रविवार, 16 मार्च 2014

बड़ी मुश्किल है भाई…....



बड़ी मुश्किल है भाई….

कोई त्यौहार आया नहीं कि मेरा बचपन मुझ पर पहले हाबी होने लगता है. पता नहीं क्यों L
आज होली है तो मन फिर अपने बचपन की होलियों की तरफ़ भाग रहा. अब समझ में आ रहा कि बड़े लोग हम बच्चों को हमेशा ये क्यों कहते रहते थे, कि - अरे जब हम छोटे थे तो ऐसा होता था, वैसा होता था…… :( आज जब मैं बड़ों की श्रेणी में हूं, तो मैं भी तो वही कर रही…………. :(
लेकिन सचमुच, बहुत अच्छा लगता है गुज़रा ज़माना याद करना…… तब मैं बहुत छोटी थी लेकिन त्यौहारों पर होने वाली तैयारियों में पूरी तरह शरीक़ होना चाहती थी, और मेरी मम्मी हम बहनों को शामिल करती भी थीं. सबके हिस्से में काम बंटे होते थे. होली पर तो कुछ ज़्यादा ही तैयारियां होती थीं. बुंदेलखंड के हमारे शहर  में उस समय होली के दस दिन पहले से तैयारियां शुरु हो जाती थी. जितनी तैयारियां घर में होती उतनी ही बाहर भी होती रहतीं.
घर में दस दिन पहले गोबर के गोलाकार “बरूले” बनाने होते थे. गाय के गोबर से गोल-गोल पेड़ा बना के उसके बीच में छेद किया जाता था. ऐसे ११ या २१ बरूले बनाये जाते. दो दीपकों को जोड़ के उसके ऊपर गोबर लगा के नारियल बनाया जाता. ये सब सूखने के लिये छत के कोने में रख दिये जाते धूप में खूब कड़क हो जाने के लिये. मिट्टी का एक छोटा सा चूल्हा  हमारी चिंजीबाई ने बनाया था, जो पोर्टेबल था. कहीं भी उठा के रख लो. इस चूल्हे में होली की आग रखी जाती थी.
तो “बरूले बनाने का काम छोटी दीदी का था. मैने ज़िद की कि मुझे भी काम चाहिये, तो मम्मी ने कहा कि छोटी दी के साथ बरूले बनबाऊं… उफ़्फ़…. बरूले!!! मुझे तो गोबर छूने में बड़ी घबराहट होती थी  :(  मम्मी जानती थीं सो मेरे मज़े ले रहीं थीं. खैर मैने दीदी को इस बात के लिये मना लिया कि मैं तैयार बरूलों में लकड़ी की मदद से गोल-गोल छेद करती जाऊं  :(  अरे यार….  ये काम तो बहुत जल्दी हो गया अब क्या करूं? अन्दर गयी, तो देखा मम्मी लड्डू बना रही हैं, और बड़ी दीदी उनके साथ मदद कर रही हैं, यानि दोनों लोग लड्डू बना रही थीं. मैने भी बनवाने चाहे तो मम्मी ने बने हुए लड्डू थाली में गोलाइयों से सजाने को कह दिया L ये अलग बात है कि मुझे लड्डू कायदे से सजाने का मौका ही नहीं मिल रहा था, कारण, मम्मी खुद ही बनाये गये लड्डू सलीके से रख रही थीं. दूसरा काम करने की ज़िद की , तो मम्मी ने मठरी काटने का काम दे दिया. एक बड़ी और मोटी से मैदे की पूड़ी बेल के मुझे दे दी और कहा कि एक जैसे आकार की मठरी  काटूं. मुश्किल था ये काम, लेकिन अब जब मांगा था, तो करना भी था वो भी कायदे से. किया भी. लेकिन थोड़ी देर बाद देखा कि मम्मी ने मेरी काटी पूरी मठरी  बिगाड़ के फिर से गुंथे हुए मैदे में तब्दील कर दी थी :(
