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Tuesday, September 4, 2012

राम-रहीम

''बेगम साहिबा की छींक का कारण था, उनकी जूती के नीचे आ गया मुआ नीबू का छिलका।'' यह भी कहा जाता है कि सर्दी-जुकाम ऐरे गैरों को होता है, लखनवी तहजीब वालों को सीधे नजला होता है। मुस्लिमों के साथ नजाकत-तहजीब, शेरो-शायरी, बिरयानी और जिक्र आता है ताजमहल का। वैसे कई-एक की नजर में ''ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर, प्राचीन शिव मन्दिर है जिसे तेजो महालय कहा जाता था।'' चलिए, इसी बहाने हमारी श्रद्धा बनी रहे मानव कौशल के इस नायाब नमूने पर। वैसे भी संरचनाओं का शैलीगत वर्गीकरण हो सकता है, लेकिन ईंट-पत्‍थर को उससे जुड़ी आस्‍था ही हिन्‍दू या मुस्लिम बनाती है और ऐसे दरगाह कम नहीं जो हिन्‍दू श्रद्धा के भी केन्‍द्र हैं।

गुजरात के हजरत सैयद अली मीराँ दातार की दरगाह से पं. जागेश्‍वर प्रसाद तिवारी, चिल्‍ला के साथ ईंट ले कर आए थे और 2 दिसंबर 1967 को शंकर नगर, रायपुर में मीरा दातार स्‍थापित किया। मीरा दातार बाबा के इस स्‍थान पर मूर्ति नहीं है लेकिन हनुमान जी और शंकर जी हैं। तब से यह रायपुर का एक प्रमुख निदान केन्‍द्र रहा, सोमवार और गुरुवार को मुरादियों का मेला लग जाता। 30 अगस्‍त 1990 को पं. तिवारी के निधन के बाद, 10 सितंबर 2010 को श्रीमती महालक्ष्‍मी तिवारी के निधन तक इसका महत्‍व बना रहा।
अब रायपुर में इसके अलावा मीरा दातार का एक अन्‍य दरबार समता कालोनी में है, जहां प्रमुख मुस्लिम महिला हैं, लेकिन महादेव घाट वाला मीरा दातार तिवारी जी के शिष्‍य भोलासिंह ठाकुर के निवास 'मन्‍नत' में है। यहां भी शंकर नगर दरबार की तरह त्रिशूल लगा है। उर्स मुबारक के फ्लैक्‍स में यहां कुरान खानी आदि का उल्‍लेख, गुरुदेव श्री मंशाराम शर्मा जी, चिश्‍ती दादा रमेश वाल्‍यानी जी, सरकार बी.एस. ठाकुर और चन्‍दु देवांगन के नाम सहित है।

रायपुर में अनुपम नगर गणेश मंदिर का निर्माण 
के.ए. अंसारी ने 1985 में कराया और इसके बाद 
श्रीराम नगर फेज-I और II विकसित किया।

रायपुर से 20 किलोमीटर दूर गांव चरौदा-धरसीवां का शिव मंदिर सरपंच बाबू खान साहब की पहल और अगुवाई में, गांव और इलाके भर के श्रमदान से 1970 में बना। धरसीवां से थोड़ी दूर कूंरा उर्फ कुंवरगढ़ गांव में दो संरचनाएं मां कंकालिन मंदिर और मस्जिद एक ही चबूतरे पर साथ-साथ हैं।

कुंवरगढ़ के ही श्री अमीनुल्‍लाह खां लम्‍बे समय से श्री रामलीला मंडली के कर्ता-धर्ता हैं। वे मानस गायन के साथ लीला में मेघनाथ और दशरथ की भूमिका निभाते हैं। धरसीवां और कुंवरगढ़ में हिन्‍दू-मुस्लिम मितानी के भी कई उदाहरण हैं।

कुरुद-धमतरी में स्‍कूली दिनों से मानस की लगन लगाए रामायणी दाउद खान गुरुजी हैं। आपका जन्‍म 25 जुलाई 1923 को हुआ। आपको सालिकराम द्विेदी और पदुमलाल पुन्‍नालाल बख्‍शी का सानिध्‍य प्राप्‍त हुआ। आपके मानस प्रवचन का सिलसिला 1947 से आरंभ हुआ। वे कहते हैं कि नैतिक संस्‍कारों के विकास के लिए रामचरित मानस का अध्‍ययन जरूरी है और ''सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोर जुग पानी' मानस का प्रमुख संदेश है।

• कवर्धा-गंडई के साईं फिर्रू खां पुश्‍तैनी भजन गायक हैं।
• हडुवा-घुमका, राजनांदगांव के गीतकार-रामायणी रहीम खां अन्‍जाना जीवन-पर्यन्‍त नाचा, हरि-कीर्तन से जुड़े रहे।
• केनापारा, बैकुंठपुर निवासी बिस्मिल्‍ला खान बचपन से ही रामायण गाते थे। मानस मर्मज्ञ खान साहब ने गांव के बच्‍चों की रामायण मंडली भी बनाई थी और शारदा मानस मंडली से जुड़े रहे। आपका निधन 17 सितंबर 2010 को बनारस में हुआ।
• लाखागढ़, पिथौरा के करीम खान लंबे समय से दशहरा पर रामलीला का संचालन करते आ रहे हैं। नवापारा-राजिम के इकबाल खां युवा पीढ़ी के रामायणी हैं। बैजनाथपारा, रायपुर के एक पुराने कव्‍वाल जनाब सईद की पंक्ति 'श्रीराम जी आ के रावन को मारो' लोग अब भी याद करते हैं और दूसरी तरफ गुढि़यारी के गायक गजानंद तिवारी, छत्‍तीसगढ़ी गीतों को, कव्‍वाली तर्ज में ही गाने के लिए मशहूर रहे हैं।
कंडरका-कुम्‍हारी, दुर्ग के लोकधारा सांस्‍कृतिक मंच के प्रमुख
शेर अली को रामायण गाने की प्रेरणा,
हरि कीर्तन गायक पिता रज्‍जाक अली से मिली।

होठों से फुसफुसाहट, जबान से बोली, कंठ से सुर निकलते हैं,
लेकिन रायपुर आकाशवाणी के लोकप्रिय उद्घोषक मिर्जा मसूद
 ''ॐ'' उचारते तो लगता कि नाभि से निकलने वाली घोष ध्‍वनि है
और जिसे सुनने वाले के दिल की धड़कन बढ़ जाती।
कवर्धा-खरोरा के कवि मीर अली मीर से उनकी चर्चित पंक्तियां
 'जंजीर बोलती थी वंदेमारतम, शमशीर बोलती थी वंदेमातरम्,
कश्‍मीर बोलता है वंदेमातरम्' सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
बिलासपुर के हिदायत अली कमलाकर 
की कृति'समर्थ राम' और उनका सौहार्द, 
अपने आप में मिसाल है। 
• छत्‍तीसगढ़ हज कमेटी के चेयनमैन डॉ. सलीम राज ने अयोध्‍या विवाद पर कहा कि 'मुस्लिम समुदाय के पक्ष में भी निर्णय आने पर उस स्‍थल को राम मंदिर के निर्माण के लिए सहृदयतापूर्वक दे देना चाहिए।' हबीब तनवीर के नया थियेटर का अभिवादन 'जय शंकर' तो प्रसिद्ध है ही। होली, दीवाली मनाने वाले मुसलमान मिल ही जाते हैं, नवरात्रि का विधि-विधान पूर्वक कठोर व्रत रखने वाली मुस्लिम महिलाएं भी हैं तो धरसीवां जैसे गांव में रोजा रखने वाले हिन्‍दू भी हैं। मोहर्रम पर ताजिएदारी निभाते हुए बच्‍चों को ताजिए के नीचे से गुजारा जाना आम है, लेकिन अकलतरा में मोहर्रम पर हर साल दुलदुल घोड़े की नाल हमारे घर के पुराने हिस्‍से से निकलती थी।

नारों और नसीहतों से अधिक असरदार, ज्‍यादा जीवंत, सौहार्द-सद्भाव का रस यहां इतनी सहजता से प्रवाहित है कि नजरअंदाज होता रहता है।


  • यह पोस्‍ट रायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'इतवारी अखबार' के 23 सितम्‍बर 2012 के अंक में प्रकाशित।

Wednesday, June 6, 2012

मेरा पर्यावरण

कल एक और पर्यावरण दिवस हमने बिता लिया।

खबर है इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस का विषय- ''हरित अर्थव्यवस्था: क्या आप इसमें शामिल हैं?'' (Green Economy: Does it include you?)। यह भी खबर है कि इस अवसर पर विशेष प्रदर्शनी रेलगाड़ी के 8 डिब्बों में जैव विविधता और आजीविका के बीच का संबंध भी प्रदर्शित होगा।

पर्यावरण दिवस की अगली सुबह, आज शुक्र पारगमन हो रहा है। यह वैसी उजली नहीं, सूरज पर एक धब्‍बा बनेगा। यह सुबह मेरी रोजाना की साथी मछलियों के लिए हुई ही नहीं। रायपुर के इस खम्‍हारडीह तालाब में मछलियां, मछुआरों की आजीविका बनती रहीं, आज देखा तालाब का कालिख हो रहा हरा पानी और मछलियां...-




लगता है, बच्‍ची ने रट लिया है और सुबकते, पाठ अनचाहे दुहरा रही है-
मछली जल की रानी है
जीवन उसका पानी है
हाथ लगाओ डर जाती है
बाहर निकालो मर जाती है

