फ़ुरसतिया की डायरी

येल्लो आज फिर सबेरा हो गया। सूरज फिर अपनी किरणॊं का आर्केस्ट्रा लेकर पूरी दुनिया में अपना जलवा दिखाने लगें हैं। दुनिया जगर-मगर कर रही है। हम सोचते हैं कि हम क्या करें?

सोचते हैं डायरी लिखी जाये क्या? आजकल क्या हमेशा से डायरी लिखने का फ़ैशन रहा है। शिवबाबू आजकल देखो दुर्योधन की डायरी छाप रहे हैं। कापीराइट का लफ़ड़ा तो है नहीं। बेचारा दुर्योधन भी न जाने कहां दंड-पेल रहा होगा। कौन आता है दावा करने कि ई उसका लिखा नहीं है।

रविरतलामी जी भी न जाने कैसन ब्लागर हैं! न जाने कौन दुनिया की बात करते हैं। कहते हैं ब्लागिंग में कंटेट ही चलेगा। अरे रविजी, आप ई का कह देते हैं। हमें बहुत निराशा सी हुयी। कंटेटै चलेगा! लात-जूता को कौनौ जगह नहीं? अबे-तबे एकदम्मै गायब कर देंगे आप? गाली-गलौज न होगी तो अभिवयक्ति कैसे होगी जी? जनभाषा विरोधी हैं आप! आपको कहने के पहले सोचना चाहिये। आप चुप क्यों हैं? अच्छा सोच रहे हैं। बड़े गुड व्बाय हैं जी। सोचिय और सोच के बताइये। ज्यादा दिमाग पर जोर मत दीजियेगा। ऐसे ही ब्रिस्क थिंकिग कीजिये बस्स!

देबाशीष भी अजब-गजब हैं। कहते हैं लीक से हटकर कुछ करो। अरे हम कोई शायर, सिंह, सपूत हैं जो लीक से हटें। हम न हटेंगे। हम कायर ,कपूत ही भले। अच्छा आप कहते हैं ई पूरा दोहा सुनायें जिसमें ई वाला फ़ार्मूला दिया है-
लीक छोड़ कायर चले, लीकहिं चले कपूत,
लीक छोड़ि तीनों चलें, शायर, सिंह,सपूत!

अब देखिये शायर कित्ता तो चालाक होता है कि सिंह और सपूत के साथ लग लिया। जबकि सच ये है कि सिंह और सपूत से शायर का कोई जोड़ नहीं मिलता। अगर मिलता तो ई न होता कि दुनिया में सिंह मर रहे हैं, सपूत कम हो रहे हैं जबकि शायर आबादी के अनुपाती में बढ़े चले जा रहे हैं। जिसको देखो शेर उछाल देता है-मुलाहिजा फ़र्मायें हुजूर। अब ई तो हमारी भलमनसाहत है वर्ना उनका मुलाहिजा और उनका शेर उनको ‘रिटर्न इन ओरीजिनल‘ कर देते -हमारे से इस चिरकुटई का कोई ताल्लुक नहीं है।

डा. अमर कुमारजी बड़े हुशियार बनते हैं। कहते हैं उनकी घरैतिन उनको टिपियाने से रोकती हैं। बड़े ओल्ड टाइप के बहाने हैं जी ये। कोई अच्छे बहाने बनाने चाहिये। अरे जब ब्लाग लिखने जैसा काम करने से नहीं रोका तो टिपियाने से कैसे रोक सकता है कोई। न, न, न, हमको ई मत बताइये कि आपके कहने का मतलब ये था या आप सच कह रहे हैं। हम सब समझते हैं। हम नारद से भी पहले जमाने के ब्लागर हैं जी। हमारी भी घरैतिन सबेरे से न जाने कित्ते बार न जाने क्या-क्या कहके गई हैं। लेकिन हमारा ब्लाग-नेह का नाता बना हुआ है। पोस्ट करके ही उठेगें। ब्लागिंग तो जी ‘एक आग का दरिया है और डूब के जाना है। ‘ ।

