मंगलवार, १३ सितम्बर २०११

मृत्यु के बाद



शांति जब दरवाज़ा खोलकर अन्दर घुसी तो उसकी उम्मीद थी कि दोनों बच्चे सो चुके होंगे। बहुत हौले से अजय और शांति घर में दाख़िल हुए। अजय ने अपने कपड़े उतार कर किनारे कर दिए और नहाने चला गया। उसी दौरान दोनों बच्चे कमरे में आ गए। हलकी आहटों से बचपन की गाढ़ी नींद नहीं खुला करती। शांति समझ गई वो पहले से जगे हुए थे और शायद उनका इंतज़ार कर रहे थे। एक रोज़ पहले शांति के नाना का देहांत हो गया। और वो अजय के साथ दफ़्तर से सीधे अपने ननिहाल चली गई थी। शांति ने बच्चों को बता दिया था और बीच-बीच में उनकी ख़बर भी लेती रही थी। बच्चे शांति के नाना से एक बार मिले थे। उनसे भावना का कोई जुड़ाव नहीं था पर उनके बारे में जानने को उत्सुक ज़रूर थे। शायद ये समझना चाह रहें हों कि जिस झुर्रीदार चेहरे और जर्जर काया को उन्होने देखा था- क्या था उसमें ऐसा कि उनके माँ-बाप दोनों भागे-भागे चले गए। शुरुआत अचरज ने की-

नाना मर गए..?
हाँ बेटा..
कितने साल के थे नाना.. ?
बानबे साल के..
बानबे.. ?
बानबे मतलब नाइन्टी टू..
क्या हुआ था उनको.. ?
बीमारी तो कोई नहीं थी.. बस बूढ़े हो गए थे..
क्या सचमुच उन्हे कोई बीमारी नहीं थी, अब पाखी ने पूछा।
.. दवा खाकर ठीक होने वाली कोई बीमारी नहीं थी..
तो फिर मर क्यों गए.. ? अचरज ने पूछा।

यह मुश्किल सवाल था। क्यों मर जाते हैं लोग? नाना बहुत मेहनती थे। अस्सी साल की उमर तक अपने सारे काम अपने आप करते थे। अपने कपड़े भी आप धोते थे। घूरकर देख देते थे तो सामने वाला घबराकर भाग खड़ा होता था। कड़कती आवाज़ में किसी को डाँट देते थे तो उसका पेशाब निकल जाता था। चलते थे तो ऐसा लगता था कि सरपट दौड़ रहे हों। उन्होने न तो कभी अंग्रेजी दवा खाई और न कभी हस्पताल का मुँह देखा। हमेशा हाज़मा दुरुस्त रहा। रोज़ नियम से दो घंटे पूजा करते थे और पूजा करके ही खाते थे। दिन में एक ही बार टट्टी जाते और अगर कभी संयोग से दूसरी बार गए भी तो चाहे पूस की आधी रात हो और आसमान से बरफ बरस रही हो- नहाते ज़रूर थे। पर पचासी आते-आते नाना की देह ने जवाब देना शुरु कर दिया। आवाज़ में थरथराहट आ गई। हाथ की पकड़ ढीली पड़ गई। पैर डगमगाने लगे। एक हाथ से दूर के आदमी को पहचानने में धोखा खाने लगे। फिर भी दिल, कलेजे और गुर्दे पर कोई असर न हुआ। सब कुछ खा कर पचाते रहे। फिर भी मर गए। क्यों मर गए -ये तो शांति को भी ठीक-ठीक नहीं मालूम।

शांति के पैर को थपथपाकर अचरज ने फिर से पूछा- ममा बताओ न क्यों मर गए नाना.. ?

