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भीमा नदी किनारे विराजे भीमा शंकर

ज्योतिर्लिंग भीमा शंकर की यात्रा प्रारम्भ में जितनी उत्सुकता भरी थी, समापन में उसका रोमांच नाम मात्र का भी नहीं था। बस! एक ही आनन्द था - एक और ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर लिए।
 
पुणे से कोई सवा सौ-एक सौ तीस किलामीटर की यह यात्रा हरी-भरी तो होती है किन्तु नयनाभिराम नहीं। हाँ, आप यदि सौन्दर्य-बोध के धनी हैं और सुन्दरता आपकी आँखों में बसी है तो आप निराश नहीं होंगे।
 
आधे रास्ते की सड़क अच्छी है और आधे रास्ते की ठीक-ठीक। अच्छीवाली सड़क पर यातायात की अधिकता के कारण और ठीक-ठीकवाली सड़क पर ‘ठीक-ठीकपन’ के कारण वाहन की गति अपने आप ही सीमित और नियन्त्रित रहती है। जाते समय हमने बस यात्रा की थी और लौटते में, अनियमित रूप से चलनेवाली प्रायवेट टैक्सी से। लेकिन आते-जाते यात्रा का समय बराबर ही रहा। ‘ठीक-ठीक’ सड़क ‘सिंगल लेन’ होने के कारण सामने से और पीछे से आ रहे वाहनों को रास्ता देने के कारण, चालक को वाहन की गति अनचाहे ही धीमी करनी पड़ती है।
 
वाहन आपको मन्दिर पहुँच मार्ग के लगभग प्रारम्भिक छोर पर पहुँचा देते हैं। मुश्किल से सौ-डेड़ सौ मीटर की दूरी पर, मन्दिर की सीढ़ियाँ शुरु हो जाती हैं। मन्दिर पहाड़ी की तलहटी में है। सो जाते समय आपको सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं और आते समय चढ़नी पड़ती है। सीढ़ियों की संख्या 227 हैं। सीढ़ियाँ बहुत ही आरामदायक हैं - खूब चौड़ी और दो सीढ़ियों के बीच सामान्य से भी कम अन्तरवाली। फिर भी, लौटते समय, चढ़ते-चढ़ते हम पति-पत्नी की साँस फूल आई। उम्र और मोटापा ही कारण रहे। अन्यथा, अन्य लोग सहजता से चढ़ रहे थे। सीढियॉं आपको मन्दिर के पीछेवाले हिस्‍से में पहुँचाती हैं। अर्थात्, मन्दिर के प्रवेश द्वार के लिए आपको घूम कर जाना पडता है।
 
मन्दिर काफी पुराना है। खिन्नतावाली बात यही कि इसके बारे में और ज्योतिर्लिंग के बारे में न तो मन्दिर में कोई जानकारी प्रदर्शित है और न ही कोई बतानेवाला। न तो मन्दिर का प्रांगण भव्य और लम्बा-चौड़ा है न ही मन्दिर का मण्डप। सब कुछ मझौले आकार का।
 
शिवलिंग बहुत ही छोटे आकार और कम उँचाई का है। गर्भगृह में जन सामान्य का प्रवेश वर्जित है। सनातनधर्मियों के तमाम तीर्थ स्थानों की तरह यहाँ भी शिव लिंग के चित्र लेना निषेधित है। गर्भगृह के बाहर, एक दर्पण लगाकर ऐसी व्यवस्था की गई है कि मण्डप में खड़े रहकर आप शिवलिंग के दर्शन कर सकें। यहाँ एक ही चित्र, दो स्थितियों में दे रहा हूँ जिससे यह बात अधिक स्पष्टता से समझी जा सकेगी।
 
रख-रखाव और साफ-सफाई ठीक-ठाक है। भीमा नदी इस मन्दिर के पास से ही निकली है। इसीलिए इस ज्योतिर्लिंग को भीमा शंकर कहा गया।
किन्तु हमें यह देखकर निराशा हुई कि नदी के नाम पर एक बावड़ी जैसी आकृति बनी हुई है। अब तक हमने जितने शिव स्थान देखे, उनमें यह पहला ऐसा स्थान था जहाँ ‘बहती जल धारा’ नहीं थी।
 
पण्डित-पण्डों वाली परेशानी यहाँ बिलकुल ही नजर नहीं आई। सब कुछ आपकी इच्छा और श्रद्धानुसार। मन्दिर आने के लिए पहली सीढ़ी से लेकर अन्तिम सीढ़ी तक, पूरे रास्ते पूजन सामग्री और फूलों की तथा ‘लिम्बू-पाणी’ की  दुकानें आपको निमन्त्रित करती चलती हैं। पीने का सामान्य पानी बिलकुल नहीं मिलता है। ‘लिम्बू-पाणी’ की प्रत्येक दुकान पर बोतलबन्द पानी बिक्री के लिए उपलब्ध है। अन्य तीर्थ क्षेत्रों की तरह प्याऊ की व्यवस्था बिलकुल ही नहीं है। लौटते में हमने एक होटल से पीने का पानी माँगा तो बेरुखी से मना कर दिया गया।
 
आहार और स्वल्पाहार की काम चलाऊ व्यवस्था यहाँ है। एक-दो मकानों पर रहने की व्यवस्था के सूचना फलक भी नजर आए। हमें ताज्जुब हुआ - भला यहाँ कौन ठहरता होगा!
 
