बसंत पंचमी निकल गयी। वैलेंटाइन दिवस भी बस आना ही चाहता है। हमें लगा इस मौके पर कुछ न लिखा न तो क्या लिखा। लिहाजा लिखने बैठे मेरा मतलब बिस्तर पर लेटे तो अपना पुराना माल दिख गया। सोचा पहिले इसे आपको दिखा दें फ़िर कुछ आगे लिखा जाये।
यह लेख अभिव्यक्ति में ठीक दो साल पहिले प्रकाशित हो चुका है। हमने अपने ब्लाग पर पोस्ट किया कि नहीं यह देखने के लिये जब हमने सर्च करी तो पता चला कि यह हमारे ब्लाग पर तो नहीं लेकिन बनारसी भाई गौरव शुक्ला के यहां जस का तस विराजमान है। क्या इसी को कहते हैं – अंधे पीसें कुत्ते खायें? लेख हमारा है लेकिन छपा वो गौरव के ब्लाग पर पहिले है तो क्या मेरा यहां छापना यह चोरी कहलायेगा? कोई हमें बतायेगा?
ऐसे प्रशंसक भी कहां मिलते हैं भाई! जो आपकी रचनायें पढ़ें पसंद करें और उसको अपना समझें!
मिलना नारद का श्री श्री विष्णु महाराज से
विष्णु जी बिस्तर पर करवटें बदलते-बदलते थक गए थे। उनके उलटने-पुलटने से शेषनाग भी उसी तरह फुफकार रहे थे जिस तरह चढ़ाई पर चढ़ते समय कोई पुराना ट्रक ढेर सारा धुआँ छोड़ता है। अचानक सामने से नारद जी चहकते हुए आते दिखे। नारद जी को देखकर विष्णु जी बोले, ”क्या बात है नारद! तुम्हारा चेहरा तो किसी टीवी चैनेल के एंकर की तरह चमक रहा है।
नारद जी बोले, ”प्रभो आप भी न! मसख़री करना तो कोई आपसे सीखे। कितने युग बीत गए कृष्णावतार को लेकिन आपका मन उन्हीं बालसुलभ लीलाओं में रमता है।”
नारद जी के मुँह से ‘आप भी न!’ सुनकर विष्णु जी को अपनी तमाम गोपियाँ, सहेलियाँ याद आ गईं जो उनकी शरारतों पर पुलकते हुए उन्हें ‘आप भी न’ का उलाहना देती थीं।
”हाँ, नारद सच कहते हो। आख़िर रमें भी क्यों न। मेरा सबसे शानदार कार्यकाल तो कृष्णावतार का ही रहा। उस दौर में कितना आनंद किया मैंने। मेरे भाषणों की एकमात्र किताब -गीता भी, उसी दौर में छपी। मेरा मन आज भी उन्हीं स्मृतियों में रमता है। बालपन की शरारतों को याद करके मन उसी तरह भारी हो जाता है जिस तरह किसी भी प्रवासी का मन होली-दीवाली भारी होने का रिवाज़ है। विष्णुजी पीतांबर से सूखी आँखें पोछने लगे।
यह ‘अँखपोछवा’ नाटक देखना न पड़े इसलिए नारद जी नज़रें नीची करके क्षीरसागर में, बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, का सजीव प्रसारण देखने लगे।
विष्णु जी ने अपना नाटक पूरा करने के बाद जम्हुआई लेते हुए नारद जी से कहा, ”और नारद जी कुछ नया ताज़ा सुनाया जाय। न हो तो मृत्युलोक का ही कथावाचन करिए। क्या हाल हैं वहाँ पर जनता-जनार्दन का?”