मुर्दे सवाल नहीं करते। जीवित लोग ही सवाल करते हैं। चूंकि जीवित लोगों के लिए जीवन सहज अवस्था है और मर जाना उस सहजता से विक्षेप - एक अपवाद। इसीलिए हम कभी सवाल नहीं करते कि हम क्यों जी रहे हैं। ये सवाल भले कर लें कि बच्चे कहाँ से आते हैं पर ये सवाल नहीं करते कि बच्चे क्यों पैदा होते जा रहे हैं। और हर पैदा होने वाला बच्चा कभी न कभी ये सवाल पूछ ही लेता है जो अचरज शांति से पूछ रहा था- वो क्यों मर गए।

वो मर गए क्योंकि एक दिन सबको मरना होता है- शांति ने एक आर्यसत्य दोहराया।

वो कह सकती थी कि मरने के एक-दो महीने पहले से नाना को खाने में बहुत तकलीफ़ होने लगी थी। कुछ भी उनके गले से उतरता नहीं था। रोटी, बिस्कुट, फल, हर चीज़ वो मुँह में डालकर चूसकर उगल देते थे। उनके गले की नली सूख गई थी। उन्हे हस्पताल ले जाकर भर्ती करने की कोशिश की गई- वो नहीं माने। गले में प्लास्टिक की नली डालकर खाना खाने को भी वे राजी नहीं हुए। धीरे-धीरे उनका सारा बदन सिकुड़ता चला गया। हड्डियो से जो मांस झूलता रहता था- वो सब सूख गया। नाना के नाम पर मुरझाई हुई खाल में लिपटा हुआ एक कंकाल भर रह गया। अगर वो अचरज को ये सब बताती तो शायद वो कहता कि नाना भूख से मर गए थे। पर कहा ये भी जा सकता था कि उन्होने किसी तपस्वी की तरह अनशन करके अपने शरीर को छोड़ दिया था।

मरने के बाद लोग स्वर्ग में जाते हैं न? अचरज ने पूछा।
सब लोग नहीं.. कुछ लोग नरक में भी जाते हैं- पाखी ने उसकी बात को छाँटा।
तो नाना जी स्वर्ग में गए कि नरक में? अचरज के प्रश्न हनुमान जी की पूँछ की तरह थे।

शांति के पास उसके सवाल का कोई भी सच्चा और संतोषजनक जवाब नहीं था। बहुत सारे संतोषजनक जवाब थे पर वो सारे के सारे झूठे थे। एक सच्चा जवाब था मगर संतोषजनक न था- मृत्यु के क्षण के बाद अज्ञात का एक अनन्त अंधेरा था। वो अंधेरा इस क़दर बेचैन करने वाला था कि कोई उसे स्वीकार करने को राजी नहीं था। दुनिया की हर संस्कृति ने इस सवाल से जूझने के बाद उसके आगे घुटने टेक दिये हैं और मृत्यु के बाद के अनन्त अंधेरे पर अपनी कल्पना की पच्चीकारी की है। स्वर्ग और नरक के विचार में मृत्यु के बाद जीवन की कल्पना छिपी है। ऐसी ही दूसरी कल्पनाएं हर संस्कृति ने मृत्यु पर आरोपित की हैं। किसी में सालोंसाल क़ब्र में दबे रहने के बाद एक रोज़ सारे मुर्दों का उठाकर हिसाब कर दिया जाता है और अनन्त काल तक जन्नत या अनन्तकाल के लिए दोज़ख़ में धकेल दिया जाता है। तो किसी संस्कृति में देह के मर जाने के बाद भी एक अंगूठे के आकार का प्रेत बचा रहता है जो खा-पी कुछ भी नहीं सकता मगर भूख और प्यास से पीड़ित रहता है और यमदूतों के साथ यमलोक की यात्रा करता है। अगर उसके प्रियजन उसके लिए तर्पण और श्राद्ध न करें तो इधर-उधर भटकता फिरता है। कुछ मानते हैं कि शरीर के साथ आत्मा नाम का जो अज्ञेय तत्व होता है वो रौशनी के एक मैदान में जाकर अपनी थकान मिटाता है और फिर एक नया शरीर धारण कर फिर से जन्म लेता है।