बिना माँगी सलाह यह है कि यहाँ पहुँचने से पहले लौटने की चिन्ता और व्यवस्था कर लें। पुणे के शिवाजीनगर बस स्थानक से, प्रायः हर घण्टे में भीमाशंकर के लिए बस मिलती है। किन्तु लौटते समय अन्तिम बस (भीमा शंकर से) शाम 6 बजे है। शिवाजी नगर बस स्थानक के पास से ही प्रायवेट टैक्सियाँ भी मिलती हैं लेकिन उनकी नियमितता  निश्चित नहीं है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लौटते समय हमें ऐसी ही एक टैक्सी में आसानी से जगह मिल गई।
 
देव दर्शन की तृप्ति इस यात्रा की हमारी सबसे बड़ी और एक मात्र उपलब्धि रही।
 

मन्दिर का मण्डप
 
 
 
 
दर्पण के माध्यम से शिवलिंग के दर्शन करानेवाला एक ही चित्र दो स्थितियों में।
 
 
 
 
मन्दिर के पीछे वाले हिस्से में खड़ी, मेरी उत्तमार्द्ध वीणाजी।

प्रशंसनीय और अनुकरणीय सार्वजनिक नागरिक-आचरण

अपने चार दिवसीय पुणे प्रवास में जिस बात ने मुझे सर्वाधिक आकृष्ट और प्रभावित (और खुद पर लज्जित भी) किया, वह थी - लोगों का, नागरिक-बोध से ओतप्रोत सार्वजनिक आचरण।
 
इन चार दिनों में मैंने पुणे से बाहर, ‘अष्ठ विनायक’ के कारण आठ स्थानों की, और भीमाशंकर ज्योर्तिलिंग के कारण एक स्थान की, कुल मिलाकर लगभग आठ सौ किलोमीटर की यात्रा की। गन्तव्य स्थानों के अतिरिक्त रास्ते में कुछ स्थानों पर रुका। आहार-अल्पाहार किया। लोगों से बातें की। लेकिन सब कुछ मुझे चकित भी करता रहा और प्रभावित भी। ऐसे प्रत्येक क्षण और अवसर पर मुझे मेरे अंचल का सार्वजनिक व्यवहार याद आता रहा और मैं स्वीकार करता हूँ कि हर बार मैं अपनी ही नजरों में शर्मिन्दा हुआ। चूँकि मेरी नजर ‘खोजी’ नहीं है और न ही सामाजिक व्यवहार का विश्लेषण करने की सूझ मुझे है, इसलिए मैं बिलकुल ही नहीं जान सका कि किन्हीं दो समाजों में ऐसा, सचमुच में जमीन-आसमान का, अन्तर क्यों और कैसे हो सकता है?
 
साफ-सफाई के मामले ने मुझे ठेठ अन्दर तक प्रभावित किया। यहाँ दिए दो चित्रों में से एक चित्र शिवाजी नगर एसटी बस स्थानक (राज्य परिवहन बस स्टैण्ड) का तथा दूसरा, गन्ने के रस की एक दुकान का है। इन दोनों ही स्थानों की सफाई देखते ही बनती है। ये दोनों ही जगहें ऐसी हैं जहाँ लोग उन्मुक्त आचरण करते हैं और कचरा फैलने की स्थितियाँ आसानी से बनती हैं। किन्तु आश्चर्य कि एक भी स्थिति का दुरुपयोग नहीं होता। गन्ने के रसवाली दुकान में गन्ना पेराई के कारण कचरा फैलने की स्थितियाँ सहज भाव से बनी रहती हैं किन्तु दुकानदार बड़ी ही सहजता से, आदत की तरह, कचरे को व्यवस्थित रख रहा था। मालवा में गन्ना रस निकालने की ऐसी मशीनें सामान्यतः लोहे की होती हैं किन्तु वहाँ अधिकांश मशीनें स्टेनलेस स्टील की नजर आईं। सफाई की तथा सफाई की मनःस्थित की शुरुआत शायद इसी तरह से होती होगी।
 