मन उदास हो गया  :( :( :(  कितने जतन से मठरी काटी थी. चाकू से हाथ बचा-बचा  के…फिर भी बिगाड़ दी गयी… बच्चों के काम की कोई कीमत ही नहीं L सोचा बाहर मोहल्ले के बड़े भैया लोगों की मदद करूं, जो होलिका लगाने की तैयारी कर रहे थे.
होलिका भी हमारे यहां एक ही दिन में नहीं लगायी जाती थी. बल्कि दस दिन पहले होली के लिये लकड़ियां जुटाने का काम शुरु हो जाता था. होलिका-दहन वाले दिन बड़े सबेरे से लड़के दहन-स्थल पर चारों तरफ़ से हरी-पीली झंडियां लगाते. होलिका भी खूब बड़ी सजायी जाती. आखिर लगभग पूरा शहर आता था यहां पूजा करने.
गोबर से बनाये गये बरूले इन दस दिनों में सूख जाते, तब उन्हें एक सुतली में पिरोया जाता.  माला बन जाती उनकी. हर घर में इस दिन तक तमाम पकवान भी बन के तैयार हो जाते. होलिका के पूजन में हर तरह का व्यंजन लोग लाते, बरूलों की माला लाते. कायदे से महिला-पुरुष सब होलिका का पूजन करते, पूरी होलिका बरूलों की मालाओं से ढंक जाती…लकड़ियां दिखनी बंद. और मुहूर्त के अनुसार होलिका-दहन होता. रात में ही लोग होली की आग में हाथ सेंकते, गेंहूं की बालियां और हरे चने के झाड़ भूनते.  सुबह पहला काम होता होली की आग ला के मिट्टी के चूल्हे में रखना. मम्मी इस चूल्हे में पहले से कंडे लगा के रखतीं. अब होलिका की आग से सुलगे इस चूल्हे पर दूध गरम किया जाता. हम बच्चों को पुराने कपड़े पहनाये जाते, और बाल्टियों में रंग घोल के रखा जाता. थाली भर भर गुलाल रखी जाती…..
और समय हो जाता होली-जुलूस निकलने का…हाथ ठेले पर रंग का बड़ा सा ड्रम और गुलाल. एक व्यक्ति ठेले पे खड़ा हो रंग उछालता, गुलाल उड़ाता और दूसरा ठेले को धकियाता इनके पीछे लोगों का हुजूम…सब रंगे-पुते. फिर जुलूस हर घर के बाहर रुकता , उस घर के पुरुष निकलते,जुलूस में शामिल हो जाते. महिलाएं मिठाई खिलातीं.
सब प्रसन्न. सब खुश. सबको त्यौहार का इंतज़ार.
अब देखती हूं, कि किसी त्यौहार का किसी को इंतज़ार ही नहीं होता. न पहले जैसी खुशी. बस एक छुट्टी मिलने की खुशी ही ज़्यादा समझ में आती है. पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा जबकि हम सब तो वही हैं… लेकिन इतना पता है कि त्यौहारों में अब वो बात नहीं रही…
होली मुबारक़ हो आप सबको….  

