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Posted by: PRIYANKAR | फ़रवरी 1, 2013

बड़की भौजी / कैलाश गौतम

(1944 - 2006)

(1944 – 2006)

जनकवि कैलाश गौतम (1944 – 2006) विरल प्रजाति के गीतकार थे . लोकभाषा का अनुपम छंद और लोकसंवेदना से गहरी संपृक्ति उनकी कविताओं और गीतों को विशिष्ट किस्म के आत्मीय-प्रकाश से भर देती है . आंचलिक बिम्बों से परिपुष्ट लोकराग की एक अनूठी बयार बहती है उनके गीतों में . पारम्परिक समाज और मानवीय संबंधों के टूटने के एक प्रच्छन्न करुण-संगीत — एक दबी कराह — के साथ नॉस्टैल्जिया की एक अंतर्धारा उनकी कविता में हमेशा विद्यमान दिखाई देती है. यहां तक कि बाहरी तौर पर हास्य-व्यंग्य का बाना धरने वाली कविताओं में भी पीड़ा की यह रेख स्पष्ट लक्षित की जा सकती है. वे खुद भी वैसे ही थे . आत्मीयता से भरे-पूरे,हँसमुख और हरदिल अजीज़ . ‘गांव गया था,गांव से भागा’,'अमवसा क मेला’,'सब जैसा का तैसा’,'गान्ही जी’, और ‘कचहरी न जाना’ जैसी उनकी कविताएं/गीत लोकप्रियता का मानक बन गए थे. ‘बाबू आन्हर माई आन्हर’ जैसे गीत कबीरी परम्परा के बिना नहीं आ सकते थे. बीसवीं सदी के आधुनिक हिंदी गीति-काव्य का अगर कोई ठेठ पूर्वी घराना है तो कैलाश नारद उसके प्रतिनिधि कवि-गीतकार हैं . हिंदी के पूरब अंग के अपूर्व कवि.

‘सिर पर आग’ की भूमिका में प्रो. दूधनाथ सिंह ने ठीक ही लिखा है कि : “कैलाश गौतम कोई दुधमुहें कवि नहीं हैं कि उनका परिचय देना जरूरी हो। लेकिन जो कवि फन और फैशन से बाहर खड़ा हो उससे लोग परिचित होना भी जरुरी नहीं समझते। क्योंकि अक्सर लोगों का ध्यान तो सौंदर्यशास्त्र की बनी बनायी श्रेणियाँ खींचती हैं। कैलाश गौतम उस खांचे में नहीं अंटते। वह खांचा उनके काम का नहीं है या वे उस खांचे के काम के नहीं। इसका सीधा मतलब है कि यह कवि अपनी कविताओं के लिये एक अलग और और विशिष्ट सौंदर्यशास्त्र की मांग करता है।”

कैलाश गौतम के गीत अपने स्कूल-कॉलेज दिनों से ही धर्मयुग तथा अन्य पत्रिकाओं में पढता रहा था . और उनका बड़ा प्रशंसक था . विवाह के बाद मेरे छोटे भाई,विशेषकर कनु , अपनी भाभी की हंसी को लक्षित करके कैलाश जी की कविता ‘बड़की भौजी’ की पंक्तियां बार-बार दुहराया करते थे . यह कविता उस समय धर्मयुग के किसी अंक में बहुत आकर्षक ढंग से छपी थी . जनवरी 2006 में शांतिनिकेतन में आकाशवाणी की स्वर्णजयंती पर आयोजित कवि सम्मेलन में मुझे उनके साथ काव्य पाठ करने का और उनके साथ दो दिन रहने का मौका मिला . जब उन्हें ‘बड़की भौजी’ से संबंधित यह पारिवारिक प्रसंग बताया तो वे बहुत प्रसन्न हुए और मुझे खींचकर गले से लगा लिया . कविता प्रस्तुत है :

बड़की भौजी

जब देखो तब बड़की भौजी हँसती रहती है
हँसती रहती है कामों में फँसती रहती है।
झरझर झरझर हँसी होंठ पर झरती रहती है
घर का खाली कोना भौजी भरती रहती है॥

डोरा देह कटोरा आँखें जिधर निकलती है
बड़की भौजी की ही घंटों चर्चा चलती है।
खुद से बड़ी उमर के आगे झुककर चलती है
आधी रात गए तक भौजी घर में खटती है॥

