Showing newest posts with label पुस्तक चर्चा. Show older posts
Showing newest posts with label पुस्तक चर्चा. Show older posts

Monday, September 06, 2010

अविभाजित पंजाब की ग्रामीण संस्कृति का दर्पण : ज़िंदगीनामा / कृष्णा सोबती

आंचलिक भाषा में लिखे उपन्यासों की अपनी एक अलग ही मिठास होती है। ऐसे उपन्यासों को पढ़कर आप उन अंचलों की तहज़ीब, रिवायतों से अपने आप को करीब पाते हैं। आंचलिक उपन्यासों का ध्यान आते ही मन में फणीश्वरनाथ रेणू की कृतियाँ याद आती हैं जो हमें बिहार के उत्तर पूर्वी जिले पूर्णिया के ग्रामीण जीवन के पास ले जाती थी। कुछ साल पहले कुमाँउनी भाषा और संस्कृति को करीब से जानने समझने का मौका मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास 'कसप' को पढ़ने के बाद मिला था। इसलिए पिछले हफ़्ते जब कृष्णा सोबती का उपन्यास ज़िंदगीनामा हाथ लगा तो उसके कुछ पन्ने पलटकर ये लगा कि इस उपन्यास के माध्यम से पूर्व और पश्चिमी पंजाब के ग्रामीण परिवेश से रूबरू होने का मौका मिलेगा। पर क्या सचमुच ऐसा हो सका? हुआ पर कुछ हद तक ही...
(चित्र सौजन्य : विकीपीडिया)
मैंने कृष्णा सोबती जी को पहले नहीं पढ़ा था। इसलिए पुस्तक पुस्तकालय से लेने के पहले कहानी का सार जानने के लिए वहीं प्रस्तावना पढ़ डाली। उसमें सोबती जी की साहित्यिक कृतियों और हिंदी साहित्य में उनके योगदान की बाबत तो कई जानकारियाँ मिलीं पर उपन्यास की विषय वस्तु का जिक्र वहाँ ना होकर पुस्तक के पिछले आवरण पर था। उसे पढ़ कर मन थोड़ा भ्रमित भी हुआ और रोमांचित भी। वहाँ लिखा था

ज़िंदगीनामा जिसमें ना कोई नायक। न कोई खलनायक। सिर्फ लोग और लोग और लोग। जिंदादिल। जाँबाज। लोग जो हिंदुस्तान की ड्योढ़ी पंचनद पर जमे, सदियों गाजी मरदों के लश्करों से भिड़ते रहे। फिर भी फसलें उगाते रहे। जी लेने की सोंधी ललक पर जिंदगियाँ लुटाते रहे।
और किताब पढ़ने के बाद पुस्तक का ये संक्षिप्त परिचय बिल्कुल सही मालूम होता है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से द्वितीय विश्व युद्ध के बीच के एकीकृत पंजाब के ग्रामीण जीवन को कृष्णा सोबती जी ने अपनी पुस्तक की कथावस्तु चुना है। पूरी पुस्तक में लेखिका ने उन किसानों के दर्द को बार बार उभारा है जो जमीन पर हर साल मेहनत मशक्कत कर फसलें तो उगाते हैं पर उसके मालिक वो नहीं है। सूद के कुचक्र में फँसकर उनकी ज़मीनें साहूकारों के हाथों में है। दरअसल पंजाब में विभाजन पूर्व तक जमीन पर हिंदू साहूकारों का कब्ज़ा रहा जबकि खेतों पर मेहनतकरने वाले अधिकांश किसान सिख या मुस्लिम थे। लेखिका ने इस सामाजिक संघर्ष के ताने बाने में उस वक़्त देश में घटती घटनाओं को भी अपने किरदारों के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखने की कोशिश की है। ऐसा उन्होंने क्यों किया है ये उनकी इस टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है। लेखिका का मानना है..

इतिहास वो नहीं जो हुक़ूमतों की तख्तगाहों में प्रमाणों और सबूतों के साथ ऍतिहासिक खातों में दर्ज कर सुरक्षित कर दिया जाता है, बल्कि वह है जो लोकमानस की भागीरथी के साथ साथ बहता है..पनपता और फैलता है और जनसामान्य के सांस्कृतिक पुख़्तापन में ज़िदा रहता है।
इसीलिए उपन्यास में इस इलाके का इतिहास गाँव के साहूकार शाह जी की बैठकों से छन छन कर निकलता हुआ पाठकों तक पहुँचता रहता है। गाँव में हो रही घटनाओं की जानकारी इस मज़लिस के आलावा शाहनी की जमाई महफिलों से भी मिलती है। सोबती जी ने ग्रामीण जीवन के सभी रंगों को इस पुस्तक में जगह दी है। किसानों का असंतोष, ज़मीनी विवाद, सामाजिक जश्नों में जमकर खान पान, सास बहू के झगड़े, सौतनों के रगड़े, मदरसों की तालीम, मुज़रेवालियों के ज़लवे, चोर डकैतों की कारगुजारियाँ सब तो है इस कथाचक्र में। पर ये कथाचक्र कहीं रुकता नहीं और ना ही सामान्य तरीके से आगे बढ़ता है। दरअसल कई बार किसी घटना का विवरण देने या उल्लेख करने के बाद उपन्यास में आगे लेखिका उसका जिक्र ना कर सब कुछ पाठकों के मन पर छोड़ देती हैं। वैसे भी लेखिका का उद्देश्य किसी एक किरदार की ज़िंदगी में उतरने का ना हो के आम जन के जीवन को झाँकते हुए आगे चलते रहने का है। पर इसका नतीजा ये होता है कि कथा टूटी और बिखरी बिखरी लगती है। उपन्यास के समापन में भी सोबती कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़तीं और वो भी अनायास हो गया लगता है।

पर उपन्यास में कुछ तत्व ऐसे हैं जो कथानक में रह रह कर जान फूँकते हैं। पंजाब का सूफ़ी व लोक संगीत पुस्तक के पन्नों में रह रह कर बहता है। कहीं बुल्लेशाह,कहीं हीर तो कहीं सोहणी महीवाल के गीत आपको पंजाब की समृद्ध सांगीतिक विरासत से परिचय कराते ही रहते हैं। मुझे इस पुस्तक सा सबसे अच्छा पहलू ये लगा कि पुस्तक लोकगीतों , कवित्त और पंजाबी लोकोक्तियों और तुकबंदियों का अद्भुत खज़ाना है। कुछ मिसाल देना चाहूँगा

नौजवानों ने पनघट पर सजीली युवतियों की अल्हड़ता देखी तो हीर के स्वर उठ गए
"तेरा हुस्न गुलज़ार बहार बनवा
अज हार सब भाँवदा दी
अज ध्यान तेरा आसमान ऊपर
तुझे आदमी नज़र न आँवदा री.."

प्रेम पर सूफ़ियत का रंग चढ़ा तो बुल्लेशाह दिल से होठों पर आ गए
"मैं सूरज अगन जलाऊँगी
मैं प्यारा यार मनाऊँगी
सात समुन्दर दिल के अंदर
मैं दिल से लहर उठाऊँगी..."

मौलवी मदरसे में पढ़ाते है तो देखिए उसकी भी एक लय बन जाती है...
पक्षियों में सैयद : कबूतर
पेड़ों में सरदार : सीरस
पहला हल जोतना : न सोमवार ना शनिवार
गाय भैंस बेचनी : न शनीचर ना इतवार
दूध की पहली पाँच धारें : धरती को
नूरपुर शहान का मेला : बैसाख की तीसरी जुम्मेरात को

और बच्चों की शैतानियाँ वो भी तुकबंदी में
लायक से बढ़िया फायक
अगड़म से बढ़िया बगड़म
हाज़ी से बड़ी हज़्जन
मूत्र से बड़ा हग्गन

या फिर
शमाल में कोह हिमाला
जुनूब में तेरा लाला
मशरिक में मुल्क ब्रह्मा
मग़रिब में तेरी अम्मा :)

कृष्णा सोबती द्वारा लोकभाषा और बोलियों का धाराप्रवाह इस्तेमाल इस उपन्यास का सशक्त और कमजोर पहलू दोनों है। कमजोर इसलिए कि जिन पंजाबी ठेठ शब्दों या पंजाबी लोकगीतों का इस्तेमाल पुस्तक में किया गया है उनका अर्थ गैर पंजाबी पाठकों तक पहुँचाने की आवश्यकता लेखिका या प्रकाशक ने नहीं समझी है। इन बोलियों का प्रयोग उपन्यास को वास्तविकता के धरातल पर तो खड़ा करता है पर साथ ही कथ्य गैर पंजाबी पाठकों को किरदारों की भावनाओं और मस्तमौला पंजाबी संस्कृति के बहते रस का पूर्ण माधुर्य लेने से वंचित रखता है।

करीब ४०० पृष्ठों का ये उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुका है। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास की कीमत डेढ़ सौ रुपये है। इंटरनेट पर इस पुस्तक को आप यहाँ से खरीद सकते हैं

इस चिट्ठे पर अन्य पुस्तकों पर की गई चर्चा आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

Monday, June 07, 2010

साली से जब पूछनीं, काहो दूल्हा कतहूँ सेट भइल, कहली उ मुस्कात, खोजाइल बाटे इंटरनेट पर !

मनोज भावुक की लिखी किताब 'तस्वीर जिंदगी के' के बारे में पिछली पोस्ट में मैंने आपको बताया था कि इस किताब की अधिकांश ग़ज़लों में उनके आस पास का समाज झलकता है। ज़ाहिर है कोई भी ग़ज़लकार अपनी जिंदगी से जो अनुभव समेटता है वही अपनी ग़ज़लों में उड़ेलता है।

खुद मनोज अपने एक शेर में कहते हैं..

दुख दरद या हँसी या खुशी, जे भी दुनिया से हमरा मिलल
ऊहे दुनिया के सँउपत हईं, आज देके ग़ज़ल के सकल

सामाजिक समस्याओं पर उनके अशआरों की चर्चा तो मैं पहले कर ही चुका हूँ पर गरीबों की हालत पर अपने इस संकलन में एक पूरी गज़ल लिखी है। दीन दुखियों के दर्द को अपनी इस छोटी बहर की ग़ज़ल में वो कुछ यूँ व्यक्त करते हैं..

डँसे उम्र भर, डेग डेग पर
बन के करइत साँप गरीबी

हीत मीत के दर्शन दुर्लभ
जब से लेलस छाप गरीबी

जन्म कर्ज में मृत्यु कर्ज में
अइसन चँपलस चाँप गरीबी

हम सभी अपनी जिंदगी में कभी हताशा के दौर से गुजरते हैं तो कभी दिन हँसते खेलते निकल जाते हैं। मनोज की शायरी में ये दोनो मनःस्थितियाँ उजागर हुई हैं। कभी जिंदगी को वो बोझ की तरह वो खींचता सा अनुभव करते हैं

कुछुओ कहाँ बा आपन, झूठो के बा भरम
साँसो उधार जइसन लागे कबो कबो,

डोली ई देह लागे, दुल्हिन ई आत्मा
जिनगी कहार जइसन लागे कबो कबो

तो कभी उसे वो प्रेम के रंग से सराबोर पाते हैं..

अब त हर वक़्त संग तहरे बा
दिल के क़ागज, पर रंग तहरे बा

तोहसे अलगा बला दहब कैसे
धार तहरे, पतंग तहरे बा

पर ये जरूर गौर करने की बात है कि जिंदगी की जो तस्वीर मनोज ने अपनी इस पुस्तक में दिखाई है उसमें प्यार का रंग बाकी रंगों की तुलना में फीका है। हाँ, ये जरूर है कि मनोज की ग़ज़लें सिर्फ सामाजिक असमानता का आईना भर नहीं हैं पर साथ ही साथ वो उनसे लड़ने का हौसला भी दिलाती हैं। मिसाल के तौर पर उनके लिखे इन अशआरों पर गौर कीजिए.. क्या जोश जगाती हैं इक आम जन के मन में !

होखे अगर जो हिम्मत कुछुओ पहार नइखे
मन में ज ठान लीं कहँवाँ बहार नइखे

कुछ लोग नीक बाटे तबहीं तिकल बा धरती
कइसे कहीं की केहू पर ऐतबार नैखे

या फिर हमें जीवन में जुझारू होने का का संदेश देती इन पंक्तियों को देखें..

हर कदम जीये मरे के बा इहाँ
साँस जबले बा लड़े के बा इहाँ

जिंदगी तूफान में एगो दिया
टिमटिमाते हीं जरे के बा इहाँ

उहे आग सबका जिगर में बा, पर राह बा सबका जुदा
केहू कर रहल बा धुआँ धुआँ, केहू दे रहल बा रोशनी

तो कहीं वो संवाद के रास्ते आपसी संशय को मिटाने की बात कहते हैं..
भेद मन के मन में राखब कब ले अँइसे जाँत के
आज खुल के बात कुछ रउरो कहीं कुछ हमहूँ कहीं

घर बसल अलगे अलग, बाकिर का ना ई हो सके
रउरा दिल में हम रहीं और हमरा में रउरा रहीं

मनोज की लेखनी आज की जीवन शैली और खासकर इंटरनेट पर हमारी बढ़ती निर्भरता पर बड़ी खूबसरती से चली है। उर्दू की मज़ाहिया शायरी के अंदाज में उन्होंने 'इंटरनेट' पर जो भोजपुरी ग़ज़ल कही है उसके कुछ शेर तो वाकई कमाल के हैं। कुछ अशआरों की बानगी देखिए..

