हफ़्ते भर नैनीताल में कक्षा रगड़ाई के बाद इतवार को रानीखेत जाने का कार्यक्रम था। रानीखेत में एक फ़ौजी कमान को देखने, मिलने-जुलने और समझने-बूझने का कार्यक्रम था।
नास्ता-ऊस्ता करके निकलते-निकलते साढ़े नौ बज गये। नैना ट्रेवेल्स की बस हमको लादकर खुद को पहाड़ी रास्तों पर खुद को हिलाती बलखाती चल पड़ी। चल छैयां-छैयां वाले अंदाज में।
कुछ ही देर में हम मालरोड लांघकर शहर के बाहर आ गये। पहाड़-घाटी-नदी-आकाश का साम्राज्य शुरू हो गया। दूर-दूर तक फ़ैले पेड़ों में में से हम केवल देवदार और चीड़ के पेड़ पहचान पा रहे थे। सड़क के बगल से गुजरती नदी का नाम कोसी बताया गया। यह सवाल अभी तक सवाल ही बना रहा कि क्या यह वही कोसी है जो बिहार का शोक कही जाती है?
नैनीताल से रानीखेत का सफ़र करीब दो घंटे में पूरा हुआ। रास्ते में कुछ देर गपियाते रहे फ़िर ऊंघने लगे। कुछ लोगों ने हमसे कुछ सुनाने को कहा लेकिन आंख मूंदकर उंघने का विकल्प छोड़कर हमें और कुछ करना उचित नहीं लगा। साथ में एक मित्र अपने मोबाइल से पुराने फ़िल्मी गाने सुनाते रहे। सारे के सारे पुराने हिट फ़िल्मी गीत। सुनते हुये लगा कि किन नियामतों हम वंचित रह जाते हैं। उस दिन जितने गाने हमने सुने उतने पहले कभी एक साथ नहीं सुने। आते-जाते करीब चारे घंटे। कुछ लोग तो गाने की धुन बजी नहीं , टप से उसके बोल दोहराने लगते थे।
उसी समय मुझे यह याद आया कि कुछ लोग हैं जो जबसे भारतीय सिनेमा शुरू हुआ है उस समय से लेकर आज तक के सभी गानों के संकलन का काम कर रहे हैं। उनमें से एक कानपुर के ही हैं। कुछ दिन पहले ही उनसे बात हुयी थी। दस-दस साल के गीतों का संकलन किया है उन्होंने। उनके पास उपलब्ध गीतों के संकलन की फोटोकापी ८००-९०० रुपये में उपलब्ध हैं।
रानीखेत पहुंचने पर पता चला कि वहां ब्रिगेडियर साहब हमारा इंतजार कर रहे थे। एक घंटा लेट हो गये थे हम। रानीखेत में धूप खिली हुई थी। फ़ौजी संस्थान की सबसे बड़ी खूबी वहां की साफ़-सफ़ाई और अनुशासन दिखा। मेज पर नास्ता लगा था। बहुत दिन बाद जलेबी खाने का मजा ही कुछ और था।
नास्ते के बाद हम बटालियन घूमने निकले। फ़ौज के लोगों ने अपनी यूनिट की कार्यप्रणाली और हथियारों के बारे में विस्तार से बताया। पावर प्वाइंट पेजेन्टेशन रोमन हिंदी में था। (Is hathiyar kaa prog lambi dooree tak maar karane ke liye hota hai टाइप) साफ़ उच्चारण। ऊंची आवाज।
