पिछली पोस्ट मे मैने रिश्तों की बात की थी..प्रतिक्रियाओं से लगा कि मेरी पन्क्तियों मे कही बहुत निराशा दिखाई दे रही थी..शायद ऐसा था भी…मै भी मानती हूँ कि सब कुछ लुट-पिट गया है ऐसा नही है…कुछ गर्माहट अब भी है..
आइये आज माँ की बात करते हैं…….३/४ साल तक के हर बच्चे के लिये उसकी माँ ही उसकी दुनिया होती है..७/८ साल की अधिकतर लड्कियों का सपना उसकी माँ जैसा बनना होता है..माँ ही उनका आदर्श होती है..जबकि ज्यादातर लडके इन्जीनियर, डॉक्टर आदि बनने की बात करते हैं, शायद ही कोई पिता जैसा बनने की बात कहता है…..फिर बच्चा बाहरी दुनिया से परिचित होता है, लेकिन माँ की छवि उसमे हमेशा बनी रहती है..माँ का रहन-सहन, पहनावा, डाँट, प्यार सब कुछ दिल के किसी कोने मे कैद रहता है………
कुछ दिनों पहले TOI मे ‘SHASHI ON SUNDAY ‘ column मे शशी थरूर का एक लेख ‘ Save the sari from a sorry fate’ आया था, जिसमे उन्होने भारतीय शहरों मे दिखाई देने वाली महिलाओं ( कामकाजी और अकामकाजी भी )के साडी को त्यज कर ज्यादातर सलवार कमीज या पश्चिमी परिधान पहनने को लेकर चिन्ता जाहिर की है कि कहीं ऐसा न हो साडी सिर्फ मन्दिरों और शादियों पर ही दिखाई देने लगे…
उन्होने साडी की जम कर तारीफ करते हुए यहाँ तक कहा है कि साडी ही एक ऐसा परिधान है जिसे किसी भी रंग रूप, कद- काठी की महिला ठीक से पहने तो वो सुन्दर लग सकती है…
३० से कम उम्र की महिलायें कम ही साडी पहनती दिखाई देती हैं..एक तो जिन्दगी की तेज रफ्तार मे शायद साडी पहनने और
उसे सम्हाले रखने जितना धैर्य नही है और दूसरा उन्हे कुछ मॉडर्न होने और स्वतंत्रता का एहसास होता होगा अन्य कपडों मे …..**इस सन्दर्भ मे मैने यहाँ भी कुछ लिखा था.
( महिला साथियों से अनुरोध है कि वे इस लेख( Save the sari from a sorry fate) को जरूर पढें)….मुझे लेख बहुत पसँद आया, क्यूँ कि मुझे साडी पहनना पसँद है!मेरी बेटी भी कहना नही भूलती ‘अरे वाह आज तो मम्मी जैसी लग रही हो!!
….छोटे शहरों मे अब भी कई महिलाएँ साडी पहनती हैं,कुछ महिलाएँ (खासकर मारवाडी) सिर पर अपना पल्लु करीने से लिये हुए दुपहिया वाहन और कार चलाते हुए दिख जाएँगी…
….. ७०/८० के दशक की माँ ज्यादातर साडी ही पहनती थीं…बच्चों के लिये माँ का पल्लु खींचना, उसमे छुप जाना प्रिय खेल होते थे ….और साडी का पल्लु तमाम दूसरे कामों मे आता सो अलग!!
….हिन्दी फिल्मों की हिरोइनों की साडियों के पल्लु से फट कर निकली चिन्दी ने न जाने कितने हीरो का कितने ही लीटर खून बहने से बचाया होगा…अब ‘क्रेज़ी किया रे’ब्रान्ड हिरोइनों के आशिक के घावों का भगवान ही मालिक है!!
और अन्त मे….
हालाँकि अब मै भी माँ हूँ, लेकिन ये पन्क्तियाँ मैने अपनी माँ के लिये लिखी थी….
माँ की कुछ बातें आज तुमको बताऊँ,
पहले प्रभु के शीश माँ को झुकाऊँ!
वो सब याद रखती, जो मै भूल जाऊँ,
वो मुझको सम्हाले, जो मै डगमगाऊँ!
वो सब कुछ है सुनती, जो भी मै सुनाऊँ,
वो चुप रह के सहती, अगर मै सताऊँ!
भूखी वो रहती, जो मै खा न पाऊँ,
रातों को जागती, जो मै सो न पाऊँ!
वही गीत गाती, जो मै गुनगुनाऊँ,
संग मेरे रहती, जहाँ भी मै जाऊँ!
ईश्वर से एक ही मै मन्नत मनाऊँ,
हर एक जनम मे यही माँ मै पाऊँ!!
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bahut khoob
दुनिया की सभी मांओं की अज़मत को सलाम।
बहुत अच्छा लिखा आपने रचना जी।
rachana ji mujhe samajh me nahi aa raha hai ki mai aapko kis tarah shabashi doon
ye jo aapne likha hai hamare dil aur dimag me ek bijali si koundh gayi
please keep it up
बहुत बढ़िया, रचना जी. बड़ी खुबसूरती के साथ बात कही है. कविता भी सुंदर है.
बहुत ही अच्छी रचना, इसे पधकर मुझे अपनी ही कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी जो मैने कभी लिखी थी हालाँकि वो मातृभूमि पर है-
” पुत्र सुपुत्र कुपुत्र भले जैसा जो भी हो,
पर भारत माँ ममता का आगार तुम्ही हो।
अगर दोबारा इस धरती पर जीवन पाऊँ,
भारत माँ हर बार तेरा बेटा कहलाऊँ।।
सुन्दर लेख, सच है साड़ी में जो सुन्दरता, शालीनता है वो अन्य परिधान में नहीं।
अच्छा है। कविता की कामना पूरी हों!
माँ की ममता का मोल भला कौन चुका सकता है
ये तो वो डाल है जो फलती तो और झुकती है.
सचमुच एक माँ के महत्व को समझाती रचना.
काकेश
सुन्दर रचना…. मां और उसकी ममता का कोई सानी नहीं
आशीष जी, अमर जी ( क्षमा करें मैने आपकी टिप्पणी किन्ही कारणों से थोडी सी सम्पादित की है), आदित्य जी, काकेश जी और मोहिन्दर जी, आप सभी का स्वागत है यहाँ..बहुत बहुत धन्यवाद प्रतिक्रिया देने के लिये..
आदित्य जी और काकेश जी, आप दोनो ने जो पन्क्तियाँ लिखी हैं वो पसँद आईं.
शुएब भाई, समीर जी,श्रीश और अनूप जी आप सब का भी बहुत धन्यवाद!