खुशदीप सहगल
बंदा 1994 से कलम-कंप्यूटर तोड़ रहा है

अयोध्या...The opportunity in adversity...खुशदीप

 
60  साल से भी ज़्यादा इंतज़ार के बाद अयोध्या मसले पर आज हाईकोर्ट की बेंच दोपहर बाद साढ़े तीन बजे फै़सला सुना देगी...फैसला जो भी आए भारत के पास बढ़िया मौका है दुनिया को ऐसा संदेश देने का जो सिर्फ भारत की धरती से ही निकल सकता है...संकट से भी अवसर निकल सकता है, ये हम सबको दिखा सकते हैं...न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि बहुत कुछ अच्छा होने वाला है...हिंदुओं को वो मिल जाएगा जो वो चाहते हैं...मुसलमानों का मकाम भी बहुत ऊंचा हो जाएगा...भाईचारे की देश में एक नई इबारत लिखी जा सकती है...ये शायद मेरी गट फीलिंग है...


फैसला जिसके हक में भी आए लेकिन उसके बाद शांति और अमन की नई पहल शुरू हो सकती है...ऐसा नहीं कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद आपस में बातचीत हो ही नहीं सकती...ये मामला सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद भी आपसी बातचीत का रास्ता साथ साथ चल सकता है...फैसला आने के बाद टेबल पर बातचीत के लिए बैठ कर ऐसे नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि वो तारीख का सुनहरा पन्ना बन जाए...बस इसी सिद्धांत को ध्यान में रखा जाए कि हमी हम हैं तो क्या हम हैं...तुम्ही तुम हो तो क्या तुम हो...दम तो तब है जब दोनों मिलकर हम बनें...

आज बार-बार बस यही गीत सुनने और सुनाने का मन कर रहा है...


इनसान का इनसान से हो भाईचारा,
यही पैगाम हमारा, यही पैगाम हमारा...


नए जगत में हुआ पुराना ऊंच-नीच का किस्सा,
सबको मिले मेहनत के मुताबिक अपना-अपना हिस्सा,
सबके लिए सुख का हो बराबर बंटवारा,
यही पैगाम हमारा, यही पैगाम हमारा...


हर इक महल से कहो कि झोपड़ियों में दीए जलाए,
छोटे और बड़ों में अब कोई फर्क नहीं रह जाए,
इस धरती पर हो प्यार का घर-घर उजियारा,
यही पैगाम हमारा, यही पैगाम हमारा...
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अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम...खुशदीप

 
अयोध्या का नाम हर ज़ुबान पर है...हर किसी को फैसले का इंतज़ार है...मुकदमे से जुड़ी हर पार्टी को उम्मीद है कि 30 सितंबर को दोपहर साढ़े तीन बजे इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फ़ैसला उसी के हक में आयेगा...अगर फ़ैसला अपने हक़ में नहीं आया तो...क्या हर पार्टी हाईकोर्ट के फैसले को शालीनता के साथ मान लेगी...जो जवाब आपका दिमाग दे रहा है, वही मेरा भी दे रहा है...तय है कि कोई न कोई पार्टी सुप्रीम कोर्ट में फैसले को चुनौती देगी...ज़ाहिर है ये वही पार्टी होगी जिसके खिलाफ़ फैसला गया होगा...ज़रूरी नहीं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद भी इस विवाद पर विराम लग जाए...फिर अपने हक में संसद से क़ानून बनाने की मांग होगी...सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए जगह-जगह आंदोलन किए जाएंगे...भावनाओं का ज्वार लाने के लिए हर मुमकिन कोशिश की जाएगी...आखिरी फैसला बेशक लटका रहे लेकिन सियासत का रंग उतना ही चोखा होता जाएगा जितना कि सड़कों पर प्रदर्शन के ज़रिए उबाल आयेगा...

सियासत चाहेगी कि ऐसे ही हालात बने रहे और फैसला किसी तरह लटका रहे...सत्ता की चाशनी वाली हांडी बार-बार पकती रहे...नेता चाहे इधर के हो या उधर के, अयोध्या के नाम पर अपने-अपने वोट-बैंकों को एकजुट करने की कोशिश करेंगे...लेकिन ऐसा करते वक्त वो भूल जाते हैं कि भारत का अधिकतर वोटर अब युवा है...पढ़ा लिखा है, अपना भला-बुरा खुद अच्छी तरह सोच सकता है....वो इक्कीसवी सदी में रह रहा है...बीसवीं सदी उसके लिए कोई मायने नहीं रखती...वो तो बस आर्थिक तरक्की के घोड़े पर चढ़ कर आसमान को छूना चाहता है...उसे मज़हब, जात-पात, भाषा, प्रांतवाद के नाम पर बेड़ियों में बंधना पसंद नहीं है...मेरा मानना है, और सियासतदानों को भी मान लेना चाहिए कि काठ की हांडी को दोबारा आग दिखाने की कोशिश की तो खुद के ही हाथ जलेंगे...

सब अयोध्या-अयोध्या कर रहे हैं...क्या कभी किसी ने अयोध्या की ज़मीन से पूछा है कि वो क्या चाहती है...क्या सरयू का पानी कहता है कि उस पर किसी खास धर्म का ही हक है...अयोध्या-फैज़ाबाद, गंगा-जमुनी तहज़ीब क्या इनको अलग कर देखा जा सकता है...अयोध्या में रामनवमी का मेला लगता है तो उसकी कमाई से ही शहर के हिंदू-मुसलमान दुकानदारों का कई महीने की रोज़ी-रोटी का जुगाड़ होता है...लेकिन अदालती प्रक्रिया की कोई भी सुगबुगाहट होती है तो अयोध्या सगीनों के साये में आ जाता है...गली-कूचों में जवानों के बूटों की चाप सुनाई देने लगती है...इतिहास गवाह है कि अयोध्या-फ़ैज़ाबाद के मूल नागरिक हमेशा अमन-पसंद और सुख-दुख में साथी रहे हैं...अयोध्या में तनाव तभी महसूस किया गया जब बाहर से आने वाली आंधियां अपने साथ नफरत का जहर लेकर आईं...स्थानीय नागरिकों की मानी जाती तो उन्होंने चौबीस साल पहले ही आपस में बैठकर इस मुद्दे का हल ढूंढ लिया था...(आप अगर उसे जानना चाहें तो कल पोस्ट लिख सकता हूं)

पिछले साठ सालों में ये पहली बार हुआ है कि अब हर कोई फैसला सुनने के लिए तैयार है..अदालत फैसला देने के लिए तैयार है...फैसला आने के बाद ऊंट किस करवट बैठेगा, ये बाद की बात है...मैं सिर्फ फैसला सुनने की बात कर रहा हूं...फैसला मानने की नहीं...ऐसे बयान भी हमने सुने हैं कि आस्था से जु़ड़े मुद्दे कोर्ट के डोमेन से बाहर हैं...कोर्ट आपके हक में फैसला दे दे तो ठीक, नहीं दे तो आस्था का सवाल उठा कर कोर्ट के फैसले को ही नकार दिया जाए...अगर आपको विपरीत फैसला आने पर कोर्ट पर ही भरोसा नहीं तो आप फिर कोर्ट से फैसले की दरकार करने ही क्यों आए थे...फैसला उलट आने पर आपको संसद से क़ानून बनाने का रास्ता नज़र आ जाएगा...ये रास्ता भी सरकार ने ही शाहबानो केस के ज़रिए देश को दिखाया था...शाहबानो केस में राजीव गांधी सरकार न झुकती तो फिर कोई संसद से क़ानून बनाए जाने को नज़ीर की तरह पेश नहीं करता...

मुझे इस बात पर भी हंसी आती है जब कोई ये कहता है कि आपसी समझौते के ज़़रिए समाधान निकाला जा सकता है...अयोध्या से जुड़े केस में कुल 27 पार्टियां हैं...क्या कभी ये सब पार्टियां एकसुर में बोल सकती हैं....दूसरी बात का जवाब मैं और जानना चाहता हूं कि क्या हमारे देश में कोई एक संगठन या पार्टी ये दावा कर सकती है कि वो देश के सारे हिंदुओं या सारे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है...मान लीजिए कुछ संगठन आपस में समझौता कर भी लें तो क्या गारंटी उन पर सेल-आउट का आरोप लगाते हुए उंगलियां नहीं उठेंगी...फिर ऐसी सहमति का क्या मतलब रह जाएगा...

मेरी निजी राय है कि अयोध्या के लिए कभी सुलह का रास्ता हो सकता है तो वो अयोध्या से ही निकलेगा...बस ज़रूरत है कि इसे अयोध्या-फैज़ाबाद के लोगों पर ही छोड़ दिया जाए...बाहर का कोई व्यक्ति दखल न दे...अयोध्या खुद ही ठंडे दिमाग से अतीत से मिली दीवार पर भविष्य की इबारत लिखे...सरकार भी इस काम में ईमानदारी के साथ अयोध्यावासियों का साथ दे...देश का हर नागरिक इस पुनीत काम में अयोध्या को अपना नैतिक समर्थन दे...मैं भी जानता हूं कि ये मेरी सारी बातें हवा में तीर हैं...लेकिन ये सपना तो देख ही सकता हूं...आप भी इस सपने को सुनिए-

अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम....
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शरीर के कैंसर को छिपाओगे या इलाज करोगे...खुशदीप

क्या शरीर के कैंसर को छुपाने से कैंसर मिट जाता है...क्या चोरी पकड़े जाने पर बिल्ली के आंखें बंद कर लेने से उसकी चोरी माफ हो सकती है...कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन को लेकर मेरी कुछ ऐसी ही राय है...दिल्ली का विकास और कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन दोनों अलग मुद्दे हैं...लेकिन सरकार ने अपनी सब कमज़ोरियों पर पर्दा डालने के लिए खूबसूरती के साथ दोनों को एक-दूसरे से जोड़ दिया...

ये बात सही है कि दिल्ली का विकास पिछले दस-पंद्रह साल में जितना हुआ, उतना पहले कभी नहीं हुआ...साथ ही ये भी सच है कि दिल्ली में प्रति व्यक्ति 65,000 की औसत आय देश में सर्वाधिक है...क्या जो पहले से ही चमके हुए हैं, उन्हें और चमकाने से देश चमक जाएगा...क्या भारत का मतलब सिर्फ दिल्ली है...कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में न होते तो भी दिल्ली में विकास का घोड़ा तेज़-रफ्तार से दौड़ रहा था...कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर क्या एप्रोच होनी चाहिए थी, इसकी बेहतरीन मिसाल ब्रिटेन ने 2002 के मानचेस्टर गेम्स के आयोजन के दौरान दी...ब्रिटेन ने लंदन में सारा इन्फ्रास्ट्रक्चर होने के बावजूद ये खेल मानचेस्टर में कराए....वहां उस वक्त युवाओं मे बेरोज़गारी की समस्या चरम पर थी...मानचेस्टर को कॉमनवेल्थ गेम्स मिलने से वहां विकास के साथ रोज़गार के असीमित अवसर पैदा हुए...आज मानचेस्टर में वॉलमार्ट जैसे स्टोर खुले हुए हैं, जहां 18,000 युवाओं को रोज़गार मिला हुआ है...

हमारे यहां क्या हुआ...दिल्ली के लिए गेम्स मिले...उस दिल्ली को जिसका पहले से ही पेट भरा हुआ है...दिल्ली में जो भूखे पेट सोने को मजबूर थे, उन्हें तो पहले ही ताकीद कर दिया गया कि कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान कहीं नज़र भी न आना..सही है गरीबी नहीं मिटा सकते तो गरीब ही मिटा दो...क्योंकि हमारा मकसद जगमग दिल्ली दिखाकर विदेशियों की वाहवाही लूटना था, अपनी बुनियादी कमजोरियों को दूर करना नहीं...

कॉमनवेल्थ गेम्स पहले के वादे के मुताबिक बवाना जैसे दिल्ली के ही पिछड़े इलाके में कराए जाते तो भी बात कुछ समझ आ सकती थी...लेकिन वादे तो होते ही टूटने के लिए हैं...ये कुछ कुछ वैसा ही है जैसे उत्तराखंड की राजधानी बनाने का वादा पहले गैरसैंण से किया गया, लेकिन नौकरशाहों के दबाव के चलते देहरादून को ही राजधानी का दर्जा मिल गया...तर्क दिया कि देहरादून में इन्फ्रास्ट्रक्चर मौजूद है...ऐसे ही दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए भी दलील दी गई....

पर्यावरण के सारे नियमों को ताक पर रखकर यमुना बेड पर कॉमनवेल्थ विलेज बनाया गया...अच्छी बात है लेकिन ये खेल निपटने के बाद इस विलेज के आलीशान फ्लैट्स का क्या होगा, उसके बारे में क्या सोचा गया...यही कि करोड़ों खर्च करने वालों को ये फ्लैट्स बेच दिए जाएंगे...दिल्ली के विधायकों ने तो दावा तक ठोंक दिया कि इन फ्लैट्स पर सबसे पहली दावेदारी उनकी बनती है, इसलिए उन्हें ही बेहद रियायती दरों पर ये फ्लैट्स मुहैया कराए जाएं...क्या ये अच्छा नहीं होता कि कॉमनवेल्थ विलेज को हॉस्टल जैसा रूप देकर बनाया जाता...जिससे गेम्स निपटने के बाद उसे दिल्ली यूनिवर्सिटी को सौंप दिया जाता...एक झटके में उन छात्रों की मुसीबत खत्म हो जाती जो देश के दूर-दराज के इलाकों से बड़ी तादाद में दिल्ली पढ़ने के लिए आते हैं और हॉस्टल के लिए मारे-मारे फिरते हैं...हर साल की इस परेशानी से छुटकारा मिल जाता...

