का पता चलते ही मुझे या चिट्ठाकार ग्रुप पर जरूर इतल्ला कर दें जिससे यह सूची ताज़ी रहे। आपकी सूचना से न केवल यह बल्कि डीमॉज़ निर्देशिका, हिन्दी चिट्ठाकार वेबरिंग, ब्लॉगडिग्गर की फीड (उस पर निर्भर चिट्ठा विश्व) और चिट्ठाकार ग्रुप्स सभी का भला होगा।
Posted by Debashish at 12/11/2004 01:34:00 AM 3 comments
Saturday, December 04, 2004
भारतीय ब्लॉग मेला: आमंत्रण
हर्ष का विषय है कि भारतीय ब्लॉग मेला पहली बार किसी अन्य भाषा के चिट्ठे पर अवतरित हो रहा है। यह नाम भी बड़ा उपयुक्त है, हालाँकि कंक्रीट के जंगलों में मेले अब होते नहीं पर मेले का नाम ज़ेहन में आते ही मनोरंजन ध्यान आता है, एक ऐसा आयोजन जहाँ विभिन्न विषयों पर लिखने वाले, मुख़्तलिफ़ पेशे और अलाहदा परिवेश से जुड़े चिट्ठाकारों कि तरह ही विविधता होती है, गोया कि हर किसी के लिए कुछ न कुछ होता है।
तो मित्रों, ३७वें भारतीय ब्लॉग मेले में नुक्ताचीनी के आतिथ्य में आपकी प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं। प्रविष्टियाँ दिसंबर ३ से १०, २००४ के बीच लिखे चिट्ठों पर आधारित हों। अपनी प्रविष्टि मुझे debashish at gmail dot com ईमेल कर सकते हैं, बेहतर हो इसी चिट्ठे की टिप्पणी (कॉमेंट) के रूप में प्रेषित कर दें। प्रविष्टि भेजने की अंतिम तिथि है दिसंबर १०, २००४.
शेष शर्तें हमेशा जैसी ही :
- चिट्ठे भारतीयों द्वारा भारतीय विषयों पर लिखे गए हों।
- कृपया चिट्ठे की स्थाई कड़ी (पर्मालिंक) भेजें। स्थाई कड़ी के अभाव में चिट्ठे का नाम तथा तिथि का ज़िक्र करें।
- आप अपने या/तथा दूसरों के चिट्ठे प्रस्तावित कर सकते हैं।
- चिट्ठे व्यक्तिगत न हों।
संबंधित कड़ियाँ :
- मेला गतांक, "एक कप चाय" पर
- भारतीय ब्लॉग मेला आयोजनावली
- नल प्वाईंटर पर आयोजित मेला अंक
- मेला के पिछले अंक
Posted by Debashish at 12/04/2004 03:53:00 AM 11 comments
Friday, November 05, 2004
Sunday, October 31, 2004
देह पर टिकी संस्कृति
अक्षरग्राम अनुगूँज - पहला आयोजन
एक नज़र मायानगरी मुम्बई के एक अखबार कि सुर्खियों पर। सिनेमा के इश्तहार वाले पृष्ट पर मल्लिका अपने आधे उरोज़ और अधोवस्त्र की नुमाईश कर अपनी नई फिल्म का बुलावा दे रही हैं। पृष्ट पर ऐसे दर्जनों विज्ञापन हैं, औरत मर्द के रिश्तों को नए चश्मे से देखा जा रहा है। पेज ३ पर अधेड़ और जवां प्रतिष्टित हस्तियों के मदहोश, अधनंगे चित्रों के साथ उनकी निजी ज़िन्दगी पर कानाफुसी है। मुखपृष्ट पर खबर है अमेरिकी हाई स्कूलों में डेटिंग कि जगह "हुक अप" (रात गई बात गई) ने ले ली है। भीतर के एक पृष्ट पर डॉ .मोजो एक २३ वर्षीय पाठिका की परेशानी का समाधान दे रहे हैं जो कि अपने प्रेमी के "लघु आकार" से व्यथित हैं। वर्गीकृत विज्ञापन के हेल्थ वर्ग में अनोखे मसाज़ पार्लर के इश्तहार मसाज़ से ज्यादा वर्णन मसाज़ करने वाली/वाले लोगों का ज़िक्र कर रहा है। एक अन्य लेख में चित्रमय चर्चा का विषय है कि औरतों को पुरुषों के नितंब क्यों पसंद आते हैं। प्रितिश नंदी अपने स्तंभ में किसी सर्वे का हवाला देते हुए लिखते हैं कि संसार में समलैंगिक पुरुषों की संख्या सामान्य पुरुषों कि तुलना में कहीं ज्यादा हो गई है (कहीं इसलिए तो मुम्बई महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं मानी जाती)। मुम्बई के एक पुर्व मेयर अपने साक्षात्कार में एतराज़ जता रहे हैं बिंदास होती जा रहीं लड़कियों के आचरण पर। एक दूसरे साक्षात्कार में हेमा मालिनी आश्चर्य जता रही हैं कि आजकल लड़कियां रोल पाने के लिए किसी भी हद तक जा रही हैं (दीगर बात है कि उन्होंने शायद ईशा देओल की फिल्म धूम नहीं देखी)। बाहर देखता हूँ कि कुछ स्कूली बच्चियाँ परिपक्व कपड़ों में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पारित करने में लगी हैं। पड़ोस के मनचले लड़के अपनी "मीन मशीन" का हार्न बजाते हुए पड़ोस से निकलते हैं और बच्चियाँ खिलखिला उठती हैं। वे देह की परीक्षा में पास हो गई हैं शायद। उधर बाग के हर कोने में कईजोड़े प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन के अपने जवां होने का प्रमाण दे रहे हैं, भले ही अधिकांश प्रेमियों की अभी मूँछे भी नहीं आई हों। ज़ाहिर है जब उनके बिज़ी माता पिता सुबह ४ बजे पार्टी से टुन्न लौटेगे तो उनके पास होन्डा सिटी कि पिछली सीट पर लिखी उनके सुपुत्र की रात कि दांस्तां टटोलने का बल ना होगा। कुल मिलाकर युवाओं ने इस नए रसायन शास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा में अव्वल आने कि ठान रखी है।
इतिहास गवाह रहा है बदलावों का। जैसे जैसे वक्त की बयार की गति और रुख बदलते हैं वैसे ही मानवीय संवेनाओं की रेत कहीं और जाकर नया आकार पाती है। कभी पैसा, कभी मानवीय कमजोरियाँ, कभी धर्म तो कभी अधर्म, कभी राजनैतिक तो कभी सांस्कृतिक बदलाव के झोंके, कई कारक मिलकर गढ़ते हैं संवेदनाओं का रुप। बदलाव के जिस बयार की बात कर रहा हूँ वह शायद माया की चलाईहुई है। तभी संभवतः ज़िक्र माया नगरी का आया। मैं आज के भूटान के बारे में नहीं जानता पर मुझे याद है कि भूटान नरेश के एक काफी पुराने साक्षात्कार में व्यक्त किए उनके विचार, कि कैसे सैटेलाईट चैनलों के प्रसारण पर बाँध लगाकर उन्होंने अपने छोटे से देश की संस्कृति को बचाकर रखा। हमारे देश में प्रगतिशीलता के मापदंड पर सेंसरशिप को अभिशाप माना जाता है, अनुपम खेर को केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से बाहर करवाने वालों की एक बड़ी शिकायत यह भी थी कि इनके राज में सर्वाधिक "ए" फिल्में जारी हुईं (इसमें भला क्या शक है कि "मर्डर" सपरिवार देखने लायक फिल्म थी) तिस पर उन्होंने टीवी पर भी लगाम कसने की बात कही।
मुझे यह बात बड़ी हास्यास्पद लगती है कि राजनैतिक संप्रभुता पर गर्व करने वाले हम भारतीय अपनी सांस्कृतिक संप्रभुता कि रत्ती भर भी परवाह नहीं करते। शायद इसलिए कि इस देश ने फ्रांस की तरह कभी कोई सांस्कृतिक आन्दोलन ही नहीं देखा। जिस सांस्कृतिक संप्रभुता को बचाने के लिए भूटान जैसे छोटे मुल्क कदम उठाने में नहीं झिझकते उसे हमने मुक्त बाजार और वैश्विक अर्थव्यवस्था के नाम पर सरेआम नीलाम कर दिया। २०० साल अंग्रेजों की गुलामी करने के बाद अब हम उनके सांस्कृतिक गुलाम बन गए हैं।
दुनिया बदली है, मानता हूँ, पर हमारे मनोरंजन के मायने बदले मुक्त बाजार और केबल टीवी ने, सोप से रियेलिटी टीवी से आज के उत्तेजक रीमीक्स तक अब हमारा कुछ नहीं रहा। जिस क्रिकेट के हम दिवाने हैं वह भी हमारा खेल नहीं है। आप शायद ये कहें कि क्या यह उच्चश्रृंखलता, उन्मुक्ततता ७०-८० के दशक में नहीं थी? भारत का कौन सा ऐसा शहर है जहाँ "सिरॉको" न दिखाई गयी हो, कौन सा इलाका जहाँ का केबल वाला भक्त प्रह्लाद की सीडी नहीं रखता। सही मानना है आपका पर कम से कम जो भी होता था वो होता था परदे के अंदर। गटर को खुला रखोगे तो सड़ाँघ फैलेगी ही।
बहरहाल मायानगरी से जो संदेश बाहर जा रहे हैं वो देश के हर कोने को दूषित कर रहे हैं। इस माया के पीछे माया नगरी के कौन लोग हैं नहीं जानता। पर यही ताकतें, जो मानती हैं कि देह ही सब कुछ है और सेक्स हर हाल में बिकता है, देश कि सांस्कृतिक राजधानी में बैठकर यह तय कर रही हैं कि देश के मनोरंजन के पैमाने कैसे होंगे। पर मेरे दोस्त, मुम्बई और दिल्ली भारत नहीं है, हुक्मरानो के पास दूरदर्शिता न सही कॉमन सेंस तो हो। वरना एक TB-6 चैनल बैन करने से क्या होगा हल्के डोज़ देने वाले हज़ारों वैकल्पिक TB-6 खरपतवार की तरह फैल रहे हैं।
Posted by Debashish at 10/31/2004 09:30:00 PM 6 comments