आज तो यह पाठ झूठा हुआ।

Thursday, July 14, 2011

रायपुर में रजनीश

सन्‌ 1979 में दुर्गा महाविद्यालय से स्नातक हो कर, स्नातकोत्तर के लिए मैंने प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विषय का चयन किया। पुरातत्व में स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए गुरूजी श्री डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर की प्रेरणा रही और फलस्वरूप न सिर्फ रायपुर बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ के अनूठे शिक्षण संस्थान शासकीय दूधाधारी श्रीवैष्णव स्नातकोत्तर संस्कृत महाविद्यालय में प्रवेश हुआ।

1979 से 1981, स्नातकोत्तर अध्ययन के दो साल, मेरे लिए स्मरणीय हैं और रहेंगे बल्कि यादों से कहीं अधिक इस अवधि का प्रभाव स्वयं पर महसूस करता हूं। इस संस्था के प्रति मेरा भाव, सहपाठियों की याद सहित महाविद्यालय और छात्रावास के भवन और गुरुजन की स्मृति के रूप में मेरे साथ जुड़ा है। सर्वप्रथम गुरू डॉं. लक्ष्मीशंकर निगम, प्राचार्य डॉं. रामनिहाल शर्मा, डॉ. राजेन्द्र मिश्र, डॉ. सुल्लेरे, डॉ. लक्ष्मीकांत शर्मा, डॉ. श्रीवास्तव/ पाठक, कान्हे और जैन मैडम/ स्‍वामी, नाग, पाण्‍डेय, चौधरी, सारस्वत, कान्हे, अग्रवाल सर और इन सब के साथ ग्रंथपाल श्रीमती छवि चटर्जी। संस्कृत अध्ययन के वातावरण में यहां अधिकतर विद्यार्थी आयुर्वेदिक कॉलेज में प्रवेश के इच्छुक होते थे। कुछ छात्रसंघ की राजनीति के लिए यहां आते, कुछ की रुचि संस्कृत में होती, तो कुछ को छात्रवृत्ति का आकर्षण होता, बहरहाल ये सब संस्कृत वाले होते थे लेकिन हम पुरातत्व के विद्यार्थी ऐसे होते थे जो संस्कृत महाविद्यालय के छात्र होकर भी संस्कृत को विषय के रूप में नहीं पढ़ते थे।

इस तरह संस्कृत महाविद्यालय में संस्कृत पढ़ने वालों और संस्कृत न पढ़ने-पढ़ाने वालों का अलग वर्ग था। बावजूद इसके कि संगत का लाभ सदैव और बराबर एक-दूसरे को मिलता था। अल्पमत में होने के बावजूद भी हमारी भिड़ंत अक्सर संस्कृत वालों से हो जाया करती थी। संस्कृत के लोग, उसे देवभाषा कहते तो हम उस की भाषा वैज्ञानिकता और व्याकरण नियम पर कुतर्कपूर्ण टिप्पणी करते कि इसमें कोट पहले सिल लिया जाता है और उसके अनुसार हाथ-पैर छिलकर फिटिंग लाई जाती है यानि संस्कृत में बोलने की स्वाभाविकता पर व्याकरण के कठोर नियम हावी रहते हैं। ऐसे सभी तर्क-वितर्क के बावजूद विद्यार्थियों के लिए शिक्षण का सौहार्दपूर्ण वातावरण कभी प्रभावित नहीं होता।

डॉ. राजेन्द्र मिश्र अपने व्यक्तित्व के चकाचौंध सहित आते तो हिन्दी के कम अंग्रेजी विभाग के अधिक लगते। कक्षाओं से कहीं अधिक समय चर्चाओं के लिए देते और कोई भी छात्र, जिसे साहित्य में रूचि हो, उसे बराबरी का अवसर देते हुए बात करने को हमेशा तैयार रहते। अच्छा साहित्य पढ़ने का संस्कार डालने के उनके निरन्तर उद्यम में उनका व्यक्तित्व और वक्तृत्व प्रभावी होता। अगर कोई एक ही खास बात इस संस्थान के लिए कहनी हो तो ''यह ऐसा शिक्षण संस्थान रहा कि यहां प्रत्येक व्यक्ति अपने ढ़ंग से ज्ञान-दान के लिए सदैव तत्पर रहता। प्राचार्य डॉ. शर्मा से लेकर ग्रंथपाल मैडम चटर्जी तक।'' मैडम चटर्जी अनुशासन की इतनी पक्की थीं कि शुरू में लाईब्रेरी में संभलकर प्रवेश करना होता लेकिन धीरे-धीरे जैसे ही वे भांप लेती कि विद्यार्थी वास्तव में अध्ययनशील है तो फिर उसके लिए किताबें खोजना, किताबों की जानकारी के साथ हरसंभव मदद के लिए तैयार रहतीं।

डॉं. सुल्लेरे पास ही विज्ञान महाविद्यालय के पीछे रहते और महाविद्यालय के अलावा घर पर भी, कभी भी, मार्गदर्शन के लिए तैयार रहते। डॉ. निगम क्लास की पढ़ाई के साथ-साथ चाय की कैन्टीन में भी गपशप के बहाने इतिहास और इतिहास अध्ययन की मनोरंजक बातें, घटनाएं, संदर्भ सुनाते और उच्चस्तरीय तथा ताजे शोध की जानकारी देकर पढ़ने को प्रेरित करते रहते। जेब खर्च न होने पर भरोसा रहता कि चाय तो निगम सर जरूर पिला देंगे यह भरोसा कभी नहीं टूटा, बल्कि रोड साइड क्लास अधिक लंबी खिंचने लगे तो मनी कैंटीन का समोसा भी हो जाता। निगम सर के हरे रंग की राजदूत मोटरसाईकिल बिना चाबी के स्टार्ट हो जाती लेकिन उसे चलाना मुश्किल होता। 'चला सको, तो ले जाओ' की अलिखित शर्त के साथ यह सबके लिए उपलब्ध रहती थी। हम कुछ लोग इस सुविधा का अक्सर लाभ लेते और वापस स्टॉफ रूम के सामने लाकर खड़ी कर देते। कई बार ऐसा भी होता कि इंतजार के बाद भी मोटरसाईकिल नहीं लौटती तब 'कल ले लेंगे' के सहज भाव सहित निगम सर, लिफ्ट लेकर या रिक्शे से वापस घर लौटते।

डॉ. रामनिहाल शर्मा और सारस्वत सर से उनके निधन-पूर्व तक सम्पर्क बना रहा और मैं हर मुलाकात में उनसे लाभान्वित होता रहा। डॉ. निगम, डॉ. राजेन्द्र मिश्र और अग्रवाल सर से उनकी थोड़ी बदली भूमिकाओं के बावजूद अभी भी सम्पर्क बना हुआ है और संस्कृत महाविद्यालय का विद्यार्थी होने का लाभ इन गुरुजनों से मुझे अब भी मिलता रहता है।

यहीं पढ़ाई के दौरान मुझे बोर्ड ऑफ स्टडीज और फिर विश्वविद्यालय के अकादमिक कौंसिल के छात्र प्रतिनिधि के रूप में सदस्य रहने का अवसर मिला और इसी महाविद्यालय की शिक्षा का परिणाम मेरे लिए एम.ए. में सर्वोच्च अंकों के लिए स्वर्ण पदक के रूप में सर्वाधिक उल्लेखनीय रहा। इसी पढ़ाई और परिणाम के बदौलत मेरा प्रवेश आगे की पढ़ाई के लिए बिरला इस्टीट्‌यूट, भोपाल में सहज ही हो गया और फिर यही मेरे पुरातत्व/संस्कृति विभाग की इस शासकीय सेवा की पृष्ठभूमि बना लेकिन इन सब उपलब्धियों की तुलना में यह महाविद्यालय गुरूकुलनुमा आत्मीय माहौल के साथ संस्कार केन्द्र के रूप में अधिक स्मरणीय है। वर्ष 2005 इस महाविद्यालय के लिए स्वर्ण जयंती का वर्ष मात्र नहीं विगत 50 स्वर्णिम वर्षों के गौरवशाली इतिहास का साक्षी वर्ष भी है।

2005 में महाविद्यालय की स्वर्ण जयंती वर्ष में प्रकाशित स्‍मारिका के लिए मेरा लिखा लेख, जो लगभग इसी तरह प्रकाशित हुआ है।

पूर्णिमा परिशिष्‍ट

आषाढ़ की पूर्णिमा, गुरु अथवा व्‍यास पूर्णिमा भी है। कहा जाता है कि व्‍यास का जन्‍म इसी तिथि को हुआ था, जिनका अधिक प्रचलित नाम वेदव्‍यास है। इन्‍हें 28 व्‍यासों की नामावलि में अंतिम, कृष्‍ण द्वैपायन कहा गया है। इनका एक अन्‍य नाम बादरायण भी है। इस अवसर पर गुरुओं और अपने बादरायण संबंधों के कुछ उल्‍लेख-

छात्रावास में रहते हुए हम सब अपने को इस पूरे परिसर के लिए जिम्‍मेदार मानते और मेरी अनुशासनप्रियता का एक ही उदाहरण काफी होगा, लगभग छः म‍हीने बाद एक दिन तबियत नरम-गरम होने के कारण मुझे पता चला कि छात्रावास में प्रतिदिन सन्‍ध्‍या प्रार्थना भी होती है, जो सबके लिए अनिवार्य है। तब दिन भर का तो अपना ठिकाना नहीं रहता था, लेकिन अपनी निशाचरी के कारण, रात की जिम्‍मेदारी चौकीदारों के साथ मैं अपनी भी मानता। रात चौकीदारी वाले साथियों सर्वश्री अंजोरदास, नरहर, कातिक और गुहाराम को भी गुरुओं के साथ स्‍मरण कर रहा हूं, गुरु शब्‍द की एक व्‍याख्‍या है- 'गरति सिञ्चति कर्णयोर्ज्ञानामृतम् इति गुरुः' अर्थात् गुरु, जो कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करे। उन दिनों के इन निशाचर साथियों से मैंने न जाने कितने किस्‍से सुने हैं भूत-परेत, धरम-करम-कुकरम, समाज-लोकाचार के और जीवन का पाठ पढ़ा है, वह सब मुझे अमृत सिंचन की तरह ही प्रिय होता था।