गन्‍ने के रस की दुकान का भीतरी दृष्‍य। यह चित्र दोपहर 12 बजे का है।
 
शिवाजी नगर एसटी बस स्थानक पर मुझे कोई पौन घण्टा प्रतीक्षा करनी पड़ी। इस बीच लोग बराबर आते-जाते रहे और अधिकांश का मुँह चलता ही रहा। लेकिन किसी ने भी, पेकिंग की प्लास्टिक थैली फर्श पर नहीं डाली। मैंने ध्यान से देखा, ऐसे प्रत्येक मामले में आदमी उठ कर कूड़ादान तक गया और प्लास्टिक थैली उसमें डाल कर अपनी जगह लौट आया। इस पौन घण्टे में वहाँ कोई सफाई कर्मचारी नहीं आया लेकिन फर्श ऐसा साफ-सुथरा बना रहा कि बैठ कर पूजा-पाठ कर लिया जाए।
 
शिवाजी नगर एसटी बस स्‍थानक का चित्र। फर्श की दशा दर्शनीय है।
 
देव-दर्शन के निमित्त मैं  जिन-जिन गाँवों/कस्बों में गया, सब जगह यही स्थिति मिली मुझे और ताज्जुब यह कि इसके लिए कोई भी अतिरिक्त सावधानी बरतता नजर नहीं आया। सब कुछ सहज, स्वाभाविक।
 
एक और अजूबा मेरे लिए यह रहा कि, कुल मिला कर लगभग तीस घण्टों और आठ सौ किलोमीटर की इन यात्राओं में मुझे कहीं भी लोग लड़ते-झगड़ते, बहस करते नहीं मिले। क्या कोई संयोग इतनी लम्बी अवधि, सुबह आठ बजे से लेकर रात नौ बजे तक और इतनी दूरी तक और इतने सारे स्थानों पर लगातार हो सकता है? मैं जानने को उत्सुक हूँ कि इतने व्यापक स्तर पर, ऐसा कैसे हो सकता है?
 
किन्तु कुछ बातों ने मुझे निराश भी किया। शिवाजी नगर बस स्टैण्ड पर चौकशी (पूछताछ/इन्क्वायरी) पर बैठे स्त्री/पुरुषों ने अत्यधिक निराश किया। वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं मिले। उनका व्यवहार ऐसा था मानों वे कोई सजा भुगत रहे हैं जिसका गुस्सा ने पूछताछ करनेवालों पर उतार रहे हैं। इसके विपरीत, सारे चालकों-परिचालकों का व्यवहार अत्यधिक मीठा और सहायतापूर्ण मिला। उन्हें जैसे ही मेरी भाषा-कठिनाई की जानकारी हुई, प्रत्येक ने अतिरिक्त रूप से ध्यान देकर और चिन्ता कर मेरी सहायता की।
 
सार्वजनिक शौचालयों की साफ-सफाई के मामले में मेरी उत्तमार्द्ध ने लगभग प्रत्येक स्थान पर असन्तोष जताया। उल्लेखनीय बात यह कि ऐसे प्रत्येक स्थान पुरुष सुविधाघर निःशुल्क थे और महिला सुविधाघरों पर कम से कम दो-दो रुपयों का शुल्क था किन्तु, जैसा कि मेरी उत्तमार्द्ध ने हर बार बताया, महिला सुविधाघर अत्यधिक अव्यवस्थित और गन्दे मिले। क्या यह भी कोई संयोग है?
 
किन्तु नागरिकता बोध को लेकर वहाँ का सार्वजनिक आचरण निस्सन्देह अनुकरणीय है। पूरा देश वैसा हो न हो, काश! मेरा अंचल ऐसा हो जाए।

पुणे में मेरी तीर्थ यात्रा

मेरी यह तीर्थ यात्रा ऐसी रही है जिसमें मैं न तो किसी मन्दिर में गया और न ही किसी देव प्रतिमा के दर्शन किए। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में यह एक ‘संरक्षित स्मारक’ है (जिसमें प्रवेश के लिए पाँच रुपयों का टिकिट लेना पड़ता है) और पुणे नगर परिषद् की सूची में एक ऐसा ‘दर्शनीय स्थान’ जिसे ‘पुणे दर्शन’ के बस मार्ग में शामिल किया गया है।
 
जिस क्षण मेरी पुणे यात्रा निश्चित हुई थी, उसी क्षण मेरी यह तीर्थ यात्रा भी निश्चित हो गई थी। भगवान भला करे अफलू भाई का कि उन्होंने मुझे (यरवदा जेल जाने के) भ्रम से और भटकने से बचा लिया अन्यथा मैं ‘जाते थे जापान, पहुँच गए चीन’ वाली गति को प्राप्त हो कर अपना समय और धन अकारण ही नष्ट कर देता।
 