Wednesday, August 25, 2004
वर्ज़न वरण बनाम ईंटरएक्टिव माध्यम
बजाज अपनी एक वाहन श्रेणी के लिए बने टीवी विञापन में रेडियो सम्राट अमीन सायानी की आवाज़ का प्रयोग कर रहा है। दरअसल यह एक ही विञापन है पर इसका प्रर्दशन अदनान सामी के साथिया फ़िल्म के लिए गाए एक चर्चित गीत के प्रारंभिक हिन्दी अंतरे के बाद अन्य भाषाई अंतरों के पृथक कॉम्बीनेशन के रूप में किया जाता है। नतीजतन, एक ही विञापन के कई संस्करण बन गए हैं। एक अन्य वाहन के विञापन में चालक पेट्रोल पंप पर आकर "पेट्रोल" का ही नाम भूल जाता है। वहाँ का मुलाज़िम उसके कई सवाल बूझने के बाद सही शब्द सुझा पाता है। इस विञापन के भी कई संस्करण दिखाए जाते हैं, कई दफा एक ही कार्यक्रम के व्यावसायिक ब्रेक्स के दौरान।
हालांकि जिस उद्योग से मैं जुड़ा हूँ वहाँ उत्पाद के अलाहदा संस्करण होना एक ज़रूरी कवायद है (और इन संस्करणों के देखरेख के लिए भी अन्य सॉफ्टवेयर उत्पादों की जरूरत पड़ती है), पर विञापन जगत के लिए शायद यह नई बात है। विञापन का मेमरी रिटेन्शन यानी की जेहन में ताज़ा रहना उसकी सफलता के मुख्य आधारों में से एक माना जाता रहा है। मुझे याद है कि विको वज्रदंती का जो विञापन छोटे व बड़े पर्दे पर दिखाया जाता रहा है उसकी संरचना व जिंगल गीत में कोई आज तक कोई भारी बदलाव नहीं किया गया, उत्पाद के निर्माताओं की विञापनों की स्थाई छवि पर इतना भरोसा रहा है। संभव है कि यह तगड़े व्यापारिक आधार वाले उत्पादों पर ही लागू होता हो क्योंकि जिस क्षेत्र में मुक़ाबला तगड़ा है, जैसे कि शीतल पेय जैसे उत्पाद, वहाँ विञापन हर छमाही पर नए और बड़े सितारे के साथ बदल कर पेश होते रहे हैं। अब तक भाषाई आधार पर ज़रूर एक ही ईश्तहार के कई रूप होते रहे हैं, जैसे पेप्सी के जिस उत्पाद का उत्तर भारत में अक्षय कुमार प्रचार करते हैं, उसी विञापन का दक्षिण भारतीय संस्करण उनके स्थान पर चिरंजीवी का सहारा लेता है। हाँ, विञापन का मसौदा वही होता है।
सिनेमा जगत में तो एक ही कहानी पर लोग फिल्म के वृहद संस्करण बना कर ही पेट पालते रहे हैं। बॉक्स आफिस और स्थिति की मांग हो तो पटकथा में बदलाव कोई बड़ी बात नहीं होती। पटकथा लेखक का मूल कथानक धरा का धरा रह जाता है और कहानी पर बाजार के मुद्दे भारी पड़ जाते हैं। कहते हैं कि अमिताभ की अस्पताल से सकुशल वापसी के बाद मनमोहन देसाई ने मूल पटकथा का रुख मोड़ कर कुली फिल्म में अमिताभ के किरदार को क्लाईमेक्स में मौत को धता बताते दिखाया। मणिरत्नम की फिल्मों के भी भाषाई संस्करण बनते रहे हैं। ८० के उत्तरार्ध में गुलशन कुमार ने कॉपीराईट कानून की तहों में छेद खोज कर पुराने मशहूर गीतों के रचनाकारों के अधिकारों की खिल्ली उड़ाते हुए वर्ज़न गीतों का प्रचलन शुरु किया, यह प्रथा अब अधनंगे विडियो वाले रीमिक्स गानों तक पहुँच गयी है।
विषय पर वापस आना चाहूँ तो मेरे कहने का पर्याय है कि किसी कथानक के अलाहदा अंत वाले संस्करण यदा-कदा ही देखने को मिलते हैं। कुछ समय पहले मैंने ऐसी एक अंग़्रेज़ी फ़िल्म जरूर देखी थी (रन लोला रन) जिसमें एक ही घटना अलग परिस्थितियों में घटती है और कथानक हर बार किसी अलग मुक़ाम पर पहूँचता है। ज़ी टीवी पर भी एक ऐसा परीक्षण किया गया था, कार्यक्रम "आप जो बोले हाँ तो हाँ, आप जो बोले ना तो ना" के द्वारा, जिसमें दर्शकों की राय के आधार पर कहानी मोड़ लेती थी। कल्पना कीजिए कि आपकी स्थानीय वीडियो लाईब्रेरी में "एक दूजे के लिए" फिल्म का मूल और सुखांत संस्करण दोनों मुहैया हों। सुना है कि रामगोपाल वर्मा भी एक ऐसी फिल्म पर कार्यरत हैं जिसकी कहानी के दो अलग तरह के अंत होंगे। अभी ये मालूम नहीं कि ऐसे संस्करण एक ही सिनेमा हॉल में प्रदर्शित होंगे या प्रांत और भाषा के अनुसार, पर ईंटरएक्टिव टीवी और सिनेमा के जरिए निःसंदेह है कुछ नया करने की दिशा में यह सराहनीय व रचनात्मक कदम हैं।
Posted by Debashish at 8/25/2004 05:35:00 AM 5 comments
Thursday, July 22, 2004
चिट्ठा विश्व का नया संस्करण
हिन्दी चिट्ठों के संसार की अनंतर दास्तां प्रस्तुत करने के प्रयास में कुछ सुधार के बाद, चिट्ठा विश्व नए रुप में प्रस्तुत है, जिसमें चिट्ठाकार व चिट्ठा परिचय के स्तंभ जोड़े गए हैं। पद्मजा और नीरव का धन्यवाद करना चाहुँगा जिन्होने इस कार्य में योगदान दिया है। जनभागीदारी की अपेक्षा रखते हुए आपका भी सहयोग चाहता हूँ। अपनी राय से मुझे अवगत करावेंगे तो खुशी होगी। चिट्ठाकारों के परिचय के लिए मैं व्यक्तिगत रूप से चिट्ठाकारों को लिख रहा हूँ, पर कई दफा ईमेल पता उपलब्ध न होने के कारण हो सकता है सभी को न लिख पाऊं, इस लेख को आमंत्रण मान कर आप मुझे चिट्ठा विश्व पर मौजूद विधि द्वारा संपर्क कर सकते हैं। यदि आप किसी हिन्दी चिट्ठे की समीक्षा करना चाहें तो उत्तम, कुछ और विषय पर सार गर्भित लेख लिखना चाहें तो संकोच न करें। चौपाल में चर्चा करना चाहें तो अक्षरग्राम तो है ही।
Posted by Debashish at 7/22/2004 06:55:00 AM 2 comments
Monday, July 05, 2004
दौड़ बदलाव की
यदि मेरे यूँ नाक भौं सिकोड़ने से आप मुझे सहिष्णुता जैसा प्राचीन (और जिसे विलुप्त भी माना जा सकता है) न मान लें तो आज के युवा वर्ग पर मुझे कई मामलों में विस्मय और नाराज़गी की मिश्रित अनुभूति होती है। लड़के स्त्रियों की भांति मशरूम केश सज्जा के कामिल हैं, कानों में "बिंदास" बालियां पहनते हैं, तो कन्याएँ मय टीशर्टॆ व पतलून अपना पुरुषत्व दिखाने की होड़ में हैं। बिंदी हिन्दी की ही तरह पिछड़े लोगों की पहचान मानी जाने लगी है, साड़ी तो दूर की बात है सलवार कमीज़ से भी "बहनजी" कहलाए जाने का खतरा रहता है। अपने ब्वॉय फ्रेंड के साथ मोटरसाईकल पर चिपककर बैठकर, पीछे से उठी टीशर्टॆ बार बार नीचे खिंचते हुए ये कन्याएं शो-बिज़नेस से प्रभावित हैं। चमड़ी की व्यापारी मल्लिका शेरावत इनकी पथ प्रर्दशक हैं। पैसे और शोहरत की रेस लगी है, हर कोई किसी "टेलेन्ट हंट" में जीतकर रातोंरात बुलन्दियों को छूना चाहता है। इसके लिए "कुछ भी" करने को तैयार हैं, शादीशुदा अपनी पहचान छुपाकर, घर से भागकर सफलता की गाड़ी में सवार होना चाहते हैं।
समाचार पत्रो पर नज़र डालें, कुछ साल पहले तक परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाओं के जांचते समय परीक्षक को चिरौरी भरे कुछ ऐसे नौट मिलते थे,"सर, दिन भर घर के काम में जुटे रहना पड़ता है, तीन महीने बाद मेरी शादी है, मुझे प्लीज पास कर देवें", आजकल की भाषा काफी बदल गयी है, अब पास होने के एवज़ में ये बालाएँ "कुछ भी" करने को तैयार हैं। ये "ब्यूटिफुल" समाज वैसे केबल टीवी के आने से "बोल्ड" हो ही गया था, रही सही कसर इंटरनेट ने पुरी कर दी है। यहां तो सेंसर का भी जोर नहीं चलता। आकर्षण तो पहले भी होता था अब इज़हार के तरीके बदल गए हैं, युगल एक साथ बंद केबिन में सूचना हाईवे पर प्रेम के मायने तलाशते हैं, एक माह पहले और प्रशासन की मार पड़ने तक मेरे शहर के इंटरनेट कैफे उनकी हर ख्वाहिश पूरी कर देते थे, पुलिसिया खोज ने कई स्थानों पर एटैच्ड शयनकक्ष भी खोज निकाले। सरकार करोड़ों खर्च कर जिन संचार माध्यमों पर "संयम से सुरक्षा" की मुनादी कर रही है, उन्हें तो केबल वाले डंडे के जोर से भी दिखाने को राजी नहीं, तो यह पीढ़ी संयम सीखे कैसे? भारत में सर्वाधिक संख्या युवाओं की है और एड्स के रोगियों की सबसे ज्यादा तादात भी यहीं है। नवीन और पुरातन की हाथापाई तो हर युग में जारी रहती है, पर बदलाव के इस दौर का मुख्य जरिया शरीर बन गया है। ये प्रक्रिया क्या गुल खिलाएगी, क्या जाने?
