आज सुबह से पानी झमाझम बरस रहा है। बादल अपनी लेट लतीफ़ी को देर तक बरस कर भुला देना चाहता है। बिना कामर्शियल ब्रेक लिये बरसता जा रहा है मुआ। चकित च चिंतित हुये हम (कायदे से हमको विस्मित च किलकित होना चाहिये लेकिन अब जो हो लिये सो हो लिये) । हमने सोचा कहीं ऐसा भी होता है। बिना ब्रेक के कोई कार्यक्रम होता है कहीं!!! इत्ती जिम्मेदारी से बरसेगा तो कहीं सूखे का पैसा वापस न करना पड़ जाये दफ़्तरों को। उधर बादल ससुरा मार जिम्मेदारी का एहसास दिलाये जा रहा था- बरसना है, टाइम नहीं, जिम्मेदारी है, न जाने क्या-क्या अल्ल-गल्ल, हेन-तेन बोले जा रहा था! इत्ती जिम्मेदारी की बात तो ज्ञानजी भी नहीं करते अपनी गाड़ियां हांकने के मामले में!
हड़का दिया हमने भी -बड़े आये कहीं के जिम्मेदारी वाले। एक तो लेट आये हो दूसरे लतीफ़ बनते हो। अभी जांच बैठा देंगे कि देर से इसलिये आये कि सूखे में तुम्हारा हिस्सा है। जहां सूखे की ग्रांट आई- आ गये मटकते हुये अपना हिस्सा लेने। एक बार जांच शुरू हुये तो बने फ़ाइल पड़े रहोगे बीस-पचीस साल तब कहीं रिपोर्ट मिल पायेगी। सारा बादलपना निकल जायेगा। ये जिम्मेदारी का एहसास और किसी को दिखाना। बड़े-बड़े जिम्मेदार देखे हैं हमने!
जांच की धमकी सुनते ही बादल की हवा और साथ में ढेर सारा पानी खसक गया। मान गया झंडा ब्रेक के लिये ! हमने भी फ़हरा लिया झंडा फ़टाक से और गा लिया जन-गण-मन! पूरे बावन सेकेंड में।
गरदनिया स्पांडलाइटिस के कारण जो लोग ऊपर नहीं देख नहीं पा रहे थे उन्होंने नीचे देखे-देखे ही झंडे को सलामी ठोंक दी। उनकी झुकी हुई गरदन देखकर तमाम बातें लोगों ने कह डालीं लेकिन निजता के उल्लंघन के डर से वो लिख नहीं रहा हूं।
देश भर में स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है। झंडा फ़हराया जा रहा है। भाषण दिया जा रहा है। लड्डू बंट रहे हैं। हैप्पी इन्डिपेन्डेन्स डे और स्वतंत्रता दिवस मुबारक बोला जा रहा है। शेम टू यू और आपको भी मुबारक हो रहा है। बचे-खुचे समय में लोग बहस भी कर ले रहे हैं। ब्लाग लिख रहे हैं। ब्लाग पर झंडा लगा रहे हैं। कोड बता रहे हैं। ऐसे नहीं जी वैसे कह रहे हैं।
देश को आजाद हुये कईयो साल हो गये। साठ से ऊप्पर! सन सैंतालिस में मिली थी आजादी। अभी तक टनाटन चली आ रही है। बिन्दास। कभी-कभी मेंन्टिनेन्स प्राब्लम भले आई हो लेकिन काम बराबर इसी से चल रहा है। ड्यूटी बजा रही है, बजाती जा रही है। कभी ये नहीं कहिस कि आज हम काम नहीं करेंगे! कभी हड़ताल की धमकी नहीं दी। बड़ी क्यूट है अपनी आजादी।
बहुत लोग अक्सर हल्ला मचाते रैते हैं – ये आजादी झूठी है, ये आजादी अधूरी है, हमकॊ दूसरी आजादी चईये, हमको पूरी आजादी चईये।
हमारा तो ये कहना है कि अब 62 साल हो गये आजादी मिले। गारन्टी वारन्टी सब खत्तम हो गयी। कौन बदलकर इसकी जगह दूसरी देगा? जिन्होंने दी थी वे तो चले गये अपनी दुकान बढ़ाकर! जब लेनी थी तब तो लपककर ले ली। न ठोंका न बजाया। बस हथिया लिया।
हड़बड़ी इत्ती थी कि रातै मां सील तोड़ के यूज कर ली। झण्डा फ़हरा लिया। अब कहते हो झूठी है, अधूरी है। बिका हुआ माल वापस होता है कहीं, फ़ैशन के दौर में कोई गारण्टी देता है कहीं?