स्वागत है ऋतुराज तुम्हारा
नारद जी गला खखारकर बिना भूमिका के शुरू हो गए-
”महाराज पृथ्वीलोक में इन दिनों फरवरी का महीना चल रहा है। आधा बीत गया है। आधा बचा है। वह भी बीत ही जाएगा। जब आधा बीत गया तो बाकी आधे को कैसे रोका जा सकता है! हर तरफ़ बसंत की बयार बह रही है। लोग मदनोत्सव की तैयारी में जुटे हैं। कविगण अपनी यादों के तलछट से खोज-खोजकर बसंत की पुरानी कविताएँ सुना रहे हैं। कविताओं की खुशबू से कविगण भावविभोर हो रहे हैं। कविताओं की खुशबू हवा में मिलकर के नथुनों में घुसकर उन्हें आनंदित कर रही है। वहीं कुछ ऊँचे दर्जे की खुशबू कतिपय श्रोताओं के ऊपर से गुज़र रही हैं। ये देखिए ये कविराज ने ये कविता का ‘ढउआ’ (बड़ी पतंग) उड़ाया तथा शुरू हो गए-
”स्वागत है ऋतुराज तुम्हारा, स्वागत है ऋतुराज।
ऋतुराज के मंझे में वे आगे साज/ बाज /आज/ काज /खाज /जहाज़ की सद्धी (धागा) जोड़ते हुए ढील देते जा रहे हैं। उधर से दूसरी कविता की पतंग उड़ी है जिनमें बनन में बागन में बगर्यो बसंत है के पुछल्ले के साथ दिगंत/संत/महंत/अनंत/कहंत/हंत/दंत घराने का धागा जुड़ा है। पतंग-ढउवे का जोड़ा क्षितिज में चोंच लड़ा रहा है। दोनों की लटाई से धागे की ढील लगातार मिल रही थी तथा वे हीरो-हीरोइन की तरह एक दूसरे के चक्कर काट रहे हैं। दोनों एक दूसरे से चिपट-लिपट रहे हैं। गुत्थमगुत्था हो रहे हैं। तथा सरसराते हुए फुसफुसा रहे हैं- हम बने तुम इक दूजे के लिए।
और प्रभो, मैं यह क्या देख रहा हूँ। दोनों के सामने एक पेड़ की डाल आ गई है। वे पेड़ की डाल में फँस के रहे गए हैं। पेड़ की डाल कुछ उसी तरह से है जिस तरह जाट इलाके का बाप अपने बच्चों को प्रेम करते हुए पकड़ लेने पर फड़फड़ाता है तथा उनको घसीट के पंचायत के पास ले जाता है ताकि पंचायत से न्याय कराया जा सके।”
विष्णु जी बोले, ”यार नारद ये क्या तुम क्रिकेट की कमेंट्रीनुमा बसंत की कमेंट्री सुना रहे हो? ये तो हर साल का किस्सा है। कुछ नया ताज़ा हो तो सुनाओ। ‘समथिंग डिफरेंट’ टाइप का।”
‘वैलेंटाइन डे’ के किस्से
नारद जी ने घाट-घाट का पानी पिया था। वे समझ गए कि विष्णुजी ‘वैलेंटाइन डे’ के किस्से सुनना चाह रहे थे। लेकिन वे सारा काम थ्रू प्रापर चैनेल करना चाहते थे। लिहाज़ा वे विष्णुजी को खुले खेत में ले गए जिसे वे प्रकृति की गोद भी कहा करते थे।
सरसों के खेत में तितलियाँ देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरह मंडरा रहीं थीं। हर पौधा तितलियों को देखकर थरथरा रहा था। भौंरे भी तितलियों के पीछे शोहदों की तरह मंडरा रहे थे। आनंदातिरेक से लहराते अलसी के फूलों को बासंती हवा दुलरा रही थे। एक कोने में खिली गुलाब की कली सबकी नज़र बचाकर पास के गबरू गेंदे के फूल पर पसर-सी गई। अपना काँटा गेंदे के फूल को चुभाकर नखरियाते तथा लजाते हुए बोली, ”हटो, क्या करते हो? कोई देख लेगा।”
गेंदे ने कली की लालिमा चुराकर कहा, ”काश! तुम हमेशा मुझसे ऐसे ही कहती रहती- छोड़ो जी कोई देख लेगा।”