Posted by Debashish at 7/05/2004 06:45:00 AM 0 comments
Sunday, June 27, 2004
अटल व्यथा
भाजपा एक्सप्रेस भारत प्लैटफॉर्म पर लगी और उसकी रवानगी भी हो गई। इन सारे वर्षों में और हालिया घटनाक्रम से यह बात कभी भी पल्ले नहीं पड़ी कि आखिर वाजपेयी को गले लगाए रखने की भाजपाई मजबूरी क्या है। वैंकैया ने सीधे कह दिया कि व्यक्ति आधारित राजनीति अब नहीं होगी, मोदी बने रहेंगे, फिर अगले ही पल वाजपेयी की मनौव्वल में जुट गए। दरअसल सोनिया के नाम पर व्यक्तिवाद का विरोध कर अपने बाल नोंचने वाले भाजपाई स्वयं पीछे रहते तो आज पार्टी कार्यकर्ताओं की रज़ामंदी के खिलाफ जाकर उमा भारती और वसुंधरा राजे की ताज़पोशी न हो पाती। सारे वाकये पर कविह्रदयी पूर्व प्रधानमंत्री (जिन्होनें "थाली का बैंगन" मुहावरे को पहले भी चरितार्थ किया है) ने कराह कर कहा "बस और नहीं" पर फिर पहले का कहा मज़ाक में टाल गए। इधर भाजपा का भावी चरित्र कैसा होगा यह तय कर पाना उतना ही दुष्कर होता जा रहा है जितना कि पुर्वानुमान लगाना कि इस साल मॉनसून कैसा रहेगा।
बहरहाल जैसा कि मेरा पुर्वानुमान था, वाजपेयी जी का युग और भाजपा की उदार छवि दोनों ही भूतकाल की बातें हो जाने वाली हैं। पत्रकार कमलेश्रर ने सही कहा है, "वाजपेयी का सैधान्तिक निर्गम हो चुका है"। ऐसे में उग्र हिंदू छवि वाले नेताओं के तो वारे न्यारे होंगे पर कमोबेश तटस्थ छवि वाली जमात का क्या होगा, राम जाने! संघ पहले ही कह चुका है कि "चीते का दाग छोड़ देना" भूल थी। इसलिए "तिल गुड़" फैक्टर को तिलांजली दे कर राम फिर याद आने लगे हैं। मुझे डर है कि अपने दाग वापस पाने की फिराक़ में यह घायल चीता कहीं आदमखोर न हो जाए।
Posted by Debashish at 6/27/2004 10:01:00 PM 0 comments
Friday, May 21, 2004
हिन्दी ब्लॉग गीत
याज़ाद ने अनिल के एक चिट्ठे के हवाले से हिन्दी ब्लॉग गीत की बात छेड़ी। तो अपन कहां पीछे रहने वाले थे। हाजिर है कुछ ब्लॉग गीतः
ये अपने बाप्पी दा इश्टाईल में:
ब्लॉगिंग बिना चैन कहां रेSSS
कॉमेन्टिंग बिना चैन कहां रेSSS
सोना नहीं चांदी नहीं, ब्लॉग तो मिला
अरे ब्लॉगिंग कर लेSSS
..ये कुछ अल्ताफ राजा की शैली:
तुम तो ठहरे बलॉगवाले
साथ क्या निभाओगे।
सुबह पहले मौके पे
नेट पे बैठ जाओगे।
तुम तो ठहरे बलॉगवाले
साथ क्या निभाओगे।
और ये जॉनी वॉकर का बयानः
जब सर पे ख्याल मंडराएं,
और बिल्कुल रहा ना जाए।
आजा प्यारे ब्लॉग के द्वारे,
काहे घबराए? काहे घबराए?
सुन सुन सुन, अरे बाबा सुन
इस ब्लॉगिंग के बड़े बड़े गुन
हर बलॉगर बन गया है पंडित
गूगल भी थर्राए।
काहे घबराए? काहे घबराए?
एकाध पैरोडी आप की ओर से क्यों न हो जाए?
Posted by Debashish at 5/21/2004 01:57:00 AM 0 comments
Monday, May 17, 2004
खिसियानी बिल्ली...
सुषमा सवराज मय पतिदेव राज्य सभा से पलायन करना चाहती हैं। वे भाजपा के राजनीति के WWF में एक विदेशी से पटखनी खाने के बाद से बेचैनी महसूस कर रहीं थी। अंबिका सोनी ने चुटकी ली, "अरे परवाह कौन करता है, वैसे भी श्रीमान स्वराज के मेम्बरशिप के दो ही महीने बचे हैं।" दरअसल सारी नाराजगी वाजपेयी से है। सुषमा और उमा भारती जैसे कर्मठ (कट्टर पढ़ें) भाजपाई संघ की तरह ये मानते हैं भाजपा के हिंदूवादी तेवर नरम करने से ही बेड़ा गर्क हुआ। वाजपेयी का राजनीतिक सन्यास तो तय ही है, विहिप और तोगड़िया भी किसी भी एक्स वाई जेड को उनकी जगह देने के लिए राजी हैं जो हिन्दुवादी संगठनों को राजयोग की भस्मी चटा सकने की कुव्व्त रखता हो। हाशिए पर पड़े गोविंदाचार्य सोनिया विरोघ के पुरोधा बनकर मिस भारती का दिल जीतना चाहते होंगे शायद। सुषमा और उमा को मलाल ये भी है कि सोनिया के विदेशी मूल के सार्थक मुद्दे को पर्याप्त तूल न दे कर और महाजन की कंप्यूटरी पंडिताई के चक्कर में पड़कर ही भाजपा की चुनाव में मिट्टी पलीद हुई, तिस पर मुरली जैसे नेता को सर चढ़ाया गया जिनकी जमानत भी न बच सकी। पार्टी के भीतर जब इतने उहापोह हों और सबसे फिट नेता के लिए डार्विनी सरवाईवल का संग्राम चल रहा हो तो खिसिया जाना कौन सी बड़ी बात है!
Posted by Debashish at 5/17/2004 04:25:00 AM 0 comments
Wednesday, May 12, 2004
पुरस्कार पखवाड़ा
बड़ा अच्छा पखवाड़ा रहा। यूं तो पहले भी कुछ ऐसे ईनामात मिले पर इस बार काफी दिनों बाद किस्मत ने साथ दिया लगता है। पहले तो प्राप्त हुआ भाषाईंडिया की ओर से माईक्रोसॉफ्ट वायरलेस कीबोर्ड और माउस (कहना पड़ेगा कि बहुत ही शानदार चीज है, हालांकि नामुराद कुरियर वालों ने ४ बैटरियां रास्ते में ही पार कर दीं) उनकी एक प्रतियोगिता में भाग लेने पर और दूसरा जेएफसी स्विंग्स पर एक पुस्तक जावारैन्च पर। उम्मीद की जाए कि ऐसे और भी मौके आयेंगे!
Posted by Debashish at 5/12/2004 07:14:00 AM 0 comments
Monday, May 10, 2004
नए ब्लॉगर पर नुक्ता चीनी
नए ब्लॉगर के सलोने रूप की तारीफ तो मैं कर ही चुका हूँ, मुफ्त सेवा वालों को अनेक नई सुविधाओं जैसे टिप्पणी (जो हेलोस्कैन के कारण मेरे तो किसी काम की नहीं), नए आकर्षक खाके, चिटठाकार के प्रोफाइल (जो ब्लॉगर समूह को सुदृढ करेंगे), नए टैग (मुझे पसंद आया, हाल के चिटठों वाला जिसके लिए मैंने अपना पकवान बना रखा था), चिट्ठे लिखने के लिए मैं या तो WBloggar का प्रयोग करता था या ब्लॉग दिस पैनल का तो इपत्र से चिट्ठे प्रेषण की सुविधा फिलहाल तो मेरे काम की नहीं। एक नवेली चीज जो जँची वो है, पोस्ट पेज, सेटिंग > इनेबल पोस्ट पेजेस
पर जाकर यदि आप इसे चालू कर देंगे तो आपकी स्थाई कड़ियां उस चिट्ठे को एक अलग पृष्ट पर दिखायेगी। चिटठे के प्रिव्यू की व्यवस्था भी लाजवाब है।
जो खलने वाली चीज है वो है चिट्ठे संपादित करते समय कैलेंडर द्वारा उनकी खोज की सुविधा का हटाना और पब्लिश करने में समय ज्यादा लगना। पर जैसा कि कहते हैं, दान की गाय के दांत नहीं गिना करते ;)
Posted by Debashish at 5/10/2004 10:27:00 PM 0 comments
Sunday, May 09, 2004
सम्पूर्ण कायापलट
आज ब्लॉगर ने हैरत में डाल दिया। उनका डैशबोर्ड न केवल काम का है बल्कि बेहद हसीन भी है। इसके अलावा सम्पूर्ण कायापलट कर दिया है ब्लॉगर ने अपने रुप में। शायद थोड़ा सा ध्यान सरलीकरण की ओर दिया गया है। क्या आपने देखा?