मजे की बात कि फ़ौज के लोगों को पता ही नहीं था कि जो हथियार वे हमें दिखा रहे थे उनमें से ज्यादातर हम ही बनाते हैं। कुछ हथियारों में जो समस्यायें उन्होंने बतायीं उनकी समस्या का निराकरण भी किया। फ़ौज के जवानों को सबसे ज्यादा समस्या उनकी सप्लाई की जाने वाली वर्दी से होती है। समय के साथ सबके साइज बदल जाते हैं। लेकिन जो मांग और आपूर्ति होती है वह उसी साइज के हिसाब से होती है जो उनको शुरू में दिया जाता है। इस चक्कर में भी जो वर्दी उनको मिलती है उसका साइज दुबारा ठीक करवाना पड़ता है। सप्लाई चेन की गड़बड़ियां सालों से बदस्तूर जारी हैं। पिछले कुछ सालों से हमारे यहां से आफ़िसर लोग फ़ौजी संस्थानों में जाकर उनकी समस्या का निराकरण करने का काम करने लगे हैं।
जिस युनिट में हम थे वह २२ ग्रेनेडियर्स के नाम से जानी जाती है। १५० साल से पुरानी इस बटालियन का अपना गीत है । गौरवपूर्ण इतिहास है। कई लोग वीरता के सर्वोच्च पदक से सम्मानित हो चुके हैं। वीरता के लिये सम्मानित हुये फ़ौजी लोगों के चित्र परिचय उनकी मेस में लगे हुये थे। वहीं दूसरी फ़ौजों के साथ हुये युद्धाभ्यास के बाद उनकी द्वारा दिये गये उपहार भी लगे थे। एक स्मृतिचिन्ह पाकिस्तान की फ़ौज द्वारा भी दिया गया था। अमेरिकी फ़ौजों के साथ हुये युद्धाभ्यास के किस्से भी सुनाये गये हमें।
फ़ायरिंग रेंज तक जाते हुये हमने उन जगहों को देखा जहां फ़ौज के लोग नियमित तरह-तरह के अभ्यास करते हैं। खाई-खंदक, नाले-पहाड़ पार करने के अभ्यास का इंतजाम था।
दोपहर बाद हम फ़ायरिंग रेंज पहुंचे। हम सबने पांच-पांच राउंड फ़ायरिंग की। हमें शुरू में त ससुर निशाना ही न दिखाई दे रहा था। फ़िर जब पोजीशन लिये तो डर लगा कि कहीं कंधा न उखड़ जाये। लेकिन फ़िर जरा नजरों से कह दो कि निशाना चूक न जाये दोहराते हुये पांचो फ़ायर कर डाले।
बाद में जाकर देखा कि पांच में से केवल एक निशाना ठीक लगा था।
निशानेबाजी के बाद फ़िर पास से हिमालय की सब चोटियां देखीं।
लौटकर मेस में खाना खाया और लौट चले। रास्ते में कुछ दोस्तों से युद्ध विधवा संस्थान द्वारा चलाये जा रहे शापिंग स्टोर से तमाम खरीदारी की।
नैनीताल लौटते हुये रात हो गयी थी।
अगले दिन हम लोग नैनीताल की आर्यभट्ट वेधशाला देखने गये। वह दिन शायद ऐतिहासिक था जब चांद शुक्र शायद सबसे नजदीक आये थे। चांद की सतह देखने पर ऐसा लगा कि कोई सफ़ेद ढोकला देख रहे हों।
नैनीताल के किस्से और भी बहुत सारे हैं लेकिन वह फ़िर कभी। समय-समय पर आते रहें शायद।
नैनीताल प्रवास के दौरान वहां के ब्लागर्स से मिलने का मन था। तरुण ने बताया भी था कि शिरीष कुमार मौर्य वहीं रहते हैं। कई बार फ़ोन करने के बावजूद उनसे मिलना न हो पाया। शिरीष कुछ काम में फ़ंसे रह गये। बाद में सिद्धेश्वरजी ने कहा भी कि मैं उनसे मिले बिना चला गया। लेकिन हमें शिरीष के अलावा और किसी का संपर्क नहीं पता था। उनसे ही लप्पूझन्ना वाले अशोक पाण्डेयजी के बारे में जानकारी हुई। वे हल्द्वानी में हैं। उन दिनों अपने बीमार पिताजी की सेवा में लगे थे। अब शायद उनको कुछ आराम हो।
