10.5.11

मन के माने -


(भाग-३)


ठाकुर जी ने त्यागा अपना मंदिर आ दिन भर डोलते रहते थे सेवक के संग संग..उनसे पूछ पूछ उनके पसंद के ज्योनार तैयार करता सेवक तो ठाकुर जी भी हर काम में उसकी मदद करते..दो जने मिलते तो झटपट निपट जाता सारा काम ..और जैसे ही सेवक निपटता,ठाकुर जी उसे साथ लेकर तरह तरह के खेल खेलने में व्यस्त हो जाते..जिस सेवक ने कभी जाना ही नहीं कि बचपन क्या होता है, मुरलीधर के साथ बालपन का स्वर्णिम सुख लूट रहा था..

कुछ दिनों तक तो लीला आश्रम प्रांगण में ही सिमटी रही पर धीरे धीरे यह बाहर भी निकली...अब दोनों जने आश्रम की गायों, ढोरों आदि को ले दूर जंगल में निकल जाते और उहाँ पहुँच जो ठाकुर जी बंसी की धुन छेड़ते तो जंगल के सभी जीव जंतु आकर इन्हें घेर लेते..जल्दी ही जंगल के कई चरवाहे आकर इनके मित्र बन गए और फिर नित्यप्रति ही मंडली आश्रम में जीमने लगी..सब जने जमा होते आ खूब पूरी कचौड़ी उड़ाई जाती..

मजे तो खूब थे,लेकिन गड़बड़ी यह हुई कि बाबा जी का साल भर के लिए जमा किया हुआ राशन पानी का स्टाक बीस बाइस दिन जाते जाते झाँय हो गया..सेवक घोर चिंतित कि अब ठाकुर जी को क्या खिलाया जाय..इधर ठाकुर जी का खुराक भी चार गुना हो गया था..जब तब सेवक से किसी न किसी आइटम की फरमाइश किया करते थे..अनाज का जुगाड़ कहाँ से किया जाय, इसका कोई आइडिया नहीं था बेचारे को..अंत में उसने युक्ति निकाली.. अक्सर ही वह देखता था, बाबा एकादशी या कोई अन्य तिथि बताकर फलाहार या उपवास किया करते थे..अब उन्हें उपवास तो नहीं करवा सकता था , पर आश्रम में फल मूल इतने थे कि फलाहार के नाम पर आराम से कई दिनों तक इनपर गुजर हो सकता था..तो अगले दिन से कभी एकादशी तो कभी कोई और तिथि बताकर वह ठाकुर जी को तरह तरह के फल जुटाकर खिलाने लगा.उनके जो संगी साथी आते ,उन्हें भी फलाहार ही कराता..पर हाँ,इतना था कि अपने लिए वह इन फलों का न्यूनतम उपयोग किया करता, ताकि अधिकाधिक समय तक इनसे काम चला सके..

महीने भर के जगह पर सवा महीने लगा दिए बाबा जी ने वापस आने में और तबतक तो यह हालत हो गई थी कि कई दिनों से ठाकुर जी को फल जिमाकर सेवक खुद केवल जल पर ही दिन काट रहा था..बाबा जी के इन्तजार का एक एक घड़ी उसको पहाड़ लग रहा था..जैसे ही बाबा जी को उसने देखा,उसके जान में जान आई.भागकर वह बाबा के चरणों में लोट गया..पर उसकी जीर्ण स्थिति देख बाबा चिंतित हो गए..उन्हें अंदेशा हुआ कि कहीं सेवक को किसी रोग वोग ने तो नहीं धर लिया..

बाबा ने पूछताछ शुरू की और जो कारण यह जाना कि अन्न के बिना सेवक की यह हालत है..कुल भण्डार निपट चुका है...बाबा को अपने कानो पर विश्वास नहीं हुआ. लम्बे डग भर वे भण्डार में पहुंचे..बात सत्य थी..बाहर नजर घुमाई तो देखा पेड़ों पर फूल बतिया के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं..बाबा परेशान कि ऐसा कैसे हो सकता है कि एक वर्ष का अन्न महीने भर में कोई खा जाय ,आ और तो और फलों से लदे रहने वाले बगीचे में पेड़ों पर बतिया भी न बचे..