Posted by Debashish at 5/09/2004 11:53:00 PM 0 comments
Friday, April 30, 2004
बात भूख की
डेनियल ने एक अनोखे वाकये का उल्लेख किया है जब भिखारियों ने दान किया जा रहा खाना यह कह कर ठुकरा दिया कि यह खाना गर्मियों के लिए उपयुक्त नहीं है। कारण जो भी हो, डेनियल का यह कहना काफी सही है कि दान के सहारे जीवनयापन करने वाले अब इससे इतने इतराए हुए हैं कि अब भीख भी उन्हें मन मुताबिक चाहिए। जैसा डेनियल ने कहा, ये लोग भूखे नहीं वरन आलसी और लालची लोग हैं।
मेरे कार्यस्थल पर आते और लौटते समय मुझे बरसों से एक उम्रदराज पर खासा हट्टा कट्टा भिखारी दिखता है। उसके एक हाथ में कुष्ठ रोग का कुछ असर है। अगर मैं और वह एक जैसी वेष भूषा में साथ खड़े हो जावें तो मैं शर्तिया कह सकता हूँ कि कमजोर काया के आधार पर भीख मुझे ही मिलेगी। बहरहाल यह जनाब बोलते कुछ नहीं, बस बाजू में आकर हाथ जोड़कर खड़े हो जाएँगे आपको निहारते रहेंगे। शुरूआत मे मैंने कुछ पैसे दिये भी। पर हर रोज आप उसी व्यक्ति को कैसे जरूरतमंद मान सकते हैं। इस देश में दिक्कत यह है कि कुष्ट जैसे रोग, शारीरिक अयोग्यता के आधार लोग आपसे इतनी हिकारत से पेश आते हैं कि आप मुख्यधारा में आकर अपनी रोजी रोटी कमा नहीं सकते, छोटे शहरों में परिवार में खुशी के मौकों पर और मुम्बई जैसे शहर में जब किन्नर जबरिया पैसे मांगते हैं तो मन में कई बार ये ख्याल आता है कि वाकई ये लोग इस तरह पेट ना भरें तो समाज कौन सा इन्हें कोई रोजगार मुहैया करा देगा।
वक्त के साथ ये मजबूरी आदत बन जाती है। भीख मांगना पेशा और अधिकार बन जाता है। सरकारी वितरण प्रणाली में इतने छेद हैं कि सारा अनाज चूहे और अफसर खा जाते हैं, सस्ता अनाज गरीब और जरुरतमंदों तक पहुँचता नहीं। भूखे की भूख बनी रहती है, टैक्स चोरी से पनपते धनाढ्य दान दे कर फील गुड करते हैं।
Posted by Debashish at 4/30/2004 12:14:00 AM 0 comments
Tuesday, April 27, 2004
हालिया चिटठों की कड़ियां
अगर आपने गौर किया हो तो इस चिट्ठे में दाँयीं ओर "हाल के चिट्ठे" दिखते हैं, दरअसल ये जावास्क्रिप्ट इस चिट्ठे के एटम फीड को पार्स करके बनायी गई है। अगर आप अपने ब्लॉग पर इसका उपयोग करना चाहते हैं तो निम्नलिखित कोड यथास्थान पर पेस्ट कर दें। ब्लॉगर.कॉम वाले तो इसका सीधा प्रयोग कर सकते हैं अन्य <$BlogSiteFeedUrl$>
के स्थान पर अपने एटम फीड का URL दें। ध्यान रहे, यह एटम फीड पर ही काम करेगा, RSS या RDF फीड पर नहीं।
<script language="javascript" type="text/javascript" src="http://www.myjavaserver.com/~javaman/RecentPosts.jsp?feed=<$BlogSiteFeedUrl$>"></script>
यह आधारित है ब्लॉगस्ट्रीट के RSS पैनल पर, पर ब्लॉगस्ट्रीट एटम का प्रारूप अभी नहीं समझता है। यदि आप 2RSS जैसी सेवा का प्रयोग कर अपने एटम फीड को RSS में परिवर्तित भी कर दें तब भी ब्लॉगस्ट्रीट इसे दर्शा नहीं पाता है। यदि आपको ऐसी किसी मुफ्त सेवा का पता हो तो अवश्य बतायें।
Posted by Debashish at 4/27/2004 11:11:00 PM 0 comments
नए पड़ाव
खुशी की बात है कि हिन्दी ब्लॉग के काफिले में नए राही जुड़ते जा रहे हैं। नवागंतुक वैभव पाण्डेय का स्वागत है। इस बीच नजर पड़ी ब्लॉगडिग्गर पर। जानकर अच्छा लगा कि यह कोई साधारण एग्रीगेटर नहीं वरन आपको चिट्ठों का समूह बनाने में भी मदद करता है। ऐसा समूह बनाने का एक लाभ यह हो सकता है कि एक जैसे चिट्ठे एक जगह जमा हो और उनके नवीनतम चिट्ठों के संक्षिप्त रुप एक ही पृष्ठ पर मिल जावें और सोने पर सुहागा हो अगर उनका एक ही संयुक्त आर.एस.एस फीड हो।
अतः देर न करते हुए मैंने हिन्दी चिट्ठों का एक समुह बना ही डाला। इस समुह का फीड URL है http://www.blogdigger.com/groups/rss.jsp?id=130 और सम्मिलित चिट्ठों की सूची ओ.पी.एम.एल प्रारूप में भी यहाँ उपलब्ध है। फिलहाल समूह के मुखपृष्ठ पर चिट्ठों के नाम सही तरीके से दिख नहीं रहे, मेरे ख्याल से अभी इस सेवा में सुधार की काफी गुंजाईश है। चुंकि यह अभी बीटा में ही है इसलिए थोड़ा और इंतजार करना चाहिए। वैसे ब्लॉगलाईन्स पर समूह की फीड बढिया दिख रही थी। उम्मीद की जाए कि मैं और ब्लॉगडिग्गर दोनों ही इन्हें ताजातरीन रख पायेंगे।
Posted by Debashish at 4/27/2004 06:13:00 AM 0 comments
Wednesday, April 21, 2004
काव्यालय ~ इस सफ़र में
मैंने कवि बनने की अपनी नाकाम कोशिशों का ज़िक्र इस चिट्ठे पर कभी किया था। उन दिनों गज़ल लिखने पर भी अपने राम ने हाथ हाजमाया, बाकायदा तखल्लुस रखते थे साहब, बेबाक। तो उन्ही दिनों की एक गज़ल यहां पेश है। अगर उर्दु के प्रयोग में कोई ख़ता हुई हो तो मुआफी चाहुँगा।
इस सफ़र में बहार के निशां न मिले
जहाँ गई भी नज़र, सूखे से दरख्त मिले।
मेरी ख़ता कि अब बूढ़ा बीमार हूँ मैं
शर्म आती है उन्हें सो अकेले में मिले।
रहनुमा1 कहतें हैं तोड़ेंगे वो पुराने रिवाज़
हमें तो सब मुबतला2 अक़ीदों3 में मिले।
हैरां हूँ क्या हो जाती है मुहब्बत ऐसे
गोया दो चार दफ़ा हम जो बग़ीचों में मिले।
मिल्क़यत लिख वो गुज़रे जो 'बेबाक' के नाम
हमदम बनने को रक़ीब4 रज़ामंद मिले।
1. रहनुमा = राह दिखाने वाला (Guide)
2. मुबतला = जकड़े हुए (Embroiled In)
3. अक़ीदा = मत (Doctrine Of Faith)
4. रक़ीब = दुश्मन (Enemy)
Posted by Debashish at 4/21/2004 05:08:00 AM 0 comments
Sunday, April 18, 2004
रहिमन माया संतन की..
उज्जैन में सिंहस्थ की खबरों में बड़ा अजीब विरोधाभास नजर आता है। भई, बचपन से हम को तो यही सिखाया-बताया गया है कि साधु वैराग का दूसरा नाम होते हैं; मोह-माया, मानवीय कमजोरियों, वर्जनाओं से परे, गुणीजन होते हैं। हो सकता है कि कलियुग की माया हो, वरना मुझे तो ऐसे कुछ संकेत दिखे नहीं। खबरों पर सरसरी नजर दौड़ाएँ तो पता चलेगा कि फलां साधु करोड़ों का चैक भुनाने बैंक पहुँचे, एक आगजनी में साधुओं के टेंट में लाखों के नौट सुलगते देखे गये, आगजनी से क्षुब्ध साधुओं ने कलेक्टर पर कीचड़ उछाल दी और अधिकारियों से हाथापाई की।
कुल मिलाकर मुझे तो सर्वत्र यही दिखता है कि इस सर्वधर्म समभाव वाले देश में, जहाँ कहने को तो राज्य का कोई मज़हब नहीं है (the state has no religion), धर्म के नाम पर आप समाज की माँ-भैन कर सकतें हैं, कोई माई का लाल चूँ-चपड़ नहीं कर सकता। अगर आप नंगे घूमें तो समाज पागल कह कर आप पर पत्थर बरसायेगा और ग़र आप एक नागा साधु हैं तो समाज की औरतें अपने पतियों की उपस्थिती में आपका पैर धो कर पियेंगी। ऊपर उल्लेखित अगर एक भी खबर सच्ची है तो मैं तो ये मानुंगा कि ये *ले साधु नहीं, निरे कपटी और ढोंगी हैं, सोने-चांदी के जेवर चमकाने के बहाने ठगी करने वाले लोगों से भी अधम हैं ये लोग। पर समाज है कि आंखे मूंदे पड़ा है। तोगड़िया बोलते हैं, "अटल जी हमारे मामले में न बोलें, अयोध्या हो जाने दीजीए फिर ३०,००० अन्य मस्जिदों की बारी है।" मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री ताल ठोंक कर कहतीं हैं, "हाँ, मैं संघ परिवार के साथ मिलकर सरकार चला रही हूँ।" उधर भाजपा कहती है मुसलमानों का पार्टी में विश्वास बढ़ता जा रहा है।
कैसा धर्म-निरपेक्ष राज्य है यह? रहीम आज होते तो जाने क्या सोचते!
