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Wednesday, July 18, 2012

बस्तर पर टीका-टिप्पणी

एकबारगी लगा कि यह मार्च महीने में लक्ष्य प्राप्त कर लेने की आपाधापी तो नहीं, जब वित्‍तीय वर्ष 2012 की समाप्ति के डेढ़ महीने में बस्तर पर चार किताबें आ गईं। 15 फरवरी को विमोचित राजीव रंजन प्रसाद की 'आमचो बस्तर' इस क्रम में पहली थी। फिर 26 फरवरी को संजीव बख्‍शी की 'भूलनकांदा', इसके बाद 2 मार्च को ब्रह्मवीर सिंह की 'दंड का अरण्य' और अंत में 31 मार्च को अनिल पुसदकर की 'क्यों जाऊँ बस्तर? मरने!' विमोचित हुई। चारों पुस्तकों पर एक साथ बात करते हुए इस संयोग पर बरबस ध्यान जाता है कि ठेठ बस्तर पर हल्बी शीर्षक वाली आमचो बस्तर का विमोचन दिल्ली में हुआ तो अन्य तीन का रायपुर में और इन चार में, मुख्‍यमंत्री, छत्तीसगढ़ के संयुक्त सचिव संजीव बख्‍शी की कृति का विमोचन विष्णु खरे ने किया तो बाकी तीन का मुख्‍यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने।

क्यों जाऊँ बस्तर? मरने!' - अनिल पुसदकर
मंजे पत्रकार, स्वयं लेखक के शब्दों में उनकी ''किताब में ढेरों सवाल हैं, व्यवस्था पर, सरकार पर, मीडिया पर और मानवाधिकार पर भी सवाल उठाये गये हैं। किताब में बस्तर का नक्सलवाद और उससे जूझते पुलिस वालों की स्थिति का हाल सामने रखा गया है।'' इस किताब विमोचन में हर क्षेत्र के प्रतिष्ठित नागरिकों की बड़ी संख्‍या में उपस्थिति पूरे मन से है, दिखाई पड़ रही थी और ज्यादातर लोग पूरे समय शाम 4 से 7 बजे तक बने रहे। अविवाहित अनिल जी की कृति का विमोचन था, कल्पना हुई कि वे बिटिया ब्याहते तब ऐसा माहौल होता।

कार्यक्रम आरंभ होने में विलंब के दौरान पुस्तक अंश के वाचन की रिकार्डिंग बज रही थी। यह अविस्मरणीय प्रभावी था और लगा कि एकदम बोलचाल की शैली में लिखी इस पुस्तक को सुने बिना, सिर्फ पढ़ने से काम नहीं चलेगा। यानि पुस्तक के साथ इसकी आडियो सीडी भी होती तो बेहतर होता। आयोजन के मंच पर लिखे- क्यों जाऊँ बस्तर? मरने! को देखकर साथी बने अष्‍टावक्र अरुणेश ने कहा कि क्या शीर्षक में चिह्नों को बदल देना उचित नहीं होता, यानि क्यों जाऊँ बस्तर! मरने?, मुझे उनका सुझाव सहमति योग्य लगा।

दंड का अरण्य - ब्रह्मवीर सिंह
युवा पत्रकार-लेखक के मन में सवाल है- आदिवासियों की हित रक्षा की बात सभी करते हैं तो आखिर उनके विरोध में कौन है? लगभग इसी मूलभूत सवाल के लिए की गई हालातों की जमीनी तलाश में उपजा जवाब है यह रचना। अखबारी दफ्तरों की उठापटक के हवाले हो गए इस छोटी सी किताब के शुरुआती 10-12 पेज अनावश्यक विस्तार से लगते हैं। ऐसा लगता है कि यह पुस्तक बस्तर पर होने वाले लेखन में साहित्यिक अभिव्यक्तियों के प्रति गंभीर रूप से असहमत है शायद इसीलिए साहित्यिक होने से सजग-सप्रयास बचते हुए, परिस्थिति और समस्या को यहां तटस्थ विवरण, वस्तुगत रिपोर्ताज की तरह प्रस्तुत किया गया है और वह असरदार तो है ही।