 
मेरा यह तीर्थ, पुणे का ‘आगा खाँ महल’ था जहाँ गाँधीजी और उनके संगी-साथी बन्दी बनाकर रखे गए थे और जहाँ, गाँधीजी के सचिव महादेव भाई देसाई तथा गाँधीजी की उत्तमार्द्ध कस्तूरबा गाँधी ने प्राण त्यागे। इन दोनों की समाधियाँ इसी आगा खाँ महल में बनी हुई हैं और इन्हीं सब कारणों से मेरे लिए यह ‘तीर्थ क्षेत्र’ बना।

मैं कुछ कहूँ और उसे सुनने/पढ़ने के लिए आप अपना अमूल्य समय नष्ट करें, उससे अच्छा है कि वहाँ के कुछ चित्र प्रस्तुत कर दूँ जिससे आपको आसानी भी होगी और कई बातें, मेरे कहे बिना ही समझ लेंगे।

 
आगा खाँ महल के परिसर में लगा, ‘महल’ का परिचय पट्ट।




 बन्दी काल में मीरा बहन, इस कमरे के इसी कोने में रहती थीं। चित्र ठीक उसी कोने का है।






गाँधीजी की लालटेन।


 
 
चित्र से मालूम नहीं हो पाता कि महादेव भाई और कस्तूरबा की समाधियों पर कौन पुष्पहार चढ़ा रहा है। चित्र की इबारत कुछ इस प्रकार है -
 
बन्दी होने के फौरन बाद ही गाँधीजी 9 अगस्त 1942 से पूना के आगा खाँ महल में लाए गए थे। 21 महीनों तक यहाँ रखने के बाद वे 6 मई 1944 को छोड़े गए। बन्दी अवस्था में ही उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा और सचिव श्री महादेव भाई देसाई का आगा खाँ महल में देहान्त हुआ। उनकी समाधियाँ आज तीर्थ स्थल बन गई हैं।


गाँधीजी की बन्दी अवस्था के दौरान आगा खाँ महल को ‘जेल’ घोषित किया गया था। जेलर का प्रभार अर्देशर ई. कटेली को दिया गया था। श्री कटेली ने अत्यधिक सहृदयता से गाँधीजी सहित अन्य कैदियों की देखभाल की। प्रसन्न होकर गाँधीजी ने अपने हाथ से बनाया एक वस्त्र श्री कटेली को उपहार में दिया था।

 महादेव भाई की मृत्यु और उनकी समाधि को लेकर गाँधीजी की भावनाएँ। गाँधीजी की कही बात शब्दशः सच हुई। यह समाधि स्थल आज (तीर्थ) यात्रा स्थल बना हुआ है।


महादेव भाई की मृत्यु के क्षण का ब्यौरा।


महादेव भाई के साथ गाँधीजी।


  महोदव भाई देसाई का चित्र।


 लिखा-पढ़ी की, दैनिक उपयोग की सामग्री। सूचना पट्ट से स्पष्ट नहीं होता कि ये वस्तुएँ महादेव भाई की हैं या गाँधीजी की।



 महादेव भाई के साथ गाँधीजी। अफलू भाई शायद बता सकें कि महादेव भाई के कन्धों पर कौन बच्चा है।



  महादेव भाई और कस्तूरबा की समाधियों पर गाँधीजी।


 बन्दी काल में गाँधीजी का कमरा। यह कमरा बन्द रहता है। मुझे, बन्द दरवाजे के काच से अपना मोबाइल सटा कर यह चित्र लेना पड़ा।


 कस्तूरबा का निधन भी इसी (ऊपरकेचित्रवाले) कमरे में हुआ था।


 महादेव भाई और कस्तूरबा की समाधियाँ।


महादेव भाई की समाधि पर लगा आलेख पट्ट।


  कस्तूरबा की समाधि पर लगा आलेख पट्ट।


गाँधीजी की भस्म यहाँ रखी गई है।


अपनी मनोदशा को मैं अपनी धरोहर के रूप में खुद तक सीमित रखते हुए भी कुछ प्रतिक्रियाओं से बच नहीं पा रहा हूँ।

सरकारी तौर पर इसे शायद ‘गाँधी स्मृति’ नाम दिया गया है किन्तु इसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। ‘आगा खाँ महल’ को लोग खूब जानते हैं किन्तु गाँधीजी, महादेव भाई देसाई और कस्तूरबा गाँधी से इसका कोई सम्बन्ध है, यह बहुत ही कम लोग जानते हैं। तनिक क्रूर होकर कहूँ तो इस सम्बन्ध के बारे में वे ही जानते हैं जिन्होंने जानना चाहा। जिस ऑटो में हम लोग गए वह इसके महत्व के बारे मे कुछ भी नहीं जानता था। स्थिति यह रही कि उसने हमें, इस स्मारक के उस दरवाजे पर छोड़ दिया जो शायद ही कभी खोला जाता होगा।
 
