आवलोकन अनुगूंज १६: (अति)आदर्शवादी संस्कार सही या गलत?

“वाह!” और “बहुत खूब !” जैसे उद्गार अनायास अभिव्यक्त होते रहे! पूरे दो सप्ताह , प्रारंभ से अंत तक एक से बढ कर एक उम्दा लेखों और कविताओं का सिलसिला बना रहा. यहां तक की टिप्पणियों मे भी इस माहौल की अनुगूंज सुनाई पडी!

आशा थी की “(अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत?” जैसा विषय पाठकों को ये मौका देगा की वे अपने नैतिकता के पैमानों पर लेखों को तौले और राय बनाएं! यानी लेखकों के लिए दोहरी कठिनाई - मन की भी लिखो और संतुलित भी!

चिट्ठाकारों नें जिस बखूबी लिखा है और जितनी सहज ईमानदारी से, अचंभा होता है शौकिया लिखने वालों के कौशल पर! विचारों की स्पष्टता और अभिव्यक्ति की ये निराली शैलियां - हर एक का अंदाज अपना अपना! रसास्वादन कीजिए -

फ़ुरसतियाजी का दो हिस्सों मे लिखा लेख रामायण में बाली वध के प्रसंग से लिए दोहों, परसाईंजी के एकपंक्तिक ‘दृष्टांतों’, मुक्तिबोध की कविताओं जैसी भारीभरकम विविधताओं को समेटे भी किस अविरल चुस्ती से बहता रहा क्या कहें. उनकी अपनी २१ साल पुरानी कविता जो आज भी प्रसंगिक है और २१+ साल बाद भी रहेगी, ये परिभाषाएं समाज का आईना हैं -

संकल्प -
अरगनी
पर टंगे कपड़ों की तरह
जो सूखने पर उतार लिये जाते हैं
नये कपड़े फैलाने के लिये।

आदर्श -
छोटे हो चुके कपड़ों की मानिन्द
जो, कभी-कभी पहन लिये जाते हैं
दूसरे कपड़े गीले होने पर।

पुरुषार्थ -
एक शब्द,
जो कभी-कभी शब्दकोष में दिखाई देता है।

अभिव्यक्ति -
हर परेशानी,हर शिकायत
जो सिर्फ अपने ( स्व के)दायरे में कैद है।

अपनेराम को उनका “डिजाईनर सच ” इतना पसंद आया की हिंदिनी की “कूटनीतिक घृष्टकथन” श्रेणी का नाम बदल कर “डिजाईनहीन सच ” कर देने का मन हो आया!
व्यक्तिगत स्पर्श से लेख अछूता नही था - वो जिसकी उम्मीद थी - मिला, और उससे भी अधिक -

मैं चाहता हूं कि मेरे बच्चों का अच्छाईयों पर भरोसा बना रहे। मेहनत तथा लगन पर भरोसा बना रहे। वे सहज बने रहें। उनमेंपरदुखकातरता बनी रहे। आत्मविश्वास से लबलबाते रहें। वे टुच्चे स्वार्थों के चक्कर से बचे रहे। इसके अलावा वे जो भी करें वह समाज के लिये सुखकर हों। और सब वे खुशी-खुशी कर सकें।वे सही को सही और गलत को गलत कह सकें। भले ही उनको बकौल वाली असी कहना पड़े- चिरागों को जलाने में जला लीं उंगलिया हमने।

फ़ुरसतिया जी आपकी ये मनोकामना ही हमारी प्रर्थना भी है आने वली पीढी के लिए!

आशावादी ही उच्च आदर्श दे सकता है, निभा भी सकता है, फ़ुरसतिया जी आगे कहते हैं -

यह सब बातें कमोवेश आदर्शवादी ही हैं। शायद इसलिये भी कि मेरा आदर्शों से मोहभंग अभी नहीं हुआ है। हमारे चारो तरफ बहुत से लोग हैं जो कि बहुत खराब हैं। लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी अच्छाइयां मेरे लिये ईष्या तथा चुनौती का विषय हैं कि वैसा बनकर दिखाओ तो जानें। यह संयोग है कि मेरे लिये अभी भी अच्छाइयां तथा आदर्श ज्यादा बड़े आकर्षण हैं।

इस बार कुछ खास हुआ! मुझ जैसे किस्मत के धनी बिल्लों के भाग से छिक्का टूटा और मलाई मिली. फ़ुरसतिया जी के इस शानदार लेख को पढ कर विनय जैन जी को याद आई १९९३ मे लिखी उनकी अपनी एक कविता. विनयजी की टिप्पणी जो बाद मे बाकायदा अनुगूंज प्रविष्टी बनी, धन्यवाद विनय जी ! एक अंश प्रस्तुत है -

