Thursday, August 25, 2011

लो मशालों को जगा डाला किसी ने,भोले थे कर दिया 'भाला' किसी ने : प्रसून जोशी

पिछले एक हफ्ते से मन अनमना सा है। अन्ना हजारे ने देश में जो अलख जगाई है उससे एक ओर तो मन अभिभूत है पर दूसरी ओर इस बात की चिंता भी है कि क्या अन्ना इस जन आंदोलन को उसके सही मुकाम तक पहुँचा पाएँगे । आज जबकि राजनेताओं पर अविश्वास चरम पर है लोकपाल पर पूर्ण समझौते के आसार कम हैं। अन्ना के समर्थकों को समझना होगा कि ये लड़ाई जल्द खत्म नहीं होने वाली। जनसमर्थन से जन लोकपाल  बिल को संसद में पेश करवाना एक बात है पर उसपर आम सहमति बनाने के लिए सकरात्मक दबाव बनाने की जरूरत है ना कि अक्षरशः पारित करवाने की जिद पर अड़े रहने की। जिस जज़्बे को अन्ना लाखों करोड़ों आम जनों में पैदा करने में सफल रहे हैं उसे जलते रहने देना है। भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का ये तो पहला कदम है ऐसे कई और कदमों की जरूरत है।


नेता संविधान व संसद की सर्वोच्चता के बारे में चाहे जो कुछ भी बोलते रहें पर लोकतंत्र पर गर्व करने वाली जनता आज अगर इन संस्थाओं की कार्यशैली पर प्रश्न उठा रही है तो इसकी पूर्ण जवाबदेही इन राजनेताओं पर है। जनता के मन से इतना कटे रहने वाले ये नेता और ये सरकार अपने आप को जनता के नुमांइदे कैसे कह सकते हैं? सरकार को समझना होगा कि जनता की आशाओं को पूरा करने के लिए उसे अपने और सरकार के अंदर काम कर रहे तंत्र की कार्यशैली में व्यापक बदलाव लाने की जरूरत है। इस देश की जनता बेहद सहनशील है पर इसका मतलब ये नहीं कि लोकतंत्र की आड़ में वो सब कुछ निर्बाध चलता रहे जिसकी इज़ाजत ना इस देश का कानून देता है ना संविधान।

प्रसून एक ऐसे गीतकार हैं जिनके गीतों से भी कविता छलकती है। मुंबई हमलों की बात हो या आज भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अपना विरोध दर्ज कराते जनसैलाब की, प्रसून की लेखनी समय के अनुरूप लोगों की भावनाओं को उद्वेलित करने में सक्षम रही है।

देश में इस वक़्त लोगों के मन में वर्तमान हालातों से जो असंतोष व नाराजगी है उसे प्रसून जोशी ने अपनी एक कविता में बेहद संजीदगी से ज़ाहिर किया है। आज जब इस देश की नब्ज़ अन्ना की धड़कनों के साथ सुर में सुर मिला कर धड़ंक रही है आइए सुनते हैं कि प्रसून आज सत्ता में बैठे लोगों को अपनी इस कविता से क्या संदेश देना चाहते हैं?



लो मशालों को जगा डाला किसी ने
भोले थे कर दिया 'भाला' किसी ने
लो मशालों को जगा डाला किसी ने

है शहर ये कोयलों का
ये मगर न भूल जाना
लाल शोले भी इसी बस्ती में रहते हैं युगों से

रास्तो में धूल है ..कीचड़ है, पर ये याद रखना
ये जमीं धुलती रही संकल्प वाले आँसुओं से

मेरे आँगन को है धो डाला किसी ने
लो मशालों को जगा डाला किसी ने
भोले थे कर दिया 'भाला' किसी ने
लो मशालों...

आग बेवजह कभी घर से निकलती ही नहीं है,
टोलियाँ जत्थे बनाकर चींखकर यूँ चलती नहीं है..
रात को भी देखने दो, आज तुम.. सूरज के जलवे
जब तपेगी ईंट तभी होश में आएँगे तलवे
तोड़ डाला मौन का ताला किसी ने,


लो मशालों को जगा डाला किसी ने,
भोले थे अब कर दिया 'भाला' किसी ने
लो मशालों...

Sunday, August 14, 2011

पूछे जो कोई मेरी निशानी रंग हिना लिखना, गोरे बदन पे उँगली से मेरा नाम अदा लिखना

छः साल पहले यानि 2005 में कश्मीर समस्या की पृष्ठभूमि पर एक फिल्म बनी थी नाम था 'यहाँ'! फिल्म ज्यादा भले ही ना चली हो पर इसके गीत आज भी संगीतप्रेमी श्रोताओं के दिल में बसे हुए हैं,खासकर इसका ये रोमांटिक नग्मा। गुलज़ार ने अपनी लेखनी से ना जाने कितने प्रेम गीतों को जन्म दिया है पर उनकी लेखनी का कमाल है कि हर बार प्यार के ये रंग बदले बदले अल्फ़ाज़ों के द्वारा मन में एक अलग सी क़ैफ़ियत छोड़ते है।
'यहाँ' फिल्म का ये गीत सुनकर दिल सुकून सा पा लेता है। श्रेया घोषाल की स्निग्ध आवाज़ और पार्श्व में शान्तनु मोएत्रा के बहते संगीत पर गुलज़ार के बोल गज़ब का असर करते हैं। गुलज़ार गीत के मुखड़े से ही रूमानियत का जादू जगाते चलते हैं। नायिका का ये कहना कि यूँ तो मेरी रंगत हिना से मिलती जुलती है पर जब तुम्हारा स्पर्श मुझे मिलता है मेरी हर बात एक अदा बन जाती है,अन्तरमन को गुदगुदा जाता है..