नाना जी कहीं नहीं गए.. वो हमारे आस-पास ही हैं.. हमें देख रहे हैं और हमारी रक्षा कर रहे हैं- शांति ने संतोषजनक झूठ का विकल्प चुना। यह एक विचित्र झूठ था। इस झूठ में किसी भी चेष्टा और प्रतिक्रिया से हीन हो जाने पर जिसे मरा मान लिया गया, वही मरने वाला मरकर इतना शक्तिशाली हो जाता है कि अपने प्रियजनों की हिफ़ाज़त करने लगता है। अचरज के लिए यह थोड़ी मज़ेदार बात थी और थोड़ी डरावनी। उसने अगला सवाल नहीं पूछा और चुपचाप कमरे के भीतर एक अदृश्य आदमी की कल्पना से रोमांचित होने लगा।

आदमी के भीतर जीने की कितनी तगड़ी वासना है कि मृत्यु की इतनी विविध और विचित्र कल्पनाओं में आदमी ने कहीं भी मृत्यु के विचार को कोई मान नहीं दिया। मरनेवाले को मरकर भी जीवन की रक्षा करनी पड़ती है।

***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी)

शनिवार, १० सितम्बर २०११

एक चुटकी नमक



समय से दफ़्तर पहुँचने के इरादे में शांति की सुबहें काफ़ी हड़बड़ी से गुज़रती हैं। हड़बड़ी की उस अपवित्र नदी में रोज़-रोज़ उतरने से बचने का नया तरीक़ा शांति ने यह निकाला कि पूरे घर की घड़ियाँ दस मिनट आगे कर दीं। अपने आप को बुद्धू बनाने की इस मासूम कोशिश में शांति लगभग कामयाब हो ही गई थी। सब कुछ जानते हुए भी उस ने सुबह के सारे काम दस मिनट पहले कर लिए और दस मिनट पहले दरवाज़े के बाहर भी हो गई। वो बिना किसी हड़बड़ी के दफ़्तर पहुँच ही गई होती मगर एक आवाज़ ने उसे रोक लिया।

हलो जी.. मैं मीना हूँ..’ शांति ने देखा कि एक छरहरी और सलोनी महिला सामने के फ़्लैट में से उस की ओर मुख़ातिब है। जिस तरह के मुख़्तसर अंदाज़ से जिस संवाद की शुरुआत हुई, उसी तरह पर क़ायम नहीं रहा। मीना ने अगले आठ मिनटों को अपने परिचय के नाम किया। शांति अपने तेज-तरार्र छवि के बावजूद किसी दोस्ताना अजनबी से बदतमीज़ी करने का साहस नहीं रखती थी। अपना परिचय हो जाने के बाद मीना ने उसे नई दोस्ती की शुरुआत माना और दोस्ती में शक्कर जैसी मामूली चीज़ को आड़े नहीं आने देने का ऐलान भी कर दिया- आपके पास थोड़ी सी शक्कर होगी क्या..? भला भारत का ऐसा कौन सा बदनसीब घर होगा जिसके अन्दर थोड़ी सी शक्कर रखने की भी गरिमा न हो। मदद शब्द के आगे बेबस होकर तत्पर हो जाने वाली शांति को शक्कर ला कर देने में पूरे डेढ़ मिनट लगे। और अगले साढ़े चार मिनट मीना ने शांति का धन्यवाद करने में लगाए जिसके आदान-प्रदान से दो पड़ोसियों की दोस्ती की बड़ी मीठी शुरुआत हुई थी। अपनी मीठी पड़ोसन से मुक्ति पाने के क्षण में शांति अपनी घड़ी के अनुसार पूरे चौदह मिनट लेट हो चुकी थी और उसके भीतर रोज़ से कहीं ज़्यादा हड़बड़ी मची हुई थी। हालांकि ये ख़याल उसे दफ़्तर जाकर ही आया कि उसने घड़ी दस मिनट आगे कर दी थी।