भूलनकांदा - संजीव बख्‍शी
खैरागढ़-राजनांदगांव के, पदुमलाल पुन्नालाल बख्‍शी परम्परा वाले संजीव जी से मैंने 14-15 साल पहले रमेश अनुपम, आनंद हर्षुल, जयप्रकाश के साथ कांकेर में पहली बार कविताएं सुनीं और तब से उनकी कवि-छवि ही मेरे मन में जमी हुई है। बस्तर में पदस्थ रहे इस राजस्व-प्रशासनिक अधिकारी की कविताओं में अपना जिया परिवेश और संदर्भ- खसरा नंबर दो सौ उनासी बटा तीन (क), मुख्‍यधारा, मौहा जाड़ा, हफ्ते की रोशनी, बस्तर का हाट और कांकेर के पहाड़, जैसे कविता-शीर्षकों के साथ आते रहे हैं।

भूलनकांदा उपन्‍यास का विमोचन, मंच पर उपस्थित लेकिन अनबोले से विनोद कुमार शुक्ल और अपनी जवाबदारी निभाते डॉ. राजेन्द्र मिश्र के वक्तव्य सहित हुआ। मुख्‍य अतिथि विष्णु खरे का व्याख्‍यान, इस लिंक पर शब्दशः सुना भी जा सकता है, 'वागर्थ' के मई 2012 अंक में प्रकाशित हुआ है, जिसके कुछ अंश हैं-
यह गांव का उपन्यास है, पर ऐसे यथार्थ मानवीय गांव का, जो मैं नहीं समझता कि हिन्दी में इसके पहले कहीं आया हो। ... संजीव बख्‍शी ने जो भाषा बुनी है वह ऐसी नहीं है जो फणीश्वरनाथ रेणु की है। रेणु बड़े उपन्यासकार हैं, इसमें शक नहीं, लेकिन उनके यहां बहुत शोर है, तुमुल कोलाहल है, बहुत ज्यादा साउंड इफेक्ट है। ... कुल मिलाकर यह उपन्यास विनोद जी से थोड़ा हट कर, लेकिन कुछ आगे जाता नजर आता है। ... विजयदान देथा के होते हुए भी, आज तक ऐसा उपन्यास नहीं आया है। ... ऐसी सार्वजनीनता इससे पहले और कहीं नहीं आई थी, शायद प्रेमचंद के यहां भी नहीं।

प्रसंगवश, पिछले सालों में केदारनाथ सिंह ने इस रचनाकार के कविता संग्रह को कविवर विनोद कुमार शुक्ल की काव्य-परंपरा की अगली कड़ी कहा था। लेकिन यह भी जोड़ा है कि इस कवि ने विनोद जी की शैली को इस तरह साधा है कि जैसे यह कवि का अपना ही 'स्वभाव' हो। इन उद्धरणों के बीच मेरी दृष्टि में यह उपन्यास व्यवस्था से विसंगत हो जाने की जनजातीय समस्या, जिसमें धैर्य की ऊपरी झीनी परत के नीचे गहरी जड़ों वाला द्रोह सुगबुगाता रहता है, का विश्वसनीय चित्रण है।

आमचो बस्तर - राजीव रंजन प्रसाद
लंबे समय बाद इतनी भारी-भरकम, 400 से अधिक पृष्ठों की इस पुस्तक को पेज-दर-पेज पढ़ा। पुस्‍तक में (पृष्ठ 314 पर) कहा गया है कि ''मुम्बई-दिल्ली-वर्धा से बस्तर लिखने वालों ने कभी इस भूभाग को समग्रता से प्रस्तुत ही नहीं किया।'' निसंदेह, यहां बस्तर के देश-काल को जिस समग्रता के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, उसके लिए यह आकार उपयुक्त ही नहीं, आवश्यक भी है। बस्‍तर इतिहास के प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण कालखंड, आदि काल से अब (पृष्ठ 331 पर 6 अप्रैल 2010) तक, को विस्तृत फलक पर प्रस्तुत इस कृति में काल-पात्रों के अलग-अलग स्तर का समानान्तर निर्वाह होता है।