मैं आज़ादी के बाद देश में सबसे बड़ा विकास का जो काम मानता हूं, वो दिल्ली मेट्रो है...इस ख्वाब को हकीकत में बदलने का सारा श्रेय मेट्रोमैन ई श्रीधरन को जाता है...2002 में दिल्ली में पहली बार जब मेट्रो शुरू हुई तो कॉमनवेल्थ गेम्स का कहीं नामोंनिशान तक नहीं था....कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी नवंबर 2003 में दिल्ली को मिली थी...इसलिए कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में न भी होते तो भी मेट्रो ऐसे ही दौड़ रही होती और लाखों लोगों को रोज़ मज़िल तक पहुंचा रही होती...

ये बात भी सही है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए 70,000 करोड़ का जो खर्च है उसमें से 66,000 करोड़ अकेले दिल्ली के फेसलिफ्ट के लिए है...विशुद्ध खेल गतिविधियों पर 4,000 करोड़ ही खर्चे जाने हैं...लेकिन यहां मैं कहना चाहूंगा कि टैक्सपेयर से मिलने वाली इतनी बड़ी रकम जो दांव पर लगाई गई, क्या उस पर कड़ी निगरानी रखना हमारी सरकार का फर्ज नहीं था...क्यों एक ही आदमी (सुरेश कलमाडी) डेढ़ दशक तक इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन का सर्वेसर्वा बना रहता है...सरकार ने कलमाड़ी से सवाल पूछना तभी शुरू किया जब मीडिया ने भ्रष्टाचार को उजागर करना शुरू किया...

ये साफ हो चुका है कि लंदन में क्वीन बैटन समारोह को लेकर आयोजन समिति में मोटी बंदर-बांट हुई...जो टैक्सी लंदन में सौ-डेढ सौ पाउंड में आसानी से मिल जातीं, उन्हीं के लिए दिल्ली से निर्देश आया कि टैक्सियां को किराए पर लेने की कीमत साढ़े चार सौ पाउंड दिखाई जाए...अब सोचिए ये पता चलने के बाद लंदन की नज़र में हमारा कितना सम्मान बढ़ा होगा...अब अगर इस भ्रष्टाचार को उधेड़ना देशद्रोह है तो ऐसा देशद्रोह बार-बार करना चाहिए...

कॉमनवेल्थ गेम्स के इतिहास में आज तक छोटे से छोटे सदस्य देश का भी राष्ट्रप्रमुख कभी बैटन लेने लंदन में रानी के दरबार में नहीं पहुंचा...लेकिन पिछले साल हमारी राष्ट्रपति पहुंची...किसने और क्यों ये फैसला किया, ये अलग बात है...लेकिन महामहिम के लंदन प्रवास के दौरान आयोजन समिति की ओर से भ्रष्टाचार की खिड़की खोली गई...क्या इससे हमारा मान दुनिया की नज़रों में बढ़ा...हर्गिज़ नहीं...

हां, मैं तारीफ करूंगा इंदिरा गांधी की जिन्होंने दो साल के नोटिस पर ही दिल्ली में 19 नवंबर से 4 दिसंबर 1982 तक  सफलतापूर्वक एशियन गेम्स करा कर गवर्नेंस की नई लकीर खिंची थी...यहां मैं इंदिरा के दौर और अबके दौर की एप्रोच का फर्क साफ करना चाहूंगा...

1982 में एशियन गेम्स की ज़िम्मेदारी स्पेशल ऑर्गनाइजिंग कमेटी (एसओसी) के हेड के तौर पर राजीव गांधी ने संभाल रखी थी...19 नवंबर को एशियन गेम्स के शानदार उद्घाटन के बाद राजीव गांधी प्रगति मैदान में अपने ऑफिस में बैठे थे...बाहर तेज़ बारिश हो रही थी...तभी किसी नौकरशाह ने आकर जानकारी दी कि एशियाड सेंटर में वेटलिफ्टिंग हॉल की छत रिसने लगी है और हॉल में पानी आ गया है...ये सुनते ही राजीव उठे और तत्काल एशियाड सेंटर पहुंच गए...तब तक रात के दस बज चुके थे...उस वक्त दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर जगमोहन थे....देखते ही देखते एक हज़ार मजदूरों को एशियाड सेंटर पहुंचाया गया...राजीव पूरी रात वहीं जमे रहे...सुबह जब सब कुछ ठीक होने का अच्छी तरह भरोसा हो गया, राजीव तभी घर लौटे...

आज राहुल गांधी में लोग राजीव गांधी का अक्स देखते हैं...लेकिन कॉमनवेल्थ पर इतना हल्ला होने के बाद भी राहुल ने इस पर कभी एक शब्द भी बोला...हर मुद्दे पर बोलने वाले राहुल यहां क्यों चुप रहे...सिर्फ इस वजह से कि उनकी पार्टी के ही लोग इस सारी गफलत के लिए ज़िम्मेदार हैं...राज्यं में विरोधी दलों की सरकारों को कोसना बहुत आसान है लेकिन अपनी ही सरकार की कमजोरियों पर निशाना साधने के लिए जो हिम्मत चाहिए, उसका परिचय अभी तक राहुल ने नहीं दिया है...ऐसे में मैं मणिशंकर अय्यर को साधुवाद देता हूं...कम से कम अपनी पार्टी को ही उन्होंने कॉमनवेल्थ का चटका आईना दिखाने की कोशिश तो की...ये सही है कि हमें हर वक्त अपनी खामियों का ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए...लेकिन इसका क्या ये मतलब निकाला जाए कि अपने शरीर के कैंसर को दूर करने के लिए खुद का इलाज ही नहीं किया जाए...
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इरफ़ान की कॉर्टून प्रदर्शनी, आडवाणी चीफ गेस्ट, मेरी रिपोर्ट...खुशदीप

आज का दिन बहुत खुशगवार गुज़रा...जब से नोएडा आया हूं शायद पहली बार अपने वीकली ऑफ का इतना बढ़िया सदुपयोग हुआ...इरफ़ान भाई ने दस-पंद्रह दिन पहले ही वादा ले लिया था कि आज कि दोपहर कोई ज़रूरी काम न रखूं...इरफ़ान नाम ऐसा है जो आज किसी परिचय का मोहताज नहीं...कार्टून की दुनिया में इरफ़ान को देश में वही मकाम हासिल है जो सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट में, अमिताभ बच्चन को बॉलीवुड में और समीर लाल समीर को ब्लॉगिंग में...पिताजी के अस्वस्थ होने की वजह से मैं शनिवार को मेरठ में था लेकिन इतवार को सुबह ही नोएडा आ गया...इरफ़ान भाई की सख्त इंस्ट्रक्शन थी कि दो बजे मैं प्रेस क्लब में मौजूद रहूं...


इरफ़ान भाई के चेहरे पर प्रदर्शनी की कामयाबी की खुशी

शुक्र हो मेट्रो का जिसने दिल्ली में कहीं आना-जाना आसान कर दिया है...मैं टाइम से बस दस-पंद्रह मिनट लेट प्रेस क्लब पहुंच गया...इरफ़ान भाई उस वक्त थोड़ी देर के लिए कहीं गए थे...प्रेस क्लब की गैलरी में इरफ़ान के कॉर्टून करीने से सजे हुए थे...विषय था वेल्थ गेम्स 2010...कॉमनवेल्थ गेम्स की गफ़लत को लेकर सरकार, दिल्ली सरकार और आर्गनाइजिंग कमेटी पर इरफ़ान की दिमागी कूची के एक से बढ़ कर एक चुटीले प्रहार...




सारे कॉर्टून्स का अवलोकन कर ही रहा था कि प्रेस क्लब के सर्वेसर्वा पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ नज़र आ गए...उनके साथ ही प्रेस क्लब के एक और पदाधिकारी नरेंद्र भल्ला खड़े थे...दोनों कार्यक्रम की तैयारी को अंतिम रूप दे रहे थे...पुष्पेंद्र से चार-पांच साल पहले मिला था...दुआ-सलाम हुई..इस बीच स्निफर डॉग ने आकर आयोजन स्थल को खंगालना शुरू कर दिया...दरअसल चीफ गेस्ट पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी का आने का वक्त तीन बजे निर्धारित था...उससे पहले ही सिक्योरिटी वालों ने आकर अपनी पोजीशन ले ली थी...

इस बीच शुक्रवार पत्रिका के संपादक प्रदीप पंडित आ पहुंचे...इरफ़ान शुक्रवार मैगजीन के लिए भी कॉर्टून और सज्जा का काम देखते हैं...सबकी आंखें इरफ़ान भाई को ही ढूंढ रही थी...इरफ़ान भाई तब तक भाभी आरती जी और बच्चो सरगम और अपूर्व के साथ आ पहुंचे...वो उन्हें ही लेने गए थे...

घड़ी की सुई ने जैसे ही तीन बजाए...प्रेस क्लब के गेट पर हलचल शुरू हो गई...आडवाणी ठीक टाइम पर आए...साथ में उनकी बेटी प्रतिभा आडवाणी थीं...वो पेशे से पत्रकार और टीवी प्रेंज़ेटेटर हैं...कॉर्टून प्रदर्शनी का रिबन काटने की रस्म हुई...आडवाणी ने एक-एक कॉर्टून को बड़े ध्यान से देखा...इसके बाद उन्हें मंच तक ले जाया गया...





प्रेस क्लब की ओर से आडवाणी और प्रतिभा आडवाणी को बुके देकर सम्मानित किया गया...इस मौके पर इरफ़ान भाई ने आडवाणी  का शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद प्रदर्शनी के लिए वक्त निकाला....

आडवाणी जिस राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसका मैं किसी भी लिहाज से कायल नहीं हूं...लेकिन बोलते हुए वो शब्दों की मर्यादा का जिस तरह पालन करते हैं, वो प्रभावित करने वाला है...राजनीति में मतभेद होते हैं, लेकिन शालीन रह कर भी विरोधियों पर निशाना साधा जा सकता है...देश में इस परिपाटी पर चलने वाले अब गिनेचुने ही नेता रह गए हैं...

खैर, इरफ़ान भाई ने मुझे बताया कि तीस साल पहले मॉस्को ओलंपिक के दौरान कॉर्टून के एक संग्रह से बड़े प्रभावित हुए थे..तभी से हमेशा उनमें ये कुलबुलाहट रही कि वो खेलों पर इसी तरह अपने कॉर्टून जारी करें...कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में होने तय हो गए तो इरफ़ान को लगा कि अब उनके मन की बरसों से दबी इच्छा पूरी हो जाएगी...लेकिन इरफ़ान को क्या पता था कि उनके कॉर्टूनों का फोकस कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों की खामियां बन जाएंगी...इरफ़ान के मुताबिक उन्हें उम्मीद थी कि कॉमनवेल्थ के चलते दिल्ली भी बीजिंग, शंघाई या सियोल जैसी दिखेगी, ट्रैफिक तरतीब से चल रहा होगा...अफसोस कॉमनवेल्थ गेम्स के शुरू होने के ठीक पहले तक दिल्ली में हर तरफ उलटा-पुलटा ही नज़र आता रहा..

मैं ये सोच ही रहा था कि आ़़डवाणी  ने मंच से दो शब्द कहना शुरू कर दिया...सबसे पहले उन्होंने राजनीति में आने से पहले अपने पत्रकारिता के दिनों को याद किया...आडवाणी  के मुताबिक एक पत्रकार को जिस शख्स से सबसे ज़्यादा ईर्ष्या होती है वो कॉर्टूनिस्ट ही होता है...क्योंकि पत्रकार लंबी चौड़ी रिपोर्ट तैयार करता है...और कॉर्टूनिस्ट एकाध लाइन के पंच से ही सारी वाहवाही बटोर लेता है...कॉमनवेल्थ पर आडवाणी ने इतना ही कहा कि उनकी पार्टी के लोग इस पर बोल रहे हैं लेकिन उन्होंने इसके विरोध में एक शब्द नहीं बोला...आडवाणी के अनुसार वे यही चाहते हैं कि कॉमनवेल्थ गेम्स सफल हो...आडवाणी ने इतना ज़रूर कहा कि आज सरकार की कोशिश यही रह गई है कि किसी तरह ये गेम्स हो जाए...उसके बाद दावे किए जा सकें कि कॉमनवेल्थ गेम्स का कामयाब आयोजन कराया गया...

एक बात और आडवाणी ने काम की बताई...वो ये कि 2003 में कॉमनवेल्थ गेम्स जब दिल्ली में होने तय हुए, उस वक्त केंद्र में एनडीए की सरकार थी...तब दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल विजय कपूर ने सरकार को एक प्रस्ताव भेजा था कि कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए जो विलेज बनाया जाए वो इस तरह हो कि खेलों के बाद उसे विशाल हॉस्टल का रूप दिया जा सके...जिससे दिल्ली यूनिर्विसिटी में देश के दूर-दराज से पढ़ने के लिए आने वाले छात्रों के लिए हॉस्टल की कमी की समस्या काफी हद तक दूर हो सके...आडवाणी ने अफसोस जताया कि केंद्र में 2004 में सरकार बदल जाने के बाद ये हॉस्टल का प्रस्ताव भी ठंडे बस्ते में चला गया...