इसी संदर्भ में गुरु पदासीन महापुरुषों का स्‍मरण- कभी इस महाविद्यालय के विद्यार्थी रहे छत्‍तीसगढ़ के महान संत कवि श्री पवन दीवान जी, जिनके लिए नारा बना 'पवन नहीं ये आंधी है, छत्‍तीसगढ़ का गांधी है', जो राजनीति में सक्रिय रहते हुए कई पदों के साथ सांसद और कभी जेल मंत्री भी रहे, तब कहते, जिसका मंत्री हूं, वही दे सकता हूं।... इसी संस्‍था में छात्र रहे राजेश्री महंत रामसुंदरदास जी महाराज।... तीन विद्यार्थियों वाले कक्ष क्र. 12 में लगभग पूरे दो साल मैं अकेले रहा। कभी-कभार गालव साहू और तजेन्‍द्र शर्मा रूकते थे। तजेन्‍द्र के संदर्भ से छत्‍तीसगढ़ के पांडुका गांव में जन्‍म लिए महेश प्रसाद वर्मा यानि विश्‍व गुरु महर्षि महेश योगी से अपना जुड़ाव महसूस करता हूं। तजेन्‍द्र, पढ़ाई के बाद महर्षि जी की संस्‍था से संबद्ध हो गए थे।

अब क्‍लाइमेक्‍स, यानि आ जाएं रायपुर में रजनीश पर। छात्रावास का मुझे मिला कमरा खाली रहने से मुझे सुविधा ही थी। कुछ समय बाद पता चला कि छात्रावास में कई भूत हैं, उनकी चहलकदमी खाली पड़े मेस हॉल में, छत पर और इस कमरे क्र. 12 में रहती है। यह भी बताया गया कि इसी कमरे में कभी किसी छात्र ने आत्‍महत्‍या कर ली थी। (मन ही मन चाहता रहा कि इन किस्‍सों पर सबका भरोसा बना रहे और मैं अकेला इस कमरे में काबिज रहूं, लेकिन) इस बात की शिकायत ले कर पहले मैं वार्डन से मिला फिर प्राचार्य शर्मा जी से। उन्‍होंने धैर्य से मेरी बातें सुनी, फिर बताया कि तुम्‍हें तो वह खास कमरा दिया गया है, (संभव है मेरा मन रखने को, लेकिन मैं क्‍यों न मान लूं) जिसमें कभी रजनीश रहते थे। मैंने अविश्‍वासपूर्वक कहा, आचार्य रजनीश! यहां, रायपुर में। इस पर, शर्मा सर ने यह तस्‍वीर दिखाई-

आप भी देखिए, तब फोटो-वोटो अंगरेजी कारबार माना जाता था शायद, इसीलिए तो संस्‍कृत कालेज के इस समूह चित्र पर लेखी अंगरेजी में है और चित्र के साथ नाम का अनुमान आप लगा ही सकते हैं, Shri R. C. Mohan यानि श्री रजनीश चन्‍द्र मोहन, आचार्य रजनीश, भगवान रजनीश, ओशो।

Sunday, July 3, 2011

स्वामी विवेकानन्द

4 जुलाई की तारीख इस तरह कम याद की जाती है कि सन 1902 में स्वामी विवेकानन्द का निधन इसी दिन हुआ, यह और भी कम कि 12 जनवरी 1863 को जन्‍म लिए इस महामानव के डेढ़ साल रायपुर में बीते, जो कलकत्ता के बाद किसी अन्य स्‍थान में उनका बिताया सबसे अधिक समय है। रायपुर से कलकत्ता लौटकर उन्‍होंने 1879 में 16 वर्ष की आयु में एंट्रेंस परीक्षा पास की थी।

रायपुर का बुढ़ा तालाब/विवेकानंद सरोवर, जिसके पास उन्‍होंने निवास किया

छानबीन करते हुए स्वामी आत्मानंद जी का लेख मिल गया, जिसका कुछ हिस्सा मैंने उनसे प्रत्यक्ष चर्चा में और उनके उद्‌बोधन में भी सुना है। 'स्वामी विवेकानन्द और मध्यप्रदेश' शीर्षक से अबुझमाड़ ग्रामीण विकास प्रकल्प की स्मारिका 1987 में प्रकाशित इस लेख का रायपुर प्रवास से संबंधित अंश-

विवेकानन्द, जो नरेन्द्र नाथ दत्त के रूप में सन्‌ 1877 ई. में रायपुर आये। तब उनकी वय 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी (आज की आठवीं कक्षा के समकक्ष) में पढ़ रहे थे। उनके पिता विश्वनाथ दत्त तब अपने पेशे के काम से रायपुर में रह रहे थे। जब उन्होंने देखा कि रायपुर में काफी समय रहना पड़ेगा, तब उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भी रायपुर में बुला लिया। नरेन्द्र अपने छोटे भाई महेन्द्र, बहिन जोगेन्द्रबाला तथा माता भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर के लिए रवाना हुए। तब रायपुर कलकत्ते से रेललाइन के द्वारा नहीं जुड़ा था। उस समय रेलगाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर, भुसावल होते हुए बम्बई जाती थी। उधर नागपुर भुसावल से जुड़ा हुआ था, तब नागपुर से इटारसी होकर दिल्ली जानेवाली रेललाइन भी नहीं बनी थी। अतः बहुत सम्भव है, नरेन्द्र अपने परिवार के सदस्यों के साथ जबलपुर उतरे हों और वहां से रायपुर आने के लिए बैलगाड़ी की हो। उनके कुछ जीवनीकारों ने लिखा है कि नरेन्द्र एवं उनके घर के लोग नागपुर से बैलगाड़ी द्वारा रायपुर गये, पर नरेन्द्र को इस यात्रा में जो एक अलौकिक अनुभव हुआ, वह संकेत करता है कि वे लोग जबलपुर से ही बैलगाड़ी द्वारा मण्डला, कवर्धा होकर रायपुर गये हों। उनके कथनानुसार, इस यात्रा में उन्हें पन्द्रह दिनों से भी अधिक का समय लगा था। उस समय पथ की शोभा अत्यन्त मनोरम थी। रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हुए हरे हरे सघन वनवृक्ष होते। भले ही नरेन्द्र नाथ को इस यात्रा में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, तथापि, उनके ही शब्दों में, ''वनस्थली का अपूर्व सौन्दर्य देखकर वह क्लेश मुझे क्लेश ही नहीं प्रतीत होता था। अयाचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा के द्वारा सजा रखा है, उनकी असीम शक्ति और अनन्त प्रेम का पहले-पहल साक्षात्‌ परिचय पाकर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था।'' उन्होंने बताया था, ''वन के बीच से जाते हुए उस समय जो कुछ मैंने देखा या अनुभव किया, वह स्मृतिपटल पर सदैव के लिए दृढ़ रूप से अंकित हो गया है। विशेष रूप से एक दिन की बात उल्लेखनीय है। उस दिन हम उन्नत शिखर विन्ध्यपर्वत के निम्न भाग की राह से जा रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चोटियां आकाश को चूमती हुई खड़ी थीं। तरह तरह की वृक्ष-लताएं, फल और फूलों के भार से लदी हुई, पर्वतपृष्ठ को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थीं। अपनी मधुर कलरव से मस्त दिशाओं को गुंजाते हुए रंग-बिरंगे पक्षी कुंज कुंज में घूम रहे थे, या फिर कभी-कभी आहार की खोज में भूमि पर उतर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए मैं मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव कर रहा था। धीर मन्थर गति से चलती हुई बैलगाड़ियां एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानों प्रेमवश आकृष्ट हो आपस में स्पर्श कर रही हैं। उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पासवाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा भारी सुराख है और उस रिक्त स्थान को पूर्ण कर मधुमक्खियों के युग-युगान्तर के परिश्रम के प्रमाणस्वरूप एक प्रकाण्ड मधुचक्र लटक रहा है। उस समय विस्मय में मग्न होकर उस मक्षिकाराज्य के आदि एवं अन्त की बातें सोचते-सोचते मन तीनों जगत्‌ के नियन्ता ईश्वर की अनन्त उपलब्धि में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण बाह्‌य ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैलगाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं। जब पुनः होश में आया, तो देखा कि उस स्थान को छोड़ काफी दूर आगे बढ़ गया हूं। बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए यह बात और कोई न जान सका।''14 (14- स्वामी सारदानन्दः'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग', तृतीय खण्ड, द्वितीय संस्करण, नागपुर, पृ. 67-68) नरेन्द्र नाथ की यह रायपुर-यात्रा इसलिए भी विशेष महत्वपूर्ण हो जाती है कि इस यात्रा में उन्हें अपने जीवन में पहली भाव-समाधि का अनुभव हुआ था।

रायपुर में अच्छा विद्यालय नहीं था। इसलिए नरेन्द्र नाथ पिता से ही पढ़ा करते थे। यह शिक्षा केवल किताबी नहीं थी। पुत्र की बुद्धि के विकास के लिए पिता अनेक विषयों की चर्चा करते। यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क में भी प्रवृत्त हो जाते और क्षेत्र विशेष में अपनी हार स्वीकार करने में कुण्ठित न होते। उन दिनों विश्वनाथ बाबू के घर में अनेक विद्वानों और बुद्धिमानों का समागम हुआ करता तथा विविध सांस्कृतिक विषयों पर चर्चाएं चला करतीं। नरेन्द्र नाथ बड़े ध्यान से सब कुछ सुना करते और अवसर पाकर किसी विषय पर अपना मन्तव्य भी प्रकाशित कर देते। उनकी बुद्धिमता तथा ज्ञान को देखकर बड़े-बूढ़े चमत्कृत हो उठते, इसलिए कोई भी उन्हें छोटा समझ उनकी अवहेलना नहीं करता था। एक दिन ऐसी ही चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला के एक ख्‍यातनामा लेखक के गद्य-पद्य से अनेक उद्धरण देकर अपने पिता के एक सुपरिचित मित्र को इतना आश्चर्यचकित कर दिया कि वे प्रशंसा करते हुए बोल पड़े, ''बेटा, किसी न किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे।'' कहना न होगा कि यह मात्र स्नेहसिक्त अत्युक्ति नहीं थी- वह तो एक अत्यन्त सत्य भविष्यवाणी थी। नरेन्द्र नाथ बंग-साहित्य में अपनी चिरस्थायी स्मृति रख गये।

