फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

39 responses to “जीवन अपने आप में अमूल्य है”

  1. नीरज रोहिल्ला

    अनूपजी,
    इस लेख को लिखने के लिये आपको जी भरके धन्यवाद । ये टिप्पणी थोडी लम्बी हो जायेगी लेकिन अपनी बात को कहना जरूर चाहूँगा ।

    अभी २ दिन पहले ही मैने आपकी दी हुयी किताब “गालिब छुटी शराब” पूरी पढी । किताब पूरी करने के बाद ज्ञानजी की भाषा में कहें तो “भक्क से रियेलाईजेशन हुआ” । रवीन्द्र कालिया जी दिल्ली, जालन्धर, मुम्बई, इलाहाबाद जहाँ जी चाहा उठकर चल दिये । ये फ़िक्र न की कि शराब तो छोडो बाकी जिन्दगी का क्या होगा । असफ़लतायें भी मिली लेकिन लाईफ़ की “बिग पिक्चर” नहीं बदली और बदले भी तो किसे परवाह ।

    क्यों हम देखते हैं की एक सपाट सफ़लता की जिन्दगी जीने वालों की तुलना में असफ़लता से लडने के जज्बे के बाद जो जिन्दगी गढती है उसका अपना ही कुछ मजा है । क्यों हम एक छोटे से इम्तिहान अथवा कालेज या नौकरी को अन्तिम सत्य मानकर बिना सोचे समझे जिन्दगी जीने के अहसास को खोते रहते हैं । इसी का कारण है कि जब सब कुछ पूरा हो जाता है तो लगता है कि अरे आज का दिन भी कल जैसा है । न घंटे बजे, न घडियाल; कुछ भी तो कोई खास अलग नहीं है ।

    मैं खुद भीषण अवसादों के दौर से गुजरा हूँ लेकिन फ़िर किसी कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं । शायद वीरेन्द्र डंगवाल की कविता है (कन्फ़र्म नहीं है) ।
    “बन्द हैं तो और भी खोजेंगे हम, रास्ते हैं कम नहीं तादाद में” ।

  2. डा०अमर कुमार

    अकेलापन, अंतरंगता की अनु्लपब्धता, अपूर्ण महत्वाकांक्षायें इत्यादि हज़ारहाँ वज़हें हो सकती हैं …
    बस..मरने का कोई बहाना होना चाहिये,

    किंतु समाज द्वारा गढ़े मापदंडों पर खरा न उतर पाने ,
    फलस्वरूप उससे दुत्कारे जाने का भय ही इसका मुख्य उत्प्रेरक है ।
    ( james Coleman )

  3. अजित वडनेरकर

    आराम से ही पढ़ना पड़ेगा।

  4. मीनाक्षी

    आओ बैठें , कुछ देर साथ में,
    कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में।— बहुत प्यारी कविता ..हमें भी बहुत पसन्द आई….
    इस लेख में बहुत गहरी बातें…सच में जीवन अमूल्य है… और “सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है।”

  5. RC Mishra

    बहुत अच्छा लिखा है, धन्यवाद।

  6. vivek chouksey

    छिप छिप अश्रु बहाने वालों
    मोती व्यर्थ लुटाने वालों
    कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है

    सपना क्या है ? नयन सेज पर,
    सोया हुआ आंख का पानी
    और टूटना है उसका ज्यों
    जगे कच्ची नींद जवानी
    गीली उम्र बनाने वालों!
    डूबे बिना नहाने वालों
    कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है

    माला बिखर गयी तो क्या है
    खुद ही हल हो गयी समस्या
    आंसू गर नीलाम हुए तो
    समझो पूरी हुयी तपस्या
    रूठे दिवस मनाने वालों! फटी कमीज़ सिलाने वालों!
    कुछ दीपो के बुझ जाने से आँगन नहीं मरा करता है

    खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
    केवल जिल्द बदलती पोथी
    जैसे रात उतार चांदनी
    पहने सुबह धुप की धोती
    वस्त्र बदल कर आने वालों ! चाल बदलकर जाने वालों!
    चंद खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है

