भूले-बिसरे किस्से-1

                 यात्रा-विवरण मैंने कभी नहीं लिखे। मुझे लगता था कि यात्रा अगर अनूप जी साइकिल यात्रा की तरह ज़रा वखरी टाइप की हो तभी लिखने में कुछ नवीनता हैवरना चट-पट बस, कार, रेल या जहाज़ में बैठे और गंतव्य पर पंहुच कर घिसे-पिटे पर्यटन-स्थल देखकर उस पर बयानबाज़ी करना तो सरासर अधजल गगरी छलकत जाए के समान बचकाना और बेमाना है। परन्तु  उन्मुक्त जी, मनीष जी व अन्य चिट्ठाकारों के यात्रा-संस्मरण पढ़कर  महसूस किया कि मेरी यह धारणा ही बचकानी और बेमानी है।

                अन्तरजाल पर और पर्यटन-पुस्तकों में किसी स्थान के विषय में चाहे पूर्ण जानकारी मिल जाए पर उस स्थान का आँखों देखा हाल उतना ही महत्वपूर्ण है जितना किसी पुस्तक को पढ़कर उसके विषय में बात करना या लिखना । इससे न केवल उस किताब/स्थान के बारे में अन्य लोगों के मन में दिलचस्पी पैदा होती है बल्कि जिन्होने उस किताब को पढ़ा होता है या वो स्थान देखा होता है उन्हें उस विषय से सम्बन्धित, दिमाग के पिछवाड़े वाले स्टोर में पड़ी, ढेरों बातें याद आ जाती है और विचारों की रेल सरपट दौड़ने लगती है। हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुया है। इसलिए अगली कुछ-एक पोस्ट में हम नारद पर पढ़ी यात्रायों के दौरान तरोताज़ा हुए किस्सों को आपके सामने रख रहे है। पहला किस्सा उन्मुक्त जी की गोआ यात्रा से सम्बन्धित है।

              जब उन्मुक्त जी अपनी गोआ की यात्रा और अपने होटल (Cicade-de-Goa) का सरस वर्णन कर रहे थे तो यकायक मेरी आँखों के सामने उस होटल के शेफ का चेहरा घूम गया था। अब आप कहेंगे-लो जी यह भी क्या बात हुई उन्मुक्त जी तरण-ताल के किनारे लेटी सुन्दर कन्यायों से रूबरू करवा रहे थे और हमें खानसामा नज़र आ रहा था।। कितना डिफेक्टिव और लचर इमेजीनेशन है हमारा। पर आपने यह तो सुना ही होगा-जाको जैसी भावना। उन्मुक्त जी उन्मुक्त है और हम ठहरे रसोईदार, हमारे तो लेख,किस्से, कविताएं भी सबको पकवान नज़र आते है और सच मानिए, हम उन्हें आपके लिए लिखते, मेरा मतलब है पकाते भी बड़ी शिद्दत से है। इसीलिए शायद बिकनी पहनी नार की जगह हमें लम्बी टोपी वाला ऱसोईदार दिखा।

हमारा रसोईदार यानि कि शेफ खाना बेहद बढ़िया और लज़ीज़ बनाता था और चीनी कमके अमिताभ के अनुसार-सच्चे मायने में उच्च-कोटि का कलाकार था। पाँच दिन हम उस होटल में रहे । रोज़ बुफे-सकीम के तहत नाश्ता, लंच और डिनर मिला पर एक दिन भी मैन्यू में पकवानों को दोहराया नहीं गया। इतना ही नहीं वो रोज़ लंच पर कैरेमल ( भुनी,कड़ी शक्कर जिसका स्वाद लेमन-ड्राप की तरह होता है) से इतने खूबसूरत दृश्य बनाता था कि ऐसा प्रतीत होता था जैसे वे भूरे,रंगीन कांच से बने हो। कभी नाचता जोड़ा, कभी खजूर के पेड़ो से भरा जलज़ीरा तो कभी सुन्दर गुढ़िया। उसकी कला मुझे इतनी भाई कि मन हुया उसे मिलकर उसकी प्रशंसा करूं।