कली उदास हो गई। बोली, ”ऐसा हो नहीं सकता। हमारा तुम्हारा कुल, गोत्र, प्रजाति अलग है। हम लोग एक दूजे के नहीं हो सकते। हम तुम दो समांतर रेखाओं की तरह हैं जो साथ-साथ चलने के बावजूद कभी नहीं मिलती।
पास के खेत में खड़े जौं के पौधे की मूँछें (बालियाँ) गेंदे – गुलाब का प्रेमालाप सुनते हुए थरथरा रहीं थीं। खेत में फसल की रक्षा के लिए खड़े बिजूके के ऊपर का कौवा भी बिना मतलब भावुक होकर काँवकाँव करने लगा।”
नारद जी इस प्रेमकथा को आगे खींचते लेकिन विष्णुजी को जम्हाई लेते देख गीयर बदल लिया तथा वैलेंटाइन डे के किस्से सुनाने लगे।
”महाराज आज पूरे देश में ‘वैलेंटाइन डे’ की छटा बिखरी है। जिधर देखो उधर वैलेंटाइन के अलावा कुछ नहीं दिखता। सब तरफ़ इलू-इलू की लू चल रही है तथा वातावरण में भयानक गर्मी व्याप्त है। भरी फरवरी में जून का माहौल हो रहा है। लोग अपने कपड़े उतारने उसी तरह व्याकुल हैं जिस तरह अमेरिका तमाम दुनिया में लोकतंत्र की स्थापना को व्याकुल रहता है।
सारे लोग अपने-अपने प्यार का स्टॉक क्लीयर कर रहे हैं। जो सामने दिखा उसी पर प्यार उड़ेले दे रहे हैं। गलियों में, बहारों में, छतों में, दीवारों में, सड़कों में, गलियारों में, चौबारों में प्यार ही प्यार अंटा पड़ा है। हर तरफ़ प्यार की बाढ़-सी आ रखी है। टेलीविज़न, इंटरनेट, अख़बार, समाचार सब जगह प्यार ही प्यार उफना रहा है। तमाम लोगों के प्यार की कहानियाँ छितरा रहीं हैं। टेलीविज़न का कोई चैनेल शिव सैनिक के प्यार का अंदाज़ बता रहा है तो इंटरनेट की कोई साइट लालू यादव-राबड़ी देवी की प्रेमकथा बता रहा है। पूरा देश सब कुछ छोड़कर कमर कसकर ‘वैलेंटाइन डे’ मनाने में जुट गया है। वैलेंटाइन के शंखनाद से डरकर अभाव, दैन्य, ग़रीबी तथा तमाम दूसरे दुश्मन सर पर रखकर नौ दो ग्यारह हो गए हैं।”
कार्य प्रगति पर है
विष्णु जी बोले, ”लेकिन यह ‘वैलेंटाइन डे’ हमने तो कभी नहीं मनाया। नारद जी के पास जवाब तैयार था, ”महाराज, आपके समय की बात अलग थी। समय इफ़रात था आपके पास। जब मन आया प्रेम प्रदर्शन शुरू कर दिया। लताएँ थीं, कुंज थीं, संकरी गलियाँ थीं। जहाँ मन आया, ‘कार्य प्रगति पर है’ का बोर्ड लगाकर रासलीला शुरू कर दी। जितना कर सके किया बाकी अगले दिन के लिए छोड़ दिया। कोई हिसाब नहीं माँगता था। साल भर प्यार की नदी में पानी बहता था। लेकिन आज ऐसा नहीं हो सकता। प्यार की नदियाँ सूख गईं हैं। अब सप्लाई टैंकों से होती है। साल भर इकट्ठा किया प्यार। ‘वैलेंटाइन डे’ वाले दिन सारा उड़ेल दिया। छुट्टी साल भर की। एक दिन में जितना प्यार बहाना हो बहा लो। ये थोड़ी की सारा साल प्यार करते रहो। दूसरे ‘डे’ को भी मौका देना है। फादर्स डे, मदर्स डे, प्रपोज़ल डे, चाकलेट डे, स्लैप डे (तमाचा दिवस) आदि-इत्यादि। जिस रफ़तार से ‘डेज़’ की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ रही है उससे कुछ समय बाद साल में दिन कम होंगे, ‘डे’ ज़्यादा। मुंबई की खोली की तरह एक-एक दिन में पाँच-पाँच सात-सात ‘डेज़’ अँटे पड़े होंगे।”
विष्णु जी बंबई का ज़िक्र सुनते ही यह सोच कर घबरा गए कि कोई उनका संबंध दाउद की पार्टी से न जोड़ दे। वे बोले, ”कैसे मनाते हैं ‘वैलेंटाइन दिवस’?”