Posted by Debashish at 4/18/2004 10:22:00 PM 0 comments
Thursday, April 08, 2004
मेहमान का चिट्ठाः हेमन्त
बॉलीवुड और चोरी की प्रेरणा
विगत दिनों जब बार्बरा टेलर ने सहारा टीवी के धारावाहिक करिश्मा को कॉपीराईट उल्लंघन के आधार पर बंद करवाने की धमकी दी थी तो बॉलीवुड में सपने बुनने के कारखाने को तो जैसे साँप सूँघ गया था। हालाँकि बाद में बार्बरा मान मनोव्वल से बस में कर ली गईं पर इस घटना से बॉलीवुड की कई हस्तियों की कई रातों ओर दिनों की नींद जरूर हराम हो गई होगी। इस घटनाक्रम से न केवल बॉलीवुड की चोरी की आदतों का भंडाफोड़ हुआ वरन् इससे दुसरी "आधार सामग्री" पर उनकी पूर्ण निर्भरता और हॉलीवुड से जुड़ी अदृश्य नाभिरज्जू का खुलासा हो गया। यह निंदनीय प्रवृत्ति बॉलीवुड में सर्वव्याप्त क्यों है? मेरा मानना है कि इसके बीज काफी पहले बो दिए गये थे।
बॉलीवुड का जन्म उसके नाम की तरह हॉलीवुड की कोख से हुआ है। उसकी शुरुआत चलचित्र और बोलती फिल्मों के अविष्कार के लगभग बाद ही हुई। उन दिनों यह आम बात थी कि निर्देशक या निर्माता या अभिनेता (या सभी) अंग्रेज़ या अमरीकी हों। उस समय के कई विशिष्ट भारतीय निर्देशकों ने इस कला में महारत हासिल करने के लिए विदेश में प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। (दादासाहेब फाल्के भी १९१० में बनी "द लाईफ आफ क्राईस्ट" से प्रेरित हुए थे जो उन्होंने बम्बई में देखी थी।) इससे पश्चिम का प्रभाव अवश्यम्भावी रूप से पड़ा। दरअसल हमने इस पश्चिमी प्रभाव से शुरुआती दौर में काफी कुछ सिखा है और आज जो भी हम हैं (कुछ क्षेत्रों में) उसका बहुत सा श्रेय इसको जाता है। दुर्भाग्यवश, भारत के लिये (आपके नजरिये पर निर्भर है) इन बाहरी तत्वों का दिया सहारा या नियंत्रण भारतीय सिनेमा की आत्मा में गहरा समा गया प्रतीत होता है।
राजकपूर सदृश शोमैन भी पीछे नहीं रहे। अपने चार्ली चैपलिन नुमा खानाबदोश किरदारों के द्वारा उन्होंने दर्शकों का दिल जीतने की ठान ली। यह काम कर गया, और वो अकेले नहीं थे। इस प्रारंभिक व्याख्या का हुबहू खाका प्रयोग कर दूसरे फिल्म निर्माताओं ने भी सफलता हासिल की। बॉलीवुड की स्थिती उसकी व्यथा है। बम्बई में होते हुए इस उद्योग को गैर व्यवसायिक तौर पर चलाया जा सकता है भला! जाहिर है, यहाँ चलचित्र को संचार के नहीं निवेश के माध्यम के रूप में देखा जाता है।
भारतीय दर्शक वर्ग दूसरों से काफी भिन्न है; बस उनका पैसा वसूल होना चाहिए। एक कठिन और थकानेवाले दिन के उपरांत उन्हें शुद्ध मनोरंजन चाहिए, सामाजिक समस्याओं पर कोई पाठ नहीं। नतीजन, भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा जल्दी ही फार्मूला फिल्में बनाने तक सिमट गई। जो भी चलचित्र इस प्रथा को तोड़ता उसे "कला सिनेमा" करार दे कर बड़े शहरों और दूरदर्शन पर रविवार दोपहर के प्रसारण समय तक सीमित कर दिया जाता। हैरत की बात नहीं कि बॉलीवुड के फिल्मकारों की पुश्तें निर्माताओं के एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसके हाथ की कठपुतलियां बनती रही हैं, बॉक्स आफिस पर सफलता। "सड़क" से "जिस्म" तक, निर्देशकों को लगता है कि उनके पास "हिट" बनाने का सीधा जवाब मौजूद है। किसी सफल हॉलीवुड चलचित्र का हिन्दी पुर्ननिर्माण कर इक्का दुक्का जगह बदलाव कर दिया और तैयार हो गई एक "प्रेरित" पटकथा। क़ैद नाज़मी ने द वीक में अपने लेख बॉलीवुड कॉपीकैट्स में पटकथा लेखक की दुःखद दास्तान का ब्यौरा दिया है। कोई चलचित्र उद्योग जो अपने पटकथा लेखकों के साथ इतना बुरा बर्ताव करता हो वह भला स्वस्थ प्रवृत्ति या मौलिकता की डींग कैसे मार सकता है? पर ये भी मानना होगा कि सिनेमा निर्माण करने वाले हर देश ने हॉलीवुड के रद्दी फार्मुला का अनुसरण करने का प्रयास किया है। ऐसे में सिर्फ बॉलीवुड पर क्यों ऊँगली उठाई जाए?
इसके विपरीत कि भारत (और काफी हद तक बॉलीवुड) रिकॉर्ड संख्या में फिल्मों का निर्माण करता है, हमने हॉलीवुड (या विश्व सिनेमा) पर शायद ही कोई असर डाला होगा। नजर डालें १९६० की फ्रांसिसी नई लहर पर (जिसने हॉलीवुड के सिनेमा निर्माण में क्रांति ला दी) या इतालवी नवीन वास्तविकता वादी सिनेमा पर या जापानी कला-कौशल युक्त सिनेमा (स्टार वार्स कुरुसावा की समुराई चलचित्रों से प्रभावित हुआ था) अथवा चीन और हांगकांग के कुंग फू चलचित्र। बॉलीवुड ने क्या बदला है? कुछ नहीं। हमारे लिए यह एक तरफा रास्ता रहा है।
अगरचे कोलकाता उच्च न्यायालय ने बार्बरा की अर्जी खारिज न कर कोई दृष्टांत पेश किया होता तो हो सकता है कि बॉलीवुड की नींद खुलती और सबक सीखा होता। उसके बिना बॉलीवुड बस इसी विश्वास पर आगे बढ़ता रहेगा कि हॉलीवुड तो है ही "प्रेरणा" प्राप्त करने के लिए।
इस पखवाड़े के मेरे मेहमान हेमन्त कुमार फिल्मों के दीवाने हैं। यहाँ तक कि वे रिर्जवॉयर डॉग्स के पात्र एडी कि तरह "नाईस गाई" कहलाना पसंद करते हैं। मूलतः मद्रास निवासी हेमन्त भारतीय और हॉलीवुड पर पैनी नज़र रखते हैं और हर तिमाही अपना ब्लॉग टेम्पलेट जरूर बदलते हैं (मज़ाक कर रहा हुँ यार)। अपने मुख्य चिट्ठे के अलावा हेमन्त तमिल सिनेमा पर खास चर्चा अपने अन्य ब्लॉग टीकाड़ा में करते हैं।
Posted by Debashish at 4/08/2004 03:24:00 AM 0 comments
Tuesday, April 06, 2004
बकाया बातें
फिर वही दौर जब चिट्ठे पढ़ता तो हूँ पर कुछ लिखने का जी नहीं करता। ऐसे में सोचा कुछ बकाया बातें कर ली जाएं। पहले हिन्दी के तकनीकी शब्दों के प्रयोग से संबंधित एक बात। शायद आप को ञात हो, की सूचना प्रोद्योगिकी से संबंधित शब्दों के अंग्रेज़ी से हिन्दी मान्य तजुर्मे यहां उपलब्ध है।
दूसरी बात अन्य भारतीय भाषाओं में चिट्ठों की, पिछले एक चिटठे में मैंने इसका ज़िक्र किया था कि बांगला में एक भी चिट्ठा नहीं दिखा। सुकन्या दी के सहयोग से मैंने इस दिशा में कुछ शुरुआत करने की सोची और जन्म हुआ प्रथम बांग्ला ब्लॉग का। मूलतः यह चेष्टा है बांग्ला भाषिओं को बांग्ला युनिकोड का प्रयोग कर अपना चिट्ठा प्रारंभ करने के लिए प्रेरणा देने की। सुकन्या दी ने स्वयं अपना बांग्ला ब्लॉग भी शुरु किया है और जाहिर है जरुरत एक बांग्ला ब्लॉग डायरेक्टरी की भी थी।
Posted by Debashish at 4/06/2004 11:27:00 PM 0 comments
Monday, March 29, 2004
हम ब्लॉग
प्राकृत भाषा में ब्लॉग की बात करें तो निःसंदेह अगुआई का सेहरा तमिल भाषियों के सर बंधेगा। हिन्दी चिट्ठों के संसार में नई लहर उठे अभी शायद कुछ माह ही हुए हैं, आलोक ने भी तकरीबन १ साल पहले अपना हिन्दी चिट्ठा शुरु किया था, पर तमिल भाषा में कई चिट्ठाकारों ने मिलकर इस आंदोलन को वृहद बना दिया है। सही सही मालूम नहीं कि इनमें से कितने युनिकोड कूटलिखित हैं पर मेरे ख्याल से अधिकांश हैं। इधर मेरी मातृभाषा बांग्ला समेत बाकी सभी भारतीय भाषाओं में चिट्ठों का मेरा गूगल अन्वेशण निरर्थक ही रहा। यदि आप को जानकारी है तो अवश्य बताएँ।
ताज़ा खबर [17 अप्रेल]: एक मराठी ब्लॉग मिला है, मी माझा। और बांग्ला ब्लॉग के शुरुआती कदमों की आहट तो आपने अब तक सुन ही ली होगी।
Posted by Debashish at 3/29/2004 04:03:00 AM 0 comments
Tuesday, March 23, 2004
