सुगर क्यूब पिक्चर्स प्रजेंट्स "सिक्का"



उसे शौक था मरने का और मरके अमर होने का.. लोगो की यादो में.. तख्तियो पे नाम चाहता था.. स्कूलों अस्पतालों पर अपना नाम चाहता था.. यू चाहता तो वो ये भी था कि गली सड़क नहरों बांधो के नाम भी उसके नाम पर रख दिए जाए.. उसके मन में कीड़ा था अमर होने का होते जाने का.. लेकिन इसके लिए उसे मरना ज़रूरी था.. और यही एक काम था जो वो ठीक से नहीं कर पा रहा था.. उसने कई बार शाम ढले शहर की सबसे गहरी झील में डूब जाने की कोशिश की पर बात बनी नहीं.. कुछ देर तक तो वो पानी में पांव डाले बैठा रहता पर फिर थोडी देर बाद उसमे तैरती मछलियों को दाना डालकर लौट आता..

इस बार उसने पटरियों पर लेटकर ट्रेन से कट जाने का मन बनाया.. वो बहुत देर तक पटरी पे बने पुल के बीचो बीच बैठा रेलगाड़ियो को आते जाते हुए देखता रहा.. ट्रेन सामने से सीटी बजाती हुई आती.. इंजन से निकलता हुआ धुँआ उसकी साँसों में भी उतरता.. जब रेल ठीक पुल के नीचे से गुज़रती तो उसके दिल के साथ पुल भी थरथराता.. थोडी देर बाद वो हिम्मत करके सीढियों से नीचे उतर गया.. पास ही पड़ी लकड़ी उसने उठा ली.. और लकड़ी के एक सिरे को जमीन से रगड़ता हुआ वो पटरी के बराबर चलते हुए मरने के लिए सही जगह की तलाश में चलता रहा.. सूरज इस वक़्त ठीक सर के ऊपर था.. वो पटरी पर एक कोने पर बैठ गया.. सामने वाले ट्रैक पर कुछ कचरा बीनने वाले बच्चे ट्रेन के डिब्बो से फेंके गए चिप्स, बिस्किट के खाली पैकेट उठा रहे थे.. उनमे से किसी में एक चिप्स या बिस्कुट का चुरा मिल जाता तो चहक कर खा लेते.. वो बैठा यही सब देख रहा था कि उसके कानो में इंजन की आवाज़ गूंजी.. वो अपनी जगह से खड़ा हुआ.. वो चाहता था कि बच्चो को वहा से भगाकर ट्रेन के सामने खड़ा हो जाए.. पर इस से पहले की वो उन्हें भगाता उनमे से एक बच्चे ने पटरी पर सिक्का रख दिया और दुसरे से बोला कि ट्रेन गुजरने के बाद ये सिक्का सोने का बन जाएगा.. वो जानता था कि ऐसा कुछ होने नहीं वाला.. पर पटरी को घेरे उन चार चेहरों पर ठहरी आँखों में चमक देख कर वो रुक सा गया.. उसके कदम आगे नहीं बढे..