कभी न करती नखरा-तिल्ला सादा रहती है
जैसे बहती नाव नदी में वैसे बहती है।
सबका मन रखती है घर में सबको जीती है
गम खाती है बड़की भौजी गुस्सा पीती है॥

चौका-चूल्हा, खेत-कियारी, सानी-पानी में
आगे-आगे रहती है कल की अगवानी में।
पीढ़ा देती पानी देती थाली देती है
निकल गई आगे से बिल्ली गाली देती है॥

भौजी दोनों हाथ दौड़कर काम पकड़ती है
दूध पकड़ती दवा पकड़ती दाम पकड़ती है।
इधर भागती उधर भागती नाचा करती है
बड़की भौजी सबका चेहरा बांचा करती है॥

फुर्सत में जब रहती है खुलकर बतियाती है
अदरक वाली चाय पिलाती पान खिलाती है।
भईया बदल गये पर भौजी बदली नहीं कभी
सास के आगे उल्टे पल्ला निकली नहीं कभी॥

हारी नहीं कभी मौसम से सटकर चलने में
गीत बदलने में है आगे राग बदलने में।
मुंह पर छींटा मार-मार कर ननद जगाती है
कौवा को ननदोई कहकर हँसी उड़ाती है ॥

बुद्धू को बेमशरफ कहती भौजी फागुन में
छोटी को कहती है गरी-चिरौंजी फागुन में।
छ्ठे-छमासे गंगा जाती पुण्य कमाती है
इनकी-उनकी सबकी डुबकी स्वयं लगाती है॥

आँगन की तुलसी को भौजी दूध चढ़ाती है
घर में कोई सौत न आये यही मनाती है।
भइया की बातों में भौजी इतना फूल गयी
दाल परोसकर बैठी रोटी देना भूल गयी॥

***

शहरयार  (1936-2012)

अखलाक मुहम्मद खान  ‘शहरयार’

1.

ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं

जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं

अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हम को बुलावे दश्त से जब तब आते हैं

जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं

काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या क्या करतब आते हैं

2.

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के

आग़ाज़ क्यों किया था सफ़र उन ख़्वाबों का
पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के

इक बूँद ज़हर के लिये फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के

कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की तरह दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिंझोड़ के

इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के

3.

जिन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है
हर घडी होता है एहसास कहीं कुछ कम है

घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है यकीं कुछ कम है

अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज जियादा है कहीं कुछ कम है

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

4.

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आँखों से वाबस्ता अफ़साने हज़ारों हैं

इक तुम ही नहीं तन्हा उलफ़त में मेरी रुसवा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं

इक सिर्फ़ हम ही मय को आँखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में मैख़ाने हज़ारों हैं

इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ को आँधी से डराते हो
इस शम्म-ए-फ़रोज़ाँ के परवाने हज़ारों हैं

****

अदम गोंडवी (1947-2011)

 
 
 
 
 
 
 
 
 

1.

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये .

2.

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की

यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की ?

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की .

***

Posted by: PRIYANKAR | नवम्बर 5, 2011

आलोक धन्वा की एक कविता

 आलोक धन्वा की एक कविता

जिलाधीश

तुम एक पिछड़े हुए वक्ता हो

तुम एक ऐसे विरोध की भाषा में बोलते हो
जैसे राजाओं का विरोध कर रहे हो
एक ऐसे समय की भाषा जब संसद का जन्म नहीं हुआ था

तुम क्या सोचते हो
संसद ने विरोध की भाषा और सामग्री को वैसा ही रहने दिया है
जैसी वह राजाओं के ज़माने में थी

यह जो आदमी
मेज़ की दूसरी ओर सुन रहा है तुम्हें
कितने करीब और ध्यान से
यह राजा नहीं जिलाधीश है !

यह जिलाधीश है
जो राजाओं से आम तौर पर
बहुत ज़्यादा शिक्षित है
राजाओं से ज़्यादा तत्पर और संलग्न !

यह दूर किसी किले में —  ऐश्वर्य की निर्जनता में नहीं
हमारी गलियों में पैदा हुआ एक लड़का है
यह हमारी असफलताओं और गलतियों के बीच पला है
यह जानता है हमारे साहस और लालच को
राजाओं से बहुत ज़्यादा धैर्य और चिन्ता है इसके पास

यह ज़्यादा भ्रम पैदा कर सकता है
यह ज़्यादा अच्छी तरह हमें आजादी से दूर रख सकता है
कड़ी
कड़ी निगरानी चाहिए
सरकार के इस बेहतरीन दिमाग पर !

