मंगलवार, २६ जुलाई २०११

gudgudi


गुदगुदी

मेरा पोता रोज़ रात में सोने से पहले मुझसे गले मिल कर ‘गुड नाइट’ कहने आता है।  वह तब तक मुझसे लिपटा रहता है जब तक मैं उसे गुदगुदी न करूँ। इस गुदगुदी से वह कसमसाता है और हँसते हुए ‘गुड नाइट’ कह कर चला जाता है।  यह प्रक्रिया सुबह भी चलती है जब वह उठ कर ‘गुड मार्निंग’ कहता है।  


गुदगुदी का चलन प्राचीन काल से चलता आ रहा है, भले ही उसका नामकरण संस्कार न किया गया हो।  कृष्ण ने सुदामा को परोक्ष रूप से गुदगुदी ही तो की थी जब उन्होंने बिन बताए ही सुदामा को धन-धान्य से सम्पन्न कर दिया था।  ज़रा सोचिए कि झोंपड़ी के स्थान पर महल को देख कर सुदामा को कितनी गुदगुदी हुई होगी।  इस गुदगुदी से उनके सारे बदन में झुरझुरी फैल गई होगी।

हाँ, कभी ऐसी गुदगुदी प्राण घातक भी हो सकती है।  कल्पना कीजिए कि यदि सुदामा का हृदय कमज़ोर होता तो इस गुदगुदी से हार्ट फ़ेल का खतरा भी हो सकता था।  प्रत्यक्ष रूप से हम देख सकते हैं कि जिनकी आँखें कमज़ोर हैं, उन्हें गुदगुदी करने पर आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं।  बेचारे कमज़ोर हृदयी की गति तो चिकनहृदयी ही बेहतर जान सकता है।

गुदगुदी करते समय उस व्यक्ति के शारीरिक और मौखिक हालत तो देखने लायक होती है।  उसका शरीर कई मोड़ ले लेता है जैसे किसी पहाडी की पगडंडी हो और मुखमुद्रा सुबह की लाली लगने लगती है।  यदि व्यक्ति मोटा हुआ तो उसकी तोंड किसी बिश्ती की थैली की तरह थुलथुल हिलती रहती है। 

गुदगुदी करते हैं तो हँसी आ ही जाती है।  हँसी भी कई प्रकार की होती है।  यह उस व्यक्ति पर निर्भर होता है कि वह किस प्रकार की हँसी का मालिक है।  

जो व्यक्ति हश्शाश-बश्शाश है, वह तो बिना गुदगुदाए भी हँसता रहता है।  गुदगुदी पर उसकी हालत का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है।  दूर से ही उँगलियाँ हिलाने पर वह हँसना शुरू कर देगा और गुदगुदी कर दी तो वह लोट-पोट हो जाएगा।  समाचार पत्र में कभी पढ़ा भी था कि एक व्यक्ति हँसते-हँसते मर गया।  ऐसी गुदगुदी को निश्चय ही ‘घातक गुदगुदी’ का विशेषण जड दिया जा सकता है।  अच्छा हो कि हम ऐसी गुदगुदी से बचें और अपनी उँगलियाँ ऐसे व्यक्ति की ओर बढ़ाने के पहले उसकी मेडिकल रिपोर्ट जाँच लें।


संजीदा मिजाज़ वाला केवल मुस्कुरा देगा।  शायद उसके दाँत भी देखने को न मिले। ऐसे व्यक्ति की पत्नी की दयनीय हालत पर केवल दया ही व्यक्त कर सकते हैं जो अपने पति की एक इंच मुस्कान देखने के लिए तड़पती होगी।

यदि यह पढ़कर आपके मन में गुदगुदी हुई तो यह समझ लीजिए कि मेरे चेहरे पर दो इंच मुस्कान दौड़ गई है॥


बृहस्पतिवार, २१ जुलाई २०११

बोनालु- bonalu



एक स्थानीय पर्व - बोनालु


आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में बोनालु त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। यह त्यौहार खास तौर पर हैदराबाद-सिकंदराबाद नगर-द्वय में बहुत हर्षो-उल्हास से मनाया जाता है।   आषाढ़ मास के प्रारम्भ के प्रथम रविवार को यह पर्व प्रसिद्ध दुर्ग गोलकोण्डा से प्रारम्भ होता है।  दूसरे रविवार को सिकंदराबाद में तथा तीसरे रविवार को सारे शहर के काली माता के मंदिरों में पूजा-अर्चना के साथ इसका समापन होता है।  इसे एक प्रकार से माता को धन्यवाद का त्यौहार माना जाता है।  यह माना जाता है कि माँ काली साल भर इस स्थान और इसकी संतान की रक्षा करती है जिसके लिए यह संतान अषाढ़ मास में धन्यवाद स्वरूप धूमधाम से पूजा करती है।