मिथकीय चरित्र गुण्डा धूर और भूमकाल विद्रोह, दंतेश्‍वरी में नरबलि आदि प्रसंगों की चर्चा पर्याप्‍त विस्तार से है। पात्रों, शैलेष और मरकाम की बातचीत के माध्‍यम से बस्‍तर की समस्‍याओं, परिस्थितियों से लेकर संस्‍कृति, कहावत-मुहावरे तक का अंश भी यथेष्‍ट है। इन सब के बीच लेखक किसी दृष्टिकोण-मान्‍यता का पक्षधर नहीं दिखाई पड़ता, इससे पात्रों के विचार और कथन, उनकी अपनी विश्वसनीय और स्वाभाविक अभिव्यक्ति जान पड़ते हैं। प्रस्‍तुति में प्रवाह का ध्‍यान रखा गया है न कि कालक्रम का, लेकिन प्रवीरचंद्र भंजदेव और उनके निधन का विवरण अंत में लाना एकदम सटीक है, क्‍योंकि यही वह बिन्‍दु है, जिसके पूर्वापर संदर्भों बिना बस्‍तर के रहस्‍य का अनुमान कर पाना भी कठिन होता है।

संक्षेप में पुस्‍तक पढ़ते हुए भरोसा होता है कि लेखक न सिर्फ गंभीर और सावधान है, बल्कि उसने इस कृति में निष्ठा सहित अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। प्रूफ शुद्धि भी उल्‍लेखनीय और प्रशंसा-योग्‍य (वैसे पुस्‍तक में बार-बार 'प्रसंशा' मुद्रित) है। एक स्‍थान पर ''जहाज डूबने से पहले चूहे ही भागने लगते हैं'' (पृष्ठ 172) कहावत का प्रयोग भैरमदेव से कराया जाना जमा नहीं। आलोचना के कुछ और छिटपुट उल्‍लेख किए जा सकते हैं, लेकिन इस पुस्‍तक की सब से बड़ी कमजोरी, परिशिष्ट का अभाव, माना जा सकता है। इतिहास और तथ्‍यों को औपन्‍यासिक शैली में प्रस्‍तुत करते हुए यह उपयुक्‍त होता कि परिशिष्‍ट के कुछ और पेज जोड़ कर बस्‍तर इतिहास का कालक्रम, ऐतिहासिक पात्रों के नाम की सूची और संक्षिप्‍त परिचय भी दिया जाता, इससे पुस्‍तक की उपयोगिता और विश्‍वसनीयता बढ़ जाती। बस्‍तर पर कुछ लिखते-पढ़ते इस पुस्‍तक में आई टिप्‍पणी याद आ जाती है कि- ''इन दिनों बस्तर शब्द में बाजार अंतर्निहित है। (पृष्ठ 326) और ''अब बस्तर शब्द का लेखन की दुनिया में बाजार है।'' (पृष्ठ 337) अखिलेश भरोस द्वारा लिये चित्र का आवरण के लिए चयन, सार्थक और सूझ भरा है।

इन चारों साहित्‍य-पत्रकारिता की रचनाओं को एक साथ मिलाकर देखते हुए धारणा बनती है कि- अशांति और विद्रोह का इतिहास पढ़ते हुए महसूस होता है कि आम तौर शांत, संस्कृति संपन्न, उत्सवधर्मी लेकिन अपने में मशगूल (बस्तर का) वनवासी, अस्तित्व संकट से मुकाबिल होता है तो जंगल कानून पर अधिक भरोसा करता रहा है।

बस्तर और उसकी परिस्थितियों को समाज-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ समझने के लिए (कम से कम) जो प्रकाशन देखना मुझे जरूरी लगता है, वे हैं- डब्ल्यूवी ग्रिग्सन, वेरियर एल्विन, केदारनाथ ठाकुर, प्रवीरचंद्र भंजदेव, लाला जगदलपुरी, डॉं. हीरालाल शुक्ल, डॉ. कृष्‍ण कुमार झा, हरिहर वैष्णव, डॉं. कामता प्रसाद वर्मा की पुस्तकें/लेखन और मार्च 1966 के जगदलपुर गोलीकांड पर जस्टिस केएल पांडेय की रिपोर्ट।