अब तो तो जो है, जैसी वैसेई निभानी चहिये! जैसे दुल्हिने जैसोई भतार मिलता है वैसेई निभा लेती हैं। जैसे लड़के का जहां एडमिशन हो जाता है वहीं से डिग्री निकाल लेता है। बाबू को जो भी सीट मिलती है उसई से पैसा पीट लेता है। मंत्री को जो पद मिलता है उसई में देशसेवा कर लेता है। वैसेई अब तो ये जैसी है वैसेई इसको निभाना पड़ेगा। खराबी देखने से अपनी ही आंख खराब होती है! इसलिये इसके फ़ायदे देखने चहिये।
अपनी आजादी में न जाने कित्ते गुण छिपे हैं। खोज-खाज के देखने चहिये। इसकी क्यूटनेस पर कुर्बान होना चहिये, बलिदान होना चहिये। हलकान होने से कुछ मिलना नहीं है सिवाय खिचखिच के। विक्स की गोली का खर्चा बढ़ाने से का फ़ायदा?
देश अपना भौत बड़ा है। आजादी भी इसी हिसाब से भौत है। हर जगह आजादी ही आजादी। हरेक को लुटने की आजादी है, हरेक को लूटने की आजादी है। हरेक को पिटने की आजादी है, हरेक को पीटने की आजादी। जिसको जो रोल मन में आये अख्तियार कर ले। कोई किसी को रोकता-टोंकता नहीं। बहुत हुआ तो थोड़ा झींक लेता है- क्या जमाना आ गया है!
हरेक को देशसेवा का बराबर अधिकार है। कामचोर को कामचोरी करके और काम करने वाले को काम करके। अपराधबोध की किसी के लिये कोई गुंजाइश नहीं है। कामचोरों को इस बात की अतिरिक्त सहूलियत है यह मानने की कि वे कम से कम भ्रष्टाचार में तो सहयोगी नहीं हैं। कामचोरी को अभी भ्रष्टाचार नहीं माना जाता न अपने यहां।
हरेक को देशसेवा का मतलब अपने-अपने हिसाब से तय करने का अधिकार है। तदनुसार देश की स्थिति समझने का भी। बहुत लोग समझते हैं बढ़ती नंगई के चलते देश अब अमेरिका को भी पछाड़ने वाला है। दूसरे परेशान हैं कि इत्ती मेहनत के बावजूद तमाम देश अपने से आगे निकल जाते हैं। बहुत लोग कहते हैं देश ससुरा कब तक विकासशील बना रहेगा, विकसित कब होगा। वहीं अपोजिट पाल्टी के लोग कहते हैं- का फ़ायदा विकसित होने से? आगे की गुंजाइश खत्तम हो जायेगी। इसके बाद फ़िर वही दूसरे देशों पर हमले-समले, धमका-धमकाई। मार-कुटाई। इस सब से का फ़ायदा भाई!
पढ़ाई लिखाई के लिये हलकान लोग शैक्षिकता के स्तर पर टसुये बहाते हैं। अपोजिट पाल्टी वाले कहते हैं कि पढ़े-लिखे गंवार पैदा करने से क्या फ़ायदा। क्वांटिटी नहीं क्वालिटी चहिये। दूसरे कहते हैं -क्वांटिटी निकालो क्वालिटी अपने आप आयेगी।
बहुत लोग जनसंख्या को देश की समस्या बताते हैं। उनसे भी ज्यादा लोग कहते हैं- इसी के बल पर तो हम जवान हैं। समझ में नहीं आता कि ये सहीं हैं या वो।
कोई कहता है अपने लोकतंत्रैं में कछू लफ़ड़ा है। बौढ़म, जाहिल, गंवार , गुंडों को नेता बना देता है। घपलेबाज, घोटालेबाज को मंत्रीपद थमा देता है। दूसरे कहते हैं कि अपने यहां लोकतंत्र ही तो सबसे झन्नाटेदार आईटम है। गुंडे, जाहिलों, गंवारों तक को देशसेवा का मौका देता है। देश की बागडोर चिरकुटों तक को सौंपने में नहीं हिचकती अपनी पब्लिक। लो बेटा तुम भी कर लो सेवा। फ़िर न कहना मौका नहीं मिला। चिरकुटों तक से सेवा करवाने के मामले में देश का आत्मविश्वास चरमतम है। अईसी कान्फ़िडेंट डेमोक्रेसी और कहां?