शनिवार, 23 नवंबर 2013

कही न जाये, का कहिये.............


इन दिनों अखबारों की मुख्य खबरें  कोई भी बता सकता है.... कोई मुझसे पूछता है कि क्या है आज खास खबर? तो मैं आंख मूंद के बोल देती हूं- "मोदी केआरोप, राहुल गांधी के प्रत्यारोप, और कुछ बलात्कार... बस्स.
बहुत दिन हुए, इन खबरों के अलावा कुछ और रहता ही नहीं. मोदी और राहुल की खबरें तो केवल चुनावों तक ही हैं, लेकिन बलात्कार की खबरों ने जैसे स्थायी कॉलम बना लिया है अपना. तक़लीफ़ तब ज़्यादा होती है, जब इन खबरों को अंजाम देने वाला कोई समाज का ठेकेदार होता है. जो दम भरता है समाज को सही दिशा में ले जाने का....
पिछले कुछ दिनों में पहले तथाकथित बाबा, फिर बाबा का पूरा खानदान, फिर जज साहब, और अब लोगों का भांडा फोड़ने वाले तेजपाल.....पहला
लोगों को भक्ति के ज़रिये भगवान तक उंगली पकड़ के ले जाने वाला, दूसरा न्याय करने वाला, तीसरा न्याय दिलाने वाला... ये तीनों ही बलात्कारी निकल गये.... अब क्या हो? है कोई भरोसा करने लायक़?
हालात ये हैं, कि लोग अब अपने रिश्तेदारों तक पर भरोसा करने से डरने लगे हैं. क्या जाने कब किस की नीयत बदल जाये... वैसे भी इस समय
हवा कामुक हो रही.
कहां तो औरतों को आगे बढाने, अधिकार दिलाने की बातें हो रही थीं, कहां अब फिर उन्हें बताया जा रहा कि वे कभी भी बलात्कार की शिकार हो सकती हैं! आज फिर बेटियों को कहा जा रहा है कि वे अंधेरा होने से पहले घर लौट आयें... किसी के साथ अकेली न जायें.... औरत के आत्मविश्वास
को तोड़ने के लिये इस तरह की सलाहें ही काफ़ी हैं.....कैसे कहे कोई मां, अपनी बेटी से  कि  बेटा, तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है.............
उधर बाबा के बेटे को पुलिस आज तक न पकड़ पाई... पता नहीं कहां तलाश रही..और क्यों उसकी लोकेशन उसके निकल जाने के बाद पता चलती है? अरबपति बाबा का बेटा शायद करोड़ों की खुश्बू से खोजी दस्ते
को बेहोश कर देता होगा..... पता चला है कि बेटा अब हैलीकॉप्टर से उड़ रहा और खोजी दस्ते शायद - "वो देख, चीलगाड़ी...." की तर्ज़ पे चीलगाड़ी देख-देख के खुश हो रहे. कोई आश्चर्य नहीं, अगर कुछ दिनों बाद शायद उसके हैलीकॉप्टर के क्रैश हो जाने की खबर आये, और कुछ सालों बाद वो फिर से किसी और नाम से कीर्तन करता दिखाई दे तो.... बचाने के बहुत तरीके हैं भाई... बस अगले को आप जो इत्र लगायें, वो करोड़ों का होना चाहिये...
उधर सबका न्याय करने वाले जज साहब को कौन दोषी ठहराये? सो मामला अधर में....
लोगों की पोल खोलने वाले तेजपाल की जब पोल खुली, तो महाशय जी प्रायश्चित करने निकल लिये.....उन्हें प्रायश्चित करने भी दिया जा रहा फिलहाल तो....
हद्द है











गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

चंद तस्वीरें................

सेवाग्राम रेल्वे स्टेशन, जहां पैर रखते ही मन गांधीवादी होने लगता है :) स्थान की महिमा है भाई... हां, स्टेशन बहुत साफ़-सुथरा है. लम्बा प्लेटफ़ॉर्म एकदम कचरारहित मिला मुझे तो. स्टेशन का नाम भी दीवार पर जिस कलात्मकता के साथ लिखा है, वो भी बहुत भाया मुझे. सेवाग्राम + वर्धा का  पूरा नक्शा बना है इस पर स्टोन कार्विंग के ज़रिये.
ये जो मोहतरमा आप को दिखाई दे रहीं हैं, इनका नाम वन्दना अवस्थी दुबे है. तस्वीर खिंचवाने कि लिहाज से एकदम नहीं खड़ी थीं ये, वो तो उनके श्रीमान जी उमेश दुबे की मेहरबानी है, जो वे खुद तस्वीर में तब्दील हो गयीं, इस वक्त :)

हबीब तनवीर सभागार पहुंचते ही जिनसे  आमना-सामना हुआ वे थे ललित शर्मा. एकदम लपक लिया उन्होंने. "वंदना जी नमस्कार करते हुए साथ ही "पहचाना मुझे?" का जुमला भी उछाल दिया... अब भला ललित जी को कौन न पहचान लेगा? खुशी तो मुझे ये हुई कि मैं पहचान ली गयी :) ललित जी के पीछे ही संजीव तिवारी भी प्रकट हुए और दीदी, पहचान लिया न मुझे? कुछ इस मासूमियत से पूछा, कि ऐसे में कौन न उन्हें पहचान लेगा? उनके साथ संध्या शर्मा भी थीं, खूब अच्छा लगा सबसे मिल के.



पहले सत्र के बाद बाहर निकले, तो परिचय की
 स्थिति अब और मजबूत हो गयी थी
डॉ. प्रवीण अरोड़ा से मिल के अच्छा लगा. 
प्रवीण पांडे तो हैं ही बहुत अच्छे, मासूम बच्चे से         और अविनाश जी? अब उनकी क्या कहें? खूब खुशदिल हैं, बस कभी-कभी अपनी तबियत से परेशान हो जाते हैं... भगवान उन्हें जल्दी स्वस्थ करें..
मंच पर बैठे लोगों को अब तमाम पोस्टों के बाद पहचानना मुश्किल नहीं है न?



यहां भी वही सब पहचाने लोग...कुछ को आप लोग भी तो पहचानने की कोशिश करें भाई...