कभी-कभी तो इससे सीखना भी पड़ सकता है !

****

Posted by: PRIYANKAR | नवम्बर 1, 2011

मोहन श्रोत्रिय की एक कविता

 

 

 

 

 

हमारे समय की प्रार्थनाएं 

नदियो !
तुम यों ही बहती रहो 
धरती को सींचती हरा-भरा 
करती 
मनुष्यों और शेष 
जीव जगत के जीवन को 
सुनिश्चित करती। 

पर्वतो !
तुम यों ही अड़े रहो
विविधतामय वनस्पति को 
धारण करते हुए 
बादलों से मित्रता को पुख़्ता रखते हुए। 

बादलो !
तुम गरजो चाहे जितना भी 
बरसते रहो 
इतना-भर ज़रूर कि 
ताल-तलैया लबालब रहें 
कुएं ज़्यादा लंबी रस्सी 
की मांग न करें। 

सूर्य !
तुम प्रकाश और ऊष्मा का 
संचार करते रहो
धरती को हरा-भरा रखो 
फूलों को खिलाओ 
उन्हें रंग दो- गंध दो 
और फलों को रस से 
मालामाल करते रहो। 

धरती मां !
हमें धारण करती रहो 
पर हां हमें 
तुम्हारे लायक़ यानि 
बेहतर मनुष्य 
बनते चले जाने को 
प्रेरित करती रहो 
कभी-कभी दंडित भी करो 
लेकिन प्यार बांटती रहो 
अबाध और अनवरत 
हमारी अंजुरि ख़ाली न रहे। 

और समुद्र !
तुम 
निरंतर उथले 
होते जा रहे 
हम मनुष्यों को 
थोड़ी अपनी गहराई 
देते चलो।

****

Posted by: PRIYANKAR | अक्टूबर 23, 2011

तोमास त्रांसत्रोमर की एक कविता

तोमास त्रान्सत्रोमर

एक मौत के बाद

पहले वहाँ एक सदमा था
जिसने पीछे छोड़ दी थी एक लंबी, झिलमिलाती पूँछ पुच्छलतारे की
यह हमें रखती है अंतर्मुखी, बना देती है टीवी की तस्वीरों को बर्फ की तरह सर्द
यह जम जाती है टेलीफोन के तारों की ठंडी बूँदों में
शीत के धूप में अब भी की जा सकती है स्की धीरे-धीरे
ब्रश के माध्यम से जहाँ कुछ पत्तियाँ लटकी हैं
वे लगती हैं जैसे पुरानी टेलीफोन निर्देशिकाओं के फटे पन्ने
नाम जिन्हें ठंड ने निगल लिया है
दिल की धड़कन सुनना अब भी कितना सुंदर है
पर अकसर परछाईं शरीर की तुलना में अधिक सच लगती है
समुराई पिद्दी-सा लग रहा है
काले अजगर जैसे शल्कवाले अपने कवच के बगल में ।

*****

हिंदी अनुवाद : प्रियंकर पालीवाल

Posted by: PRIYANKAR | अक्टूबर 20, 2011

तोमास त्रांसत्रोमर की एक कविता

अप्रैल और मौन

वसंत परित्यक्त पड़ा है
वेलवेट-सी काली खाई
बिना किसी सोच-विचार के मेरे नजदीक रेंग रही है
चमकते दिख रहे हैं तो
सिर्फ पीले फूल
ले जाया जा रहा हूँ मैं अपनी परछाईं में
जैसे काले डिब्बे में वॉयलिन
जो मैं कहना चाहता हूँ सिर्फ वह बात
झलक रही है पहुँच से दूर
जैसे चमकती है चाँदी
सूदखोर की दुकान में ।

*****

हिंदी अनुवाद : प्रियंकर पालीवाल

Posted by: PRIYANKAR | अगस्त 3, 2011

फ़रीद खां की एक कविता

निकाह की मुबारकबाद के साथ प्रस्तुत है सद्यविवाहित युवा कवि फ़रीद खां की एक कविता :