                       खाली तारीफ करना अच्छा नहीं लगा। परन्तु पाँच सितारा होटल के शेफ को 100-500 देना उसकी तौहीन करना था और इससे ज्यादा गाढ़ी कमाई मुफ्त में बाँटना ज़रा कष्टकारी। इसलिए जिन्दगी में पहली बार हमने कैसिनो जाने का विचार बनाया। सोचा बस पाँच सौ लगाएगें अगर जीते तो सारा माल शेफ का और हारे तो समझेगे हमने पाँच सौ का नोट उस पर वार दिया। उस रात हम तीन हज़ार जीते। अगले दिन शेफ से मिले, उसकी तारीफ की और इमानदारी से एक-एक हज़ार के तीन नोट दिए। जब उसको कैसिनो वाली बात बताई तो उसके दिल के भाव उसके चेहरे और उसकी आँखों में साफ ज़ाहिर थे। चेहरा मुस्कुरा रहा था पर आँखों में नमी थी। चुपचाप एक हज़ार का एक नोट उसने अपनी ऊपर की जेब में रखा ,टोपी उतार कर हाथ में ली और बोला– “मैम, अगर आप बुरा न मानें तो मैं दो हज़ार अपनी टीम में बांटना चाहूंगा क्योंकि मेरे प्रयास में उनकी मेहनत भी शामिल है। पर आपका यह एक नोट हमेशा मेरे दिल के करीब वाली जेब में रहेगा क्योंकि इसमें आपकी दुआ और मेरी किस्मत छुपी है। आपने मेरे लिए इतना सोचा, मुझे समझ नहीं आ रहा मै आपको कैसे थैक्य़ू कहूँ।मैंने हाथ मिलाने के लिए जो हाथ बड़ाया तो उसने अदब से झुक कर हाथ को चूमा और भरी आँखें लिए किचेन के भीतर चला गया।

                       मेरी यह पोस्ट नमन है उस कलाकार की कला एंव उसकी शालीनता के प्रति और धन्यवाद है उन्मुक्त जी को जिनके विवरण से इस किस्से को हवा मिली।

हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा

हम भी उन्मुक्त जी की तरह भारत के एक छोटे से कस्बे में रहने वाले एक आम भारतीए है। अपने कस्बे की गलियों में हम सालों से चप्पल चटका रहे है, हर मेहमान के संग खरीदो-फरोख्त करवा रहेे है और सड़कें नपवा रहे है, शायद इस कारण हमारे कस्बे के दरो दिवार हमें अच्छी तरह से जानने पहचानने लगे है और हम खुद को कुछ खास यानि कि व्यक्ति विशेष मानने लगे है।

आखिर क्यों न मानें। हमारे मुंह खोलने से पहले ही साड़ी वाला बज़ाज हमें देखते ही हल्के फुल्के रंगों की साड़ियों से रिझाता है और जूते-चप्पल वाला लो-हील की सैंडिल पहनाता है। बेकरी पर ब्राऊन-ब्रेड पकड़ाई जाती है व मिष्ठान-भन्डार पर लाल लाल कुरकुरी जलेबी सिकवाई जाती है। चाट वाला गोलगप्पों में खट्टी चटनी के संग मीठी चटनी मिलाता है, सब्ज़ी वाला रोज़ सब्ज़ी के संग फ्री में मिर्चा-धनिया सरकाता है और राशन वाला चाय, साबुन, पेस्ट पर निकली नई- नई स्कीमें दोहरता है। शहर भर में हमारा चेहरा ही हमारा क्रेडित-कार्ड है।