    लाखों बार गगरियाँ फूटीं
    शिकन न आई पनघट पर
    लाखों बार किश्तियाँ डूबीं
    चहल-पहल वो ही है तट पर
    तम की उम्र बढाने वालों! लौ की आयु घटने वालों !
    लाख करे पतझड़ कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है

    लूट लिया माली ने उपवन
    लुटी न लेकिन गंध फूल की
    तूफानों तक ने छेदा पर
    खिड़की बंद न हुयी धुल की
    नफरत गले लगाने वालों! सब पर धुल उडाने वालों
    कुछ मुखडों की नाराजी से दर्पण नहीं मरा करता है

    छिप छिप अश्रु बहाने वालों
    मोती व्यर्थ लुटाने वालों !
    कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है

    क्या आलेख लिखा है. शानदार! आदिविद्रोही किस उपन्यास का हिन्दी अनुवाद है? मैं उसे मूल अंग्रेजी में पढ़ना चाहूँगा.

  7. समीर लाल

    पंकज श्रीवास्तव की आवाज में सुन भी आये हम तो.

    जीवन अपने आप में अमूल्य है…काश, सब यह समझ पाते..न सिर्फ हमारा बल्कि सबका जीवन अपने आप में अमूल्य है. कम से कम मारकाट बंद होती. सुन्दर आलेख. बधाई, महाराज.

  8. Gyan Dutt Pandey

    बन्धुवर, हमें लगता है कि यह लेख खास आपने हमारे लिये लिखा है। इसी विषय पर और लिखते चले जाओ तो और बात बने।
    जिन्दगी की निस्सारता की फीलिंग की आवृति बहुत ज्यादा है और बहुत लड़ना पड़ रहा है उस फीलिंग से।

  9. लावण्या

    बहुत अच्छा , गहरा, मन के भीतर से लिखा आपने अनूप भाई
    जीवन फूल है ..ईश्वर का बनाया ..उसका अँत कुदरती ढँग से
    हो वही ठीक …काश, ऐसघ्ादसे कभी ना होँ -
    - लावण्या

  10. Tarun

    Bahut achha lekh, lekin ye aatmhatya ka manivigyan hoga waqai bara pechida, humne kahin para tha, ye vichar ek pal ke liye aata hai, agar us pal unhe disturb kar do to shayad woh agale kuch dino tak na kare…..dino din barti samasya ko accha uthaya hai.

  11. swapandarshi

    बहुत बढिया लेख का शुक्रिया. मेरे एक सहपाठी ने जो जे. न. यु. मे पी. एच. डी . कर रहा था, ने भी शायद इन्ही सब कारणो से आत्महत्या की थी. जब तब आज 14 साल बाद उसका चेहरा घूम जाता है, आंखो के आगे, और लगता है, कि शायद हम लोगों ने उसे उसकी चुप्पी से बाहर निकलने मे थोडी खीचातानी की होती तो वो आज होता शायद.

    शायद सफलता का भूत इस कदर हायर एडुकेशन मे हावी है, कि सहपाठी आपस मे भी खुलकर अपनी परेशानी नही बाटते.. बस हर कोइ एक दूसरे से बढकर खुद को दिखाना चाहता है.
    हर किसी के सामने मज़बूत दीवार की तरह ख़डे रहने की ज़रूरत, और आपसी कम्प्टीशन की भावना ने सह्ज विश्वास और दोस्तीयो को भी खोखला कर दिया है.

  12. bhuvnesh

    आज सुबह मन कुछ अनमना सा था….कंप्‍यूटर खोला तो आपका लेख देखा…..आनंद आ गया
    नीरज रोहिल्‍लाजी की टिप्‍पणी भी बहुत अच्‍छी रही

  13. प्रमोद सिंह

    अच्‍छे.

