कल आपने इसी मुखड़े से एक नज़्म पढ़ी। नज़्म का मूल भाव यही था कि प्रेम में अपना पराया कुछ नहीं रह जाता।
पर इस तरह का भाव जिंदगी में कितनी देर ठहर पाता है?
अगर ठहर पाता तो दुनिया में इतनी हिंसा, इतना द्वेष कहाँ से पनपता?
ख़ैर जाने दीजिए, वापस लौटते हैं इस नज़्म पर।
आज की नज़्म का मुखड़ा तो वही है. फ़र्क सिर्फ 'थी' और 'है ' भर का है। यानि शायर के जीवन में ये प्रेम बरक़रार है.. ये नज़्म संवाद-प्रतिसंवाद की शैली में लिखी गई है, यानि पहले प्रेमिका के कभी ना ख़त्म होने वाले सवालों की फेरहिस्त है और फिर है, उसका जवाब...
देखें ये नज़्म आप पर कैसा असर छोड़ती है? :)
अज़ब पागल सी लड़की है...
मुझे हर ख़त में लिखती है
मुझे तुम याद करते हो ?
तुम्हें मैं याद आती हूँ ?
मेरी बातें सताती हैं
मेरी नीदें जगाती हैं
मेरी आँखें रुलाती हैं....
दिसम्बर की सुनहरी धूप में, अब भी टहलते हो ?
किसी खामोश रस्ते से
कोई आवाज़ आती है?
ठहरती सर्द रातों में
तुम अब भी छत पे जाते हो ?
फ़लक के सब सितारों को
मेरी बातें सुनाते हो?
किताबों से तुम्हारे इश्क़ में कोई कमी आई?
वो मेरी याद की शिद्दत से आँखों में नमी आई?
अज़ब पागल सी लड़की है
मुझे हर ख़त में लिखती है...
जवाब उस को लिखता हूँ...
मेरी मशरूफ़ियत देखो...
सुबह से शाम आफिस में
चराग़-ए-उम्र जलता हूँ
फिर उस के बाद दुनिया की..
कई मजबूरियाँ पांव में बेड़ी डाल रखती हैं
मुझे बेफ़िक्र चाहत से भरे सपने नहीं दिखते
टहलने, जागने, रोने की मोहलत ही नहीं मिलती
सितारों से मिले अर्सा हुआ.... नाराज़ हों शायद
किताबों से शग़फ़ मेरा अब वैसे ही क़ायम है
फ़र्क इतना पड़ा है अब उन्हें अर्से में पढ़ता हूँ
तुम्हें किस ने कहा पगली, तुम्हें मैं याद करता हूँ?
कि मैं ख़ुद को भुलाने की मुसलसल जुस्तजू में हूँ
तुम्हें ना याद आने की मुसलसल जुस्तजू में हूँ
मग़र ये जुस्तजू मेरी बहुत नाकाम रहती है
मेरे दिन रात में अब भी तुम्हारी शाम रहती है
मेरे लफ़्जों कि हर माला तुम्हारे नाम रहती है
पुरानी बात है जो लोग अक्सर गुनगुनाते हैं
उन्हें हम याद करते हैं जिन्हें हम भूल जाते हैं
अज़ब पागल सी लड़की हो
मेरी मशरूफ़ियत देखो...
तुम्हें दिल से भुलाऊँ तो तुम्हारी याद आए ना
तुम्हें दिल से भुलाने की मुझे फुर्सत नहीं मिलती
और इस मशरूफ़ जीवन में
तुम्हारे ख़त का इक जुमला
"तुम्हें मैं याद आती हूँ?"
मेरी चाहत की शिद्दत में कमी होने नहीं देता
बहुत रातें जगाता है, मुझे सोने नहीं देता
सो अगली बार अपने ख़त में ये जुमला नहीं लिखना
अज़ब पागल सी लड़की है
मुझे फिर भी ये लिखती है...
मुझे तुम याद करते हो ?
तुम्हें मैं याद आती हूँ ?
(फ़लक-आकाश, शग़फ़-रिश्ता, मसरूफ- व्यस्त, मुसलसल-लगातार)
शायर : आतिफ़ सईद
पाँव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है
16 minutes ago
8 comments:
बेहतरीन भाई, आपका जबाब नहीं. हमने लड़की पर तो नहीं, एक पागल सी चिड़िया का बिम्ब बनाया था कभी, यहाँ देखें
http://udantashtari.blogspot.com/2007/01/blog-post_08.html
या
click
here
-अच्छा लगा पढ़कर. :) अगली प्रस्तुति का इन्तजार है.
वाह बहुत खूब!
मनीष सोच में डाल दिया है आपने । मैंने ग़ुलाम अली की आवाज़ में ‘पागल सी लड़की’ जैसे ही किसी उन्वान वाली ग़ज़ल सुनी है, पर निजी संग्रह में तो नहीं है । आज विविध भारती के कलेक्शन में देखता हूं, शायद वहां मिल जाए ।
बहरहाल, ये दोनों नज़्में पढ़कर अच्छा बहुत लगा ।
यूनुस भाई आप गुलाम अली की गाई जिस नज़्म का जिक्र कर रहे हैं वो है ..........वो कैसी पागल लड़की थी। मेरे पास है घर पर..
Manish ji namskaar
aaj aapki dono nazam ko padha aur aapne bhaut hi achhe tarike se ise samjhya hai
aapki parstuti bhaut hi sunder rahi
aapse se ik guzarish hai agar apako mushkil nahi ho to
yaha zarur aaye [URL]www.shayarfamily.com[URL]click here[/URL]
agar aapko apni soch yaha share karna achha lage to ye khuskismati hogi
दोनों नज़्में बहुत बहुत सरल-सहज और सुंदर बन पड़ी हैं . अपनी विषयवस्तु प्रेम की तरह सरल-सहज और सुंदर .
It was great.. the way of expressing thoughts n feel... the ouestion answer,.. simply superb!!!
समीर जी लिंक देने का धन्यवाद आपकी कविता बेहद सु्दर लगी, वहाँ अपनी प्रतिक्रिया भी दे दी है।
अनूप जी, प्रियंकर जी, मान्या नज़्म आप सबको पसंद आई जानकर खुशी हुई।
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