नारद जी बोले, ”मैंने तो कभी मनाया नहीं भगवन! लेकिन जितना जानता हूँ बताता हूँ। लोग सबेरे-सबेरे उठकर मुँह धोए बिना जान-पहचान के सब लोगों को ‘हैप्पी वैलेंटाइन डे’ बोलते हैं। हैप्पी तथा सेम टू यू की मारामारी मची रहती है। दोपहर होते-होते तुमने मुझे इतनी देर से क्यों किया। जाओ बात नहीं करती की शिकवा शिकायत शुरू हो जाती है। शाम को सारा देश थिरकने लगता है। नाचने में अपने शरीर के सारे अंगों को एक-दूसरे से दूर फेंकना होता है। स्प्रिंग एक्शन से फेंके गए अंग फिर वापस लौट आते हैं। दाँत में अगर अच्छी क्वालिटी का मंजन किया हो तो दाँत दिखाए जाते हैं या फिर मुस्कराया जाता है। दोनों में से एक का करना ज़रूरी है। केवल हाँफते समय, सर उठाकर कोकाकोला पीते समय या पसीना पोंछते समय छूट मिल सकती है।
तमाम टेलीविज़न तरह-तरह के सर्वे करते हैं। जैसे इस बार सर्वे हो रहा है। देश का सबसे सेक्सी हीरो कौन है-शाहरुख खान, आमिर खान, सलमान खान या अभिषेक बच्चन। हीरो अकेले नहीं न रह सकता लिहाज़ा यह भी बताना पड़ेगा- सबसे सेक्सी हीरोइन कौन है- रानी मुखर्जी, ऐश्वर्या राय, प्रीति जिंटा या सानिया मिर्ज़ा। देश का सारा सेक्स इन आठ लोगों में आकर सिमट गया है। अब आपको एस.एम.एस. करके बताना है कि इनमें सबसे सेक्सी कौन है। आपको पूरी छूट है कि आप जिसे चाहें चुने लेकिन इन आठ के अलावा कोई और विकल्प चुनने की आज़ादी नहीं है आपके पास। करोड़ों के एस.एम.एस. अरबों के विज्ञापन बस आपको बताना है कि सबसे सेक्सी जोड़ा कौन है?
चुनना चार में ही है। ऐसी आज़ादी और कहाँ? जो जोड़ा चुना जाएगा उसका हचक के प्रचार होगा। प्रचार के बाद दुनिया के सबसे जवान देश के नौजवान लोग देश के इस सबसे सेक्सी जोड़े को अपने सपनों में ओपेन सोर्स प्रोग्राम की तरह मुफ़्त में डाउनलोड करके अपना काम चलाएँगे।
कंप्यूटर की भाषा से विष्णु जी को उसी तरह अबूझ लगती है जिस तरह क्रिकेटरों, हिंदी सिनेमा वालों को हिंदी। वे झटके से बोले, ”अच्छा तो नारद अब तुम चलो। मैं भी चलता हूँ, लक्ष्मी को हैप्पी ‘वैलेंटाइन डे’ बोलना है।”
नारद जी टेलीविज़न पर टकटकी लगाए हुए सर्वे में भाग लेने के लिए अपने मोबाइल पर अंगुलियाँ फिराने लगे। वोटिंग लाइन खुली थीं। आप भी काहे को पीछे रहें?
मेरी पसंद
एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
बोल है कि वेद की ऋचायें
सांसों में सूरज उग आयें
आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.
गंध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में देह बोलने लगी
पूजा का एक जतन हो गया.
पानी पर खीचकर लकीरें
काट नहीं सकते जंजीरें
आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं
अग्निबिंदु और सघन हो गया.
एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
डा.कन्हैयालाल नंदन
इस पोस्ट की सारी फोटो फ़्लिकर से साभार। लेख और सबसे ऊपर वाला फ़ोटॊ अभिव्यक्ति से है -साभार।
पानी पर खीचकर लकीरें
काट नहीं सकते जंजीरें
आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं
अग्निबिंदु और सघन हो गया.
” nyaa hai ya puraana hai jo bhi hai shaandara…”स्वागत है ऋतुराज तुम्हारा wala picture mun ko bhaa gya….sundr”
Regards
क्या कहूँ……….आधुनिक वसंत का जबरदस्त आकलन है.एकदम laaaaaaajjjjjjjaaaaaaaaawaaaaaaaab !
आपकी पसन्द बहुत सुन्दर है..
पढ़ कर लगा वसंत और वेलेंटाइन डे आ ही गया है और हम बेखबर पड़े थे…
बहुत ही ज्यादा लिख देते हैं आप. बाद में पढ़ूंगा. आपके पास लिखने में धैर्य नहीं, पर पढ़ने में धैर्य की जरूरत तो है ही मुझे.
यह टिप्पणी इसलिये कर रहा हूं कि ’नन्दन’ जी की रचना बहुत ही पसन्द आयी मुझे -
“एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.”
धन्यवाद
आपने पद्माकर की याद दिला दी और होठ बरबस ही बुदबुदा उठे -
कूलनि में केलि में कछारन में कुंजन में क्यारिन में कलिन कलीन किल्क्न्त हैं ,,,,
कहें पद्माकर परागन में पातहूँ में पानन में पीक में पलाशन पगंत हैं
द्वार में दिशान में दुनीं में देश देशन में …….
वीथिन में ब्रज में बगरयो बसंत है !
और बलि जाऊं ऋतुराज के आगमन में बगींचों और खेतों में कलियों फूलों के जरिये फुरसतिया बसंत आख्यान का !
आप ने ब्लाग बसंत ला दिया है -कामदेव ने पञ्च पुष्प वान का संधान कर दिया है -कैसा साम्य है वह भी अनंग है आभासी है और यह ब्लॉग भी -दोनों कैसे ब्लेंड हो रहे हैं .आपने संक्रामकता फैला दी है -मैं तो अभी भी चुप बैठा था ! पर यहाँ तो बसंत ने हुँकार भर दी है .
मुबारक !
दो साल सही..मगर बड़ा ताजा सा लेख लगा आज फिर.
गौरव महाराज को सूचना तो दे ही देना चाहिये भई.
मेरी पसंद वाली रचना पढ़कर बहुत आनन्द आया.
सही ठेले है शुक्ल जी ….उठा कर कोपी -पेस्ट कर दी आपने …भगवान् ऐसे फेनेवा सबको दे…..पर इस कॉपी-पेस्ट से हम जैसो का भला हो गया ..सुंदर सुंदर फोटू देखने को मिली ओर बसंत्नुमा पोस्ट ,वैसे नारदजी ओर विष्णु जी से कहियेगा बसंत के मौसम में जरा नीचे न उतरे तो अच्छा है….किसी मांजे में अटक गए तो मुश्किल होगी न…..
अब समझ में आया दाँत में अगर अच्छी क्वालिटी का मंजन किया हो तो दाँत दिखाए जाते हैं कि आप बार बार दातों कि चर्चा क्यों शामिल करते हैं ….. जनाब!!!
वैसे क्या विष्णु जी का वैलेंटाइन अवतार नहीं हो सकता है ……. मन तो करता होगा स्प्रिंग टाइप शरीर फेकने का?????
बहुत खूब…आप भी मज़े लेने से नहीं चूक रहे…अंधा पीसे, कुत्ता खाए….
अब लिख कर भूल जाएंगे तो भी लोग तो तैयार बैठे हैं ….
सरसों के खेत में तितलियाँ देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरह मंडरा रहीं थीं। हर पौधा तितलियों को देखकर थरथरा रहा था। भौंरे भी तितलियों के पीछे शोहदों की तरह मंडरा रहे थे। आनंदातिरेक से लहराते अलसी के फूलों को बासंती हवा दुलरा रही थे।
वाह क्या काव्य रूढि़यॉं रची हैं।
बहुत खूब इस अलग से विशय और चुटकी के लिये बधाई
एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
——–
कविता तो मसकने का मन कर रहा है। उसके साथ की फोटो आप रख लें। कविता हमें दे दें!
