मंगलवार, २० सितम्बर २०११

कई बार ब्लोगर भाईयों से कुछ साझा करने की इच्छा होती है

समय चक्र कब कौन सा रुख करेगा, कौन समझ पाया है। इंसान अच्छे के लिए कुछ करता है पर हो कुछ और जाता है। मन मुताबिक़ न होने से मन इतना खिन्न हो उठता है कि वह प्रभू को भी दोष देने लगता है। उसे लगता है कि जब उसने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया, किसी का बुरा नहीं किया, खुद तकलीफ सह दूसरों का ख्याल रखा तो फिर उसके साथ नाइंसाफी क्यों?

ऐसे ही दौर से करीब एक-डेढ़ साल से गुजर रहा हूँ। अन्दर ही अन्दर असंतोष, क्रोध, बेचैनी जैसे भाव सदा दिलो-दिमाग को मथते रहते हैं, जिनको कभी किसी पर जाहिर नहीं किया। लोगों को यही लगता रहा कि यह इंसान सर्वसुख से संपन्न, चिंता रहित, हर तरह के तनाव से मुक्त, खुशहाल जिन्दगी का स्वामी है। पर किसी को पता नहीं है कि अन्दर ही अन्दर किसी बहुत करीबी द्वारा पीठ पर किए गए वार से क्षुभित है। इसलिए नहीं कि अगले ने धोखा दिया, इसलिए कि दिलो-दिमाग के न चाहने के बावजूद उस शख्स को अपना बनाया। क्षोभ अपने पर है अपने गलत निर्णय पर है।
उसके बारे में उसी के हितैषियों ने भी आगाह किया था. कई लोगों के समझाने के बावजूद मन में कहीं विश्वास था कि अपने गलत कार्यों पर उसे कभी न कभी पछतावा जरूर होगा, क्योंकि वह जानता है कि वह जो भी कर रहा है वह गलत है, जो भी कह रहा है वह झूठ है, बेजा फ़ायदा उठाने की एक घृणित चाल है। पर मेरी इस चुप्पी या उसे सुधरने के लिए समय देने के मेरे फैसले को उसने मेरी कमजोरी समझा और इसीसे शायद उत्साहित हो वह और ओछी हरकतों पर उतर आया है।

इन सब से न मैं घबडाया हूँ न ही चिंतित हूँ। पर पानी सर से ऊपर जा रहा है।






रविवार, १८ सितम्बर २०११

घुटने में अभी भी हेड़ेक है

बात पिछले से भी पिछले मंगलवार की है,यानि 6/9/11 की। दोपहर करीब दो बजे का समय था। रिमझिम फुहारें पड़ रही थीं सो उनका आनंद लेने के लिए पैदल ही घर की ओर निकल पड़ा। यही बात इंद्रदेव को पसंद नहीं आई कि एक अदना सा इंसान उनसे डरने के बजाय खुश हो रहा है बस उन्होंने उसी समय अपने सारे 'शावरों' का मुंह एक साथ पूरी तरह खोल दिया। अचानक आए बदलाव ने अपनी औकात भुलवा दी और बिना कुछ सोचे समझे मुझसे सौ मीटर की दौड लग गयी। उस समय तो कुछ महसूस नहीं हुआ पर रात गहराते ही घुटने में दर्द ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी। जिसने नजरंदाज रवैये के कारण दो दिनों की अनचाहा अवकाश लेने पर मजबूर कर दिया। इलाज करने और मर्ज बढने के मुहावरे के सच होने के बावजूद अपनी अच्छी या बुरी जिद के चलते मैने किसी "डागदर बाबू" को अपनी जेब की तलाशी नहीं लेने दी। जुम्मा-जुम्मा करते 12-13 दिन हो गये पर दर्द महाशय घुटने के पेचो-खम मे ऐसे उलझे थे कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहे।