हर्षवर्धन त्रिपाठी बेवाक व्यक्तित्व हैं. बहुत अच्छा लगा उनसे मिलना. सिद्धार्थ जी से मिलना तो अच्छा लगा ही :) अब फिर से मिलने का इन्तज़ार है.

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

वर्धा संगोष्ठी: दूसरा दिन

नहा-धो के तैयार हुए ही थे, कि पूरी मित्र मंडली घूम-घाम के लौट आई. झटपट नाश्ता हुआ, और सारे लोग एक बस और दो-तीन गाडियों में लद के हबीब तनवीर सभागार पहुंच गये.
सभागार के कॉरीडोर में सामने से ललित शर्मा जी आ रहे थे. एकदम सामने आ के खड़े हो गये, बोले- पहचाना मुझे वंदना जी? अब बोलिये, ललित जी को कौन न पहचान लेगा? उनके साथ ही नागपुर से तशरीफ़ लायीं संध्या शर्मा भी थीं. खूब खुशी हुई उनसे मिल के. खुशी इसलिये भी हुई, कि चलो, महिलाओं की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ. वरना इतने लोगों में हम चार महिलाएं -शकुंतला शर्मा, शशि सोहन शर्मा, रचना त्रिपाठी और मैं ही दिखाई दे रहे थे. मनीषा पांडे सुबह छह बजे पहुंचने वाली थीं, लेकिन उनकी ऐन वक्त पर उनकी आंख लग गयी, और सेवाग्राम स्टेशन निकल गया... आगे किसी स्टेशन से वे वापस सेवाग्राम लौटीं और बारह बजे सभागार पहुंचीं.
यहां आज कार्यक्रम के दूसरे दिन के शेष तीन सत्र सम्पन्न होने थे. दूसरे दिन के पहले सत्र का विषय था-
 " हिंदी ब्लॉगिंग और साहित्य "  मुख्य वक्ता थे- डॉ. अरविंद मिश्र, अविनाश वाचस्पति, डॉ. अशोक मिश्र, डॉ. प्रवीण चोपड़ा, ललित शर्मा, शकुन्तला शर्मा,  और मैं खुद ( यानि वंदना अवस्थी दुबे) थे. इस सत्र के संचालन का ज़िम्मा  इष्टदेव सांकृत्यायन पर था, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया.
यह एक खुली चर्चा थी, जिसमें सभागार में मौजूद छात्र/छात्राएं अपने सवाल पूछ सकते थे. कोई जिज्ञासा सिर उठाए तो उसे शांत करवा सकते थे, लेकिन छात्रों की ओर से जिज्ञासाएं कम ही उठीं.
पहले वक्ता के रूप में बोलते हुए  मेरे भाईजी  डॉ. अरविंद मिश्र ने कहा कि - " ब्लॉगिंग एक विधा है, लिहाजा इसे साहित्य की तमाम विधाओं में शामिल कर एक नयी विधा के रूप में देखा जाये. उन्होंने कुछ लोगों के द्वारा लम्बी-लम्बी पोस्ट लिखने पर भी आपत्ति जताते हुए छोटी पोस्ट लिखने की सलाह दे डाली. ये अलग बात है, कि मिश्र जी द्वारा ब्लॉगिंग को विधा का दर्ज़ा देने की बात का ज़ोरदार विरोध हुआ. कुछ लोग संकोचवश ये कहते भी दिखाई दिये कि- " हां ब्लॉगिंग को  विधा माना जा सकता है,लेकिन इसमें समय लगेगा." हांलांकि ब्लॉग को विधा मानने की बात मेरे गले तो नहीं उतरी. "ब्लॉगिंग-विधा" पर जब जोरदार बहस छिड़ी थी, तभी दर्शक दीर्घा में बैठे हर्ष वर्धन त्रिपाठी ने उठ के सधे हुए शब्दों में ये कहते हुए कि ब्लॉग खुद को अभिव्यक्त करने का माध्यम मात्र है, लिहाजा इसे विधा नहीं माना जा सकता. जैसे अखबार खबरों को छापने का, टीवी कार्यक्रमों का ज़रिया मात्र हैं, वैसे ही ब्लॉग भी एक ज़रिया मात्र है. हर्ष जी के इस दो टूक सम्वाद को जोरदार तालियों का समर्थन मिला. दूसरे वक्ता अपने अविनाश वाचस्पति जी थे. वे अपने बोलने के प्रमुख बिंदु एक कागज़ पर नोट करके लाये थे, ताकि कोई भी महत्वपूर्ण मुद्दा रह न जाये! ठीक भी है. सब पता होना चाहिये कि क्या बोलना है. शुरु में तो अविनाश जी ब्लॉग को विधा मानने की बात पर सहमत होते से नज़र आये, लेकिन फिर बाद में उन्होंने खुद को इस मुद्दे से अलग कर लिया और ब्लॉग और साहित्य के बीच का रिश्ता बताने लगे. उन्होंने अपने ब्लॉगिंग के सफ़र के बारे में भी विस्तार से बताया.