पर ट्रेन धीरे धीरे इसी तरफ बढ़ रही थी.. सीटी की आवाज़ कानो के और करीब आ रही थी.. गड गड की आवाज़ दिल दहलाने वाली मालूम पड़ती थी.. लड़के सब अपनी जगह ठहरे हुए थे.. सबकी निगाह इंजन पर टिकी हुई थी.. उसकी भी.. इंजन तेज़ी से उनकी तरफ आ रहा था.. लड़के एक कदम आगे सरक चुके थे और वो भी.. सिक्के के सोने में बदल जाने वाली असंभव सी बात के लिए वो आँखे गढ़ाए ये भी भूल गया कि वो यहाँ मरने के लिए आया था.. और इस ट्रेन के चले जाने के बाद उसे फिर साढे तीन घंटे इंतज़ार करना पड़ता.. लेकिन बिना ये जाने कि सिक्का सोना बना या नहीं वो कैसे मर सकता था? उसे लगा साढे तीन घंटे और इंतज़ार किया जा सकता.. फिर मरना तो है ही अभी मरो या साढे तीन घंटे बाद क्या फर्क पड़ता है..? इंजन मालगाड़ी का था.. जो अब उनके बिलकुल करीब आ चुका था.. पटरी के आस पास भीड़ देखकर इंजन ड्राईवर ने होर्न बजाया... पर लड़के हटे नहीं.. इंजन सिक्के के बिलकुल करीब आ गया.. कानफोडू आवाज़ के साथ रेल सिक्के के ऊपर से गुज़रने लगी.. सबकी निगाह उसी सिक्के पर थी.. जैसे ही हर डिब्बे का चक्का उस सिक्के पर से निकलता ट्रेन थोडी झुकी सी लगती.. बिजली की तेज़ी के साथ ट्रेन निकल गयी.. मिट्टी के गुबार के बीच चारो लड़के सिक्के की तरफ लपके और वो भी.. सिक्का सोना नहीं बन पाया.. अलबत्ता जो था उस से भी गया.. सिक्का चपटा हो गया जो अब किसी काम का नहीं रहा.. लड़के की आँख में आंसु आ गए.. बाकी तीनो लड़के हंसने लगे.. और अपना अपना थैला उठाके चल पड़े.. लड़का ठगा सा खड़ा कभी सिक्के को देखता तो कभी धुल उड़ाते जाती हुई ट्रेन को..

लड़के की बेवकूफी के चक्कर में उसने मरने का एक और मौका खो दिया.. उसे इस लफड़े में फसना ही नहीं था.. क्यों रुका वो यहाँ जबकि जानता था कि सिक्के का कुछ नहीं होने वाला.. पर लड़के की आँखों का विश्वास.. हाँ उसकी आँखों की चमक ही तो थी.. जिसने मजबूर कर दिया था उसे रुकने के लिए.. पर अब? साढे तीन घंटे बाद अगली ट्रेन आने तक वो क्या करेगा.. यही सोचते हुए.. उसने लड़के की तरफ नज़र घुमाई.. लड़का सिक्का वही पटरी पर फेंक कर चल पड़ा.. लड़का जा चुका था मगर सिक्का अभी भी पटरी पर पड़ा था..

31 comments:

कंचन सिंह चौहान March 31, 2011 2:29 PM  
This post has been removed by the author.
कंचन सिंह चौहान March 31, 2011 2:34 PM  

उसे शौक था मरने का और मरके अमर होने का.. लोगो की यादो में.. तख्तियो पे नाम चाहता था.. स्कूलों अस्पतालों पर अपना नाम चाहता था.. यू चाहता तो वो ये भी था कि गली सड़क नहरों बांधो के नाम भी उसके नाम पर रख दिए जाए.. उसके मन में कीड़ा था अमर होने का होते जाने का.. लेकिन इसके लिए उसे मरना ज़रूरी था.. और यही एक काम था जो वो ठीक से नहीं कर पा रहा था..


मरने को सोच रही थी, मगर ये पोस्ट पढ़ कर मामला पोस्टपोन्ड कर दिया, फिलहाल। कहीं तुम यही ना सोच लो कि मैने जबर्दस्ती अमर होने के चक्कर में ये काम किया है। हम तो जान से जायंगे और लोगों को....!!

और फिर ये भी सोचा कि कहीं सिक्के को सोना बनाने के चक्कर में,जो है उस से भी हाथ ना धोना पड़ जाये।

बेहतरीन...पता नही तुमने क्या सोच के लिखा, मगर मुझे सिक्के में जिंदगी का बिंब नज़र आया। जिससे बहुत सारा सोना हम पा लेना चाहते है और जब नही बना पाते तो रेल चढ़ा के, सोचते हैं, जो काम जी के नही हुआ वो मर के हो जाये, शायद....!! और ये डर कि कहीं सिक्का रेल चली जाने के बाद भी सोना ना हुआ तो ???? तब तो सिक्के से भी हाथ धोना पड़ जायेगा ना....!!

और यही डर जिंदा रखता है..वर्ना मनुष्य तो चैन की तलाश में क्या क्या ना कर जाये....!!

excellent.....!!