दादा जी साइकिल वाले

मैं ज्यों ज्यों बड़ा होता गया
मेरी साइकिल की ऊंचाई भी बढ़ती गई
और उन सभी साइकिलों को कसा था
पटना कॉलेज के सामने वाले ’दादा जी साइकिल वाले’ नाना ने

अशोक राजपथ पर दौड़ती, चलती, रेंगती

ज़्यादातर साइकिलें उनके हाथों से ही कसी थीं

पूरा पटना ही जैसे उनके चक्के पर चल रहा था
हाँफ रहा था
गंतव्य तक पहुँच रहा था

वहाँ से गुज़रने वाले सभी, वहाँ एक बार रुकते ज़रूर थे
सत सिरी अकाल कहने के लिए
चक्के में हवा भरने के लिए
नए प्लास्टिक के हत्थे या झालर लगवाने के लिए
चाय पी कर, साँस भर कर, आगे बढ़ जाने के लिए

पछिया चले या पुरवइया
पूरी फ़िज़ा में उनके ही पंप की हवा थी

हमारे स्कूल की छुट्टी जल्दी हो गई थी
हम सबने एक साथ दादा जी की दुकान पर ब्रेक लगाया
पर दादा जी की दुकान ख़ाली हो रही थी
तक़रीबन ख़ाली हो चुकी थी
मुझे वहाँ साइकिल में लगाने वाला आईना दिखा
मुझे वह चाहिए था, मैंने उठा लिया
इधर उधर देखा तो वहाँ उनके घर का कोई नहीं था

शाम को छः बजे दूरदर्शन ने पुष्टि कर दी
कि इन्दिरा गाँधी का देहांत हो गया

चार दिन बाद स्कूल खुले और हमें घर से निकलने की इजाज़त मिली
शहर, टेढ़े हुए चक्के पर घिसट रहा था

हवा सब में कम कम थी

स्कूल खुलने पर हम सब फिर से वहाँ रुके, हमेशा की तरह
मैंने आईने का दाम चुकाना चाहा
पर दादा जी, गुरु नानक की तरह सिर झुकाए निर्विकार से बैठे थे
उनके क्लीन शेव बेटे ने मेरे सिर पर हाथ फेर कर कहा,  ’रहने दो’
एक दानवीर दान कर रहा था आईना

उसके बाद लोग अपने-अपने चक्के में हवा अलग-अलग जगह से भरवाने लगे।
उसके बाद हर गली में पचास पैसे लेकर हवा भरने वाले बैठने लगे।

****

Posted by: PRIYANKAR | जुलाई 17, 2011

अनुराग वत्स की एक कविता

अनुराग वत्स

गिनती

अब जब कहीं कुछ नहीं की साखी है तो तुम्हारा
जानबूझकर मेरे पास भूल गया क्लचर है.
मैं उससे आदतन खेलता हूँ, मगर एहतिहात से
कि कहीं तुम्हारी आवाज़ बरज ना दे.
और टूट गया तो तुम्हारी तरह वैसा ही मिलना नामुमकिन.

हुमायूँ’ज टॉम्ब, शाकुंतलम थियेटर और परांठे वाली गली
तुम साथ ले गई. अब वे मेरी याद के नक़्शे में हैं, शहर दिल्ली में कहीं नहीं.

यूथ भी.
उसे अकेले पढ़ना असंभव होगा मेरे लिए.

मेरा हरा कुर्ता हैंगर का होकर रह गया है.
मानो उसे तुम्हारे हाथों ने दुलारा ही नहीं.

आसमानी अदालत में मुझे मुजरिम करार दिया गया है.
सज़ा बरसात की सुनाई गई है…हद है!
…आगे कोई अपील नहीं…

सच पूछो तो तुम्हारा एसारके मुझे चिढ़ाता है.
हालाँकि मैं रोमन हॉलीडे चाव से देख सकता हूँ.

फिर भी मैं आजिजी में नहीं, बहुत इत्मिनान में फ्लोरेंतिनो अरिज़ा के
५३ साल, ७ महीने और ११ दिन-रात को अपना मुकम्मल ठिकाना बना रहा हूँ.
पर इतनी उम्र मिलेगी फरमीना ?

***

अनुराग वत्स की और कविताएं यहां पढ़ें :

http://vatsanurag.blogspot.com/2011/01/blog-post_27.html

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