  14. prabhat mishra

    bahut badhiya

  15. Shiv Kumar Mishra

    बहुत शानदार लेख है. बहुत दिनों बाद फुरसत वाला लेख पढने को मिला. और फुरसत से पढ़ा भी.
    जीवन तो अमूल्य है ही. ये तो जब लोग इसका मूल्य लगाने लगते हैं तब तकलीफ होती है. और ऐसी तकलीफ कभी-कभी इसके समापन का कारण बनती है.

  16. kakesh

    इस तरह के लेख सचमुच जीवन की आपाधापियों से लड़ने का हौसला देते हैं. पिछ्ले कई दिन से तनाव-ग्रस्त था/हूँ.इस लेख ने फिर से सोचने पर बाध्य किया.

    शुक्रिया.

  17. संजय बेंगाणी

    सुन्दर लेख.

    मुझे लगता है मास हिस्टिरिया जैसा कुछ हो गया है, लोगो के मन में यह बात बैठती जा रही है की असफल हुए तो आत्महत्या कर लेंगे और जब असफलता सामने होती है तब सबसे पहले अन्य रास्तों के विचार आने के आत्महत्या ही सुझती है.

  18. masijeevi

    बेहद जरूरी विषय पर अनिवार्य किस्म का लेख।

    आत्‍महत्‍या में गजब रूमानियत व आकर्षण रहा है कम से कम मेरे लिए तो। पर एक तो एकाध कंटाप देने वाले दोस्‍त रहे दूसरे कमबख्‍त ढंग की अवसादी घटना की सुविधा नहीं मिल पाई इसलिए अब तक जिए चले जाते हैं और अब भला इस उम्र में क्‍या खाक खुदकशी करेंगे :)

    पर इतना कह सकता हूँ कि प्रेम या हत्‍या की तरह अक्‍सर ये कदम इंपल्‍स में उठाश जाता हे यानि ऐन क्षध पर कोई मिल जाए जो अगले की बात सुन भर ले तो एक जीवन बच जाए पर ऐसे दोस्‍त तमाम मोबाइल, एसएमएस, ईमेल व आईएम के बावजूद कम होते जा रहे हैं।

    एक न्‍यू ईयर ईव पर एक दोस्‍त घर से किलोमीटर भर दूर फांसी लगाकर लटक गई ऐन उस समय हम नए साल कर पार्टी में व्‍यस्‍त थे।

  19. प्रियंकर

    लाजवाब ! बेहद प्रेरक !

  20. प्रियंकर

    “बन्द हैं तो और भी खोजेंगे हम, रास्ते हैं कम नहीं तादाद में ।”

    यह देवेन्द्र कुमार आर्य की कविता की पंक्तियां हैं .

  21. Abhishek Ojha

    जीवन बहुत अमूल्य है आई आई टी कानपूर की घटनाएं मन को कितना विचलित करती है क्या बताऊँ … मैंने भी तोया वाली घटना पर लिखा था पर आप का लेख बहुत प्रसंसनीय है.

  22. anitakumar

    अनूप जी बहुत ही महत्तवपूर्ण बात उठायी है आप ने इस पोस्ट में । आत्महत्या के कारण तो सब जानते ही हैं ये टिप्पणीयों से और आप की पोस्ट से स्पष्ट ही है, लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि किसी के आत्महत्या करने के बाद ही सब लोग अफ़सोस मना रहे होते है, वही व्यक्ति आत्महत्या करने से पहले कई बार इस ओर इशारा करता है कि वो ऐसा करने जा रहा है पर तब हम या तो अपनी अपनी जिन्दगी में इतने मसरुफ़ होते हैं कि हमारा ध्यान ही नहीं जाता इस तरफ़ या हम उन इशारों को पहचान नहीं पाते।

    आप की और टिप्पणी में आयी, दोनों कवितायें लाजवाब हैं। विमल जी की पोस्ट पर जो गीत है वो भी बहुत खूब है, बताने का धन्यवाद्।
    इस पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाई।