देश का पैसा बाहर जा रहा है। देश का काला धन सीवर लाइन के कचरे की तरह स्विस बैंक में चला जा रहा है। बैंक नाले की तरह उफ़ना रहा है। इससे तमाम लोग चिंतित होते हैं। दूसरे बहुत से लोग हैं जो कत्तई चिंतित नहीं हैं। जान दो साले को! काली कमाई देश में देश में रखने का क्या फ़ायदा। हमें तो अपने देश को पवित्र साधनों से आगे बढ़ाना है- काली कमाई से नहीं। साध्य नहीं साधन भी पवित्र होने चाहिये। शायद इसी पवित्रता के आग्रह के चलते स्विस बैंक का पैसा कोई सरकार मन से छूना नहीं चाहती।
अपने देश का विकट हाल है। कहीं तो बिना शादी-ब्याह के लोग साथ रहते हुये बच्चे तक निकाल दे रहे हैं। कहीं सड़क पर जाते भाई-बहन तक मजनू विरोध दिवस पर सड़क पर मुर्गा बना दिये जाते हैं। अपना भारत देश महान है। विविधता में एकता इसकी जान है।
आपको बतायें कि देश में हज्जारो लोग अपनी जान हथेली पर लिये देश सेवा के लिये एकदम तैयार बैठे हैं। लख्खों लोग अपनी नौकरी पर लात मारने को तैयार हैं। जूते में पालिश कराये बैठे हैं ताकि जैसे ही समय आये मार सकें ठोकर नौकरी को। लोग आज सड़क पर आ जायें क्रांति करने के लिये , बदलाव लाने को। लेकिन समस्या है हरेक सोचता है कि और बाकी लोग आगे चलें, कोरम पूरा हो जाये तब हम भी निकले खरामा-खरामा देश सेवा के लिये। अब देश सेवा के मामले में लोग प्रोफ़ेशनल हो गये हैं- रिजल्ट ओरियेंटेट!
देशसेवक हिसाब लगाकर सेवा करता है। देशसेवा है कोई बेवकूफ़ी नहीं है। ये नहीं कि जिंदगी भर देशसेवा करते रहे और देश जहां का तहां बना हुआ है। कोई बदलाव ही नहीं हुआ। लोग इंतजार में हैं कि पहिले अच्छी तरह तय हो जाये किधर जाना है तब गाड़ी स्टार्ट की जाये सेवा की। ये थोड़ी कि जहां से मन आये वहीं वहीं से शुरू कर दो। इससे देशसेवा के काम में अराजकता फ़ैलती है। किसी ने कहीं करके डाल दी , किसी ने कहीं। अब सबको बटोरते घूमों।
अब इत्ता देश चिंतन बहुत हो गया। बकिया अगले साल होगा। आप मस्त रहना। कोई चिन्ता की बात नहीं है। देश अपना कोई छुई-मुई नहीं है जो झमेलों की हवाओं में कुम्हला जायेगा। कोई बतासा नहीं है जो छुटपुट गड़बड़ियों की बूंदा-बांदी में गल जायेगा। बड़े-बुजुर्ग लोग तूफ़ान से देश की किश्ती को निकाल के लाये थे- कोई मजाक नहीं। इसके बाद हमको और आपको इसका चार्ज देकर गये हैं कि इसे संभालकर रखना है।
अब जब ड्यूटी लगी है तो बजानी ही पड़ेगी। चाहे हंस के बजाओ चाहे रो के। जब हंसने का विकल्प मौजूद है तो रोना काहे के लिये! हंसते हुये बजाइये!