बालक नरेन्द्र बालक होते हुए भी आत्मसम्मान की रक्षा करना जानते थे। अगर कोई उनकी आयु को देखकर अवहेलना करना चाहता, तो वे सह नहीं सकते थे। बुद्धि की दृष्टि से वे जितने बड़े थे, वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे तथा दूसरों को इस प्रकार सोचने का कोई अवसर भी नहीं देना चाहते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र बिना कारण उनकी अवज्ञा करने लगे, तो नरेन्द्र सोचने लगे, ''यह कैसा आश्चर्य है! मेरे पिता भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते, और ये मुझे ऐसा कैसा समझते हैं।'' अतएव आहत मणिधर के समान सीधा होकर उन्होंने दृढ़ स्वरों में कहा, ''आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता। किन्तु यह धारणा नितान्त गलत है।'' जब आगन्तुक सज्जन ने देखा कि नरेन्द्र अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे हैं और वे उसके साथ बात करने के लिए भी तैयार नहीं हैं, तब उन्हें अपनी त्रुटि स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। कठोपनिषद्‌ में बालक नचिकेता में भी ऐसी ही आत्मश्रद्धा दिखाई देती है। उसने कहा था, ''बहुत से लोगों में मैं प्रथम श्रेणी का हूं और बहुतों में मध्यम श्रेणी का, पर मैं अधम कदापि नहीं हूं।''

नरेन्द्र में पहले से ही पाकविद्या के प्रति स्वाभाविक रूचि थी। रायपुर में हमेशा अपने परिवार में ही रहने के कारण तथा इस विषय में अपने पिता से सहायता प्राप्त करने तथा उनका अनुकरण करने से वे इस विद्या में और भी पटु हो गये। रायपुर में उन्होंने शतरंज खेलना भी सीख लिया तथा अच्छे खिलाड़ियों के साथ वे होड़ भी लगा सकते थे।15 (15- स्वामी गम्भीरानन्दः'युगनायक विवेकानन्द'(बंगला), प्रथम खण्ड, कलकत्ता, पृ. 55-57 (आगे युगनायक नाम से अभिहित)) फिर, रायपुर में ही विश्वनाथ बाबू ने नरेन्द्र को संगीत की पहली शिक्षा दी। विश्वनाथ स्वयं इस विद्या में पारंगत थे और उन्होंने इस विषय में नरेन्द्र की अभिरूचि ताड़ ली थी। नरेन्द्र का कण्ठ-स्वर बड़ा ही सुरीला था। वे आगे चलकर एक सिद्धहस्त गायक बने थे, पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में ही विकसित हुआ। 16 (16- 'दि लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द', अद्वैत आश्रम, मायावती, भाग 1, पांचवां संस्करण, पृ. 42-43 (आगे 'दि लाइफ' नाम से अभिहित))

डेढ़ वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ सपरिवार कलकत्ता लौट आये। तब नरेन्द्र का शरीर स्वस्थ, सबल और हृष्ट-पुष्ट हो गया और मन उन्नत। उनमें आत्मविश्वास भी जाग उठा था और वे ज्ञान में भी अपने समवयस्कों की तुलना में बहुत आगे बढ़ गये थे। किन्तु बहुत समय तक नियमित रूप से विद्यालय में न पढ़ने के कारण शिक्षकगण उन्हें ऊपर की (प्रवेशिका) कक्षा में भरती नहीं करना चाहते थे। बाद में विशेष अनुमति प्राप्त कर वे विद्यालय की इसी कक्षा में भरती हुए तथा अच्छी तरह से पढ़ाई कर सभी विषयों को थोड़े ही समय में तैयार करके उन्होंने 1879 में परीक्षा दी। यथासमय परीक्षा का परिणाम निकलने पर देखा गया कि वे केवल उत्तीर्ण ही नहीं हुए हैं, प्रत्युत उस वर्ष विद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वे एकमात्र विद्यार्थी हैं। यह सफलता अर्जित कर उन्होंने अपने पिता से उपहार स्वरूप चांदी की एक सुन्दर घड़ी प्राप्त की थी।

रायपुर में घटी और दो घटनाएं नरेन्द्र नाथ के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण हैं। विश्वनाथ ने पुत्र को संगीत के साथ-साथ पौरुष की भी शिक्षा दी थी। एक समय नरेन्द्र नाथ पिता के पास गये और उनसे पूछ बैठे, ''आपने मेरे लिए क्या किया है?'' तुरन्त उत्तर मिला, ''जाओ दर्पण में अपना चेहरा देखो!'' पुत्र ने तुरन्त पिता के कथन का मर्म समझ लिया, वह जान गया कि उसके पिता मनुष्यों में राजा हैं।

एक दूसरे समय नरेन्द्र ने अपने पिता से पूछा था कि परिवार में किस प्रकार रहना चाहिए, अच्छी वर्तनी का माप-दण्ड क्या है? इस पर पिता ने उत्तर दिया था, ''कभी आश्चर्य व्यक्त मत करना!'' क्या यह वही सूत्र था, जिसने नरेन्द्र नाथ को विवेकानन्द के रूप में समदर्शी बनाकर, राजाओं के राजप्रासाद और निर्धनों की कुटिया में समान गरिमा के साथ जाने में समर्थ बनाया था।17 (17- वही, पृ. 44)

उपर्युक्त विवरण प्रदर्शित करते हैं कि नरेन्द्र के व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास में रायपुर का क्या योगदान रहा है।

बताया जाता है कि नरेन्‍द्र, पिता विश्‍वनाथ दत्‍त के साथ रायबहादुर भुतनाथ दे (1850-1903) के इसी ''दे भवन'' में रहे थे। भवन की वर्तमान तस्‍वीर, जिसमें भुतनाथ जी के पुत्र हरिनाथ दे का शिलालेख है कि उन्‍होंने अपने जीवन के 34 वर्षों में 36 भाषाएं सीखीं।


इस भवन में नरेन्‍द्र-विवेकानन्‍द के निवास का संदर्भ यहां लगे एक अन्‍य शिलालेख में था, जिसके सहित इस भवन की तस्‍वीर सन 2003 में स्‍वामी जी के रायपुर आगमन के 125 वर्ष पर छत्‍तीसगढ़ शासन, संस्‍कृति विभाग द्वारा प्रकाशित की गई थी। पता चला कि यह शिलालेख अब वहां नहीं है।


स्‍वामी विवेकानन्‍द की 150 जयंती के आयोजन आरंभ हो रहे हैं। समय की पर्त कभी इतनी मोटी होती है कि कम समय में ही बड़ी घटना पर भी ओझल कर देने वाला परदा पड़ सकता है। इस अवसर पर उनके रायपुर आगमन व निवास के लिए कुछ ऐसी ही स्थिति बनती देखकर यह प्रस्‍तुत करना जरूरी लगा।

Wednesday, May 18, 2011

अजायबघर

18 मई। सन 1977 से इस तिथि पर पूरी दुनिया में संग्रहालय दिवस मनाया जाता है। आज यह दिवस 100 से भी अधिक देशों और 30000 से भी अधिक संग्रहालयों में मनाया जा रहा है। इस वर्ष का विषय है 'संग्रहालय और स्मृति : चीजें कहें तुम्हारी कहानी' (Theme - Museum and Memory : Object Tell Your Story)। कुछ स्मृति और पुराना लेखा-जोखा मिलाकर हमने संग्रहालय की ही कहानी बना ली है, जिसमें रायपुर, छत्तीसगढ़ के लिए गौरव-बोध का अवसर भी है।

सन 1784 में कलकत्‍ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम (सन 1931 में) 45390 आबादी वाला शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना गया, वैसे रायपुर शहर के एक पुराने, सन 1868 के, नक्‍शे में अष्‍टकोणीय भवन वाले स्‍थान पर ही म्‍यूजियम दर्शाया गया है।

इस संग्रहालय का एक खास उल्‍लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्‍लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्‍चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए। फिर उल्‍लेख है कि दर्शक संख्‍या में कमी का कारण संग्रहालय के प्रति घटती रुचि नहीं, बल्कि चौकीदार कदाचरण है, जो परेशानी से बचने के लिए संग्रहालय को खुला रखने के समय भी उसे बंद रखता है।