  23. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

    अनूप जी, एक दिन मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ इलाहाबाद से लखनऊ के लिए सुबह-सुबह अपनी गाड़ी से निकला। फाफामऊ में गंगाजी के पुल पर ट्रकों का जाम लगा था। गाड़ी बन्द करके नीचे उतर रहा था कि मेरी नज़र पुल की रेलिंग से नदी की ओर लटक कर रो रहे एक जवान लड़के पर पड़ी। मैं घबराकर उधर दौड़ पड़ा। मैने इशारे से एक-दो साइकिल वालों को रोका तो वे कौतूहल से वहाँ आ गए। लम्बी कतार में मौजूद अनेक ट्रकों के ड्राइवर अपनी जगह से उसे देख रहे थे। मैं उसके नजदीक गया और लगभग डाँटते हुए रेलिंग के इस पार आने को कहा। उसकी रुलाई और बढ़ गयी। …पर उसे छूने की हिम्मत किसी को नहीं थी। कुछ घुड़की और कुछ मान-मनौवल के बाद वह इसपार गया। क्यों मरना चाहते हो? …मुझे बीमारी है, काफी दवा के बाद भी ठीक नहीं हो रही है। …मैं तो कबका कूद गया होता, लेकिन अम्मा की बहुत याद आ रही है। …वह बहुत रोएगी। …वह बेतहाशा रोता रहा।
    तभी जाम रास्ता खुल गया। सारी भीड़ एकाएक गायब हो गयी। मेरी गाड़ी के पीछे वाले जोरदार हॉर्न देने लगे। मैने उन्हें बगल से निकल जाने का इशारा किया। सबने निष्कर्ष निकाला कि नाटक कर रहा है और चलते बने। मैं थोड़ी दुविधा में पड़ गया। लखनऊ में तय कार्यक्रम में शामिल होना भी जरूरी था, और इसे यहाँ अकेले छोड़कर जाना भी ठीक नहीं लग रहा था। मैने अपने मित्र पुलिस उपाधीक्षक को फोन मिलाया और अपनी चिन्ता से अवगत कराया। उन्होंने मुझे निश्चिन्त कराते हुए कहा कि आप आराम से जाइए, मैं किसी सिपाही को भेजता हूँ। …मै एक चिन्ता लिए वहाँ से चल पड़ा।
    रास्ते भर मुझे यह सोच सालती रही कि हम ऐसे मौकों पर भी कितने आत्म-केन्द्रित हो जाते हैं। एक ज़िन्दगी क्या इतनी बेमानी हो गयी है?

  24. नीरज दीवान

    अद्भुत प्रेरक लेख बन पड़ा है. असफलता का मज़ा लेने की हिम्मत बहुत कमों में होती है. बच्चे तो फिर भी बच्चे हैं. हमारा समाज ही कुछ इस तरह का है कि असफलता हाथ लगी नहीं कि धिक्कारना और ताने देना शुरू कर देता है. कुछ तो असफलता की आशंका में मारे फिरते हैं.
    एक असफल व्यक्ति ही जानता है कि सफलता किन रास्तो से गुज़रती है.. मुझ जैसों को देखकर तो सफलता ही रास्ता बदल लेती है.
    कई दिनों बाद आपका लेख पड़ा.. हास्य की परतें उतारते हुए गंभीरता की ओर ले गए..

  25. vijayshankar

    ‘सामूहिक लक्ष्य में असफ़लता के चलते लोगों को आत्महत्या करने के किस्से नहीं सुनने को मिलते हैं। aur ‘सामूहिकता का एहसास लोगों में आस्था और विश्वास पैदा करता है।’- yehi hai taale ki chaabi, lekin sampradayik log kahan mel-jol badhane dete hain? kabhee jaati ke naam par akela karenge, kabhi dharm ke naam par, kabhee kshtera ke nam par. ye saamoohik hatyare hain.

  26. Indra

    bahut badhiya lekh!
    bahut din baad blog dekhe, to ise padh kar anand aaya

  27. abha

    सामान बाध कर चल देते हैं ये बढ़िया रहा …..