मुझे यह भी लगा कि सरकार और पुणे नगर निगम इसे विवशता में संचालित कर रही हैं - किसी अनचाही जिम्मेदारी की तरह। किसी भी स्मारक के लिए छापी जानेवाली पुरिचय पुस्तिका भी यहाँ उपलब्ध नहीं है। पुणे में मुझे कहीं भी इस स्मारक के बारे में कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं दिखाई दी। हाँ, रास्ता दिखानेवाले बोर्डों पर जरूर इसका उल्लेख है।

मुझे लगता है कि इस स्मारक का यथोचित प्रचार किया ही जाना चाहिए तथा इसके प्रति सरकार की तथा पुणे नगर निगम की चिन्ता सतह पर, प्रखरता से अनुभव होनी चाहिए।

फिलहाल तो इतना ही। बाकी सब कुछ मेरा निजी।

हिन्दी अखबार : पुणे के और मेरे अंचल के

पढ़ता-सुनता आया हूँ कि हिन्दी की जितनी चिन्ता और सेवा अहिन्दीभाषियों ने की, उतनी हिन्दीभाषियों ने नहीं। दक्षिण भारत में तो हिन्दी के लिए पगडण्डी अहिन्दीभाषियों ने ही बनाई, हिन्दी की पताका फहराई और थामे रखी। यह अतिशयोक्ति हो सकती है किन्तु असत्य नहीं कि आज हिन्दी का जितना नुकसान हिन्दीभाषी कर रहे हैं, उतना कोई दूसरा नहीं। इसमें यदि हिन्दी अखबारों की बात जोड़ दी जाए तो कहना ही पड़ेगा कि हिन्दी का जितना अहित हिन्दी अखबारों ने किया और निरन्तर किए जा रहे हैं, वह सब ‘ अनुपम  और अवर्णनीय’ है। अपनी मातृभाषा के साथ ऐसा अत्याचारी व्यवहार दुनिया में शायद ही किसी अन्य समाज ने किया होगा और कर रहा होगा। यह अनुभूति मुझे अपने चार दिवसीय पुणे-प्रवास में लगातार होती रही।

‘बोलचाल की भाषा’ के नाम पर हिन्दी को ‘हिंगलिश’ बनाने और अकारण ही, जानबूझकर हिन्दी शब्दों को विस्थापित करने में हिन्दी पट्टी के अखबारों ने मानो गला-काटू प्रतियोगिता चला रखी है जिसे जीतने के लिए प्रत्येक अखबार अपनी पूरी शक्ति, सम्पूर्ण कल्पनाशीलता, पूरी क्षमता और समूची प्रतिभा लगा रहा है, लगाए जा रहा है।

पुणे में मुझे चार हिन्दी अखबार देखने-पढ़ने को मिले - लोकमत समाचार, आज का आनन्द, नव-भारत और यशोभूमि। चारों ही दिन मैंने अलग-अलग स्थानों से अखबार खरीदे और इसी आधार पर अनुमान लगा रहा हूँ कि ‘लोकमत समाचार’ सर्वाधिक पढ़ा जाता है। उसके बाद क्रमशः ‘आज का आनन्द’, ‘यशोभूमि’ और ‘नव-भारत’ पढ़े जाते हैं। ‘नव-भारत’ को देख कर अच्छा लगा। किसी जमाने में यह अखबार मेरे अंचल में दूसरे स्थान पर हुआ करता था। किन्तु आज तो इसकी शायद फाइल प्रतियाँ ही छप रही होंगी। मेरे अंचल में यह कहीं नजर नहीं आता। ‘यशोभूमि’ मुम्बई से छप कर आता है। शेष तीनों अखबार पुणे में ही छपते हैं।

इन अखबारों में प्रयुक्त हिन्दी ने मुझे चौंकाया। मन में पहली प्रतिक्रिया उभरी - ‘हिन्दी पट्टी के अखबारों को यदि हिन्दी में अखबार निकालने हैं तो पुणे के अखबारों को नमूना बनाएँ।’

पुणे के इन चार अखबारों की हिन्दी, मेरे अंचल के हिन्दी अखबारों की अपेक्षा अधिक शुद्ध, अधिक प्रांजल तथा अधिक सरल है। अंग्रेजी का घालमेल या तो है ही नहीं और यदि है तो नाम मात्र को। मुझे दहशत हो रही है कि ‘नाम मात्र’ की यह स्थिति कहीं ‘भयानक शुरुआत की पहली सीढ़ी’ न हो। अंग्रेजी शब्दों के बहुवचन रूपों (इंजीनीयर्स, बैंकर्स, आर्किटेक्ट्स) को हिन्दी में प्रयुक्त करने के संक्रमण ने यह भय पैदा किया।