सन 1936 के प्रतिवेदन (The Museums of India by SF Markham and H Hargreaves) से रायपुर संग्रहालय की रोचक जानकारी मिलती है, जिसके अनुसार रायपुर म्युनिस्पैलिटी और लोकल बोर्ड मिलकर संग्रहालय के लिए 400 रुपए खरचते थे, रायपुर संग्रहालय में तब 22 सालों से क्लर्क, संग्रहाध्यक्ष के बतौर प्रभारी था, जिसकी तनख्‍वाह मात्र 20 रुपए (तब के मान से भी आश्चर्यजनक कम) थी। संग्रहालय में गौरैयों का बेहिसाब प्रवेश समस्या बताई गई है।
अष्‍टकोणीय पुराना संग्रहालय भवन तथा महंत घासीदास
यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इसी साल यानि 1936 में 8 फरवरी को मेले के अवसर पर लगभग 7000 दर्शकों ने रायपुर संग्रहालय देखा, जबकि पिछले पूरे साल के दर्शकों का आंकड़ा 72188 दर्ज किया गया है। इसके साथ यहां आंकड़े जुटाने के खास और श्रमसाध्य तरीके का जिक्र जरूरी है। संग्रहालय के सामने पुरुष, महिला और बच्चों के लिए तीन अलग-अलग डिब्बे होते, जिसमें कंकड डाल कर दर्शक प्रवेश करता और हर शाम इसे गिन लिया जाता। यह सब काम एक क्लर्क और एक चौकीदार मिल कर करते थे। तब संग्रहालय के साप्ताहिक अवकाश का दिन रविवार और बाकी दिन खुलने का समय सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक होता।
सन 1953 में इस नये भवन का उद्‌घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। अब यहां भी देश-दुनिया के अन्य संग्रहालयों की तरह सोमवार साप्ताहिक अवकाश और खुलने का समय सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे है। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। ध्यान दें, अंगरेजी राज था, तब शायद राजा और दान शब्द किसी भारतीय के संदर्भ में इस्तेमाल से बचा जाता था, शिलापट्‌ट पर इसे नांदगांव के रईस का बसर्फे या गिफ्ट बताया गया है (आजाद भारत में पैदा मेरी पीढ़ी को सोच कर कोफ्त होने लगती है)।
संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्‍मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है।
मंजुश्री, सिरपुर, लगभग 8वीं सदी ईसवी
कहा जाता है, संग्रहालयीकरण, उपनिवेशवादी मानसिकता है और अंगरेज कहते रहे कि यहां इतिहास की बात करने पर लोग किस्से सुनाने लगते हैं, भारत में कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं है। माना कि किस्सा, इतिहास नहीं होता, लेकिन इतिहास वस्तुओं का हो या स्वयं संग्रहालय का, हिन्दुस्तानी हो या अंगरेजी, कहते-सुनते क्यूं कहानी जैसा ही लगने लगता है? चलिए, कहानी ही सही, इस वर्ष संग्रहालय दिवस के लिए निर्धारित विषय दुहरा लें - 'संग्रहालय और स्मृति : चीजें कहें तुम्हारी कहानी'।

यह पोस्‍ट, नई दिल्‍ली के जनसत्‍ता अखबार में 10 जून 2011 को समांतर स्‍तंभ में 'कहानी ही सही' शीर्षक से प्रकाशित।

Monday, May 9, 2011

पंडुक

26 अप्रैल 2011, मेरे लिए अब खास तारीख है। अपने पंछी-प्रेम की घोषणा आसान हो सकती है, लेकिन पंछी भी बच्चों की तरह आप पर आसानी से भरोसा नहीं करते। बड़े होते बच्चों को बहला-फुसला सकते हैं, लेकिन चिड़ियों को नहीं। पालतू बन जाने वाले कुछ पक्षियों को छोड़ दें, लेकिन उनमें भी तोते के लिए कहावत है 'सुआ, सुई और ... एक जाति, जान-पहचान के चलते मुरव्वत नहीं करते, बस नजर चूकी और काम हुआ। ... सालिम अली और जिम कार्बेट के चित्र जरूर देखने को मिलते हैं, जिनमें कोई चिड़िया उनके कंधों पर, हाथ में या हैट पर बैठी हो।

आत्म-केन्द्रित इस पोस्ट की संक्षिप्त भूमिका के साथ पृष्ठभूमि कि हफ्ते भर कभी-कभार और दो-तीन दिन लगभग लगातार एक पंडुक (Dove या Streptopelia senegalensis) दिखाई पड़ने लगी। आती, एकदम सजग। अच्‍छी तरह निरखा-परखा। घर में कोई अबोध-उधमी तो नहीं। सांप, चूहे-बिल्‍ली की तो दखल नहीं। हवा-पानी, सरद-गरम, ओट सब मुआफिक, निरापद। पंडुक पर मेरी भी निगाह बनी रही। मैदानी छत्‍तीसगढ़ में यही चिडि़या पंड़की (बघेलखंड से लगे क्षेत्र में पोंड़की) कही जाती है और अपनी जाति की बुढ़ेल, बनइला, छितकुल, चोंहटी और ललपिठवा से अलग पहचानी जाती है।

दसेक दिन बीतते-बीतते, इस यादगार तारीख 26 अप्रैल को सुबह देखा कि पंडुक ने मेरी नियमित बैठकी से सिर्फ 10 फुट दूर रखे गमले में दो अंडे दिए हैं। 28 अप्रैल को शाम से मौसम खराब रहा, वह रात भर नहीं दिखी, 29 अप्रैल को कम दिखी, फिर अनुपस्थित रही, 3 मई को पुनः दिखाई पड़ी, लेकिन यह चिड़िया आकार में कुछ बड़ी जान पड़ती है, नर जोड़ा तो नहीं ? फिर उसने रात बासा किया और 4 मई को सुबह तीसरा अंडा दिखा। 5 मई को चौथा अंडा भी दिखा। 8 मई को उसने एक अंडा अलग हटा दिया, लेकिन मैंने मान लिया कि पंडुक ने मुझे पक्षी-प्रेमी होने का प्रमाण पत्र दे दिया है। नेचर सोसाइटी और बर्ड वाचिंग क्‍लब की सदस्‍यता लेने का दीर्घ लंबित इरादा फिर मुल्‍तवी।

पंडुक आते-जाते अंडे ''से'' रही है, पूरे धैर्य के साथ, लेकिन मेरा काम सिर्फ निगरानी से तो नहीं चलेगा, मुझे पोस्ट भी तो लगाते रहना होता है, फिर आत्मश्लाघा का ऐसा अवसर। खुद को बहलाने की कोशिश की, थोड़ी खोजबीन कर पंडुक पर एक कायदे की पोस्ट बने तब लगाना ठीक होगा। याद कर रहा हूं- ''वो भी क्या दिन थे, जब फाख्‍ते उड़ाया करते थे'' ज्यों ''वे भी क्या दिन थे जब पसीना गुलाब था।'' शायद पंडुक से आसान शिकार कोई नहीं- ''बाप न मारे पेंडुकी (कभी मेंढकी भी), बेटा तीरंदाज'' और ''होश फाख्‍ता हुए'' कह कर, इस पंछी का नाम उड़ने के पर्याय में तो इस्तेमाल होता ही है। ईसाईयों में पवित्र आत्‍मा का प्रतीक और चोंच में जैतून की डंठल लेकर उड़ती चिडि़या, पंडुक ही है। छत्‍तासगढ़ी गीत ''हाय रे मोर पंडकी मैना, तोर कजरेरी नैना, मिरगिन कस रेंगना'' में पंडकी, प्रेम-संबोधन है। पंडुक का मनियारी गोंटी चरना (छोटे, गोल और चिकने मणि-तुल्‍य कंकड़ चुगना), साहित्यिक मान्‍यता नहीं, देखी-जांची हकीकत है।

इस पंछी के कुछ और संदर्भ याद आ रहे हैं। डेनियल लेह्रमैन का कथन- ''हरेक अच्छे प्रयोग को उत्तरों से ज्यादा सवाल खड़े करना चाहिए।'' (Every good experiment has to raise more question than its answers.- Daniel S Lehrman) उद्धृत करता रहा हूं, लेकिन इसी दौरान जान पाया कि यह बात उन्होंने पंडुक के प्रजनन व्यवहार के संदर्भ में ही कही है।

रेणु की परती परिकथा के आरंभ में वन्ध्या रानी की परिचारिका रह चुकी पंडुकी व्यथा समझती है और वैशाख की उदास दोपहरी में वह करुण सुर में पुकारती है- तुर तुत्तू-उ-उ, तू-उ, तु-उ तूः। कुमाऊंनी लोककथा में घुघूती यानि पंडुक ''पुर पुतइ पुरै पुर'' बिसूरती फिरती है। इससे मिलती-जुलती बस्‍तर की भतरी लोककथा में पंडुक रो-रो कर अपने मृत बच्‍चे को जगाती है- 'उठ पुता, उरला-पुरला' और हल्‍बी छेरता गीत की पंक्ति है- 'झीर लिटी, झीर लिटी, पंडकी मारा लिटी।' शायद इन्‍हीं से प्रेरित हैं छत्तीसगढ़ के कवि एकांत श्रीवास्तव की 'पंडुक' कविता-

''जेठ-बैशाख की तपती दोपहरें
........................
पृथ्वी के इस सबसे दुर्गम समय में
वे भूलते नहीं हैं प्यार
और रचते हैं सपने
अंडों में सांस ले रहे पंडुकों के लिए''

परती परिकथा का समापन है- ''पंडुकी नाच-नाच कर पुकार रही है- तुतु-तुत्तु, तुरा तुत्त। ... ... ... आसन्नप्रसवा परती हंसकर करवट लेती है।'' मानों बिसूरती पंडुक अब लाफिंग डॉव है।