बोनालु शब्द की उत्पत्ति भोजनालू से हुई।  घर-घर से महिलाएँ माता काली के लिए अपने घर से भोजन बना कर ले जाती है और माता को चढाती है।  इस भोजन को ले जाने की भी एक विशेष प्रक्रिया होती है।  महिलाएँ माता के भोजन के लिए स्नानादि करके शुद्ध होकर एक खास किसम का भोजन बनाती है।  इस भोजन मे चावल को दूध और शक्कर में पकाया जाता है।  कोई-कोई प्याज़ का भी प्रयोग करते हैं।  इस पकवान को एक पीतल या मिट्टी के छोटे से मटके में रखा जाता है जिसके ऊपर एक कटीरी ढाँपी जाती है।  इस कटोरी में घी या तेल की बाती बना कर दिया जलाया जाता है।  इस मटके को हल्दी, कुमकुम और खडी से पोत कर रंगा जाता है।  मटके के इर्दगिर्द नीम की छोटी डालियां लगा कर सजाया जाता है। इस  पूजा के लिए महिला अपनी सब से भारी सिल्क की साड़ी पहन कर बोनम को[भोजन से भरा मटका]  सिर पर लिए निकलती है।  इस प्रकार जब सजधज कर महिलाएँ एक साथ निकलती है तो वह जलूस का आकार ले लेता है।

बोनाम को सिर पर रखे महिलाएं बाजे-गाजे के साथ निकलती है।  इस बाजे की धुन पर उनके पैर भी थिरकने लगते हैं और कुछ महिलाएँ नाचने भी लगती हैं। वे इतनी दक्ष होती हैं कि इस नृत्य पर भी उनके सिर से मटका नहीं सरकता है।  कभी कभी तो कुछ महिलाएँ एक ट्रांस [अवचेतनावस्था] में चली जाती है और झूलने लगती हैं।  उन्हें माता का स्वरूप मान कर उन पर से निंबू काट कर फेंके जाते है और रास्ते भर उनके पैरों पर पानी छिड़का जाता है।  इस प्रकार भक्ति से विभोर होकर ये महिलाएँ माता काली के मंदिर में पहुँचती हैं और उन्हें बोनम चढ़ाती हैं।

बोनाम ले जाते हुए हैदराबाद की मेयर श्रीमती कार्तिका रेड्डी,  आंध्र प्रदेश की वरिष्ट मंत्री डॉ. गीता रेड्डी और भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री श्रीमती रेणुका चौधरी


माता काली को विभिन्न नामों से जाना जाता है और उस स्थानीय मंदिर को इसी नाम से ख्याति मिलती है; जैसे, मैसम्मा, पोचम्मा, एलम्मा आदि।  गंडीपेट के पास स्थित मंदिर को गंडी मैसम्मा कहा जाता है तो सिकंदराबाद के मंदिर को उज्जैनी महांकाली।

बोनालु पर्व के समय इन मंदिरों को रंग-बिरंगे फूलों और लाइटों से सजाया जाता है।  रात के समय इनकी रौशनी देखने लायक होती है।  दर्शकों कि गहमा-गहमी और शोरगुल में लाउडस्पीकर पर बज रहे माता के गानों का इतना योगदान होता है कि पड़ोसी की बात भी कानों में नहीं पड़ती।  कभी-कभी तो आसपास के लोग इस शोरगुल बेहाल हो जाते हैं और पुलिस की शरण लेते हैं जो इस शोर को रात में कम करने का आदेश देते हैं।

नगर-द्वय हैदराबाद-सिकंदराबाद के बोनालु का पर्व गोलकोंडा किले के जगदम्बिका मंदिर से प्रारम्भ होता है।  यह पर्व आषाढ के प्रथम सप्ताह के रविवार को मनाया जाता है।  इस पर्व के दूसरे दिन मेला [जातरा] लगता है जहाँ बच्चों के लिए खिलौनों की दुकानों से लेकर बड़ों के लिए नारियल, फूल आदि पूजा की सामग्री की दुकानें फुटपाथों पर भी बिखर जाती हैं।  इस जातरा का आनंद तो बच्चे ही अधिक उठाते है।