फिल्म यहाँ की कहानी एक कश्मीरी लड़की और फ़ौज के एक अफ़सर के बीच आतंकवाद के साए में पलते प्रेम की कहानी है। ज़ाहिर है प्रेमी युगल आशावान हैं कि आज नहीं तो कल ये हालात बदलेंगे ही...गुलज़ार पहले अंतरे में यही रेखांकित करना चाहते हैं

पूछे जो कोई मेरी निशानी
पूछे जो कोई मेरी निशानी
रंग हिना लिखना
गोरे बदन पे
उँगली से मेरा
नाम अदा लिखना
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है..

झेलम में बह लेंगे..
वादी के मौसम भी
इक दिन तो बदलेंगे
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है..

गीत के दूसरा और तीसरे अंतरे में श्रोता अपने आप को प्रकृति से जुड़े गुलज़ार के चिर परिचित मोहक रूपकों से घिरा पाते हैं। शाम की फैली चादर, चाँद की निर्मल चाँदनी, गिरती बर्फ , फैलती धुंध, बदलते रंग और जलती लकड़ियों की आँच सब कुछ तो है जो जवाँ दिलों को एक दूसरे से अलग होने नहीं देती.. । गुलज़ार की लेखनी एक अलग ही धरातल पर तब जाती दिखती है जब वो कहते हैं..शामें बुझाने आती हैं रातें, रातें बुझाने, तुम आ गए हो.। ये सब पढ़ सुन कर बस एक आह सी ही निकलती है...

आऊँ तो सुबह
जाऊँ तो मेरा नाम सबा लिखना
बर्फ पड़े तो बर्फ पे मेरा नाम दुआ लिखना
ज़रा ज़रा आग वाग पास रहती है
ज़रा ज़रा कांगड़ी का आँच रहती है
कभी कभी आस पास चाँद रहता है
कभी कभी आस पास शाम रहती है..

जब तुम हँसते हो
दिन हो जाता है
तुम गले लगो तो
दिन सो जाता है
डोली उठाये आएगा दिन तो
पास बिठा लेना
कल जो मिले तो
माथे पे मेरे सूरज उगा देना
ज़रा ज़रा आस पास धुंध रहेगी
ज़रा ज़रा आस पास रंग रहेंगे

पूछे जो कोई मेरी निशानी...शाम रहती है..
इस गीत में श्रेया का साथ दिया है शान ने। श्रेया इस गीत को अपने गाए सर्वप्रिय गीतों में से एक मानती हैं। इस गीत के बारे में अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि
इस गीत में ऐसा कुछ है जो मुझे अपनी ओर खींचता है। वे इसके शब्द नहीं हैं, ना ही मेरी गायिकी और ना ही इसका संगीत पर इन तीनों के समन्वय से बनी इस गीत की पूर्णता ही मुझे इस गीत को बार बार सुनने को मजबूर करती है।

श्रेया के मुताबिक इस फिल्म के संगीतकार शान्तनु मोएत्रा एक ऐसे संगीतकार हैं जिनका संगीत संयोजन इस तरह का होता है कि वो गीत में वाद्य यंत्रों का नाहक इस्तेमाल नहीं करते। श्रेया का कहना बिल्कुल सही है।शांतनु की इस विशिष्ट शैली को हम उनकी बाद की फिल्मों परिणिता, खोया खोया चाँद और एकलव्य दि रॉयल गार्ड जैसी फिल्मों में भी देखते आए हैं।

यहाँ फिल्म अभिनेत्री मिनीषा लांबा की पहली फिल्म थी। फिल्म में उनका अभिनय और फिल्म का छायांकन चर्चा का विषय रहे थे। इस गीत के वीडिओ में आप फिल्म की इन दोनों खूबियों का सुबूत सहज पा लेंगे....
चलते चलते जरा याद कीजिए की विगत बीस सालों (1990 -2010) में गुलज़ार के लिखे रूमानी नग्मों में आपको सबसे ज्यादा कौन पसंद हैं? अपनी पसंद बताइएगा। फिलहाल मेरी पसंद तो ये रही..

Thursday, August 04, 2011

किशोर दा के जन्म दिन पर एक नज़र उनके गाए बरसाती गीतों की तरफ़...

हिंदी फिल्मों में बरसाती गीतों की परंपरा रही है। नायक व नायिका के प्रेम संबंधों को प्रगाढ़ करने के लिए ये बारिश से अच्छी सिचुएशन निर्देशकों को मिल ही नहीं पाती। और जब माहौल रूमानी होगा तो नायक या नायिका का मन बिना गाए कैसे मानेगा? यही वज़ह है कि हिंदी फिल्मों में ऍसे गीत कई हैं और हमारे सभी अग्रणी पार्श्व गायक गायिकाओं द्वारा गाए गए हैं। अब अगर किशोर दा की बात करें तो उनकी गायिकी बारिश से जुड़े वैसे रूमानी गीत जिसमें चंचलता या थोड़े नटखटपन की जरूरत हो, के लिए सर्वथा उपयुक्त थी। आज किशोर दा के जन्मदिन के अवसर पर आइए देखते हैं  कि सावनी गीतों में उन्होंने अपनी गायिकी के अंदाज से क्या मिठास घोली?
1958 में आई फिल्म चलती का नाम गाड़ी में मजरूह साहब का लिखा और सचिन देव बर्मन द्वारा संगीत निर्देशित ये गीत सावन की रात में किन्हीं दो जवाँ दिलों की धड़कनें बढ़ा सकता है।

इक लड़की भीगी-भागी सी, सोती रातों को जागी सी
मिली इक अजनबी से,कोई आगे न पीछे
तुम ही कहो ये कोई बात है
दिल ही दिल में जली जाती है,बिगड़ी बिगड़ी चली आती है
मचली मचली घर से निकली, सावन की काली रात में
मिली इक अजनबी से...
 .