पिछली पोस्ट में कुछ दोस्तों ने हमारी जैकेट-फोटो देखने की फ़रमाइश की है। यह झांसा देते हुये कि हम उसमें इस्मार्ट दिखेंगे। लेकिन सच तो यह है कि सब कैमरे साजिशन हमारी नेचुरल फोटॊ ही खींचते हैं। कोई स्मार्ट नहीं दिखाता। एक ब्लागर और एक कैमरे में यही अंतर होता है। कैमरा मनदेखी और मुंहदेखी नहीं करता।
वैसे फोटो हम पहले ही सटा चुके थे। एक बार और सही।
नैनीताल का दस दिन का प्रवाह मजेदार रहा। जब गये थे तो कुल जमा तीन-चार लोगों से परिचित थे। लौटे तो तमाम लोगों से परिचित होकर और ढेर सारी खुशनुमा यादें लेकर लौटे।
सबसे बड़ी बात कि घर लौटना और खुशनुमा तथा सुकूनदेह लग रहा था।
हमारे पडोस में एके-47, हैंडग्रेनेड मिले है आइये निशाना लगा लीजिए
सुन्दर यात्रा वर्णन, फोटो भी फब रही है।
महाशक्ति
रोचक रही यात्रा !
पाँच में से एक तो अच्छी सफलता है। यहाँ तो पचास में से एक भी मु्श्किल होता।
निशाना आप शौक से लगाइए . पर यह भी तो देखिए कि हम सामने ही बैठे हैं . आपकी गोली चल गई तो कम्प्यूटर स्क्रीन को फोडती हुई हमारे बगल से जाएगी
वैसे जैकिट तो अच्छा है . जैकिट पहनने वाले वाले के बारे में क्या कहें . फ़ोटू में आपके ऊपर बर्फ सी जमी लगती है . काफी देर से बैठे हैं लगता है
जरा नजरों से कह दो कि निशाना चूक न जाये दोहराते हुये पांचो फ़ायर कर डाले।
” अरे वाह का का करतब दिखाई रहे आप ….”
regards
बहुत बढिया रहा जी ! पहली बार मे एक निशाना मार दिया टारगेट पर ! आपको तो गोल्ड मैडल दिया जाना चाहिये ! हमसे निशाना और फ़ायर करना दूर ससुरी बन्दूक ही नही ऊठाई जाती !
जैकेट बडी जंच रही है ! ये ब्लागर की नजर से नही कैमरे की कि नजर से बोल रहे हैं !:)
वैसे आप सोच रहे होंगे कि ताऊ १२ बजे आता है आज सुबह सबेरे कैसे टपक गया ? तो राज की बात ये है कि ताऊ की नजर कमजोर हो चली है ! आपका टाईटल है – फ़ौजियों के साथ एक दिन — और हमको दिखा.. फ़ौजिया के साथ एक दिन… अब हम इसी चक्कर मे दुसरे ब्लाग छोड के आपके यहां टपक लिये कि शुकल जी ने ये क्या गुल खिला दिये ! पर यहां तो भाई करनलसिन्ह और जनरलसिन्ह दिखे सो चुपचाप वापस जा रहे हैं !
राम रम !
नैनीताल में कक्षा रगड़ाई के बाद चाहे कितनी रगडाई करलो पर बूढे तोते कही पढते है क्या ?
बाद में जाकर देखा कि पांच में से केवल एक निशाना ठीक लगा था। देख लो कैसे हथियार बनाते हो . वो तो हमारे फ़ौजी है जो इन हथ्यारो से सही निशाना लगा लेते है . तुरंत कम से कम गुणवत्ता तो सुधार ही लो जनाबे आली
फ़ुरसतिया जी अचूक निशानेबाज और विकट बन्दूकबाज हैं, आज तक कभी चूकते नहीं देखे गये, जरूर इस वाली बन्दूक में ही कुछ गड़बड़ी रही होगी.
