कल हम लोगों ने अपना पैंसठवां गणतंत्र दिवस मनाया। देश भर में झण्डा फ़हराया गया। भाषण हुये। सांस्कृतिक कार्यक्रम हुये। संकल्प लिये गये कि हमें देश को आगे बढाना है। सबका उत्थान करना। समग्र विकास करना है। आदि-इत्यादि।
कल गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम के दौरान ही तमाम लोगों से बतकही का मौका भी मिला। तमाम बातें हुयीं। न्यूजीलैंड में टाई हुये मैच के बारे में, अगले प्रधानमंत्री के बारे में, दिल्ली के मुख्यमंत्री के बारे में, आने वाली पिक्चरों के बारें में । किसी ने भी पश्चिम बंगाल में हुयी बर्बर घटना का जिक्र नहीं किया।
मैंने परसों अखबार में अन्दर के पन्नों पर यह खबर देखी थी। पश्चिम बंगाल के एक गांव की पंचायत के मुखिया ने गांव की एक युवती के अन्य जाति के लड़के से प्रेम संबंध के चलते युवक और युवती दोनों पर पच्चीस हजार का जुर्माना लगाया था। युवक के घरवालों ने जुर्माना अदा कर दिया लेकिन युवती के घरवाले केवल तीन हजार ही चुका पाये। जुर्माना न भर पाने पर पंचायत के मुखिया ने गांव के युवकों को युवती से दुष्कर्म का आदेश दिया। कहा – “अगर युवती के परिवार वाले जुर्माना नहीं भर सकते तो जाओ उससे मजे लो।”
अखबार की खबर के अनुसार- “पंचायत का आदेश सुनते ही गांव के किशोर, जवान और बूढे उस युवती की अस्मत लूटने के लिये टूट पड़े। इतना ही नहीं पूरा गांव इस घटना को देख सके इसके लिये इस वारदात को बांस के मचान पर अंजाम दिया गया। ”
रात भर युवती से दुष्कर्म होता रहा। घटना स्थल से 50 मीटर दूर रहने वाला उसका परिवार कान बंद किये बैठ रहा। बाद में पीडिता ने अपने बयान में बताया -” उसे पता ही नहीं उसके अपने गांव के लोगों ने कितनी बार उसके साथ दुष्कर्म किया। इनमें किशोरों की उम्र से लेकर उसके पिता की उम्र से भी ज्यादा के लोग शामिल थे।”
इस सामूहिक बर्बरता की खबर को पढकर जी दहल गया। बर्बरता और अमानवीयता के सारे पैमाने ध्वस्त हो गये। जिस गांव में लड़की 18 साल तक रही, कैसे उसी गांव के लोग पंचायत का फ़रमान सुनते ही लड़की से बलात्कार करने के लिये टूट पड़े। ऐसा लगा जैसे वे पंचायत में एकदम तैयार होकर ही आये होंगे। ’कौन बनेगा करोड़पति’ के ’फ़ास्टेस्ट फ़िंगर फ़र्स्ट’ की तरह सबको चिन्ता होगी कि कौन सबसे पहले पंचायत का आदेश पालन करते हुये युवती से सबसे पहले मजा लेता है। लगता है उनके मन में युवती से दुष्कर्म का पेट्रोल पहले से भरा था। पंचायत का आदेश उनके लिये स्पार्क सरीखा था बस। स्पार्क मिलते ही दुष्कर्म की आग लग गयी।
जिन लोगों ने उसके साथ दुष्कर्म किया उनमें से कई गांव के रिश्ते के नाते उसके चाचा, ताऊ, भाई लगते होंगे। कैसे सब भूल बिसरा कर वे सब दुष्कर्म करने करने के लिये टूट पड़े। बर्बरता, संवेदनशून्यता और अमानवीयता की इससे बड़ी पराकाष्ठा क्या हो सकती है भला?