कुछ फ़ुटकर शेर
- कभी तो आराम से रहा करो यार,
मत रोओ फ़ालतू में जार बेजार। - देश तो एकदम मजे में है , मस्त है,
आपै खाली परेशान हैं, पस्त हैं। - जनता टिचन्न है, पुलकायमान है,
आपै मुंह लटकाये हैं, हलकान हैं। - वो लूट रहा है तो लूटने दो साले को,
उसी का कोई भाई तरसेगा निवाले को। - माल बना तो उससे स्लम निकल आयेगा
पिक्चर बनेगी उसपर फ़िर इनाम आयेगा। - माना ईमानदारी बड़ी चीज है , बने रहो,
लेकिन लंगोटी लुटेरों से कुछ तो कहो। - शहीदों की शान में कसीदे पढ़े और क्या करें,
और कुछ चहिये किसी को, वे अपना इंतजाम करें। - अरे ई गजल कह गया फ़िर पोस्ट के बहाने से,
बहर गड़बड़ कह दो फ़ऊरन निकल जाने को।
ऊपर की फ़ोटॊ फ़्लिकर जी से साभार
मेरी पसन्द
समाजवाद बबुआ,धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
हाथी से आई
घोड़ा से आई
अगरेजी बाजा बजाई समाजवाद…
नोटवा से आई
वोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई,समाजवाद…
गांधी से आई
आंधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद…
कांग्रेस से आई
जनता से आई
झंडा के बदली हो जाई, समाजवाद…
डालर से आई
रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद…
वादा से आई
लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद…
लाठी से आई
गोली से आई
लेकिन अहिंसा कहाई, समाजवाद…
महंगी ले आई
ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद…
छोटका के छोटहन
बड़का के बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद…
परसों ले आई
बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद…
धीरे -धीरे आई
चुपे-चुपे आई
अंखियन पर परदा लगाई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई।
हँस रहा हूँ। सीरियस हो रहा हूँ। फिर हँस रहा हूँ कि ब्रेक ! सीरियस हो रहा हूँ . .इसे कहते हैं पाठक को नचाना। कितनी दूर से डोर हाथ लिए बैठे हो !
गनीमत है मलिकाइन नहीं हैं आस पास में। नाहीं तो मेरी दिमागी हालत पर हलकान हो जातीं।
वैसे ही बड़ी परीशान हैं बेचारी। कल रात में मुझे दस्त लगे थे और वो सोए सोए कह रही थीं,”रहने भी दीजिए। इतनी रात गए लिखना बन्द क्यों नहीं कर देते।”
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लम्बा लिखने को सोचा था लेकिन आप खुदे इतनी लम्बी हाँक दिए हैं कि हिम्मत डोल गई।
बहुत झकास और बिंदास चिंतन -कविता दोनों बेजोड़ -पनिया अभी बरस रहा है की थम गया !
वैसे बारिश को हड़का कर आप ने अच्छा नहीं किया। आपे जइसे पापियों के कारण सूखा पड़ा हुआ है।
मस्त है, मस्ती में सब कुछ कह दिया है। फुटकर शेरों वाली नवी गजल (ग़ज़ल नहीं) पसंद आई। ये नवी गजल वो है। फलाउन अफलातून नहीं होते। जब आई, जैसै आई कह दी और मस्ती ले ली। गोरख पांडे की कविता खूब याद रखी आप ने। आज बहुत कविताएँ आई हैं जो संग्रहणीय हैं। अच्छी खबर यह है कि पानी यहाँ भी बरसा है पर झमाझम नहीं बल्कि होले होले। बहा नहीं बैठ गया। किसान खुश हुए!