अविनाश जी के बाद डॉ. अशोक मिश्र  ने अपने ब्लॉगिंग के लम्बे अनुभवों की चर्चा की. उन्होंने अखबारों  द्वारा अपनायी जा रही लेखक-रणनीति की भी चर्चा की कि किस तरह सम्पादक अपने पसंदीदा लेखकों को छापते हैं, और नये लेखक बहुत अच्छा लिखने के बाद भी नहीं छप पाते. अशोक जी कि इस बात का मैं तुरन्त खंडन करना चाहती थी, लेकिन दूसरे काम में व्यस्त होने के कारण नहीं कर पायी. उनकी ये बात मेरे गले नहीं उतरी. कारण, मैनेखुद बारह वर्षों तक उस समय के प्रदेश के एक प्रमुख समाचार पत्र में साहित्य सम्पादक का पद सम्हाला है, और पता नहीं कितने नये लेखकों को हर हफ़्ते छापा है, बिना किसी परिचय के. उनकी रचनाएं ही उनके प्रकाशन का कारण होती थीं. हो सकता है कि अब सम्पादकों में ऐसा पक्षपात का भाव ज़्यादा आ गया हो, या उस वक्त भी रहा होगा, लेकिन सबको एक साथ नहीं घसीटा जा सकता.
डॉ. प्रवीण चोपड़ा  ने अपने विज्ञान ब्लॉग के बारे में जानकारी दी और बताया कि किस प्रकार उनके ब्लॉग से हिंदी में तमाम रोगों की जानकारियां नेट पर इकट्ठी हो रहीं.
मुम्बई से आये मनीष       ने बताया कि उन्होंने कितनी उपयोगी शैक्षिक सामग्री ब्लॉग के ज़रिये हिंदी में उपलब्ध करायी है, कि आज तमाम शोधार्थी उस सामग्री को  रिफ़रेंस के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. उन्होंने ये भी सलाह दी कि, जब भी कोई ब्लॉग या कोई विद्यार्थी किसी सामग्री का इस्तेमाल करे तो उसका लिंक जरूर दे.
दुर्ग से आई शकुन्तला शर्मा ने हिंदी साहित्य के रसों और ब्लॉग पर उपलब्ध रसों की बढिया तुलना की. जीवन के चार रसों की भी उन्होंने सुन्दर व्याख्या की. अपनी बात का अन्त उन्होंने स्वयं की एक छोटी सी कविता से की, जो इस संगोष्ठी के लिये उन्होंने खास तौर से लिखी थी. शकुन्तला जी के बाद ललित शर्मा जी ने ब्लॉग, उस पर लिखा जा रहा साहित्य और खुद की ब्लॉग यात्रा का ब्यौरा दिया.
इस सत्र का समापन मेरे मुखारविंद से हुआ.
दूसरे सत्र में विद्यार्थियों को तमाम तकनीकी जानकारियां दी गयीं. विकीपीडिया, उसकी उपयोगिता, उसका सम्पादन जैसे तमाम गुर सिखाये गये.
तीसरे और समापन सत्र का संचालन सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी ने किया. इस सत्र  में मनीषा पांडे ने जेंडर की समस्या को उठाया. हालांकि ये प्रस्तावित विषय नहीं था. स्त्री-विमर्श का स्थान भी नहीं था, तब भी उन्होंने अपनी बात कही और सटीक तरीके से रखने की कोशिश की. उनका कहना था कि उन्हें यहां की छात्राओं से ये जान के बड़ा अचरज हो रहा है कि यहां हॉस्टल से दस बजे के बाद लड़कियां बाहर नहीं घूम सकतीं! .............. मुझे मनीषा जी के इस अचरज पर बेहद अचरज हुआ कि क्या वे इस देश की विषम परिस्थियों को नहीं जानतीं? दिन दहाड़े बच्चियों के साथ दुष्कर्म हो रहे, तो रात दस बजे के बाद विश्वविद्यालय परिसर में कोई घटना घट जाये तो कौन ज़िम्मेदार होगा? अभिभावक उस वक्त नारी मुक्ति का नारा तो नहीं ही लगायेंगे, विश्वविद्यालय प्रबन्धन मुफ़्त में लापरवाह घोषित हो जायेगा......
कार्यक्रम के अन्त में कुलपति विभूति नारायण राय ने सार गर्भित भाषण दिया. सबसे महत्वपूर्ण घोषणा उन्होंने की ब्लॉग एग्रीगेटर बनाये जाने की, जिसकी मियाद पन्द्रह अक्टूबर २०१३ तय की गयी है.
तो इस सत्र के समापन के साथ ही हम सब गाड़ियों में लद के फिर नागार्जुन सराय के हो लिये......
( पिक्चर अभी बाकी है दोस्त..... )