उस दिन जब शांति लौटकर आई तो मीना उसे बाहर ही मिल गई। इस बार उसने अपने बारे में कम बात की। सात मिनट उसने दूसरे पड़ोसियों के जीवन के कुछ ऐसे पहलुओं को अपने बयान से रौशन किया जिनके विषय में शांति को कई साल के परिचय के बाद भी कुछ हवा नहीं थी। शांति ने माना कि उसकी नौकरी ही इस ग़फ़लत के लिए ज़िम्मेदार थी। और इस क्षेत्र में अपनी प्रतिभाहीनता की बात को पूरे तौर पर छिपा ले गई। अगले तीन मिनट मीना ने शांति की नौकरी की बारीक़ियों को समझने में समर्पित किए। और शांति ने बिना ये ख़याल किए कि मीना उन सूचनाओं को एक ख़ुराक़ की तरह ग्रहण कर रही है। और मुलाक़ात शेष होने ठीक पहले मीना ने एक आलू माँगकर पड़ोसी धर्म की नींव को और पुख़्ता किया।

फिर तो रोज़ सुबह-शाम, दफ़्तर आते-जाते यही क्रम हो गया। शांति इस बात का फ़ैसला कर ही नहीं पाती थी कि चीज़े माँगने के लिए मीना बातों की भूमिका बनाती है या फिर बतरस की तलब में चीज़े माँगने का बहाना करती है। क्योंकि न तो कभी उसकी बाते शेष होतीं और न ही छोटी-मोटी चीज़ों की माँग। उसके घर में कभी धनिया नहीं होता, कभी अदरक, कभी मिरचा, तो कभी दही। एक दो शांति ने यह भी सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वो कुछ खरीदती ही नहीं, सिर्फ़ माँगकर ही काम चलाती है- शांति को क्या पता.. और किसके घर से वो क्या-क्या माँगती है। लेकिन फिर शांति को अपनी ही सोच पर कोफ़्त हुई।

फिर एक सुबह मीना आ गई ‘शांति, बड़ी मुसीबत है.. मुझे तो ये फ़ोन ही समझ नहीं आता.. नम्बर किसी को कैसे भेजते हैं?’ बस हो गई पन्द्रह मिनट की छुट्टी। जब तक शांति उसे एक सरल और सुलभ तरीक़ा समझाती, मीना अपने प्रचार उपकरण में अटकी हुई सूचनाओं से अपने को ख़ाली करती रही। फ़ोन की समस्या सुलझी तो सीडी में उलझ गई। ‘देखो न, न जाने क्या हो गया है इस सीडी को.. ज़रा चेक तो करो मेरे यहाँ चल ही नहीं रही.. मेरी बड़ी फ़ेवरिट सीडी है, मेरे भगवान के भजन है इसमें.. सुनती रहती हूँ इसे..’ वैसे बड़ी भक्त क़िस्म की औरत है मीना। सवेरे शाम पूजा करती है। हफ़्ते में दो दिन उपवास रखती है और तीन दिन मन्दिर जाती है। और जब भी मन्दिर जाती है शांति को प्रसाद देना नहीं भूलती। अगर उस दिन शांति न मिले तो अगली बार मिलने पर सारे प्रसाद चुकता कर देती है।

एक दिन शांति नीबू लेने नुक्कड़ की दुकान तक जा रही थी कि दरवाज़ा खोलते ही मीना दिख गई। शांति को लगा कि ज़रूर कुछ माँगेगी और माँगा भी- ‘आपके पास बाम होगा क्या.. बड़ा सरदर्द हो रहा है दोपहर से..’ शांति के पास बाम नहीं था। वो चलने लगी।
किधर जा रही हो..’
नुक्कड़ तक.. नींबू लाने..’
नींबू..? तो उसके लिए नुक्कड़ तक क्यों जा रहे हो.. हम क्या मर गए हैं..’