कानपुर से बाहर निकलें तो सूचना यहां ब्लॉग पर देना बेहतर होगा, दूसरे शहर में किस-किस ब्लॉगर से मिलेंगे? जहां रुकें, वहां का पता दे दें तो उस शहर के ब्लॉगर ही आपसे मिल लेंगे, अब आप तो सेलेब्रिटी ब्लॉगर हैं ना. शायद कभी हमें भी आपके दर्शन का सौभाग्य मिल जाए.
सर्दियां अपने शबाब की ओर अग्रसर हैं, ताऊ के साथ हमारी ओर से भी रम रम!
फुरसतिया के हाथ में बन्दूक ..आयला ……कौन है निशाने पे ठाकुर ???? गोया की जाकेटवा भी अच्छी है पर हमें लाल स्वेटर ज्यादा भाया……….बन्दूक तो नीचे रखो भाई अब !
फोटोग्राफ और विवरण दोनों बहुत बढ़िया लगे…बड़ा अच्छा लगा पढ़कर.मुफ्त में सैर और जानकारियां मिल गई.
जैकेट में आदमी सुख समृद्धि युक्त नजर आता है। और बन्दूक के साथ रोबदाब वाला। आज टू-इन वन दर्शन कर लिये।
सुन्दर लिखा है – सतत लिखते रहें!
हाथ में इंसास उठाये बड़े फब रहे हैं आप अनूप जी….कभी कोई टि.डी. बना कर इधर देहरादून में भारतीय सैन्य अकादमी भी आईये निरिक्षण के लिये.इसी बहाने आपसे रूबरू मुलाकात हो जायेगी
लगता है, यात्रा की थकान लिखने पर हावी हो गई है । वर्णन तो विस्तृत और सम्पूर्ण है किन्तु पोस्ट में कल वाली बात बिलकुल ही नदारद है । आज श्रीलाल शुक्ल की परछाई का आभास भी नहीं है ।
बहरहाल, निरापद यात्रा के लिए बधाइयां और यात्रा वृतान्त निरन्तर उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद ।
रानी खेत मेँ फौजी भाइयोँ से मुलाकात की बातेँ बताईँ वे बहुत रोचक लगीँ – खास तौर से ये जान कर खुशी हुई कि फौजी लोग जलेबी खाते हैँ नाश्ते मेँ वाह जी वाह !
और रास्ते मेँ फिल्मी गाने सुनकर आपको सही गीत याद आया
“जरा नज़रोँ से कह दो जी, निशाना चूक ना जाये ”
और ५/१ = ४ चूक गये !
कोई बात नहीँ -
अगली बारी, पाँचोँ ” बुल्ज़ आइ ” / रहेँगेँ
और हाँ इस स्टोर का पता या वेब साइट हो सके तो बतलाइयेगा -
हम भी खरीदारी करेँगेँ -
अग्रिम, धन्यवाद सहित,
(” युद्ध विधवा संस्थान द्वारा चलाये जा रहे शापिंग स्टोर से तमाम खरीदारी की। “)
स स्नेह,
- लावण्या
रानीखेत के चूज़े मशहूर हुआ करते थे। अब आपने दम्बूक तानी है तो निश्चय ही कुछ चूज़े अल्लाह को प्यारे हो गए होंगे। रही बात निशाने की तो पांच में से पांच भी सही हो सकते है- इसका उपाय है कि पहले गोली दाग दें और जहां बुलेट लगी उसके अतराफ सर्कल बना दें। लग गया ना तीर निशाने पर:)
युद्ध विधवा सस्थान मे गर्म हैण्ड मेड शाल, ट्वीड बहुत ही अच्छे मिलते है . रानीखेत का सौन्दर्य स्विट्जरलैंड की टक्कर का है आपने क्या महसूस किया ?
वाह, अच्छा रहा वृतांत्। जैकेट भी अच्छी लग रही है अलबत्ता हमें तो आप के कंधे पर वो बर्फ़ नहीं दिख रही जिसका जिक्र किया जा रहा है।
waakai इस pooree post में बर्फ गायब है .