बस आगे बढ़तें रहें
पंकज के मुवेबल टाइप के अनुवाद के दौरान हुई चर्चा में मैंने या विचार रखे थे कि log, trackback, preview, template, password, username, archives, flag, bookmarklet जैसे पारिभाषिक शब्दों को जस का तस लिखना चाहिए, हर शब्द का हिन्दीकरण उचित नहीं।
पंकज का मानना है:
मैं सोचता हूँ कि अनुवाद ऐसा होना चाहिए जो कि एक हिन्दी माध्यम से दसवी पास व्यक्ति भी समझ सके । यानि की अंग्रेजी उसने केवल छठी से दसवी तक पढ़ी हो। या फिर कोई सरकारी कार्यलय का बाबू भी समझ सके।
विनय ने कहा:
जैसे-जैसे नए लोग आएँगे और लिखेंगे, अपने आप एक सर्वमान्य और विस्तृत शब्दकोश बनता जाएगा। शुरुआती समस्याएँ तो जायज़ हैं।
पंकज और विनय, आप दोनों की बात में दम है कि तकनीकी शब्दावली सामान्य व्यक्ति कि समझ में बसने लायक होना चाहिए। जो दिक्कत मैं देख पाया वह यह है कि यदि हम बोलचाल की भाषा के प्रयोग की अघिक चेष्टा करें तो भाषा अशुद्घ होने का डर रहता है, क्योंकि बोलचाल में तो हम हिन्दी, खड़ी बोली, अंग्रेज़ी, उर्दु और स्थानीय बोली का सम्मिश्रण बोलते हैं। दूसरी ओर यदि भाषा की शुद्घता पर ष्यान केंद्रित करें तो शब्दावली अति क्लिष्ट हो कर जनसामान्य के पहुँच से दूर हो जाती है। शायद यही कारण है कि जहाँ Trackback के लिए "विपरीतपथ" जैसे शब्द मुझे अटपटे लगते हैं वही ऐसे शब्दों का तुरन्त कोई हिन्दी समानार्थी भी नहीं सूझ पड़ता। वहीं Blog के लिए "चिट्ठा" काफी जँचता है।
तो जैसा विनय ने कहा, समय लगेगा, विभिन्न लोग अलग-अलग शब्दावली रचेंगे और अंततः कोई सर्वमान्य शब्द ज़बान पर चढ़ जाएगा। आगे बढ़ते रहना जरूरी है और पंकज आपका ये कदम हिन्दी को आगे लाने में अवश्य ही मददगार साबित होगा और हम जैसो के लिए प्रेरणास्त्रोत भी।
Posted by Debashish at 3/23/2004 01:56:00 AM 0 comments
Tuesday, March 09, 2004
मेहमान का चिट्ठाः नितिन
कश्मीर और पाकिस्तानी अंर्तविरोध
७ मार्च के दैनिक “द न्यूज़” मे इकबाल मुस्तफा इसी विषय की चर्चा करते हुये कह्ते हैं-
अब समय आ गया है कि पाकिस्तान खुद अपनी तकदीर की तलाश करे।
इस तरह का लेख बहुत सालों मे पहली बार पढ़ने को मिला है। लेकिन जब तक पाकिस्तान का शासन सेना के हाथ मे है, परिवर्तन की उम्मीद बेकार है।
भारत पाकिस्तान के साथ कश्मीर के मुद्दे पर बातें और समझौता तो कर सकता है पर शायद पूर्ण रूप से सुरक्षित नही हो सकता।
इस पखवाड़े का "मेहमान का चिट्ठा" लिख रहे हैं, सिंगापुर में बसे नितिन पई। पेशे से दूरसंचार इंजीनियर नितिन एक प्रखर व मौलिक चिट्ठाकार हैं और उन मुठ्ठीभर भारतीय चिट्ठाकारों में शुमार हैं जो चिट्ठाकारी के लिए जेब ढीली करते हैं। अपने चिट्ठे "द एकार्न" में नितिन दक्षिण एशियाई राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर खरी खरी लिखतें हैं, इस्लामिक व एटमी ताकत़ वाले राष्टृ खासतौर पर पाकिस्तान पर इनकी पैनी नज़र रहती है। मेरी गुजारिश पर नितिन ने कश्मीर समस्या और पाकिस्तान की भुमिका पर अपने विचार इस चिट्ठे में लिखे हैं। शुक्रिया नितिन
Posted by Debashish at 3/09/2004 06:18:00 AM 0 comments
Monday, March 08, 2004
काव्यालयः बनकर याद मिलो
कॉलेज के दिनों में हर कोई कवि बन जाता है, कम से कम कवि जैसा महसूस तो करने लगता है। जगजीत के गज़लों के बोलों के मायने समझ आने लगते हैं और कुछ मेरे जैसे लोग अपनी डायरी में मनपसंद वाकये और पंक्तियाँ नोट करने लगते हैं। कल अपने उसी खजाने पर नज़र गयी तो सोचा क्यों ना कुछ यहाँ भी पेश किया जाए। "बनकर याद मिलो" मेरी कविता नहीं है, मुझे याद भी नहीं किस ने लिखी, पर मुझे उस वक्त बहुत पसंद आयी थी। यदि आप कवि का नाम जानतें हों तो अवश्य सूचित कीजिएगा।
बहुत दिनों से कहीं आँख भर
देखा नहीं तुम्हें,
सपनों में आ सको नहीं तो
बनकर याद मिलो।
दूरी तो तन की होती है
मन की क्या दूरी?
जो विचार के साथ चलें हैं,
कैसी मजबूरी?
बहुत दिनों से किसी विगत से
वह अनुबंध नहीं,
बड़ी घुटन है, साथ गंध के
दूर कहीं निकलो।
सपनों में आ सको नहीं तो
बनकर याद मिलो।
Posted by Debashish at 3/08/2004 09:21:00 PM 0 comments
Friday, March 05, 2004
संचार माध्यम और सामाजिक दायित्व
भारतीय टेलिविज़न परिदृश्य के सन्दर्भ में बात करें तो आप को दो स्पष्ट समूह मिलेंगे। एक ओर तो सरकारी टेलिविज़न दूरदर्शन है और दूसरी तरफ उपग्रह चैनलों का झुण्ड। दोनों की कार्यप्रणालियों में खासा अंतर है। दूरदर्शन पारंपरिक तौर से सत्तारूढ़ दल का सरकारी भोंपू बना रहा है। अगर इस बात को नज़रअंदाज़ कर सकें तो पायेंगे कि दूरदर्शन स्पष्टतः ऐसे कार्यक्रमों का भी निर्माण भी करता रहा है, जिनकी उपग्रह चैनलों के कार्यक्रम निर्माताओं से कभी अपेक्षा नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए, क्या आप उम्मीद रख सकते हैं कि ज़ी टीवी या स्टार प्लस कभी "कृषि दर्शन" या "नृत्य का अखिल भारतीय कार्यक्रम" जैसे कार्यक्रम या गुमनाम वृत्तचित्रों का प्रसारण करेगा? मेरा ईशारा संचार माध्यमों के सामाजिक दायित्व की ओर है।
उपग्रह चैनलों की मजबूरी जगजाहिर है। टी.आर.पी और मुनाफा कमाने की होड़ में उनके पास सास बहू, रोना धोना और बदन दिखाउ रीमिक्स विडिओ दिखाने के अलावा और चारा भी क्या है। उन्हें दूरदर्शन की तरह अनुदान की दक्षिणा थोड़े ही मिलती है। हालांकि प्रसारभारती के जन्म के बाद से दूरदर्शन को भी पैसे कमाने पड़ रहे हैं और उनके दृष्टिकोण के बदलाव को महसूस भी किया जा सकता है। कहाँ गए वो वृंदगान और टेलिनाटिकाएं! शुक्र है कुछ अच्छाई अभी भी शेष है।
हालिया कार्यक्रमों में मुझे जासूस विजय बड़ा पसंद आया। एड्स और महिलाओं के प्रति सामाजिक रवैये के प्रति जागरूकता लाने के उद्देश्य से बी.बी.सी और नेको द्वारा निर्मित ये पुरस्कृत जासूसी धारावाहिक काफी मशहूर भी हो गया है। अभिनेता ओम पुरी इसमें सूत्रधार की भुमिका निभाते हैं। धारावाहिक मुलतः ग्रामीण दर्शक वर्ग के लिए है पर इसका कलेवर बड़ा रोचक है, दर्शकों को मौका दिया जाता है कि वो असली अपराधी की पहचान के ईनाम जीत सकें। जो चीज़ मुझे भाती है, वह है इस धारावाहिक में मनोरंजन तथा शिक्षा का सही मिश्रण। रोमांच और मसाले से भरपूर कहानी के द्वारा असल संदेश बेलाग स्थानीय भाषा में घर घर पहुंच रहा है। एक रोचक बात ये है कि इस कहानी के मुख्य किरदार यानि जासूस विजय, जिसे मंजे हुए कलाकार आदिल खंडकार हुसैन निभा रहे हैं, को भी एच.आई.वी ग्रस्त बताया गया है। जैसे जैसे कहानी आगे बड़ रही है और विजय का साथी किरदार गौरी के साथ प्यार पनपता दर्शाया जा रहा है एक बड़ा नाजुक सवाल भी खड़ा हो जाता है, क्या एक एच.आई.वी ग्रस्त व्यक्ति को विवाह का अधिकार मिलना चाहिए?
इस धारावाहिक को अनेक भारतीय भाषाओं में डब किया जाता है और ताजा खबर ये है कि अब इसे थाईलैंड तथा कंबोडिया में भी प्रसारित किया जाएगा। एक और अच्छा धारावाहिक एड्स पर जागरूकता लाने के लिए चल रहा है "हाथ से हाथ मिला" जिसमें दो बसों में युवा यात्री शहर और गाँव जा कर लोंगो को कॉन्डोम के इस्तमाल के प्रति जागरूक करते हैं। इन कार्यक्रमों के निर्माताओं को मेरी बधाई!