मीना के स्वर में एक विचित्र तल्ख़ी थी। शांति को अचानक एहसास हुआ कि उसने अलिखित पड़ोसी धर्म के विरुद्ध आचरण किया। किसी तरह उसने बात को सम्हाला और मीना की आहत भावनाओं की रक्षा की। उस दिन के बाद से शांति किसी चीज़ की अचानक ज़रूरत खड़ी होने पर पहले मीना के बारे में सोचती, बाद में किसी और के बारे में। मगर परस्पर प्रेम के ये भले दिन ज़्यादा दिन नहीं टिके। मीना के मकान की लीज़ ख़त्म हो गई और वो दूसरे मुहल्ले में रहने चली गई। जब से वो गई है शांति को दफ़्तर से आते-जाते कोई नहीं टोकता, कोई नहीं रोकता। मुहल्ले में क्या हो रहा है शांति को पता चलना बंद हो गया। शांति का जीवन पुराने ढर्रे पर लौट गया।

एक शाम शांति ने देखा कि दाल में छौंक लगाने के लिए लहसुन नहीं है। बेख़याली में दरवाज़ा खोल कर मीना के दरवाज़े तक चली आई और उसकी फ़्लैट की घंटी पर उंगली रखकर अचानक याद आया कि मीना तो चली गई। वहाँ कोई और रहने आ गया है। मीना होती तो बेहिचक घंटी बजाकर दोस्ती कर लेती और लहसुन भी माँग लेती। पर शांति सकुचा गई और शांति को पहली बार मीना जैसा बिंदास न होने पर अफ़सोस हुआ।

क़रीब दो हफ़्ते बाद शांति दफ़्तर से लौटकर साँस ले ही रही थी कि घंटी बजी। देखा तो मीना थी। एक पल के लिए शांति भूल ही गई कि मीना अब उसकी पड़ोसी नहीं है। उसने सोचा कि मीना शक्कर या नमक या ऐसी ही कोई चीज़ माँगने आई है। जैसे ही उसकी नज़र मीना के कपड़ों और मेकप पर गई शांति अपने कालभँवर से उबर आई। मीना कुछ माँगने नहीं, ख़ास उससे मिलने आई है। और दो मिनट बाद जैसे ही मीना ने अपने नए मुहल्ले की सारी खट्टी-मीठी और नमकीन ख़बरें उसे बताना शुरू किया शांति की समझ आया कि वो नमक लेने नहीं, नमक देने आई थी। शांति अपने मुहल्ले की तमाम ख़बरों से अवश्य महरूम हो गई थी पर किसी और मुहल्ले की सारी ख़बरें उसे मिलने लगीं।

***


(28 अगस्त को दैनिक भास्कर में शाया हुई) 

शुक्रवार, ९ सितम्बर २०११

छुपन -छुपाई



शाम के समय दफ़्तर सिर्फ़ सन्नाटे से गूँज रहा था। शांति को दीवार की ओर मुँह करके सौ तक गिनती गिननी थी पर उसने नहीं गिनी थी। फिर भी अचरज छुप गया था। शांति को उसे खोजना था पर शांति का मन खेल में नहीं था। दफ़्तर ख़त्म हो गया था पर शांति का काम ख़त्म नहीं हुआ था। छूटे हुए कामों ने उसके मन को उलझा रखा था। अचरज ऐसी किसी उलझन में नहीं था। वह शुद्ध प्रतीक्षा कर रहा था ख़ुद को खोज लिए जाने की। यह जैसे शिकारी और शिकार का एक खेल था। शांति को शिकारी होना था और अचरज शिकार की भूमिका में था। वो जो महसूस कर रहा था वो शायद एक आदिम रोमांच था जिसने उसके शरीर की सारी इंद्रियों को अपने चरम सामर्थ्य तक खींच डाला था। आँखों और कान निहायत चौकन्ने, हाथ-पैर किसी भी पल हरकत में आ जाने के लिए तत्पर और दिल पूरे शरीर में ख़ून को तेज़ी से फेंकने के लिए धौंकनी सा धौंक रहा था। एक-एक पल के प्रति सचेत था वो। जब बहुत लम्बे-लम्बे ढेर सारे पल यूँ ही बीत गए तो उसने बहुत हौले से झांक कर देखा उस दिशा में जिधर से शांति को आना था। शांति वहीं अपनी मेज़ के पीछे अपने लैपटॉप में सर सटाए बैठी थी।
ममा, मैं छुप गया हूँ.. आओ! अचरज वापस अपने छुपने की जगह जाकर उत्तेजना में उतराने लगा।