ऐसे तो एग्रीगेटर की भूमिका अब गौण हो्ती जायेगी। जिसको जो पढ़ना होता है पढ़ ही लेता है। लेकिन वैसे हम बतायें कि हमको एग्रीगेटर के रूप में सबसे अच्छा चिट्ठाजगत लगता है। किस लिये? काहे बतायें क्यों? अच्छा बता देते हैं। ऊ इसलिये कि चिट्ठाजगत में हमारी रेटिंग टाप पर रहती है। कभी न लिखें तो भले नीचे हो जायें लेकिन जहां लिखे तो फिर टाप पर पहुंच जाते हैं। इसीलिये हम चिट्ठाजगत को बहुतै लव करते हैं जी। बकिया और न जाने कित्ते फ़ीचर हैं सकलकों के उनमें से बहुत तो हमको बुझाते ही नहीं है।

ब्लागवाणी से आजकल कुछ लोग नाराज से हैं। कुछ तो बहुत नाराज हैं। इत्ता गरिया रहे हैं ब्लागबाणी कि कुछ पूछो मत। हमें लगता है कि गरियाने वालों को ब्लागिंग की जगह पाडकास्टिंग करना चाहिये। मजा दोगुना क्या चौगुना हो जायेगा। हमने एक दिन यशवंत सिंह से फोन पर बात करते हुये सलाह भी दी कि भय्ये कुछ वर्चुअल माध्यम में कुछ रियलिटी लाओ । सारी मल्लाही गालियां जिनमें अस्सी के कवि-सम्मेलनी अंदाज भी हों, सब आडियो-वीडियो कास्ट करें। क्योंकि गालियों का जो मजा सुनने-सुनाने में है वो पढ़ने-पढ़ाने में तो नहिऐ है जी।

लेकिन सब लोगों से हमारा यही कहना है कि किसी संकलक से नाराजगी रखना बेकार की बात है। आपके लिखे में दम है तो लोग आपको बांचने आयेंगे। दम न होगा तो आप बिना हड्डी और दम के बम की तरह बेपढ़े रहेंगे।

संकलक से नाराजगी के बाद उसके संचालक को गरियाना तो और खराब बात है। ब्लागवाणी के संचालक मैथिली जी को जिस तरह कुछ लोगों ने अभद्र भाषा में गरियाया , बहुत खराब और निंदनीय बात है। और कुछ नहीं तो मैथिलीजी की उमर का तो लिहाज करना चाहिये ! अपनी बात शालीन तरीके से भी रखी जा सकती है।

हम भी कहां से कहां पहुंच गये। शुरू हुये थे कलकत्ता से पहुंच गये रंगून और अब वहां से कर रहे हैं टेलीफून-तुम्हारी याद सताती है।

हमने पिछली पोस्ट में कुछ दोहे ठेल दिये। शिवबाबू और दूसरे साथियों नहले के जबाब में दहले मार दिये। अनिल रघुराज का कहना था कि कायदन दोहे यही हैं-

ब्लाग सखी ने झट से गहा ब्लाग सखा का हाथ,
बिना टिप्पणी यदि तुम गये, छूट जायेगा साथ।

गोरी पनघट पर मिली, सखी रही कोहनियाय,
करती चैटिंग रात भर, अब यहां खड़ी जमुहाय।

अनुराधाजी ने लिखा-

गोरी पनघट पर मिली, सखी रही कोहनियाय,
करती चैटिंग रात भर, अब यहां खड़ी जमुहाय।

तभी आपकी आंखें भी लाल है ।सब माजरा समझ में आ रहा है।

ये बांच कर हमारी आंख तो जैसी थी वैसी ही रहीं, गाल लाल – गुलाल हो गये। बवाल है जी।

शिवबाबू ने कहा सिलसिला जारी रहे। अगले दिन हमने एक हायकू ट्राई मारा। लिखा था-


होली के रंग,
चढ़े गये झमाझम ,
मस्त समा है!