सोमवार, 23 सितंबर 2013

अविस्मरणीय वर्धा-यात्रा.

आज सुबह वर्धा से लौटी. पिछले दो दिनों की अविस्मरणीय यादें साथ ले के.
एक महीने पहले ही वर्धा जाने का रिज़र्वेशन करवा लिया था, लेकिन लौटने का टिकट और जाने का भी, दोनों ही वेटिंग में थे. १९ को निकलना था और टिकट १८ की शाम तक कन्फ़र्म नहीं.... सिद्धार्थ जी को बताया तो बोले, आ जाइये यहां प्रवीण जी ( प्रवीण पांडे) इंतज़ाम करेंगे. मन अब भी संकोच में था. पहली बार प्रवीण जी मिलेंगे और हम अपना काम ले के हाज़िर हों... मामला कुछ जम नहीं रहा था.
इसी ऊहापोह में १९ की ट्रेन निकल गयी जो बडे सबेरे थी. मन बहुत उदास था. वादा करके मुकर जाने की तक़लीफ़ उससे कहीं ज़्यादा थी. दिन उदासी में बीता, शाम को अपनी क्लास में गयी. ठीक सात बजे वर्धा से फोन आया- " मैम, आपकी गाड़ी कहां पहुंची अभी? मैं गाड़ी ले के आ रहा हूं." अब तो घड़ों पानी पड़ गया मेरे ऊपर. किसी प्रकार कहा- " मैं कल पहुंच रही हूं." क्लास जल्दी छोड़ दी. नीचे आ के उमेश जी से कहा कि मैं कितना खराब महसूस कर रही हूं. उमेश जी जैसे दरियादिल इंसान तत्काल बोले- " कोई बात नहीं, हम सुबह निकलते हैं इटारसी तक, ट्रेन में बर्थ मिल जायेगी, अगर तुम हिम्मत कर सको, तो चलो."
मैं तो ठहरी जन्मजात हिम्मती... फटाफट कपड़े बैग में रक्खे, और सुबह का इंतज़ार शुरु.
अगले दिन राजेन्द्रनगर-कुर्ला एक्सप्रेस पकड़ी, टीसी ने एसी थ्री में बर्थ भी दे दी. अब और क्या चाहिये? आराम से इटारसी पहुंचे. वहां से सेवाग्राम के लिये ट्रेन पकड़नी थी. केरला एक्सप्रेस का समय था लेकिन उसके विलम्ब से आने की सूचना मिली, सो हम साढ़े ग्यारह बजे राप्ती-सागर एक्सप्रेस में चढ गये. यहां भी किस्मत साथ दे गयी और एसी में बर्थ मिल गयी :)
सुबह छह बजे की जगह हमारी ट्रेन साढ़े सात बजे सेवाग्राम पहुंची. सिद्धार्थ जी का फोन आया कि हम सब सेवाग्राम घूमने जा रहे हैं बस से, तो आप लोग भी स्टेशन से ही हमारे साथ हों लें, ताकि ज्यादा समय साथ में गुज़ार सकें. अन्दर रेसीव करने के लिये गाड़ी खड़ी थी, और स्टेशन के बाहर सिद्धार्थ जी बस लिये खड़े थे :) खैर हमने बस के दरवाज़े पर पहुंच के सबसे माफ़ी मांगी, देर से आने के लिये और अब साथ में सेवाग्राम न जा पाने के लिये भी. असल में दो दिन का भागमभाग सफ़र करके तुरन्त नहाने का मन कर रहा था. ब्रश-फ्रश कुछ न किया था, सो सीधे गेस्ट हाउस जाना ही ठीक लगा.
एकदम हरे-भरे रास्ते के बीच से गुज़र के हमारी गाड़ी विश्वविद्यालय पहुंची...हरियाली  देख के ही मन प्रसन्न हो गया. गेस्ट हाउस " नागार्जुन-सराय" देख के प्रसन्नता दोगुनी हो गयी. दरवाज़े पे पहुंचे तो वो हमें देख के अपनेई आप खुल गया. बेचारा! ज़बरदस्त कवायद कर रहा था, बार-बार खुलना-बन्द होना.... उमेश जी को उस पर तरस आने लगा था बाद में :) .
 209 नम्बर का कमरा हमारा इन्तज़ार कर  रहा था. शानदार कमरा, सभी सुविधाओं से युक्त. चाय पी के फटाफट नहाने घुसे . तैयार हो ही रहे थे कि नाश्ता लगने की खबर आ गयी. ( अब बाकी कल )
बाबा नागार्जुन की शानदार प्रतिमा लॉन के बीच में.