अब जैसा रिवाज है, तरह-तरह की नसीहतें, हिदायतें तथा उपचार मुफ्त में मिलने शुरु हो गये। अधिकांश तो दोनों कानों से आवागमन की सहूलियत देख हवा में जा मिले पर कुछ अपने-आप को सिद्ध करने के लिए डटे रह गये। सर्व-सुलभ उपायों को खूब आजमाया गया। 'फिलिप्स' कंपनी की लाल बत्ती का सेक दिया गया, अपने नामों को ले कर मशहूर मलहमें पोती गयीं, सेंधा नमक की सूखी-गीली गरमाहट को आजमाया गया पर हासिल शून्य बटे सन्नाटा ही रहा। फिर बाबा रामदेव की "पीड़ांतक" का नाम सामने आया, उससे कुछ राहत भी मिलती लगी, हो सकता है कि अब तक दर्द भी एक जगह बैठे-बैठे शायद ऊब गया हो, सही भी है उसे और भी घुटने-कोहनियां देखनी होती हैं खाली मेरे यहां जमे रहने से उसकी दाल-रोटी तो नहीं चलनी थी तो अब पूर्णतया तो नहीं पर आराम है।

जो होना था वह हुआ और अच्छा ही हुआ क्योंकि इससे एक सच्चाई सामने आ गयी। बहुत दिनों से बहुत बार बहुतों से बहुतों के बारे में सुनते आ रहे हैं कि फलाने का दिमाग घुटने में है। आज तक इस बात को हल्के-फुल्के अंदाज में ही लिया जाता रहा है। पर अब मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि यह मुहावरा यूंही नहीं बना था इसमें पूरी सच्चाई निहित थी। आप बोलेंगे कि वह कैसे? तो जनाब इन 12-13 दिनों में बहुत कोशिश की, बहुतेरा ध्यान लगाया, हर संभव-असंभव उपाय कर देख लिया पर एक अक्षर भी लिखा ना जा सका। जिसका साफ मतलब था कि यह सब करने का जिसका जिम्मा है वह तो हालाते-नासाज लिए घुटने में बैठा था। इस हालात में वह अपनी चोट संभालता कि मेरे अक्षरों पर ध्यान देता ?

रविवार, ११ सितम्बर २०११

गणपति बप्पा का जाना

अब उस स्थान का खालीपन, जहां गजानन विराजमान थे, काटने को दौड़ता है। आते-जाते बरबस निगाहें उस ओर उठ कुछ तलाशने लगती हैं। फिर मन अपने आप को तैयार करने लगता है अगले वर्ष उनके आने तक के इंतजार के लिए।

वैसे तो प्रभू अंतर्यामी हैं, सर्वव्यापी हैं। पर इन बीते दस दिनों में ऐसा लगता है कि वे साक्षात हमारे साथ हैं। मान्यता भी है कि इन दस दिनों में प्रभू धरा पर विचरण करते हैं। शांत, सच्चे, सरल ह्रदय से ध्यान लगाएं तो इसका आभास भी निश्चित होता है।

साल भर के लम्बे इंतजार के बाद कहीं जा कर वह दिन आता है जब श्री गणेश की चरणरज से घर-आंगन पवित्र हो पाता है। ऐसा लगने लगता है कि दूर रह रहे किसी आत्मीय, स्वजन का आगमन हुआ हो। जो अपनी गोद में हमारा सिर रख प्यार से सहलाते हुए हमारे सारे दुख-दर्द, परेशानियां, विघ्न, संकट दूर कर अपनी छत्र-छाया में हमें ले लेता है। होता भी ऐसा ही है इन दिनों तन-मन-माहौल, सारा परिवेश मानो मंगलमय हो उठता है, अबाल-वृद्ध, नर-नारी सब पुल्कित हो आनंदसागर में गोते लगाने लगते हैं। एक सुरक्षा की भावना सदा बनी रहने लगती है। लगता है कि कोई है, आस-पास, जो सदा हमारी फिक्र करता है, हमारे विघ्नों का नाश करता है, जो सदा हमारे भले की ही सोचता है।

रोज घर से, उसे प्रणाम कर, निकलते समय ऐसा आभास होता है कि कोई बुजुर्ग अपनी स्नेहिल दृष्टि से हमें आप्लावित कर अपने वरद हस्त से रक्षा और सफलता की आशीष दे रहा हो। दिन भर काम के दौरान भी एक दैवीय सकून सा बना रहता है। संध्या समय लगता है कि परिवार के अलावा भी कोई हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। लौट कर उनके दर्शन कर यह महसूस होता है जैसे कि वे हमारा ही इंतजार कर रहे हों। इतना ही नहीं उनके आने से आस-पड़ोस के परिवार भी एक आत्मीयता के सुत्र में बंध जाते हैं। अपने-अपने काम में मशगूल हरेक इंसान जो चाह कर भी अपने आत्मीय जनों से हफ्तों मिल नहीं पाता उसकी यह कसक भी इन दिनों दूर हो जाती है जब संध्या समय सब जन पूजा-अर्चना, आरती के समय एकत्र होते हैं।