लेकिन रंग जमा नहीं सो पोछ डाला।

फिर कल एक त्रिवेणी पर ट्राई मारा-

१.फूल बरजते हैं कलियों को ,भौरों से न नैना लड़ाओ,
कलियां टोकती हैं फ़ूलों को, तितलियां दूर भगाओ।

सबको अपनी बात रखने का अख्तियार है जी।

मन नहीं भरा तो एक ठो और ठेल दिया-

२. सुमुखि सुन्दरी सेज पर सजा रही है बाल,
ब्लागर बैठा मेज पर नोच रहा है बाल।

दोनों की शिकायत है उनको कोई देखता नहीं है।

अब भैया बातें तो बहुत हैं। न जाने कित्ती लंतरानी हैं सुनाने को । लेकिन ई मुआ इतवार भी इत्ता कमजोर है कि हमको रोक नहीं पा रहा है। हमें जाना है काम पर। हांजी, इतवार को भी हमारी दुकान खुली है। जा रहे हैं। कोई कह नहीं रहा है- यूं ही पहलू में बैठे रहो, आज जाने की जिद न करो।

अच्छा ही है। कोई कहेगा तब भी हम कोई रुक थोड़ी न जायेंगे। जाना ही है जी।

हम आज ई डायरी लिख रहे हैं। इसमें जो लिखा वो अपनी याददास्त के लिये लिखा। हमारी बिना अनुमति के कोई इसे उपयोग करेगा तो वो अपने ‘रिक्स‘ पर करेगा। हमारा उसमें कोई दोष नहीं है।

आपको ई बताते चलें कि हम ई डायरी सबेरे आठ बजकर दस मिनट पर लिखना शुरू किये और अभी नौ बजकर छत्तीस मिनट हो गये हैं। पोस्ट करते -करते नौ चालीस हो जायेंगे। इस बीच दो कम चाय पी लिये। एक अम्मा ने बनाई , दूसरी हमारी शरीक हयात ने। इस बीच तमाम व्यवधान आये लेकिन हम डटे रहे। सोच लिया था डायरिया के ही हटेगें। ब्लागिंग बेसिकली डायरियाना ही तो है न! सो अब हट रहे हैं।

आप भी अपनी डायरी लिखिये न! लिखेंगे न! लिखिये न जी कितना कंटेट पसरा आपके चारो तरफ़। सब बरबाद कर रहे हैं जी आप ! चलिये शुरु कीजिये।

आप का समय शुरू होता है अब!

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

14 responses to “फ़ुरसतिया की डायरी”

  1. संजय बेंगाणी

    हम भी नारद से पहले के टिप्पणीकर्ता है. अतः टिप्पणी करते रहेंगे, आप लिखते रहो.

    मैथलीजी की उम्र का ध्यान करें? काहे? मैथलीजी तो अभी अतिसक्रिय जवान व्यक्ति है. हड़काओजी, जिसे भला बुरा कहना है, छुट से कहो…गरियाओ. फुरसतियाजी का काम है कहना…कहते रहेंगे. आप अपनी अभिव्यक्ति को लगाम न लगाओ…हिन्दी सेवा भी कोई चीज है.

  2. रवि

    सुमुखि सुन्दरी सेज पर सजा रही है बाल,
    ब्लागर बैठा मेज पर नोच रहा है बाल।

    ये कौन ब्लॉगर की कथा है जी?

  3. पिरमोद कुमार गंगोली

    लेकिन जी हमारी जे इच्‍छा हो रही है हम अपणी नैं पिरजंका गंदी की डैरी लिखें? लिख सकते हैं?

  4. bhuvnesh

    आप तो फुंरसतिया हैं लिखिए डायरी.
    लोगों को काहे भड़का रहे हैं…….सभी ने डायरी लिक्‍खी तो आज इतवार को पंगा हो लेगा :)
    गालियों की पाडकास्टिंग का सुझाव अच्‍छा है.

  5. जीतू

    सबसे पहले तो दुर्योधन की डायरी…एल्लो जी, खामखां मे हमारी खिंचाई छोड़कर शिवबाबू के पीछे पड़ गए। अरे उन्होने दुर्योधन की लिखी तो आप युधिष्ठर के अनकहे पन्ने लिखो, कोई मना किए है।

    रविबाबू सही कह रहे है कंटेन्ट ही चलेगा, गालियां भी कंटेन्ट का हिस्सा है। अलबत्ता, जब गालियों का आदानप्रदान ज्यादा हो जाता है तो कट्टे चलते है। जो लगता है कि हो के रहेगा। गालियों कीपॉडकास्टिंग का आइडिया अच्छा है, लगता है आप भी अपना नया चैनल खोलने वाले हो। तभी तो ऐसा धांसू आइडिया टिकाए हो सबको।