तरह तरह की आशंकाओं से बाबा का दिमाग भर गया. कड़ककर उन्होंने सारा हिसाब माँगा ...और जो भी था,पर सेवक की इमानदारी पर कभी किसीने शक न किया था.अपने पर इल्जाम लगता देख सेवक तिलमिला उठा और बताने लगा कि कब कैसे क्या खर्च हुआ..ठाकुर जी ने कब क्या खाया और उनके दोस्तों ने कितनी दावतें उड़ाई..बाबा कड़के..क्या कहा,ठाकुर जी ने सब खाया..कैसे खाया...ठाकुर जी कैसे खा सकते हैं ???

सेवक के आँखों से आंसू झरने लगे..बाबा का पारा सातवें आसमान पर ..एक तो चोरी,ऊपर से रो के दिखा रहा है..बाबा दहाड़े ..ठाकुर जी पर इल्जाम लगाता है..ठाकुर जी खाते हैं,चल खिला कर दिखा ठाकुर जी को..देखूं कैसे खाते हैं ठाकुर जी..यह कहकर उन्होंने रास्ते के चने चबेने वाली पोटली फेंकी सेवक की ओर..थाली में उसे सजाकर सेवक पहुंचा ठाकुर जी के मंदिर..दिल तो उसका चाक चाक हुआ जा रहा था पर चबेना पाते ही सबसे पहले उसके दिमाग में यह आया कि चलो अच्छा हुआ बाबा की पोटली से ठाकुर जी के खाने का इंतजाम हो गया ,नहीं तो कई दिन से बेचारे फलाहार पर ही समय काट रहे थे.. उत्साहित मन वह ठाकुर जी को खिलाने पहुंचा..उसने सोचा , चलो पहले प्रभुजी को यह खिला दिया जाय..फिर तो आपै आप वे मेरी गवाही दे ही देंगे, मुझे कुछ कहने की जरूरत ही कहाँ रहेगी.

पर यह क्या, सामने परोसी थाली, इतने दिन से अन्न को तरस रहे ठाकुर जी पर आज वे अन्न को हाथ ही नहीं लगा रहे..खूब अनुनय विनय की सेवक ने, पर प्रभु होठों पर मुरली धरे पत्थर की मूरत बने हुए..सेवक परेशान कि ये क्या बात हुई..रोज तो मांग मांग कर परेशान कर देते थे और आज ये सामने परोसी थाली छोड़कर मूरत क्यों बने हुए हैं..और उधर बाबा, आपे से बाहर..अपने हाथ की छडी ले वे पिल पड़े सेवक पर..उसे झूठा, चोर ,धोखेबाज़ ,मक्कार और न जाने क्या क्या कहने लगे..अपने आप को वे ठगा महसूस कर रहे थे, क्योंकि सेवक पर अपार विश्वास किया था उन्होंने.. क्रोध के अतिरेक ने उनका धैर्य क्षमा वैराग्य, सब बहा दिया था..

सेवक रोता जाता था और अपने को बेक़सूर बताता जाता था. उसका दिल अलग फटा जा रहा था कि देखो जिसकी इतने दिन से इतने मन से सेवा की, जो मुझे दोस्त दोस्त कहते न थकता था, उसके सामने मेरी सब गति हो रही है,मुझे चोर धोखेबाज ठहराया जा रहा है और वह चुपचाप खड़ा सुन रहा है..माथा पीट पीटकर वह रोने लगा..और तब प्रभु प्रगटे और भोजन की थाल लेकर खुद भी खाने लगे और सेवक के मुंह में भी डालने की चेष्टा करने लगे..हवा में लटका थाल ,हवा में जाता हुआ कौर तो बाबा जी को दिखा पर आधार उन्हें न दिखा..

लेकिन उन्हें समझते देर न लगी कि सेवक ने झूठ नहीं कहा था..प्रभु ने सचमुच सेवक की सेवा प्रत्यक्ष होकर स्वीकारी थी...अब चूँकि उनकी आँखों पर माया और अविश्वास का चश्मा चढ़ा हुआ था, तो ठाकुर जी का साकार रूप दीखता कैसे ..कितने अभागे हैं वे और कितना भाग्यवान है सेवक..रोम रोम में रोमांच भर आया बाबा के..आँखों से अविरल अश्रुधारा बरस पड़ी..कातर भाव से कह उठे, प्रभु,मुझपर भी दया करो, मुझे भी दर्शन दे दो प्रभु...

और जब मन ने समस्त आवरण उतार प्रभु दर्शन और मिलन की उत्कट अभिलाषा की बाबा ने, भक्ति शिखर पर पहुँच कातर याचना की ... प्रभु नयनाभिराम हो उठे..विह्वल हो उठे बाबा. आज जन्म सार्थक हो गया था उनका. आज उन्हें समझ में आया था कि आजतक वे प्रभु की जो सेवा करते थे, वह धार्मिक कर्मकांड मान करते थे,जिससे उनकी आध्यात्मिक उन्नति होती..उनके मन मस्तिष्क ने यह कभी माना नहीं था कि प्रभु साकार रूप में भी भक्तों के बीच उन जैसे ही बनकर रहते हैं...और जब माना नहीं था तो इस असंभव की अभिलाषा भी उन्होंने कभी नहीं की थी.लेकिन सेवक, उसको उन्होंने जो कहा सेवक ने निर्मल भाव से उसे मान लिया और उसके मन के विश्वास ने निराकार को साकार कर दिया..


त इस तरह कथा हुई संपन्न...

इतिशुभम !!!


हम अक्सर कहते सोचते रहते हैं, अमुक अमुक बुराई हम छोड़ना चाहते हैं,यह यह अच्छा करना चाहते हैं,ऐसा अच्छा बनना चाहते हैं,पर क्या करें ,हमसे हो नहीं पाता.. कुल्लमकुल हथियार डाल देते हैं पहले ही.. याद नहीं रख पाते कि मन के माने हार है,मन के माने जीत.पहले मन को कन्विंस कर के अपने अन्दर के बुराई,कमजोरी का समूल नाश करने का यदि हम प्रण ले लें ,तो पत्थर के ईश्वर यदि साकार हो सामने उपस्थित हो सकते हैं,तो ऐसा क्या है जो हम नहीं कर सकते..

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25 comments:

संजय भास्कर said...

रंजना जी
बहुत ही सुंदर पोस्ट बहुत बहुत बधाई |

निर्झर'नीर said...

शुभम !!!
मन द्रवित हो गया आपकी भक्ति कथा पढ़कर

प्रवीण पाण्डेय said...

भक्ति का हीरक रत्न, उत्कृष्ट प्रवाह और गहराई।

shikha varshney said...

इति शुभम ..
सुन्दर कथा.

ashish said...

ये तो वही बात हुई ना की मन चंगा तो कठौती में गंगा . निश्चल प्रेम ही प्रभु की सबसे बड़ी उपासना है . कहानी पढ़ते हुए भक्ति भाव हिलोरें मार रहा था .

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

आदरणीया रंजना जी ,
भक्ति गंगा में गोते लगाकर बड़ा आनंद आया | वास्तव me प्रभु तो प्रेम भाव के भूखे हैं | सच्चे मन और विश्वास से उनके निकट पहुँचने की अभिलाषा प्रभु का साक्षात् दर्शन ही करा देती है |

देवेन्द्र पाण्डेय said...

प्रभु तो प्रेम भाव के भूखे...

क्या सेवक था, वाह ! अपने सेवा भाव से खुद तो प्रभु का दर्शन कर ही लिया मालिक का भी जन्म सफल कर गया ।
सच्चाई व ईमानदारी से किये गये कर्म अवश्य सफल होते हैं ।
..तीनो किश्त लाज़वाब है।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

प्रभु तो प्रेम भाव के भूखे...

क्या सेवक था, वाह ! अपने सेवा भाव से खुद तो प्रभु का दर्शन कर ही लिया मालिक का भी जन्म सफल कर गया ।
सच्चाई व ईमानदारी से किये गये कर्म अवश्य सफल होते हैं ।
..तीनो किश्त लाज़वाब है।

रश्मि प्रभा... said...

kram se sabko padha aur bahut hi achha laga ....

gyanduttpandey said...

ओह! नाथद्वारा के मन्दिर के बारेमें भी एक कथा है कि एक छोटे लड़के के साथ कन्हैया खेलते थे। एक बार पुजारी आने लगे तो कन्हैया दन्न से मन्दिर में गुम! बच्चे ने मन्दिर के बाहर कोहराम मचा दिया कि ये कन्हैया मेरा अण्टा ले कर भाग गया है।
और फिर अण्टा नाथद्वारा की कृष्ण प्रतिमा के पास रखा पाया गया!
निर्मल मन हो तो बहुत जटिल साधना की दरकार नहीं होती!

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर कथा, ऎसी ही एक कथा पंजाबी मे भी हे धन्ना जट नाम से, धन्यवाद

कुश्वंश said...

आदरणीया रंजना जी ,
बहुत सुंदर कथा,भक्ति भाव में बड़ा आनंद
आया.तीनो किश्त लाज़वाब, धन्यवाद.

डॉ॰ मोनिका शर्मा said...

बहुत सुंदर .... गहराई से लिखी पोस्ट जो मन को छू गयी..... आखिरी पंक्तियाँ बहुत सकारात्मक सन्देश लिए हैं.... और प्रभावित करती हैं....

बाबूलाल गढ़वाल "मंथन" said...

सुंदर पोस्ट बधाई |

मनोज कुमार said...

रोचक शैली में लिखी यह रचना बहुत पसंद आई।

Smart Indian - स्मार्ट इंडियन said...

सुन्दर कथा। इसे कहते हैं "गुरु गुड रह गये चेला शक्कर हो गये"

Arvind Mishra said...

निश्छल प्रेम हो तो मूरत से भी भगवान् प्रगट हो जायं

वाणी गीत said...

भक्ति ही तो पत्थर को भगवान् बना देती है ...
बहुत सुन्दर कथा !

रचना दीक्षित said...

मन के माने हार है,मन के माने जीत.

बहुत सुंदर विचार. सुंदर कथा.

Avinash Chandra said...

मन हर्षित हुआ पढ़ कर। :)

दिगम्बर नासवा said...

अच्छी लगी ये बोध कथा .. सार्थक चिंतन है .... अक्सर ऐसा होता है .. कोई भी काम शुरू करने से पहले ही हम हार मान लेते हैं और फिर यही भावना उस कार्य को करते हुवे रहती है ... मन में लगन और निश्चल भाव हो तो प्रभू भी आ जाते हैं ...

सुधाकल्प said...

बहुत ही सुंदर और रुचिकर कथा है।
सुधा भार्गव
subharga@gmail.com
baalkunj.blogspot.com

mahendra verma said...

निस्वार्थ भक्ति के लिए प्रेरित करती सुंदर बोध कथा।
यदि ईश्वर के प्रति आस्था सुदृढ़ हो तो असंभव कार्य भी संभव हो जाता है।

mahendra verma said...

निस्वार्थ भक्ति के लिए प्रेरित करती सुंदर बोध कथा।
यदि ईश्वर के प्रति आस्था सुदृढ़ हो तो असंभव कार्य भी संभव हो जाता है।

Patali-The-Village said...

सच्चाई व ईमानदारी से किये गये कर्म अवश्य सफल होते हैं ।