--------------
इस चिट्ठे का अंग्रेज़ी रुपांतरण यहां उपलब्ध है।
Posted by Debashish at 3/05/2004 09:22:00 PM 0 comments
Thursday, March 04, 2004
दोस्ती की रिश्वत
जिह्वा ने हसीब के एक हास्यास्पद लेख की चर्चा इस चिट्ठे में की है। हसीब का मानना है कि अगर कश्मीर जीतना है तो भारत को पाकिस्तान से आगामी क्रिकेट श्रृंखला हार जाना चाहिए। हैरत होती है कि कलमकार कागज पर कश्मीर जैसी समस्या का किस तेजी से हल निकाल लेते हैं। तरस भी आता है। लेखक की राय काफी हद तक भाजपा की चुनावी रणनीति से मेल खाती है। भाजपा का भी यही मानना है कि सुखद अर्थव्यवस्था का मंत्र पढ़कर और भारत पाक दोस्ती की लॉलीपॉप पकड़ाकर जनता को बरगलाया जा सकता है। उन्हें ये लगता है कि भारत में बसे तमाम मुसलमानों का दिल पाकिस्तान में बसता है तो पाक से अच्छे संबंध बनाने का कटोरा हाथ में थामने पर अल्पसंख्यक वोट खुद ब खुद झोली में आ गिरेंगे। जावेद अख्तर और अन्य जागरूक मुसलमान बुद्धीजीवियों ने हिंदुस्तान टाईम्स को लिखे एक पत्र में लिखा है:
शर्म कि बात है कि वाजपेयी और आडवाणी दोनों ये सोचते हैं कि भारत पाक दोस्ती की रिश्वत देकर वे मुस्लिम वोट हासिल कर लेंगे।
Posted by Debashish at 3/04/2004 10:22:00 PM 0 comments
बाहुबली बनने चले बुद्धिजीवी
सागरिका घोष मानती हैं कि भाजपा के मन में यह पेच रहा है कि वह बुद्धिजीवियों, कलाकारों और इतिहासकारों का दिल नहीं जीत पाई। सर विदिया को मंच पर ला कर वे इस बात को झुटलाना चाहतें हैं। कैसी विडंबना है कि जिस जमात के विचारों को छद्म धर्मनिरपेक्षतावाद या वामपंथी विचारधारा बता कर खारिज कर देते थे अब उन्हीं का साथ पा कर सम्मानित बनने की सोची जा रही है।
मैं ये मानता हूँ कि भाजपा ने बीते बरसों बड़े सलीकेवार तरीके से अपना जनाधार बनाया है। और बुद्धिजीवियों को अपने खेमे में लाने की कोशिश भी इसी दूरगामी रणनीति का हिस्सा है। राजनीतिक चूहों के हालिया पलायन के रुख से दिख भी रहा है कि अब भाजपा किसी के भी लिए अछुत नहीं रही। भाजपा के योजनाबद्ध तरीके के अब तक के परिणामों का विश्लेषण करें तो इस रणनीति का फल भी उन्हें इच्छानुसार मिला है। शिवसेना, बजरंग दल, दुर्गा वाहिनी, स्वयं सेवक संघ जैसे बाहुबलीय संगठनों का साथ है। केवल पैसा कमाने के लिए सत्ता चाहने वाले घटक दलों का समर्थन हासिल है। वाजपेयी जैसा श्रेष्ठ मुखौटा नेता पास है जिसको आगे कर गीदड़ को भेड़ बताया जा सके। और ऐसे कार्यकर्त्ता हैं जो नेपथ्य में पार्टी की असल विचारधारा के अनुसार एजेंडे को अमलीजामा पहना रहे हैं (मेरा यह चिट्ठा भी पढ़ें) इतिहास के पुर्नलेखन से लेकर तालिबानी हिन्दू संगठनों के हाथ मजबूत करने तक। अपने महान नेताओं के महिमामंडन से लेकर सांस्कृतिक पुलिसिया भुमिका निभाने तक। यानि जो असल एजेंडा था वो तो पूरा हो ही रहा है।
इतिहास से छेड़छाड़ तो एक आपत्तिजनक मुद्दा है ही मुझे सबसे अधिक खतरा बाहुबलीय संगठनों से ही लगता है। आहिस्ता आहिस्ता ये हमारे सामाजिक व्यवहार को ही प्रभावित कर रहें हैं। बरसो से बहुजातिय समुहों में हम रहते आए हैं। कभी कभार अनबन हो ही जाती है। पर हमेशा दंगे तो नही पनप जाते। अब तो साहब माजरा ये ही रहता है, छुटभैये नेता छोटेमोटी तकरारों को सांप्रदायिक झगड़े के दावानल में झोंकने में पल भर भी नहीं सकुचाते। कल की ही बात है, मेरे शहर के एक हिस्से में एक बालिग सिन्धी युवती इलाके के ही एक मुसलमान युवक के साथ पलायन कर गयी। अखबार कहतें हैं पुरी रज़ामंदी थी। लड़की के परिजन बौखला गये, आप सोचेंगे उन्होने पुलिस की शरण ली, जी नहीं, वे गए बजरंग दल के पास। बस जंगल की आग की तरह खबर फैली। भाजपा विधायकों की उपस्थिती में, शासकीय बुलडोज़र से लैस होकर, बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी के पहलवान कार्यकर्त्ताओं नें इस युवक की संपत्ति को नुकसान पहुँचाया, घर की तलाशी करवाई। इस से पनपे तनाव से दोनों समुदायों में नारेबाजी और पथराव भी हुआ, बस आग फैली नहीं गनीमत है। कैसा फील गुड है ये?
Posted by Debashish at 3/04/2004 01:58:00 AM 0 comments
Thursday, February 26, 2004
वनवास से वापसी
तकरीबन ३ सप्ताह के ब्लॉग वनवास के बाद वापसी हो रही है। अभी पूर्ण रूप से मन भी नहीं बन पा रहा है। सब नया सा लग रहा है। १२ फरवरी को मेरी माताजी के पेट के अल्सर की शल्यक्रिया की गई। सब ठीक रहा, वो अब घर आ गईं हैं। सुखद बात ये रही कि एक ही चरण में ये शल्यक्रिया हो गई, सर्जन पहले इसे दो चरणों में करने वाले थे, तीन माह पश्चात एक शल्यक्रिया और होती, ईश्वर की कृपा से वह टल गया। किसी भी शल्यक्रिया में डर तो रहता ही है, माँ की उम्र व स्वास्थ्य के लिहाज़ से खतरा ज़रा ज्यादा था।
हिन्दी चिट्ठों कि दुनिया में इस बीच काफी हलचल हुई है लगता है। देखना है अपना मूड कब कब तक बन पाता है।
Posted by Debashish at 2/26/2004 10:06:00 PM 0 comments
Thursday, February 05, 2004
पहला संस्कृत चिट्ठा
अत्यंत हर्ष की बात है कि चिट्ठों की दुनिया में पहला संस्कृत चिट्ठा जसमीत ने कौटिल्य उपनाम से लिखना प्रारंभ किया है। अहो भाग्यम्! आशा है वे नियमित रूप से लिखेंगे।
Posted by Debashish at 2/05/2004 07:08:00 AM 0 comments
Wednesday, February 04, 2004
मेहमान का चिट्ठा: चारू
बाल मजदूरी और हम
एक सीधा सादा सवाल करती हुँ, बाल मजदूरी क्या है? ज़रा इस व्यक्तव्य पर नज़र डालें...
विश्व में सबसे ज्यादा बाल मजदूर भारत में हैं, विश्वस्त अनुमानों के अनुसार भारत में बाल मजदुरों की संख्या ६ से ११.५ करोड़ के बीच है। शिवकाशी के पटाखा कारखानों में, बीड़ी और कालीन बनाने वाले, पत्थर के खदानों और धान के खेतों में कमरतोड़ मेहनत करने वाले बच्चों के बारे में तो सबने सुना है लेकिन उन बच्चों के बारे में कोई चर्चा नहीं होती जो आपके और मेरे घरों में काम करते हैं।
मुम्बई में मेरे घर काम करने वाली बाई हर रोज़ अपनी १३ साल की बेटी को अपने साथ लाती है। पहले पहल तो मुझे लगा कि शायद वो बच्ची को सिर्फ अपने संगत में रखना चाहती है, पर धीरे धीरे उसने छोटे मोटे काम भी करना शुरू कर दिया। पहले पोंछा लगाने लगी, और अब हाल ये है कि वो अपनी माँ से १५ मिनट पहले आ कर काम शुरू कर देती है ताकि उसे आसानी हो। जब मैंने प्रतिरोध किया तो माँ का जवाब था, "दीदी, वो तो सिर्फ मेरे काम में हाथ बंटा रही है"। "..कल से उसे घर छोड़ कर आना", मैंने कहा। इस पर बाई का जवाब था, "उसे घर पर कैसे छोड़ सकतीं हूँ दीदी, वो तो अभी इत्ती छोटी है.."
देखा जाए तो मेरी बाई गरीब नहीं है। अपने मर्द के साथ मिल कर अच्छा खासा कमा लेती है, घर में टीवी है, बच्ची को स्कूल भी भेजती है। कहने का मतलब ये कि बच्ची का कहीं कोई शोषण नहीं हो रहा, ना ही अत्यधिक गरीबी की वजह से उसे काम करना पड़ रहा है...मुस्करा के काम करती है बिल्कुल जैसे मैं अपनी माँ की रसोईघर में मदद करती।
ये बच्ची स्कूल जाती है, अभी आठवीं कक्षा में है। क्या यह बच्ची अपने अधिकारों से वंचित है? क्या इसे बाल मजदूरी मान जाए? क्या इसमें मेरा भी दोष है? अगर हाँ तो इसका हल क्या है? क्या मैं अपनी बाई पर जोर डालूं कि वह अपनी बेटी को अपने साथ न लाए? पर क्या मैं उसे दूसरे घरों में काम करने से रोक पाउंगी? या फिर मैं इसे स्वीकार कर उसका काम और जीवन जितना हो सके उतना आसान बना दूं? दरअसल अभी तो मैं यही कर पाती हूं...पर...बाल मजदूरी का अंत फिर कैसे होगा?
"मेहमान का चिट्ठा" नुक्ता चीनी का पाक्षिक आकर्षण होगा। इस पक्ष की मेहमान मेरी मित्र श्रीमती चारुकेसी हैं। हाल ही में मुम्बई में बसीं चारु अपने अंग्रेज़ी चिट्ठे ए टाईम टू रिफ्लेक्ट में मुख्यतः सामाजिक और विकास के मुद्दों पर लिखती हैं।
Posted by Debashish at 2/04/2004 08:57:00 PM 0 comments
Tuesday, February 03, 2004
क्या वोट डालना अनिवार्य कर देना चाहिए?
