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Wednesday, 6 July 2016

चल गुनाह क़बूलते हैं ।

चल गुनाह क़बूलते हैं । स्वप्न की " पहली मिठास " का गुनाह । अरमानों की " पहली उड़ान " का गुनाह । दिल की पहली " तेज धड़कनों " का गुनाह । ज़िंदगी के " पहले स्पर्श " का गुनाह । किसी परम्परा के " प्रथम भंजन " का गुनाह । गुनाह के " पहले अपराध बोध " का गुनाह । ख़ुद से सहम कर जीने का गुनाह । फ़ेहरिस्त लम्बी है - पर चल इनमें से कुछ तो चुनते हैं । चल आज कुछ गुनाह क़बूलते हैं ।
                  ये ज़िंदगी किसी मन्नत की मुहताज  नहीं थी । बस घट गई , इत्तिफ़ाक़न । जैसे गूँजती हैं हर गली मुहल्ले में - किलकारियाँ । पर जनाब इन साँसों ने तो अपनी पहली करवट से ही बाँधना शुरू कर दिया था - मन्नतों का धागा , तमन्नाओं की शक्ल में । अन्नप्रासन की पहली चखन ने गूँथ दिया था, स्वाद का गुनाह - जिह्वा पर । लोरी की पहली मीठी थपकियों ने पिरो दिया था , स्वप्न का गुनाह - पलकों पर , नज़रों में ।  खिलौनों की पहली ज़िद , और उस पर जीते जंग ने , ठुमक कर खड़ा कर दिया था , गुनाहों  का पूरा लश्कर - मन के भीतर । नसीहतों के पहले पाठ ने ही खोल दिए थे सारे बन्द दरीचे - जिज्ञासाओं के । और अब हसरतों का पूरा आसमान सामने है - अनन्त संभावनाओं के झिलमिलाते गुनाह से रौशन ।
         तुम रही थीं मेरे " पहले गुनाह " की साक्षी । पलकों की ओट से निहारने का मेरा पहला गुनाह तुम थीं । मर्यादाओं को लाँघने का मेरा पहला साहस तुम थीं । ज़िंदगी के मन्नत हो जाने की मेरी पहली कशिश तुम थीं । पर तुम तो समझ भी नहीं पाईं थीं , और इन सबमे मैं तेरा गुनाहगार हो चला था । पर इस अपराध बोध की पहली चुभन ने हुमककर धर दिया था छाती पर ज़िद का कच्चा लोहा । जिसे  मैं तबसे पकाता आ रहा हूँ , हर नए गुनाह के साथ - ठोस और ठोस ।
         चल थोड़ा गुनाह तू भी साथ चुन ले । बिजली के तरंगों सी उस प्रथम स्पर्श का गुनाह - जो हथेलियों पर भी हृदय के स्पंदन सा स्पष्ट था । शिष्टाचार के आवरण में जिया हुआ वो हमारा पहला निजी लम्हा । तब हम दोनों गुनाहगार हो चले थे । समझ बूझ कर भी अनजान बने हुए गुनाहगार । पर तब सोचा था चल कुछ गुनाह यूँ भी जी लें - साँझा । गली मुहल्ले में घटती सी ज़िंदगी , तब मन्नत जो हो चली थी ।
         चल आज फिर से हासिए पर पड़ी तमन्नाओं की कोई पुरानी पोटली खोलते हैं , और उसमें से चुनते हैं , मन्नत का सबसे उधड़ा हुआ कोई धागा । और बाँध लेते हैं उसे नए रक्त की किसी उफनती धमनी पर । चल ये ख़्वाब ही सही - पर साथ साथ जिएँ , और बस इतना क़बूलें  , पूरे मन से कि " हाँ , ऐ गुनाह क़बूल है , क़बूल है , क़बूल है " । और जब आँखें छलककर नम रह जाएँ  ; होठ थरथराएँ , लरज़ जाएँ ; रक्त शिराएँ खौलकर थम जाएँ । तो लिख लें कहीं किसी सादे काग़ज़ पर " एक और गुनाह का क़बूलनामा " । बहला लें दिल को गुनाह के एक और हसीन किस्से से ।
                              # राजेश पाण्डेय