अपने शहर की इस ज़र्रा-नवाज़ी को शीश धरे हम चैन की बंसी बजा रहे थे, अपने कस्बे की तलैया में मज़े से टर्र-टर्रा रहे थे, उछल-कूद मचा रहे थे कि एक दिन उड़ती उड़ती खबर हम तक आ पहुँची कि अपना लुड़कता-पुड़कता, दुबला-पतला, पिद्दी सा रुपया पहलवान हो गया है औऱ डालर के खिलाफ कुछ बलवान् हो गया है। नतीजन इस समय विदेश-यात्रा करना लाभप्रद है क्योंकि विदेश यात्रा सस्ती हो गई है।

सैल(SALE) और सस्ता शब्द स्त्रियों को सदैव ही सम्मोहित करता है। सो बेबस हुए हम भी उसके आकर्षण में बंधे रुपए की पहलवानी भुनाने ट्रेवल-एजेंट के द्वारे जा पहुँचे। मामला फायदे का था, अत: हमने अपने और पति के संग-संग दोनों बच्चों का भी टिकट बनवा लिया। सोचा बहती गंगा में उनको भी डुबकी लगवा दें और फारेन-रिर्टन का जामा पहना दें। इस जादुई जामे से बच्चों के व्यकित्व में आए निखार की सुखद कल्पना करते हुए हम खुशी खुशी थाईलैंड, मलेशिया और सिंगापुर की पन्दरह दिवसिए यात्रा पर निकल गए।

पराए देश में पावं रखते ही आँखें वहां की भव्यता की चकाचौंध से चुंधिया गई। परन्तु एक पराएपन का एहसास हर समय मन को मथने लगा। पराए लोग, पराई भाषा, पराया खान-पान, पराया रहन-सहन। चारों और व्याप्त इस पराएपन के शुष्क वातावरण में मुझे अपने शहर का अपनापन रह हर कर याद आने लगा और पल पल भारतीए होने का एहसास गहराने लगा। पहली बार यह महसूस हुया किसी भी साधारण से आम व्यक्ति को खास उसके जानने-पहचानने वाले आस-पास के लोग बनाते है। यही लोग चाहे वो परिवार के हो, पड़ोस के हो, किसी नगर के हो या फिर देश के, व्यक्ति विशेष को एक पहचान देते है और बताते है कि वह फलां परिवार, फलां समाज ,फलां शहर, प्रदेश या देश का सदस्य है। यही पहचान अन्जान परिस्थितियों में उस व्यक्ति का संबल बनती है।

हमारी पहचान गली मुहल्ले में हमारे परिवार से, शहर में हमारे मुहल्ले से, प्रदेश में हमारे शहर से, देश में प्रांत-प्रदेश से और विदेश में केवल हमारे देश से होती है। अपने देश में चाहे हम खुद को हिन्दू ,मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई,उत्तरी, पूर्वी, पश्चिमी या दक्षिणी भारतीय कहते है परन्तु देश के बाहर विदेशी धरती पर सब भेद भाव अपने आप मिट जाते है और हम सब भारतीय पुकारे जाते है। इसी भारतीयता के कारण दो अपरिचित, साधारण से आम भारत वासी अन्जाने देश में एक दूसरे के लिए, आत्मीय और कुछ खास हो जाते है क्योंकि दोनों की पहचान एक है, दोनों का समूह एक है, दोनों का देश एक है।

थाईलैंड में एक प्रोग्राम के दौरान इसी पहचान, इसी देश-प्रियता का नज़ारा देखने को मिला। प्रोग्राम शुरू होने में थोड़ी देर थी इसलिए विभिन्न देशों का संगीत बारी बारी से बज रहा था। जिस देश का गीत बजता था उसके निवासी अपने देश के गीत पर ताली बजा कर अपने देश-प्रेम का इज़हार करते थे। जैसे ही एक भारतीए गीत बजाया गया, पंडाल में मौजूद हर भारतीय ने न केवल ताली बजा कर ताल दी बल्कि सभी खड़े हो गए और सबने मिल कर गाना और नाचना शुरू कर दिया। शायद य़ह वहां मौजूद ढेर सारे भारतीयों का जोश और उत्साह था जिसे देख कर अगला गीत लगाया गयाये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का ,मस्तानों का। इस गीत पर तो खूब जम कर नाच हुया। भारतीए खड़े होकर झूम रहे थे और पंडाल में बैठे अन्य दर्शक ताली बजा कर ताल दे रहे थे। उस समय मुझे लगा कि उस विदेशी धरती पर हर एक आम भारतीए विशेष और महत्वपूर्ण हो गया है और वह विशेषता है हमारी भारतीयता।