किशोर दा ने ना सिर्फ इस फिल्म में गायिकी के साथ अभिनय किया था बल्कि साथ ही फिल्म का निर्माण भी। मधुबाला के साथ तो वे पहले फिल्म 'ढाके का मलमल' में काम कर चुके थे पर मधुबाला के साथ उनकी प्यार की पींगे इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान शुरु हुई थीं। सो उनकी स्वभावगत चंचलता और मधुबाला की शोख अदाओं के साथ उनके बीच की केमिस्ट्री ने इस गीत का आनंद और भी बढ़ा दिया था।

वैसे जब तेज हवा के साथ बारिश की झमझमाती बूँदे आ जाएँ तो मन मायूस होकर भला चुप कब तक रहेगा।? ऐसी ही भावना लिए किशोर दा का एक गीत था 1972 में प्रदर्शित फिल्म अनोखा दान के लिए जिसे लिखा था गीतकार योगेश गौड़ ने और धुन थी सलिल दा की।गीत का मुखड़े के साथ सलिल दा की पत्नी सविता चौधरी की गाई रागिनी मूड को एकदम से तरोताजा कर देती है।

आई घिर घिर सावन की काली काली घटाएँ
झूम झूम चली भीगी भीगी हवाएँ
ऐसे में मन मेरे कुछ तो कहो
कुछ तो कहो चुप ना रहो
गा मा पा गा सा गा सा नि सा धा धा नि स ध प म
रे गा मा रे नि रे नि ध नि ध धा नि सा प ध

वैसे भी अगर सावन की काली घटाओं के साथ साथ ये गीत सुनाई दे जाए तो मन खुद बा खुद झूमने लगता है।

बारिश के मौसम से जुड़े एकल गीतों में तो किशोर दा के हुनर को आपने देख लिया। पर ऐसे मौसम में जब नायक नायिका का साथ हो तो माहौल बदलते देर नहीं लगती। यही वजह रही कि लता जी के साथ गाए युगल गीतों में कुछ तो बड़े लोकप्रिय रहे। मसलन 1973 में बनी फिल्म जैसे को तैसा में जीतेंद्र व रीना राय पर फिल्माए गए उस गीत को याद करें जिसके बोल थे

अब के सावन में जी डरे
रिमझिम बरसे पानी गिरे
मन में लगे इक आग सी

या फिर अस्सी के दशक की फिल्म नमकहलाल में अमिताभ व स्मिता पाटिल पर फिल्माया गीत आज रपट जाएँतो हमें ना बचइयो...हो। पर मुझे लता वा किशोर का बरखा से जुड़ा सबसे मस्ती भरा गीत लगता है 1972 में बनी फिल्म 'अजनबी' का जिसे राजेश खन्ना व जीनत अमान ने अपनी खूबसूरत अदाएगी से और यादगार बना दिया था

भीगी भीगी... रातों में, मीठी मीठी... बातों में
ऐसी बरसातो में, कैसा लगता है?
ऐसा लगता है तुम बनके बादल,
मेरे बदन को भिगो के मुझे, छेड़ रहे हो
ओ छेड़ रहे हो
ओ, पानी के इस रेले में सावन के इस मेले में
छत पे अकेले में कैसा लगता है
ऐसा लगता है,तू बनके घटा
अपने सजन को भिगो के
खेल खेल रही हो ओ खेल रही हो
पंचम के संगीत और आनंद बक्षी के बोल इस गीत की मस्ती को और बढ़ा देते हैं।

किशोर दा ने बारिश से जुड़े सिर्फ मस्ती भरे गीत गाए ऐसा भी नहीं है। जब जब गीत की संवेदनाएँ बदली किशोर दा ने भी अपनी गायिकी में वैसा ही परिवर्तन किया। ऐसे ही एक गीत से जुड़ा एक किस्सा याद आता है जिसे पंचम के एक एलबम में सुना था

फिल्म महबूबा के लिए जब पंचम ने किशोर दा को मेरे नैना सावन भादो फिर भी मेरा मन प्यासा......गाने को कहा तो किशोर दा ने मना कर दिया और कहा कि इस गीत को पहले लता से गवाओ। लता की आवाज़ में गाना रिकार्ड हो गया। पंचम ने किशोर दा को बताया कि ये गीत राग शिवरंजनी पर आधारित है। अब किशोर दा कोई शास्त्रीय संगीत सीखे हुए गायक नहीं थे। उन्होंने पंचम से कहा कि राग की ऍसी की तैसी तुम मुझे रिकार्डिंग सुनाओ। किशोर दा उस गीत को एक हफ्ते तक लगातार सुनते रहे। अगले हफ्ते जब वो रिकार्डिंग के लिए आए तो जिस तरह से उन्होंने इस गीत को गाया कि सब दंग रह गए।

और चलते-चलते बात सावन से जुड़े उस गीत की जिसकी मेलोडी ने क्या नई, क्या पुरानी सभी पीढ़ियों को अपना प्रशंसक बना रखा है। ये गीत आज भी रेडिओ पर उतना ही बजता है जितना पहले बजा करता था। जी हाँ सही पहचाना आपने मैं मंजिल के गीत रिमझिम गिरे सावन सुलग सुलग जाए मन, भीगे आज इस मौसम में लगी केसी ये अगन की ही बात कर रहा हूँ।

योगेश गौड़ ने क्या गीत लिखा था! हर अंतरा लाजवाब। पंचम का संगीत, गीत की मेलोडी और किशोर दा की गायिकी, इस गीत को गुनगुनाने के लिए हर संगीत प्रेमी शख़्स को मज़बूर कर देती है। पर जहाँ किशोर दा के ये गीत अमिताभ पर एक महफ़िल में फिल्माया गया वहीं लता वाला वर्जन मुंबई की बारिश में शूट किया गया। किशोर वाले वर्सन की गुनगुनाहट तो मैं आपको सुना देता हूँ

बाकी अमिताभ और मौसमी चटर्जी पर फिल्माए इस गीर के दूसरे वर्जन का ये वीडिओ जरूर देखें..