आडवाणी ने राजनीति से इतर कुछ अपनी रूचियों की भी चर्चा की...आडवाणी के मुताबिक पहले उन्हें फिल्में देखने का बड़ा शौक था...लेकिन बाद में सिक्योरिटी की वजह से दूसरों को परेशानी न हो इसलिए उन्होंने हाल मे फिल्म देखने के लिए जाना छोड़ दिया...अब बेटी प्रतिभा घर पर ही डीवीडी ला देती हैं...आडवाणी ने बताया कि कुछ साल पहले उन्होंने परिवार के साथ चाणक्य थिएटर में फिल्म...हम आपके हैं कौन...देखने का मन बनाया...साथ ही हॉल वालों को कह दिया गया कि वो फिल्म शुरू होने के थोड़ी देर बाद पहुंचेंगे जिससे कि अंधेरे में लोगों को पता न चले और किसी को असुविधा न हो...लेकिन न जाने ये बात कैसे लीक हो गई...और मीडिया वाले पहले ही हॉल में पहुंच गए...अगले दिन टेलीग्राफ में रिपोर्ट छपी थी कि आडवाणी फिल्म के बीच में पॉपकॉर्न लेने के लिए आए तो गाना गुनगुना रहे थे...दीदी तेरा देवर दीवाना...एक दिन बाद हिंदुस्तान टाइम्स में सुधीर तैलंग का एक कॉर्टून भी छपा...जिसमें दिखाया गया था कि चुनाव के लिए आडवाणी ने वोट फॉर बीजेपी की तख्ती उठा रखी है...साथ ही एक दीनहीन व्यक्ति कटोरा लेकर बैठा है और पूछ रहा है- हम आपके हैं कौन...

मंच पर आडवाणी का संबोधन होने के बाद कॉमनवेल्थ पर इरफ़ान के कार्टूनों की स्मारिका का विमोचन किया गया...ये कार्यक्रम खत्म होने के बाद प्रेस क्लब के पदाधिकारी मुख्य अतिथि को चाय के लिए अंदर हॉल में ले गए...आडवाणी और प्रतिभा आडवाणी जिस टेबल पर बैठे थे, इरफ़ान भाई ने मुझे भी अपने साथ बिठा लिया...इरफ़ान भाई के इस स्नेह से मैं अभिभूत था...आडवाणी को विदा करने के लिए फिर सब प्रेस क्लब के गेट पर आए...इस मौके पर इरफ़ान भाई के फैंस तो बड़ी तादाद में मौजूद रहे ही मीडिया की भी प्रभावशाली उपस्थिति रही...

अब तक पांच बज चुके थे...मुझे मेरठ के लिए निकलना था...मैंने इरफ़ान भाई और भाभी जी से मजबूरी बताते हुए विदा ली...अरे हां एक बात तो बताना भूल ही गया इस मौके पर ब्लॉगर बिरादरी की तरफ से राजीव कुमार तनेजा और शाहनवाज़ सिद्दीकी ने भी बिजी होने के बावजूद कार्यक्रम के लिए वक्त निकाला...इस प्रदर्शनी में दिनेश राय द्विवेदी सर की भी आने की बहुत इच्छा थी...लेकिन मकान चेंज करने की वजह से व्यस्त होने की वजह से नहीं आ सके...उन्होंने ई-मेल के ज़रिए मुझे इसकी सूचना दी और साथ ही इरफ़ान भाई तक उनकी बधाई पहुंचाने के लिए कहा...लीजिए यहां प्रदर्शनी में लगे इरफ़ान भाई के एक और कॉर्टून का मजा लीजिए...इरफ़ान भाई से आग्रह करूंगा कि वो प्रदर्शनी के सभी कार्टून्स को ब्लॉगजगत तक पहुंचाने का इंतज़ाम करें...
 
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सेना के सरकार चलाने में फिर क्या बुराई...खुशदीप

कल लैपटॉप की बैट्री और एडॉप्टर दोनों एक साथ बेवफा हो गए...आज दोनों को रुखसत कर बैट्री और एडॉप्टर के नए नवेले जोड़े को घर लाया हूं...तभी आप से मुखातिब हो पा रहा हूं...वहीं से शुरू करता हूं जहां छोड़ा था...कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में हाथ बंटाने के लिए सेना को बुला ही लिया गया...यह शायद हमारे राजनीतिक नेतृत्व की फितरत में शामिल हो गया है, पहले भ्रष्टाचार, काहिली या सियासी नफ़े-नुकसान के फैसले लेकर इतना रायता फैला दो कि त्राहि-त्राहि मच जाए...और जब सभी हाथ खड़े कर दें तो संकट-मोचक के तौर पर सेना को याद करो...ऑपरेशन ब्लू स्टार, कश्मीर, पूर्वोत्तर जहां जहां भी आग बेकाबू हो जाए तो उसे बुझाने की गर्ज़ से सेना को झोंक दो...




कॉमनवेल्थ गेम्स को आठ दिन बचे हैं...गेम्स के सबसे बड़े आकर्षण जवाहरलाल नेहरू स्टे़डियम के बाहर साढ़े दस करोड़ की लागत से बन रहा फुटब्रिज गिरने के बाद बड़े से बड़े कॉन्ट्रेक्टर ने भी तौबा कर ली कि इतने कम वक्त में नया फुटब्रिज बनाकर नहीं दिया जा सकता...मरता क्या न करता...सरकार को सेना का ही सहारा लेना पड़ा...सेना बैली पुल का निर्माण पांच दिन में कर देगी...ये वैसा ही पुल होगा जैसे दुर्गम इलाकों में नदी वगैरहा को पार करने के लिए अस्थायी पुल बनाए जाते हैं...प्रायोजन खत्म होने के बाद ऐसे पुलों को समेट लिया जाता है...अब सवाल यहां उठता है कि इतने साल सरकार जो नहीं कर पाई वो चाहती है कि सेना पांच दिन में ही पूरा कर दे...पहले साढ़े दस करोड़ गए पानी में....अब सेना जो अस्थायी पुल बनाएगी, उस पर खर्च अलग आएगा....बलिहारी जाऊं सरकार की सोच और काम करने के अंदाज़ पर...
मुसीबत के वक्त सेना को ही आगे आना है तो फिर क्यों नहीं सरकार संभालने की ज़िम्मेदारी भी सेना को ही दे दी जाती...

हमारे देश की सेना दुनिया में सबसे ज़्यादा अनुशासित है...ये बात संयुक्त राष्ट्र भी अपने शांति मिशनों के दौरान मान चुका है...लेकिन इस अनुशासित सेना को सैनिक कार्यों के लिए ही रहने दिया जाए तो ज़्यादा बेहतर है...आप सेना को जितना नागरिक कार्यों में झोंकेंगे , उतना ही सेना में भी भ्रष्टाचार का कीड़ा आने की संभावना रहती है...सप्लाई-खरीद जैसे कामों में रिश्वतखोरी के आरोपों के घेरे में हाल में सेना के कई अधिकारियों के नाम आ चुके हैं...सेना को उसी काम के लिए रहने दिया जाए, जिसके लिए उसे बनाया गया है...सरहद की हिफ़ाज़त के लिए...

कॉमनवेल्थ के गड़बड़झाले को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री ने ऐन मौके पर कमान संभाली है...ये वही मनमोहन सिंह जी हैं जिन्होंने कुछ ही दिन पहले अपनी कैबिनेट को नेहरू जी की कैबिनेट से ज़्यादा एकजुट बताया था... कितनी एकजुट है वो इसी बात से पता चल जाता है कि सुरेश कलमाडी एंड कंपनी की कारस्तानियां उजागर होने के बाद सिर्फ खेल मंत्री मनोहर सिंह गिल और शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड़्डी की ओर ही मुंह उठाकर ताका जाता रहा कि वो चमत्कार कर देंगे और कॉमनवेल्थ गेम्स शानदार ढंग से निपटेंगे...ये दोनों मंत्री भी ठोस कुछ करने की जगह हवा में ही तीर चलाते रहे...इन दोनों मंत्रियों को छोड़ दीजिए, बाकी और किसी ने भी कौन सा कद्दू में तीर चला लिया...दुनिया में साख का सवाल हो तो क्या पूरी कैबिनेट की ये ज़िम्मेदारी नहीं बन जाती...लेकिन यहां आगे बढ़ कर स्वेच्छा से ज़िम्मेदारियां संभालना तो दूर कई मंत्री कॉमनवेल्थ पर हायतौबा मचने के लिए ऊपर वाले का शुक्रिया कर रहे हैं...

याद कीजिए कॉमनवेल्थ के सुर्खियां बनने से पहले शरद पवार किस तरह चारों तरफ से निशाना बने हुए थे...महंगाई डायन के डसने से जनता मरी जा रही थी और कृषि मंत्री पवार के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी...पवार पहले आईपीएल और अब आईसीसी का ही खेल खेलते रहे...लेकिन अब जाकर पवार को चैन मिला है...मीडिया का सारा फोकस कॉमनवेल्थ की खामियां ढूंढने पर है, पवार को कोई नहीं छू रहा...थोड़े दिन बाद अच्छी बारिश का नतीजा फसलों पर भी दिखने लगेगा...पवार कह सकेंगे कि उन्होंने महंगाई पर काबू पाकर दिखा दिया...

कॉमनवेल्थ से संचार मंत्री ए राजा को भी बड़ा सुकून मिला है...हजारों करोड़ के 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए राजा का नाम आने के बाद सुप्रीम कोर्ट भी सवाल उठा चुका है...राजा भी खुश हैं कि कॉमनवेल्थ के ज़रिए उन्हें अपने बचाव का रास्ता ढूंढने के लिए अच्छा खासा वक्त मिल जाएगा...


गृह मंत्री के नाते चिदंबरम के लिए नक्सली समस्या को लेकर सवालों का जवाब देना भारी हो रहा था...लेकिन अब सारे सवाल कॉमनवेल्थ पर आ टिके हैं...चिदंबरम से न कोई नक्सली समस्या और न ही कश्मीर के हालात को लेकर सवाल पूछ रहा है...

पिछले कुछ महीनों में देश ने कई रेल हादसे देखे हैं...लेकिन रेल मंत्री ममता बनर्जी निश्चिंत होकर पूरी ऊर्जा मिशन बंगाल पर लगा रही हैं...जाहिर है कॉमनवेल्थ की गफ़लत के पीछे ममता बनर्जी की सारी कमज़ोरियां भी छिप गई हैं...

पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा पेट्रोल की कीमतों को खुले बाज़ार के आसरे छोड़ चुके हैं...पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने से महंगाई रॉकेट की तरह ऊपर चढ़ी...लेकिन देवड़ा पर निशाना साधने वाला कोई नहीं है...सारे तीर कॉमनवेल्थ पर ही जो दागे जा रहे हैं...

अब कैबिनेट की ये कैसी एकजुटता है ये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही बेहतर बता सकते हैं...

(कल की कड़ी में बताऊंगा खेलों को लेकर राजीव गांधी और राहुल गांधी की एप्रोच का फर्क)

क्रमश:
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कॉमनवेल्थ के रायते पर प्रधानमंत्री जी जवाब दीजिए...खुशदीप

कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने में दस दिन रह गए हैं...प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आज नट-बोल्ट कसे तो पूरा अमला एक पैर पर खड़ा नज़र आया...सवाल अब देश की इज्ज़त का है...साख अब सुरेश कलमाडी की नहीं देश की दांव पर लगी है...मुखिया प्रधानमंत्री हैं तो देश का मान रखने का सबसे ज़्यादा दारोमदार भी उन्हीं के कंधों पर है...लेकिन सवाल ये कि जब बारातियों ने जनवासे में आना शुरू कर दिया तभी क्यों नींद टूटी...साढ़े छह साल तक क्यों आपने सुरेश कलमाडी पर आंख मूंद कर भरोसा किया...


कॉमनवेल्थ गेम्स 2010 का शुभंकर शेरा


ये ठीक है 2003 में जमैका में दिल्ली को कॉमनवेल्थ गेम्स अलॉट हुए तो आप नहीं अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे...एनडीए की सरकार थी...लेकिन मई 2004 से तो आप प्रधानमंत्री हैं...करीब छह साल तक सुरेश कलमाडी से कॉमनवेल्थ की तैयारियों को लेकर क्यों सवाल नहीं किए गए...सरकार की तंद्रा इस साल अगस्त में तब ही टूटी जब मीडिया ने भ्रष्टाचार को लेकर सवाल उठाने शुरू किए...लेकिन तब तक कॉमनवेल्थ गेम्स को बामुश्किल 50 दिन ही बचे थे...प्रधानमंत्री ने कैबिनेट सेक्रेटरी के एम चंद्रशेखर को कॉमनवेल्थ गेम्स की निगरानी का ज़िम्मा सौंपा और सब फैसले लेने की ज़िम्मेदारी शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी की अगुआई वाले उच्चाधिकार प्राप्त ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स को दी...जयपाल रेड्डी संसद को आश्वासन देते रहे कि  कॉमनवेल्थ गेम्स पूरी तरह वर्ल्ड क्लास होंगे...खेल मंत्री मनोहर सिंह गिल कहते रहे कि उन्होंने हर खेल खेला हुआ है, इसलिए कॉमनवेल्थ गेम्स को लेकर निश्चिंत रहे...जो थोड़ी बहुत खामियां हैं, सब तय वक्त से पहले ही दूर हो जाएंगी...