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
गिरिजेश जी की बात में दम है – आपकी लेखनी की अँखपुतरी नाचती बहुत है । सब कनखियाने की आदत है उसकी , और लड़ जाय तो नैन मटक्का भी कर ही ले ।
इतनी वेरायटी कहाँ मिलती है इतने थोक के लेखन में ।
मास्साब बरसात में पोस्ट कुछ ज्यादा ही लंबी नहीं हो गयी क्या? लेकिन हम गिरीजेश से सहमत(शेम टू शेम) कभी हंस रहे हैं कभी गंभीर हो रहे हैं…।जैसा आप की कलम नचा रही है वैसा नाच रहे हैं …बहुत सुंदर पोस्ट
वाह! क्या धांसू फांसू हांसू पोस्ट है। कहीं हंसते हुए हलकान हो रहे थे तो कभी सोच में पडते सोचायमान हो रहे थे।
बहुत सुंदर।
जहां तक पोस्ट की लंबाई की बात है तो वो तो होना ही था वरना ‘पठनरस’ कैसे मिलता।
बहुत खूब।
और ये फोटो जो लगा रखी है उसमें शायद ‘अनरसा’ खाया जा रहा है जो कि बरसात में ही ज्यादा खाया खिलाया जाता है ।
Am I right ?
कमाल…हमेशा की तरह. ऐसा करारा व्यंग्य..इतना गम्भीर चिन्तन इतने मस्तमौला अन्दाज़ में! समझ नहीं आता हंसे या रोयें?
ha ha ha ha
ab kya kahun aapne hi bahut kuchh kah diya
ऐसी झमाझाम बारिश हुई की हमारा पिकनिक का प्रोग्राम चौपट हो गया
वीनस केसरी
सम्मोहक शैली, मारक व्यंग
लाजवाब
हँस नहीँ सका ।
sahee baat hai, jab hansaa ja saktaa ho to aazaadee ka rona rone kee kya zaroorat?
badhiya fursatiya type post, aur Gorakh jee kee kavitaa bhee badhiyaa!
स्वतंत्रता दिवस पर आने वाली सभी पोस्टों में सर्वोत्कृष्ट लगी यह पोस्ट। जिस प्रवाह और प्रभाव से आपने हमारे कॉन्फिडेण्ट इण्डिया का चित्र खींचा है वह सहज ही आँखों के सामने नाचने लगता है। हम आधुनिक ब्लॉगजगत के परसाई जी से साक्षात्कार कर रहे हैं।
आपके व्यंग्यों का संकलन छपना चाहिए, अब समय आ गया है। जो सिर्फ़ कागजों पर ही पढ़ सकते हैं उन्हें भी इस गम्भीर व्यंग्य लेख का सुख मिलना चाहिए।
भाई इमानदारी से कहें तो हमको आप कठपुतली जैसा नचाये हो. और फ़ुटकर शेर और उसकी तस्वीर घणी पसंद आई.
रामराम.
बहुत ही हल्के-फुल्के तरीके से अपने इस व्यंग्य में कई गहरे तीर मारे हैं आपने…
आखिर में तो आपने एक बडा ही रहस्य खोल दिया है…
चूंकि ड्यूटी बजाई जा रही है, इसीलिए हंस कर बजाई जा रही है आज अधिकतर….
और इसकी इतनी आदत पड गई है कि यह भूल गये कि यह एक मजबूरी में शुरू हुई थी…
और अब रोने वाले उल्टे तकलीफ़ पैदा करने लगे हैं…
लगता है हमारे हंसने पर आत्मग्लानि पैदा कर रहे हैं….
बेहतर पोस्ट…शुक्रिया..
हम तो आजादी सो कर मनाये। आपने देश भक्ति से सराबोर हो कर – दोनो में अंतर जरूर है; पर खास अंतर है क्या?
ठीक ही कहा गया है कि “आजाद देश में चीख पुकार अधिक होती है, कष्ट कम होता है . जबकि पराधीन देश में चीख पुकार कम होती है कष्ट अधिक होता है .”
वाह आजादी पर पोस्ट हो तो ऐसी. क्यूटनेस पर कुर्बान होने वाली बात में दम है. टसुआ बहाने का कौनो फायदा तो है नहीं… तो हम भी मगन हैं
हम तो आज एम्पायर स्टेट पर तिरंगा देख आये जी. अपनी आजादी कौनो मजाक थोड़े है कल शिल्पा को भी देख आयेंगे. देख के बताते हैं आजादी पर वो क्या बोलती/करती हैं.