अचरज स्कूल से सीधे शांति के दफ़्तर आ गया था क्योंकि घर पर न तो सासू माँ थीं और न ही पाखी। और दफ़्तर अचरज के लिए एक अनोखा संसार था। उसका विस्तार, उसकी ऊँची छत, छोटे-छोटे चौकोर हिस्सों में विभाजित लम्बे काउन्टर, और हर कुछ का सलेटी-नीली रंगत में रंगा होना भी अचरज के लिए एक भूलभुलैया सा है। चमचमाती रौशनी से जगमगाने के बावजूद वो सारा कुछ अचरज के लिए एक रहस्य के खोल से ढका हुआ है। उस रहस्य का अनजानापन अचरज के लिए भय और उत्तेजना का आधार है।

इसी भय और उत्तेजना की राह से गुज़रकर उसने सबसे पहले घर के अनजानेपन का अनुसंधान किया था। फिर घर से निकलकर जिस-जिस इमारत में रहे उन इमारतों का अनुसंधान किया था। और फिर स्कूल में भर्ती हो जाने के बाद स्कूल में सहज रूप से न दिखने वाले कोनों और अँतरों में छुपे हुए आयामों का भी अपने साथियों के साथ अन्वेषण किया था- बिना यह जाने कि स्कूल में दाख़िला लेने वाली हर पीढ़ी उन्ही कोनों का बार-बार अन्वेषण करती है और उसके रोमांच से गुज़रती है।

अचरज की आशा थी कि उसके शिकार का चरम किसी दबोच लिए जाने वाली चेष्टा या फिर चौंका देने वाले सुर से होगा। पर शांति ने जो किया वो बिलकुल भी उस स्वभाव का नहीं था। अपनी उलझनों को लपेटती हुई सी शांति आई और सिर्फ़ यह कहकर उसके बग़ल से गुज़र गई – चलो! न कोई हमला, न कोई चीख, न जक़ड़ने की जल्दी और न बच निकलने की हड़बड़ी - शिकार के किसी तत्व का कुछ भी नहीं मज़ा नहीं मिला अचरज को। वो मायूस हो गया। अपनी जगह से हिला भी नहीं। शांति खीजकर उलटे पाँव लौटी और लगभग उसे घसीटते हुए सी अपने साथ नीचे ले गई।

पर ममा, तुमने प्रौमिस किया था..
हाँ किया था.. पर अभी टाईम नहीं है बेटा.. घर भी तो जाना है..
प्लीज़ ममा.. चलो खेलो न.. प्लीज़ ममी प्लीज़..
अचरज अपने बालहठ में उतरकर पैर पटकने लगा। हारकर शांति ने समझौते की राह लेनी चाही- अच्छा ठीक है.. घर चलकर खेलेंगे..
घर पर तो मैं रोज़ खेलता हूँ.. यहाँ खेलते हैं न ममा.. कितनी बड़ी जगह है.. यहाँ कितना मज़ा आएगा..