लेकिन अब पानी सिर के ऊपर से निकल गया तो प्रधानमंत्री को खुद ही कमान संभालनी पड़ी...लेकिन अब काफ़ी देर हो चुकी है...मैं भी देश के साथ यही दुआ कर रहा हूं कि कॉमनवेल्थ गेम्स सही तरीके से निपट जाए और देश की लाज बच जाए...लेकिन ये जवाब तो सरकार को आज नहीं तो कल देना ही पड़ेगा कि जिस कॉमनवेल्थ गेम्स का बजट शुरू में 1890 करोड़ रुपये आंका गया था वो 70,000 करोड़ का आंकड़ा कैसे पार कर गया...कह सकते हैं कि नब्बे फीसदी पैसा तो दिल्ली के फेसलिफ्ट पर लगा है...लेकिन इसमें से कितना पैसा भ्रष्टाचार निगल गया, जवाब देने वाला कोई नहीं है...आखिर ये पैसा हम और आप जैसे टैक्स देने वालों का ही तो था...किस हैसियत से कलमाडी एंड कंपनी माले मुफ्त दिले बेरहम की तर्ज पर खर्च करती रही...क्यों अंतराष्ट्रीय साख वाले इस मुद्दे पर सिर्फ एक आदमी कलमाडी को ही सारे अधिकार सौंपे रखे गए...जैसे आज प्रधानमंत्री के दखल देने पर पूरा अमला सक्रिय हुआ है, ऐसा ही पिछले साढ़े छह साल में क्यों वक्त-वक्त पर नहीं किया जाता रहा...क्यों नहीं ऑर्गनाइजिंग कमेटी, दिल्ली सरकार, पीडब्लूडी के नुमाइंदों को वक्त-वक्त पर बुला कर निर्माण कार्य की प्रगति की रिपोर्ट ली जाती रही...

राष्ट्रीय साख के आयोजनों की तैयारी राम भरोसे रह कर नहीं की जाती...देश के सामने ये मिसाल इंदिरा गांधी ने 1982 में एशियाई खेलों का सफल आयोजन करा कर दी थी...वो भी तब जब सरकार को गेम्स की तैयारी के लिए सिर्फ दो साल का वक्त मिला था...अप्रैल 1980 में दिल्ली में एशियाई खेल कराने का फैसला किया गया तो इंदिरा गांधी को दोबारा सत्ता में आए तीन महीने ही हुए थे...इससे पहले चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री थे...चरण सिंह ने खर्च का हवाला देते हुए एशियाई खेल कराने से इनकार कर दिया था...लेकिन इंदिरा ने एशियाई खेल कराने का फैसला लिया तो उसे देश के साथ अपनी प्रतिष्ठा से भी जोड़ लिया...इसी दौर में 23 जून 1980 को दिल्ली में संजय गांधी की विमान हादसे में मौत हुई...लेकिन ज़िम्मेदारियों से इंदिरा विचलित नहीं हुईं...

एशियाई खेलों की कामयाबी इंदिरा गांधी के लिए कितनी अहम थी, इसका सबूत यही है कि उन्होंने एशियाई गेम्स की स्पेशल ऑर्गनाइजिंग कमेटी (एसओसी) का हेड और किसी को नहीं बड़े बेटे राजीव गांधी को बनाया...राजीव खुद निर्माणाधीन स्टेडियमों में जाकर मुआयना किया करते थे...


एशियाई खेल 82 का शुभंकर अप्पू

कल अगली किश्त में बताऊंगा कि एशियाई गेम्स से पहले दो साल में दिल्ली में क्या-क्या निर्माण हुए थे...और उसकी तुलना में पिछले साढ़े छह साल में कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों में पानी की तरह पैसा बहा कर क्या हासिल हुआ...

क्रमश:
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मक्खन का साइड-बिज़नेस...खुशदीप

मक्खन का गैरेज का धंधा मंदा चल रहा था...अब भला मक्खन का जीनियस माइंड ऐसे हालात को कैसे बर्दाश्त करता...मक्खन ने साइड बिज़नेस करने की सोची...परम सखा ढक्कन से सलाह ली...कई धंधों पर विचार करने के बाद पोल्ट्री फार्म (चिकन फार्मिंग) शुरू करने पर सहमति बनी...ऊपर वाले का नाम लेकर 100 चिकन खरीद कर मक्खन ने शुरुआत की...



एक महीने बाद मक्खन उसी डीलर के पास आया जिससे 100 चिकन लिए थे...मक्खन ने 100 और चिकन की डिमांड की...दरअसल मक्खन के पहले सारे 100 चिकन दम तोड़ चुके थे...

महीने बाद फिर मक्खन उसी डीलर के पास...100 चिकन और खरीदे...मक्खन का चिकन का दूसरा लॉट भी ऊपर वाले को प्यारा हो चुका था...डीलर ने मक्खन से माज़रा पूछा....मक्खन ने जवाब दिया...ओ कुछ खास नहीं जी, अब मुझे समझ आ गया है कि मैं गलती कहां कर था...दरअसल मैं...

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प्लांटिंग के लिए सारे चिकन को ज़मीन में कुछ ज़्यादा ही नीचे गाड़ रहा था...

चलिए मक्खन ने खुश कर दिया अब एक काम की बात...

परसों अयोध्या पर हाईकोर्ट का फैसला आना है...अगर कल सुप्रीम कोर्ट ने कोई अलग व्यवस्था नहीं दी तो 24 सितंबर को विवादित ज़मीन के मालिकाना हक़ पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच फैसला सुना देगी...वक्त धैर्य और संयम बनाए रखने का है...कोर्ट जो भी फैसला दे, उसका सम्मान किया जाना चाहिए...मुकदमे से जुड़ी किसी पार्टी को फैसले से सहमति न हो तो उसके सामने सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता खुला है...क़ानून अपना काम करे और हम शांति बनाए रखे...ऐसे किसी भी तत्वों के झांसे में हम न आए जो भावनाओं को भड़का कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं...इस वक्त मुझे किसी  की कही ये खूबसूरत लाइनें बहुत याद आ रही है...

चेहरे नहीं इनसान पढ़े जाते हैं,
मज़हब नहीं ईमान पढ़े जाते हैं,
भारत ही ऐसा देश है,
जहां गीता और कुरान साथ पढ़े जाते हैं...

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लाइफ़ का उलटा प्लान...खुशदीप

टाटा इंडीकॉम की आजकल एक एड आती है...लाइफ का उलटा प्लान...जिसमें बताया जाता है कि लोकल कॉल से भी एसटीडी करना सस्ता है उलटे प्लान में...


अब जानिए मक्खन का बनाया करियर का उलटा प्लान...


अगर कोई ए ग्रेड स्टूडेंट हैं...उसे तकनीकी या मेडिकल कालेजों में सीट मिल जाती है, वो डॉक्टर या इंजीनियर बन जाता है...


कोई बी ग्रेड स्टूडेंट है...उसे एमबीए में दाखिला मिल जाता है...वो एडमिनिस्ट्रेटर बन जाता है और ए ग्रेड वालों को मैनेज करता है...

कोई सी ग्रेड स्टूडेंट है, वो किसी तरह पास होकर राजनीति में आ जाता है...फिर वो ए ग्रेड और बी ग्रेड वाले, दोनों पर हुक्म चलाता है...

कोई फेल हो जाता है, वो अंडरवर्ल्ड ज्वाइन कर लेता है और फिर ऊपर वाले सभी को कंट्रोल करता है...


स्लॉग ओवर

मक्खन इतना जीनियस कैसे है...अमेरिका के एक मेडिकल इंस्टीट्यूट ने रिसर्चर्स की एक टीम भारत भेजी...उन्होंने मक्खन के दिमाग का मुआयना किया...तमाम एक्सपेरिमेंट्स किए...अंत में इस नतीजे पर पहुंचे...मक्खन का दिमाग मास्टरपीस है और दो हिस्सों में बंटा है...लेफ्ट और राइट...

लेफ्ट...जहां कुछ भी राइट (सही) नहीं है...


राइट... जहां कुछ भी लेफ्ट (बचा) नहीं है...
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सास डूब रही थी, मक्खन खड़ा सोच रहा था...खुशदीप

श्रृंगार, हास्य, वीभत्स, रौद्र, शांत, वीर, भय, करुण, अद्भुत...यही नौ रस नाट्यशास्त्र का सत्व है...जीवन भी रंगमंच ही तो है...हम हर वक्त इनमें से किसी न किसी मुद्रा में होते हैं...मेरे लिए इन रसों में हास्य का बड़ा महत्व है...ब्लॉगिंग शुरू की थी तो लिखता चाहे किसी भी मुद्दे पर, लेकिन अंत स्लॉग ओवर से ही करता था...अब भी मुझे ई-मेल और फोन पर मेरे कुछ अज़ीज़ कहते रहते हैं कि स्लॉग ओवर मिस मत करा करो...लेकिन मैंने यही देखा कि स्लॉग ओवर पोस्ट के मुद्दे पर भारी पड़ जाता था...प्रतिक्रियाओं का भी वही केंद्रबिंदु बन जाता था...इसलिए हर पोस्ट के साथ मैंने स्लॉग ओवर देना छोड़ दिया...

हां, कभी-कभी ज़रूर मक्खन, गुल्ली. मक्खनी और ढक्कन धरने पर बैठ जाते हैं...आज भी ऐसा ही हुआ, मक्खन ने भूख-हड़ताल की धमकी दे दी कि आज तो पूरी पोस्ट हमारे नाम होनी चाहिए...मरता क्या न करता, मक्खन जी की बात माननी पड़ी...

लीजिए आज मक्खन की सास की गाथा सुनिए...

मक्खन के सास-ससुर की तीन लड़कियां ही थीं...पैसा खूब था, लेकिन लड़का न होने की वजह से सास को यही फिक्र लगी रहती थी कि उनके तीनों दामादों में से कौन सबसे ज़्यादा उनका ध्यान रखता है...मक्खन सबसे छोटा दामाद था...सास ने ये जानने के लिए एक-एक कर तीनों दामादों को नदी के पुल पर बुलाया...सबसे पहले बड़ा दामाद आया...सास ने उसके सामने नदी में छलांग लगा दी...ये देखकर बड़े दामाद ने आव देखा न ताव...झट से नदी में कूद गया...और सास को बचा लाया...सास ने खुश होकर उसे मारूति 800 इनाम में दे दी....


सास ने अगले दिन मझले दामाद को बुलाया...फिर वही छलांग...मझला दामाद भी नदी में कूद कर सास को बचा लाया...सास ने उसे भी खुश होकर हीरो होंडा बाइक ईनाम में दे दी...

आखिरी दिन मक्खन की बारी थी...सास ने मक्खन के सामने भी नदी में छलांग लगाई...मक्खन ने पहले कूदना चाहा, फिर कुछ सोच कर रुक गया...सास डूब कर परलोक सिधार गई...


दरअसल मक्खन के जीनियस माइंड ने सोचा था कि अब मैं सास को बचा भी लाया तो ये मुझे ज़्यादा से ज़्यादा साइकिल ही ईनाम में देगी...मारूति 800 से बाइक पर तो आ ही गई है, अब इसके आगे तो साइकिल ही बचती है...कौन साइकिल के लिए इतना बड़ा पंगा मोल ले...

मक्खन घर आ गया...अगले दिन मक्खन के घर की कॉलबेल बजी...बाहर मर्सिडीज़ कार का सेल्समैन मक्खन को चाबियां देने के लिए खड़ा था...मक्खन हैरान-परेशान...आखिर माज़रा क्या है...तभी सेल्समैन ने मक्खन की तरफ एक ग्रीटिंग कार्ड बढ़ाया...कार्ड पर लिखा था...मेरे प्यारे और सबसे ज़्यादा समझदार दामाद को मेरी तरफ़ से ये छोटी सी भेंट....और नीचे लिखा था...


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मक्खन के ससुर का नाम...
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लड़कियां समर्थ पिता से हक़ क्यों न लें...खुशदीप

आज निर्मला कपिला जी की लघुकथा पढ़ी...मैं पहले भी कहता रहा हूं कि निर्मला जी को पढ़ने के बाद मुझे अमृता प्रीतम जी की कृतियों की याद आती है...इस लघुकथा में निर्मला जी ने दूल्हे के पिता के दोहरे चेहरे को दिखाया...इस लघुकथा के साथ ही मुझे अमृता प्रीतम जी के उपन्यास पर बनी फिल्म पिंजर याद आ गई...पिंजर विभाजन के दौर की कहानी थी...लेकिन लड़कियों की दशा देखे (खास तौर पर पंजाब में) तो इतने साल भी तस्वीर में बदलाव नहीं आया है...घर में लड़के के जन्म पर पहले भी लोहड़ी मनाई जाती थी...अब भी मनाई जाती है...लड़की के जन्म पर पहले भी सास का मुंह फूल जाता था, अब भी फूल जाता है...निर्मला कपिला जी की लघुकथा समाज का एक चेहरा दिखाती है...यहां तो लड़की का बाप समर्थ नहीं लगता...लेकिन अगर बाप समर्थ है और वो बिना किसी दबाव के लड़की के नाम कुछ राशि बैंक में जमा करा सकता है तो बुराई भी नहीं है...आज मैंने किसी और विषय पर पोस्ट लिखनी थी, लेकिन इस लघुकथा को पढ़ने के बाद इसी पर लिख रहा हूं...


पंजाब के नवांशहर ज़िले के धांदुहा गांव में नवजात लड़कों के साथ कुछ मां...यहां छह महीने में सिर्फ एक लड़की ने जन्म लिया...(पूरी स्टोरी पढ़िए आउटलुक में )



मैं यहां खास तौर पर पंजाब की बात करता हूं...यहां समस्या ससुराल में ही नहीं मायके में भी लड़की के जन्म से ही मान ली जाती है...कन्या भ्रूण हत्या की वजह से पंजाब का लिंग-अनुपात सबसे ज़्यादा बिगड़ा हुआ है...यहां लड़के की चाहत बहुत होती है...इसलिए सारे अधिकार भी लड़के के लिए रख दिए जाते हैं...लड़की की शादी करते ही उसका घर से सारा हक खत्म समझ लिया जाता है...ऐसा क्यों...क्या वो अपने भाइयों की तरह पिता की संतान नहीं है...फिर उसका क्यों कुछ हक नहीं...अगर खुशी से लड़की को कुछ दिया जाता है तो उसे भी बड़ा अहसान मान लिया जाता है...