एक शाम मेरे नाम पर किशोर दा लेखमाला
  1. यादें किशोर दा कीः जिन्होंने मुझे गुनगुनाना सिखाया..
  2. यादें किशोर दा कीः पचास और सत्तर के बीच का वो कठिन दौर...
  3. यादें किशोर दा कीः सत्तर का मधुर संगीत. ...
  4. यादें किशोर दा की: कुछ दिलचस्प किस्से उनकी अजीबोगरीब शख्सियत के !..
  5. यादें किशोर दा कीः पंचम, गुलज़ार और किशोर क्या बात है !
  6. यादें किशोर दा की : किशोर के सहगायक और उनके युगल गीत...
  7. यादें किशोर दा की : ये दर्द भरा अफ़साना, सुन ले अनजान ज़माना
  8. यादें किशोर दा की : क्या था उनका असली रूप साथियों एवम् पत्नी लीना चंद्रावरकर की नज़र में
  9. यादें किशोर दा की: वो कल भी पास-पास थे, वो आज भी करीब हैं ..
  10. किशोर दा लेखमाला के संकलित और संपादित अंश

Wednesday, July 27, 2011

'घर अकेला हो गया' : क्या है मुन्नवर राना का दुख ?

मुन्नवर राना की किताब 'घर अकेला हो गया' को पढ़ते वक्त कुछ सहज प्रश्न हर पाठक के दिमाग में उठ सकते हैं?  पिछली प्रविष्टि में आपने देखा कि किस तरह 'घर अकेला हो गया' के तमाम शेर आज की सियासत और नेताओं के लिए तल्खियों से भरे हैं। मुन्न्वर जी के हृदय की ये तल्खियाँ सिर्फ सियासत और नेताओं तक ही सीमित नहीं है। मसलन आख़िर शायर के दुखों का कारण क्या है?  ये दुख उनकी आज की जिंदगी से जुड़े हैं?

मुन्नवर की आज की जिंदगी की रूपरेखा पुस्तक में जनाब वाली आसी साहब कुछ यूँ देते हैं..
लोगों को उसकी ज़िंदगी में बड़ी चमक दिखाई देती है। कलकत्ते और दिल्ली से पूरे मुल्क में फैला हुआ उसका कारोबार, हवाई जहाजों, रेल के एयर कंडिश्नड डिब्बों और चमकती हुई कारों में उसका सफ़र, सितारों वाले होटलों में उसका क़याम, उसका सुखी घर संसार, जहाँ उसकी जीवन संगिनी, हँसती हुई गुड़ियों जैसी बच्चियाँ और किलकारियाँ भरते हुए फूल जैसे मासूम और चाँद जेसे प्यार बेटे के आलावा ज़िंदगी को आराम-ओ -असाइश से गुज़ारने के लिए नए से नया और अच्छे से अच्छा सामान मौजूद है, लेकिन उसका सबसे बड़ा दुख गाँव से नाता टूट जाने का है। वह और ऐसे बहुत से दुख उसे सताते हैं।

बहुत ज़माना हुआ, गौतम ने इन्हीं दुखों से छुटकारा पाने के लिए संसार को त्याग दिया था, लेकिन मुनचनवर राना का दुख यह है कि वह रात के अँधेरे में चुप कर कहीं ना जा सका, वह संसार को त्याग नहीं सका, शायद यही वज़ह है कि उसने शायरी के दामन में पनाह ढूँढ ली और अपने दुखों को इस तरह हिफ़ाज़त से रखा जैसे औरतें अपने गहने सँभाल कर रखती हैं।

वाली साहब की बात कितनी सही है उसका अंदाज़ा आप इस किताब को पढ़ कर लगा सकते हैं।  देश में गाँव से शहरों की ओर होता पलायन, गाँवों और शहरों में लोगों के नैतिक मूल्यों में होता अवमूल्यन भी शायर को चिंतित करता है और ये चिंता उनके कई अशआरों में मुखर हो उठती है.....

सज़ा कितनी बड़ी है गाँव से बाहर निकलने की
मैं मिट्टी गूँथता था अब डबलरोटी बनाता हूँ

मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
जला कर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ

मुन्नवर जी भले ही आज एक अच्छे खासे कारोबार के मालिक हैं पर ये अमीरी उन्होंने गरीबी और बदहाली की जिंदगी से संघर्ष कर पाई है। आपको जानकर हैरानी होगी  कि मुन्नवर राना के पिता एक ट्रक चालक थे। पिता  को कई बार काफी दिनों के लिए बाहर रहना पड़ता और उनके लौटने तक पूरा परिवार खाने को भी मोहताज हो जाया करता था।  मुन्नवर ने गरीब और अमीर तबके के जीवन को करीब से देखा है। आज अमीरों  के बीच उनका उठना बैठना है फिर भी वो इनकी जिंदगी के खोखलेपन व मुखीटों के अंदर के चरित्र से वाकिफ़ हैं।

मैंने फल देख के इंसान को पहचाना है
जो बहुत मीठे हों अंदर से सड़े होते हैं


लबों पर मुस्कुराहट दिल में बेज़ारी निकलती है
बड़े लोगों में ही अक्सर ये बीमारी निकलती है

वहीं अपनी जड़ों को उनकी शायरी कभी नहीं भूलती। मुन्न्वर की लेखनी की धार इन अशआरों में स्पष्ट दिखती है।

मैंने देखा है जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं
कद में छोटे हों मगर लोग बड़े होते हैं।

भटकती है हवस दिन रात सोने की दुकानों में
ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है


सो जाते हैं फुटपाथ पे अखबार बिछा कर
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते


मुन्नवर साहब की हर किताब में आप माँ से जुड़े अशआरों को प्रचुरता से पाएँगे। गुफ़तगू पत्रिका को हाल ही में दिए गए साक्षात्कार में जब उनसे इसकी वज़ह पूछी गई तो मुन्नवर साहब का जवाब था
घर के कठिन हालातों को देखकर माँ हर वक्त  बैठी दुआएँ ही माँगती रहती थी। मुझे बचपन में नींद में चलने की बीमारी थी। इसी वजह से माँ रातभर जागती थी, वो डरती थीं कि कहीं रात में चलते हुए कुएँ में जाकर न गिर जाऊँ। मैंने माँ को हमेशा दुआ माँगते ही देखा है इसीलिए उनका किरदार मेरे जेहन में घूमता रहता है और शायरी का विषय बनता है।
घर अकेला हो गया में भी ऍसे कई शेर हैं कुछ की बानगी देखिए

जब भी कश्ती मेरे सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ बन कर मेरे ख़्वाब में आ जाती है।

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिंदी मुस्कुराती है

मुन्नवर माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो, इतनी नमी अच्छी नहीं होती


पूरी किताब में कई जगह आज के हालातों के मद्दे नज़र राना साहब के अशआरों की शक़्ल में किए गए चुटीले व्यंग्य मन को मोह लेते हैं।
कलम सोने का रखने में कोई बुराई नहीं लेकिन
कोई तहरीर भी निकले तो दरबारी निकलती है


मुँह का मजा बदलने के लिए सुनते हैं वो ग़ज़ल
टेबुल के दालमोठ की सूरत हूँ इन दिनों

हर शख़्स देखने लगा शक़ की निगाह से
मैं पाँच सौ के नोट की सूरत हूँ इन दिनों


कुल मिलाकर अगर आप ग़ज़ल को प्रेम काव्य ना मानकर एक ऐसा माध्यम मानते हैं जिसके द्वारा शायर समाज से जुड़े सरोकारों को सामने लाए तो ये किताब आपके लिए है। चलते चलते इस किताब के शीर्षक के नाम मुन्नवर राना साहब का ये शेर सुनते जाइए

ऐसा लगता है कि जैसे ख़त्म मेला हो गया
उड़ गई आँगन से चिड़िया घर अकेला हो गया

पुस्तक के बारे में
घर अकेला हो गया
मूल्य : 125 रुपये मात्र
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन

Thursday, July 21, 2011

मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती : मुन्नवर राना की किताब 'घर अकेला हो गया'

करीब साल डेढ़ साल पहले मुन्नवर राना की एक किताब खरीदी थी। नाम था 'घर अकेला हो गया'। पिछले साल से मैं इस किताब में राना जी की लिखी 112 ग़ज़लों को टुकड़ों में पढ़ता आया हूँ। शायरी की किताबों के साथ एक बात जो मैंने महसूस की है वो ये कि अगर आप उसका पूरा लुत्फ़ उठाना चाहते हैं तो एक बार में ना पढ़ें। हर ग़ज़ल का अपना एक मूड होता है जो शायद पहले की ग़ज़ल से बिल्कुल ना मेल खाता हो। इसलिए पढ़ते समय मन में उठते विचारों पे निरंतरता नहीं आ पाती। एक ग़ज़ल आपको कुछ सोचने पर मज़बूर करती है तो दूसरे को पढ़ते ही पहले वाले विचार एकदम से गड्डमगड हो जाते हैं।

अब जबकि इतने लंबे समय के बाद ये किताब निबटाई जा चुकी है तो सोचा आज इसके शायर और इस पुस्तक के बारे में कुछ बातें हो जाएँ।

नवंबर 1952 में रायबरेली में जन्मे मुन्नवर राना का पूरा नाम 'सैयद मुन्नवर अली राना' है। साठ की उम्र के पास पहुँचते इस शायर के दर्जन भर से ज्यादा ग़ज़ल संग्रह छप चुके हैं और ये उनकी बढ़ती लोकप्रियता का सबूत हैं। मुन्नवर साहब ने अपनी शायरी में जिस भाषा का प्रयोग किया है उसे समझने के लिए आपको उर्दू का प्रकांड पंडित होने की आवश्यकता नहीं। इस मामले में मैं उनककी शायरी को बशीर बद्र की शायरी के करीब पाता हूँ। पर जब बात ग़ज़ल में व्यक्त किए गए मसायलों की आती है तो ये समानता ख़त्म हो जाती है।

मुन्नवर राना की शायरी उनके दिल में देश की सियासत के प्रति उनकी नफ़रत का इज़हार बार बार करती है। मुन्नवर का मानना है कि राजनीति में पैठ रखने वाले पत्थरदिल हैं जो देश की जनता से कुत्तों सा व्यवहार करते हैं।

मसलन इन अशआरों को देखिए..

सियासत से अदब की दोस्ती बेमेल लगती है
कभी देखा है पत्थर पे भी कोई बेल लगती है।

या फिर...
हुकूमत मुँह भराई के हुनर से खूब वाक़िफ है
ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है।

राजनीति में सर्वविदित भ्रष्टाचार को भी शायर आड़े हाथों लेते हुए लिखते हैं..
वो शायर हों कि आलिम हों कि ताजिर या लुटेरे हों
सियासत वो जुआ है जिसमें सब पैसे लगाते हैं

मुनासिब है कि पहले तुम आदमखोर बन जाओ
कहीं संसद में खाने पीने कोई चावल दाल जाता है

दंगों में नेताओं की भूमिका से मुन्नवर आहत रहे हैं। इनका ये दर्द और आक्रोश इन मिसरों में साफ़ झलकता है