आज के दैनिक भास्कर में मनोहर पुरी ने अपने एक लेख* में एक महत्वपूर्ण बिंदू पर चर्चा की है। क्या वोट डालना अनिवार्य कर देना चाहिए? हालांकि लेखक के इस तर्क से मैं कतई सहमत नहीं कि वोट न डालने वालों को सरकार के कलापों पर नुक्ता चीनी का हक नहीं होना चाहिए पर हाँ जनतंत्र में अधिकारों के साथ कर्त्तव्यों को भी समान महत्व मिलना चाहिए।
वोट डालना अनिवार्य कर देना कई मामलों मे हम नागरिकों के लिए रामबाण औषधी सिद्ध हो सकती है। हो सकता है त्रिशंकू सरकारों से इसके द्वारा मुक्ति मिल सके। मतदान प्रतिशत बढेगा तो चुनाव प्रक्रिया अधिक सटीक हो सकेगी।
पर यह भी सच है कि हमारे देश में, जहाँ नागरिक चेतना (सिविक सेन्स) का नितांत अभाव है, वहां बिना शास्ती का डर दिखाए कोई नियम लागू नहीं किया जा सकता। वोट डालना अनिवार्य कर देने की घोषणा मात्र से कुछ नहीं होगा, उसका हश्र तो फिर पल्स पोलियो अभियान जैसा हो जाएगा। अगर मेरा नियोक्ता कहे कि वोट न डालने की स्थिति में वो मेरा दो दिन का वेतन काट लेगा तो बात मुझे सरलता से समझ आएगी। पुरी ने यह भी अच्छा सुझाव दिया है कि मतदानोपरांत अधिकारी हर मतदाता को एक पावती या प्रमाणपत्र दे सकता है जो इस बात की पुष्टि करेगा कि उसने वाकई मतदान किया है।
मेरे विचार मैं तो केवल मतदान और प्राथमिक शिक्षा ही नहीं बल्कि निम्नलिखित चीज़ों को भी अनिवार्य नागरिक कर्त्तव्यों में शुमार करना चाहिएः
- अमेरिकी सोशियल सिक्युरिटी की तर्ज पर देश भर में मान्य परिचय पत्र जिससे पासपोर्ट, राशन कार्ड, वोटर परिचय कार्ड जैसे पच्चीसों गैरज़रुरी कागजो की जरुरत ना हो।
- अनिवार्य एड्स परीक्षण, जिसके परिणाम को उपरोक्त परिचय पत्र की दर्ज जानकारियों में शुमार किया जाए।
विचार तो अच्छे हैं पर बिल्ली के गले घंटी कौन बांधेगा?
----------
* स्थाई लिंक नहीं
Posted by Debashish at 2/03/2004 09:57:00 PM 0 comments
Monday, January 26, 2004
अभिव्यक्तिः एक नया हिंदी चिट्ठा
शैल का हिंदी चिट्ठा अभिव्यक्ति इस श्रृंखला में एक और कड़ी है। लख लख बधाईयाँ शैल! हिंदी चिट्ठों की जमात में आपका स्वागत है।
Posted by Debashish at 1/26/2004 09:40:00 PM 0 comments
Friday, January 23, 2004
प्रतिक्रिया पर एक प्रतिक्रिया
नुक्ता चीनी के एक पाठक शैल ने मेरे चिठ्ठे "राजनीतिक योग्यता क्या हो" पर प्रतिक्रिया लिखी हैः
बीजेपी को सोनिया से क्या समस्या है ये तो वो ही बता सकते हैं,लेकिन मुझे जो बात खटकती है वो है काँग्रेस की कुनबापरस्ती। आखिर ये लोग नेतृत्व के विचारों का प्रचार करने के बजाय इस बात पर क्यों बल देते रहते हैं कि सोनिया "गाँधी" हैं इसलिये हमें उनको वोट देना चाहिये।
शैल, अगर आप मुझ पर कांग्रेसी होने का शक न करें तो मैं ये कहुंगा कि वंशवाद का इल्ज़ाम सिर्फ गांधी घराने पर लगाना शायद पूर्णतः उचित नहीं है। क्या सुमित्रा महाजन अपने पुत्र को विधानसभा टिकट न मिलने पर मुँह फुलाए नहीं घूमतीं फिर रहीं? क्या राजस्थान की मुख्यमंत्री सिंधिया घराने की नहीं हैं? क्या फार्रुख अब्दुल्ला के पुत्र का राजनीतिक जीवन वंशवाद की उपज नहीं? अजीत सिंह व ओम प्रकाश चौटाला की राजनैतिक नींव किसने रखी? दरअसल हर पार्टी किसी न किसी करिश्माई व्यक्तित्व की तलाश में है जिसका हाथ थाम कर चुनावी वैतरणी पार हो जाए।
हाँ, कांग्रेस में बगैर गांधी उपनाम के करिश्माई बन पाना ज़रा टेड़ी खीर है। माधवराव सिंधिया व राजेश पायलट दोनों ऐसे व्यक्तित्व वाले थे पर अब वो हैं नहीं, सोनिया के नाम पर आम राय कभी थी ही नहीं। मनमोहन का व्यक्तित्व सौम्य हो पर मनमोहनी नहीं है, बचे कौन? नरसिंह राव, प्रणव मुखर्जी, नारायण दत्त तिवारी या मोतीलाल वोरा तो अब अकेले रथ खींचने के लिए ये सभी बहुत बुढ़ा चुके हैं। तिस पर इनकी कोई बहुत प्रभावी जनाधार भी नहीं है। जाहिर है निगाहें आ टिकी हैं प्रियंका और राहुल पर। कांग्रेसी मजबूरी का नाम...गांधी।
Posted by Debashish at 1/23/2004 07:00:00 AM 0 comments
Thursday, January 22, 2004
नुक्ता चीनी का फीड
ब्लॉगर के सौजन्य से नुक्ता चीनी का एटम फीड अब उपलब्ध है। पाठक अगर नुक्ता चीनी नियमित रूप से अपने एग्रीगेटर के माध्यम से पढ़ना चाहें तो ये फीड काम की चीज़ है। बाक़ी की नहीं जानता पर ब्लॉगलाइन्स पर ये पढ़ा जा सकता है।
Posted by Debashish at 1/22/2004 10:01:00 PM 0 comments
राजनीतिक योग्यता क्या हो?
सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर नया दल बना देने वाले शरद पवार उनसे राजनीतिक गठजोड़ के लिए तैयार हैं। जो मौका परस्ती न करें वो नेता भला क्या नेता! भाजपा भी इस मुद्दे को गरमाने के लिए तैयार है। कुछ ही दिनों पहले अटलजी भारतीय मूल के बॉबी जिंदल के लूसियाना के गवर्नर बनने की संभावना से बेहद उत्साहित थे, ग़र बॉबी जीत जाते तो शायद प्रवासी भारतीयों के बढ़ते कद पर वाजपेयी एक कविता लिख डालते। किसी भारतीय को विदेशी राजनैतिक पायदान पर चढ़ते देखना सुखद लगता है, भले ही वह खुद को भारतीय न मानता हो, पर किसी विदेशी का भारत में वैसा ही करना राजनैतिक नेत्रों में खटकता है। चाहे वो एक भारतीय से विवाहित स्त्री क्यों न हो। भले ही वह एक पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा से बेहतर हिन्दी बोल सकतीं हों।
दरअसल कोई भी ऐसी योग्यता जिस के आधार आप और मैं नौकरियों, परीक्षाओं में चुने जाते हैं राजनीति में चुने जाने का आधार नहीं बन सकतीं चाहे वह शैक्षणिक योग्यता हो, आयु सीमा या कार्य अनुभव। नतीजन हम अक्सर चुन लाते है निपट गँवार, अपराधी पृष्ठभूमि के लोग या ऐसे जिनके पांव कब्र में लटके हों। और चुनने की भी क्या कही! गठजोड़ की राजनीति के युग में आप भले ही सर्वश्रेष्ठ को वोट दें, इसका कोई भरोसा नहीं कि आपके ठुकराए दलों की सांठगांठ से सरकार नहीं बन जाएगी।
मैं कोई सोनिया भक्त नहीं, पर उनके विरोध के मुद्दे पर मुझे एतराज़ है। हालांकि सोनिया जैसे नए लोग हों या अटलजी जैसे अति अनुभवी, नुकसान दोनों को चुनने में है। जहां सोनिया जैसे नए रंगरुट नेताओं के उच्च पदों के आसीन होने से अफसरशाहों की चांदी हो जाती है और किचन कैबिनेट के मेम्बरान परोक्ष रूप से सरकार चलाने लगतें हैं, वहीं ज्यादा अनुभवी सूटकेस राजनीति में लिप्त हो जाते हैं। मेरा मानना है हमें कुछ बीच का रास्ता अख्तियार करना चाहिए।
Posted by Debashish at 1/22/2004 07:23:00 AM 0 comments
Tuesday, January 20, 2004
अटली चेहरा सामने आए, असली सुरत छुपी रहे..
वीर सांघवी का कहना है (काफी हद तक मेरे विचारों से मिलता है)
"वाजपेयी का कद हमें भाजपा की असली सूरत देखने से रोक देता है। समीकरण से उन्हें निकाल तो हमें ऐसे लोगों का दल मिलेगा जिन्हें सामुहिक हत्याओं से गिला नहीं, जो साधुओं से राजनीतिक परामर्श लेते हैं और जिन्होंने चुनावी रणनीतियां बनाने की जिम्मेवारी टेंटवालों और बिचौलियों को सौंप रखी है।"
मेरा शुरू से ये मानना है कि अटल वाकई भाजपा का मुखौटा मात्र हैं (यह सचाई कहने का साहस गोविंदाचार्य में था जिस कारण से वे आज हाशिए पर हैं)। कमलेश्वर ने लिखा है,
"लोगों के मन में यह आशंका है कि चुनावों के बाद आडवाणी और मुरली जोशी अपना अटल वाला मुखौटा उतारकर हिंदुत्ववादी मोदी और तोगड़िया की शरण ले लेंगें।"मेरा मन कहता है ये आशंका सच होने वाली है।
Posted by Debashish at 1/20/2004 05:10:00 AM 0 comments
Sunday, January 18, 2004
बस मानसिकता सरकारी न हो
बड़ी खुशी होती है जानकर कि जिस जावा का प्रयोग मेरे जैसे प्रोग्रामर वेब व मोबाईल एप्पलीकेशन्शस बनाने के लिए करते हैं वही मंगल ग्रह पर स्पिरिट नामक रोवर को भी दौड़ा रहा है। वैसे सारा श्रेय नासा को ही जाना चाहिये, जैसा की गोसलिंग ने कहा, "नासा में लोग वो कर रहें हैं जो आम आदमी के लिए फंतासी जैसा है, ऐसी सरकारी संस्था का मिलना मुश्किल है जहां लोग अपने सपने सच कर पाते हों"। क्या भारत में कोई सुन रहा है?
Posted by Debashish at 1/18/2004 10:38:00 PM 0 comments
Monday, November 10, 2003
गांववालों, मैं आ गया हूँ
आलोक और पद्मजा के बाद अब मेरी बारी हिंदी चिठ्ठों की दुनिया में प्रवेश की। पर भारत पाक की बातचीत की तरह ज्यादा उम्मीदें न रखें। रफ्तार तो नल प्वाईंटर वाली ही रहेगी, बदलेगा तो बस अंदाज़े बयां।
Posted by Debashish at 11/10/2003 01:46:00 AM 0 comments