सिद्धार्थ जी, रचना त्रिपाठी और मैं.

डॉ. शशि शर्मा, मैं, सिद्धार्थ जी और कार्तिकेय मिश्र

सिद्धार्थ जी को देख के कोई भी कह देगा कि संयोजक वही हैं :)

ये है नागार्जुन सराय... जहां हम सब ठहरे.

शनिवार, 21 सितंबर 2013

’हिंदी ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया’ राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न


वर्धा. २० सितम्बर २०१३.
महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में ’हिंदी ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला एवं संगोष्ठी का आज शानदार समापन हुआ. संगोष्ठी गहमागहमी भरे माहौल में सम्पन्न हुई. सम्बंधित विषय पर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूति नारायण राय ने  कार्यक्रम का समापन भाषण दिया. विस्तृत विवरण जल्द ही पोस्ट करूंगी, फिलहाल इन तस्वीरों को देख कर ही सब्र करें.

महात्मा गांधी अन्तररष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
हबीब तनवीर सभागार
कुलपति महोदय के साथ सभी आमंत्रित ब्लॉगर
सिद्धार्थ जी बेचारे, काम के बोझ के मारे...........


रविवार, 11 अगस्त 2013

नागपंचमी और मेरा गुमना....

आज नागपंचमी है. अब  आप कहेंगे,  हर साल होती है, उसमें क्या?
अरे भाई , उसी में तो है सब.
बचपन में मैं इसी त्यौहार को तो गुमी थी न! फिर कैसे न याद रहे ये दिन? हुंह 
आप को तो ये भी नहीं पता कि कैसे गुमी थी  अब सुन ही लीजिये किस्सा , हुंकारा भरते जाइयेगा 
बहुत पुरानी बात है......... लगभग सात साल की थी मैं. उस समय सात साल के बच्चे आज के तीन साल के बच्चे की समझ के होते थे , है कि नहीं? बच्चों को गली-मोहल्ले में जाने की इजाज़त हमारे घर में थी नहीं, सो हम घर के भीतर के ही रास्ते बेहतर जानते थे.
 उस दिन नाग पंचमी थी. इस त्यौहार पर घर में दीवार पर नागों की तस्वीर बनायी जाती है, और खीर-पूड़ी बना के नाग की पूजा की जाती है. तो हमारी मम्मी भी पूजा की तैयारी कर रही थीं. तभी एक संपेरा आया जिसकी पिटारियों में दो बड़े-बड़े नाग और दो नागिने थीं. उस उम्र में इत्ते लम्बे नाग मैने पहली बार देखे थे. इन नागों के अलावा झोले में एक डिब्बे में तमाम काले-लाल-पीले  बिच्छू भी थे उसके पास जिन्हें निकालने से मेरी मम्मी ने मना कर दिया. उन्हें डर था कि कहीं कोई बिच्छू घर में न घुस जाये . डर तो उन्हें नागों से भी लग रहा था तो मुझे ठीक से देखने भी नहीं दिया 
बहुत मन था मेरा उस डिब्बे में बन्द जन्तुओं को देखने का. अब जैसे ही संपेरा अपनी पिटारियां समेट गेट से बाहर हुआ, मैं भी अपनी दोस्त गुड्डो ( नीलम श्रीवास्तव) का हाथ पकड़े उसके पीछे-पीछे  चल दी.
आगे जिस घर के सामने संपेरा रुकता, हम भी रुक जाते, वो आगे बढता, हम भी साथ में चल देते. चलते-चलते मुझे याद ही नहीं कब गुड्डो का हाथ छूट गया.....