तुम्हें पुकारे पिघला काजल

घुघूती-बासूती जी की कविता राह तुम्हारी तकती हूँऔर कवि कुलवंत जी का प्रणय-गीतपढ़ कर हमें अपनी काफी पहले लिखी एक कविता याद आ गई। अब हमारे दिनों दिन लम्बे होते लेखों को आप तकल्लुफ में झेल रहे है तो हमने सोचा क्यो न आप लोगों को थोड़ी राहत दे दें। यूं भी भरी गरमी में बरसात की कल्पना से पल भर तो ठंडक मिलती ही है। अरज़ किया है

 

नभ में बिखरे श्यामल बादल

तुम्हें पुकारे पिघला काजल

बंद खिड़की कर बंद दरवाज़ा

चुपके से तू भीतर आजा

 

 

आँखों को हौले से मींच

बाहों के घेरे में भींच

कोमल गालों को सहला दे

चिर सोए एहसास जगा दे

 

 

बढ़ जाए इस दिल की धड़कन

हो फिर से होंठों में कंपन

मधुर मिलन की मीठी बातें

पल में गुज़रें लम्बी रातें

 

 

गिरना उठना भूलें पलकें

रोम रोम से मद अणु छलके

तन थक कर हो जाए बोझिल

मन सुन्दर सपनों में गाफ़िल

 

प्रीत रीत का सूरज चमके

तन मन रूह सोने सी दमके

गम की सन्धया जाए बीत

लौट आए जो बिछुड़ा मीत।।

 

 

 

एक नया विवाद

रत्ना की रसोई का वार्षिक स्थापना दिवस समारोह सम्पन्न हो चुका था। रत्ना जी पार्टी निपटा कर, स्वागतम् का बोर्ड साइड में सरका कर और एक-आध ज़रूरी काम पर हाज़री लगा कर आराम फरमा रहीी थी। फुरसत के इन पलों का सदोपयोग करने हेतु, रत्ना कम्पनी के मुख्य कर्ता-धर्ता- मिस्टर दिल और मिस्टर दिमाग सफलता नाप रहे थे और ढीगें हांक रहे थे। सामने महिनों पहले पाई प्रशंसा की बोतल खुली थी और शुभकामनायों के प्यालों में, आत्म-स्तुति की मय दनादन तबियत से उड़ाई जा रही थी।

मिस्टर दिल का हज़मा ज़रा कुछ ज़्यादा ही नरम था सो बड़ी जल्दी हाई हो गए। चार पाँच प्यालों (शुभकामना संदेश पढ़ने) के बाद मस्ती में बोले–” यार दिमाग, अपुन लोगों की जोड़ी तो फिट है और मैडम रत्ना की रसोई आजकल हमारी बदौलत काफी हिट है। एकाउन्ट कांउन्टर पर कोई बता रहा था कि अब तक हम लोग कि पुरानी रसोई में 3245 और नई में 10385 यानि अबतक कुल13630 कद्र-दानों की पंगत को जिमा चुके है। अच्छी सर्विस केलिए 526 सर्टीफिकेट (comments) मिले है, वो भी 75 पकवानों की एवज़ में। अपनी तो चांदी हो गई। अब तो बाहर से भी आर्डर मिलने लगे है। पर सच्चाई तो यह है कि ये सब मेरे कारण हुया है। ना मै अपनी कविता से यहाँ पर रंग जमाता और न कोई हमें इतना सराहाता।। मुझे आज भी याद है, मेरी चार लाइन की कविता पर राजस्थान के मशहूर लेखक श्री संजय विद्रोही जी ने कहा था
aapki RASOI dekhne ka sobhagya mila…vakai bade lazeez vyanjanon se saji hai. Ek Behtarin cook( LEKHIKA) hone ki badhaiyan sweekarein.