आखिर
बस यही दुनिया नहीं केवल जो देखा करता हूँ मैं
और भी हैं लोग और संख्या में भी वे कम नहीं हैं
जो कि अब भी दूर हैं नफ़रत, घृणा से
सरलता से जो अभी ऊबे नहीं हैं
स्वार्थ से आगे भी जो हैं देख सकते, सोच सकते
दोस्ती, विश्वास, करुणा
हैं नहीं केवल किताबी शब्द जिनके वास्ते।
लोग ऐसे, जो सफल भी हैं
सफलता के मगर हाँ मायने उनके अलग हैं।

वे ही अब होंगे मेरे मन में औ’ तब होंगे
कि जब-जब पाऊँगा खुद को अकेला
करूँगा महसूस जब बेकार खुद को
लगेगी बेवजह जब-जब ज़िन्दगी ये
हाँ वही होंगे मेरे मन में हमेशा॥
-विनय जैन

हमारे खाली-पीली वाले आशीषजी ने आदर्शों की परिभाषा से ले कर बात शुरु की - आगे कहते हैं -

आदर्श परिवर्तनशील है. आदर्श भी सामाजिक मान्यताओ परंपराओ की तरह काल, व्यक्ति , परिस्थीती और समाज के अनुरूप बदलता रहता है. जो कल आदर्श था, आवश्यक नही कि वह आज आदर्श हो. आवश्यक नही कि जो किसी एक व्यक्ति के लिये आदर्श हो, दुसरे के लिये आदर्श हो.

आशीष के एक कथन ने विशिष्ट रूप से ध्यान आकर्षित किया -

आपके लिये आदर्श वह है जिसको ना मानने पर जिस पर आपकी अंतरात्मा आपको धिक्कारे और आपको ग्लानी हो. लेकिन कोई जरूरी नही वह किसी और के लिये या किसी और परिस्थीती मे लागु हो..

है ना मौलिक विचार! आदर्शों की परिवर्तनशीलता पर रमण भाई का लेख भी प्रभावी रहा उस पर आगे!

जोग लिखी वाले संजय भाई ने संस्कारों को तीन श्रेणियों मे बांटा - सार्वभौमिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत नीयम! संजय के अनुसार समय के साथ पारिवारिक/सामाजिक संस्कारों मे परिवर्तन आता है लेकिन सार्वभौमिक संस्कार बने रहते हैं. व्यक्तिगत संस्कार या मान्यताएं ज्यादा जतन से निभाए जाते हैं फ़िर भी परिवर्तनशील तो हैं. मुझे यह काफ़ी वैज्ञानिक दृष्टिकोण लगा विषय को देखने का! लेख बहुत कसा हुआ लिखा है संजयजी ने!

भाई पंकज नरूला यानी मिर्ची सेठ के लेख में सौंधी खुशबू है, बालमन की कच्ची मिट्टी को गढने में कितनी सावधानी लगती है इसकी समझ भी और फ़िर मिट्टी के मानुस को कैसे फ़ौलादी इरादे कामयाब बनाते हैं इसका भान भी है उन्हें -

अब आते हैं ऐसी कौन सी बाते हैं जो मुझे लगती हैं जो मुझे समय के साथ साथ सीखते हुए बदलनी पड़ी। पहली यह कि सिर नीचे करके गधे की तरह मेहनत करते रहो परिणाम अपने आप अच्छे आ जाएंगे। मेहनत वाली बात ठीक थी पर गधे की तरह नहीं। आज के स्पर्धा भरे युग में कोई भी आपको बिना मांगे कुछ नहीं देता। गर आप सोचते हैं कि कम्पनी में मेहनत करते रहें और अच्छी चीजें आपके साथ होती रहेंगी तो आप गलती पर हैं। देवता जैसा आपका मैनजर हो वाली स्थिति को छोड़ कर आपको अपनी उन्नति के लिए स्वयं ही कुछ करना पड़ेगा। तो गर जिंदगी बिगड़ा हुआ बैल है तो इसे सींगों से पकड़कर अपने बस में करो।

… ओ बल्ले तेरे पंकज वीरे!