खुद को इससे अधिक बहला पाने में असफल, सोचते हुए कि ''अंडों में सांस ले रहे पंडुकों की करवट'' का हाल परिशिष्ट बनाकर बाद में जोड़ा जा सकता है। फिलहाल यही जारी कर रहा हूं, पंडुक के हवाले से, हस्ताक्षरित नहीं चित्राक्षरित, बिना पदमुद्रा के लेकिन प्राधिकारपूर्वक स्वयं से, स्वयं को, स्वयं के लिए टाइप।
  • यों, पंछी-प्रेम के इस प्रमाण-पत्र पर मुझसे अधिक घर के बाकी सदस्यों का अधिकार बनता है, क्योंकि वे ही पूरे समय घर में रहते हैं, लेकिन 'कलम' की ताकत है, सो यह खुद के नाम कर लिया है।
  • गलतफहमी न रहे, खासकर शाकाहारवादियों को स्पष्ट कर दूं कि मैं (घर के अन्‍य सदस्‍यों सहित) सर्वभक्षी नहीं तो 'हार्ड कोर' मांसाहारी अवश्‍य हूं।
  • यह भी कि रायपुर में घरों के इर्द-गिर्द गौरैया के बाद सबसे आम यही चिड़िया, पंडुक दिखाई देती है।
याद करता हूं, नृतत्‍व-मनोविज्ञान में आहार, निद्रा, भय, मैथुन के अलावे मूल प्रवृत्ति के रूप में 'मातृत्‍व' (वात्‍सल्‍य या mother instinct) हाल के वर्षों में मान्‍य-स्‍थापित हुआ है। कल 8 मई 2011 को इस पोस्‍ट (को सेते हुए) की उधेड़-बुन में लगा रह कर, मातृत्‍व-वंचित वर्ग के सदस्‍य के रूप में मातृत्‍व-संपन्‍न नृवंशियों को नमन करते हुए, मातृ-दिवस मनाया।

Friday, March 18, 2011

गौरैया

''1906/07 जब मादा अंडों पर बैठी थी तब एक नर गौरैया सूराख के पास कील पर बैठा था। मैंने अस्तबल में खड़ी गाड़ी के पीछे से उस नर को मारा। ... ... ... अगले सात दिनों में मैंने उस स्थान पर आठ नर गौरैयों को मार गिराया'' अविश्वसनीय लग सकता है कि यह प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सालिम अली की हरकत है और उन्हीं का बयान 'एक गौरैया का गिरना' से लिया गया है। इतना ही नहीं, आगे टिप्पणी है- ''मुझे इस नोट पर गर्व है। ... ... ... आज के व्यवहार संबंधी अध्ययन की दृष्टि से यह बहुत सार्थक सिद्ध हुआ है।''

पुस्तक के 'बस्तरः1949'अध्याय में लिखा है- ''अपने लंबे जीवन में सरगुजा के महाराजा की अपनी प्रजा के प्रति भलाई करने वाली एकमात्र प्रतिबद्धता थी, बाघों की हत्या करना। ... उन्होंने 1170 से अधिक बाघ मारकर, निश्चय ही किसी प्रकार का रिकार्ड बनाया होगा तथा अपने अंतकरण में, यदि उनमें था, उसकी कचोट अनुभव की होगी।'' एक अन्य उद्धरण है- ''सरगुजा राज्य के एक पड़ोसी राज्य, कोरेआ (पूर्वी मध्य प्रदेश) के महाराज के शिकार में अपना नाम अमर कर लिया है। उन्होंने ... भारत के अंतिम तीन चीतों का शिकार कर इस जाति का भारतीय जमीन पर से हमेशा के लिए सफाया कर दिया।''

जिम कार्बेट की हथेली पर चिडि़या
सिद्धार्थ और देवदत्त की प्रसिद्ध कहानी की सीख है- मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, लेकिन प्राणी संरक्षण के लिए बात थोड़े अंतर से कही जा सकती है कि मारने वाला ही बचाने का काम बेहतर करता है (ज्‍यों डिसेक्‍शन करने वाले हाथ ही शल्‍य चिकित्‍सा कर जान बचाते हैं)। ऊपर आए उद्धरणों के साथ कुमाऊं और रूद्रप्रयाग के आदमखोरों के शिकारी जिम कार्बेट का उदाहरण, उनके एक हाथ में लिए अंडों को बचाते हुए दूसरे हाथ से गोली दागने वाले प्रसंग सहित, स्मरणीय है। यों कहें कि भक्षक ही रक्षक या संहारक ही संरक्षक बन जाए तो इससे बेहतर रक्षा, और क्‍या होगी। बेगूसराय, बिहार के चिडि़मार अली हुसैन को सालिम अली द्वारा अपना सहयोगी पक्षी संरक्षक बना देने की नजीर है ही।

वन-वन्‍यजीव संरक्षण के दो उद्धरण- पहला, मृदुला सिन्‍हा द्वारा लिपिबद्ध राजमाता विजयाराजे सिंधिया की आत्‍मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' से- ''अपने शौक के लिए ही क्‍यों न सही, वन्‍य-संपदाओं के संरक्षण के लिए इन राजा-महाराजाओं ने जितनी सतर्कता बरती थी, वैसी तो आज जंगलों की रक्षा और पर्यावरण के प्रहरी बनने का ढोल पीटने वाले आधुनिक लोग भी नहीं बरतते होंगे। ये राजा-महाराजा इस बात के लिए अत्‍यंत जागरूक रहा करते थे कि शेरों की संख्‍या निर्धारित सीमा के नीचे कभी न जाने पाए। इसीलिए उनके हाथों वन्‍य-जीवों का संगोपन और संवर्ध्‍दन हो सका। और दूसरा, थोरो के 'वाल्‍डन' से- ''शिकार के जानवरों का शायद सबसे बड़ा मित्र ('पशु-परोपकारी समाज' को मिलाकर भी) शिकारी ही होता है।''

सालिम अली से ठीक से परिचित हुआ मेरे पसंदीदा संपादकों, नवनीत के नारायण दत्त और इलस्ट्रेटेड वीकली के प्रीतीश नंदी के 25-30 साल पहले लिखे गए लेखों के माध्यम से। हैमलेट के अंश ''गौरैया के गिरने में विधि का विशेष विधान है'' से प्रभावित शीर्षक वाली पुस्‍तक 'एक गौरैया का गिरना' सालिम अली की आत्मकथा है, लेकिन इसलिए भी खास है कि इसमें लेखक का 'मैं' नाममात्र को है और पुस्तक पक्षी-विज्ञान की पूरी संहिता है। सालिम अली की पुस्तकों और जिस माध्यम से उनसे परिचित हुआ, शायद उसी के चलते जब भी अवसर मिले, मैं पंछी निहारन से चूकता नहीं।

छत्तीसगढ़ की प्राचीन नगरी खरौद के खुशखत, कवि कपिलनाथ मिसिर, बड़े पुजेरी की विशिष्ट और महत्वपूर्ण रचना है 'खुसरा चिरई के बिहाव'। यह काव्य, पक्षी कोश के साथ जैव विविधता जैसे आधुनिक शास्त्रीय विषयों और सूक्ष्म अवलोकन की समर्थ लोक अभिव्यक्ति हैं। रचना में खुसरा चिड़िया के विवाह अवसर पर पूरी जमात को शामिल और पक्षियों को उनके व्यवहार के अनुसार भूमिका निभाते बताया गया है। गौरैया के लिए 'गुड़रिया धान कुटाती है' और एक बार 'गौरेलिया पाठ पढ़ाता है' कहा गया है। वाद्यों में निसान, ढोल, मांदर, तमूरा, करताल, खंजरी, मोहरी, दफड़ा, टिमटिमी, नफेरी के साथ उनकी ध्वनि को शब्दों में उसी तरह बांधा गया है जैसे परती परिकथा में रेणु जी ने ('खुसरा...' का प्रकाशन 1948-49 में बताया जाता है)। इस रचना में विवाह के नेग-चार के साथ अन्न और पेड़ों की नाम-सूची के अलावा शिव-स्तुति श्लोक भी हैं।

धूल-स्‍नानःबाथ सीन
गौरैया, छत्तीसगढ़ी में सामान्‍यतः गुड़ेरिया और बाम्हन चिराई भी कही जाती है। कहा जाता है कि इसके चूजे को कोई व्‍यक्ति स्‍पर्श कर दे तो यह उसे त्‍याग देती है और यह भी कि बाम्हन चिराई को पानी मिला और वह नहाने लगती है। वैसे गौरैया धूल में भी नहाती है, घाघ-भड्‌डरी की कहावत है-
'कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर।
चींटी ले अंडा चढ़ै, तो बरखा भरपूर।'
गौरैया का धूल-स्नान, आसन्न वर्षा का तो जल-स्नान, वर्षा न होने का संकेत माना जाता है।

माना गया है कि गौरैया, रोग-व्‍याधि मुक्‍त स्‍थान पर ही घोंसला बांधती है। वह ब्राह्मणों की तरह छुआ-छूत में सख्‍त भी मानी गयी है। मनुष्य द्वारा छू लिये जाने पर उस गौरैया को छूत मान कर, जात निकाला दे कर चोंच मारा जाता है लेकिन सूपे को किसी डंडी से तिरछा टिका कर या कमरा बंद कर गौरेया पकड़ना, फिर उसे लाल-काला रंग कर या धागा बांधकर, उड़ाने के अभियान से शायद ही कोई बचपन अछूता हो।

एक किस्से में गौरेया मनुष्य जाति के लिए संदेश लेकर आती है कि दिन में एक बार खाना और दो बार नहाना, लेकिन कहने में उससे हुई चूक से मनुष्य एक बार स्नान और दो बार भोजन करने लगा। इसकी सजा स्वरूप उसके पैरों में अदृश्य बेड़ी पड़ गई और उसे चम्पा (एक साथ दोनों पैर पर, फुदककर) चलना पड़ता है। किस्से में यह भी बताया जाता है कि प्रायश्चित स्वरूप उसे खुद बार-बार स्नान करना पड़ता है और भोजन के फिराक में लगे रहना होता है। साल में दो बार त्यौहारों पर बेड़ी छूटती भी है, तब यह ठुमक-ठुमक कर, इतराती चलती है और यह दुर्लभ दृश्य, शुभ माना जाता है, इसके विपरीत गौरैया का प्रजनन देखना निषेध किया जाता है। पक्षी मैथुन, खासकर काग-मैथुन देख लेने पर झूठी मृत्यु सूचना दी जाती है और प्रायश्चित होता है जब कोई स्वजन इस खबर पर रो ले। पक्षियों, विशेषतः सर्वाधिक घरू गौरैया, मैना और कौए की बोली की व्याख्‍या करने वालों के भी रोचक संस्मरण सुनाए जाते हैं। गौरैये को लोक व्यवहार में पुंसत्व का भी प्रतीक माना गया है, संभवतः इसका कारण इस प्रजाति का बारहमासी प्रजनन काल और बारम्‍बारता है।
आंचलिक भावों के कवि कैलाश गौतम के फागुनी दोहे, बड़की भौजी जैसी कविताएं खूब पसंद की जाती हैं, उनकी ऐसी ही एक कविता 'भाभी की चिट्‌ठी' का दोहा है-
सिर दुखता है जी करता चूल्हे की माटी खाने को,
गौरैया घोंसला बनाने लगी ओसारे देवर जी।