गुरु देव
जा बात सच्ची है कै रचना-”कालजयी”भई
कित्ती पढ हो—————– !!……. नई की नई
इतै नई छपी उतै छप गयी का फर्क
अब देख्यो सुकुल भैया जे जो काग…जी…
कागी-भौजी से चूंच लड़ा रए हैं अच्छो लगो
मनो साँची बात जा है कै
पिछले साल वैलें टाईन उर्फ़ विलेनटाइम
पे कागी-भौजी कोऊ और हथी !!
पिछली साल वारी कागी-भौजी को आवेदन हमाए दफ्तर में
दाखिल है हम घरेलू हिंसा क़ानून में हमें “संरक्षण-अधिकारी जो बनाओ है “
‘ऐसे प्रशंसक भी कहां मिलते हैं भाई! जो आपकी रचनायें पढ़ें पसंद करें और उसको अपना समझें’ – मुझे भी अक्सर इस तरह प्रसन्नता करने का मौका मिलता है।
बट..
ऎवेंई..
बाई द वे…
या जो कुछ भी समझें, आज तो मैं
मंदी का कैसा हो बसंत ..
यह तलाशने निकला हूँ, जी..
आप भी कृपया मदद करें ।
बाद में पूरी पोस्ट पढ़ कर टिप्पणी होगी, जी ।
अभी नेट पर फ़ुरसतियाने पर स्टे-आर्डर है ।
ये बंसत पुराण भी बहुत बड़िया रहा। एक एक वाक्य आनंदित करता हुआ। गेंदे और गुलाब की प्रेम कहानी, कौओं की बेमतलब की कांव कांव। प्रकृति की इस छटा से रोमांस सुनामी के जैसे उमड़ा पड़ रहा है। सारा वातावरण बसंतमय हो रहा है।
लेकिन आप का ट्रेडमार्क भी है। हंसी हंसी में गहरी बात कह जाना। हां आजकल डे ज्यादा हो गये है और दिन कम। पोस्ट जरा लंबी हो गयी है लेकिन 5/5…।:) ऐसी पोस्ट तो उड़ायी ही जानी थी, गौरव का तारीफ़ करने का अंदाज पसंद आया, अब जब भी लिखने को कुछ न होगा तो पता है कहां रेड मारनी है…।:)
बहुत बढिया जी. बसंत आ गया और हमे खबर ही नही. लगता है अब तो विष्णु जी भी बसंत भुलकर वेलेंटाईन डे के फ़ांदे मे फ़ंस गये हैं.
रामराम.
बहुत लाजवाब पोस्ट. हमने तो आज पहली बार ही पढी. बिल्कुल वही मजा.
और बसंत आने की याद दिलाई बहुत धन्यवाद.
लगता है विष्णु जी भी मदनोत्सव को भुलाकर वेलेंटाईन डे के पीछे लग लिये हैं.:)
रामराम.
बहुत बहुत सुंदर! पूरा वसंत उतार दिया।
पर वसंत में विष्णु अपनी ससुराल क्षीर सागर में नहीं होते।
एक नाम अधरों पर आया………..
और अब वो ‘पुराना माल’ हो गया? इसे ही न कहते हैं हरजाई
फुरसतिया जी लिख भये, दास्तान-ए-वसन्त।
लोट पोट पढ़कर हुए, मजा न पाये अन्त ॥
मजा न पाये अन्त, ताजगी बनी-ठनी है।
वासन्ती मदमस्त भ्रमर की खूब बनी है॥
सुन मन रमता जाय पगी है रस में बतिया।
मुग्ध हुए सिद्धार्थ पोस्ट पढ़कर फुरसतिया॥
आदरणीय शुक्ल जी
भूत, वर्तमान और भविष्य की दुनिया को समेटकर, नारद से लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न छोड़ते हुए , सबको लपेटे हुए आपका आलेख “वनन में बागन में बगर्यो बसंत है… ” बड़ा अच्छा लगा .