कइसन कइसन काम नधाइल बाटे इंटरनेट पर
माउस धइले लोग धधाइल बाटे इंटरनेट पर

बेदेखल बेजानल चेहरा से भी प्यार मोहब्बत अब
अजबे गजबे मंत्र मराइल बाटे इंटरनेट पर

जहाँ ऊपर का शेर सोशल नेटवर्किंग के प्रति हमारे बढ़ते खिंचाव को दिखाता है तो वहीं ये शेर इंटरनेट की सामाजिक स्वीकृति को मज़े मज़े में पूरी कामयाबी से उभारता है

साली से जब पूछनीं, काहो दूल्हा कतहूँ सेट भइल
कहली उ मुस्कात, खोजाइल बाटे इंटरनेट पर

इस ग़ज़ल के अपने सभी पसंदीदा अशआरों को बोल कर पढ़ने का आनंद ही कुछ और है। तो लीजिए सुनिए इसे पढ़ने का मेरा ये प्रयास..



अस्सी पृष्ठों के इस ग़ज़ल संग्रह में मनोज भावुक की 72 ग़जलें हैं। और जैसा कि मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा कि अगर आप एक ग़ज़ल प्रेमी हैं और भोजपुरी भाषा की जानकारी रखते है तो मात्र 75 रुपये की ये पुस्तक आपके लिए है। इसे हिंद युग्म ने उत्कृष्ट छपाई के साथ बाजार में उतारा है। इस पुस्तक को खरीदने के लिए आप sampadak@hindyugm.com पर ई मेल कर सकते हैं या मोबाइल पर +91 9873734046 और +91 9968755908 पर संपर्क कर सकते हैं।

और हाँ आपको ये पुस्तक चर्चा कैसी लगी ये जरूर बताइएगा।

Tuesday, June 01, 2010

मनोज भावुक का पठनीय भोजपुरी ग़ज़ल संग्रह 'तस्वीर जिंदगी के' : आदमी के स्वप्न के खेल कुछ अजीब बा,जी गइल त जिंदगी, मर गइल तो ख्वाब हऽ

भोजपुरी में ग़ज़लों की किताब, सुनने में कुछ अज़ीब लगता है ना ? मुझे भी लगा था जब दो महिने पहले हिन्द युग्म के संचालक शैलेश भारतवासी ने दिल्ली में मुलाकात के दौरान इस पुस्तक हाथ में पकड़ाते हुए कहा था कि इसे पढ़िएगा जरूर आपको पसंद आएगी। वेसे तो शैलेश ने कविताओं की कई और किताबें पढ़ने को दी थीं पर जहाँ बाकी पुस्तकों के कुछ पन्नों तक जाकर ही पढ़ने का उत्साह जाता रहा, वहीं मनोज भावुक द्वारा लिखा ये भोजपुरी संग्रह 'तस्वीर जिंदगी के' ऐसा मन में रमा कि इसकी कई ग़ज़लों को बार बार पढ़ना मन को बेहद सुकून दे गया।

34 वर्षीय मनोज भावुक भोजपुरी साहित्य जगत में एक चिरपरिचित नाम हैं। सीवान, बिहार में जन्मे और रेणुकूट में पले बढ़े मनोज, भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रचार प्रसार में हमेशा से सक्रिय रहे हैं। एक आंचलिक भाषा में ग़ज़ल कहना अपने आप में एक गंभीर चुनौती है और मुझे ये कहने में कोई संदेह नहीं कि मनोज अपने इस प्रयास में पूर्णतः सफल रहे हैं। शायद यही वज़ह है कि मनोज को इस पुस्तक के लिए वर्ष 2006 का भारतीय भाषा परिषद सम्मान दिया गया और वो भी गिरिजा देवी व गुलज़ार साहब की उपस्थिति में। किसी भी नवोदित गज़लकार के लिए ये परम सौभाग्य की बात हो सकती है।


मनोज की ग़ज़लों में जहाँ भावनाओं की गहराई है वही भोजपुरी के ठेठ शब्दों के प्रयोग से उपजा माधुर्य भी है। मनोज अपनी ग़ज़लों में हमारे आंतरिक मनोभावों, हमारी अच्छी व बुरी वृतियों को बड़ी सहजता से व्यक्त करते दीखते हैं। मिसाल के तौर पर उनके इन अशआरों को देखिए

अगर जो प्यार से मिल जा त माँड़ो भात खा लीले
मगर जो भाव ना होखे, मिठाई तींत लागेला

दुख में ढूँढ लऽ न राह भावुक सुख के जीये के
दरद जब राग बन जा ला त जिनगी गीत लागेला

जमीर चीख के सौ बार रोके टोके ला
तबो त मन ई बेहाया गुनाह कर जाला

बहुत बा लोग जे मरलो के बाद जीयत बा
बहुत बा लोग जे जियते में यार, मर जाला

अपने इस ग़ज़ल संग्रह में मनोज ने भारतीय गाँवों की पुरानी पहचान खत्म होने पर कई जगह अपने दिल के मलाल को शब्द दिए हैं

कहहीं के बाटे देश ई गाँवन के हऽ मगर
खोजलो प गाँव ना मिली अब कवनो भाव में

लोर पोंछत बा केहू कहाँ
गाँव अपनो शहर हो गइल

बदलाव के उठत बा अइसन ना तेज आन्ही
कहवाँ ई गोड़ जाता कुछुओ बुझात नइखे

पर पूरी पुस्तक में मनोज अपनी ग़ज़लों में सबसे ज्यादा हमारी ग्रामीण व कस्बाई जिंदगी की समस्याओं की बात करते हैं। भूख, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सामाजिक व आर्थिक विषमता इन सारी समस्याओं को उनकी लेखनी बार बार हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। मिसाल के तौर पर इन अशआरों में उनकी लेखनी का कमाल देखिए

पानी के बाहर मौत बा, पानी के भीतर जाल बा
लाचार मछली का करो जब हर कदम पर काल बा

संवेदना के लाश प कुर्सी के गोड़ बा
मालूम ना, ई लोग का कइसे सहात बा

एह कदर आज बेरोजगारी भइल
आदमी आदमी के सवारी भइल

आम जनता बगइचा के चिरई नियन
जहँवाँ रखवार हीं बा शिकारी भइल

ना रहित झाँझर मड़इया फूस के
घर में आइत कैसे घाम पूस के

आज उ लँगड़ो दारोगा हो गईल
देख लीं सरकार जादू घूस के

रोशनी आज ले भी ना पहुँचल जहाँ
केहू उहँवो त दियरी जरावे कबो

सब बनलके के किस्मत बनावे इहाँ
केहू बिगरल के किस्मत बनावे कबो

यूँ तो इस पूरी किताब के ऐसे कई शेर मन में गहरी छाप छोड़ते हैं पर एक ग़ज़ल जो मुझे इस पूरी पुस्तक में सबसे ज्यादा रोमंचित कर गई, को आपको सुनाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।


वैसे गर सुन ना भी पाएँ तो इन अशआरों पर जरूर गौर फरमाएँ

देह बा मकान में ,दृष्टि बा बागान में
होश में रहे कहाँ, मन तो इ नवाब हऽ

आदमी के स्वप्न के खेल कुछ अजीब बा
जी गइल त जिंदगी, मर गइल तो ख्वाब हऽ

हीन मत बनल करऽ दीन मत बनल करऽ
आदमी के जन्म तऽ खुद एगो खिताब हऽ

वाह वाह क्या बात कही है मनोज ने!

अगर आप एक ग़ज़ल प्रेमी हैं और भोजपुरी भाषा की जानकारी रखते है तो मात्र 75 रुपये की पुस्तक आपके लिए है। इसे हिंद युग्म ने उत्कृष्ट छपाई के साथ बाजार में उतारा है। इस पुस्तक को खरीदने के लिए आप sampadak@hindyugm.com पर ई मेल कर सकते हैं या मोबाइल पर +91 9873734046 और +91 9968755908 पर संपर्क कर सकते हैं।

और अगर आप अब भी आश्वस्त ना हो पाएँ हो इस किताब को खरीदने के बारे में तो इंतज़ार कीजिए इस पुस्तक यात्रा की दूसरी किश्त का जहाँ मनोज भावुक की शायरी के कुछ अन्य रंगों से रूबरू होने का आपको मौका मिलेगा..

Wednesday, October 14, 2009

'शादीशुदा मगर उपलब्ध' ....यानि 'Married But Available' !

शीर्षक पढ़ कर कहीं आपको ऍसा तो नहीं लगा कि आप खुद ही इस श्रेणी में आते हैं। वैसे कहीं आपको इस शीर्षक ने भ्रमित कर दिया हो तो बता दूँ कि ये अंग्रेजी की एक किताब का नाम है जिसे अभिजीत भदुरी (Abhijit Bhaduri) ने लिखा है। जबसे चेतन भगत की 'Five Point Someone' हिट हो गई है तब से एक नया ट्रेंड चल पड़ा है अपनी कॉलेज लॉइफ को पुस्तक के माध्यम से परोसने का।


किसी भी रेलवे प्लेटफार्म पर आपको इस तरह कि किताबें धड़्ल्ले से बिकती मिलेंगी। शीर्षक भी एक से एक मसालेदार ! मिसाल के तौर पर 'Offcourse I love you till I found someone better' या फिर 'Anything for You Maam' या ऐसा ही बहुत कुछ। ज्यादातर किताबों के आगे बेस्ट सेलर का टैग भी झाँकता मिलेगा। सफ़र में जब और कुछ करने को नहीं हो तो सौ से दो सौ रुपये तक मूल्य वाली ये किताबें समय का सदुपयोग ही लगती हैं।

किशोरों और युवाओं को ऍसी किताबें खासी आकर्षित कर रही हैं और उसके पीछे कई कारण हैं। पहली तो ये कि नए नवेले लेखक अपनी कहानी कहने के लिए ज्यादा कठिन भाषा या क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते। कथानक में घटनाएँ तेजी से घटित होती रहती हैं और बीच बीच में आते घुमाव और तड़के में आपका समय सहजता से बीत जाता है। दूसरी ये कि कहीं ना कहीं इन किताबों में आपको वो बात नज़र आ जाती है जो आपने अपने कॉलेज के दिनों में खुद अनुभव की हो। Five Point Someone की सफलता का यही राज था।

अभिजीत भदुरी की पहली किताब Mediocre But Arrogant भी इसी श्रेणी की पुस्तक थी और काफी चर्चित भी हुई। फर्क सिर्फ इतना था कि किताब का परिदृश्य IIT Delhi की बजाए देश के नामी प्रबंधन संस्थान XLRI Jamshedpur का था।


वैसे तो भदुरी साहब ने अपनी स्नात्क की पढ़ाई दिल्ली के श्री राम कॉलेज आफ कामर्स से की पर मानव संसाधन में पीजी की डिग्री XLRI Jamshedpur से ली। अपनी पहली किताब में भदुरी ने XLRI Jamshedpur में दो साल की पढ़ाई से मूख्य पात्र अभय की जिंदगी और रिश्तों के स्वरूप में आए परिवर्तन को पुस्तक केंद्र बिंदु बनाया। उनकी दूसरी किताब पहली किताब की कहानी को आगे बढ़ाती है। यानि एक sequel के तौर पर इस बार उन्होंने कॉलेज की जिंदगी से निकल कर एक MBA के नौकरी के प्रथम दस सालों को अपनी पुस्तक की कथा वस्तु बनाया है।
हार्पर कालिंस द्वारा प्रकाशित, २८० पृष्ठों की ये किताब अभय (written as Abbey) की नौकरी, परिवार, प्रेमिका और पत्नी के बीच घूमती रहती है। पर इस उपन्यास की कहानी का शीर्षक से कोई लेना देना नहीं है। यानि ये किताब वैसे लोगों के बारे में हरगिज़ नहीं है जो शादी के बाद भी नए रिश्तों की तलाश में भटकते रहते हैं। पुस्तक की भूमिका में इसके नाम लिए हल्के फुल्के लहज़े में एक तर्क भी ढूँढा गया है। Mediocre But Arrogant (MBA) इसीलिए Married But Available (MBA)। पर सिर्फ MBA acronym को बरक़रार रखने के लिए ऍसे नामाकरण की बात गले नहीं उतरती। ये लेखक और प्रकाशक का पाठकों को आकर्षित करने का स्टंट भर है।

उपन्यास की बात करें तो अभिजीत ने अभय की कहानी ईमानदारी से कही है।
ये बात इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्यूँकि इस तरह की किताबों में मुख्य किरदार के चरित्र को बहुत कुछ पाठकों द्वारा लेखक की निजी जिंदगी से से जोड़ कर देखा जाता है। उपन्यास के प्रमुख पुरुष और स्त्री किरदारों में अहम की लड़ाई में किसी का पक्ष लेने से बचने में लेखक सफल रहे हैं। तेजी से ऊपर बढ़ने की चाह किस तरह रिश्तों के बीच के नेतिक मूल्यों को गर्त में ढकेल देती है इसे भदुरी सही तरीके से उभार पाए हैं। मानव संसाधन प्रबंधक के तौर पर कार्य करने में किस तरह की कार्यकुशलता चाहिए इस का भी अंदाज इस किताब को पढ़ने से लगता है।

पर कुल मिलाकर उनकी ये किताब बहुत कुछ उनकी पहली किताब के शीर्षक से मिलती जुलती नज़र आती है यानि Mediocre। इसलिए अगर आपका मानव संसाधन यानि Human Resources से दूर का भी नाता ना हो तो इस किताब से आप सहज दूरी बनाए रख सकते हैं।

आशा करता हूँ कि आप सबके लिए दीपावली का पर्व अपने परिवार के साथ सोल्लास बीतेगा और आप इस दौरान और आगे भी 'Married But Unavailable' रहेंगे। :)

Monday, September 14, 2009

दौरान ए तफ़तीश भाग 3 : बॉस की वहशत, चलते रहो प्यारे और भारत माता के तीन कपूत!