    रही बात ब्लॉगवाणी और गालियां खाने की। भैया गाली और एग्रीगेटर ये तो जनम जनम का साथ है। एक साथ सबको को खुश कर नही सकते,(सबकी रेटिंग टॉप पर नही ना हो सकती ना) इसलिए हर बंदा गालियां देने का मौका ढूंढता है। बस जगह मिलने पर पास दिया जाएगा जैसा कुछ होता है। बस सावधानी हटी, गालियां बँटी वाला मामला हो जाता है।

    होली का रंक चकाचक लगा रखो…..(ईस्वामी को बोलो, थोड़ा रंग भी फैला दे…|)

  6. ज्ञानदत्त पाण्डेय

    ब्लागिंग बेसिकली डायरियाना ही तो है न! सो अब हट रहे हैं।
    —————————–
    अच्छा, तो पोस्ट लिख कर डायरिया के चक्कर में टॉयलेट की शरण में हैं? या डायरिया शान्त हो गया?

  7. दिनेशराय द्विवेदी

    लिक्खा-पढ़ै से मन नहीं भरा सो पोस्टिंग-काड, मरा, का कहत हैं जबान पर तो आ रहा है पर टिपियाने में गड़बड़ हुआ जा रहा है, तो उस पै आ गए। ना भाई ना हम को तो परेसानी होत है बाकी सब टैब खुलत नाहीं। सो गाना सुनन में ही मजा लेत हैं। हाँ डायरियाने का मूड बनात है।

  8. sujata

    लगे हाथ चिट्ठाचर्चा भी हो गयी जी , बहुत कुछ पढ लिया जो नही देखा था!!

  9. Shiv Kumar Mishra

    @ जीतू भाई,

    जीतू भाई, डायरी तो हमारे पास युधिष्ठिर की भी थी. लेकिन धर्मराज की डायरी कौन पढ़ना चाहेगा? जो मज़ा दुर्योधन जी की डायरी में है, वो कहाँ मिलेगा?

  10. nitin

    फुरसतिया की डायरी के क्या कहने!

    वैसे शिव भाई ने सही कहा, जो मज़ा दुर्योधन जी की डायरी में है, वो कहाँ मिलेगा?

  11. anitakumar

    डायरी के और पन्नों का इंतजार है जी, जब आप डायरिया से निपट लें और ये इतवार को भी दफ़तर जाने क राज क्या है जी ,कौन सा दफ़तर है? ऐवेंही रोब मार रहे हो?…:)

  12. अजित वडनेरकर

    तभी तो हम कहैं कि साढ़े आठ बजे से आपकी बत्ती हरी दिख रही थी पर आपने हाय हलो नहीं किया। तो ठीक है आप डायरी भी लिखें और बकलमखुद पढ़ें।

  13. डा० अमर कुमार

    बदनाम हुये तो क्या नाम न होगा ?
    सुकुल गुरु, यह तो आप देख ही चुके कि ईंट का ज़वाब पत्थर से दिया
    अपनी पंडिताइन को । टिप्पणी बख़्सवाने आयी थीं,पोस्ट गले पड़ गया
    वामा के वामपंथी विरोध से तो सभी डरते हैं, अपनी भारत सरकार की भी सरक गयी ।
    हम्मैं तो पूरा भरोसा है कि आपौ डेरात हो, कम से कम यह दिखाते नहीं हो । स्वीकार करै मा हर्ज़ का है ।
    मोडरेशन में उड़ा न दो इसलिये नहीं बताऊँगा कि बकौल कोलमैन (आब्नोरमल साइकोलाज़ी इन माडर्न लाइफ़)दुनिया में
    कोई माई का लाल अपनी वामा के पास घुटनों के बल न रेंगा हो, संभव ही नहीं है । कोलमैन साहब दो कदम आगे बढ़ कर
    फरियाते हैं कि ऎसा दावा करने वाला या तो झूठ बोल रहा है, या उसका ट्रैक रांग साइड है । हम सच बोला पंडिताइन हमका टोकिन रहिन ।
    होली का मौका है, ई कमेंटवा जाय देयो । तुम्हार कोउ का करिहे !

  14. ravindra.prabhat

    आपके लिखने का अंदाज़ हीं कुछ और है , किसी को बुरा लगे या भला बस लिखते रहिये …! आपने तो डायरी के मूल अभिप्राय से वाकिफ करा दिया , आपका आभार !

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