पता ही नहीं चला कैसे दस दिन बीत गये। कल वह दिन भी आ गया जब हमारे गणपति बप्पा को वापस शिव-लोक जाना था। मन एक-दो दिन पहले से ही उदास था। पर जाना तो था ही।
जब बप्पा का आगमन हुआ था तब भी सब की आंखों में आंसू थे जो खुशी के अतिरेक में छलछला आए थे। आज भी रुंधे गले के साथ सब की आंखें अश्रुपूरित थीं जो उनकी विदाई के कारण सूखने का नाम ही नहीं ले रहे थे। हालांकि स्पष्ट लग रहा था कि प्रभू कह रहे हैं, दुखी मत हो, मैं सदा तुम्हारे साथ हूं और अगले साल फिर आऊंगा ही। पर मन कहां मानता है।

अब उस स्थान का खालीपन, जहां गजानन विराजमान थे, काटने को दौड़ता है। आते-जाते बरबस निगाहें उस ओर उठ कुछ तलाशने लगती हैं। फिर मन अपने आप को तैयार करने लगता है अगले वर्ष उनके आने तक के इंतजार के लिए।

शुक्रवार, ९ सितम्बर २०११

शिवजी और माता पार्वती को ही अपने पुत्र से मिलने दक्षिण जाना पड़ता है।

यह कहानी बच्चों को सिखाती है अपने माता-पिता का अज्ञाकारी होना, उनका आदर करना, उनको सदा खुश रखना पर कहीं ना कहीं एक कसक भी छोड़ जाती है।

बचपन में चंचल तथा छोटे होने के कारण भगवान शिव तथा माता पार्वती, श्री गणेशजी का ध्यान तथा ख्याल रखते थे। कुछ दिनों तक तो ठीक रहा पर धीरे-धीरे कार्तिकेयजी को लगने लगा कि उनकी उपेक्षा हो रही है और पिता-माता उन्हें कम चाहते हैं। यह बात उन्होंने शिवजी से कही। प्रभू ने उन्हें समझाया कि ऐसी बात नहीं है तुम दोनों समान रूप से हमें प्यारे हो। पर कार्तिकेयजी को तसल्ली नहीं हुई। वे अनमने से, उदास से रहने लगे। बात बनती ना देख शिवजी ने माता पार्वती से सलाह कर इस गुत्थी का एक हल निकाला। उन्होंने सब को बुला कर कहा कि जो भी पृथ्वी के तीन चक्कर लगा उस पर स्थित सारे तीर्थों की परिक्रमा कर सबसे पहले हमारे पास आएगा उसे ही गणनायक की उपाधि दी जाएगी और वह सबसे सम्मान पाने का हकदार होगा।

निश्चित दिन और समय पर सारे देवी-देवताओं, ऋषि-मुनियों की उपस्थिति में, प्रभू का इशारा पाते ही कार्तिकेयजी अपने वाहन मोर पर सवार हो धरा की परिक्रमा करने निकल पड़े। इधर गणेशजी पेशोपेश में थे। एक तो उनका भीमकाय शरीर दूसरा अदना सा चूहा, जिस पर सवार हो यदि वे निकलते तो एक ही चक्कर लगाने में उन्हें हफ्तों लग जाते। पर वे विवेकशील, विद्यावान तथा ग्रन्थों के ज्ञाता थे। जिनमें बताया गया है कि माता-पिता के दर्शन सारे तीर्थों के दर्शन से मिलने वाले पुण्य से भी ज्यादा फल देते हैं। ऐसा याद आते ही उन्होंने शिवजी और माता पार्वती की तीन बार परिक्रमा की और उन्हें प्रणाम कर उनके चरणों में बैठ गये। सबने एक स्वर से उन्हें विजेता घोषित कर दिया।

कुछ समय पश्चात जब कार्तिकेयजी धरती की परिक्रमा कर वापस आए और उन्हें इस बात का पता चला तो वे बहुत खिन्न हो गये। उन्होंने उसी समय घर त्यागने की घोषणा कर दी। सब के बहुत समझाने पर भी वे नहीं माने और कैलाश छोड़ दक्षिण दिशा में रहने चले गये और फिर कभी लौट कर घर नहीं आए। शिवजी और माता पार्वती को ही अपने पुत्र से मिलने दक्षिण जाना पड़ता है।