ये सबसे achhaa huaa की इसी बहाने fauziyon kee कुछ dikkaton kaa pataa to चला.
सेलेब्रिटी ब्लॉगर के यहाँ हमारी भी उपस्थिति लगा ली जाए!!!
सुन्दर यात्रा वर्णन, फोटो भी गजब !!
ढेर भीड़ के कारण नैनीताल हमें कुछ खास प्रिय नहीं पर रानीखेत पसंद है। शादी के पिछले चौदह साल में पत्नी के लिए केवल दो शॉल खरीदने के गुनहगार हैं दोनों ही रानीखेत के इस शाल विक्रय केंद्र से ही खरीदीं।
‘लपूझन्ना वाले अशोक पांडेय’ ????
बताने वाले को समझना चाहिए था कि फुरसतिया बातों को पचा जाने में कोई यकीन नहीं रखते बजाने में करते हैं। जब वे लपूझन्ना रहना चाहते हैं तो काहे आप उन्हें अशोक बनाने पर तुले हैं
लाजवाब सोच है आपकी अनुरोध है मेरे भी ब्लॉग पर पधारे
बहुत अच्छा वक़्त बिताया आपने।
वाह चहरे से लगता ही नहीं कि बंदूक़ थामे ज़रा भी डर खौफ़ मेहसूस नही हुआ आपको।
आपकी ज़िन्दगी के ये यादगार दिन बहुत बहुत मुबारक हो।
अनूपजी नववर्ष की आपको बहुत-बहुत बधाई। ये पंक्तियां मेरी नहीं हैं लेकिन मुझे काफी अच्छी लगती हैं।
नया वर्ष जीवन, संघर्ष और सृजन के नाम
नया वर्ष नयी यात्रा के लिए उठे पहले कदम के नाम, सृजन की नयी परियोजनाओं के नाम, बीजों और अंकुरों के नाम, कोंपलों और फुनगियों के नाम
उड़ने को आतुर शिशु पंखों के नाम
नया वर्ष तूफानों का आह्वान करते नौजवान दिलों के नाम जो भूले नहीं हैं प्यार करना उनके नाम जो भूले नहीं हैं सपने देखना,
संकल्पों के नाम जीवन, संघर्ष और सृजन के नाम!!!
नववर्ष की आपको बहुत-बहुत बधाई। ये पंक्तियां मेरी नहीं हैं लेकिन मुझे काफी अच्छी लगती हैं।
नया वर्ष जीवन, संघर्ष और सृजन के नाम
नया वर्ष नयी यात्रा के लिए उठे पहले कदम के नाम, सृजन की नयी परियोजनाओं के नाम, बीजों और अंकुरों के नाम, कोंपलों और फुनगियों के नाम
उड़ने को आतुर शिशु पंखों के नाम
नया वर्ष तूफानों का आह्वान करते नौजवान दिलों के नाम जो भूले नहीं हैं प्यार करना उनके नाम जो भूले नहीं हैं सपने देखना,
संकल्पों के नाम जीवन, संघर्ष और सृजन के नाम!!!
फोटो में आपकी बन्दूक का रुख समझ में नही आ रहा है कि किस तरफ़ है ?. ढेर सारी यादे बांटने के लिए आभार .
गोली-बन्दूक ! बढ़िया है, ये जो आप चला रहे हैं वो इंसास है क्या? हमारे एक मित्र भी डीआरडीओ में थे अब एक अमेरिकन कंपनी के लिए काम करते हैं. उनकी यादें भी बड़ी अच्छी होती हैं लेकिन क्या करें बेचारे पैसा बीच में आ जाए तो …
It was nice to see you on blog and with sri rajeev kumar sir. regards to you both. will write some thing –after reading. thanks keep on posting.
( pehchan kaun)
dr rawat
hindi officer
iit khargpur
[...] फ़ौजियों के साथ एक दिन [...]
दू-चार गो दुश्मनों पर भी लगता तब न…
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..इधर से गुजरा था सोचा सलाम करता चलूँ…