जीतू भाई ने अनुगूंज प्रविष्ठी क्या लिखी, लगा अक्षरग्राम के अखाडे में भूचाल आ गया पैरा दर पैरा कथनी और करनी मे अंतर करने वाले बापों, आंटियों, ढोंगियों और पाखंडियों को पटखनी, धोबीपाट, लंगी,गलबंध आदी दांवों से निपटाते चले! लेकिन चंचल खुशबू की खबर पाते ही उस खास “साथी हाथ बढाना” वाले मूड मे आ गए -

फ़िल्म एक्ट्रेस खुशबू के दक्षिण भारत मे मन्दिर तक है, लोग बाग बाकायदा पूजा करते है, एक दिन एक इन्टरव्यू मे कह दिया कि विवाह पूर्व सेक्स सम्बंध एक सच्चाई है, इसलिये लोग बाग अपनी बीबी से वर्जिनिटी की उम्मीद ना रखें। एक दम सही कहा था, ये सच्चाई है। लेकिन नही, लोग बमक गये, क्यो? क्योंकि लोग आईना नही देखना चाहते। उसका बायकाट तक कर दिया।तमिलनाड़ु में कई लोगों को लगा कि ख़ुशबू नौजवानों को ग़लत राह दिखा रही हैं, विरोध यहीं तक सीमित नहीं रहा, लोगों ने एक के बाद एक 25 जनहित याचिकाएँ तक दायर कर दी।

जैसे ही गुरुदेव (फ़ुरसतिया जी) ने ये सब पढा वो भी भडक गए! “ऑय.. ये कब हुआ??” भला हो मिर्जा का - क्या समय पर प्रकट हुए! जैसे हनुमान, राम के कंप्लीट सोल्यूशन प्रोवाईडर थे ठीक वैसे ही मिर्जा जीतू के तारणहार हैं - पर्दा खुलता है मिर्जा का प्रवेश और अखाडे की दशा सुधरने लगती है -

रही बात, खुशबू की, तो भई, कई बाते सिर्फ़ समझी जाती है, यूं पब्लिकली शोर मचा मचाकर नही बताई जाती। सभी जानते है कि हम सब कैसे पैदा हुए, लेकिन कोई लाइव डिमान्स्ट्रेशन/कमेन्ट्री थोड़े ही करता है।सेक्स रिलेटेड डिसकशन अभी भी खुले आम नही किये जाते। यही तो फ़र्क है पश्चिमी सभ्यता और हमारी सभ्यता में, हम नंगा नाच नही करते। रही बात मस्तराम की, तो भैया, सब कुछ मिलता है बाजार में, अच्छी और बुरा साहित्य। जिसे रवीन्द्रनाथ टैगोर पढना होगा वो मस्तराम की तरफ़ भूलकर भी नही जायेगा, अगर गया तो तुरन्त ही वापस आयेगा। और फ़िर ये उम्र का तकाजा है, कच्ची उम्र मे ये गलतियां तो हो जाया करती है। जब जागो तभी सवेरा।

दोनो लेख रोचक और पठनीय हैं और एक ही बिंदू पर दो पक्ष रखते हैं.

अतुल भाई ने इस बार शाब्दिक मितव्ययिता से काम लिया, लेख छोटा प्रतीत हुआ लेकिन उपसंहार देखिए -

कुल मिलाकर मुझे लगता है कि कमी आदर्शवाद के पालन में नही उसके अधूरे पालन में है। सिर्फ एकला चलो नीति से भला होने वाला नही हमारे समाज का। एक और बात जो मुझे अब तक याद है “कि जैसे जैसे समाज में बेईमानो की बढ़ोतरी होगी, ईमानदारों की कीमत बढ़ती जायेगी।”

कर दिया ना कमाल!

रवि रतलामीजी का लेख आदर्शों के अलावा प्रथाओं की पडताल भी करता है जो अलग पृष्ठभूमी के लोगों के लिए बिल्कुल अमान्य भी हो सकती हैं - आप कहते हैं -

अर्थ साफ है – कुछ का आदर्शवाद बाकी दूसरों के लिए थोथा है. मेरा अपना आदर्शवाद और संस्कार दूसरों को निहायत बेवकूफ़ाना लग सकता है और वहीं दूसरों का आदर्शवादी संस्कार मुझे घटिया प्रतीत हो सकता है, मेरे लिए वर्जित, निषिद्ध हो सकता है.

आदर्शवाद एक भ्रान्ति है. (अति) आदर्शवाद (अति) भ्रान्ति है. और, हमें पता है, भ्रान्तियाँ सही भी हो सकती हैं, गलत भी और नहीं भी.

प्रत्यक्षाजी की कविता खींचती है एक प्रश्नचिंन्ह, जिसका घुमाव सही बिंदू की ओर इंगित करता है -

ऐसा क्यों है
कि आज भी
किसी गाँधी के नाम पर
उमड जाते हैं आँसू
गर्व के
किसी मार्टिन लूथर के सपने
आज भी देते हैं आकाश
उडने को

फिर क्या जरूरी है
इस भीड का हिस्सा
हम भी बनें
क्या ये प्रश्न कभी भी
पूछा है आपने
खुद से ?