बड़े-बुजुर्ग लोग तूफ़ान से देश की किश्ती को निकाल के लाये थे- कोई मजाक नहीं। ठीक है जी, हम सोचे हम चिंता करेगें तभी देश बचेगा, मगर अब ज्ञान चक्षु खुल गए हैं.
मैं भी इस आजादी से खुश नहीं था, लेकिन आपकी पोस्ट और गजल पढ़ने के बाद लगने लगा है कि सब ठीकठाक चल रहा है. चिंता की कोई बात नहीं.
गजब पोस्ट है. वाह! ही वाह!.
हम भी सिद्धार्थ जी से सहमत हैं. किताब छपनी चाहिए अब.
“गरदनिया स्पांडलाइटिस के कारण जो लोग ऊपर नहीं देख नहीं पा रहे थे उन्होंने नीचे देखे-देखे ही झंडे को सलामी ठोंक दी। उनकी झुकी हुई गरदन देखकर तमाम बातें लोगों ने कह डालीं लेकिन निजता के उल्लंघन के डर से वो लिख नहीं रहा हूं।”
कुछ लोग त डंडे तक ही देख पाए. हरा तक भी नहीं पहुंचे. ई हम निजता का उलंघन करके बता रहे हैं….:-)
कतई पाजिटिव पोस्ट लिखी है..
जब तलक इत्ते सकारात्मक लोग बिलागजगत में हैं, माँ कसम देश की प्रगति की रफ़्तार कम नहीं हो सकती।
हमारी अनुपस्थिति आपको खली, जानकर हम तो निहाल हो गये। अभी एकाध दिन में अपनी क़ब्र से बाहर निकलता हूँ।
“देश अपना भौत बड़ा है। आजादी भी इसी हिसाब से भौत है।…” वाह भई, और आपने भी भौत अच्छा लिक्खा है.
Pnaja mathe par laga salamee de rahi hun aapki lekhni aur is aalekh ko…..
iske aage aur kya kahun …kuchh bhi nahi soojh raha….
Simply great !!!!
एतना बड़ा पोस्ट पर केतना बड़ा कमेन्ट लिखें? आजादी दिवस था टिपियाने से आजादी मनाये रहे थे…न कुछ लिखे न छापे न पढ़े…ज्ञान जी एकदम ज्ञान की बात बोले हैं, हम भी उनके ही पाले में हैं चादर तान के सोये रहे…अब सब दिवस ख़तम हो गया है, दो दिन का छुट्टी उड़ गया…कल ऑफिस जाने के बदहवासी में रात को बिलाग के के बैठे हैं…तो सोचे आपको भी टिपिया ही दें…एतना बढ़िया पोस्ट है, कमेन्ट तो बनता है
“चकित च चिंतित हुये हम (कायदे से हमको विस्मित च किलकित होना चाहिये लेकिन अब जो हो लिये सो हो लिये”…इतनी रात गये पोस्ट की शुरूआत में ही इन पंक्तियों ने ठहाका लगाने पर विवश किया, फिर घबड़ा कर चुप हो गया कि बाहर खड़ा संतरी जाने क्या सोचे..! दबी जुबान में अब भी हँसे जा रहा हूँ, देव! फिर आजादी की वारंटी ने और नीचे इन फुटकर शेरों की अदायगी ने…इस “टिच्चन” को पेटेंट करवा लिया है ना देव?
अंत में गोरख जी को पढ़वा कर….
अईसी कान्फ़िडेंट पोस्ट अउर कहां ?
कमाल का व्यंग्य.. हैपी ब्लॉगिंग
सही कहा है:
“हरेक को लुटने की आजादी है, हरेक को लूटने की आजादी है। हरेक को पिटने की आजादी है, हरेक को पीटने की आजादी। जिसको जो रोल मन में आये अख्तियार कर ले। कोई किसी को रोकता-टोंकता नहीं। बहुत हुआ तो थोड़ा झींक लेता है- क्या जमाना आ गया है!”
फुटकर शेर भी पसन्द आए। अब समाजवाद का जमाना कहाँ रहा। पूँजीवाद धड़ल्ले से चल रहा है, भारत में भी।
[...] अईसी कान्फ़िडेंट डेमोक्रेसी और कहां? [...]