एक किस्से में काम के दौरान व्यवधान की सजा बतौर गौरैया के पैरों में लुहार द्वारा बेड़ी डालने की बात कही जाती है। गौरेया के लिए प्रचलित एक अन्य कहानी में चियां-म्यांरी (चूजे-मां) कुदुरमाल (कबीरपंथियों का प्रमुख केन्द्र) मेला के बजाय भांटा बारी (बैगन की बाड़ी) पहुंच कर दुर्घटनाग्रस्त होते हैं और किस्से के साथ गीत में इसकी मार्मिकता बयान होती है। पंचतंत्र की गौरैया के अंडे मदमत्‍त जंगली हाथी के कारण गिर कर फूट जाते हैं, तब वह विलाप तो करती है, लेकिन कठफोड़वा, मक्‍खी और मेंढक की मदद से बदला भी लेती है।

गौरैयों की बात में, गीतफरोश और सन्‍नाटा वाले भवानी भाई की कविता ''चार कौए उर्फ़ चार हौए'' की कुछ पंक्तियां देखते चलें-
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गए,
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गए।
हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में,
हाथ बांधकर खड़े हो गए सब विनती में।
हुकम हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगाएं,
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गाएं।
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को,
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को।

बताया जाता है कि 1958 में माओ त्से-तुंग, आजकल उच्चारण माओ जिदौंग है, ने गौरेयों से होने वाले फसल का नुकसान कम करने के लिए गौरैयों को ही कम कर देना चाहा, लेकिन इस चक्कर में गौरैयों के भोजन बनने से बच जाने से टिड्‌डे इतने बढ़े कि उनसे हुए नुकसान से अकाल की स्थिति भुगतनी पड़ी।

''गांवों में कहा जाता हैः जिस घर में गौरैया अपना घोंसला नहीं बनाती वह घर निर्वंश हो जाता है। एक तरह से घर के आंगन में गौरैयों का ढीठ होकर चहचहाना, दाने चुगकर मुड़ेरी पर बैठना, हर सांझ, हर सुबह हर कहीं तिनके बिखेरना, और घूम-फिरकर फिर रात में घर ही में बस जाना, अपनी बढ़ती चाहने वाले गृहस्‍थ के लिए बच्‍चों की किलकारी, मीठी शरारत और निर्भय उच्‍छलता का प्रतीक है।'' यह विद्यानिवास मिश्र के 'आंगन का पंछी' (और बनजारा मन) का उद्धरण है, जो निबंध, चीन में गौरैयों के साथ किए जा रहे उक्‍त सलू‍क के प्रति आक्रोश और व्‍यथा से उपजी रचना है। विश्‍वमोहन तिवारी ने अपनी पुस्‍तक में लिखा है कि ''घोंसला बनाने के लिए इसकी दृढ़ इच्‍छाशक्ति के सामने तो मौलाना अबुल कलाम आजाद भी हारे थे'' का आशय अब तक तलाश रहा हूं।

बीते माह उच्च स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति के जिक्र सहित समाचार आया कि फोन टॉवरों से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से मधुमक्खियां, तितलियां, कीट और गौरेया गायब हो गई हैं। वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल की हीरक जयंती के उपलक्ष्य में रायपुर में आयोजित कार्यक्रम के दौरान 8 जनवरी को उन्‍होंने बातचीत में कहा कि हमने अपने घर के खिड़की-दरवाजों को जाली से इस तरह बंद कर लिया है कि मच्छर भी न घुस सके, फिर गौरैया कैसे घर में प्रवेश करे (पंछी भी पर न मार सके)।

25 अप्रैल 2003 को इंडियन हिस्टारिकल रेकार्ड्‌स कमीशन के 58वें सत्र के उद्‌घाटन अवसर पर छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्‍यमंत्री के उद्‌बोधन का समापन वाक्य था- 'देश का तीसरा गर्म शहर रायपुर में आपका गर्मजोशी से स्वागत करता हूं।' प्रदूषण में भी यह शहर अव्वल ही न हो, होड़ में तो जरूर होगा। इस गरम, प्रदूषित शहर के इतिहास में सन 1938 की एक रिपोर्ट में यहां संग्रहालय भवन में अपरिमित गौरैयों का प्रवेश परेशानी का सबब बताया गया है।
सन 1875 मे निर्मित संग्रहालय भवन

चटका पर चटका (संस्‍कृत में चिडि़या या गौरैया के लिए यही शब्‍द है, रायगढ़ के उड़ीसा सीमावर्ती झारा इसे चोटिया कहते हैं) यानि गौरैया पर क्लिक करें और देखें गत वर्ष से तय 20 मार्च, गौरैया दिवस के बारे में। हरेली पर चतुर्दिक हरियाली और दीपावली पर दीपों की रोशनी होती है, धन-धान्‍य से घर भरा हो तो नवाखाई और छेरछेरा, रंगों से सराबोर होली। लेकिन दिवस मनाने की अनिवार्य शर्त की तरह कमी और संकट का सयापा करना औपचारिकता बन गया है इसलिए ये 'दिवस', त्यौहार से भिन्न विलाप पर्व बन जाते हैं। अब हम क्या करें, गौरैया कम होने का रोना कैसे रोएं, कैसे हो इस दिवस की ऐसी औपचारिकता का निर्वाह। ये देखिए, शिवमंगल सिंह सुमन के शब्‍दों में 'मेरे मटमैले आंगन में फुदक रही गौरैया' या बच्‍चन जी के 'नीड़ का निर्माण फिर', 'ए‍क दूजे के लिए' और 'एक चिडि़या, अनेक चिडि़या' वाले मेरे इर्द-गिर्द के दृश्य।
इस शहर रायपुर में तो गौरैया बहुतायत थीं, हैं और मेरा विश्वास है कि रहेंगी। सो हम इस 'दिवस' को त्‍यौहार जैसा ही मान रहे हैं और क्‍यों न रायपुर को गौरैया नगर मान लिया जाए।

पोस्‍ट आपको पसंद आए तो श्रेय उन ढेरों (अब्‍लॉगर) लोगों का, जिनके पास ऐसी 'अनुत्पादक' सूचनाओं का खजाना होता है, इनमें कुछेक से मेरा संपर्क-संवाद बना रहता है। इनमें रायपुर निवासी और अब भोपालवासी अग्रज आदरणीय बाबूदा (श्री नंदकिशोर तिवारी) भी हैं, जिन्‍होंने तत्‍काल संवाद के इस युग में पत्र लिखकर आशीर्वाद-स्‍वरूप कुछ महत्‍वपूर्ण संदर्भ डाक से नहीं, बल्कि हस्‍ते भेजा। इनलोगों से मिलते रहने पर अपनी अल्‍पज्ञता के साथ वेब की सीमाओं का भान होता रहता है। यह भी लगता है कि सब हमारे ही जिम्‍मे नहीं, बड़े-बुजुर्ग भी हैं। ऐसे सुहृद, मेरी ललचाई नजर को पहचान लेते हैं और मुखर हो कर, घर-आंगन से दुनिया-जहान तक के किस्से सुनाने लगते हैं।