गोलकोंडा किले में बोनालु मनाने के अगले रविवार को सिकंदराबाद के उज्जैनी महांकाली मंदिर में ज़ोर शोर से यह पर्व मनाया जाता है।  इस पर्व की एक विशेषता यह है कि यहाँ वरिष्ठ राजनेता भी माथा टेकने और महिला मंत्रियां बोनम सिर पर उठाए अन्य महिलाओं के साथ मंदिर में प्रसाद चढाती हैं।

दूसरे दिन एक कन्या जो इस मंदिर को समर्पित कर दी गई है, वह बाजे-गाजे के साथ मंदिर में प्रार्थना करती है।  उस समय उसके शरीर पर देवी आती है और वह झूलते हुए कच्ची मिट्टी के घड़े पर खडी होकर वर्ष भर कि भविष्यवाणी करने लगती है।  इस को रंगम कहा जता है।  रंगम के लिए वह कन्या हल्दी से पुती होती है और भारी साड़ी पहने बाजे-गाजे के साथ मंदिर की ओर बढ़ती है।  उसके पीछे पोतराजू हाथ में कोड़ा लिए होता है।   पोतराजू को माता का भाई माना जाता है। साधारणतः पोतराजू मज़बूत काठी का और भारी डील-डौल वाला व्यक्ति होता है।  वह नंगे बदन होता है और एक छोटी लाल लंगोटनुमा धोती पहने होता है।  उसका बदन भी हल्दी से मढा होता है।  उसको भयानक रूप देने के लिए उसके मुँह में निम्बू रखे जाते हैं ताकि उसके गाल भरे दिखें।  पैरों में घूँघरू बांधे वह ढपली की थाप पर नाचते हुए रंगम के साथ साथ चलता है।  समय-समय पर वह अपने हाथ के कोड़े को फिराते हुए बदन पर मारता है जिससे तड़ाके की आवाज़ होती है।  कभी-कभी तो उसके बदन पर खून के दाग भी नज़र आते हैं।  रंगम भी ट्रांस में बाजे की धुन पर नाचती-चीखती चलती जाती है।



पोतराजू



एक समय था जब माता के मंदिर में बलि दी जाती थी। कहते हैं कि  पहले भैंसे की बलि देने की प्रथा थी जिसे बाद में प्रतिबंधित कर दिया गया।  बाद में बकरे की बलि देने की प्रथा चल पड़ी।  हमें बचपन में उस समय मंदिर के परिसर में नहीं जाने दिया जाता था जब बलि का कार्यक्रम चल रहा होता।  कहा जाता है कि उस समय पोतराजू अपने मुँह से बकरे की गरदन को काटता था।  इस प्रथा के बंद होने के बाद मुर्गे की बलि चल निकली।  आज केवल निंबू ही काटे जाते हैं।

तीसरा सप्ताह सारे नगर के माता की अन्य मंदिरों की पूजा-अर्चना के लिए होता है।  हर मुहल्ले में इस सप्ताह बोनालु पर्व मनाया जाता है।  अपनी अपनी क्षमता और भक्ति से माता की पूजा की जाती है। जिन प्रमुख मंदिरों में पूजा का शोर होता है वे हैं हरिबाउली का अकन्ना-मादन्ना मंदिर, कारवान का मैसम्मा मंदिर और लालदरवाज़ा का जगदम्बा मंदिर।  इन मंदिरों में काफी जोर-शोर से बोनालु का पर्व मनाया जाता है।

तीन सप्ताह के इस कार्यक्रम में ‘घटम’ का बड़ा महत्व होता है। देवी का यह रूप बड़ा अनोखा होता है।  एक पीतल या तांबे की परात में बांस के टुकड़ों से  लम्बे आकार का ‘घट’ बनाया जाता है जिसे चारों ओर से फूलों से सजाया जाता है।  बीच में माता का मुखौटा लगाया जाता है।  यह ‘घटम’ पूजा के दिन शाम के समय घर-घर गली-गली घूमते हैं और घर के सामने आने पर घरवाले नारियल फोड़ते है और पूजा करते हैं।  यह माना जाता है कि देवी अपने घर आई है।  घटम उठाने वाले को तो उसका नेग मिलता ही है।  इस घटम के पीछे भक्त भी चलते रहते है और साथ ही चलते हैं ‘फलारम बंडी’ जिनमें माता की झांकियां सजी होती है।  ये झांकिया हर छोटे-बडे मंदिर से निकाली जाती है और एक प्रकार की प्रतियोगिता मानी जाती है कि किस मंदिर की ‘फलारम बंडी’ कितनी शानदार निकली।  इन ‘फलारम बंडियों के आगे भी बैंड-बाजे चलते हैं।  एक तरह से यह प्रतियोगिता उन छोटे नेताओं के लिए है जो अपनी गली-मुहल्ले में अपनी साख जमाना चाहते हैं।