भारतीय पुलिस के आला अधिकारी रह चुके सतीश चंद्र पांडे की किताब दौरान ए तफ़तीश की चर्चा की इस आखिरी कड़ी में कुछ बातें पंजाब पुलिस और सीआरपीएफ से जुड़े लेखक के अनुभवों की। पर इससे पहले गंभीर मसलों पर लेखक के उठाए बिंदुओं का उल्लेख किया जाए, एक ऍसे चरित्र की बात करना चाहूँगा जिससे हर नौकरीपेशा व्यक्ति आक्रान्त रहता है। जी बिल्कुल सही समझा आपने वो शख़्स है हमारी कार्यालयी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बनने वाले हमारे बॉस।


ज़ाहिर है लेखक ने अपनी सर्विस लाइफ में तरह तरह के वरीय सहकर्मियों को झेला। इनमें से कई उनके प्रेरणा स्रोत बने तो कई ऐसे, जिनकी उपहासजनक वृतियों को लेखक कभी भुला नहीं पाए। ऍसे कई किस्से आपको पूरी पुस्तक में मिलेंगे, पर सबसे मज़ेदार संस्मरण मुझे एक ऍसे कमिश्नर साहब का लगा जिनकी सख़्त ताक़ीद रहती थी कि जब भी वो किसी जिले के मुआयने में जाएँ तो कलक्टर, एस पी और ज़िला जज के आवास पर उनकी दावत निश्चित करने से पहले उनसे पूछने की जरूरत ना समझी जाए। कमिश्नर साहब के साथ दिक्कत ये थी कि वो ज़िले के साथ अपने मेज़बान के घर का मुआयना भी बड़ी तबियत से किया करते थे। तो इस मुआयने की एक झांकी पांडे जी की कलम से

'अच्छा तो ये आपका लॉन है?' 'ये आपका बेडरूम है?'

ज़ाहिर है कि इन प्रश्नों का उत्तर जी हाँ जी के आलावा और कुछ हो ही नहीं सकता। लेकिन उनकी इस तरह की भूमिका का शिखर बिंदु तब आया जब उन्होंने अपने पर गृह भ्रमण के दौरान कलेक्टर की पत्नी को भीतर आँगन में बैठे देखा (उनका वहाँ जाना कलक्टर अपनी तमाम कोशिशों के बावज़ूद रोक नहीं पाए थे) और अपना सर्वाधिक मार्मिक प्रश्न पूछा 'अच्छा तो ये आपकी वाइफ हैं?'कलक्टर ने किसी तरह अपने को जी नहीं, ये आपकी अम्मा हैं कहने से रोक कर 'जी हाँ, ये मेरी वाइफ़ हैं। आप इनसे मिल चुके हैं।'कहकर टालने की कोशिश की। लेकिन हमारे बॉस की ज्ञान पिपासा तो अदम्य थी और उनका अगला प्रश्न था 'अच्छा वे अपने बाल सुखा रही हैं?' बात सही थी। कलेक्टर की पत्नी नहाने के बाद धूप में बैठी अपने बाल सुखा रही थीं और अपने आँगन में उस स्थिति में कमिश्नर साहब का स्वागत करने में उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली।


पांडे जी को अपने दीर्घसेवा काल में यूपी पुलिस के आलावा बीएसएफ, विशेष सेवा, पंजाब पुलिस और सीआरपीएफ के साथ काम करने का अवसर मिला। पंजाब में लेखक का दायित्व आतंकवाद के साये में विधानसभा चुनाव को शांतिपूर्ण ढंग से संपादित कराने का था। पंजाब पुलिस के बारे में लेखक को वहाँ जाकर जो सुनने को मिला,उससे उन्हें अपने कार्य की दुरुहता का आभास हुआ। फिर भी उन्होंने दुत्कारने और सुधारने की बजाए अपनी फोर्स पर आस्था और प्रशिक्षण को अपनी कार्यशैली का मुख्य बिंदु बनाया और अपने प्रयास में सफल भी हुए।

डीजी, सीआरपीएफ के पद पर आसीन होते ही उन्होंने सीआरपीएफ (CERPF) यानि सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स की दुखती रग को समझ लिया। दरअसल फोर्स के अंदर सीआरपी का मतलब 'चलते रहो प्यारे' है। चरैवेति चरैवेति के सिद्धांत से पांडे जी को उज्र नहीं है। पर उनका मानना है कि बिना किसी स्पष्ट प्रयोजन के एक सीमा से ज्यादा इस तरह एक स्थान से दूसरे स्थान का भ्रमण स्वास्थ और ताज़गी के बजाए थकावट और क्लांति देने लगता है और सीआरपी के चलते रहने में ऍसा ही कुछ हुआ है। सीआरपी आज देश के आतंकियों, दंगाइयों और नक्सलियों से विषम परिस्थितियों में लड़ने भिड़ने में जुटी है। ऐसे हालातों में पांडे जी की ये सोच हमारे गृह मंत्रालय के नीति निर्माताओं के लिए बेहद माएने रखती है

जिस तरह फोर्स की कंपनियों को साल दर साल, दिन रात इधर से उधर भेजा जा रहा है उससे जवानों की थकावट और अन्य असुविधाओं के आलावा, उनकी ट्रेनिंग बिल्कुल चौपट हो चुकी है। इससे उनकी अपने हथियारों के प्रयोग की दक्षता पर ही नहीं, उनके अनुशासन और मनोबल पर भी बहुत बुरा असर पड़ रहा है। इस फ़ोर्स का मूल 'सेंट्रल रिजर्व' वाला स्वरूप लगभग समाप्त हो चुका है और यह एक कुशल कारगर सुप्रशिक्षित फोर्स के बजाए एक अकुशल, अर्धप्रशिक्षित 'भीड़' सा बनता जा रहा है।

पांडे जी को अपने कार्यकाल में इन प्रयासों के बावज़ूद कुछ खास सफलता मिली हो ऍसा नहीं लगता। क्यूँकि लेखक की सेवानिवृति के दो दशक बाद आज भी कश्मीर से लेकर काँधमाल और छत्तिसगढ़ से झारखंड तक में, सीआरपी अपनी इन समस्याओं से जूझती लग रही है।

पुस्तक के अंत में लेखक आज की स्थिति की जिम्मेवारी भारत माता के तीन कपूतों को देते हैं। कपूतों की सूची में पहला नाम राजनीतिज्ञों का है। पांडे जी का मानना है कि भ्रष्ट और नकारे शासन का मुख्य निर्माता यही वर्ग है। उनकी सूची में दूसरे नंबर पर आते हैं नौकरशाह जिनमें पुलिस भी शामिल है। लेखक का तर्क है कि राजनीतिक दबाव में ना आकर सही कार्य करने के बजाए इस वर्ग के अधिकांश सदस्य राजनीतिज्ञों के साथ की बंदरबाँट में बराबर के सहभागी हैं। कपूत नंबर तीन के बारे में लेखक की टिप्पणी सबसे दिलचस्प है। लेखक के अनुसार ये कपूत नंबर तीन और कोई नहीं 'हम भारत के लोग और हमारे गिरते हुए इथोस' हैं। लेखक अपनी दमदार शैली में लिखते हैं

राजनेताओं और राजकर्मियों के भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले अपने बैंक के लॉकरों में रखे काले धन को भुलाए रहते हैं। जो दादी अपने होनहार पोते की तनख्वाह के आलावा उसकी ऊपरी आमदनी के बारे में अधिक उत्सुक होती है वह पूरे देशव्यापी भ्रष्टाचार के लिए उतनी ही दोषी है जितने पैसा लेकर संसद में पूछने वाले नेता जी, और झूठे एनकांउटर में बेगुनाह लोगों को मारने वाले पुलिसकर्मियों को पालने पोसने वाला, परिवार का वह बूढ़ा है जो अपने कप्तान भतीजे से मोहल्ले के कुछ बदमाशों को मुँह में मुतवाने को कहता है।
पांडे जी इस पूरी स्थिति में भी आशा की किरण देखते हैं। उनके अनुसार जनमानस गिरता है तो उसे उठाया भी जा सकता है। और यह तब तक नहीं होगा जब तक कि राजनीतिज्ञों और नौकरशाह इस बाबत स्वयम एक उदहारण नहीं पेश करेंगे।

पांडे जी की ये किताब हर पुलिसवाले के आलावा भारत के हर उस नागरिक को पढ़नी चाहिए जो देश को सही अर्थों में ऊपर उठता हुआ देखना चाहता है। पांडे जी ने अपने इन संस्मरणों के माध्यम से ना केवल सटीक ढंग से पुलिस की कठिनाइयों और उनसे निकलने के उपायों को रेखांकित किया है बल्कि साथ ही समाज में आए विकारों से लड़ने के लिए हमारे जैसे आम नागरिकों को प्रेरित करने में सफल रहे हैं। लेखक की किस्सागोई भी क़ाबिले तारीफ़ है और एक विशिष्ट सेवा से जुड़ी इस किताब को नीरस नहीं होने देती। कुल मिलाकर ये पुस्तक आपको चिंतन मनन करने पर भी मज़बूर करती है और कुछ पल हँसने खिलखिलाने के भी देती है।

पुस्तक के बारे में
दौरान ए तफ़तीश
वर्ष २००६ में पेंगुइन इंडिया से प्रकाशित ISBN 0 -14-310029-7
पृष्ठ संख्या २७६, मूल्य १७५ रु


इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ


Wednesday, September 09, 2009

दौरान ए तफ़तीश भाग 2 : रिश्वतखोरी, कुछ ना करने की कला, क़ायदे कानून व कागज़ी आदेशों पर पुलसिया सोच !

दौरान-ए-तफ़तीश पर छिड़ी चर्चा में पिछली पोस्ट में हमने बातें कीं 'काम के समय सख्ती', 'झूठी गवाही', 'थर्ड डिग्री' और कुछ मज़ेदार किस्सों की। आज की चर्चा शुरु करते हैं रिश्वतखोरी की समस्या से जो पुलिस ही क्या सारे भारतीय समाज में संक्रामक रूप से फैल चुकी है। पर इससे पहले कि इस गंभीर समस्या के कारणों और सुधार के उपायों की पड़ताल की जाए शुरुआत एक किस्से से।

नौकरी की आरंभिक दिनों में पांडे जी के पास एक चार्ज आया कि उनके थाने के हैड कांसटेबिल ने किसी मुलज़िम की जामा तालाशी में निकले उसके सौ रुपये मार दिए और जब बाद में उसने चिल्ल पौं मचाई तो उसे वो धन वापस कर दिया। छुट्टी के दिन वो हेड कांसटेबिल, पांडे जी के घर पहुँचा और अपनी सफ़ाई पेश करते हुए बोला

हुज़ूर मुझ पर इल्ज़ाम लगाया गया है कि मैंने मुलज़िम का सौ रुपये का नोट ले लिया और फिर उसे वापस कर दिया। मैं तो हुज़ूर आज़ादी के पहले पंजाब पुलिस में सब इंस्पेक्टर रह चुका हूँ। ऍसी बेअक़्ली का काम मैं भला कैसे कर सकता था? यानि कहने का मतलब ये कि पंजाब पुलिस में एक बार पैसा लेकर वापस करने का रिवाज़ ही नहीं था।:)

ये तो थी किस्से की बात पर लेखक इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं कि आज के सिस्टम में सिर्फ बेईमान ही लोग पनप सकते हैं या कि ईमानदार होने का मतलब है बेवकूफ होना। पांडे जी की इस राय से मैं शत प्रतिशत इत्तिफाक रहता हूँ इसलिए उनके इस कथन ने मुझे खासा प्रभावित किया...