किन्तु ‘नव-भारत’ के शीर्षकों में अंग्रजी लिपि का अत्यधिक घातक प्रयोग देख कर मुझे अत्यधिक घबराहट हुई। इससे पहले ऐसा प्रयोग मैंने कहीं नहीं देखा। (भगवान करे, और कहीं देखने को न मिले - ‘नव-भारत’ में भी नहीं।)

पुणे के हिन्दी अखबारों में पठनीय सामग्री की प्रचुरता भी चकित करती है। सामग्री का परिमाण और विविधता लगभग प्रत्येक अखबार को ‘पारिवारिक पत्रिका’ बनाती हैं। मनुष्य जीवन के दैनन्दिन व्यवहार (यथा स्वास्थ्य, साहित्य, भोजन, जीवन शैली, कार्यालयीन व्यवहार, लोक व्यवहार आदि-आदि) से जुड़ी सामग्री लगभग प्रतिदिन मिलती है जबकि मेरे अंचल के अखबार इस मामले में औपचारिकता पूरी करते नजर आते हैं।

पाठकों के पत्र यद्यपि रोज नहीं छपते किन्तु जब भी छपते हैं, यथेष्ठ स्थान और प्रमुखता पाते हैं। इस मामले में मेरे अंचल के अखबार इन पत्रों को ऐसे छापते हैं मानो या तो विवशता हो या फिर पाठकों पर उपकार कर रहे हों। ‘नईदुनिया’ पत्रों की संख्या पर केन्द्रित हो कर रह गया है जबकि किसी जमाने में यह स्तम्भ इस अखबार की पहचान और प्राण हुआ करता था। अपने इस स्तम्भ के माध्यम से ‘नईदुनिया’ ने लेखकों की फौज खड़ी की और उन्हें पहचान दी। मैं भी उसी भीड़ का एक छोटा सा अंश हूँ। लेकिन आज ‘नईदुनिया’ में यह स्तम्भ देख कर दया आती है ओर रोना भी। ‘दैनिक भास्कर’ तो केवल और केवल खानापूर्ति करता है। नाम मात्र के दो पत्र छापता है और कुछ इस तरह कि कफन के नाप का मुर्दा तय किया जा रहा हो। ‘पत्रिका’ में पत्रों की संख्या तो भरपूर होती है किन्तु प्रस्तुति ऐसी होती है कि पढ़ना तो दूर, देखने को भी जी नहीं करे। इसके विपरीत, पुणे के अखबार, पाठकों के पत्र जब भी छापते हैं, पूरी गम्भीरता और सम्मान के साथ छापते हैं।

इस मामले में मराठी के अग्रणी दैनिक ‘सकाळ’ ने मुझे हताश किया। किसी जमाने में यह (भारत का) इकलौता अखबार था जो ‘पाठकों के पत्र’ स्तम्भ की शुरुआत अपने मुखपृष्ठ से करता था। मुझे यह देखकर पीड़ा हुई कि इस अखबार ने अपनी यह कीर्तिमानी परम्परा छोड़ दी है।

एक मराठी कहावत में पुणे को ‘विद्या का मायका’ कहा जाता है। इसका नमूना मुझे ‘आज का आनन्द’ और ‘यशोभूमि’ में देखने को मिला। ये दोनों ही अखबार, नियमित रूप से ‘गणित पहेली’ छापते हैं। ‘यशोभूमि’ तो इस क्रम में ‘काकुरो पहली’ भी छापता है। गणित को सामान्यतः कठिन और अनाकर्षक विषय माना जाता है और अधिकांश बच्चे इससे घबराते/बचते हैं। मेरी भी यही दशा है। हायर सेकेण्डरी परीक्षा में मुझे, गणित में साढ़े सात प्रतिशत अंक मिले थे। यदि ‘पीसीएम’ समूह के अंक संयुक्त रूप से न जोड़े जाते तो मैं तो हायर सकेण्डरी भी पास नहीं कर पाता। किन्तु ऐसी पहेलियाँ गणित को आसान भी बनाती हैं और रोचक भी। इन पहेलियों को हल करते हुए मुझे अनेक लोग नजर आए। उत्साहित होकर मैंने भी कोशिश की किन्तु एक बार फिर अनुत्तीर्ण हो गया।