याद थे तो बस लम्बे-लम्बे नाग.......... लाल-पीले-काले बिच्छू.... कैसे अपना डंक चला रहे थे!! नाग कैसे अपनी जीभ लपलपा रहा था..और नागिनें पता नहीं क्यों ज़्यादा नहीं फुंफकार रही थीं... मेरा मन था उन्हें भी गुस्से में संपेरे की बीन पर अपना फन पटकते देखने की..... संपेरे ने कहा था कि उसके पास और भी तमाम चीज़ें हैं दिखाने के लिये, बस, उन्हीं चीज़ों को देखने की ललक मुझे पता नहीं कहां तक ले गयी. जब घर से बहुत दूर आ गयी, तब अचानक खयाल आया कि गुड्डो कहां गयी? मैने आवाज़ लगायी, लोगों की भीड़ में ढूंढने की कोशिश की, लेकिन वो होती तब न मिलती! मैं वहीं रुक गयी. मुझे ठीक-ठीक पता ही नहीं था कि मैं घर से कितनी दूर आ गयी हूं  ये भी नहीं जानती थी कि अब घर कैसे पहुंचूंगी?  जिस जगह पहुंच गयी थी वहां से घर भी बहुत कम दिखाई दे रहे थे, सीधी सपाट रोड.. बस थोड़ी दूर पर एक पुलिया सी बनी थी, जहां से एक अन्य रोड मुड़ रही थी. मैं उसी पर बैठ गयी. धूप तेज हो रही थी, और मुझे रोना आ रहा था. मन ही मन कह रही थी कि बस एक बार घर पहुंच जाऊं, फिर कभी बिच्छू की तरफ़ देखूंगी तक नहीं........ 
थोड़ी ही देर हुई होगी, कि वहां से एक दूधवाला निकला, मुझे अकेली देख के रुक गया बोला-
" यहां क्यों बैठी हो? किसकी बेटी हो?"
मेरा रोना शुरु हो गया.. किसी तरह कहा- " अवस्थी जी की "
उस दिन पता चला कि मेरे पापा का नाम सब जानते हैं. दूध वाला बोला चलो घर पहुंचा देता हूं. अवस्थी जी मेरे गुरुजी हैं.
उसकी सायकिल के पीछे दूध के बड़े-बड़े डब्बे बंधे थे, आगे हैंडल पर भी तमाम डब्बे टंगे थे, और उन्हीं के बीच मैं  सायकिल के डंडे पर बैठ के घर पहुंच गयी. मुश्किल से पांच मिनट लगे पहुंचने में तब याद आया कि अरे! मेरा घर तो अगले ही मोड़ पर था! .
घर में सब परेशान! मम्मी बाहर बाउंड्री में ही मिल गयीं, पापा मुझे ढूंढने निकल चुके थे, छोटी दीदी गुड्डो के यहां ढूंढ के वापस आ गयी थीं, बड़ी दीदी मुकेश के यहां पता कर चुकी थीं 
घर पहुंचते ही छोटी दीदी टूट पड़ी -
कहां चली गयी थीं?
क्यों चली गयी थीं? गुड्डो के साथ क्यों नहीं लौटीं? मुकेश नहीं गया, तुम क्यों गयीं? गली के आवारा बच्चों की तरह मुंह उठाया और चल दी संपेरे के साथ? अच्छे घरों के बच्चे ऐसे रोड पर घूमते हैं क्या?
बस मम्मी ने कुछ नहीं कहा. बोलीं-
" बेटा, आइंदा बिना बताये कहीं नहीं जाना है, संपेरे के पीछे तो एकदम नहीं, वरना वो तुम्हें नाग बना के पिटारे में रख लेगा"
उफ़्फ़्फ़्फ़....... मेरा नन्हा मन सोचने लगा कि वे दोनों नागिने बच्चियां ही थीं क्या???? कित्ता बची मैं आज!!!
वो दिन था और आज का दिन है, संपेरों से मुझे बहुत डर लगता है