रमण भाई के इस अनुगूंज लेख की ताज़गी, मानवीयता, गर्माहट और उसका जीवन चेतन पढने वाले को भीतर भी एक मुस्कुराहट से भर देता है.

ज़िन्दगी को चलाने के लिए जितने नियम चाहिएँ, उन के लिए मेरे विचार में न तो धर्मग्रन्थों की आवश्यकता है, न संस्कारों की। किसी को तकलीफ मत पहुँचाओ, बेईमानी मत करो, स्वच्छ रहो, इन सब निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए कितना दिमाग़ चाहिए? इस के लिए न तो भगवद्गीता चाहिए, न बाइबल, न कुरानेशरीफ, न माँ बाप की शिक्षा; अपनी अन्तरात्मा, देशकाल की व्यवस्था और कानून ही काफी है। हाँ, भोजन आरंभ करने से पहले मन्त्र कौन सा पढ़ना है, यज्ञ में कीमती चीज़ों की आहुति देते समय क्या बुदबुदाना है, इस के लिए धर्मग्रन्थ चाहिएँ। खाने से पहले जानवर को हलाल कैसे करना है, इस के लिए धर्मग्रन्थ चाहिएँ। बिना सोचे समझे इस सब पचड़ों में पड़ेंगे तो वही होगा जो आज दुनिया भर में हो रहा है।

यही सोच समझ कर मैं यह भी कोशिश करता हूँ कि अपने बच्चों को भी किसी पूर्वनिर्धारित विचारधारा में नहीं बान्धूँ। हाँ, मैं क्या सोचता हूँ, यह उन को बताता हूँ।

ई-स्वामी कहिन -

मुझे लगता है की आदर्शों की उम्र लंबी की जा सकती है और उनका पालन करने वालों की संख्या बढाई जा सकती है बशर्ते आप नियंत्रित करने के उद्देश्य से आदर्श ना दे रहे हों.

कालीचरण भाई ने अंतत: बालीवूड इश्टाई मे एंट्री मारी! छूटते ही देसियों पे खुन्नस निकाल दी गई अनोखे अंदाज में -

हालाँकि में बिलकुल भी धार्मिक नही हुँ, जरुरत लगे तो सच-झूट एक कर देता हुँ पर कभी कमीनापन, टुच्चापन और जो हलकटपंती देसियों में देखी जाती है अकसर, खास तौर पर विदेश में उससे दूर रहता हुँ.

काली व्यव्हारिकता के पक्षधर हैं-

जो मैने घर-समाज से सिखा वो बेटे को दे पाना मुमकिन नही है, क्योंकि घर भी अलग है, समाज भी. यहाँ की मान्यताएं अलग हैं. बस कोशिश यही रहती है की बेटे के कोमल मन पर तस्वीरें सच्ची बनें, स्पष्ट बनें और उनमें प्रेम,विश्वास, सरलता, सहयोग, मानवता का रंग कहीं न कहीं दिखे. बाकी सब बातें मैने सतही जानी है. बाकी अगर ज्यादा सिखाने की कोशिश की तो कन्फुज हो जाएगा. क्यों कर मै उसको संस्कृत की क्लास में बिठाऊँ, हिन्दी बोल ले उतना काफी है, वो भी ईसलिए क्योंकी भारत में रिश्तेदारों की अंग्रेजी कमजोर है.

चिट्ठाकारों की वैचारिक विविधता एक ही विषय पर लिखे इन लेखों को आसपास पढने के अनुभव को और भी रोचक बनाती है. बहुत मजेदार अनुभव रहा. एक बार फ़िर - धन्यवाद!

5 Responses to “आवलोकन अनुगूंज १६: (अति)आदर्शवादी संस्कार सही या गलत?”

  1. अच्छा विश्लेषण. सभी चिट्ठाकारों के विचारों का अच्छा नीचोङ पेश किया हैं आपने, लगा सभी को एक साथ पढ लिया हो. अब इन्तजार रहेगा अगली अनुगुंज का.

  2. अनुगूँज १६ के सफ़ल आयोजन के ईस्वामी जी को बहुत बहुत बधाई। सभी लेखों का सार, बहुत ही अच्छे तरीके से प्रस्तुत किया।

    अगले अनुगूँज के आयोजन के लिये स्वयंसेवक आगे आयें।

  3. वाह,वाह। इतने धांसू लेखन -पाठन के बाद अब स्वामीजी लफंगों की पार्टी से निकल के
    जिम्मेदारों में शामिल हो गये! लेकिन लेखन में कंजूसी का आरोप बरकरार है।बधाई!

  4. Congratulations! I wish I could have participated :(

  5. Accha Swami ji Lafange bhi thay :D

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