कुल मिलाकर हिन्दी के मामले में पुणे के अखबार हिन्दी के प्रति अधिक सजग तथा अधिक ईमानदार अनुभव हुए। इसका बड़ा कारण, पुणे का अहिन्दीभाषी होना लगा। किन्तु इससे भी बड़ा कारण लगा - अपनी मातृभाषा मराठी के प्रति मराठीभाषियों का अनुराग। पुणे की हिन्दी पर मराठी का भरपूर प्रभाव है और चूँकि मराठीभाषियों ने मराठी को अंग्रेजी के संक्रमण से अभी भी बचाए रखा है,  इसीलिए वहाँ की हिन्दी भी इस संक्रमण से बची हुई है। मातृभाषा से इतर भाषा प्रयुक्त करते हुए हर कोई अतिरिक्त रूप से सजग/सावधान रहता ही है। यह ‘सहज सजगता/सावधानी’ ही पुणे के हिन्दी अखबारों की हिन्दी को हिन्दी बनाए हुए लगी मुझे।

बहरहाल, पुणे के हिन्दी अखबार देखकर मेरा निष्कर्ष तो यही है कि हिन्दी अखबारों की हिन्दी कैसी हो, यह जानने के लिए हिन्दी अखबारों को अहिन्दीभाषी अंचल के हिन्दी अखबारों से सीख लेनी चाहिए।

देखना पहली बार किसी महिला कण्डक्टर को

पुणे से  भीमाशंकर महादेव (ज्योतिर्लिंग) तक की गई, साढ़े तीन घण्टों की बस यात्रा को आज दसवाँ दिन होने जा रहा है किन्तु वह यात्रा भुलाए नहीं भूली जा रही। शायद मैं ही भूलना नहीं चाह रहा। यदि वह अविस्मरणीय नहीं है तो आसानी से भुलाई जा सकनेवाली भी नहीं है। उस बस यात्रा ने मुझे, ‘अपने देस’ में की गई लगभग प्रत्येक बस यात्रा याद दिला दी और ‘अपने देस‘ के ड्रायवरों-कण्डक्टरों के स्थापित चाल-चलन के आधार पर आकण्ठ विश्वास कर रहा हूँ कि भविष्य में भी, ‘अपने देस’ में जब-जब भी बस यात्रा करूँगा, तब-तब, हर बार वह बस यात्रा याद आएगी - किसी मीठी, आनन्ददायक कसक की तरह।
 
इस बस यात्रा में मैंने पहली बार महिला कण्डक्टर देखी। मेरे लिए वह ‘अजूबा’ से कम नहीं थी। यात्रा की, आधी से अधिक दूरी तक बस ओवहर-लोड थी। यात्रियों से किराया वसूलने और उन्हें टिकिट देने के लिए वह कम से कम तीन बार बस में आगे से पीछे गई और पीछे से आगे आई। किन्तु उसके और यात्रियों के व्यवहार से एक पल को भी नहीं लगा कि कण्डक्टरी जैसा ‘पुरुषोचित’ काम करते हुए वह कोई ‘स्त्री’ है। एक औसत कर्मचारी की तरह वह काम कर रही थी। विचित्र लग रहा था तो सम्भवतः केवल मुझे और मेरी उत्तमार्द्ध को क्योंकि किसी ‘स्त्री’ को कण्डक्टरी करते हुए हम पहली बार देख रहे थे।
 
मैंने अपनी दशा, अपने ब्लॉग-लेखन की बात उसे बताई और कहा कि मैं उस पर कुछ लिखना चाहता हूँ इसलिए मुझे उसके बारे में फौरी जानकारियाँ और उसका चित्र चाहिए। यात्रियों के लिए टिकिट बनाते हुए, निर्विकार भाव से उसने कहा - ‘चलेंगा।’ उसके कहने के लहजे में उसका आत्मविश्वास और उसकी सहजता देखते ही बनती थी। लगा, उससे ऐसी बातें करनेवाला मैं पहला व्यक्ति नहीं था।

अपना नाम बताने से पहले उसने मानो मेरे सामान्य ज्ञान की परीक्षा ली। बोली - ‘टिकिट को ध्यान से देखने का। उस पर कण्डक्टर का नाम छपेला है।’ बस के टिकिट पर कण्डक्टर का नाम छापा जाता है - यह जानकारी भी मुझे पहली बार मिली। मैंने ध्यान से देखा। एक नाम छपा था - बी आर भेसे। मैंने कहा - ‘एक नाम छपा तो है लेकिन मालूम नहीं पड़ता कि वह कण्डक्टर का नाम है। यह भी मालूम नहीं पड़ता कि यह नाम मर्द का है या औरत का।’ टिकिट बना रहे उसके हाथ रुक गए। तनिक कठोर हो कर बोली - ‘एक ही नाम है तो समझने का कि टिकिट पर प्राइम मिनिस्टर का नाम तो नहीं होंगा! वो कण्डक्टर का ही तो नाम होंगा। और  कण्डक्टर तो फकत कण्डक्टर होने का। क्या फरक पड़ता कि वो आदमी है या औरत?’
 