  28. आत्महत्या: दोषी कौन?  निंदा पुराण

    [...] से सोच रहा था इस विषय पर लिखने की पर आज अनूप जी के लेख ने उत्प्रेरक का कार्य किया। जब भी हम [...]

  29. अजित वडनेरकर

    सार्थक लेखन। सकारात्मक सोच को बढ़ावा देती, राह सुझाती पोस्ट लिखनेवाले
    अनूपजी का आभार। हावर्ड फास्ट की
    आदि विद्रोही मेरी भी प्रिय पुस्तकों में है। और हां , कविता की तारीफ करना तो भूल ही गया-लाजवाब है।

  30. महेन

    पहली बार इस ओर आया। यह खबर गलती से मैनें भी देख ली थी किसी चैनल पर मगर कुछ ज़्यादा सोचा नहीं। ऐसी घटनाएं इतनी बहुतायत से होती हैं कि उनके प्रति हमारी संवेदनशीलता को बाहर निकलने में समय लग जाता है। एक संघर्षशील कवि की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है:
    मैं मर जाउंगा पर मेरे जीवन का आनंद नही,
    झर जाएंगे पत्र कुसुम तरु,
    पर मधु-प्राण् वसंत नही,
    सच है घन तम में खो जाते स्रोत सुनहरे दिन के,
    पर प्राची से झरने वाली आशा का तो अंत नहीं।

  31. ज्ञानजी हिंदी ब्लागजगत के मार्निंग ब्लागर हैं

    [...] हैं न। उनके ब्लाग पर एक पोस्ट पढ़ी कि जीवन अपने आप में अमूल्य है। उसी से उत्साहित हुये। गरदन की रस्सी [...]

  32. manoj kumar

    लिंक देने का शुक्रिया। बहुत ही अच्छा आलेख। विषय के विभिन्न पक्षों पर गंभीरता से चर्चा गई है। प्रभावकारी।

  33. pankaj upadhyay

    एकदम मुन्नाभाई टाईप झकास पोस्ट…
    न जाने आपको मेरी उस पोस्ट से ऐसा क्यू लगा.. मै भी उसमे युवाओ की समस्याओ को समझने की कोशिश कर रहा था.. खैर…
    केडी सिह बाऊ स्टेडियम के बाहर एक बोर्ड पर ये शेर लिखा हुआ था.. उत्तम प्रदेश बनाने के सपने दिखाने वालो ने लिखवाया था.. हमने भी गान्धी जी की तरह काम की चीज रख ली..

    “शाखो से टूट जाये वो पत्ते नही है हम,
    आन्धियो से कह दो जरा औकात मे रहे…”

  34. pradeep sagar

    good ,,,,, v.good

  35. vandana awasthi dubey

    “आत्महत्या का कोई गणित नहीं होता। तनाव , अकेलेपन और कोई रास्ता न समझ में आने पर लोग इसे अपनाते होंगे। ”
    सही है.
    ‘आदिविद्रोही’ मेरी भी पसंदीदा किताबों में से एक है.
    “हम सबमें स्पार्टाकस के कुछ न कुछ अंश होते हैं लेकिन हम अलग-अलग समय में बेहद अकेले होते जाते हैं। ऐसे ही किसी अकेलेपन के क्षण में लोग अवसाद को सहन न कर पाने के कारण अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। जीवन अपने आप में अमूल्य है बिसरा देते हैं।”
    अक्ल पर अवसाद भारी पड़ जाता होगा, शायद.
    आओ बैठें , कुछ देर साथ में,
    कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में।
    बहुत सुन्दर कविता. पोस्ट पहले भी पढी थी, आज फिर से पढी, अच्छी लगी, बहुत अच्छी.

  36. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176

    [...] जीवन अपने आप में अमूल्य है [...]