मैं दोनों हाथ उठाकर पुरज़ोर आवाज़ में कहना चाहता हूँ कि कार्यकुशलता और व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा में कोई बुनियादी विरोध नहीं है। उल्टे एक बुनियादी सामांजस्य है। और उससे भी पुरज़ोर आवाज़ में यह कहना चाहता हूँ कि जो भी 'धीर' पुरुष मेहनत और कौशल से अपना काम करते हुए अपनी नीयत को पाक साफ़ रखने के लिए दृढप्रतिज्ञ होता है, उसे किसी ना किसी रूप में सूक्ष्म या स्थूल, प्रत्यक्ष या अप्रयत्क्ष पर्याप्त बाहरी या 'ऊपरी' सहायता मिलती है।

रिश्वतखोरी की समस्या को लेखक सिर्फ पुलिस विभाग के नज़रिए से नहीं देखते वरन पूरे भारतीय समाज के संदर्भ में विश्लेषित करते हैं। उन्हें भारतीय समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार के पीछे दो मुख्य कारण नज़र आते हैं। पहला तो हमारा अपना आंतरिक विष, अपनी निजी मुक्ति की चाह जिसने हमारे समाज को स्वार्थपरक बना दिया है। दूसरा बाहर से आया संक्रमण भोगवाद जिसने धन लोलुपता को हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बना दिया है। पांडे जी इस समस्या से लड़ने के लिए प्रशिक्षण संस्था की विशेष भूमिका देखते हैं। उनका कहना है कि प्रशिक्षार्थियों को हर कदम पर इस बारे में सजग और सचेत किया जाना आवश्यक है। पर सही मार्ग को पहचानना और उस पर चलना तो आखिर प्रशिक्षार्थी का काम है।

पांडे जी ने अपनी इस किताब में एक पुलिस अफसर की सर्विस लाइफ में आने वाले तकरीबन हर मसले को छुआ है। सीनियर अफसरों में व्यावसायिक प्रवीणता के आभाव, स्टाफ वर्क में कोताही, आई ए एस और आई पी एस कैडर के बीच का मन मुटाव, स्थानीय दादाओं के राजनैतिक संरक्षण, वी आई पी सुरक्षा, पुलिसिया इनकांउटर ऐसे कई मुद्दों को उन्होंने अपनी पुस्तक में विस्तार दिया है। वे ये बताना भी नहीं भूले हैं कि किन परिस्थितियों में कुछ ना करने का कमाल दिखलाना चाहिए।

मिसाल के तौर पर उन्होंने रेलवे एम्बैंकमेंट से एक गाँव के किसानों की फ़सल के डूबने का उदाहरण दिया है। रेलवे से सरकार तक सभी एम्बैंकमेंट तोड़ कर वहाँ पानी के सही बहाव के लिए पुलिया बनाने के पक्ष में थे पर फाइलों में काम सालों साल रुका था। बाद में क्षेत्र के नौजवान नेता की अगुआई में लोगों द्वारा एम्बैंकमेंट काट डाला गया ‌और साथ ही कलेक्टर और स्टेशन पर सूचना भिजवाई गई। ऊपर ऊपर कलक्टर और एस पी ने इस घटना पर वहाँ के थानेदार को खूब हड़काया पर अंदर अंदर ये भी बता दिया गया कि इस मसले पर ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है आखिर इस तथ्य को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है कि जो पुलिया वहाँ वर्षों पहले बन जानी चाहिए वो इस कृत्य की वज़ह से आनन फानन में बन गई ।

सीनियर अफ़सरों और राज्य के राजनीतिक आकाओं के गलत मौखिक आदेशों की अवहेलना किस तरह टैक्ट दिखा कर की जाए इसके बारे में भी लेखक ने कुछ रोचक उदाहरण अपनी इस किताब में बताए हैं। यानि 'बेहतर है जनाब' या 'जैसा आप कहते हैं वही होगा' जैसे ज़ुमले उछाल कर भी करिए वही जिसके लिए आपका दिल गवाही दे सके। पांडे जी आज़ादी के बाद फोर्स पर लागू पुरातन नियम व कानून में सुधार की मंथर गति से बेहद क्षुब्ध हैं और ये मानते हैं कि उसके वर्तमान स्वरूप से विकास की नई आकांक्षांओं को पर्याप्त संबल नहीं मिलता। पर आज के अफसरों को सिनिकल होने के बजाए शेक्सपीयर की भाषा में हिम्मत बँधाते हुए लेखक कहते हैं

प्यारे ब्रूटस, दोष क़ायदों का नहीं है हमारा है कि हम उनके पिट्ठू बने रहते हैं। वैसे हमारे सीनियर्स ने ठीक ही तो कहा है कि कोई क़ायदा ऍसा नहीं जिसे तोड़ा ना जा सके।

लेखक की एक और जायज़ चिंता है और वो है राजनेताओं द्वारा पुलिस को साफ और स्पष्ट आदेश देने से बचने की मानसिकता। इस सिलसिले में पांडे जी द्वारा लिखित इस प्रसंग का उल्लेख करना वाज़िब रहेगा। आज़ादी के बाद देश में पुलसिया फायरिंग को कम करने की मुहिम चली। सचिवालय में उन सारे हालातों को चिन्हित किया गया जिनमें गोली चलाना अंतिम हल माना गया। पूरा मसौदा मुख्यमंत्री के अनुमोदन के लिए भेजा गया। पांडे जी लिखते हैं
मसौदे में ऍसा कुछ लिखा था कि पुलिस 'जब ज़रूरी हो गोली चला सकती है'। मुख्यमंत्री ने बस एक शब्द बदल कर उस मसौदे की काया पलट दी। अब उसमें हिदायत थी कि पुलिस 'अगर ज़रूरी हो गोली चला सकती है'। तो ये हुआ साहब लिखा पढ़ी का, मुंशी-गिरि का कमाल। यानि ऊपर की हिदायतें ऍसीं गठी हुईं हों कि सारी जिम्मेवारी उन्हें देने वाले की नहीं, उनका पालन करने वालों की हो। इतना ही नहीं देने वाली सत्ता अपनी सुविधानुसार उनकी जैसी चाहे वैसी व्याख्या भी कर सके।

ऐसे आदेशों का ज़मीनी परिस्थितियों पर असर शून्य ही होता है। बहुत कुछ अकबर इलाहाबादी के इस मज़मूं की तरह

मेरी उम्मीद तरक्क़ी की हुईं सब पाएमाल *
बीज मगरिब** ने जो बोया वह उगा और फल गया
बूट डासन ने बनाया हमने एक मजमूं लिखा
मुल्क में मज़मूं ना फैला उल्टे जूता चल गया।

* चकनाचूर , **पश्चिमी

सतीश चंद्र पांडे की इस किताब की चर्चा के आखिरी भाग में फिर उपस्थित हूँगा पुलिस, सी.आर.पी.एफ.(CRPF) से संबंधित कुछ और मसलों और किस्सों को लेकर..


इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ


Saturday, September 05, 2009

दौरान ए तफ़तीश : भाग 1 - पुलिसिया तंत्र के बारे में लिखा एक पुलिसवाले का ईमानदार संस्मरण

पुलिसिया जिंदगी को कभी नज़दीक से देखने का अवसर नहीं मिला। बचपन में अपने हमउम्रों की तरह चोर सिपाही जैसे खेल खेले। कागज़ के टुकड़ों को अच्छी तरह चौकोर लपेट कर घर के बाकी सदस्यों के साथ राजा मंत्री चोर सिपाही भी बहुत खेला। खेल के दौरान राजा या मंत्री आता तो बेहद खुशी होती पर सिपाही आता तो बस इतना भर सुकून होता कि चोर आने से बच गया। यानि राजा मंत्री एक तरफ़ और चोर और उससे थोड़ा बेहतर सिपाही एक तरफ़। आज सोचता हूँ खेल खेल में आने वाले वे भाव आज आम समाज में एक पुलिसवाले की छवि से कितने मेल खाते हैं। क्या हमारी सोच ये नहीं रहती कि जहाँ तक हो सके पुलिस के चक्कर से बचा रहा जाए? अपनी रक्षा के लिए उनके पास पहुँचने के लिए क्या पहले ये नहीं सोचना पड़ता कि दान दक्षिणा कितनी देनी होंगी ?

पर ये भी सही हे किसी सिस्टम की निंदा करना या उसकी कमजोरियों को गिनाना ज़्यादा आसान है वनिस्पत कि उसकी तह में घुसकर उसके उद्धार के उपायों के बारे में सोचना। अब हम और आप जैसे लोग ये आकलन करना भी चाहें तो मुश्किल है क्यूँकि बिना उस सिस्टम से गुज़रे उसकी ख़ामियाँ को सही सही समझना सरल नहीं है।




इसलिए जब पुलिस की नौकरी के बारे में एक पुलिस वाले की किताब दिखी तो उसे पढ़ने की सहज उत्सुकता मन में जागी। ये किताब थी सतीश चंद्र पांडे की लिखी दौरान -ए- तफ़तीश। तो इससे पहले इस पुस्तक की विस्तार से चर्चा करूँ, पहले कुछ बातें सतीश चंद्र पांडे जी के बारे में। पांडे जी 1953 में आई पी एस में चुने गए और उत्तर प्रदेश काडर में नियुक्त हुए। छह जि़लों में पुलिस का बुनियादी काम करने के आलावा वे 1985 के विख्यात विधानसभा चुनावों के समय पंजाब के डीजीपी और फिर सीआरपीएफ के डीजी बनाए गए।

पेंगुइन इंडिया द्वारा प्रकाशित पांडे जी ने 276 पृष्ठों की इस किताब के 24 अध्यायों में पुलिसिया नौकरी से जुड़े विविध पहलुओं और उनसे जुड़े अपने संस्मरणों को बाँटा है। यूँ तो पांडे जी ने जिन मसलों को उठाया है उनमें से सब की चर्चा कर पाना यहाँ संभव नहीं होगा पर उनकी लिखी जिन बातों और किस्सों ने मुझे प्रभावित किया उसका जिक्र जरूर करना चाहूँगा। अपनी शुरुआती दौर में उस्तादों द्वारा दी जाने वाली कड़ी ट्रेनिंग को वो सही ठहराते हैं। उनका मानना है कि वो सख्ती भले उस समय किसी भी नवांगुतक के लिए नागवार गुजरती हो पर बाद में वही बेहद फायदेमंद महसूस होती है। पर जब वो आज के हालात देखते हैं तो पाते हैं कि ना केवल पुलिस में बल्कि सारे सहकारी महक़मे में इस कड़ाई में कमी आती दिख रही है। इसीलिए वे लिखते हैं
काम के वक्त सख्ती वाले उसूल का लगता है आजादी के बाद निरंतर ह्रास होता जा रहा है। किसी भी सरकारी दफ़्तर में जाइए, वी आई पी की तरह नहीं बल्कि भारत के नागरिक की तरह तो वहाँ के वातावरण को देखकर यह नहीं लगेगा कि आप ऍसी जगह आए हैं जिसे सार्वजनिक सेवा के लिए क़ायम रखने में मेहनत करने और टैक्स देने वाले नागरिकों का अमूल्य धन , लाखों करोड़ों, खर्च होता है। उल्टे ऐसा महसूस होगा कि आप किसी पिकनिक स्थल पर आ गए हैं जहाँ लोग खुशगप्पियाँ कर रहे हैं। एक दूसरे की बीमारी, शादी ब्याह, नाती पोतों की बातें हो रही हैं...
अपनी नौकरी की शुरुआत में ही पांडे जी को पुलिस विभाग की पहली कुप्रथा से रूबरू होना पड़ा वो थी 'झूठी गवाही' जिसकी तुलना उन्होंने विषैली घास की जड़ से की है। पांडे जी बताते हैं कि झूठे केसों की बात छोड़ दें तो हालत ये है कि सच्चे केस भी बिना झूठे गवाहों के जीते नहीं जा पाते। साथ ही ये प्रथा एक ऍसे कुचक्र को जन्म देती है जिससे किसी भी पुलिस तंत्र को अपने से अलग करना मुश्किल होता है। लेखक इसकी विवेचना करते हुए लिखते हैं
झूठी गवाही के लिए पुलिस को दलाल पालने पड़ते हैं। दलाल लोग ये काम प्यार मोहब्बत के लिए तो करेंगे नहीं। उन्हें या तो पैसा दीजिए या पैसा पैदा करने की छूट दीजिए। दूसरा वाला तरीका ज़ाहिर है सुविधाजनक है। इसलिए वही अपनाया जाता है। नतीज़ा जुर्मों की तफत़ीश की प्रक्रिया के लिए जुर्मों को बढ़ावा देना।
इस भयंकर कुचक्र को तोड़ने के लिए पुलिस और न्यायपालिका दोनों में ही जिस व्यक्तिगत निर्भीकता और उच्चतर प्रशासनिक स्तर पर नीतिपरक ईमानदारी और साहस की जरूरत है वो लेखक को मौज़ूदा पद्धति में नज़र नहीं आती। पांडे जी ने झूठी गवाही के बाद पुलिसिया डंडे और थर्ड डिग्री में अपनाए जाने वाले तौर तरीक़ो का जिक्र किया है। पांडे जी का इस बाबत पुलिसिया मनोविज्ञान पर निष्कर्ष ये है कि
थर्ड डिग्री के इस्तेमाल के लिए पुलिस का भीतरी और बाहरी निहित स्वार्थ होता है। भीतरी स्वार्थ अपनी मेहनत बचाने, अपनी जेब गर्म करने और अर्ध सत्य वाली लाइन, पर अपनी भड़ास निकालने पर आधारित होते हैं और बाहरी वाले राजनीतिक, सामाजिक और विभागीय दख़लंदाजी पर। इन दोनों ही स्वार्थों के प्रभावों से अपने को ना बचा पाने का अवश्यंभावी परिणाम है भागलपुर या उससे भी गंभीर और दुर्भाग्यपूर्ण, पंजाब।
पुलसिया नौकरी पर लिखी ये किताब का एक अहम हिस्सा कार्यालयी जिंदगी के मज़ेदार किस्से हैं जिसमें अधिकतर को पांडे जी ने अपने हर प्रमुख बिंदु को रेखांकित करने के पहले सुनाया है पर कुछ किस्से यूँ ही उनके संस्मरणों मे से निकल कर आए हैं जिन्हें पढ़कर आप हँसते हँसते लोटपोट हो जाएँगे ।

ये पुस्तक चर्चा तो कई भागों में चलेगी पर आज चलते चलते पांडे जी की यादों से निकले अंग्रेजों के ज़माने के इस खुर्राट तहसीलदार का किस्सा सुनते जाइए जो हर स्थिति में कठिन से कठिन सवाल का जवाब गोल मोल तरीके से देने के लिए मशहूर थे। तो हुआ यूँ कि ...