अगर दंगाइयों पर तेरा बस नहीं चलता
तो सुन ले ऐ हुकूमत हम तुम्हें नामर्द कहते हैं

मज़हबी मजदूर सब बैठे हैं इनको काम दो
एक इमारत शहर में काफी पुरानी और है
खामोशी कब चीख़ बन जाए किसे मालूम हैं
जुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है

अपनी कौम को शक़ की निगाह से देखे जाने का उनमें रोष है उसका अंदाजा आप उनके इस शेर से लगा सकते हैं....
बस इतनी सी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आईएसआई लिक्खा है

मकबूल शायर वाली आसी साहब इस पुस्तक की भूमिका में कहते हैं कि मुनव्वर राना एक दुखी आत्मा का नाम है। मुन्नवर के दुखों का कारण क्या है?  मुन्नवर की ये तल्खियाँ क्या सिर्फ सियासत, मज़हबी जुनून और नेताओं तक ही सीमित हैं? क्या ये दुख उनकी निजी जिंदगी से जुड़े हैं इन सवालों पर बात करेंगे इस पुस्तक चर्चा के अगले भाग में। फिलहाल तो अपने मिज़ाज के बारे में उनकी कलम ख़ुद क्या कहती है वो पढ़ लें....
मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती
 मैं एक दिन बेख्याली में कहीं सच बोल बैठा था
मैं कोशिश कर चुका हूँ, मुँह की कड़वाहट नहीं जाती


पुस्तक के बारे में
नाम :घर अकेला हो गया
मूल्य  :१२५ रुपये मात्र
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन

Thursday, July 14, 2011

सुनो आतंकवादी,मुझे गुस्सा भी आता है, तरस भी आता है तुम पर : जावेद अख़्तर

31 महिनों का अंतराल और फिर वही बम धमाका। इस पर मुंबईवासियों को गृह मंत्री की पीठ ठोकनी चाहिए या फिर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करना चाहिए। इतना तो सही है कि शिवराज पाटिल के ज़माने में आम जनता में जो लाचारी और नैराश्य का भाव चरम पर था उसमें पिछले कुछ सालों में काफी कमी आई थी। आज चिंदाबरम के हिसाब से देश का कोई कोना सुरक्षित नहीं है। पर इसमें नया क्या है। राहुल बाबा कहते हैं कि हम ऐसे हादसों को रोक नहीं सकते। मुझे इनसे असहमत होने का कोई कारण नहीं दिखता। ये सब तो हम भारतवासी अच्छी तरह जानते ही हैं। पर इन हुक्मरानों के मुंह से ऐसा सुनना अच्छा नहीं लगता।

अगर राहुल इतनी ही साफगोई बरतना चाहते थे तो उन्हें  ये भी जोड़ना चाहिए था कि खासकर तब जब यहीं के लोग बाहरी शक्तियों से मिल जाएँ । ऐसा पुलिस व खुफ़िया तंत्र मजबूत कर देने भर से ही नहीं होगा। उसके लिए स्पष्ट नीतियों की आवश्यकता होती है और उससे भी अधिक उन्हें तेज़ी से कार्यान्वित करने की इच्छा शक्ति। पिछले कई सालों से तो यही देखता आया हूँ कि ये सरकार दो कदम आगे बढ़ाती है फिर चार कदम पीछे भी हटती नज़र आती है।

आज जब सरकार की ओर से मायूसी और निराशा के स्वर उभर रहे हैं तो मुझे जावेद अख़्तर साहब की दो साल पहले मुंबई हमले की बरसी पर लिखी ये नज़्म याद आ रही है जो निराशा के इस माहौल में भी हमारी उम्मीद और हौसले को जगाए रखती है। जावेद साहब ने इस नज़्म में वही भावनाएँ, वही आक्रोश व्यक्त किया हैं है जो ऐसे हादसों के बाद हमारे जैसे आम जन अपने दिल में महसूस करते हैं..

मुझे पूरा यक़ी हैं कि जावेद साहब की आवाज़ में जब आप ये नज़्म सुनेंगे तो बहुत देर तक उनके कहे शब्द आपके दिलो दिमाग को झिंझोड़ कर रख देंगे..

महावीर और बुद्ध की,
नानक और चिश्ती की,और गाँधी की धरती पर,
मैं जब आतंक के ऐसे नज़ारे देखता हूँ तो,
मैं जब अपनी ज़मीं पर अपने लोगों के लहू के बहते धारे देखता हूँ तो,
मेरे कानों में जब आती हैं उन मज़बूर ग़म से लरज़ती माओं की चीखें,
कि जिनके बेटे यह कहकर गए थे, शाम से पहले ही घर लौट आएँगे हम तो,
मैं जब भी देखता हूँ सूनी और उजड़ी हुई मांगें,
ये सब हैरान से चेहरे, ये सब भींगी हुई आँखें,
तो मेरी आँखें हरसू ढूँढती हैं उन दरिन्दों को,
जिन्होंने ट्रेन में, बस में, जिन्होंने सडको में, बाजारों में बम आके हैं फोड़े,
जिन्होंने अस्पतालों पर भी अपनी गोलियाँ बरसाई, मंदिर और मस्जिद तक नहीं छोड़े,
जिन्होंने मेरे ही लोगों के खूँ से मेरे शहरों को रँगा है,
वो जिनका होना ही हैवानियत की इंतहा है,
मेरे लोगों जो तुम सबकी तमन्ना है, वही मेरी तमन्ना है,
कि इन जैसे दरिंदों की हर एक साज़िश को मैं नाकाम देखूँ,
जो होना चाहिए इनका मैं वो अंज़ाम देखूँ ,
मगर कानून और इंसाफ़ जब अंजाम की जानिब इन्हें ले जा रहे हों तो,
मैं इनमें से किसी भी एक से इक बार मिलना चाहता हूँ.