  37. vijay

    Browse: Home / बस यूं ही / जीवन अपने आप में अमूल्य है
    जीवन अपने आप में अमूल्य है
    By फ़ुरसतिया on July 9, 2008

    खुशी

    कुछ दिन पहले आई.आई.टी. कानपुर की छात्रा तोया चटर्जी ने आत्महत्या कर् ली। पता चला कि वह् एकाध विषय में फ़ेल थी। उसका कई आई.आई.एम. में चयन हो गया था लेकिन अपने यहां कुछ विषय में वह फ़ेल थी। अवसाद को सहन न कर पाने के कारण वह पंखे से लटक गयी और इस जालिम दुनिया से दूर सटक गयी।

    आई.आई.टी. कानपुर में लगभग हर साल इस तरह का एकाध वाकया होता है। कोई बच्चा चुपचाप अपने से कई हजार गुना ज्यादा वजनी ट्रेन के नीचे लेट जाता है। ट्रेन उसके ऊपर से गुजर जाती है। कोई लड़का छत से कूद जाता है न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम को सत्यसिद्ध् करते हुये नीचे गिरता है और फिर उससे भी बड़े नियम को सत्यसिद्ध करते हुये ऊपर चला जाता है।

    इस तरह की घटनायें बहुत् आम हो गयी हैं। कोई भी असफ़लता मिली। तड़ से टूटे , भड़ से लटक लिये और सड़ से निपट गये। स्कूलों में फ़ेल हुये बच्चे, प्रेम में असफ़ल बच्चे, कर्ज में डूबे लोग , तनाव में डूबे प्राणी अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। तमाम मां-बाप तो आजकल बच्चों को डांटते-डपडते हुये भी डरते हैं। बच्चा कहीं कुछ कर न ले।

    हमारे एक रिश्तेदार का बच्चा था। अठारह-बीस का। हंसमुख, खूबसूरत। किसी प्रेम में पड़ गया। न जाने क्यों उसको लगा कि उसका प्रेम सफ़ल न होगा। अगले ने सल्फ़ाल की गोलियां खा लीं। ‘हाय मुझे बचा लो, बचा लो’ कहते हुये देखते-देखते निपट गया। मां-बाप आज भी उसको याद करते हुये रोते हैं।

    आज सफ़लता का भूत इत्ता विकट हो चला गया है कि कोई असफ़ल नहीं होना चाहता। एक असफ़लता लोगों को इस कदर तोड़ देती है कि लोग अपना सामान बांध के चल देते हैं।
    आत्महत्या का कोई गणित नहीं होता। तनाव , अकेलेपन और कोई रास्ता न समझ में आने पर लोग इसे अपनाते होंगे। आज सफ़लता का भूत इत्ता विकट हो चला गया है कि कोई असफ़ल नहीं होना चाहता। एक असफ़लता लोगों को इस कदर तोड़ देती है कि लोग अपना सामान बांध के चल देते हैं।

    हेमिन्वे ने ओल्ड मैन एंड द सी जैसा दुर्दमनीय आशा का उपन्यास लिखा लेकिन उसने न जाने किस तनाव में खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली।

    राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। दुनिया को राह दिखाते थे। रामराज्य की स्थापना की। उन्होंने सरयू में जलसमाधि ले ली। कौन से ऐसे तनाव रहे होंगे जिसके चलते मर्यादा पुरुषोत्तम ने आत्महत्या कर ली?

    अंकुर बता रहे थे एक दिन कि आई.आई.टी. कानपुर में कुछ दिन पहले आत्महत्या की थी वह खुद बड़ा हौसलेबाज था। कई दोस्तों को अवसाद में जब देखा तब उनके साथ रहा। उनको जीने का हौसला बंधाया। अवसाद के क्षणों से उबारा। बाद में किसी के प्रेम में असफ़ल होने के कारण योजना बना के अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।

    लोग दिन पर दिन अकेले होते जा रहे हैं। विकट तनाव से जूझने वाले के निकट कोई नहीं होता।
    बड़ा जटिल मनोविज्ञान है इस लफ़ड़े का। लेकिन मुझे जो लगता है वह यह कि लोग दिन पर दिन अकेले होते जा रहे हैं। विकट तनाव से जूझने वाले के निकट कोई नहीं होता। ऐसे संबंध कम होते जा रहे हैं जब इस तरह की बात करने वाले से कोई कहे- मारेंगे एक कन्टाप सारी हीरोगीरी हवा हो जायेगी।

    तमाम लोग देखा-देखी आत्म हत्या करते हैं। ट्रेंड बन जाता है। अलग-अलग जगह के अलग-अलग ट्रेंड। लोग नेताओं के लिये आत्महत्या कर लेते हैं, नौकरी के लिये मर गये, कर्जे में निपट गये और प्रेम में असफ़ल होने पर मरना और अब फ़ेल होने पर मरने का ट्रेंड चला है।

    लोग दूसरे की व्यक्तिगत जिंदगी में दखल देते हुये हिचकते हैं। किसी के पर्सनल मामले में दखल देना अच्छी बात नहीं है। यह बात बहाने के तौर पर लोग इस्तेमाल करते हैं। लोग खुद इत्ते तनाव में हैं कि दूसरे के फ़टे में अपनी टांग फ़ंसाते हुये डरते हैं।

    आत्महत्या करने वाले ज्यादातर वे लोग होते हैं जो अपने व्यक्तिगत जीवन के लक्ष्य पाने में असफ़ल रहते हैं। इम्तहान में फ़ेल हुये, प्रेम विफ़ल हो गया, नौकरी न मिली। अवसाद को पचा न पाये। जीवन को समाप्त कर लिया।

    सामूहिक लक्ष्य में असफ़लता के चलते लोगों को आत्महत्या करने के किस्से नहीं सुनने को मिलते हैं। यह नहीं सुनाई देता कि क्रांति असफ़ल हो गयी तो नेता ने आत्महत्या कर ली, मार्च विफ़ल हो गया तो लीडर ने अपने को गोली मार ली, शिक्षा का उद्देश्य पूरा न हुआ तो बच्चों की शिक्षा के लिये दिन रात कोशिश करने वाला बेचैन शिक्षाशास्त्री लटक लिया।

    सामूहिकता का एहसास लोगों में आस्था और विश्वास पैदा करता है।
    सामूहिकता का एहसास लोगों में आस्था और विश्वास पैदा करता है। अकेलापन अवसाद का कारक बनता है। अकेलेपन के ऊपर से असफ़लता बोले तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा!

    बहरहाल इस पर मनोवैज्ञानिक लोग कुछ बतायेंगे कि लोग अपने जीवन को त्याग क्यों देते हैं।

    हम अपने एक दोस्त की कहानी बतायेंगे।

    मृगांक अग्रवाल हमारे साथ इलाहाबाद् में पढ़ते थे। पहले साल कुल जमा नौ विषयों में से छह में फ़ेल हुये। संयोग से यह नियम था कि अगर कोई बच्चा छह विषय में फ़ेल हो तो उसे पूरक परीक्षा ( सप्प्लीमेंट्री ) देने
    की सुविधा मिलती थी। मृगांक ने गर्मी की छुट्टियां हास्टल में बितायीं। तैयारी की। और बाद में जुलाई में इम्तहान हुये। फ़िर वे सब विषय में पास हुये।

    मृगांक सबको हौसला देते रहते थे। जिम्मेदार, बड़े बच्चे की तरह। ये करो, वो करो, ऐसे करो, वैसे करो। चिन्ता न करो।
    खुद जरा-जरा सी बात पर भावुक हो जाने पर रोने का कोई मौका आंख से जाने न देते थे।

    जब छह विषयों में इम्तहान दे रहे थे मृगांक तब उनकी मांग के मुताबिक हम उनको रोज चिट्ठी लिखते थे। कुछ और दोस्त भी लिखते होंगे। एक दिन चाय पीने के लिये एक रुपया भी भेजा था। जो उसने शायद आज भी अपने पास रखा हुआ था।

    महीने भर बाद जब इम्तहान हुये तो मृगांक के इम्तहान हुये तो पट्ठे ने सभी विषय पास कर लिये। हम लोगों ने
    साथ्-साथ इंजीनियरिंग पास की।