एक बार एक नए अंग्रेज कलेक्टर साहब उन्हें पड़ताल के लिए घोड़े पर ले गए। थकान से चूर तहसीलदार साहब अपने इलाके की जो थोड़ी बहुत जानकारी रखते थे वो भी भूल गए। आपके यहाँ गेहूँ की पैदावार कितनी होती है, कलेक्टर ने पूछा तो उन्होंने कहा कि हुज़ूर हो जाती है अच्छी ख़ासी, कोई अकाल तो पड़ता नहीं । लेकिन ये भी नहीं कि दोआबा की तरह बढ़िया फ़सल हो। फिर पूछा गया कि बारिश कितनी होती है आपकी तहसील में तो जवाब मिला कि ऍसा तो नहीं है कि चेरापूँजी की तरह पानी बरसता हो। लेकिन ऍसा भी नहीं कि राजस्थान के माफ़िक सूखा पड़े। ऍसे ही करते करते आखिर कलेक्टर ने उनसे ये पूछा कि जो एक दो नदियाँ हैं वे किस दिशा से किस दिशा में बहती हैं? तहसीलदार को मालूम हो तो बताएँ। ऍसा है हुजूर, उन्होंने थोड़ा सोचकर कहा कहीं तो पूरब से पश्चिम को बहती है तो कहीं उत्तर से दक्खन को। असलियत ये है कि कमबख्त खुल कर नहीं बहती...

पुलसिया नौकरी से जुड़े कुछ अन्य पहलुओं की चर्चा करेंगे इस पुस्तक चर्चा के दूसरे भाग में...



इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ


Tuesday, May 12, 2009

माणिक मुल्ला और 'सूरज का सातवाँ घोड़ा'

आप सोच रहे होंगे जब इतने प्रसिद्ध लघु उपन्यास के लेखक धर्मवीर भारती हैं तो फिर शीर्षक में माणिक मुल्ला कहाँ से आ टपके? दरअसल भारती जी ने बड़ी चतुराई से इस लघु उपन्यास के शीर्षक और कही गई कहानियों का जिम्मा माणिक मुल्ला पर डाला है जो उन सात दोपहरों में लेखक और उनकी मित्र मंडली को ना केवल कहानियाँ सुनाते हैं , पर साथ ही साथ उन कहानियों से निकलते निष्कर्ष की व्याख्या भी करते हैं।

पर इससे पहले की माणिक मुल्ला की कहानियों की तह में जाएँ, कथा लेखन के बारे में उनके फलसफ़े पर भी जरा गौर फ़रमा लें ...

कुछ पात्र लो, और एक निष्कर्ष पहले से सोच लो, फिर अपने पात्रों पर इतना अधिकार रखो, इतना शासन रखो कि वे अपने आप प्रेम के चक्र में उलझ जाएँ और अंत में वे उसी निष्कर्ष पर पहुँचे जो तुमने पहले से तय कर रखा है।
प्रेम को अपनी कथावस्तु का केंद्र बनाने के पीछे माणिक मुल्ला टैगोर की उक्ति आमार माझारे जे आछे से गो कोनो विरहणी नारी (अर्थात मेरे मन के अंदर जो बसा है वह कोई विरहणी नारी है) पर ध्यान देने को कहते हैं। उनकी मानें तो ये विरहणी नारी हर लेखक के दिल में व्याप्त है और वो बार बार तरह तरह से अपनी कथा कहा करती है ।‍
माणिक मुल्ला की कहानियाँ एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं और सूत्रधार होने के आलावा वे खुद कई कहानियों के नायक बन बैठे हैं यद्यपि उनके चरित्र में नायक होने के गुण छटाँक भर भी नहीं हैं। माणिक, लिली से अपने प्रेम को कोरी भावनाओं के धरातल से उठाकर किसी मूर्त रूप में ला पाने में असमर्थ हैं और जब सती पूर्ण विश्वास के साथ उनके साथ जिंदगी व्यतीत करने का प्रस्ताव रखती है तो वे कायरों की तरह पहले तो भाग खड़े होते हैं और बाद में पश्चाताप का बिगुल बजाते फिरते हैं।

सौ पृष्ठों का ये लघु उपन्यास माणिक मुल्ला की प्रेम कहानियों के अतिरिक्त उनकी जिंदगी में आई तीन स्त्रिओं जमुना, लिली और सती के इर्द गिर्द भी घूमता है। ये तीनों नायिकाएँ समाज के अलग अलग वर्गों (मध्यम, कुलीन और निम्न ) का प्रतिनिधित्व करती हैं। उपन्यास की नायिकाएँ अपने आस पास के हालातों से किस तरह जूझती हैं ये जानना भी दिलचस्प है। जहाँ जमुना का अनपढ़ भोलापन सहानुभूति बटोरता है वहीं उसकी समझौतावादी प्रवृति पाठक के चित्त से उसे दूर ले जाती है। लिली में भावुकता और विद्वता है तो अहंकार भी है। एक सती ही है जो बौद्धिक रूप से निम्नतर होते हुए भी एक ठोस, ईमानदार व्यक्तित्व की स्वामिनी है। सच पूछें तो सती को छोड़कर लेखक का बनाया कोई किरदार आदर्श नहीं है। दरअसल लेखक मध्यम वर्ग की भेड़ चाल वाली सोच, समझौता और पलायनवादी प्रवृति से आहत हैं। अपनी इसी यंत्रणा को शब्द देते हुए लेखक अपने सूत्रधार के माध्यम से लिखते हैं..
हम जैसे लोग जो न उच्च वर्ग के हें और न निम्नवर्ग के, उनके यहाँ रुढ़ियाँ, परम्पराएँ, मर्यादाएँ भी ऍसी पुरानी और विषाक्त हैं कि कुल मिलाकर हम सभी पर ऍसा प्रभाव पड़ता है कि हम यंत्र मात्र रह जाते हैं. हमारे अंदर उदार और ऊँचे सपने खत्म हो जाते हैं और एक अज़ब सी जड़ मूर्छना हम पर छा जाती है। .....एक व्यक्ति की ईमानदारी इसी में है कि वह एक व्यवस्था द्वारा लादी गयी सारी नैतिक विकृति को भी अस्वीकार करे और उसके द्वारा आरोपित सारी झूठी मर्यादाओं को भी, क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। लेकिन हम विद्रोह नहीं कर पाते और समझौतावादी हो जाते हैं।
पर बात यहीं तक खत्म नहीं हो जाती। तथाकथित बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष करते हुए वे कहते हैं कि सिर्फ नैतिक विकृति से अपने आप को अलग रख कर ही भले ही हम अपने आप को समाज में सज्जन घोषित करवा लें पर तमाम व्यवस्था के विरुद्ध ना लड़ने वाली प्रवृति परिष्कृत कायरता ही होगी।

ये लघु उपन्यास छः किरदारों की कथा पर आधारित है और हर एक भाग में कथा एक किरदार विशेष के नज़रिए से बढ़ती है। हर कथा के बाद का विश्लेषण अनध्याय के रूप में होता है जहाँ भारती की व्यंग्यात्मक टिप्पणिया दिल को बेंध जाती है। इसीलिए इस उपन्यास की भूमिका में महान साहित्यकार अज्ञेय लिखते हैं

सूरज का सातवाँ घोड़ा’ एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं अनेक कहानियों में एक कहानी है। एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनन्त शक्तियाँ परस्पर-सम्बद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर सम्भूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी। वह चित्र सुन्दर, प्रीतिकर या सुखद नहीं है; क्योंकि उस समाज का जीवन वैसा नहीं है और भारती ने चित्र को यथाशक्य सच्चा उतारना चाहा है। पर वह असुन्दर या अप्रीतिकर भी नहीं, क्योंकि वह मृत नहीं है, न मृत्युपूजक ही है।

और अंत में बात इस पुस्तक के प्रतीतात्मक शीर्षक की। कथा के सूत्रधार को ये विश्वास है कि भले ही सूर्य के छः घोड़े जो मध्यम वर्ग में व्याप्त नैतिक पतन, अनाचार, आर्थिक संघर्ष, निराशा, कटुता के पथ पर चलकर अपने राह से भटक गए हैं पर सूर्य के रथ का सातवाँ घोड़ा अभी भी मौजूद है जो पथभ्रष्ट समाज को सही रास्ते पर ला सकता है। इसीलिए वो लिखते हैं


".....पर कोई न कोई चीज़ ऐसी है जिसने हमेशा अँधेरे को चीरकर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। चाहे उसे आत्मा कह लो, चाहे कुछ और। और विश्वास, साहस, सत्य के प्रति निष्ठा, उस प्रकाशवाही आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले चलते हैं।....वास्तव में जीवन के प्रति यह अडिग आस्था ही सूरज का सातवाँ घोड़ा है, ‘‘जो हमारी पलकों में भविष्य के सपने और वर्तमान के नवीन आकलन भेजता है ताकि हम वह रास्ता बना सकें जिस पर होकर भविष्य का घोड़ा आयेगा।.....’’

धर्मवीर भारती की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित किताब नेट पर यहाँ उपलब्ध है। भारत में इसका मूल्य सिर्फ ३५ रुपया है और ये दो से तीन घंटे की सिटिंग में आराम से पढ़ी जा सकती है। श्याम बेनेगल ने इस लघु उपन्यास पर आधारित एक फिल्म भी बनाई थी जो नब्बे के दशक में काफी सराही गई थी। मैंने वो फिल्म नहीं देखी पर इस पटकथा पर बेनेगल के निर्देशन में बनी फिल्म पुस्तक से भी असरदार होगी ऍसा मेरा विश्वास है।

Sunday, May 10, 2009

किताबों से कभी गुजरो तो यूँ किरदार मिलते हैं...

किताब पढ़ने का शौक मुझे अपने माता पिता से मिला है। बचपन में वे अक्सर कहा करते थे कि किताबें हमारी भाषा को समृद्ध करती हैं, हमारे विचारों को विस्तार देती हैं और हमें दूसरे नज़रिए से सोचने को मजबूर करती हैं। उनकी बातों ने पुस्तकें पढ़ने की आदत डलवा दी। हाँ ये जरुर हुआ कि पढ़ाई लिखाई, नौकरी की भाग दौड़ में पुस्तकें पढ़ने की बारम्बारता कम ज्यादा होती रही।



आजकल तो पुस्तकें पढ़ना और वो भी हिंदी पुस्तकों को पढ़ना प्रचलन में नहीं रह गया है या यूँ कहूँ कि आउट आफ फैशन हो गया है। ऍसे में पुस्तक ना पढ़ने वालों को गुलज़ार साहब की ये पंक्तियाँ याद दिलाना चाहता हूँ

किताबों से कभी गुजरो तो यूँ किरदार मिलते हैं
गये वक्तों की ड्योढ़ी पर खड़े कुछ यार मिलते हैं
जिसे हम दिल का वीराना समझ छोड़ आए थे
वहीं उजड़े हुए शहरों के कुछ आसार मिलते हैं


पर मैंने अपने में ये प्रवृति बनाई रखी है और जब कार्यालयी दौरों में रहता हूँ तो यात्रा के दौरान अपने साथ किताब जरूर रखता हूँ। जब से चिट्ठाकारी शुरु की है समय समय पर आपको उन किताबों के बारे में अपनी राय से अवगत कराता रहा हूँ।

चिट्ठे की तीसरी वर्षगाँठ पर आपसे वायदा था कि जिस तरह इस चिट्ठे पर प्रस्तुत गीतों , ग़ज़लों और कविताओं की लिंकित सूची साइडबार में बना कर रखी है वैसे ही सूची पुस्तक चर्चा से संबंधित लेखों की भी बनाऊँ। तो अपने वायदे के मुताबिक प्रस्तुत है ये सूची...