Wednesday, January 12, 2011

गिरोद

यही है इस कथा का शीर्षक और गांव का नाम- गिरोद। किसी छोर से शुरू हो सकने वाली और जहां चाहे रोकी जा सकने वाली कथा। देखिए किस तरह। दस साल पुराने छत्तीसगढ़ विधान सभा से पांच किलोमीटर के दायरे में। लोहा कारखाने के पास, पंद्रह साल से जिसकी भारी मशीनों का तानपूरा यहां जीवन-लय को आधार दे रहा है। कोई बारह सौ साल पुराने अवशेष युक्त गांव का अब यही पता है। वैसे गांव का स्थानीय उच्चारण है- गिरौद या गिरउद। आपका हार्दिक स्वागत है।
गांव के एक छोर पर तालाब के किनारे कोई डेढ़ सौ साल पुराना मंदिर है, जिसका निर्माण गांव प्रमुख दाऊ परिवार ने कराया। पत्थर की नक्काशी वाले स्तंभों और प्रवेश द्वार वाला स्थापत्य मराठा शैली का नमूना है।
खजुराहो में मिथुन मूर्तियों की बहुलता है और प्रसिद्धि यहां तक कि ऐसी कलाकृतियों को खजुराहो शैली नाम दे दिया जाता है, लेकिन ऐसे अंकन कमोबेश मंदिरों में दिख जाते हैं। माना जाता है कि इससे संरचना पर नजर नहीं लगती, बिजली नहीं गिरती, सचाई राम जाने। यह मंदिर भी इससे अछूता नहीं और इन पर नजर बरबस पड़ती है।
इस शिव मंदिर के पास ठाकुरदेव की पूजा-प्रतिष्‍ठा की परम्परा निर्वाह के लिए कमल वर्मा ने बइगाई का कोर्स किया है, गुरु सूरदास तिखुर वर्मा से प्रशिक्षण लिया, जिसके आरंभ के लिए हरेली अमावस्या और गुरु द्वारा सफल मान लिये जाने पर दीक्षांत के लिए नागपंचमी अथवा ऋषिपंचमी तिथि निर्धारित होती है।
समष्टि लोक के व्यवहार में विद्यमान और प्रचलित टोना-टोटका, रूढ़ि माना जा कर कभी प्रताड़ित भी होता है। दुर्घटनावश बनी परिस्थितियों के चलते अंधविश्वास कह कर तिरस्कार योग्य मान लिये जाने से अक्‍सर इसके पीछे अनवरत गतिमान व्यवस्था ओझल रह जाती है। इसके साथ चर्चा 'सवनाही छेना' की यानि अभिमंत्रित गोइंठा-कंडा, जो गांव बइगा सावन में शनिवार की रात पूजा कर, रविवार को घरों के दरवाजे पर लटका जाता है, ताकि अवांछित-अनिष्ट प्रवेश न कर सके।
घर के दरवाजे पर पहटनिन हर साल हांथा लिखती है। पहटनिन यानि पहटिया-गोसाइन और पहटिया यानि रात बीतते और पहट (प्रखेट ? 'खेटितान' अर्थात्- वैतालिक, स्तुतिपाठक जो गृहस्वामी को गा बजा कर जगाता है) होते रोजमर्रा की पहली दस्तक देने वाला ठेठवार। पहट-मुंदियरहा, सुकुवा, कुकराबास, झुलझुलहा, पंगपंगाए बेरा, भिनसरहा, मुंह-चिन्‍हारी तब होता है परभाती, बिहनिया, रामे-राम के बेरा। हांथा के साथ कहीं शुभ-लाभ लिखा है और इन दिनों जनगणना का क्रमांक भी। हांथा के लिए अवसर होता है देवारी यानि बूढ़ी दीवाली, मातर अर्थात्‌ भैया दूज, जेठउनी एकादशी से कार्तिक पुन्नी तक। फिर इसी से मिलती-जुलती आकृतियां अगहन के बिरस्पत पूजा में चंउक बन कर आंगन में उतर आती हैं।

गांव का मुख्‍य हिस्सा है, दाऊ का निवास, गुड़ी और चंडी माता का चबूतरा। नवरात्रि पर जोत जलाने की परम्परा है और जिस तरह गिनती की शुरुआत एक के बजाय 'राम' बोल कर की जाती है, उसी तरह पहली ज्योति मां चंडी के नाम पर बिठाई जाती है।
चंडी दाई में ग्राम देवता की परम्परा और पुरातत्व घुल-मिल गए हैं यानि चंडी के रूप में पूजित सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी की महिषमर्दिनी के साथ इतनी ही पुरानी प्रतिमाएं और स्थापत्य खंड भी हैं। चबूतरे पर पूजा के लिए तो दिन-मुहूरत होता है, लेकिन यह गुलजार रहता है, चिड़ी के गुलामों, पान की मेमों, ईंट के बादशाहों, हुकुम के इक्कों के साथ पूरी वाबन परियों से मानों देवालय के महामंडप में देवदासियों का नर्तन हो रहा हो और चौपड़ की बाजियों में असार संसार के मोहरे, तल्लीन साधक और उनके साथ सत्संगी से दर्शक भी जमा हैं। गांव के प्रवेश द्वार पर लीला मंच है और एक कमरे में बाना-सवांगा, वस्त्राभूषण सहित भजन-कीर्तन का बाजा-पेटी सरंजाम भी।
बुजुर्ग याद करते हैं, रेल लाइन के किनारे का डीह, यानि जहां कभी गांव आबाद था और बाद में वहीं संतरा, आम, केला, नीबू, अमरूद का मेंहदी की बाड़ वाला फलता-फूलता बगीचा था। लेकिन पिछले डेढ़-दो सौ सालों में धीरे-धीरे यहां, दो किलोमीटर दूर खिसक आया, आकर्षण बना वही शिव मंदिर और शायद कारण था सड़क और रेल से बदला कन्टूर, खेत और पानी। पुराना पचरी तालाब, जिसके बीच में चौकोर सीढ़ीदार कुंड बताया जाता है।
सन 1900 में पूरे छत्तीसगढ़ में महाअकाल का जिक्र होता है। इस साल मार्च माह में रायपुर जिले को 56 कार्य प्रभार क्षेत्र (चार्ज) में विभाजित कर राहत कार्य से लगभग 2 लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराए जाने की बात पढ़ने को मिली थी, जिसमें एक हजार से भी अधिक पुराने तालाबों को दुरुस्त कराया गया था। यह अप्रत्याशित अभिलिखित मिल गया यहां, चार्ज नं.8 के काम का प्रमाण। लोग याद करते हैं- 'बड़े दुकाल पहर के, बिक्टोरिया रानी के सुधरवाए तलाव'

बात करते-करते पता लग रहा है गांव का पूरा इतिहास, व्यवस्थित और कालक्रमानुसार। काल निर्धारण के लिए शब्द इस्तेमाल हो रहे हैं- छमासी रात, पण्डवन काल, सतजुगी, बिसकर्मा के, रतनपुर राज, भोंसला, अंगरेज ...। इसे ईसा की सदियों में बिठाने के लिए पुरातत्व-प्रशिक्षित, मेरे ज्यादा जोर दे कर सवाल पूछने पर, बाकी सब लाजवाब हैं शायद मैं उनकी यह भाषा नहीं समझ पा रहा हूं और वे मेरी। लेकिन अब तक मौन रहा सियनहा बूझ रहा है और सबको समझ में आ जाने वाली बात धीरे से कहता है 'तइहा के गोठ ल बइहा ले गे'।

पुराना तालाब, फिर बना मंदिर, जिसके बाद दाऊ का घर बना, मराठा असर वाली बुलंद इमारत। लगता है इस मकान में न जाने क्या-क्या होगा। अजनबी से आप, गांव में अकारण तो आए नहीं हैं, यह तो गंवई-देहातियों का काम है, शहरी कामकाजियों का नहीं। लेकिन गांव में कुछ लेने-देने नहीं आए हैं, यह भरोसा बनते ही, आत्मीयता का सोता अनायास फूट पड़ता है।
घर का दरवाजा खुला है, बेरोक-टोक, स्वयं निर्धारित मर्यादा पालन की देहाती शिष्टता निभाते, बैठक में पहुंचने पर तस्वीरें टंगी दिखती हैं। पहली फोटो दाऊ गणेश प्रसाद वर्मा की, चेहरा बदल जाए तो सब कुछ, हम-आप सब की पिछली पीढ़ी जैसा। दूसरी तस्वीर है, उनके पिता दानवीर दाऊ भोलाप्रसाद वर्मा की।
पचरी तालाब के शिलालेख के बाद दूसरा अप्रत्याशित हासिल यह तस्वीर है। रायपुर 'कुरमी बोर्डिंग' के साथ जुड़ा 'भोला' कौन है, जिज्ञासा रहती थी। पता लगा, दाऊ भोलाप्रसाद वर्मा यानि वह दानवीर, जिसने कोई 80 साल पहले, छुईखदान बाड़ा कहलाने वाले क्षेत्र का 28 हजार वर्गफुट हिस्सा खरीद कर दान किया था, यह भवन छत्तीसगढ़ की अस्मिता से जुड़े मुद्‌दों सहित राज्य आंदोलन-बैठकों के प्रमुख केन्द्रों में एक रहा है।
राज्य केन्द्र, राजधानी रायपुर से यहां आने पर लग रहा है कि यह गांव शाखा और पत्ते नहीं, बल्कि जड़ें ही यहां हैं। सो, जमीन पा लेना आश्वस्त कर रहा है और याद भी दिला रहा है, ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं ...

गुफ्तगूं :

अब कभी-कभी स्वयं से ही ईर्ष्‍या होती है कि ज्यादातर पिछला समय गांव-कस्बों में बीता। हजारों गांवों में गया, ज्यादातर में मात्र एक बार। अकारण ही आ गया था यहां, फिर भी 'वहां गए क्यों थे' के जवाब का दबाव हो तो कहूंगा 'किस्सा' के लिए। दादी-नानी तो रही नहीं, जो किस्से सुनाएं और हम रह गए बच्चे, अपने सच्चे भरोसों पर संदेह होने लगता है तो खुद से 'कथा-किस्से' का जुगाड़ ही उपाय रह जाता है। इस जन्मना-कर्मणा का हासिल कि हर गांव कथा होता है, जिसे कुछ हद तक पढ़ना सीखा है मैंने। जी हां, कोई भी गांव मेरे लिए कथा की तरह खुलता है और पाठक के साथ पात्र बनने को आमंत्रित करता है तो गांव-कथा में गाथा-बीज भी अंकुराने लगता है। ये भी कोई कथा है ..... आप न माने, मुझे तो कथा, गाथा बनते दिख रही है। ..... कुछ साथी भी है, वापसी की जल्दी है। इसलिए चल खुसरो घर ...

गिरोद से छत्तीसगढ़ के महान संत बाबा गुरु घासीदास जी याद आ रहे हैं, इसी नाम के एक अन्य ग्राम में उनकी पुण्‍य स्‍मृति है और जहां इन दिनों कुतुब मीनार से ऊंचा स्मारक 'जैतखाम' बन रहा है। पिछली सदी के एक और संत स्वामी आत्मानंद जी के नाम पर गांव में मनवा कुर्मी क्षत्रीय समाज रायपुर द्वारा संचालित अंग्रेजी माध्यम विद्यापीठ है। और भी कुछ-कुछ, बहुत कुछ ... । इस गाथा को शब्द बनने के पहले यहीं रोक ले रहा हूं, मध्यमा-पश्यन्ती स्तुति बना कर, अकेले पुण्य लाभ के लिए मन में दुहराते, अपनी खुदाई जो है।