    आजकल मृगांक यू.पी.एस.आर.टी.सी. मेरठ में तैनात हैं। उ.प्र. राज्य परिवहन निगम की बसें चलवाते हैं।

    तोया और तमाम ऐसे बच्चे , जो एक असफ़लता से परेशान होकर अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं बेहद अकेले होते हैं। सफ़लता की बेहिसाब दौड़ ने लोगों को असफ़लता पचाने और फ़िर सफ़ल होने का विश्वास खतम कर दिया है। यह बढ़ता जा रहा है।

    आदि विद्रोही मेरी सबसे पसंदीदा किताबों में है। हावर्ट् फ़्रास्ट की इस किताब का बेहद सुन्दर अनुवाद अमृतराय ने किया है। इसमें रोम के पहले गुलाम विद्रोह की कहानी है। स्पार्टाकस गुलामों का नायक है। उसकी प्रेमिका वारीनिया जब उससे कहती है कि तुम्हारे मरने के बाद मैं भी मर जाउंगी। तब वह कहता है-
    जीवन अपने आप में अमूल्य है। मुझे वचन दो कि मेरे न रहने के बाद तुम आत्महत्या नहीं करोगी।

    वारीनिया जीवित रहने का वचन देती है। स्पार्टाकस मारा जाता है। वारीनिया जीवित रहती है। अपना घर बसाती है। कई बच्चों को जन्म देती है। उनके नाम भी स्पार्टाकस रखती है। मानवता की मुक्ति की कहानी चलती रहती है।

    हम सबमें स्पार्टाकस के कुछ न कुछ अंश होते हैं लेकिन हम अलग-अलग समय में बेहद अकेले होते जाते हैं। ऐसे ही किसी अकेलेपन के क्षण में लोग अवसाद को सहन न कर पाने के कारण अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। जीवन अपने आप में अमूल्य है बिसरा देते हैं। असफ़लता और अवसाद के उन क्षणों में यह बात एकदम नहीं याद आती -सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है।

    संबंधित कड़ी: IIT में एक और आत्महत्या

    संग-साथ

    मेरी पसन्द

    आओ बैठें ,कुछ देर साथ में,
    कुछ कह लें,सुन लें ,बात-बात में।

    गपशप किये बहुत दिन बीते,
    दिन,साल गुजर गये रीते-रीते।

    ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
    बस जीने के खातिर मरती है।

    पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
    वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।

    बस तनातनी है, बड़ा तनाव है,
    जितना भर लो, उतना अभाव है।

    हम कब मुस्काये , याद नहीं ,
    कब लगा ठहाका ,याद नहीं ।

    समय बचाकर , क्या कर लेंगे,
    बात करें , कुछ मन खोलेंगे ।

    तुम बोलोगे, कुछ हम बोलेंगे,
    देखा – देखी, फिर सब बोलेंगे ।

    जब सब बोलेंगे ,तो चहकेंगे भी,
    जब सब चहकेंगे,तो महकेंगे भी।

    बात अजब सी, कुछ लगती है,
    लगता होगा , क्या खब्ती है ।

    बातों से खुशी, कहां मिलती है,
    दुनिया तो , पैसे से चलती है ।

    संग-साथ

    चलती होगी,जैसे तुम कहते हो,
    पर सोचो तो,तुम कैसे रहते हो।

    मन जैसा हो, तुम वैसा करना,
    पर कुछ पल मेरी बातें गुनना।

    इधर से भागे, उधर से आये ,
    बस दौड़ा-भागी में मन भरमाये।

    इस दौड़-धूप में, थोड़ा सुस्ता लें,
    मौका अच्छा है ,आओ गपिया लें।

    आओ बैठें , कुछ देर साथ में,
    कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में।

  38. खत्तरनाक मस्ती और योजना आयोग को ठेंगा : चिट्ठा चर्चा

    [...] कर दी। हमको अपनी पोस्ट की यह सीख याद आई- हम अलग-अलग समय में बेहद अकेले होते [...]

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