मुझे यह पूछना है,
दूर से देखूँ तो तुम भी जैसे एक इंसान लगते हो,
तुम्हारे तन में फिर क्यूँ भेड़ियों का खून बहता है ?
तुम्हारी साँस में साँपों की ये फुंकार कबसे है ?
तुम्हारी सोच में यह ज़हर है कैसा ?
तुम्हें दुनिया की हर नेकी हर इक अच्छाई से इंकार कबसे है?
तुम्हारी ज़िन्दगी इतनी भयानक और तुम्हारी आत्मा आतंक से बीमार कबसे है?


सुनो आतंकवादी,
मुझे गुस्सा भी आता है, तरस भी आता है तुम पर,
कि तुम तो बस प्यादे हो,
जिन्होंने है तुम्हें आगे बढ़ाया वो खिलाडी दूर बैठे हैं,
बहुत चालाक बनते हैं, बहुत मगरूर बैठे हैं,
ज़रा समझो, ज़रा समझो, तुम्हारी दुश्मनी हम से नहीं हैं,
जहाँ से आए हो मुड़कर ज़रा देखो, तुम्हारा असली दुश्मन तो वहीं हैं,
वो जिनके हाथ में कठपुतलियों की तरह तुम खेले,
वो जिनके कहने पर तुमने बहाए खून के रेले,
तुम्हारे तो है वो दुश्मन, जिन्होंने नफ़रतों का यह सबक तुमको रटाया है,
तुम्हारे तो है वो दुश्मन जिन्होंने तुमको ऐसे रास्ते में ला के छोड़ा है,
जो रास्ता आज तुमको मौत के दरवाज़े लाया है,
यह एक धोखा है, एक अँधेर है, एक लूट है समझो,
जो समझाया गया है तुमको वो सब झूठ है समझो,


कोई पल भर न ये समझे की मैं ज़ज़्बात में बस यूँ ही बहता हूँ,
मुझे मालूम है वो सुन रहे हैं जिनसे कहता हूँ,
अभी तक वक़्त है जो पट्टियाँ आँखों की खुल जाएँ,
अभी तक वक़्त है जो नफ़रतों के दाग धुल जाएँ,
अभी तक वक़्त है हमने कोई भी हद नहीं तोड़ी,
अभी तक वक़्त है हमने उम्मीद अब तक नहीं छोड़ी,
अभी तक वक़्त है चाहो तो ये मौसम बदल जाएँ,
अभी तक वक़्त है जो दोस्ती की रस्म चल जाए,
कोई दिलदार बनके आए तो दिलदार हम भी हैं,
मगर जो दुश्मनी ठहरी तो फिर तैयार हम भी हैं.


 ताकि सनद रहे

Friday, July 08, 2011

रात भी है कुछ भीगी-भीगी, चाँद भी है कुछ मद्धम-मद्धम...

बारिश के मौसम को ध्यान में रखते हुए कुछ दिनों पहले मैंने लता जी का गाया फिल्म 'परख' का गीत सुनवाया था। बारिश का मौसम अभी थमा नहीं है। अब आज मेरे शहर का मौसम देखिए ना। बाहर ठंडी बयारें तो है ही और उनकी संगत में बारिश की रेशमी फुहार भी है। तो इस भीगी रात में भींगा भींगा सा रूमानियत से भरा इक नग्मा हो जाए।


आज का ये नग्मा मैंने चुना है फिल्म 'मुझे जीने दो' से जो सन 1963 में प्रदर्शित हुई थी। इसके संगीतकार थे जयदेव साहब। वैसे क्या आपको पता है कि जयदेव पहली बार पन्द्रह साल की उम्र में घर से भागकर मुंबई आए थे तो उनका सपना एक फिल्म अभिनेता बनने का था। यहाँ तक कि बतौर बाल कलाकार उन्होंने सात आठ फिल्में की भी। पर पिता के अचानक निधन ने उनके कैरियर की दिशा ही बदल दी। घर की जिम्मेवारियाँ सँभालने के लिए जयदेव लुधियाना आ गए। बहन की शादी करा लेने के बाद जयदेव ने चालिस के दशक में लखनऊ के उस्ताद अकबर अली से संगीत की शिक्षा ली। जयदेव ने पहले उनके लिए और बाद में एस डी बर्मन जैसे संगीतकार के सहायक का काम किया। जयदेव का दुर्भाग्य रहा कि उनके अनूठे संगीत निर्देशन के बावजूद उनकी बहुत सारी फिल्में जैसे रेशमा व शेरा, आलाप,गमन व अनकही नहीं चलीं। पर 'मुझे जीने दो' और 'हम दोनों' ने उन्हें व्यवसायिक सफलता का मुँह दिखलाया।

जयदेव शास्त्रीय संगीत के अच्छे जानकार थे। उनके रचित गीत अक्सर किसी ना किसी राग पर आधारित हुआ करते थे। 'मुझे जीने दो' का ये गीत 'राग धानी' पर आधारित है। वस्तुतः राग धानी, राग मालकोस से निकला हुआ राग है। शास्त्रीय संगीत के जानकार राग धानी को राग मालकोस का रूमानी , मिठास भरा रूप मानते हैं। 

पर ये गीत अगर इतना मधुर व सुरीला बन पड़ा है तो उसमें जयदेव के संगीत से कहीं अधिक साहिर लुधियानवी के बोलों और लता जी की गायिकी का हाथ था।  साहिर के बारे में ये कहा जाता था कि वो मानते थे कि गीत के लोकप्रिय होने में सबसे बड़ा हाथ गीतकार का होता है। इसी वज़ह से किसी भी फिल्म में काम करने के पहले उनकी शर्त होती थी कि उनका पारिश्रमिक संगीतकार से एक रुपया ज्यादा रहे।