रविवार, ४ सितम्बर २०११

शिवजी ने सिर्फ एक बालक के हठ के कारण उसका अंत नहीं किया होगा

शिवजी तो देवों के देव हैं, महादेव हैं, भूत- वर्तमान-भविष्य सब उनके अनुसार घटित होता है, वे त्रिकालदर्शी हैं, भोले-भंडारी हैं, योगी हैं, दया का सागर हैं, बड़े-बड़े असुरों, पापियों को उन्होंने क्षमादान दिया है। उनके हर कार्य में, इच्छा में परमार्थ ही रहता है। वे सिर्फ एक बालक के हठ पर उसका अंत नहीं कर सकते थे। जरूर कोई दूसरी वजह इस घटना का कारण रही होगी। उन्होंने जो कुछ भी किया वह सब सोच समझ कर जगत की भलाई के लिए ही किया।

श्री गणेशजी के जन्म से सम्बंधित कथा सब को कमोबेश मालुम है कि कैसे अपने स्नान के वक्त माता पार्वती ने अपने उबटन से एक आकृति बना उसमें जीवन का संचार कर द्वार की रक्षा करने हेतु कहा और शिवजी ने गृह-प्रवेश ना करने देने के कारण उसका मस्तक काट दिया फिर माता के कहने पर पुन: ढेर सारे वरदानों के साथ जीवन दान दिया। इसके बाद ही वह गणनायक बने, गणपति कहलाए और सर्वप्रथम पूजनीय हुए।

शिवजी तो देवों के देव हैं, महादेव हैं, भूत- वर्तमान-भविष्य सब उनके अनुसार घटित होता है, वे त्रिकालदर्शी हैं, भोले-भंडारी हैं, योगी हैं, दया का सागर हैं, बड़े-बड़े असुरों, पापियों को उन्होंने क्षमादान दिया है। उनके हर कार्य में, इच्छा में परमार्थ ही रहता है। वे सिर्फ एक बालक के हठ पर उसका अंत नहीं कर सकते थे। जरूर कोई दूसरी वजह इस घटना का कारण रही होगी। उन्होंने जो कुछ भी किया वह सब सोच समझ कर जगत की भलाई के लिए ही किया।

माता पार्वती ने भगवान शिव से अनुरोध किया कि वे उनके द्वारा रचित बालक को देव लोक में उचित सम्मान दिलवाएं। शिवजी पेशोपेश में पड़ गये। उन्होंने उस छोटे से बालक के यंत्रवत व्यवहार में इतना गुस्सा, दुराग्रह और हठधर्मिता देखी थी जिसकी वजह से उन्हें उसके भविष्य के स्वरूप को ले चिंता हो गयी थी। उन्हें लग रहा था कि ऐसा बालक बड़ा हो कर देवलोक और पृथ्वी लोक के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है। पर पार्वतीजी का अनुरोध भी वे टाल नहीं पा रहे थे इसलिए उन्होंने उस बालक के पूरे व्यक्तित्व को ही बदल देने का निर्णय किया।

भगवान शिव तो वैद्यनाथ हैं। उन्होंने बालक के मस्तक यानि दिमाग में ही आमूल-चूल परिवर्तन कर ड़ाला। एक उग्र, यंत्रवत, विवेकहीन मस्तिष्क की जगह एक धैर्यवान, विवेकशील, शांत, विचारशील, तीव्रबुद्धी, न्यायप्रिय, प्रत्युत्पन्न, ज्ञानवान, बुद्धिमान, संयमित मेधा का प्रत्यारोपण कर उस बालक को एक अलग पहचान दे दी। उसे हर विधा व गुणों से इतना सक्षम कर दिया कि महऋषि वेद व्यास को भी अपने महान, वृहद तथा जटिल महाकाव्य की रचना के वक्त उसी बालक की सहायता लेनी पड़ी।


इन्हीं गुणों, सरल ह्रदय, तुरंत प्रसन्न हो जाने, सदा अपने भक्तों के साथ रह उनके विघ्नों का नाश करने के कारण ही आज श्री गणेश अबाल-वृद्ध, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े सब के दिलों में समान रूप से विराजते हैं। शायद ही इतनी लोक प्रियता किसी और देवता को प्राप्त हुई हो।