Prastut “KAVITA” dil ko chhoo gai aur mai vivash ho gaya aapko “well done! ” likhne ko. Really you have done the marvellos lines about poetry and its origine….from heart.

aapko aage ke liye bahut shubhkamnayein.
-sanjay Vidrohi”

इतना ही नहीं, मेरी दूसरी कृति को पढ़ कर लेखकों के दिग्गज, अच्छे साहित्य के पारखी अनूप शुक्ला जी बरबस कह उठे थे

वाह रत्ना जी,बड़ा बढ़िया गीत लिखा है आपने तो! बधाई!’

और नारद जगत की जानी मानी हस्ती अनुनाद सिंह के मुख से यह शब्द झर पड़े थे

आपकी भाषा का प्रवाह तो चूहे के कर्सर से भी तेज है | आपकी भावनाओं में समुद्र सी गहराई है | सच कहा है, “बहुरत्ना वसुन्धरा” ( यह धरती अनेकों रत्नों से भरी पडी है )”

इस सारी प्रशंसा की हकदार रत्ना जी केवल मेरे वजह से हुई थी। ये था मेरा योगदान और तुम, तुम्हे सिर्फ ब्लाग-संचालन का काम दिया गया था और तुमने उसमें भी गुड़ गोबर कर दिया था। पहली पोस्ट को पोस्ट तक न कर पाए थे। दूसरी पोस्ट भी जाने कहाँ गुमा आए थे। घंटों तक इंतज़ार के बाद भी वो नारद तक नहीं पहुंची थी। मै रात भर करवटें बदलता रहा। तुम्हारी किस्मत अच्छी थी कि दूजे दिन दोनों पोस्ट मुझे सही सलामत नारद के पोस्ट बाक्स में दिख गई वरना मैं तुम्हारी ओर जाती जीवन-पोषण की सप्लाई-लाइन ही बंद कर देता। किसी काम के न रहते। वैसे सच कहूँ तुम में अभी भी कोई खास सुधार नहीं हुया है। पता नहीं मैडम तुम्हें क्यों इतना लिफ्ट देती हैं। मेरा बस चले तो मै तुम्हारी छुट्टी कर दूँ, पर तरस खा कर खून का घूंट पी लेता हूँ

दिमाग स्वामी रामदेव का भक्त था, प्राणायाम् के कारण भीतर से सशक्त था सो उसने शांति से मिस्टर दिल की हालात को तोला और मुद्दे से उसका ध्यान हटाते, मुस्कुराते व गुनगुनाते हुए बोला

छोड़ो कल की बातें,कल की बात पुरानी

नए साल में आओ लिखें मिलकर नई कहानी

आगे हम हिन्देस्तानीकहने से उसने आप को रोक लिया क्योंकि बात बात में बिगड़ना-भड़कना, लड़ना-झगड़ना तो हिन्दोस्तानियों का परम्-धर्म और मन-भावन कर्म है। ऐसे नाज़ुक मौके पर दिमाग दिल को गल्ती से भी इस धरम-करम की याद दिलवाना नहीं चाहता था। परन्तु दिल तो दिल है, आलतु-फालतु सामान को भी सहेज कर रखता है तो इसे ऐसे कैसे भूल जाता। कर्म में न सही पर धर्म के मामलों में सभी हिन्दोस्तानियों का दिल हमेशा ही मरने मारने के लिए तैयार रहता है। फिर रत्ना जी का दिल अपना धर्म निभाने में क्योंकर पीछे हटता। दिमाग की मुस्कान उसे व्यंग्य की कमान लगी, अपने अपमान के प्रतीक समान लगी और वो एकदम आग-बबूला हो उठा। हत्थे से उखड़ गया, बेहद बिगड़ गया और गुस्से से फुंकारता हुया बोलाअपने बकवास गद्य पर कुछ तारीफें कमाने लगे हो, मैडम से थोड़ी तरजीह पाने लगे हो, ओ छोटी औकात वाले! तुम बहुत इतराने लगे हो, लगता है तुम्हें सबक सिखाना ही पड़ेगा। ऐसी पटखनी दूंगा कि याद करोगे। तुम्हारी तरफ जाती हुई एक भी नाड़ी में मैंने विस्फोट करवा दिया तो बच्चू टें बोल जाओगे। मृत-प्राय हो कर किसी काम के नही रहोगे।

दिमाग की नसें अब चटखने लगी थी, खतरे की कुन्डी खटकने लगी थी। दिल की बेसुरी बांसुरी सुन वो बोर हो रहा था और धीरे धीरे अपना आपा खो रहा था। परन्तु फिर भी उसने संयम की फिसलती डोर को पकड़ते व दिल को डपटते हुए कहा

हर बात पर कहते हो कि तू क्या है

तुम्हीं कहो ये अन्दाज़े गुफ्तुगू क्या है।

तुम हमेशा औरों को औकात ही आंकते हो क्या कभी अपने भीतर भी झांकते हो। दूसरों की कलई तो खोलते हो पर क्या अपनी नब्ज भी टटोलते हो। इतरा मैं नहीं रहा हूँ, इतरा कर चकरा तो तुम रहे हो। सच्चाई यह है कि लोगों को हिन्दी में लिखने का प्रोत्साहन देने केलिए पुराने ब्लागर समझ-बूझ कर नए लोगों के ब्लाग पर आते है और तारीफ़ की टिप्पणी दे कर उनका मनोबल बढ़ाते है। सबूत के तौर पर जीतेन्द्र चौधरी द्वारा रचित नारद इतिहातके भाग दो के पैरा नम्बर दो की लाइन नम्बर पांच पर गौर करो– “एक समस्या और भी थी, कि नए लोगों को कैसे प्रोत्साहित किया जाए, इसके लिए अनूप भाई और मैने कमान सम्भाली, नए चिट्ठों पर टिप्पणी करना और उन्हे ज्यादा से ज्यादा ब्लॉग लिखने के लिए प्रोत्साहित करना। उधर अनुनाद भाई भी पूरे जोशोखरोश से जुड़े रहे।

हिन्दी के प्रति, सीनीयर ब्लागरज़ के इस फर्ज़ को, अब कोई अपनी करनी का कर्ज़ समझे तो यह उसकी कमअक्ली है। बड़े-बूढ़े बच्चों की तोतली और ऊल-जलूल बकवास में जब दिलचस्पी दिखाते है. उन्हें लालीपोप थमाते है, पीठ थपथपाते है तो यह उनका बड़प्पन है और बड़प्पन का मान रखना ही समझदारी है। चने के झाड़ पर चढ़ कर औछी हरकत करना बदतमीजी है ना कि बचपना। पर यह बात तुम्हे और तुम्हारे कबीले वालों को समझ में नहीं आएगी। मेरे साथ इतने साल रह कर भी तुमने कुछ नहीं सीखा। समय समय पर बहकते ही रहते हो। भावनायों को काबू में रखना तुम्हें आता ही नहीं है। मुझे नुकसान पहूंचा कर क्या तुम बच जाओगे। मेरे बिना तुम भी बेकार और लाचार हो जाओगे। बेहतरी इसी में है हम सब हिल-मिल कर काम करें। क्योकि एकता में शक्ति है और शक्ति में विजय।

दिल इस डपट को गटक कर जले कटे कटाक्षों और गाली गलौज का कै करने ही वाला था  कि रत्ना जी उठ कर बैठ गई । दिल और दिनाग की इस भिड़ंत के कारण वे काफी देर से बेचैनी महसूस कर रही थी। उन्होंने दिमाग को कस कर दबाया  उसे जड़ी बूटी वाला नारियल के तेल का मिक्चर पिलाया और दिल को दो चार बार हाथ से ठोंक कर पूर्ण शान्ति स्थापित करने हेतू काम्पोज़ की एक गोली द़ाग, आराम से करवट ले सो गई।

डाॅ विश्वास कुमार कृत कोई दिवाना कहता है–

            ‘कोई दिवाना कहता हैएक युवा कवि-कृत, युवकों के लिए रचित, यौवन की भावनायों, संवेदनायों, मर्यादायो और विपदायों को दर्शाता काव्य- संग्रह है। प्रत्येक पृष्ठ एक युवा दिल की धड़कन सा प्रतीत होता है। एक ऐसी धड़कन जो प्रियतम की झलक भर से कभी तो बेकाबू हो जाती है और कभी बिछोह की कल्पना मात्र से बेजान। हालांकि दो चार रचनाएं पिता, माँ, प्रकृति, शहीदों के प्रति पुष्प अर्पित करती है परन्तु डाक्टर कुमार विश्वास का यह गुलदस्ता एक प्रेयसी को उसके प्रेमी की लयबद्ध भेंट है। आरम्भ से अन्त तक प्रेम की जो धारा उमड़ी है, उसे मिलन की मदुयामिनी के रूप में कहीं तो कुछ पलों के लिए किनारा मिल गया है किन्तु मुख्य रूप से वो राह की बाधायों से टकराती, मंज़िल तक पहुंचने के इन्तज़ार में छटपटाती, बन्दिशों और मर्यादायों के भंवर में डूबती और विरह की ज्वाला से भीतर ही भीतर सूखती नज़र आई है।

           डाक्टर कुमार विश्वास अपने काव्य-संग्रह कोई दिवाना कहता है के आरम्भ में कहते है

 

पूरा जीवन बीत गया है,

बस तुमको गा भर लेने में

हर पल कुछ कुछ रीत गया है,

पल जीने में, पल मरने में,

इसमें कितना औरों का है,

अब इस गुत्थी को क्या खोलें,

गीत, भूमिका सब कुछ तुम हो,

अब इससे आगे क्या बोलें—–

 

               पहली कविता बांसुरी चली आओतड़पते दिल की पुकार है

 

 

तुम अगर नहीं आयी गीत गा न पाऊँगा

साँस साथ छोड़ेगी सुर सजा न पाऊँगा

तान भावना की है शब्द शब्द दर्पण है

बांसुरी चली आओ होंठो का निमन्त्रण है।

 

             मिलन के पलों का असर भी देखिए

 

जब भी मुँह ढक लेता हूँ

तेरी ज़ुल्फों की छाँव में

कितने गीत उतर आते है

मेरे मन के गाँव में।

 

            प्रेम में ईर्षा की कसक न होने से प्रेम अधूरा लगता है, इसी लिए शायद कवि को होली के अवसर पर गुलाल के भाग्य पर मलाल हो आया है।

 

आज होलिका के अवसर पर जागे भाग गुलालाल के

जिसने मृदु-चुम्बन ले डाले हर गोरी के गाल के

 

             प्रियतमा की मधुर यादों की भी अजब तासीर है

 

तुम आईं चुप खोल सांकलें

मन के मुंदे किवार से

राई से दिन बीत रहे है.

जो थे कभी पहार से।

 

                 बिछुड़ने पर दर्द का एहसास और निराशा का आलम भी कम ऩहीं

 

तुम बिना मैं स्वर्ग का भी सार लेकर क्या करूँ

शर्त का अनुशासनोंका प्यार लेकर क्या करूँ।

 

              प्रेम की दुनिया अपने आप में सम्पूर्ण है। हर रस से रची हुई, हर रंग से रंगी हुई अत: इस काव्य-संग्रह के विषय में संक्षेप में पाठक यही कहेगा

 

                       इस दुनिया के रंगी नज़ारे दो आँखों मे कैसे आए

                       कवि से पूछो इतने अनुभव एक कंठ से कैसे गाए।

 

 

 

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