अब आता हूं लड़के वालों पर...खास तौर पर पंजाबियों में यही कहा जाता है कि हमें सिर्फ लड़की चाहिए...हमारी कोई डिमांड नहीं...असली दोहरे चेहरे वाले ये लोग होते हैं...अब अगर लड़की वाले कुछ खास नहीं कर पाते तो पूरी ज़िंदगी बेचारी लड़की को ताने मिलते रहते हैं...किन कंगलों से रिश्ता जोड़ लिया...अरे कुछ नहीं देना था तो न सही, बारातियों की खातिरदारी तो ढ़ंग से कर देते ...इससे अच्छा तो फिर मैंने मेरठ में बनिया परिवारों में देखा है...वहां पहले ही साफ साफ तय कर लिया जाता है कि शादी पर इतना पैसा खर्च किया जाएगा...अब इसे जिस रूप में चाहे खर्च करा लो...ऐसी स्थिति में लड़की को कम से कम कोसा तो नहीं जा सकता...

सबसे आइडियल तो ये है कि बिना किसी भेद-भाव के लड़की को पढ़ाई से इतना समर्थ बनाया जाए कि अगर शादी के बाद विपरीत स्थिति आए भी तो वो बिना किसी सहारे के अपने पैरों पर खड़ी रह सके...क्योंकि शादी के बाद ऊंच-नीच होने पर भी लड़की मायके आ जाए तो उसे न तो घर से और न ही समाज से पहले जैसा सम्मान मिल पाता है...ये सब गलत है...लेकिन समाज में प्रचलित हैं, क्या किया जा सकता है...

ये मेरी ऑब्सर्वेशन है, हो सकता है कि मैं गलत हूं...बस इतना मानता हूं कि लड़कियां चाहे मायके में रहे या ससुराल में घर की भाग्यदेवी होती हैं, और जहां उनका सम्मान नहीं होता, मेरी नज़र में वो घर भूतों के डेरे से कम नहीं...इस विषय में आप क्या कहते हैं...इसे विमर्श का रूप दें तो और भी अच्छा...

आखिर में पिंजर का ये गीत भी सुन लीजिए...


चरखा चलाती मां, धागा बनाती मां, बुनती है सपनों के खेस रे...
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कड़क ब्लॉगर बनाम विनम्र ब्लॉगर...खुशदीप


आप कड़क हैं...आप विनम्र हैं...आप कड़क और विनम्र दोनों हैं...ठीक वैसे ही जैसे आप बैट्समैन-बॉलर हैं या बॉलर-बैट्समैन हैं...यानि आप कड़क-विनम्र हैं या विनम्र-कड़क हैं...आप सोच रहे होंगे कि कहीं आज शिवजी की बूटी चढ़ाकर तो नहीं लिख रहा...नहीं जनाब, इस कड़क और विनम्र के फंडे में ज़िंदगी का फ़लसफ़ा छिपा है...कड़क- मिज़ाजी इन्सटेंट कॉफी की तरह है जो झट से दिमाग को किक करती है...विनम्रता होम्योपैथी गोली की तरह है जो धीरे-धीरे असर दिखाती है...

अब आप ज़िंदगी में ही देखिए कि आप किसी काम में भी विनम्रता दिखाते हैं तो फौरन कोई आपको भाव नहीं देता...सुनने वाला समझता है कि आप कमजोर या पावरलैस हैं, इसलिए आप को भाव नहीं भी देगा तो चलेगा..लेकिन यही आप ज़रा कड़क हो कर अपनी बात कहिए...अगला फौरन सुनने के लिए तैयार हो जाएगा...

आज तेज़तर्रार उसे ही माना जाता है जिसे रौब जमाना आता है...जो खुद कुछ करे या न करे लेकिन ऊंची आवाज़ में सबको हड़काता ज़रूर नज़र आए...माना जाने लगता है कि इस आदमी में गट्स हैं...ये सबसे काम करा सकता है....अब आप विनम्र महाशय को देखिए...कोल्हू के बैल की तरह काम पर लगे रहता है...धीमी आवाज़ में बात करता है...कोई उसकी नहीं सुनता...कोई साथी काम नहीं करता तो उसके हिस्से का भी काम कर देता है...

कड़क महाराज तरक्की की सीढ़ी पाते हैं...विनम्र महाशय अंदर ही अंदर अपने भाग्य को लेकर कुढ़ते रहते हैं...आप किसी सरकारी आफिस में कोई काम कराने पहुंच जाए या खुदा न करे आपको किसी काम के लिए पुलिस स्टेशन जाना पड़े, अगर आप जी हुजूर वाले लहज़े में बोलेंगे तो आपको डांट डपट कर उलटे पांव लौटा दिया जाएगा...और अगर आपने सीधे रूआबदार लहज़े में बात की तो सामने वाला समझ जाएगा कि आप के पीछे कोई न कोई बैक ज़रूर है...उसका आपके साथ बोलने का अंदाज़ ही बदल जाएगा...ये सब मैं हवा में नहीं कह रहा...प्रैक्टीकल में जो दस्तूर है उसी को आप तक पहुंचा रहा हूं...

तो क्या इसका मतलब हम सब विनम्रता छोड़ दें...खुद को कलफ की तरह कड़क कर लें...नहीं जनाब जिस तरह सांप और संत अपनी प्रवृत्ति को नहीं छोड़ते, उसी तरह हमें भी खुद को नहीं बदलना चाहिए...किसी को हड़का कर बात करने से हमारा अब का मतलब बेशक निकल जाए, लेकिन लॉन्ग इन्वेस्टमेंट में इस तरह का आचरण नुकसानदायक ही होता है...कड़क आदमी का जब कभी खराब वक्त आता है तो उसका साया भी साथ नहीं देने आता...दूसरी ओर विनम्र जनाब के लिए ऐसे मुश्किल वक्त में सौ हाथ मदद के लिए आगे आ जाते हैं...इसलिए फायदा इसी में है कि दूसरों को दबा कर नहीं बल्कि दिल से जीतना चाहिए...आखिर में सौ बातों की एक बात...रेस में हमेशा कछुआ ही जीतता है खरगोश नहीं...लंबी रेस का घोड़ा बनिए, विनम्रता अपनाइए...
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घंटाघर अब नहीं बोलता...खुशदीप

आज बात न कश्मीर की और न ही अयोध्या की...आज बात मसूरी की...कश्मीर पर बहस को मैं विराम दे रहा हूं...एक तो दिनेश राय द्विवेदी सर दो-तीन दिन के लिए ब्लॉग से छुट्टी पर हैं...दूसरे मसूरी की खबर ही ऐसी है जिसने मुझे उद्वेलित कर दिया है...अयोध्या का हर तरफ शोर है...फैसला आना है, फैसला आना है...यकीन मानिए 24 सितंबर को अयोध्या की विवादित ज़मीन के मालिकाना हक़ पर फैसला आने के बाद भी मुकदमेबाज़ी खत्म नहीं होगी...जिस पार्टी के हक में फैसला नहीं होगा वो निश्चित तौर पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाएगी...सुप्रीम कोर्ट से फैसला आएगा तो फिर संसद से क़ानून बनाने की बात होगी...ठीक वैसे ही जैसे कि अस्सी के दशक में शाहबानो केस में हुआ था...धर्म या तुष्टीकरण की राजनीति करने वालों को इस दौरान पूरा मौका रहेगा अपने गले की शक्ति दिखाने का...

खैर ये तो रही बात अयोध्या की...अब आता हूं मसूरी पर...मसूरी के घंटाघर पर...वो घंटाघर जो मसूरी का सिगनेचर माना जाता था...1939 में बनाया गया ये घंटाघर सात दशक में मसूरी की ज़िंदगी में ऐसे रच-बस गया था कि उसके बिना मसूरी का तसव्वुर ही नहीं किया जा सकता था...लेकिन मसूरी की इस खास पहचान को इस साल मार्च में गिरा दिया गया...



मसूरी नगरपालिका ने घंटाघर को गिराने के लिए उसके खस्ताहाल होने की दलील दी...साथ ही वादा भी किया कि उसकी जगह नए सिरे से भव्य घंटाघर का निर्माण किया जाएगा...जिस पर इलेक्ट्रॉनिक क्लॉक, फैंसी लाइट्स लगी होंगी, साथ ही एक संग्रहालय भी बनाया जाएगा...नगरपालिका बोर्ड के मुताबिक नए घंटाघर के निर्माण पर 39 लाख का खर्च आएगा और इसे पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (पीपीपी) आधार पर बनाया जाएगा...इसमें बोर्ड 19 लाख रुपये खर्च वहन करेगा...बाकी 20 लाख रुपये मुंबई स्थित एक कारोबारी पीपीपी के तहत खर्च करेंगे... बोर्ड की इसी मंशा को लेकर सवाल उठने लगे..

मसूरी के स्थानीय नागरिक मसूरी की खास पहचान रहे घंटाघर को गिराए जाने से बेहद नाराज़ हैं...नगरपालिका बोर्ड के पूर्व चेयरमैन मनमोहन सिंह माल तो यहां तक आरोप लगाते है कि प्राइवेट पार्टी को ही लाभ पहुंचाने के लिए ये घंटाघर को गिराया गया...प्राइवेट पार्टी का घंटाघर की ज़मीन के पास ही होटल-रेस्टोरेंट है...जबकि नगरपालिका के मौजूदा चेयरमैन ओ पी उनियाल का कहना है कि खस्ताहाल घंटाघर से लोगों को खतरा था...और अब जो नया घंटाघर बनाया जाएगा, उससे मसूरी के पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा...



जो भी है, मसूरी के नागरिक नगरपालिका के इस तर्क को पचा नहीं पा रहे हैं...ऊपर से घंटाघर को गिराए छह महीने से ज़्यादा बीत गए और नए घंटाघर के निर्माण का अब भी दूर-दूर तक कोई पता नहीं है...ऐसे में लोगों की नाराज़गी बढ़ती जा रही है...उनके लिए सात दशक पुराना घंटाघर एक लैंडमार्क था...कई पीढ़ियां उसे देखते हुए जवान हो गईं...ऐसे ही एक शख्स हैं अभिनेता ट़ॉम आल्टर...टॉम की मसूरी से बड़ी खास यादें जुड़ी हैं...उनका बचपन इसी शहर में बीता...टॉम कहीं भी रहे, एक घर मसूरी में भी बनाए रखा...बिना घंटाघर वो मसूरी की कल्पना भी नहीं कर सकते...आखिर उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने गांधीगिरी का सहारा लिया...टॉम बृहस्पतिवार को उसी जगह बारह घंटे के मौन-व्रत पर बैठ गए जहां घंटाघर को गिराया गया था...बस एक पर्ची पर लिख कर लोगों को दिखाया-
ये मेरी तरफ से एक श्रद्धांजलि है...मेरी तरफ़ से मातम है...घंटाघर की याद में...


मसूरी में मौन-व्रत पर बैठे टॉम आल्टर (साभार बीबीसी)



टॉम के मुताबिक उन्होंने ये कदम मसूरी की गौरवशाली धरोहरों के संरक्षण के साथ पर्यावरण को बचाने के लिए सबका ध्यान खींचने के लिए भी उठाया है... टॉम के साथ मसूरी के लोगों का दर्द भी यही है कि अगर नया घंटाघर बना भी दिया गया तो भी मसूरी की विरासत के नुकसान की भरपाई कभी नहीं हो पाएगी...उस घंटाघर को कहां से लाओगे जिसके बिना चित्रकार मसूरी की कैनवास तक पर कल्पना नहीं करते थे...ज़मींदोज़ हुए घंटाघर को पुरनम आंखों से मेरी भी श्रद्धांजलि...और आप क्या कहते हैं...
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कश्मीर में पत्थर उठाने वाले कौन हैं...खुशदीप

कश्मीर पर कल मेरी पोस्ट पर जिन्होंने भी खुल कर अपनी बात रखी, मैं सभी का दिल से आभारी हूं...यहीं तो इस बहस का उद्देश्य है...ये ठीक है कि हमारी बहस से स्थिति में कोई बदलाव नहीं होने वाला...न ही कश्मीर पर कोई नतीजा निकल आएगा...कश्मीर के मौजूदा हालात पर काबू पाने के लिए भारत सरकार का पूरा अमला टॉप प्रॉयरिटी देने के बावजूद किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रहा है...तो फिर इस चमत्कार की उम्मीद हमसे कैसे की जा सकती है...ये तो साफ हुआ कि कश्मीर की आग को बुझाने के लिए समाधान को लेकर हम सबकी राय भी बंटी हुई है..ठीक उसी तरह जिस तरह कश्मीर से आर्म्ड फोर्सज़ स्पेशल पावर एक्ट हटाने को लेकर राजनीतिक दल एकमत नहीं है...समझा जा सकता है कि कश्मीर को लेकर राजनीतिक सहमति बनाने के लिए मनमोहन सरकार को कितने पापड़ बेलने पड़ रहे होंगे...

आज राहुल गांधी ने कोलकाता में कहा कि कश्मीर पर युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को समर्थन तथा हर संभव मदद देने की ज़रूरत है...लेकिन जब सवाल आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट को हटाने का आया तो राहुल राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी की तरह उसे टाल गए और गेंद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पाले में डाल दी...ये कहकर कि कश्मीर पार्ट टाइम नहीं फुल टाइम समस्या है और आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट जैसे जटिल मुद्दों पर राय देने की स्थिति में नहीं हूं...राहुल बाबा, आप इतने अनजान भी न बनिए...ऐसा कोई मुद्दा नहीं जिस पर आप आजकल बोल न रहे हों...फिर जो मुद्दा इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है, उसे क्यों पीएम का नाम लेकर खूबसूरती से टाल गए...