वैसे साहिर की शायरी इसकी हक़दार भी थी। अब इसी गीत को लें । शब्दों के दोहराव का कितना खूबसूरत प्रयोग किया है साहिर ने गीत के हर अंतरे में। पहले अंतरे में साहिर लिखते हैं
तुम आओ तो आँखें खोलें
सोई हुई पायल की छम छम
अब आप ही बताइए, एक मुज़रेवाली इससे बेहतर किन लफ़्जों से महफिल में आए अपने प्रशंसकों का दिल जीत सकती है? और गीत के तीसरा अंतरे में इस्तेमाल किए गए प्राकृतिक रूपकों को सुनकर तोदिल से बस वाह वाह ही निकलती है। ज़रा इन पंक्तियों पर गौर फ़रमाएँ

तपते दिल पर यूँ गिरती है
तेरी नज़र से प्यार की शबनम
जलते हुए जंगल पर जैसे
बरखा बरसे रुक-रुक थम-थम


वैसे तो शोख और चंचल गीतों के लिए आशा ताई कई संगीतकारों की पहली पसंद हुआ करती थीं पर यहाँ लता जी ने भी अपनी गायिकी में गीत के हाव भावों को बड़ी खूबसूरती से पकड़ा है। मसलन जब लता होश में थोड़ी बेहोशी है..गाती हैं तो लगता है बस अब मूर्छित हो ही गयीं।

तो आइए सुनते हैं इस गीत को लता जी की सुरीली आवाज़ में


रात भी है कुछ भीगी-भीगी
चाँद भी है कुछ मद्धम-मद्धम
तुम आओ तो आँखें खोलें
सोई हुई पायल की छम छम

किसको बताएँ कैसे बताएँ
आज अजब है दिल का आलम
चैन भी है कुछ हल्का हल्का
दर्द भी है कुछ मद्धम मद्धम
छम-छम, छम-छम, छम-छम, छम-छम

तपते दिल पर यूँ गिरती है
तेरी नज़र से प्यार की शबनम
जलते हुए जंगल पर जैसे
बरखा बरसे रुक-रुक थम-थम
छम-छम, छम-छम, छम-छम, छम-छम
होश में थोड़ी बेहोशी है
बेहोशी में होश है कम कम
तुझको पाने की कोशिश में
दोनों जहाँ से खो ही गए हम
छम-छम, छम-छम, छम-छम, छम-छम

फिल्म में ये गीत फिल्माया गया था वहीदा जी और सुनील दत्त पर

Thursday, June 30, 2011

गोपाल दास 'नीरज' कुछ पसंदीदा मुक्तक

गोपाल दास नीरज की कविताओं और उनकी कुछ पसंदीदा ग़ज़लों को पहले भी पेश कर चुका हूँ। पर नीरज का काव्य संसार उनकी कविताओं और ग़ज़लों तक ही सीमित नहीं है। उर्दू रुबाइयों के अंदाज में उन्होंने जो चंद पंक्तियाँ लिखीं उन्होंने उसको 'मुक्तक' का नाम दिया। और क्या कमाल के मुक्तक लिखे हैं गोपाल दास नीरज जी ने..

प्रसिद्ध काव्य समीक्षक शेरजंग गर्ग नीरज के मुक्तकों की लोकप्रियता के बारे में लिखते हैं..

नीरज के मुक्तक बेहिसाब सराहे गए। इसका एक कारण नीरज की मिली जुली गंगा जमुनी भाषा थी। जिसे समझने के लिए शब्दकोष उलटने की जरूरत नहीं थी। इसमें हिंदी का संस्कार था तो उर्दू की ज़िंदादिली। इन दोनों खूबियों के साथ नीरज के अंदाजे बयाँ ने अपना हुनर दिखाया और उनके मुक्तक भी गीतिकाओं के समान यादगार और मर्मस्पर्शी बन गए।

आज नीरज के लिखे अपने पसंदीदा मुक्तकों से आपका परिचय कराता हूँ। आशा है ये आप को भी उतने ही पसंद आएँगे जितने मुझे आते हैं...


(1)
कफ़न बढ़ा तो किस लिए नज़र तू डबडबा गई?
सिंगार क्यों सहम गया बहार क्यों लजा गई?
न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ बस इतनी सिर्फ बात है ‌
किसी की आँख खुल गई, किसी को नींद आ गई।

(2)
खुशी जिसने खोजी वह धन ले के लौटा,
हँसी जिसने खोजी चमन ले के लौटा,
मगर प्यार को खोजने जो चला वह
न तन ले के लौटा, न मन ले के लौटा।

(3)
रात इधर ढलती तो दिन उधर निकलता है
कोई यहाँ रुकता तो कोई वहाँ चलता है
दीप औ पतंगे में फ़र्क सिर्फ इतना है
एक जलके बुझता है, एक बुझके जलता है

(4)
बन गए हुक्काम वे सब जोकि बेईमान थे,
हो गए लीडर की दुम जो कल तलक दरबान थे,
मेरे मालिक ! और भी तो सब हैं सुखी तेरे यहाँ,
सिर्फ़ वे ही हैं दुखी जो कुछ न बस इंसान थे।

(5)
छेड़ने पर मौन भी वाचाल हो जाता है, दोस्त !
टूटने पर आईना भी काल हो जाता है दोस्त
मत करो ज्यादा हवन तुम आदमी के खून का
जलके काला कोयला भी लाल हो जाता है दोस्त !

चलते चलते गोपाल दास नीरज द्वारा अपनी काव्य रचनाओं पर लिखी बात उद्धृत करना चाहूँगा
जब लिखने के लिए लिखा जाता है तब जो कुछ लिखा जाता है उसका नाम है गद्य। पर जब लिखे बिना न रहा जाए और जो खुद खुद लिख जाए तो उसका नाम है कविता। मेरे जीवन में कविता लिखी नहीं गई। खुद लिख लिख गई है, ऐसे ही जैसे पहाड़ों पर निर्झर और फूलों पर ओस की कहानी।
 

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस अव्यवसायिक चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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