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं

  1. असंतोष के दिन
    Asantosh Ke Din by Dr. Rahi Masoom Raza

  2. मैं बोरिशाइल्ला
    Main Borishailla by Mahua Maji

  3. जल्लाद की डॉयरी
    Jallad Ki Diary by Shashi Warior

  4. गुनाहों का देवता
    Gunahon Ka Devta by Dharmveer Bharti

  5. जालियाँवाला बाग त्रासदी
    Massacre at Jallianwala Bagh by Stanley Wolpert

  6. कसप
    Kasap by Manohar Shyam Joshi

  7. गोरा
    Gora by Ravindra Nath Tagore

  8. महाभोज
    Mahabhoj by Mannu Bhandari

  9. क्याप
    Kyap by Manohar Shyam Joshi

  10. एक इंच मुस्कान,
    Ek Inch Muskaan by Rajendra Yadav & Mannu Bhandari

  11. लीला चिरंतन,
    Leela Chirantan by Ashapoorna Devi

  12. क्षमा करना जीजी
    Kshama Karna Jiji by Narendra Kohli

  13. मर्डरर की माँ
    Murderer ki Maan by Mahashweta Devi

  14. दो खिड़कियाँ
    Do Khidkiyan by Amrita Preetam

  15. हमारा हिस्सा
    Stories on Women Empowerment

  16. मधुशाला
    Madhushala by Harivansh Rai Bachchan

  17. मुझे चाँद चाहिए
    Mujhe Chand Chahiye by Surendra Verma

  18. कहानी एक परिवार की
    Kahani Ek Pariwaar Kee by Gurucharan Das

  19. सूरज का सातवाँ घोड़ा
    Suraj Ka Saatvan Ghoda by Dharamveer Bharti

  20. दौरान -ए- तफ़तीश भाग १ भाग २ भाग ३
    Douran - E - Tafteesh by
    Satish Chandra Pandey

  21. तस्वीर जिंदगी के (भोजपुरी ग़ज़ल संग्रह) भाग १ भाग २
    Tasweer Zindagi Ke... (Bhojpuri Ghazal Collection) by Manoj Bhawuk

  22. ज़िंदगीनामा
    Zindaginama by Krishna Sobti

  23. तीन भूलें जिंदगी की
    Three Mistakes of My Life by Chetan Bhagat

Monday, April 13, 2009

जालियाँवाला बाग त्रासदी की ९० वीं सालगिरह पर झांकिए इस दर्दनाक हादसे को एक पुस्तक की नज़र से...

आज जालियाँवाला बाग त्रासदी की ९० वीं सालगिरह है। इसीलिए सोचा कि इतिहास की परतों में दफ़न इस काले दिन की कहानी कहने वाली इस पुस्तक से रूबरू कराने के लिए ये दिन बिल्कुल उपयुक्त रहेगा। इतिहास और ऐतिहासिक पुस्तकों से मेरा शुरु से लगाव रहा है इसीलिए जब मुझे स्टेनले वोलपर्ट (Stanley Wolpert) की किताब Massacre at Jallianwala Bagh हाथ लगी तो इसे पढ़ने की त्वरित इच्छा मन में जाग उठी। ये किताब एक कहानी को ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बुनती हुई चलती है। तो चलिए इस किताब के माध्यम से जानते हैं कि कैसे हुआ ये दर्दनाक हादसा!

पुस्तक का आरंभ स्टैनले ने 1919 की ग्रीष्म ॠतु के उन आरंभिक महिनों से किया है जब पंजाब का राजनीतिक माहौल रॉलेट एक्ट के विरोध से गर्माया हुआ था। अमृतसर में इस आंदोलन का नेतृत्व तब पक्के गाँधीवादी नेता डा. सत्यवान और बैरिस्टर किचलू कर रहे थे। जब उनके द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों में भीड़ की तादाद बढ़ने लगी तो अंग्रेज घबरा उठे। अंग्रेजों की इसी घबराहट का नतीजा था कि दोनों नेताओं को गिरफ्तार कर पंजाब के बाहर भेज दिया गया।

अंग्रेजों ने ये सोचा था कि ऍसा करने से आंदोलन शांत हो जाएगा। पर हुआ ठीक इसका उल्टा। शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन नेतृत्वविहीन होने की वज़ह से हिंसात्मक रुख अख्तियार कर बैठा। हुआ ये कि जब क्रुद्ध भीड़ तत्कालीन कलक्टर के यहाँ अपने नेताओं को छुड़ाने के लिए सिविल लाइंस की ओर चली तो रास्ते में एक सेतु पार करते वक्त जुलूस पर गोलियों की वर्षा कर दी गई। लगभग तीस लोग मौत की गोद में सुला दिए गए। इस नृशंस गोलीकांड से बौखलाए लोगों ने शहर के पुराने इलाकों मे छः अंग्रेजों की हत्या कर दी जिसमें एक महिला भी शामिल थी।

अंग्रेज चाहते तो बचे हुए नरमपंथी नेताओं की मदद लेकर वे स्थिति को सामान्य बनाने का प्रयास कर सकते थे। पर ऍसा करने के बजाए उन्होंने सेना बुला ली। 12 अप्रैल 1919 को स्थानीय नेताओं ने निर्णय लिया कि आंदोलन की आगे की दशा-दिशा निर्धारित करने के लिए 13 अप्रैल 1919 को जालियाँवाला बाग में एक सभा का आयोजन किया जाए। अंग्रेजी सेना के ब्रिगेडिअर जेनेरल डॉयर ने सुबह में ही लोगों के जमा होने पर निषेधाज्ञा लगा दी। दुर्भाग्यवश वो दिन बैसाखी का दिन था और अगल बगल के गांवों के सैकड़ों किसान सालाना पशु मेले में शहर की स्थितियाँ जाने बगैर, शिरकत करने आए थे।

जेनेरल डॉयर ठीक शाम पाँच बजे सभास्थल पर अपने गोरखा जवानों के साथ पहुँचा और बिना चेतावनी के अंधाधुंध फॉयरिंग शुरु करवा दी। बाग में सिर्फ एक ही निकास होने की वजह से लोगों को भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग वहाँ के कुएँ में कूद कर जान गवां बैठे तो कुछ दीवार फाँदने की असफल कोशिश करते हुए। अंग्रेजों के हिसाब से ३०० से ज्यादा लोग इस घटना में मारे गए जबकि दस मिनट तक चली इस गोलीबारी में कांग्रेस के अनुसार मरने वाले लोगों का आँकड़ा 1000 के आस पास था.

स्टानले वोलपर्ट ने उस समय की घटनाओं का जीवंत विवरण देने के साथ साथ जेनेरल डॉयर के मन को भी टटोलने की कोशिश की है। घटना के बाद देश और विदेशों में निंदित होने के बाद भी जेनेरल डॉयर को रत्ती भर पश्चाताप की अनुभुति नहीं हुई। वो अंत तक ये मानने को तैयार नहीं हुआ कि उसने कुछ गलत किया है। उसने हमेशा यही कहा कि उसने जो किया वो इस ब्रिटिश उपनिवेश की सुरक्षा के लिए किया जो बिना आम जनों के मन में अंग्रेजों का आतंक बिठाए संभव नहीं था।

पर इस कांड ने उस मिथक की धज्जियाँ उड़ा दीं जिसके अनुसार अंग्रेज काले और साँवली नस्लों से ज्यादा उत्कृष्ट न्यायपूर्ण, मर्यादित नस्ल हैं जो कि मानवीय गुणों से भरपूर है। 10 अप्रैल से 13अप्रैल तक की अमानवीय घटनाओं और फिर नवम्बर 1919 तक की न्यायिक जाँच तक का विवरण वोलपर्ट ने पूरी निष्पक्षता के साथ दिया है और यही इस पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

भारत के इतिहास के इस काले दिन के पीछे की घटनाओं को जानने में अगर आपकी रुचि है तो ये किताब आपको पसंद आएगी। देखिए इसी घटना पर आधारित ये वीडिओ


पुनःश्च : Stanley Wolpert की ये किताब १९८८ में पेंगुइन इंडिया (Penguin India) द्वारा प्रकाशित की गई थी। फिलहाल नेट पर ये किताब आमेजन डॉट काम पर यहाँ उपलब्ध है।

Wednesday, April 08, 2009

' मैं बोरिशाइल्‍ला ' : महुआ माजी का बाँग्लादेश स्वतंत्रता संग्राम पर लिखा पुरस्कृत उपन्यास

वैसे तो एक शाम मेरे नाम पर अब तक कई किताबों की चर्चा हुई है पर आज फर्क सिर्फ इतना है कि इस किताब को पढ़ने के पहले, इसकी लेखिका महुआ माजी को हिंदी दिवस समारोह में देखने सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है। मैं बोरिशाइल्ला, राँची की लेखिका महुआ माजी का पहला उपन्यास है जो हमारे पड़ोसी देश, बाँग्लादेश के मुक्ति संग्राम की अमर गाथा कहता है।

समाजशास्त्र से स्नात्कोत्तर करने वाली महुआ माजी जी ने बाँग्लादेश को ही आखिर अपने उपन्यास का विषय क्यूँ चुना? दरअसल लेखिका का ददिहाल ढाका और ननिहाल बारिसाल (बोरिशाल) रहा। इसलिए बंग भूमि से बाहर रहती हुई भी उनके पुरखों की मातृभूमि और वहाँ से आए लोगों के बारे में उनकी सहज उत्सुकता बनी रही।

जैसा कि विषय से स्पष्ट है, इस तरह का उपन्यास लिखने के लिए गहन छान बीन और तथ्य संकलन की आवश्यकता है। महुआ ने जिस तरह इस पुस्तक में मुक्तिवाहिनी के कार्यकलापों का विवरण दिया है, उसमें उनके द्वारा रिसर्च में की गई मेहनत साफ झलकती है। अब अगर आप इस उहापोह में हों कि पुस्तक का शीर्षक मैं बोरिशाइल्ला क्यूँ है तो इसका सीधा सा जवाब है कि आंचलिक भाषा में बांग्लादेश के दक्षिणी हिस्से में अवस्थित इस सांस्कृतिक नगरी बोरिशाल बारिसाल के लोगों को बोरिशाइल्ला कहा जाता है और इस कहानी के नायक केष्टो घोष की कर्मभूमि भी बोरिशाल ही है इसीलिए वो कह सकता है 'मैं बोरिशाइल्‍ला'।

महुआ ने अपनी कथा केस्टो के माध्यम से रची है। केस्टो का बचपन बोरिशाल शहर में बीता और फिर जब उसके पिता की मिठाई की दुकान में आग लग गई तो उसे अपने भाई बहनों के साथ अपने पैतृक गाँव शोनारामपुर जाना पड़ा। केस्टो के बचपन की कहानी कहने में महुआ बंग भूमि का पूरा नज़ारा आपके सामने ला खड़ा करती हैं। गाछ भरा नारियल, पोखर भरी मछली, वोरोज भरा पान और गोला भरा धान जैसे दृश्य रह रह कर उभरते हैं। हर मौसम की अपनी निराली छटा को लेखिका ने अपनी कलम में बखूबी क़ैद किया है। ग्राम बाँग्ला में उतर आई शरद ॠतु के बारे में वो लिखती हैं
"......बरसात खत्म होने के साथ ही आकाश का रंग बदलने लगा। जेठ के मध्य से लगातार रोते रहने के बाद इस आश्विन में आकर आकाश मानों दिल खोलकर हँस पड़ा। स्वच्छ भारहीन बादलों के कुछ झुंड आकाश के हँसते नीले चेहरे पर सफेद दाँतों की तरह चमकने लगे। झूटकलि, मोहनचुड़ा, हरियाल, हल्दिमना, टूनि, बॉगाई जैसे तरह तरह के रंग बिरंगे पक्षी जो बारिश के कारण नज़र नहीं आते थे, झुंड के झुंड पंख पसार कर खुले आकाश में मँडराने लगे। खुले मैदान में जहाँ लम्बे लम्बे धान के पौधे नहीं थे, पानी के ऊपर दूर दिगंत तक मानों फूलों को साम्राज्य बिछा हुआ था। लाल लाल कुमुद फूलों का, जलकुम्भी के नीले नीले मनभावन फूलों का और बड़े बड़े थाल से बिछे हरे पत्तों के बीच सर उठाए खड़े सफेद गुलाबी कमल फूलों का साम्राज्य।....."
आंचलिक परिवेश की प्रस्तुति जमीन से जुड़ी लगे इसके लिए लेखिका ने हिंदी शब्दों को वैसे ही लिखा है जैसे वे बाँग्ला में बोले जाते हैं। साथ ही साथ उन्होंने जगह जगह बंग भूमि के महान कवियों, भटियारी लोक गीतों और मुक्ति संग्राम के प्रेरक नारों को हिन्दी के साथ साथ बाँग्ला में भी लिखा है ताकि पाठक को उस संस्कृति और उस समय के माहौल से अपना सामंजस्य बिठाने में सहूलियत हो।