इस्मत ज़ैदी March 31, 2011 2:49 PM  

waah !
mujhe sikke men zindagee ke hee pahloo nazar aae
ye haqeeqat hai ki khud ko khatm kar lenaa kisi samasya ka hal ya kisi ichchha ki poorti naheen balki jo hamare pas hai wo bhi hamara naheen rah jata
is bat ko bahut khoobsoorti se pesh kiya hai apne
achchhe lekhan ke liye badhai

नीरज गोस्वामी March 31, 2011 3:06 PM  

कुश बाबू जिस तरह आप लिख रहे हैं उसे देखते हुए कोई अँधा भी बता देगा के आपका भविष्य उज्जवल है...आने वाले समय में लोग आपकी किताबों के लिए क्रास वार्ड के सामने लाइन लगाये खड़े मिलेंगे...अगर सामने कोई कागज़, पत्थर, ईंट, दीवार, पेड़, दिखाई दे रहा हो तो उस पर मेरी ये बात लिख लें ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये...गर्मियों में घर आया तो इस बार कोल्ड काफी पिलाई जाएगी आपको...

नीरज

Manoj K March 31, 2011 4:57 PM  

आपकी फिल्म देखी.. जान पड़ता है इंसान के मन की उहापोह का सूक्ष्म ओब्ज़र्वेशन आप बखूबी करना जानते हैं.

ऐसी फिल्में कम अंतराल पर रिलीज़ किया करें..

मनोज

mukti March 31, 2011 6:38 PM  

awesome ! keen observation in lines ... subtle meanings between the lines.

cmpershad March 31, 2011 6:41 PM  

‘यू चाहता तो वो ये भी था कि गली सड़क नहरों बांधो के नाम भी उसके नाम पर रख दिए जाए.’

तो .... उसे गांधी परिवार में पैदा होना था ना :)

Read more: http://kushkikalam.blogspot.com/2011/03/blog-post.html#ixzz1IBN3GFqy

डॉ .अनुराग March 31, 2011 7:17 PM  

"stand by me "देखी है .....इस होलीडे पहले छुट्टी पे देखना ......

Arvind Mishra March 31, 2011 7:33 PM  

ये सिक्का तो चल गया !

डा० अमर कुमार March 31, 2011 7:42 PM  


सीधी सच्ची बात, यदि अमर होना है तो अपने काम से काम रखो.
जो निश्चय किया है उस लक्ष्य से मन को भटकाओ मत ।
कुल जमा मेरी मोटी बुद्धि में तो भई यही आया ।
वैसे तुम SMS क ज़वाब दे सकते थे ।

डॉ .अनुराग March 31, 2011 7:47 PM  

अच्छा लगा तुम्हारा वापस आना ....कंप्यूटर पे !

Abhishek Ojha March 31, 2011 7:50 PM  

बढ़िया !

dhiru singh {धीरू सिंह} March 31, 2011 10:08 PM  

मरने से पहले अमर होने का कोई तरीका है क्या ?

मीनाक्षी March 31, 2011 11:59 PM  

कंचन ने तो कमाल का विश्लेषण कर डाला...जबरदस्त... नीरजजी की भविष्यवाणी जल्दी ही पूरी हो..आमीन...

प्रवीण पाण्डेय April 1, 2011 8:09 AM  

मरने का शौक या जीने की हिम्मत, सुन्दर समीक्षा।

pallavi trivedi April 1, 2011 9:31 AM  

marne ka shauk to tumhara hero pura kar hi lega....magar amar hone ke liye sirf marna kafi nahi hai.

Sonal Rastogi April 1, 2011 2:50 PM  

chaliyee aapko time to mila

Manoj Lakhotia April 1, 2011 3:01 PM  

aage kya kiya usne ????????

K C April 1, 2011 8:04 PM  

वाह ! जिस काम के लिए कुश को प्यार किया जाता है, वही काम...

वन्दना अवस्थी दुबे April 1, 2011 11:32 PM  

क्या बात है!!

अनूप शुक्ल April 2, 2011 7:58 AM  

बहुत खूब! नीरज गोस्वामी जी की बात के सही होने का इंतजार है। :)

मरने की बात पर कैलाश बाजपेयी जी की कविता की ये पंक्तियां याद आ गयीं:
अथक सिलसिला है कीचड़ से पानी से
कमल तक जाने का
पाप में उतरता है आदमी फिर पश्चाताप से गुजरता है
मरना आने के पहले हर कोई कई तरह मरता है
यह और बात है कि इस मरणधर्मा संसार में
कोई ही कोई सही मरता है।

कम से कम तुम ठीक तरह मरना।


पूरी कविता यहां पढी जा सकती है। :)

गरिमा April 2, 2011 3:15 PM  

कहानी शानदार बनी है....

पर अभी कहानी से हटकर ख्याल आ गया

अक्सर ऐसा होता है... जो जीने की तमन्ना रखते है, मौत उन्हे जल्दी बुला लेती है

और जीना ही नहीं चाह्ते वो मर भी नहीं पाते

या फिर जब तक जीने के लिये इच्छा नही होती... जिंदगी साथ निभाती है... जिस दिन इसकी शिद्दत होती है उसी दिन छोडकर चली जाती है

अक्सर ऐसा देखने मे आया है... अजीब सी उलझन है

anjule shyam April 5, 2011 1:50 PM  

kya kahani hai........har koi shayad apna name kahin na kahin khuda dekhna chahta hai..........

Ravi Rajbhar April 6, 2011 8:19 AM  

Kya kahu aapki is post par...
bas adbhut.

shikha varshney April 6, 2011 4:53 PM  

बहुत पहले देख ली थी यह फिल्म आपकी .परन्तु प्रतिक्रिया के लिए शब्द नहीं मिले.
बेहतरीन लिखा है.

Parul April 8, 2011 9:36 PM  

aap apni kalam se badhne ka manda rakhte hai...

वर्षा April 13, 2011 6:37 AM  

बहुत शानदार, सचमुच फिल्म की तरह कहानी आंखों के सामने से गुज़र गई

सञ्जय झा April 15, 2011 1:54 PM  

लड़का जा चुका था मगर सिक्का अभी भी पटरी पर पड़ा था..

bhai kush ji.....goswamiji ke vichar se hum bhi iqtaphaq rakhte hain.........

sadar.

neelima sukhija arora April 19, 2011 2:06 PM  

कुश, दिस इज नाट डन, महीनों बाद ब्लाग पर लौटते हो, उसपर तुर्रा ये कि कोई खोज खबर नहीं कि नई पोस्ट लिखी है....वैसे फिल्म रिलीज कब कर रहे हो

रंजन (Ranjan) April 27, 2011 4:32 AM  

काश सिक्का सोना बन गया होता... enjoyed!!

डा. अरुणा कपूर. May 12, 2011 4:50 PM  

हर मनुष्य को ऐसी ही कोई न कोई आस जीवित रख रही होती है!...जिसके पुरे होने के इंतजार में जीवन चैन से गुजर जाता है!...वरना जीवन तो दुःखो से भरा हुआ है!...बहुत ही अच्छी और शिक्षाप्रद कहानी!...धन्यवाद!

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वो बात कह ही दी जानी चाहिए कि जिसका कहा जाना मुकरर्र है..

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जयपुर, राजस्थान, India
खुद को ढूँढने की कोशिश में कितने ही थानों पर अपनी गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करा चुका हूँ.. भूली हुई याददाश्त साथ लेकर जितना जिया जा सकता है उस से थोडा सा ज्यादा जी रहा हूँ.. ईश्वर की बनायीं दुनिया से अभी तक विश्वास उठा नहीं है.. इसलिए अभी तक यही पड़ा हूँ.. बर्दाश्त की हद से थोडा ज्यादा बर्दाश्त कर लेता हूँ.. गुलज़ार को समझने की कोशिश जारी है.. अनुराग जैसा सिनेमा बना लु तो कुछ सुकून मिले.. दोस्तों की फेहरिस्त लम्बी है.. पसंदीदा फिल्मो की फेहरिस्त लम्बी है, क्या कहूँ साला यहाँ ख्वाहिशो की फेहरिस्त लम्बी है.. यहाँ वहां जब कही कुछ बात नहीं बनी तो ब्लॉग बना लिया..देखते है इस से अब कब तक बनती है..

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