अभी तक मनमोहन सरकार ने कश्मीर पर एक ही बड़ा फैसला किया है...सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल जम्मू-कश्मीर भेजने का...संभवत रविवार तक प्रतिनिधिमंडल दो दिवसीय दौरे पर जाएगा...एक दिन ये प्रतिनिधिमंडल कश्मीर और एक दिन जम्मू में रहेगा...अब सिर्फ दो दिन में कैसे जम्मू-कश्मीर के हर वर्ग के लोगों तक पहुंच कर कोई निष्कर्ष निकाल लिया जाएगा, ये अपने आप में सोचने वाली बात है...


चलिए अब मैं कल की पोस्ट के पहले सवाल को उठाता हूं...आप सोच कर देखें कि आप आम कश्मीरी नागरिक है, जो धरती की जन्नत पर रहते हुए जेहन्नुम की आग को झेल रहा है...आज के माहौल को देखें तो हमें कश्मीरी नागरिक का नाम लेने पर हाथ में पत्थर उठा कर सिक्योरिटी फोर्सेज को निशाना बनाते किसी युवक का चेहरा नज़र आता है...दरअसल इस युवा को खुद पता नहीं कि वो चाहता क्या है...और वो क्यों इस बेमायनी हिंसा का मोहरा बना हुआ है...इनमें से ज़्यादातर युवा वही हैं जो 1990 के बाद घाटी में आतंकवाद का दौर शुरू होने के बाद ही जन्मे और तनाव के माहौल में ही बढ़े हुए...


 
कश्मीर का युवा इतना दिग्भ्रमित है कि कभी ये पत्थर उठाता नज़र आता है तो कभी पुलिस में भर्ती की लाइन में लगा नज़र आता है...उसे अपना कल पूरी तरह नाउम्मीदी के अंधकार में डूबा नज़र आता है...कश्मीर में भी जो पैसे वाले हैं या राजनीतिक तौर पर ताकतवर हैं उन्होंने अपने बच्चों को या तो दिल्ली या विदेशों में पढ़ने के लिए भेज रखा है...रोना यहां भी गरीब का ही है...उसी का बच्चा निठल्ला बैठे होने की वजह से अलगाववादियों के झांसे में आकर पत्थर उठा लेता है और गला फाड़ कर आज़ादी-आज़ादी चिल्लाने लगता है...इस खेल के लिए उसे बाकायदा पैसे भी मिलते हैं...ये पैसा सरहद पार से ही अलगाववादियों में अपने गुर्गों तक पहुंचाया जाता है...अब ऐसे बच्चों के बारे में आप क्या कहते हैं...इन्हें सही तालीम के ज़रिए देश की मुख्य धारा में लाया जाए या इन्हें भी कल का हार्डकोर टेररिस्ट बनने के लिए हालात के भरोसे छोड़ दिया जाए...
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कश्मीर पर क्या आप चुप ही रहेंगे...खुशदीप

मेरी कोशिश रहती है कि जिन मुद्दों पर विवाद के आसार दिखते हैं, उनसे दूर ही रहा जाए...लेकिन कश्मीर पर बिना लिखे कुछ रहा नहीं जा रहा...कश्मीर में हिंसा और आक्रोश का दौर पिछली 11 जून से चल रहा है...तीन महीने में 90 से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है...लेकिन ये आग कैसे बुझाई जाए, किसी को समझ नहीं आ रहा...न युवा सीएम उमर अब्दुल्ला को और न ही दिल्ली में मनमोहन सिंह सरकार को...आप की कश्मीर पर राय कुछ भी हो, लेकिन ये तो मानेंगे ही कश्मीर राष्ट्रीय मुद्दा है...क्या कश्मीर में शांति लाना सिर्फ राजनीतिक नेतृत्व की ज़िम्मेदारी है...क्या राष्ट्र का हिस्सा होने के नाते हमारा कुछ फर्ज़ नहीं बनता...



केंद्र सरकार की आज दिल्ली में बुलाई सर्वदलीय बैठक में यही फैसला लिया जा सका कि सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल जम्मू-कश्मीर जाकर मौके का मुआयना करेगा और सभी वर्गों के लोगों से बातचीत करेगा....सरकार कश्मीरियों की भावनाओं का ध्यान रखने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है बशर्ते कि वो भारतीय संविधान के दायरे में हो...प्रतिनिधिमंडल कब कश्मीर जाएगा, तारीख तय नहीं हुई हैं...प्रतिनिधिमंडल की यात्रा का कार्यक्रम गृह मंत्रालय और जम्मू-कश्मीर सरकार मिलकर तय करेंगे...चलिए उन्हें अपने तरीके से काम करने दीजिए...हम अपने तरीके से काम करते हैं...

अगर राष्ट्रीय महत्व के फैसलों में जनभावना का ध्यान रखा जाना चाहिए, तो जनभावना को बनाने के लिए क्या हमारा कोई कर्तव्य नहीं बनता..और ब्लॉग तो अब लोकतंत्र का पांचवां खम्भा बनने की ओर अग्रसर है...इसलिए इस दृष्टि से ब्लॉगर की भूमिका तो और भी महत्वपूर्ण हो जाती है...मेरा उद्देश्य कश्मीर पर बहस को शुरू करना है...लेकिन पहले मैं कुछ बातें स्पष्ट कर दूं...इस बहस को सार्थक आयाम तभी दिया जा सकेगा, जब पहले से दिमाग में हम कोई बंधी-बंधाई सोच लेकर न चले...कुछ नए अंदाज से सोचा जाए...इसका सीधा तरीका है...कश्मीर को लेकर जितने भी पक्ष हैं, आप उनकी जगह अपने को खड़ा कर सोचें...जैसे कि आप मान लें...

1 आप आम कश्मीरी नागरिक है, जो धरती की जन्नत पर रहते हुए जेहन्नुम की आग को झेल रहा है...
2 आप जम्मू-कश्मीर के युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की जगह सीएम की कुर्सी पर बैठे हैं...
3 आप कश्मीरी पंडित है जिसे अपने घर को छोड़कर दो दशक से शरणार्थियों की तरह जीवन गुज़ारना पड़ रहा है...
4 आप जम्मू या लेह के नागरिक हैं जिन्हें कश्मीर को ज़्यादा तरजीह दिए जाने.की वजह से भेदभाव की शिकायत है...
5 आप प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जगह पर हैं और राष्ट्र को एकसूत्र में बांध रखने की आप पर ज़िम्मेदारी है..
6 आप केंद्र में विरोधी दल के नेता हैं, हर मुददे को राजनीति के नफ़े-नुकसान के तराजू में तौल कर कोई फैसला लेने की जगह वाकई देशहित में आप फैसला लेते हैं...
7 आप कश्मीर में मुख्य विरोधी दल पीडीपी की नुमाइंदगी कर रहे हैं, जिसका काम कश्मीरी अवाम की आवाज़ को बुलंद करना है, साथ ही अपनी राजनीति की लकीर को बड़ा करते हुए उमर अब्दुल्ला को सरकार से हटाना है...
8. आप कश्मीर में सैनिक होने के नाते अपनी ड्यूटी बजाते हुए दिन-रात कभी आतंकवाद तो कभी युवा कश्मीरियों के आक्रोश का सामना करते हैं...
9 आप अलगाववादी संगठन हुर्रियत कान्फ्रेंस, जेकेएलएफ के नुमाइंदे हैं और आपका लक्ष्य कश्मीर की आज़ादी है..
10 आप कश्मीर में सेब की बागबानी करते हैं...सेब का बंपर उत्पादन होते हुए भी उठान न होने की वजह से माल आपके सामने सड़ रहा है...



एक बार फिर गुज़ारिश करुंगा कि किसी भी समस्या का समाधान सिर्फ अपनी चलाने से या फोर्स से नहीं निकल सकता...समाधान हाथ में पत्थर उठाने या बुलेट से भी नहीं निकल सकता...समाधान अगर निकलेगा तो वो सिर्फ ठंडे दिमाग से आमने-सामने बैठ कर बातचीत से ही निकलेगा...हमें अपनी बात कहने के साथ दूसरा क्या कह रहा है, ये भी सुनने का संयम रखना होगा...और इस बहस में हिस्सा लेने के लिए मेरी एक और विनती है, अतीत की कड़वी यादों को जितना कम से कम कुरेदा जाए, उतना ही बेहतर रहेगा...बीते कल में जो हो गया, वो हमारे हाथ में नहीं है...हमारे हाथ में सिर्फ आज है...इस आज में हम खता करते हैं तो अंजाम आने वाले कल की पीढ़ियों को भुगतते रहना होगा...आइए आपका स्वागत है, खुले मन से इस खुली बहस में हिस्सा लीजिए...और हां अगर मतभेद आते हैं तो उसे संवाद की तरह ही लिया जाए विवाद की तरह नहीं...मैं अपनी तरफ से अगले कुछ दिन तक इसी मुद्दे पर रोज कुछ नया रखने की कोशिश करुंगा...
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क्या आप जिन्ना के बारे में ये जानते हैं...खुशदीप

क्या आप जानते हैं कि स्वतंत्र भारत के जनक महात्मा गांधी की तरह ही पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना की जड़ें भी सौराष्ट्र (कठियावाड़) से हैं..


मोहम्मद अली जिन्ना के बारे में कुछ ऐसे तथ्य जिन्हें मैंने पहली बार जाना है...जिन्ना के दादा का नाम प्रेमजी भाई ठक्कर था...वो कठियावाड़ के गोंडाल के पनेली गांव के हिंदू भाटिया राजपूत थे...अपने परिवार के गुजर-बसर के लिए प्रेमजी भाई ने तटीय कस्बे वेरावल में मछलियों का कारोबार शुरू किया...लेकिन जिस लोहाना समुदाय से प्रेमजी भाई आते थे, वहां मछलियों के धंधे को अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता था...लिहाज़ा प्रेमजी भाई को लोहाना समुदाय से बहिष्कृत कर दिया गया...

प्रेमजी भाई ने मछलियों के धंधे में खूब पैसा बनाया...इसके बाद उन्होंने फिर समुदाय में वापस आने की कोशिश की..मछलियों का धंधा भी छोड़ दिया...लेकिन प्रेमजी भाई को लोहाना समुदाय में वापस नहीं लिया गया...इस अपमान से सबसे ज़्यादा गुस्सा प्रेमजी भाई के बेटे पुंजालाल ठक्कर (जिन्ना के पिता) को आया...इस तिरस्कार की प्रतिक्रिया में ही पुंजालाल ठक्कर ने मुस्लिम धर्म अपना लिया...साथ ही अपने बेटों का नाम भी मुस्लिम धर्म के मुताबिक ही रख दिया...हालांकि पुंजालाल खुद के लिए गुजराती का ही अपना निकनेम ज़िनो ही इस्तेमाल करते रहे...ज़िनो का अर्थ होता है दुबला-पतला...पुंजालाल उर्फ ज़िन्नो ने कठियावाड़ से कराची आकर अपना ठिकाना भी बदल लिया...

पुंजालाल की शादी मिट्ठीभाई से हुई थी...दोनों की सात संतानों में से मोहम्मद अली जिन्ना सबसे बड़े थे... मोहम्मद अली जिन्ना का जन्म कराची ज़िले के वज़ीर मेंशन में हुआ...स्कूल रिकार्ड के मुताबिक उनकी जन्मतिथि 20 अक्टूबर 1875 है...हालांकि जिन्ना की पहली बायोग्राफी लिखने वाली सरोजनी नायडू के मुताबिक जिन्ना का जन्म 25 दिसंबर 1876 को हुआ था....मोहम्मद अली ने ही अपने परिवार का सरनेम पिता के निकनेम पर जिन्ना कर दिया...जिन्ना 1892 में पढाई के लिए इंग्लैंड गए...
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दोस्ती है क्या, बोलो दोस्ती है क्या...खुशदीप




दोस्ती का गणित-

अच्छा दोस्त मैथ्स के ज़ीरो की तरह होता है, जिसकी अपनी कोई वैल्यू नहीं होती लेकिन जिस के साथ जुड़ जाए उसकी कीमत दस गुना बढ़ा देता है...


दोस्ती का बिज़नेस-

जिंदगी सेल्स है,
रिश्ते टारगेट,
पत्नी डेली रिपोर्टिंग,
संतान इन्सेन्टिव,
जवानी कमिटमेंट,
बुढ़ापा एचीव्मेंट
मौत प्रमोशन,
लेकिन दोस्ती नेट प्रॉफिट...


दोस्ती का अलर्ट

दोस्ती प्याज की तरह होती है.
कई परतों वाली,
सही इस्तेमाल ज़िंदगी का स्वाद बढ़ा देता है,
काटा जाए तो आंखों में आंसू ला देता है...


स्लॉग गीत

दोस्ती पर ऋषिकेश मुखर्जी दा की 1969 में बनाई फिल्म सत्यकाम का ये बेहतरीन गीत भी सुन लीजिए...मैं सत्यकाम को अपनी देखी सभी फिल्मों में श्रेष्ठ मानता हूं...


ज़िंदगी है क्या, बोलो ज़िंदगी है क्या,
दोस्ती है क्या, बोलो दोस्ती है क्या...
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ब्लॉगिंग का इतना ही फ़साना है...खुशदीप

ब्लॉगिंग की हर शह का इतना ही फ़साना है,
इक पोस्ट का आना है, इक पोस्ट का जाना है...

कहीं टिप्पणियों का टोटा, कहीं खजाना है,
ये राज़ नया ब्लॉगर समझा है न जाना है...


इक सक्रियता के फलक पर टिकी हुई ये दुनिया,
इक क्रम खिसकने से आसमां फट जाना है...