पूरे उपन्यास को दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहले चरण में लेखिका केस्टो की बचपन की शरारतों से लेकर किशोरावस्था में मुंबई भागने और फिर प्रेम में असफल होकर वापस बोरिशाल में एक बड़े व्यवसायी और बॉडी बिल्डर बनकर अपने आप को स्थापित करने की कहानी कहती हैं। उपन्यास का अगला चरण स्वतंत्र पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में उभरे भाषाई राष्ट्रवाद की कथा कहता है। पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों द्वारा निरंतर बरते जाने वाले भेदभाव, से ये भाषाई राष्ट्रवाद स्वतंत्रता संग्राम में तब बदल जाता है जब चुनावी जीत के बाद पाकिस्तानी शासक शेख मुजीब को सत्ता हस्तांतरित किये जाने से आनाकानी करते हैं।

फिर शुरु होती है मुक्तिवाहिनी के अभ्युदय के साथ पाकिस्तानी शासकों के बर्बर जुल्म की गाथा जो कई जगह रोंगटे खड़ी कर देती है। अगर आप मुक्तिवाहिनी की उत्पत्ति के कारणों, उनके लड़ने के तरीकों और उस कालखंड में पाक सेना द्वारा की गई बर्बरता और भारत द्वारा किए गए परोक्ष और प्रत्यक्ष सहयोग के बारे में विस्तार से जानने में रुचि रखते हों तो ये उपन्यास आपके लिए है। भारत के युद्ध में निर्णायक सहयोग के बावजूद भी बाँग्लादेशियों की भारत के प्रति संदेह करने की प्रवृति और विगत वर्षों में अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ होने वाली दंगाई हिंसा का जिक्र भी एक कचोट के साथ लेखिका ने किया है।

महुआ माजी के इस उपन्यास को पढ़ने के बाद कुछ प्रश्न दिमाग में स्वतः उठते हैं।
क्या धर्म को किसी राष्ट्र की उत्पत्ति का आधार बनना चाहिए ? अगर ऍसा होता तो पाकिस्तान के दो टुकड़े कभी ना बनते। 'मैं बोरिशाइल्ला' की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए महुआ माजी कहती हैं कि बाँग्लादेश के मुक्ति संग्राम को अपने पहले ही उपन्यास का विषय बनाने का कारण था कि मैं नई पीढ़ी के लिए उसे एक दृष्टांत के रूप में पेश करना चाहती थी कि आज बेशक पूरी दुनिया में सारी लड़ाइयाँ धर्म के नाम पर ही लड़ी जा रही हैं, लेकिन सच तो ये है कि सारा खेल सत्ता का है।
उपन्यास के आखिर में अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखते हुए महुआ लिखती हैं

"........तो क्या धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ और तत्व हैं जो धर्म के साथ शामिल हैं या धर्म उनमें शामिल है। क्या हैं वो तत्त्व ? यह तो हम सबने देखा है कि पूर्वी पाकिस्तानियों के लिए धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण संस्कृति रही। तभी तो बाँग्ला भाषा, साहित्य संस्कृति के लिए भाषा आंदोलन हुआ और आंदोलनों का सिलसिला चल निकला ।
और पश्चिमी पाकिस्तानियों के लिए? उनके लिए निश्चय ही धर्म से अधिक महत्त्वपूर्ण सत्ता रही। वर्चस्व का सुख, शोषण से प्राप्त ऍश्वर्य का सुख हमेशा उनके धर्म पर हावी रहा तभी तो समानधर्मी होते हुए भी वो पूर्वी प्रान्त के लोगों से इतनी क्रूरता से पेश आए जितनी कि कोई विधर्मी भी नहीं आ सकता था।
इसका मतलब धर्म उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना जतलाया जाता है। महत्त्वपूर्ण होते हैं दूसरे कारक। धर्म तो सिर्फ एक मुखौटा है जिसे पहनकर और पहनाकर कुछ स्वार्थी तत्त्व अपना स्वार्थ साधते हैं। ...."


महुआ माजी ने अपने ३९९ पृष्ठों के उपन्यास में रोचकता बनाए रखी है। ' राजकमल' द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास को जुलाई २००७ में 'इंदु शर्मा कथा सम्मान' से नवाज़ा गया था। १५० रुपये की इस पुस्तक को आप नेट पर यहाँ से खरीद सकते हैं।

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं

असंतोष के दिन, जल्लाद की डॉयरी, गुनाहों का देवता, कसप, गोरा, महाभोज, क्याप, एक इंच मुस्कान, लीला चिरंतन, क्षमा करना जीजी, मर्डरर की माँ, दो खिड़कियाँ, हमारा हिस्सा, मधुशाला, मुझे चाँद चाहिए, कहानी एक परिवार की' , तीन भूलें जिंदगी की

Tuesday, December 23, 2008

तीन भूलें जिंदगी की (the 3 mistakes of my life) : चेतन भगत

जिंदगी में भूलें तो हम सभी करते है पर इन भूलों के बारे में कितनों से चर्चा की होगी आपने ? शायद अपने नजदीकियों से ! अब ये आइडिया तो कभी आपके मन में नहीं ही आया होगा कि अपनी गलतियों से तंग आकर आप आत्महत्या करने की सोचें और उसे कार्यान्वित करने से पहले एक बहुचर्चित उपन्यासकार के ई मेल कर दें। खैर मैं जानता हूँ इतना धाँसू आइडिया आपके मन में कभी नहीं आया, क्योंकि अगर ऍसा होता तो आप अपना वक़्त मेरी इस पोस्ट को पढ़ने में बर्बाद नहीं कर रहे होते। :)

अब देखिए अहमदाबाद के गोविंद पटेल ने यही किया और चेतन भगत की तीसरी किताब 'The 3 Mistakes of My Life' के नायक बन बैठे। गोविंद भाग्यशाली रहे कि वो बच गए और अपनी कहानी चेतन को सुना पाए। और परसों ही टीवी पर एक प्रोमो दिखा जिसमें हीरो कहता है कि मैं गोविंद हूँ तो तुरत समझ आ गया कि अब 'Hello' की तरह इस किताब पर भी फिल्म बनने जा रही है।

चेतन भगत की ये कहानी अहमदाबाद की है और गुजरात की तात्कालिक घटनाओं भूकंप, दंगों और भारत आस्ट्रेलिया क्रिकेट श्रृंखला आदि के बीच बनती पनपती है। पूरी कहानी उन तीन निम्न मध्यमवर्गीय दोस्तों के इर्द गिर्द घूमती है जिनकी रुचियाँ अलग अलग विषयों (धर्म, क्रिकेट और व्यापार) से जुड़ी हुई हैं। मैंने इससे पहले उनकी Five Point Someone और One Night at Call Centre पढ़ी थी और Five Point Someone को तो पढ़ने में बहुत मजा आया था। अगर किसी उपन्यासकार की पहली किताब बहुत पसंद की जाए तो वो एक मापदंड सी बन जाती है और अक्सर उसकी तुलना बाद की किताबों से होने लगती है।

और इस हिसाब से २५७ पृष्ठों की ये किताब मुझे उतनी पसंद नहीं आती। हालांकि चेतन की लेखन शैली हमेशा की तरह रोचक है। उनके चरित्रों से आम आदमी भी जल्द ही जुड़ा महसूस करता है। युवाओं के दिल में उठ रही बातों को बेबाकी से लिखने में चेतन माहिर हैं। उन्होंने गुजरातियों के व्यापार में Never Say Die वाली निष्ठा के साथ एक आम व्यापारी की सोच को भी टटोलने का काम किया है।

पर किताब से गुजरने के बाद आपको ये नहीं लगता कि आपने कुछ विशिष्ट पढ़ा। पूरी किताब एक व्यवसायिक हिंदी फिल्म की पटकथा ज्यादा नज़र आती है जिसमें राजनीति, धर्म, हिंसा, प्रेम, क्रिकेट का उचित अनुपातों में समावेश है और यही कारण है कि फिल्मवालों ने इस कहानी को जल्द ही झटक लिया।

अंततः यही कहना चाहूँगा कि अगर आपके पास कुछ और करने को ना हो तो ये किताब पढ़ सकते हैं जैसा मैंने अस्पताल में अपनी ड्यूटी निभाते वक्त किया और अगर किताब से ज्यादा फिल्मो का शौक रखते हों तो इस पर आधारित फिल्म देख लें ..

Friday, November 28, 2008

जल्लाद की डॉयरी : जनार्दन पिल्लै की आपबीती को कहता शशि वारियर का एक उपन्यास

पिछली पोस्ट में आपने जाना फाँसी की प्रक्रिया और उसे देने वाले जल्लाद की मानसिक वेदना के बारे में जो तथाकथित पाप की भागीदारी की वज़ह से उसके हृदय को व्यथित करती रहती थी। जैसा कि पूनम जी ने पूछा हे कि
क्या जल्लाद ने ऍसी फाँसी के बारे में भी लिखा है जहाँ उसे पता हो कि व्यक्ति निर्दोष था?

नहीं...नहीं लिखा, अगर कोई व्यक्ति निर्दोष रहा भी हो तो उसका पता जनार्दन को कैसे चलता? जनार्दन पिल्लै के सामने जो भी क़ैदी लाए गए उनके अपराधों की फेरहिस्त जेलर द्वारा जल्लाद को बताई जाती थी और यही उसकी जानकारी का एकमात्र ज़रिया होता। पर जनार्दन जानता था कि इनमें से कई क़ैदी ये मानते थे कि जिनकी उन्होंने हत्या की वो वास्तव में उसी लायक थे।

हाँ, एक बात और थी जो जल्लाद को अपराध बोध से ग्रसित कर देती थी।
और वो थी लीवर घुमाने के बाद भी देर तक काँपती रस्सी.....।

रस्सी जितनी देर काँपती रहती है उतनी देर फाँसी दिया आदमी जिंदगी और मौत के बीच झूलता रहता था। कई बार इस अंतराल का ज्यादा होना जल्लाद द्वारा रस्सी की गाँठ को ठीक जगह पर नहीं लगा पाने का द्योतक होता और इस भूल के लिए जल्लाद को अपना कोई प्रायश्चित पूर्ण नहीं लगता। आखिर उसे मृत्यु को सहज बनाने के लिए ही पैसे मिलते हैं ना?

अपनी कहानी लिखते समय जनार्दन याद करते हैं कि जब जब वो फाँसी लगाने के बाद इस मनोदशा से व्यथित हुए दो लोगों ने उन्हें काफी संबल दिया। एक तो उनके स्कूल के शिक्षक 'माष' और दूसरे मंदित के हम उम्र पुजारी 'रामय्यन'। इन दोनों ने जनार्दन को बौद्धिक और धार्मिक तर्कों से जल्लाद के दर्द को कम करने की सफल कोशिश की।
माष कहा करते - तुम तो मानव पीड़ा को कम करने के बारे में सोचते हो, पर वहीं हमारे पूर्वज पीड़ा पहुँचाने में हद तक आविष्कारी थे। उस काल की सबसे वीभत्स प्रथा का जिक्र करते हुए शशि वारियर लिखते हैं हैं।

"....लगभग एक इंच के अंतर वाली लोहे की सलाखों का बना हुआ बदनाम कषुवनतूक्कु पिंजरा था। क़ैदी को इस संकरे पिंजरे में बंद कर देते थे और उसे धूप में छोड़ देते जहाँ गिद्ध आते। गिद्ध हरकत का इंतज़ार करते पर कुछ देख ना पाते, क्योंकि पिंजरे के भीतर आदमी हरकत नहीं कर सकता था। वह चीख़ भी नहीं सकता था , क्योंकि वो उसका मुँह बाँध देते थे। जब वे उसे धूप में छोड़ देते थे, तो जल्द ही गिद्ध मँडराने लगते। वे झिरी के बीच से भारी चोंच डालकर उसे नोचते और उसके मांस के रेशे फाड़ते जाते। तब तक, जब तक वह मर नहीं जाता।...."