बस्तर को उसकी विशिष्टता के साथ पहचानते हुए, शोध-अध्ययन दृष्टि से महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय कार्य हैं- छत्तीसगढ़ के पहले मानवविज्ञानी डॉ. इन्द्रजीत सिंह का लखनऊ विश्वविद्यालय से किया गया गोंड जनजाति पर शोध, जो सन 1944 में The Gondwana and the Gonds शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। पुस्तक, बस्तर के जनजातीय जीवन की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ उनके आर्थिक परिप्रेक्ष्य का तटस्थ लेकिन आत्मीय विवरणात्मक दस्तावेज है, जिसका निष्कर्ष कुछ इस तरह है- जनजातीय समुदाय के उत्थान और विकास का कार्य ऐसे लोगों के हाथों होना चाहिए, जो उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक व्यवस्था को पूरी सहानुभूति के साथ समझ सकें। इसी प्रकार दूसरा कार्य है, सागर विश्वविद्यालय से किया गया डॉ. पीसी अग्रवाल का शोध Human Geography of Bastar District, जो सन 1968 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ और तीसरा, मध्यप्रदेश राज्य योजना मंडल द्वारा Bastar Development Plan वर्किंग ग्रुप के चेयरमैन आरसी सिंह देव के निर्देशन में सन 1984 में योजना आयोग के लिए तैयार, बस्तर विकास योजना, जिसे देख कर महसूस होता है कि इस प्रतिवेदन के अनुरूप तब इसका उपयुक्त क्रियान्वयन हो पाता तो आज शायद बस्तर कुछ और होता।


यहां आए सभी नामों के प्रति यथायोग्‍य सम्‍मान।

Saturday, April 28, 2012

अकलतरा के सितारे

आजादी के बाद का दौर। मध्‍यप्रांत यानि सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेस एंड बरार में छत्‍तीसगढ़ का कस्‍बा- अकलतरा। अब आजादी के दीवानों, सेनानियों की उर्जा नवनिर्माण में लग रही थी। छत्‍तीसगढ़ के गौरव और अस्मिता के साथ अपने देश, काल, पात्र-प्रासंगिक रचनाओं से पहचान गढ़ रहे थे पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी 'विप्र'। यहां संक्षिप्‍त परिचय के साथ प्रस्‍तुत है उनकी काव्‍य रचना स्वर्गीय डा. इन्द्रजीतसिंह और ठा. छेदीलाल-
बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल
जन्‍म-07 अगस्‍त 1891, निधन-18 सितम्‍बर 1956
पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी 'विप्र'
जन्‍म-06 जुलाई 1908, निधन-02 जनवरी 1982
लाल साहब डॉ. इन्द्रजीतसिंह
जन्‍म-28 अप्रैल 1906, निधन-26 जनवरी 1952

अकलतरा में सन 1949 में सहकारी बैंक की स्‍थापना हुई, बैंक के पहले प्रबंधक का नाम लोग बासिन बाबू याद करते हैं। डा. इन्द्रजीतसिंह द्वारा भेंट-स्‍वरूप दी गई भूमि पर बैंक का अपना भवन, तार्किक अनुमान है कि 1953 में बना, इस बीच उनका निधन हो गया। उनकी स्‍मृति में भवन का नामकरण हुआ और उनकी तस्‍वीर लगाई गई। लाल साहब के चित्र का अनावरण उनके अभिन्‍न मित्र सक्‍ती के राजा श्री लीलाधर सिंह जी ने किया। इस अवसर के लिए 'विप्र' जी ने यह कविता रची थी।
स्वर्गीय डा. इन्द्रजीतसिंह
(1)
जिसके जीवन के ही समस्त हो गये विफल मनसूबे हैं।
जिस स्नेही के उठ जाने से हम शोक सिंधु में डूबे हैं॥
हम गर्व उन्हें पा करते थे - पर आज अधीर दिखाते हैं।
हम हंसकर उनसे मिलते थे अब नयन नीर बरसाते हैं॥
वह धन जन विद्या पूर्ण रहा फिर भी न कभी अभिमान किया।
है दुःख विप्र बस यही- कि ऐसा लाल सौ बरस नहीं जिया॥