शांति ने उसे फिर से बहलाने की कोशिश की पर अचरज ने ठुनकना शुरू कर दिया। तब तक शांति उसका हाथ पकड़ कर खींचते हुए पार्किंग तक ले आई थी। शांति ने उसे झांसा दिया कि दफ़्तर में तो चौकीदार ने ताला मार दिया होगा- तो वहाँ लौटना तो मुमकिन नहीं और अपनी नेकनीयत दिखाने के लिए उसे पार्किंग में छुपन-छुपाई खेलने का प्रस्ताव दे डाला। अचरज ने नज़र उठाकर देखा- पार्किंग में अंधेरे और उजाले का एक अजब चितकबरा दृश्य फैला हुआ था। काफ़ी कुछ ख़ाली पार्किंग में कहीं-कहीं कारें और मोटरसाईकलें खड़ी हुई थीं। वो एक ऐसी जगह थी जो नन्हे अचरज के लिए बिलकुल अपरिचित और अनजान थी। उसे देखकर ही अचरज के दिल में अज्ञात के भय की एक लहर सी थरथराने लगी। उस भय की छायाओं को उसके चेहरे पर देख शांति को यह उम्मीद हुई थी कि वो ना कर देगा। पर अचरज ने हामी भर दी।

शांति के पास अपने ही प्रस्ताव से पलट जाने का विकल्प नहीं बचा। अचरज एक बार शिकार बन चुका था- अब शांति की शिकार बनने की बारी थी। शांति ने सोचा- वो ऐसी जगह छुपेगी जहाँ से उसे खोजने में अचरज को ज़रा भी मशक़्क़त न करनी पड़े। अचरज उसके स्कूटर के पास वाली दीवार में मुँह गड़ाकर गिनती गिनने लगा और शांति उससे एक खम्बा छोड़कर दूसरे खम्बे के पीछे छुपकर खड़ी हो गई। लेकिन शांति उस पल में मौजूद ही नहीं थी। वह दो घंटे पहले के पल में पैदा हुई किसी दफ़्तरी चिंता में बार-बार गोते खा रही थी।

वहीं खड़े-खड़े जब कुछ मिनट गुज़र गए और अचरज नहीं आया तो अचानक शांति को फ़िक़्र हुई। उसने मुड़कर देखा -अचरज नहीं दिखा। खेल के नियम के अनुसार उसे हर सूरत में अपने आपको छुपाए रखना चाहिए पर वो खेल भूल गई और खम्बे की आड़ छोड़कर वो अचरज को देखने के लिए पार्किंग के बीचोबीच आ खड़ी हुई। फिर भी अचरज उसे कहीं नहीं दिखाई दिया। शांति ने आवाज़ दी- अचरज!! कोई जवाब नहीं आया। दो-तीन बार और पुकारा- कोई जवाब नहीं। फिर तो बुरी तरह घबरा गई शांति। हड़बड़ाए क़दमों से पहले पार्किंग के एक कोने तक दौड़ गई और फिर दूसरे कोने तक। अचरज कहीं भी नहीं मिला। तरह-तरह के डर उसके मन में उमड़ने लगे। हथेलियों से पसीना छूटने लगा, मुँह सूख गया, सांसे उखड़ने लगीं। क्या करे - कुछ समझ नहीं पा रही थी। दिमाग़ हज़ार दिशाओं में एक साथ दौड़ने लगा। उसे ऐसा लगने लगा जैसे कि पैरों में जान ही न हो- सारी शक्ति निचुड़ के कहीं बह गई हो। लगा कि चक्कर खाके गिर पड़ेगी। तो खम्बे के सहारे जैसे ही अपनी देह को टिकाया एक तीखी आवाज़ ने उसे बुरी तरह चौंका दिया। एक पल वो आवाज़ भय की एक लहर बनकर उसके ह्रदय को चीरती चली गई और कहीं गहरे जाकर चुभ सी गई। वो अचरज था जो खम्बे के पीछे से आकर शिकार कर लेने का विजयघोष कर रहा था। अचरज की उत्तेजना में एक शिकारी की सफलता की ख़ुशी थी। पर शांति ख़ुश नहीं हुई, वो झुंझला गई और चिड़चिड़ाने लगी और किसी तरह से अचरज को झापड़ मारने से ख़ुद को रोका। खो जाने और मिल जाने का जो आदिम खेल अचरज खेलना चाह रहा था उसका कोई स्वाद था जो शांति बड़े होने की कसरत में कहीं भूल आई थी।
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