मूल विषय के समानांतर ही लेखक और जनार्दन के बीच पुस्तक को लिखने के दौरान आपसी वार्त्तालाप का क्रम चलता रहता है जो बेहद दिलचस्प है। लेखन उनकी भूली हुई यादों को लौटाता तो है पर उन स्मृतियों के साथ ही दर्द का पुलिंदा भी हृदय पर डाल देता है। जनार्दन को ये भार बेहद परेशान करता है। पर जब वो अपने अपराध बोध को सारी बातों के परिपेक्ष्य में ध्यान में रखकर सोचते हैं तो उन्हें अंततः एक रास्ता खुलता सा दिखाई देता है, जिसे व्यक्त कर वो अपने आपको और हल्का महसूस करते हैं।

अपनी कहानी पूरी करने पर वो पाते हैं कि इस किताब ने उनके व्यक्तित्व को ही बदल कर रख दिया। अब वे दोस्तों के साथ व्यर्थ की गपशप में आनंद नहीं पाते और ना ही दारू के अड्डे में उनकी दिलचस्पी रह जाती है। कुल मिलाकर लेखक से उनका जुड़ाव उनमें धनात्मक उर्जा का संचार करता है। इसलिए पुस्तक खत्म करने के बाद अपने आखिरी पत्र में बड़ी साफगोई से लेखक के बारे में वे लिखते हैं

"...मैं नहीं जानता कि आपसे और क्या कहूँ? गुस्से और झगड़ों के बावजूद आपका पास रहना मुझे अच्छा लगता था। इसे स्वीकार करना मेरे लिए बहुत कठिन है, यद्यपि आप मुझसे आधी उम्र के हैं और आपका दिमाग बेकार के किताबी ज्ञान से भरा है, फिर भी मैंने आपसे कुछ सीखा है। मैं आशा करता हूँ कि आप वह सब पाएँ जिसकी आपको तालाश है और जब आप उसे प्राप्त कर लें तो यह भी पाएँ कि वह उतना ही अच्छा है जितनी आपने आशा की थी। आप बुरे आदमी नहीं हैं, यद्यपि आपको बहुत कुछ सीखना है।

आपका मित्र और सहयोगी मूर्ख लेखक
जनार्दन पिल्लै, आराच्चार ....."


सच कहूँ तो ये साफगोई ही इस पुस्तक को और अधिक दिल के करीब ले आती है। लेखक ने उपन्यास की भाषा को सहज और सपाट रखा है और जहाँ तो हो सके एक आम कम पढ़े लिखे व्यक्ति की कथा को उसी के शब्दों में रहने दिया है। २४८ पृष्ठों और १७५ रु मूल्य की इस किताब से एक बार गुजरना आपके लिए एक अलग से अहसास से पूर्ण रहेगा ऍसा मेरा विश्वास है।

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं

असंतोष के दिन, गुनाहों का देवता, कसप, गोरा, महाभोज, क्याप, एक इंच मुस्कान, लीला चिरंतन, क्षमा करना जीजी, मर्डरर की माँ, दो खिड़कियाँ, हमारा हिस्सा, मधुशाला,
मुझे चाँद चाहिए, कहानी एक परिवार की

Monday, November 24, 2008

जल्लाद की डॉयरी : फाँसी लगाने वाले की मनःस्थिति को व्यक्त करता एक अनूठा उपन्यास

आपने मृत्यु को क्या बिल्कुल नजदीक से देखा है? या कभी ये सोचा है कि जब आप किसी को बिना विद्वेष के मार दें तो उसके बाद आपकी क्या मनःस्थिति होगी। कैसा लगता है जब आम जिंदगी में लोग आपको और आपके पेशे को एक तरह के खौफ़ से देखते हैं। एक आम जन के लिए ये सवाल बेतुके और बेमानी से लगेंगे। पर जब बात एक पेशेवर जल्लाद की हो तो ये प्रश्न बेहद प्रासंगिक हो उठते हैं।
इन्ही प्रश्नों को लेकर केरल के एंग्लोइंडियन उपन्यासकार शशि वारियर पहुँच जाते हैं जनार्दन पिल्लै के पास, जिन्होंने त्रावणकोर के राजा के शासन काल और उसके उपरांत में तीन दशकों में ११७ फाँसियाँ दीं थीं। लेखक ने इस उपन्यास में उन सारी बातों को बिना लाग लपेट पाठकों तक पहुँचाने की कोशिश की है जिसे जनार्दन ने अपनी सोच और समझ के हिसाब से लेखक द्वारा दी गई कापियों में लिखा और अपने मरने के पहले लेखक को सौगात के रूप में छोड़ गया।

ये पुस्तक सबसे पहले १९९० में Hangman's Journal के नाम से अंग्रेजी में प्रकाशित हुई और इसका हिंदी संस्करण पहली बार पेंगुइन बुक्स ने यात्रा बुक्स के सहयोग से २००६ में निकला। इस संस्करण का अंग्रेजी से अनुवाद कुमुदनि पति ने किया है। इस उपन्यास का विषय कुछ ऍसा है जो ना चाहते हुए भी आपको ये सोचने के लिए मजबूर कर देता है कि फाँसी के समय जान जाने वाले और लेने वाले की क्या दशा होती है। पर उस बारे में बाद में बात करते हैं पहले ये बताइए कि फाँसी लगने की बात कहते हुए क्या आपने कभी सोचा है कि वास्तव में ये प्रक्रिया है क्या? पर लेखक पाठक को इस दुविधा में ज्यादा देर नहीं रखते और उपन्यास का आगाज़ कुछ यूं करते हैं...

"......इसे पतन कहते हैं
इसके लिए जेलरों के पास एक लघु तालिका होती है, यह बताने के लिए कि अपराधी व्यक्ति गर्दन में लगे फंदे सहित कितनी दूरी तक गिरे जिसे उसका काम सफाई से तमाम हो। विशेषज्ञों का कहना है कि उसे उतना ही गिरना चाहिए कि उसके वेग से रस्सी उसकी गर्दन तोड़ दे। यदि शरीर अधिक दूर गिरता है तो रस्सी उसकी गर्दन में धँस जाती है और बहुत संभव है कि सिर को अलग कर दे। यदि शरीर पर्याप्त दूरी पर नहीं गिरता है तो गर्दन नहीं टूटेगी और व्यक्ति को दम घुटकर मिटने में कुछ मिनट लगेंगे।..."

जनार्दन अपने संस्मरण में कई बार फाँसी देने के पहले होने वाली क़वायद का जिक्र करते हैं। फाँसी के तख्ते का परीक्षण पहले बिना वज़न के और फिर वज़न के साथ किया जाता है। जल्लाद का सबसे प्रमुख कार्य होता है रस्सी की गाँठ को सही जगह लगाना। गाँठ सही जगह लगी तो गर्दन तुरंत टूटती है वर्ना क़ैदी की दम घुटकर धीरे धीरे मौत होती है। पुराने ज़माने में रस्सी खुद जल्लाद तैयार करता था। रस्सी का उस हिस्से को चिकना रखने के लिए जो गर्दन को छूता है, मक्खन या रिफांइड तेल का इस तरह इस्तेमाल होता था कि मक्खन रस्सी के रेशों में पूरी तरह समा जाए। अब तो नर्म कपास का प्रयोग होने लगा है।

तख्ता, लीवर, रस्सी की जाँच के बाद लीवर छोड़ा जाता है तो तख्ता नीचे दीवार से लगी पैडिंग से टकराता है जो आवाज़ को कम करने के लिए लगाया गया होता है। परीक्षण हो चुका है। सब कुछ सहजता से सम्पन्न होने के बाद भी जनार्दन असहज महसूस कर रहे हैं। वे जानते हैं कि आज की रात फाँसी लगने के पहले वाली रात कोई क़ैदी उनसे आँखें नहीं मिलाएगा। उस रात जनार्दन खुद से सवाल पूछते हैं

"..मौत को जीवन से सहज बनाने के लिए हम अपने जीवन का इतना समय क्यूँ लगा देते हैं? .."

पर ये किताब फाँसी की प्रक्रिया से कहीं ज्यादा फाँसी देने वाले के अन्तर्मन में झाँकती है और यही इस उपन्यास का सबसे सशक्त पहलू भी है। किसी को मारना चाहे वो आपकी ड्यूटी का हिस्सा क्यों ना हो मानसिक रूप से बेहद यंत्रणा देने वाला होता है। और जनार्दन इस यंत्रणा से हर फाँसी के बाद डूबते उतराते हैं। क्यों ये पेशा चुना उन्होंने? पेट पालने के लिए इसके आलावा कोई चारा भी तो नहीं था। मन को समझाते हैं। आखिरकार वे राजा के निर्णय का पालन भर कर रहे हैं। वो राजा जिसे धरती पर भगवान का दूत बनाकर भेजा गया है। पर कुछ सालों के बाद जब जनार्दन स्कूल के समय के अपने पुराने शिक्षक से मिलते हैं तो वे राजा के भी एक सामान्य इंसान होने की असलियत से वाकिफ़ होते हैं और उनके दिल पर हत्या का बोझ हर फाँसी के बाद बढ़ता चला जाता है।

पर किसी की जान लेने के पाप से बचने का डर सिर्फ जल्लाद की परेशानी का सबब नहीं था,. खुद राजा भी इस पाप के भागीदार नहीं बनने के लिए एक अलग तरह की नौटंकी को अंजाम देते थे। लेखक ने इस दिलचस्प प्रकरण का खुलासा अपनी पुस्तक में किया है।
हर मृत्युदंड के ठीक पहले वाले दिन दोपहर तक उसकी क्षमा याचना की अर्जी राजा के पास पेश की जाती थी। राजा शाम को फाँसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल देते पर उनके इस निर्णय को अमल में लाने के लिए उनका हरकारा सूर्योदय के बाद निकलता ताकि जब तक वो जेल तक पहुँचे, फाँसी लग चुकी हो। पता नहीं राजा ऍसा करके किसको छलावा देते थे पर बेचारा जल्लाद क्या करता उसके पास तो इन छलावों की ढाल भी नहीं थी। इसलिए तो उन दी गई फाँसियों के बारे में जनार्दन सोचना नहीं चाहता। उसे लेखक पर क्रोध आता है कि क्यों उनके चक्कर में पड़ा। पर सोचना पड़ता है चेतन मन में ना सही तो अचेतन स्वप्निल मन से....

".....मैं पहले सीढ़ियाँ देखता हूँ, बेतरतीब पत्थर की सीढ़ियाँ, जो फाँसी के तख्ते के नीचे बने अँधेरे कुएँ की ओर जाती हैं। .............फाँसी के तख़्ते पर, फंदे के ठीक नीचे नकाब पहने आदमी खड़ा है। उसकी धारीदार पोशाक कड़क ओर ताजा है। वह नक़ाब कुछ अज़ीब सा है।........ सुदूर ढोल की आवाज़ तेज होती है और मैं समझ जाता हूँ कि क्या गड़बड़ी है। नक़ाब अधिक चपटा सा है। कम से कम वो उठा हुआ हिस्सा होना चाहिए , जहाँ आदमी की नाक उठती है। ....अंतरदृष्टि से एक पल में जान लेता हूँ कि नकाब के पीछे कोई चेहरा नहीं है।
नक़ाब ही चेहरा है।

भय गहरा होता जाता है . मुझे यहाँ से किसी तरह बच निकलना है। वह लोहे का दरवाज़ा मुझसे लगभग तीस फुट दूर है पर मैं दौड़ नहीं पा रहा हूँ। मैं बहुत तकलीफ़ के साथ धीरे धीरे दरवाज़े तक पहुँचता हूँ, पर यह क्या? दरवाज़े पर भारी ताला पड़ा है जिसे मैं हिला नहीं सकता।
किसी पूर्वाभास के चलते मुड़ता हूँ। वहाँ चपटे नक़ाब वाला आदमी दिखता है, उसके हाथ पैर पूरी तरह मुक्त हैं। मैं अपनी गर्दन के इर्द गिर्द उसके मज़बूत हाथों को कसता हुआ महसूस करता हूँ। मैं सांस नहीं ले पा रहा
... मैं आँखें बंद करने की कोशिश करता हूँ ताकि उसका चपटा सा नक़ाब मेरी आँखों से ओझल हो जाए, पर लाख चाहकर भी ये संभव नहीं हो पाता। जैसे जैसे अपने घुटनों पर धसकता जाता हूँ मुझे मालूम होता है कि मेरी छाती के भीतर दिल फट जाएगा।..."


जनार्दन ऍसे स्वप्न से अचानक जाग उठे हैं। पर अपनी पुरानी यादों को ताज़ा करने के क्रम में ये स्वप्न और भयावह होते जाते हैं। आखिर कौन सा अपराध बोध उन्हें सालता है और उससे निकलने के लिए वे किस तरह अपने आपको मानसिक रूप से तैयार करते हैं ? इन बातों से जुड़ी इस रोचक और एक अलग तरह के उपन्यास की चर्चा जारी रहेगी अगली कड़ी में ...

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं

असंतोष के दिन, गुनाहों का देवता, कसप, गोरा, महाभोज, क्याप, एक इंच मुस्कान, लीला चिरंतन, क्षमा करना जीजी, मर्डरर की माँ, दो खिड़कियाँ, हमारा हिस्सा, मधुशाला,
मुझे चाँद चाहिए, कहानी एक परिवार की'

 

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस अव्यवसायिक चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie