Tuesday, June 30, 2009
आँख में दर्द है कि पत्थर है .....
आँख में दर्द है कि पत्थर है
अपनी दहलीज़ से उतरता नहीं
दिल में क्यों घर बनाए बैठा है
एक ख्वाबीदा ख्वाब ... मरता नहीं ?
चंद वादे कुछ एक हर्फ़-ए-वफ़ा
इन पे मौकूफ़ ज़िन्दगी कर दी
चंद अफ़साने एक हर्फ़-ए-अज़ल
और इक शख्स पे खुदी कर दी ??
नाम के वास्ते जिन्हों ने यहाँ
हर्फ़-ए-हक़, हर्फ़-ए-वफ़ा तोड़ दिया
उनको क्या इल्म-ए-खुदा हो आखिर
जिन ने पास-ए-वफ़ा ही छोड़ दिया !
ज़िन्दगी तल्ख़ है तो तल्ख़ सही
रोज़ मिटते हैं लाख हर्फ़ ऐसे
प्यार को प्यार समझ लेते हैं
और भी होंगे ही कमज़र्फ़ ऐसे !!
ख्वाबीदा ख्वाब = सोया हुआ ख्वाब
हर्फ़-ए-वफ़ा = प्यार के शब्द
मौकूफ़ = मुल्तवी, स्थगित
हर्फ़-ए-अज़ल = वो समय जिस कि शुरुआत न हुई हो .. उस की बात
खुदी = अंहकार
हर्फ़-ए-हक़ = सच्चाई की बात
पास-ए-वफ़ा = वफ़ा का लिहाज़
कमज़र्फ़ = तंग नज़र
Saturday, June 27, 2009
अंधेरों से रिसती हैं ...... तुम्हारी यादें
अंधेरों से रिसती हैं -
तुम्हारी यादें
तुम्हारी बातें .....
तुम्हारा लम्स
उंगलियाँ किताबों के पन्ने पलटती हैं
क्यों ?
ज़ुबान तो खामोश है !!
खिड़की के उस पार से
चाँद ......
आज मेरे कमरे में नहीं उतरता
वो उसी झील में गिर रहा है ......
कंधे को कमी महसूस होती है
फूलों की ...
तुम्हारे लब भी तो खुश्क हो गए होंगे ?
क्या ज़रूरी है ...
ऎसी रातों में आ कर
तुम कुछ नासूर
कुरेद ही दो ??
Saturday, June 20, 2009
क़व्वालियाँ : बाबा बुल्ले शाह ..... नुसरत !!
दोस्तो ..... क़व्वालियों की बात चले तो मेरे ख़याल से एक श्रृंखला तो सिर्फ़ "बाबा बुल्ले शाह" और "नुसरत फ़तह अली खान" की क़व्वालियों की ही हो सकती है.
कुछ लोग नुसरत की आवाज़ में क़व्वाली सुनना चाहते हैं तो कुछ सूफ़ियाना रंग में कोई क़व्वाली......
तो लीजिये सुनिए "बाबा बुल्ले शाह" की ये क़व्वाली....... "नुसरत" की आवाज़ में .....
और हाँ ..... इस से पहले कि भूल जाऊं ....... पिछली क़व्वाली जब पोस्ट कि थी तो मैं ने पूछा था कि वो आवाज़ किस की है ......... ये रहा जवाब : उस बेहद मकबूल क़व्वाली की गायिका का नाम है ....."प्रभा भारती".
बहरहाल आज सुनिए ये क़व्वाली .... नुसरत की आवाज़ में बाबा बुल्ले शाह के बोल ..........
Tuesday, June 16, 2009
चलो अब 'मीत' घर को लौट जाएँ
फ़ैसिला आखि़री जब भी सुनाया
क्या मिरा ज़िक़्र तक नहीं आया
वादे करने की इतनी फ़ुर्सत थी
वफ़ा करने का दिन नहीं आया
बहुत फ़िरदौस की बातें सुनीं थीं
न था दामन तिरा न सर पे साया
ख़ुदा करता भी तो क्या याद मुझे
वक़्त-ए-रुख़सत तुझे ही जब न आया
चलो कुछ बात बेफ़िक्री की कर लें
बहुत दिन में है तन्हा ख़ुद को पाया
था दिल अपना सो जी भर के जलाया
न क्यों फिर आज तुम ने ही रुलाया
ज़िन्दगी थी तो बहुत तल्ख़ मगर
सर पे था तेरी याद का साया
ये जी में है चलो अब जी के देखें
ज़माने के फुसूं से जी भर आया
मुक़द्दर क्या, ख़ुदा है नाम किस का
ज़मीर अपना, तिरी यादों का साया
चलो अब 'मीत' घर को लौट जाएँ
सर-ए-महफ़िल तो अब तू है पराया
फ़िरदौस = स्वर्ग
ख़ुदा करता भी तो क्या याद मुझे
वक़्त-ए-रुख़सत तुझे ही जब न आया
ये शेर जान बूझ के यूं लिखा है !!
वक़्त-ए-रुख़सत = विदाई के समय
तल्ख़ = कड़वी
फुसूं = जादू, मायाजाल
Wednesday, June 10, 2009
क़व्वालियाँ : एक बहुत मशहूर नाम .... लेकिन ये नाम तो पहचानें !!
Sunday, June 7, 2009
दरवाज़ा खुला रखना .... : "इब्ने इंशा"
दरवाज़ा खुला रखना ....
दिल दर्द की शिद्दत से खूँगश्ता-सीपारा
इस शहर में फिरता है इक वहशी-ओ-आवारा
शाइर है कि आशिक़ है, जोगी है कि बंजारा ?
दरवाज़ा खुला रखना ....
सीने से घटा उट्ठे, आँखों से झड़ी बरसे
फागुन का नहीं बादल, जो चार घड़ी बरसे
बरखा है ये भादों की, बरसे तो बड़ी बरसे
दरवाज़ा खुला रखना ....
आँखों में तो इक आलम, आँखों में तो दुनियाँ है
होठों पे मगर मुहरें, मुंह से नहीं कहता है
किस चीज़ को खो बैठा - क्या ढूँढने निकला है
दरवाज़ा खुला रखना ....
हाँ थाम मुहब्बत की गर थाम सके डोरी
साजन है, तेरा साजन, अब तुझ से तो क्या चोरी
ये जिस की मुनादी है बस्ती में तेरी गोरी
शिकवों को उठा रखना, आँखों को बिछा रखना
इक शम्मा दरीचे की चौखट पे जला रखना
मायूस न फिर जाए, हाँ पास-ए-वफ़ा रखना
दरवाज़ा खुला रखना ....
दरवाज़ा खुला रखना ....
इब्ने इंशा
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