(2)
सबको समता से माने वे- शुचि स्नेह सदा सरसाते थे।
छोटा हो या हो बड़ा व्यक्ति- सबको समान अपनाते थे॥
वे किसी समय भी कहीं मिलें- हंस करके हाथ मिलाते थे।
वे अपनी सदाचारिता से - हर का उल्लास बढ़ाते थे॥
वह कुटिल काल की करनी से - पार्थिव शरीर से हीन हुआ।
वह इन्द्रजीत सिंह सा मानव- क्यों ''विप्र'' सौ बरस नहीं जिया॥

(3)
राजा का वह था लाल और, राजा समान रख चाल ढाल।
राजसी भोग सब किया और था राज कृपा से भी निहाल॥
जीते जी ऐसी शान रही- मर कर भी देखो वही शान।
हम सभी स्वजन के बीच ''विप्र'' सम्मानित वह राजा समान॥
तस्वीर भी जिसकी राजा का संसर्ग देख हरषाती है।
श्री लीलाधर सिंह राजा के ही हाथों खोली जाती है॥

थोड़े बरस बाद ही डा. इन्द्रजीतसिंह के निधन का शोक फिर ताजा, बल्कि दुहरा हो गया। स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी, युग-नायक बैरिस्‍टर छेदीलाल नहीं रहे, तब 'विप्र' जी ने कविता रची-
ठा. छेदीलाल
अकलतरा के दो जगमग सितारे थे-
दोनों ने अमर नाम स्वर्ग जाके कर लिया।
विद्या के सागर शीलता में ये उजागर थे -
दोनों का अस्त होना सबको अखर गया॥
काल क्रूर कपटी कुचाली किया घात ऐसा-
छत्तीसगढ़ को तू वैभव हीन ही कर दिया-
एक लाल इन्द्रजीत सिंह को तू छीना ही था-
बालिस्टर छेदीलाल को भी तू हर लिया॥
छेदी लाल छत्तीसगढ़ क्षेत्र के स्तम्भ रहे-
महा गुणवान धर्म नीति के जनैया थे।
राजनीति के वो प्रकाण्ड पंडित ही रहे-
छोटे और बड़े के समान रूप भैया थे।
राम कथा कृष्ण लीला दर्शन साहित्य आदि-
सब में पारंगत विप्र आदर करैया थे।
गांव में, जिला में और प्रान्त में प्रतिष्ठित क्या-
भारत की मुक्ति में भी हाथ बटवैया थे॥
छिड़ा था स्वतंत्रता का विकट संग्राम -
छोड़कर बालिस्टरी फिकर किये स्वराज की।
आन्दोलनकारी बन जेल गये कई बार -
चिन्ता नहीं किये रंच मात्र निज काज की।
अगुहा बने जो नेता हुए महाकौशल के -
भारत माता भी ऐसे पुत्र पाके नाज की।
ऐसा नर रत्न आज हमसे अलगाया 'विप्र'-
गति नहिं जानी जात बिधना के राज की॥

बैरिस्‍टर ठाकुर छेदीलाल जी पर एक पोस्‍ट पूर्व में लगा चुका हूं, उन पर लिखी पुस्‍तक की समीक्षा डॉ. ब्रजकिशोर प्रसाद ने की है। अंचल के प्रथम मानवशास्‍त्री डॉ. इन्‍द्रजीत सिंह जी का शोध पुस्‍तककार सन 1944 में प्रकाशित हुआ, उनसे संबंधित कुछ जानकारियां आरंभ पर हैं इस पोस्‍ट की तैयारी में तथ्‍यों की तलाश में पुष्टि के लिए उनका पासपोर्ट (जन्‍म स्‍थान, जन्‍म तिथि के अलावा कद 6 फुट 2 इंच उल्‍लेख सहित) और विजिटिंग कार्ड मिला गया, वह भी यहां लगा रहा हूं-

ऐसे अतीत का स्‍मरण हम अकलतरावासियों के लिए प्रेरणा है।

बैरिस्‍टर साहब का जन्‍मदिन, हिन्‍दी तिथि (तीज-श्रावण शुक्‍ल तृतीया) के आधार पर पं. लक्ष्‍मीकांत जी शर्मा के ''देव पंचांग'' कार्यालय, रायपुर द्वारा परिगणित है।