अंतिम सप्ताह मनाए जाने वाले बोनालु का कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हैदराबाद के पुराने शहर की हरिबाउली के अकन्ना-मादन्ना मंदिर से  निकल कर ‘घटम’ मुचकुंदा [मूसी] नदी को ले जाया जाता है।  इसी तरह लाल दरवाज़े के जगदम्बा मंदिर से निकल कर मुचकुंदा नदी के दूसरे छोर पर लाया जाता है।  इन्हें श्रद्धाभाव से नदी में निमज्जन किया जाता है।  इसी प्रकार सिकंदराबाद के घटम को हुसैन सागर में निमज्जन किया जाता है।

कहा जाता है कि इस पर्व का आरम्भ १८६९ में उस समय हुआ जब प्लेग की महामारी हैदराबाद में फैल गई थी।  तब किसी ने कहा  कि यह महामारी देवी माता के प्रकोप के कारण फैल रही है।  उस समय किसी भी महामारी को माता ही कहा जाता है।  आज भी चिकन पॉक्स को छोटी माता और चेचक को माता कहते हैं।   यह पर्व मुस्लिम शासकों के काल में प्रारम्भ हुआ तो वे भी इस पूजा-अर्चना में भाग लेते थे।  यही परम्परा आज भी चली आ रही है कि एक सरकारी अधिकारी आकर माता के मंदिर में सरकार की ओर से पूजा सामग्री अर्पित करता है।

भविष्यवाणी करते हुए कुँवारी कन्या स्वर्णलता

इस वर्ष का बोनालु पर्व ३ जुलाई से प्रारम्भ हुआ और १७ जुलाई को उसका समापन होगा।  इस अवसर पर सिकंदराबाद स्थिन उज्जैनी मंदिर में रंगम ने भविष्यवाणी करते हुए बताया कि वर्तमान में प्रदेश में फैली अशांति के लिए आप के द्वारा विगत में की गै अपनी गलतियां ही हैं।  देवी के रूप में कुँवारी कन्या स्वर्णलता नामक रंगम ने कहा कि गलतियां करने वालों को भी भगवती माफ कर देगी तथा जनता को बहुत कुछ देगी।  आज की राजनीतिक उथल-पुथल में तेलंगाना का मुद्दा जोरों पर है।  रंगम से जब इस मुद्दे पर किसी ने पूछा तो करीब बैठे नेताओं ने ऐसे प्रश्न पूछने की मनाही कर दी और रंगम भी बेहोश होकर गिर गई।  उसे पास वालों ने थाम लिया और जब उसे होश आया तो उसका ट्रांस खत्म हो चुका था।  देखा जाय तो अब यह पर्व राजनीतिक रूप धारण कर चुका है।  इस स्थानीय पर्व को राष्ट्रीय पर्व बनाने की बात तेलंगाना के नेता कर रहे हैं।  अब यह रंगम ही शायद किसी दिन बता सकेगी कि ऐसा कब होने जा रहा है॥

[ऐसे कई स्थानीय पर्व आपके शहर में भी होते होंगे।  हो सके तो इनकी अधिक जानकारी पाठकों को मिलनी चाहिए।]


सोमवार, १८ जुलाई २०११

एक छोटी पोस्ट- seven year itch

खुजली-२

पिछली पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए निशांत मिश्र जी ने लिखा था कि इस लेख में सेवन ईयर इच को नहीं लिया गया है।  उपरोक्त चित्र उस कमी को पूरा करेगा :-)  यह मूर्ति शिल्पकार सेवार्ड जॉनसन ने चिकागो के इल्लिनोय शहर में प्रदर्शन के लिए २०१२ तक लगा रखी है।  इस मूर्ति को स्टेनलेस स्टील और अल्यूमीनियम से बनाया गया है जो २६ फ़ीट ऊँची है और इसका भार ३४,००० पौंड है। इस मूर्ती को बनाने की प्रेरणा शिल्पकार को मनरो की प्रसिद्ध फिल्म ‘सेवन ईयर इच’ से मिली थी।