जबसे इस घटना के बारे में पढा तबसे सोच रहा हूं कि ये कैसा समाज है अपना जिसकी पंचायतों के मुखिया अपने ही गांव की एक लड़की को गैर जाति के लड़के से प्रेम की सजा यह सुनाता है कि गांव के लोग उसके साथ सामूहिक बलात्कार करें। कैसे हैं अपने समाज के लोग जिनमें से कोई भी एक इस बर्बरता और अमानवीयता का प्रतिकार करने की बजाय स्वंय इस आदेश को पूरा करने के लिये टूट पड़े।
यह दुर्घटना पिछले सोमवार (21 जनवरी)को घटी थी। मैंने उस दिन के बाद से कोलकता के कुछ अखबार देखे। उनमें 25 के पहले इस घटना का जिक्र नहीं था। टेलिमीडिया में तो आजतक इस घटना की चर्चा नहीं हुई। साल भर पहले दिल्ली में घटी एक दुर्घटना ने मीडिया को हिला दिया था और वह बहुत भावुक होकर दिल्ली में हुये ’ निर्भया कांड’ की चर्चा कर रहा था। अलग-अलग तरह से इस पर पैनल चर्चायें चलीं उस शर्मनाक घटना पर।
लेकिन पश्चिम बंगाल में हुआ यह सामूहिक कुकृत्य दूरी की वजह से और गांव में होने की वजह से मीडिया के कानों तक नहीं पहुंच पाया शायद। वैसे भी अगले प्रधानमंत्री के चुनाव के चलते मीडिया इतना व्यस्त है कि बाकी सब घटनायें उसको ऐं-वैं टाइप लगती हैं। बाकी जो कुछ थोड़ा-बहुत समय मिलता भी है मीडिया को वह दिल्ली के नये-नवेले, अनोखे मुख्यमंत्री की चर्चा में या फ़िर किसी चर्चित महिला की मौत की खबर या क्रिकेट चर्चा में निकल जाता है ।
मुझे लगता है कि अगर खबरें और मीडिया चलते-फ़िरते इंसान सरीखी होते मीडिया अगले प्रधानमंत्री के चुनाव की खबरों के अलावा बाकी हर खबर को कन्टाप मार कर भगा देता यह कहते हुये – “दफ़ा हो जाओ सामने से। प्रधानमंत्री के चुनाव के पहले नजर आयी तो खाल उधेड़ देंगे।”
इस सामूहिक बर्बरता से लगभग उदासीन मीडिया को लगता है पीड़िता के मुख्तरण बीबी सरीखी सेलिब्रिटी बनने का इंतजार है। उसके बाद शायद मीडिया पीडिता को अपने चैनल पर बुलाकर पूरी घटना को विस्तार से पूछते हुये संवेदनशील आवाज में पूछे-” जिस समय आपके साथ बर्बर दुष्कर्म हो रहा था उस समय आपके मन में क्या चल रहा था?”
जितनी बार इस घटना के बारे में सोचता हूं लगता है कि कैसे अजीब समय में जी रहे हैं हम लोग। देश लगता है एक साथ आठवीं शताब्दी से बाइसवीं शताब्दी के कोलाज समय में जी रहा है। इसमें समाज के एक-दूसरे के धुर-विरोधी स्वीकार और वर्जनायें गड्ड-मड्ड हैं। एक तरफ़ बिना शादी के बच्चे, लिवइन रिलेशनशिप, कुंवारी मांओं को समाज स्वीकार कर रहा है। सैफ़-करीना की शादी का त्योहार मन रहा है। दूसरी तरफ़ एक लड़की को गैर जाति के लड़के के साथ प्रेम के चलते सामूहिक दुष्कर्म की सजा दे रहा है समाज। एक तरह राजधानी में हुये अपराध के सजा दिलाने के पूरा देश उमड़ पड़ता है दूसरी तरफ़ दिल्ली से 1500 किलोमीटर की दूरी पर हुये बर्बर दुष्कर्म की खबर मीडिया तक नहीं पड़ती क्योंकि उसकी आंख में अगले प्रधानमंत्री के चुनाव की खबर का माड़ा पड़ा है।
एक आधुनिक होते समाज की बहुमुखी बर्बरता का उदाहरण है पश्चिम बंगाल के गांव में हुआ यह दुष्कर्म।
मुझे ये लगता है कि आदिवासी समाज के खुलेपन में गंदी आधुनिकता के प्रवेश से ऐसी घटनाएँ अंजाम लेती हैं. आदिवासी समाज खुला था, लेकिन उसमें एक भोलापन था, मासूमियत थी. हमारी तथाकथित आधुनिकता ने उनसे उनकी मासूमियत छीन ली.
aradhana की हालिया प्रविष्टी..सम्बन्धों का जुड़ना-टूटना
sir , pad liya hai but like karane ki himmat nahi hai , bahut hi jada sharmnak ghatna . insaan aur janwar me antar khatam ho gaya hai .
Sharmnak inko fansi deni chahiye sabke samne
एक भारत में कई भारत हैं। कोई नगर में रहता है, कोई महानगर में रहता है, कोई अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता है, कोई देसी स्कूल में पढ़ता है। कोई पढ़ ही नहीं पाता, कोई पढ़ना भी है, यह जान ही नहीं पाता। किसी पर सभी कानून लागू होते हैं, किसी पर कोई कानून लागू नहीं होता। कहीं प्रेम करने की पूर्ण स्वतंत्रता है, कहीं प्यार करना अपराध है। एक आदिवासी कबीला दूसरे आदिवासी कबीले पर हँसता है-तुम्हारे शहर में बलात्कार होता है हमारे गाँव में प्रेम करने वालों के साथ हम ऐसी-तैसी कर देते हैं। ऐसे अपराध मीडिया के लिए सनसनी बनती है। जहाँ खास दर्शक चटखारे लेकर देखता है। प्राइम टाइम में स्थान नहीं मिलता। आपके..हमारे जैसे लोग लिखते हैं, पढ़ते हैं, दिल दहलता है, खून खौलता है, ब्लडप्रेशर बढ़ता है, डाक्टर के पास जाते हैं। आहें भरते हैं…..जिनके लिए लिखते हैं उनका भला नहीं होता हाँ! कुछ लोगों की बिसात और जम जाती है। नई चालें..नई तरकीबें..नये पैंतरे..नये दाँव…उफ्फ..! क्या लिखें क्या न लिखें…क्यों न पढ़ना लिखना ही बंद कर दें!
बर्बरता चढ़ती रही, निर्बल साधे मौन।
मस्त मीडिया आप में, रपट दिखाये कौन॥
रपट दिखाये कौन, दूर जंगल में जाकर।
महानगर की चकाचौंध, सुख-चैन गँवाकर॥
चिंतित हो सिद्धार्थ कहाँ चुप बैठी ममत।
प्रभु समाज पर है कलंक ऐसी बर्बरता॥
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..यूँ छोड़कर मत जाइए (तरही ग़जल-III)
ऐसे दानवों के लिए मेरे मन में एक ही संवाद गूँजता है They are not to be shouted but shot.
सभ्य समाज के चेहरे पर ज़ोर का तमाशा है यह घटना, संभवत अब चेतना झंकृत हो जाये।
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..सड़कों पर लोकतन्त्र
Kash sabko saja ho paati
इस घटना से दुःख और क्षोभ हुआ.अपनी लाचारी पर गुस्सा भी आया कि हम कुछ नहीं कर सकते. जानवर ऐसा नहीं करते. नरपिशाच करते होंगे. कानून और व्यवस्था भी नाकाम होगी. राजनीति और मीडिया कि अपनी प्राथमिकताएं हैं . यह सभ्यता पर प्रश्नचिन्ह ही नहीं बल्कि उसका मखौल है. यह सोंच कर सिहरन होती है कि कल फिर ऐसी घटना छपेगी. छपती आरही हैं और छपती रहेंगी. साहिर कि लाइन याद आ रही है ” औरत ने जनम दिया मर्दों को , मर्दों ने उसे बाज़ार दिया ……”
आठवीं शताब्दी से बाइसवीं शताब्दी के कोलाज………..में उलझा हुआ समाज।