(चित्र सौजन्य : विकीपीडिया)
मैंने कृष्णा सोबती जी को पहले नहीं पढ़ा था। इसलिए पुस्तक पुस्तकालय से लेने के पहले कहानी का सार जानने के लिए वहीं प्रस्तावना पढ़ डाली। उसमें सोबती जी की साहित्यिक कृतियों और हिंदी साहित्य में उनके योगदान की बाबत तो कई जानकारियाँ मिलीं पर उपन्यास की विषय वस्तु का जिक्र वहाँ ना होकर पुस्तक के पिछले आवरण पर था। उसे पढ़ कर मन थोड़ा भ्रमित भी हुआ और रोमांचित भी। वहाँ लिखा था
ज़िंदगीनामा जिसमें ना कोई नायक। न कोई खलनायक। सिर्फ लोग और लोग और लोग। जिंदादिल। जाँबाज। लोग जो हिंदुस्तान की ड्योढ़ी पंचनद पर जमे, सदियों गाजी मरदों के लश्करों से भिड़ते रहे। फिर भी फसलें उगाते रहे। जी लेने की सोंधी ललक पर जिंदगियाँ लुटाते रहे।और किताब पढ़ने के बाद पुस्तक का ये संक्षिप्त परिचय बिल्कुल सही मालूम होता है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से द्वितीय विश्व युद्ध के बीच के एकीकृत पंजाब के ग्रामीण जीवन को कृष्णा सोबती जी ने अपनी पुस्तक की कथावस्तु चुना है। पूरी पुस्तक में लेखिका ने उन किसानों के दर्द को बार बार उभारा है जो जमीन पर हर साल मेहनत मशक्कत कर फसलें तो उगाते हैं पर उसके मालिक वो नहीं है। सूद के कुचक्र में फँसकर उनकी ज़मीनें साहूकारों के हाथों में है। दरअसल पंजाब में विभाजन पूर्व तक जमीन पर हिंदू साहूकारों का कब्ज़ा रहा जबकि खेतों पर मेहनतकरने वाले अधिकांश किसान सिख या मुस्लिम थे। लेखिका ने इस सामाजिक संघर्ष के ताने बाने में उस वक़्त देश में घटती घटनाओं को भी अपने किरदारों के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखने की कोशिश की है। ऐसा उन्होंने क्यों किया है ये उनकी इस टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है। लेखिका का मानना है..
इतिहास वो नहीं जो हुक़ूमतों की तख्तगाहों में प्रमाणों और सबूतों के साथ ऍतिहासिक खातों में दर्ज कर सुरक्षित कर दिया जाता है, बल्कि वह है जो लोकमानस की भागीरथी के साथ साथ बहता है..पनपता और फैलता है और जनसामान्य के सांस्कृतिक पुख़्तापन में ज़िदा रहता है।इसीलिए उपन्यास में इस इलाके का इतिहास गाँव के साहूकार शाह जी की बैठकों से छन छन कर निकलता हुआ पाठकों तक पहुँचता रहता है। गाँव में हो रही घटनाओं की जानकारी इस मज़लिस के आलावा शाहनी की जमाई महफिलों से भी मिलती है। सोबती जी ने ग्रामीण जीवन के सभी रंगों को इस पुस्तक में जगह दी है। किसानों का असंतोष, ज़मीनी विवाद, सामाजिक जश्नों में जमकर खान पान, सास बहू के झगड़े, सौतनों के रगड़े, मदरसों की तालीम, मुज़रेवालियों के ज़लवे, चोर डकैतों की कारगुजारियाँ सब तो है इस कथाचक्र में। पर ये कथाचक्र कहीं रुकता नहीं और ना ही सामान्य तरीके से आगे बढ़ता है। दरअसल कई बार किसी घटना का विवरण देने या उल्लेख करने के बाद उपन्यास में आगे लेखिका उसका जिक्र ना कर सब कुछ पाठकों के मन पर छोड़ देती हैं। वैसे भी लेखिका का उद्देश्य किसी एक किरदार की ज़िंदगी में उतरने का ना हो के आम जन के जीवन को झाँकते हुए आगे चलते रहने का है। पर इसका नतीजा ये होता है कि कथा टूटी और बिखरी बिखरी लगती है। उपन्यास के समापन में भी सोबती कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़तीं और वो भी अनायास हो गया लगता है।
पर उपन्यास में कुछ तत्व ऐसे हैं जो कथानक में रह रह कर जान फूँकते हैं। पंजाब का सूफ़ी व लोक संगीत पुस्तक के पन्नों में रह रह कर बहता है। कहीं बुल्लेशाह,कहीं हीर तो कहीं सोहणी महीवाल के गीत आपको पंजाब की समृद्ध सांगीतिक विरासत से परिचय कराते ही रहते हैं। मुझे इस पुस्तक सा सबसे अच्छा पहलू ये लगा कि पुस्तक लोकगीतों , कवित्त और पंजाबी लोकोक्तियों और तुकबंदियों का अद्भुत खज़ाना है। कुछ मिसाल देना चाहूँगा
नौजवानों ने पनघट पर सजीली युवतियों की अल्हड़ता देखी तो हीर के स्वर उठ गए
"तेरा हुस्न गुलज़ार बहार बनवा
अज हार सब भाँवदा दी
अज ध्यान तेरा आसमान ऊपर
तुझे आदमी नज़र न आँवदा री.."
प्रेम पर सूफ़ियत का रंग चढ़ा तो बुल्लेशाह दिल से होठों पर आ गए
"मैं सूरज अगन जलाऊँगी
मैं प्यारा यार मनाऊँगी
सात समुन्दर दिल के अंदर
मैं दिल से लहर उठाऊँगी..."
मौलवी मदरसे में पढ़ाते है तो देखिए उसकी भी एक लय बन जाती है...
पक्षियों में सैयद : कबूतर
पेड़ों में सरदार : सीरस
पहला हल जोतना : न सोमवार ना शनिवार
गाय भैंस बेचनी : न शनीचर ना इतवार
दूध की पहली पाँच धारें : धरती को
नूरपुर शहान का मेला : बैसाख की तीसरी जुम्मेरात को
और बच्चों की शैतानियाँ वो भी तुकबंदी में
लायक से बढ़िया फायक
अगड़म से बढ़िया बगड़म
हाज़ी से बड़ी हज़्जन
मूत्र से बड़ा हग्गन
या फिर
शमाल में कोह हिमाला
जुनूब में तेरा लाला
मशरिक में मुल्क ब्रह्मा
मग़रिब में तेरी अम्मा :)
कृष्णा सोबती द्वारा लोकभाषा और बोलियों का धाराप्रवाह इस्तेमाल इस उपन्यास का सशक्त और कमजोर पहलू दोनों है। कमजोर इसलिए कि जिन पंजाबी ठेठ शब्दों या पंजाबी लोकगीतों का इस्तेमाल पुस्तक में किया गया है उनका अर्थ गैर पंजाबी पाठकों तक पहुँचाने की आवश्यकता लेखिका या प्रकाशक ने नहीं समझी है। इन बोलियों का प्रयोग उपन्यास को वास्तविकता के धरातल पर तो खड़ा करता है पर साथ ही कथ्य गैर पंजाबी पाठकों को किरदारों की भावनाओं और मस्तमौला पंजाबी संस्कृति के बहते रस का पूर्ण माधुर्य लेने से वंचित रखता है।
करीब ४०० पृष्ठों का ये उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुका है। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास की कीमत डेढ़ सौ रुपये है। इंटरनेट पर इस पुस्तक को आप यहाँ से खरीद सकते हैं।
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