Sunday, 8 May 2016

वो मैं ही था ।

गरजते बादलों में , जो घुप्प अँधेरी रात थी , वो मैं ही था ।
बहा ले जाने को व्याकुल , जो बरसात थी , वो मैं ही था ।।
महफ़िलों , नुमाइशों , औ' जश्न में दुनिया रही ;
परेशानियों में , तल्ख़ जो हालात थे , वो मैं ही था ।।
कहकहों में कटी शाम तेरी , हलचलों में दिन ;
उचटती नींद के ,जो अनमने ख़यालात थे, वो मैं ही था ।।
तजुर्बादार रहे लोग तेरे , सुलझे हुए सलाह ;
हमारे बीच , जो उलझे हुए , सवालात थे, वो मैं ही था ।।
हज़ार दाँव चली ज़िंदगी , किस्मत हज़ार चाल ;
लाचार सी पसरी हुई , जो बिसात थी , वो मैं ही था ।।
                      # राजेश पाण्डेय

Sunday, 1 May 2016

शिकवा , गिला

शिकवा , गिला कुछ भी न की , कि बेआबरू होता था वो ।
पर रहा ये इल्ज़ाम सर पर ," कि हर बात पे रोता था वो "।।
बंदिशें इतनी सहीं , कि मैं कभी " मैं " न रहा ;
पर लोग उठने तक जनाज़ा , पूछा किये -- " कैसा था वो ? "
या रब तू मुझसे पूछ मत , हिसाब मेरी ज़िंदगी का ;
अच्छा रहूँ इस फ़ेर में , गुज़ारी जो , धोखा था वो ।।
उस शाम मेरी ज़ब्ते- मोहब्बत , ज़ंजीरे जुनूँ थी , कुछ न था ;
आज पछताता हूँ कि , " हाय इक मौका था वो । "
नाश में हलचल हुई इक , बंद पलकें नम हुईं ;
क्यूँ कफ़न सरका के मेरा ,बेसाख़्ता चौंका था वो ।
                                    # राजेश पाण्डेय

मंज़िल रही न कोई

मंज़िल रही न कोई , क़दमों को राह में ।
चल पड़ी है साँसें , बेनामी सी चाह में ।।
जिस्म भी अब रूह का ताबूत बन चुका है ;
दिल दफ़्न है ख़ामोशियों की क़ब्रगाह में ।।
आँखों में आँच लेकर , सपनों की चिता की ,
ढूँढता हूँ ख़ुद को , सबकी निगाह में ।।
ज़िंदगी में वैसी , तबीअत नहीं रही अब ;
शामिल करूँ मैं कैसे , तुझको निबाह में ।।
ख़्वाहिशें , हैरानियाँ , कमबख़्त से ख़याल ;
कुछ दिल में रह गईं हैं , कुछ निकलीं हैं आह में ।।
                       # राजेश पाण्डेय

तड़प आँसुओं की

तड़प आँसुओं की , मुहताज कब हुई ।
दिल के टूटने पर , आवाज़ कब हुई ।।
तुझको कहाँ ख़बर कि हम बेचैन बहुत हैं ;
दिल के इस हालात पर , बात कब हुई ।।
अपने ही ज़ख़्म पे हूँ मलता , लाचारियों का नमक ;
पर ऐसे किसी वक़्त , मुलाकात कब हुई ।।
झुलसी हो ज़मीं जैसे , फटते हैं होंठ प्यासे ;
सहरा के मुसाफ़िर पे , बरसात कब हुई ।।
                   