कहीं चैट के पचड़े, कहीं मज़हब के झगड़े,
इस राह में ए ब्लॉगर टकराने का हर मोड़ बहाना है...


हम लोग खिलौने हैं, इक ऐसे गूगल के,
जिसको एड के लिए बरसों हमें तरसाना है...


ब्लॉगिंग की हर शह का इतना ही फ़साना है,
इक पोस्ट का आना है, इक पोस्ट का जाना है...


स्लॉग गीत




बी आर चोपड़ा साहब ने 1973 में फिल्म बनाई थी धुंध...उसी में साहिर लुधियानवी के इस गीत को रवि ने धुन से सजाया था...लीजिए उस गीत की याद ताजा कीजिए...
संसार की हर शह का इतना ही फ़साना है,
इक धुंध से आना है, इक धुंध में जाना है...

ये राह कहां से है, ये राह कहां तक है,
ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है...


इक पल की पलक पर है, ठहरी हुई ये दुनिया,
इक पल के झपकने तक हर खेल खिलाना है...


क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पे क्या बीते,
इस राह में ए राही हर मोड़ बहाना है...

हम लोग खिलौने हैं, इक ऐसे खिलाड़ी के,
जिसको अभी सदियों तक ये खेल रचाना है...


संसार की हर शह का इतना ही फ़साना है,
इक धुंध से आना है, इक धुंध में जाना है...
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पाकिस्तानी चोरों पर भारतीय मोर...खुशदीप

कल मुन्नी बदनाम पर पोस्ट लिखी...महफूज़ ने उस पोस्ट में कमेंट के ज़रिए बड़ा अच्छा वैल्यू एडीशन किया...ये जोड़कर कि उमर शरीफ़ ने 1992 में पाकिस्तानी फिल्म फिल्म मिस्टर चार्ली में कव्वाली के अंदाज़ में गीत गाया था...लड़का बदनाम हुआ, हसीना तेरे लिए...इसके बाद एक कमेंट में महफूज़ ने लिंक देकर ये भी बताया कि किस तरह पाकिस्तान के पुराने गीतों को चुरा कर बॉलीवुड के कई हिट गीत बनाए गए...

दरअसल पाकिस्तान में बॉलीवुड की फिल्मों का उतना ही क्रेज है जितना कि भारत में...पिछले कुछ साल से पाकिस्तानी सिनेमाहालों में भारतीय फिल्में भी रिलीज की जा रही थीं...लेकिन अब फिर पाकिस्तान सरकार ने भारतीयों फिल्मों की पाकिस्तान में रिलीज़ पर पाबंदी का ऐलान कर दिया है... इस ऐलान का पाकिस्तान के सिनेमामालिकों का संघ कड़ा विरोध कर रहा है...उनका कहना है कि मंदी की मार से बचने के लिए भारतीय फिल्में ही बड़ा सहारा हैं...अगर उन पर रोक लगा दी गई तो सिनेमाहालों पर ताले लटकाने की नौबत आ जाएगी...

विभाजन के बाद देश के कई कलाकार पाकिस्तान चले गए थे...शुरू में इनमें से कई कलाकारों ने मुसलमान होते हुए भी अपने स्क्रीन नाम हिंदू ही रखे...पाकिस्तान में आज तक बड़ी हीरोइनों के नाम हिंदू ही चले आ रहे हैं जैसे मीरा, वीना, रीमा, आशा, स्वर्णलता, संगीता, सुनीता...मेरा यहां ये सब बताने का मतलब यही है कि पाकिस्तान की फिल्मों का नाम भारत में सुना जाना तो दूर पाकिस्तान में भी कोई घास नहीं डालता...पाकिस्तान में कई कलाकारों के प्रतिभावान होने के बावजूद तकनीकी दृष्टि से पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री हमसे दो दशक पिछड़ी हुई है...पाकिस्तानी फिल्मों, उनके गीत संगीत को भारत में कोई नहीं जानता, इसी का फायदा बॉलीवुड के गीतकार-संगीतकार उठाते हैं...पूरे के पूरे गाने के बोलों को जस का तस उठा लिया जाता है...कॉपीराइट उल्लंघन जैसा कोई पचड़ा ही नहीं...

लेकिन ऐसा नहीं कि उलटी गंगा नहीं बहती...पाकिस्तान में भी दबा कर भारतीय फिल्मों के गीत-संगीत की चोरी की जाती है लेकिन उन पाकिस्तानी फिल्मों को कहीं भाव नहीं मिलता, इसलिए वो चोरी पकड़ी नहीं जाती...आज  एक ऐसी ही चोरी से मैं आपको दो-चार कराने जा रहा हूं...यहां किसी गाने की चोरी नहीं बल्कि भारत में बनी पूरी की पूरी फिल्म को ही चोरी कर पाकिस्तानी फिल्म की शक्ल दे दी गई...ये भारतीय फिल्म थी 1954 में आई- जागृति...देशभक्ति पर बनी बेमिसाल फिल्म थी...




तीन साल बाद पाकिस्तान में जागृति की हू-ब-हू कॉपी बनाई गई- बेदारी...बस इतना फर्क किया गया कि जहां जहां जागृति में भारत या हिंदुस्तान का ज़िक्र होता था, बेदारी में उसे पाकिस्तान कर दिया गया....गांधी की जगह जिन्ना का नाम कर दिया गया...मजे़ की बात ये है कि जागृति में रतन कुमार ने बाल कलाकार का रोल किया था...फिर यही रतन कुमार पाकिस्तान चले गए तो वहां बेदारी में भी काम किया...


अब आपको नीचे दिए गए लिंक्स के ज़रिए दिखाता हूं कि जागृति के गानों को भी किस तरह हू-ब-हू उठाकर पाकिस्तानी फिल्म बेदारी में फिट कर दिया गया था...

पहले भारतीय फिल्म जागृति का ये गीत...

हम लाए हैं तूफ़ान से  कश्ती निकाल के...

अब पाकिस्तानी फिल्म बेदारी में भी सुनिए यही गीत

हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के...



जागृति का ही एक और गीत-

आओ बच्चों तुम्हे दिखाए झांकी हिंदुस्तान की...

अब पाकिस्तानी फिल्म बेदारी में जागृति के उपरोक्त गीत की ही कॉपी सुनिए-

आओ बच्चों सैर कराएं तुम को पाकिस्तान की...



जागृति का एक और गीत-

चलो चले मां, सपनों के गांव में...



पाकिस्तानी फिल्म बेदारी में इस गीत की कॉपी

चलो चले मां, सपनों के गांव में



जहां जागृति के गीतों को अमर कवि प्रदीप ने लिखा था...वहीं पाकिस्तान में इन गीतों का क्रेडिट बेशर्मी से सलीम रज़ा को दे दिया गया था...



यानि यही कहा जाएगा कभी मोर पर चोर तो कभी चोर पर मोर...
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मुन्नी नहीं लौंडा बदनाम...खुशदीप


हर तरफ मुन्नी बदनाम हुई का हल्ला है...क्या एफएम और क्या टीवी चैनल, हर वक्त यही राग...मलाईका अरोड़ा जी के ठुमके...दबंग हिट हो या न हो मुन्नी बदनाम सुपर हिट है...गाना ललित पंडित जी ने लिखा है...अरे अपने ब्लॉग जगत वाले ललित जी नहीं, पूर्व संगीत जोड़ी जतिन-ललित के ललित...दबंग के संगीतकार साजिद-वाजिद हैं...तो जनाब ललित जी ने गीत लेखन में अपनी पंडिताई दिखाई और तीर सीधा निशाने पर लगा...ललित का एक परिचय और भी कि ये बीते दौर की अभिनेत्री-गायिका सुलक्षणा पंडित के छोटे भाई हैं...संगीतकार के तौर पर भाई जतिन के साथ दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे और कुछ कुछ होता है जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्मों का संगीत दे चुके हैं...

ललित का कहना है कि उन्हें गाने में झंडू बाम के इस्तेमाल की प्रेरणा निर्माता-निर्देशक मधुर भंडारकर से मिली...मधुर झंडू बाम को तकियाकलाम की तरह इस्तेमाल करते हैं...खैर ये तो हो गई मुन्नी बदनाम और उसके गीतकार की कहानी...अब आते हैं असली मुद्दे पर...ये गाना पहले एक बार नहीं दो-दो बार अलग-अलग अंदाज में पेश किया जा चुका है...आज से बीस साल पहले ताराबानो फैज़ाबादी ने मुन्नी बदनाम के मूल गीत की रचना की थी...गाने के बोल थे...लौंडा बदनाम होगा, नसीबन तेरे लिए...इस गाने को भोजपुरी स्टेज शो में गायिका राजबाला जब भी गाती थीं, सुनने वाले दर्शक झूम उठते थे...

इस गाने को पहली बार चुरा कर बॉलीवुड में 1994 में फिल्म रॉकडांसर में पेश किया गया...गायक और संगीतकार बप्पी लहरी थे...यहां भी शब्द बदल दिए गए थे...लौंडा बदनाम हुआ, लौंडिया तेरे लिए...लेकिन वो फिल्म कब आई और कब गोल हो गई किसी को पता ही नहीं चला...लेकिन आज दबंग का मुन्नी बदनाम गाना हर ज़ुबान पर है...लेकिन इसकी ओरिजनल गीतकार ताराबानो फैज़ाबादी का परिवार बहुत मुफलिसी में है...भोजपुरी सुपरस्टार मनोज तिवारी ने अपील की है कि सलमान खान इस परिवार की आर्थिक मदद करें...

जनाब जब साहित्य में (ब्लॉग में भी) दूसरे के क्रिएटिव काम को अपना कह कर पेश किया जा सकता है तो मुन्नी बदनाम के गीतकार ललित पंडित ने ऐसा कर दिया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा...अब आप तक मैं इस गाने के तीनों अंदाज़ पहुंचा रहा हूं....क्योंकि मुन्नी बदनाम का ओरिजनल गीत.. लौंडा बदनाम होगा...आंचलिक (फोक) पुट लिए हुए है, इसलिए द्विअर्थी शब्द भरे हुए हैं....किसी को दिक्कत या परेशानी न हो, इसलिए पहले ही सावधान कर देता हूं, कि इसे अपने रिस्क पर ही सुनें...लीजिए सबसे पहले ओरिजनल गीत...


लौंडा बदनाम होगा, नसीबन तेरे लिए....


फिर इसी गीत को आधार बना कर 1994 में आई फिल्म रॉक डांसर में पेश किया गया गीत सुनिए-देखिए...


लौंडा बदनाम हुआ, लौंडिया तेरे लिए...


और आखिर में दबंग के लेटेस्ट क्रेज से भी खुद को धन्य कीजिए...


मुन्नी बदनाम हुई, डॉर्लिंग तेरे लिए...
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नज़रें हटा कर दिखाओ तो जानें...खुशदीप

तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती, नज़ारे हम क्या देखें...

1975 में आई फिल्म कभी-कभी का ये गाना शायद आपको भी याद हो...वक्त बदल जाता है, नज़ारे देखने का अंदाज़ भी बदल जाता है...जिस चेहरे से आदमी की नज़र नहीं हटती थी, आदमी बस उसी से बचने की जुगत ढूंढने लगता है...लेकिन बच सकता है भला...अरे मैं ये क्या लिखने बैठ गया...नहीं फिर मुझसे सवाल पूछने बैठ जाओगे, घर में सब ठीक-ठाक तो है....

आइए आपको मिलवाता हूं यान आर्थस बर्टरैंड से... फ्रांस के रहने वाले हैं और बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं...फोटोग्राफर, पत्रकार, रिपोर्टर, पर्यावरणविद् क्या क्या नहीं हैं जनाब...13 मार्च 1946 को पेरिस में जन्मे बर्टरैंड ने 1991 में एल्टीट्यूड एजेंसी बनाई...ये दुनिया की पहली प्रेस एजेंसी थी जिसे एरियल फोटोग्राफरी में महारत हासिल थी...इस एजेंसी के पास 100 देशों में 100 फोटोग्राफरों के आसमान से खींचे गए पांच लाख से भी ज़्यादा फोटोग्राफ हैं...1994 में बर्टरैंड को यूनेस्को ने पृथ्वी के नजारों को कैमरे में कैद करने के लिए प्रोजेक्ट की ज़िम्मेदारी सौंपी...इसी प्रोजेक्ट के लिेए बर्टरैंड ने हेलीकॉप्टर, हॉट एयर बैलून से दुनिया के बेहतरीन लैंडस्केप्स के फोटोग्राफ लिए...इस प्रोजेक्ट पर आधारित किताब अर्थ फ्रॉम अबव की अब तक 30 लाख से ज़्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं...




अब देखिए बर्टरैंड के हुनर का कमाल...
 
 
 


इन तस्वीरों पर क्लिक कर एनलार्ज कर देखने में ज्यादा आनंद आएगा...
 

आसमान से पेरिस का नज़ारा
 
 

फ्रांस का मिलाऊ वायाडक्ट ब्रिज





फ्रांस के वेरडून में सेना का कब्रिस्तान



 
 
 

डेनमार्क के कोपेनहेगन के उपनगर



 
 
 
स्वीडन का स्टॉकहोम
 
 
 


पुर्तगाल का पेना





टर्की का इस्तांबुल




इटली का वेनिस






लग्ज़मबर्ग





हॉलैंड के एमस्टर्डम के ट्यूलिप फील्ड

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पति-पत्नी की पोएटिक फाइट...खुशदीप

ऐसा कौन सा घर होगा जहां बर्तन न खड़कते हो...प्यार के साथ थोड़ी तकरार भी उतनी ज़रूरी होती है जितनी कि खाने में थोड़ा मिर्च मसाला...खैर पहले तकरार और फिर मनुहार ये भी गृहस्थी का एक रंग है...आपने पोएटिक जस्टिस की बात तो सुनी होगी...आज जानिए पति-पत्नी की पोएटिक फाइट की तरंग...






पत्नी-

तुम्हारा नाम रेत पर लिखा, वो धुल गया,


नाम हवा पर लिखा, वो उड़ गया,


फिर दिल पर लिखा,


मुझे हार्ट-अटैक आ गया...



पति-

भगवान ने मुझे भूखा देखा, पिज्जा बनाया,


प्यासा देखा, पेप्सी को भिजवाया,


अंधेरे में बैठे देखा, ट्यूब का प्रकाश कराया,


चिंतामुक्त देखा, तुम्हे मेरे पीछे लगाया...



पत्नी-

ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार,


तुम्हे जानना चाहिए अपना आधार,


एक बार जान लिया बरखुदार,


फिर मेंटल हॉस्पिटल में ही होगा उद्धार...



पति-

बारिश ने सब कुछ निखेरा,


जैसे प्रकृति का उजला बसेरा,


इंद्र की सुंदरता का सब पर डेरा,


रूप ने तुम से ही क्यों मुंह फेरा,


आखिर क्या कसूर था मेरा...



पत्नी-

रोज़ेस आर रेड, वायलट्स आर ब्लू,


तुम जैसे मंकीज़ के लिए बना है ज़ू,


डोंट बी एंग्री, विल फाइंड मी देअर टू,


बट पिंजरे के बाहर, लाफिंग एट यू...




स्लॉग गीत

अब पत्नी जी को खुश करने के लिए ये गीत भी गा दीजिए...


तुम रूठी रहो, मैं मनाता रहूं...

 
(आस का पंछी, 1961)
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शरीर का सबसे अहम हिस्सा कौन सा है...खुशदीप

एक मां अपने बेटे से अक्सर पूछा करती थी कि शरीर का सबसे अहम हिस्सा कौन सा है...

बेटा सालों तक अनुमान लगाता रहा कि इस सवाल का सही जवाब क्या हो सकता है...

बच्चा छोटा था तो उसने सोचा आवाज़ इनसानों के लिए बहुत अहम होती है...सो उसने मां को जवाब दिया...मॉम, कान सबसे अहम हैं...

मां ने प्यार से जवाब दिया...नहीं, बेटे कान नहीं...कई लोग ऐसे भी होते हैं जो सुन नहीं सकते...लेकिन तुम जवाब ढूंढने की कोशिश करते रहो...मैं तुमसे फिर पूछूंगी...

कुछ साल और बीत गए...मां ने फिर एक दिन बेटे से वही सवाल पूछा...

बेटा जानता था कि पहले वो गलत जवाब दे चुका है...इसलिए इस बार उसने पूरा सोच-समझ कर जवाब दिया..मॉम, नज़र हर इंसान के लिए बड़ी अहम होती हैं, इसलिए जवाब निश्चित तौर पर आंखें होना चाहिए...

मां ने ये सुनकर कहा, तुम तेज़ी से सीख रहे हो...पर ये जवाब भी सही नहीं है क्योंकि दुनिया में कई लोग ऐसे भी होते हैं जो आंखों की रौशनी से महरूम होते हैं...

जब भी मां बेटे के जवाब को गलत बताती, बेटे की सही जवाब जानने की इच्छा और प्रबल हो जाती...दो-तीन बार मां ने फिर वही सवाल बेटे से पूछा लेकिन हर बार बेटे के जवाब को गलत बताया...लेकिन मां ये कहना नहीं भूलती थी कि बेटा पहले से ज़्यादा समझदार होता जा रहा है...

फिर एक दिन घर में बेटे के दादा की मौत हो गई...हर कोई बड़ा दुखी था...बेटे के पिता भी रो रहे थे...बेटे ने पिता को पहले कभी रोते नहीं देखा था...

जब दादा को अंतिम विदाई देने का वक्त आया तो मां ने बेटे से धीरे से पूछा...अब भी तुम्हे पता चला कि शरीर का कौन सा हिस्सा सबसे अहम हैं...

ये सुनकर बेटा हैरान हुआ...मां ऐसी घड़ी में ये सवाल क्यों कर रही है...बेटा यही समझता था कि मां का उससे ये सवाल पूछते रहना किसी खेल सरीखा है...

मां ने बेटे के चेहरे पर असमंजस के भाव को पढ़ लिया...फिर बोली...ये सवाल बड़ा अहम है...इससे पता चलता है कि तुम अपनी ही ज़िंदगी जीते रहे हो...तुमने शरीर के जिस हिस्से को भी जवाब बताया, मैंने उसे गलत बताया...साथ ही इसके लिए मिसाल भी दी...लेकिन आज तुम्हारे लिए जीवन का ये अहम पाठ सीखना बेहद ज़रूरी है...

फिर मां ने आंखों में पूरा ममत्व बिखेरते हुए बेटे की तरफ देखा...मां की आंखों में आंसू साफ झलक रहे थे...मां ने कहा...मेरे बच्चे, शरीर का सबसे अहम हिस्सा तुम्हारा कंधा है...

बेटे ने सवाल की मुद्रा में कहा...इसलिए क्योंकि ये मेरे सिर को सहारा देता है...

मां ने जवाब दिया- नहीं, कंधा सबसे अहम इसलिए है क्योंकि जब तुम्हारा दोस्त या कोई अज़ीज़ रोता है तो ये उसे सहारा देता है...हर किसी को ज़िंदगी में कभी न कभी रोने के लिए किसी के कंधे की ज़रूरत होती है...बच्चे, मैं सिर्फ दुआ करती हूं कि तुम्हारे साथ कोई न कोई ऐसे दोस्त और अज़ीज़ हमेशा साथ रहें, जो तुम्हें ज़रूरत पड़ने पर  रोने के लिए अपने कंधे का सहारा दे सकें...

इसके बाद बेटे को पता चल गया कि शरीर का ऐसा कोई हिस्सा सबसे अहम नहीं हो सकता जो सिर्फ अपनी ज़रूरत को ही पूरा करता हो...ये दूसरों को सहारा देने के लिए बना होता है...ये दूसरे के दर्द में हमदर्द होता है...



लोग भूल जाएंगे कि तुमने क्या कहा, वो भूल जाएंगे कि तुमने क्या किया...लेकिन लोग ये कभी नहीं भूलेंगे कि तुमने उनके दर्द में उन्हें कैसा महसूस कराया था...


स्लॉग चिंतन

अच्छे दोस्त सितारों की तरह होते हैं...ज़रूरी नहीं कि वो हमेशा आपको दिखते रहें...लेकिन आप जानते हैं कि वो कहीं न कहीं मौजूद हैं...

(ई-मेल से अनुवाद)
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राहुल बाबा थोड़ा क्रिएटिव हो जाइए...खुशदीप

राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में...

केंद्र से करोड़ों रुपया गरीबों की बेहतरी के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं के लिए यूपी भेजा जाता है लेकिन उस पैसे को यूपी सरकार सही जगह न पहुंचा कर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती है...


राहुल गांधी बिहार में...

केंद्र से करोड़ों  रुपया नरेगा जैसी कल्याण योजनाओं के लिए बिहार भेजा जाता है लेकिन नीतीश सरकार उसका सही इस्तेमाल नहीं करती...


राहुल गांधी पश्चिम बंगाल में...

केंद्र से करोड़ों रुपया पश्चिम बंगाल भेजा जाता है लेकिन वामपंथी सरकार उसे गरीबों तक न पहुंचा कर खुद ही हथिया लेती है...और ये काम पिछले  33 साल से होता आ रहा है...

ऐसे राज्य जहां कांग्रेस का शासन नहीं हैं, वहां राहुल गांधी भाषण देने जाते हैं तो ये ऊपर वाली लाइनें हर जगह कॉमन रहती हैं, बस राज्य सरकारों का नाम बदल जाता है...




अब राहुल गांधी से एक सवाल...

क्या महाराष्ट्र, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, गोवा और जहां कहीं भी कांग्रेस की सरकारें हैं, वहां सारा पैसा बिल्कुल सही जगह पहुंच जाता है...



राहुल अपने भाषणों में एक हिंदुस्तान में दो हिंदुस्तान की बात भी ज़रूर करते हैं, एक अमीरों का हिंदुस्तान और एक गरीबों का हिंदुस्तान...आज उन्होंने बंगाल में नई तान छेड़ी...एक बंगाल में भी दो बंगाल है...एक चमक-दमक वाला वामपंथियों का बंगाल...दूसरा गरीबों, आपका और हमारा बंगाल...गौरतलब है कि राहुल ने खुद को भी गरीबों वाले बंगाल में ही गिनाया...

राहुल बाबा, आपके पास एक से एक दिग्गज सलाहकारों की टीम है...उनसे कहिए ज़रा आपके भाषणों के लिए नया कुछ भी लिखें...कुछ क्रिएटिविटी दिखाएं...अगर आप एक ही बात जगह-जगह दोहराते रहे तो कहीं आपको सुनने वाले दोहरे न हो जाएं...



स्लॉग ओवर

क्या आपको पता है कि 'फाइव डे वीक' की शुरुआत किसने की थी...


नहीं पता...


मक्खन से पूछिए न, उसे जवाब पता है...


और जवाब है...



...



...



...



द्रौपदी...
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मक्खन 'रोमांटिक', मक्खनी हैरान...खुशदीप

मक्खन स्वामी जी के सत्संग से घर वापस आया...

उसके चेहरे की खुशी देखते ही बनती थी...

वो लगातार राधे-राधे गाए जा रहा था...

घर में पैर रखते ही मक्खन मक्खनी से बड़े प्यार से मिला...

फिर उसने मनमोहक मुस्कान के साथ मक्खनी को बाहों में उठा कर नाचना शुरू कर दिया...



ये सब देखकर मक्खनी हैरान-परेशान...

कहां हमेशा घर में करेले जैसा सड़ा सा मुंह लेकर बैठे रहने वाला मक्खन...

और कहां मक्खन का ये नया रोमांटिक अंदाज़...

मक्खनी से रहा नहीं गया, आखिर पूछ ही बैठी...

क्या स्वामी जी ने आज रोमांटिक होने की घुट्टी पिलाई है...

मक्खन...राधे-राधे, ये बात नहीं है प्राण-प्यारी...

मक्खनी...फिर क्या बात है...

मक्खन...दरअसल स्वामी जी ने आज सिखाया है.. कि हमें...

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...हमें अपने बोझ और दुखों को भी खुशी-खुशी उठा कर जीना सीखना चाहिए...राधे-राधे...
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बताइए कल अच्छा था या आज...खुशदीप

कल


पहले हमें जेब खर्च के लिए 50 रुपये हर महीने मिला करते थे,

हम उसमें से न स्कूल की आधी छुट्टी में जमकर खाते थे,

बल्कि कुछ न कुछ बचा भी लेते थे...



आज

आज 50 हज़ार रुपये महीना कमाते हैं.

नहीं जानता कि ये रकम जाती कहां है,

बचाने की बात तो छोड़ दीजिए...


बताइए कल अच्छा था या आज...

....



कल

छह विषय हर साल, छह अलग-अलग टीचर,


आज

जब से काम शुरू किया है एक ही प्रोजेक्ट,

और सिर्फ एक मैनेजर...


बताइए कल अच्छा था या आज...

....

कल

हम पढ़ाई के वक्त नोट्स बनाया करते थे,

हम रैंक्स के लिए पढ़ते थे,


आज

हम इ-मेल्स खंगालते रहते हैं,

हमें अपनी रेटिंग्स (टीआरपी या सक्रियता नंबर) की फिक्र रहती है...


बताइए कल अच्छा था या आज...

....

कल

हम स्कूल के अपने साथियों को आज तक नहीं भूले हैं,


आज

हम नहीं जानते कि हमारे साथ वाले घर में कौन रहता है...


बताइए कल अच्छा था या आज...

....

कल

खेलने के बाद थके हारे होने पर भी,

हम अपना होम-वर्क करा करते थे...


आज

आज घर की किसे याद रहती है,

24 घंटे बस काम का ही प्रैशर रहता है...


बताइए कल अच्छा था या आज...

....

कल

हम हिस्ट्री और इकोनॉमिक्स पढ़ते थे,


आज

अब किताबों की बात तो छोड़ ही दीजिए,

हम अखबार भी सरसरी तौर पर ही देखते है्...


बताइए कल अच्छा था या आज...

.....

कल

हमारा जीवन में एक उद्देश्य था,

हमारे सिर पर टीचरों का हाथ रहता था,



आज

अब हमारे पास भविष्य के लिए न कोई आइडिया है,

और न ही हमें कोई कुछ बताने वाला है...


अब आप दिल पर हाथ रखकर बताइए,


कल अच्छा था या आज...

....


स्लॉग गीत


जगजीत सिंह की ये गज़ल सुनिए...

ये दौलत भी ले लो,
ये शौहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
मगर मुझको लौटा दो,
बचपन का सावन,
वो कागज़ की कश्ती,
वो बारिश का पानी...
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व्हेन गांधी मेट विजय माल्या...खुशदीप

एल्कोहल सभी सवालों का जवाब नहीं होता....मोहनदास कर्मचंद गांधी.


एल्कोहल सभी सवालों का जवाब नहीं होता...लेकिन अगर आपको जवाब नहीं पता तो एल्कोहल सवालों को भुलाने में मदद करता है....विजय माल्या.



स्लॉग ओवर

मक्खन ढक्कन से...बड़ी सर्दी हो रही है यार, चल मच्छी खाते हैं...

ढक्कन...नहीं यार, मच्छी में कांटे होते हैं...

मक्खन...कोई बात नहीं, तू...


 
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तू... चप्पल पहन कर खा लेना...
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