- विजय
हम चोरी का माल नहीं पढ़ते जी..
आप क्या समझते हैं, बसंत कह कर कुछ भी पढ़वा देंगे? हम तो उहाँ जा रहे हैं पढने जहाँ से आपने चुराया है..
ई मेरी पसन्द के नीचे एक फ़ोटुवा और एक कविता दिये है , कविता की बात तो समझ में आई ,. ये फ़ोटुवा लगाने से पहले भाभी जी को दिखा चुके हैं ना ?
सुन्दर , सरस आनन्द के लिये धन्यवाद
दो साल पहले पढ़ा था, तब भी उतना ही मज़ा आया था जितना अब आया।
वाह साहब बहुत ज़ोरदार लिखा और आपकी पसंद की कविता तो लाजवाब है!
—
चाँद, बादल और शाम
ज्वाब नई त्वाडा!
likha achchha hai par padhne k liye bahut mehant karni padi.
इलू-इलू की लू कहीं ‘सावन के अंधे’ की तरह तो नहीं चल रही?
वाह वा ! घणा धांसू लिख्या है जी.
फोटुआ पे ज्ञान जी और अनूप भार्गव जी अचकचाए हुए हैं . ऊ का जाने आपके दिल की उमंग-तरंग को . आप तो जुवा मंडली को फोटुआ के सहारे ’कोबिता’ तक पहुंचाने का पुनीत कारज कर रहे हैं .
इसी प्रशंशक के कारण हमें ये पोस्ट पढने को मिली, आप तो भूल ही गए होंगे लिख कर मगर आप सच में बहुत उदार हैं…आपको गुस्सा नहीं आया…शायद बड़ा होना इसी को कहते हैं…क्षमा बडन को चाहिए छोटन को उत्पात की तर्ज पर माफ़ कर दिया आराम से. और सच्ची में क्या वर्णन है वसंत का…वाह…विष्णु जी ने इस वर्णन पर नारद को कोई वरदान नहीं दिया? हरि मुख जैसा कुछ…आख़िर वैलेंटाइन आ रहा है
”…….सरसों के खेत में तितलियाँ देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरह मंडरा रहीं थीं। हर पौधा तितलियों को देखकर थरथरा रहा था। भौंरे भी तितलियों के पीछे शोहदों की तरह मंडरा रहे थे। आनंदातिरेक से लहराते अलसी के फूलों को बासंती हवा दुलरा रही थे। एक कोने में खिली गुलाब की कली सबकी नज़र बचाकर पास के गबरू गेंदे के फूल पर पसर-सी गई। अपना काँटा गेंदे के फूल को चुभाकर नखरियाते तथा लजाते हुए बोली, ”हटो, क्या करते हो? कोई देख लेगा।”
—————– यह प्रकृति – चित्रण तो गजब ढा रहा है ,,, ऐसा पहले न पढ़ा ,,,
आधा पढ़े… और हिम्मत नहीं है! बहुत कर्री नींद आ रही है, सो अलग।
बाकी का अगले साल पढ़ लेंगे… और लंबा लंबा लिखिये!
बाई द वे, भाई साहब की पहली ही पोस्ट “बंगला फिल्म” किसी उपन्यास में, या कहानी संग्रह में पढ़ी लगती है… पक्का पढ़ी हुई है।
[...] भी शायद आप बांचना चाहें: वनन में बागन में बगर्यो बसंत है… ब्लागर का कैसा हो बसंत… राजा दिल [...]
nice
[...] वनन में बागन में बगर्यो बसंत है… [...]
हर तरफ़ बसंत की बयार बह रही है। लोग मदनोत्सव की तैयारी में जुटे हैं। कविगण अपनी यादों के तलछट से खोज-खोजकर बसंत की पुरानी कविताएँ सुना रहे हैं। कविताओं की खुशबू से कविगण भावविभोर हो रहे हैं। कविताओं की खुशबू हवा में मिलकर के नथुनों में घुसकर उन्हें आनंदित कर रही है।