                              # राजेश पाण्डेय

Saturday, 26 March 2016

होली के बाद

            ढोल-मजीरों ने पूरी रात पूर्णिमा के चाँद को थरथरा रखा था । अब ख़ामोशी थी । अबीर , गुलाल से किलकारियाँ मारता रंगीन चौराहा अब सुस्ता रहा था । होली के बाद की वो शांत सुबह थी । लाल बाग के मैदान के चारों ओर के रास्ते अलसाए से पड़े थे । मैं कुछ आश्वस्त सा होकर सूरज की पहली किरणों के साथ ही टहलने निकल पड़ा । मैंने वो सारे रंग देखे जो रास्तों पर औंधे पड़े थे , हल्के छाए बादलों और मद्धम बहती हवा ने उनमें एक अलग ही आभा बिखेरी हुई थी ।उनमें से कोई भी रंग मेरा नहीं था । मैं होली खेलता कहाँ हूँ ? वैसे ही जैसे दशहरे की भीड़ में ग़ुम नहीं होता , जैसे नए साल के जश्न में थिरकता नहीं । घर से कोसों दूर , दोस्तों से ज़ुदा , बस्तर के जंगलों के बीच ख़ुद भी खोया खोया सा । पर कभी- कभी सोचता हूँ कि मैं कुछ भी miss  क्यों नहीं करता ? वक़्त ने सीने में ना जाने कौन सा धातू उड़ेल दिया है ? मैं मज़बूत अधिक हुआ हूँ या निष्प्राण ज़्यादा ???
                                        रंग से लाल हुई सड़क की छाती पर पीले , हरे गुलाल लिपटे पड़े थे । कहीं कहीं हल्की चमकती हुई चाँदी सी परत शरमाई हुई लग रही थी । ठीक वैसे ही जैसे मैंने झिझकते हुए उसके गालों पर गुलाल से सनी अपनी उँगलियाँ फेर दी थीं । रंग से पुता उसका चेहरा और सुर्ख़ हो गया था । बड़ी बड़ी कौतूहल भरी आँखों से उसने मुझे थाम लिया था । मुट्ठी भर गुलाल मेरे बालों में ठूंसने। पर ये सब मैं अब क्यों सोचता हूँ ? लम्हों की धीमी आँच में पके रिश्तों का मर्म तो कब का पीछे छूट चुका है । साथ ही वो उल्लास भी ।     " मुझे रंगों से एलर्जी है " :- - सब जानते हैं कि मैं झूठ बोलता हूँ , पर कोई भी ये कहाँ जान पाया कि मैं सिर्फ़ " रंग " कब बोलता हूँ ।
                              तभी एक निरीह सा चौपाया , जो  मानव सभ्यता की शुरुआत से ही हमसे वफ़ादार रहा है  , केमिकल वाले रंगों से लाचार , घबराया सा गुज़रा , और विचार की श्रृंखला करवट लेती है ।  मुझे याद है कैसे हमारी प्यारी रूबी दिवाली के पटाखों से पस्त होकर काँपती हुई बिस्तर  के नीचे दुबक जाती थी । और क्यों मैं आज भी पटाखे नहीं फोड़ता ? त्यौहार के मायने हर किसी के लिए एक से नहीं होते ।
                      कुछ अनमने से वापस लौटते हुए ख़याल आया कि अभी बहुतों को wish करना रह गया है । मेरे लिए त्यौहार के मायने ही बदल गए हैं । संवेदनाओं की नई कसौटियाँ सामने आने लगी हैं । आज मैं सम्बन्धों को मधुरता से ना सही पर व्यवहार की चपलता से निभाना ज़रूर सीख गया हूँ ।
   
                                       # राजेश पाण्डेय

Sunday, 23 August 2015

Compatibility Issue

ठोकर तुम्हारी थी :
                     ( इरादतन ना सही पर सम्भावनाओं का ज्ञान तो तुम्हे भी था । )
और ज़ख़्म मेरे ।।
                    ( और ये स्वाभाविक भी है । )
पर मेरी कराह भी तुम्हें ;
मुख़ालफ़त का भ्रम देती है ।
अब त्यौरियाँ तुम्हारी हैं :
और सदमा मेरा ।।
                    गोया कि मैं
                    दर्द के अलग अलग निशाने पर हूँ ।
                    और तुम्हे आजमाने हैं :
                    शिकायतों के अनगिनत तीर ।।
      #राजेश पाण्डेय