मुझे ‘धूल चटा कर’ उसे बड़ा आनन्द आया। उसने अपना नाम भारती भिसे बताया। छपे हुए ‘आर’ से भी उसने कोई नाम बताया था लेकिन मैं भूल गया। चार बरस से नौकरी कर रही है और इस रूट पर ही उसका गाँव है। यह काम करने में उसे असुविधा या झिझक तो नहीं होती - मेरे इस सवाल पर, पूरी बस को सुनाती हुई मुझसे बोली - ‘क्या साहेब! क्या बात करता? अरे! हमारा एस टी (राज्य परिवहन) चालीस औरतों की पहली बेच को ड्रायवरी का ट्रेनिंग दे रियेला है। अब इस काम से मरदों की छुट्टी।’

पूरी यात्रा के दौरान वह एक मिनिट के लिए भी बस से नहीं उतरी। एक जगह (शायद मंचर में) दस मिनिट का विराम था। अधिकांश यात्री चाय-पानी के लिए उतरे, किन्तु वह अपनी सीट पर ही बैठी रही। दो बार ऐसा हुआ कि वृद्ध महिलाओं को उसने, ‘दयालु साम्राज्ञी’ की तरह अपनी, कण्डक्टर की निर्धारित सीट दे दी। किन्तु जैसे ही कोई नौजवान वहाँ बैठा, अपना काम निपटा कर फौरन ही अपनी सीट खाली करवा कर बैठ गई - किसी तानाशाह की तरह। पूरी यात्रा अवधि में उसने इस धारणा को झुठलाया कि महिलाएँ बहुत ही बातूनी होती हैं - अकारण ही बोलती रहती हैं। बोलने के नाम ‘बोला! बोला!!’ या ‘चला! चला!!’ या फिर, सवारियों को बस में प्रवेश देते समय ‘फकत भीमाशंकर! फकत भीमाशंकर!!’ ही उसके मुँह से सुनाई दिया।
 
लेकिन केवल भारती ने ही नहीं, यात्रियों ने भी मुझे चौंकाया। बस में सभी वर्गों, श्रेणियों, आयु समूहों के आबाल-वृद्ध स्त्री-पुरुष थे। एक-दो के पास अखबार थे। मोबाइल अधिकांश के पास थे। उनके मोबाइल या तो बन्द थे या फिर वे ईयर-फोन लगा कर अपने मनपसन्द गाने (या संगीत) सुन रहे थे। राजनीति या सरकार को लेकर कोई बहस नहीं हो रही थी। बैठने या सुविधापूर्वक खड़े रहने के लिए किसी ने किसी से झगड़ा नहीं किया, ऊँची आवाज में नहीं बोला। किसी ने भारती पर कोई फब्ती नहीं कसी, कोई अशालीन-अमर्यादित हरकत नहीं की।
 

पूरी यात्रा अवधि में मुझे ‘अपने देस’ के ड्रायवर-कण्डक्टर याद आते रहे। ‘मेरे देस’ का बस-कण्डक्टर ढंग से बात नहीं करता, बाकी पैसे लौटाने की चिन्ता करना तो दूर, सोचता भी नहीं (जबकि भारती, उतरनेवाले प्रत्येक यात्री से पूछ रही थी - तुम्हारा पैसा बाकी तो नहीं?), प्रत्येक ठहराव पर चाय पीने के लिए उतरता है और ऐसे उतरता है मानो कभी अब कभी लौटेगा ही नहीं, यात्री उसे तलाशते हैं। ‘मेरे देस’ का बस ड्रायवर, सामने आती बस को देख कर अपनी बस रोक लेता है, सामनेवाला भी ऐसा ही करता है। अपनी-अपनी बस का एंजिन स्टार्ट रखे हुए वे दोनों तब तक बातें करते हैं जब तक कि पीछे से कोई वाहन हार्न नहीं दे। समयबद्धता ‘मेरे मुलुक’ में कोई मायने शायद ही रखती हो। बस का मुकाम पर पहुँचना ही मकसद होता है - फिर भले ही घण्टा-आधा घण्टा देर से पहुँचे। इसके विपरीत, भारती ने यात्रा अवधि चार घण्टे बताई थी जबकि यात्रा साढ़े तीन घण्टों में ही पूरी हो गई। यात्रीगण, खासकर नौजवान यात्रीगण, अपने-अपने मोबाइल पर ‘फुल वाल्यूम’ पर फिल्मी गीत बजाते हैं। ऐसे में पूरी बस किसी सब्जी बाजार की तरह शोरगुल से भर जाती है। सबको अपनी-अपनी पड़ी रहती है। किसी का, पाँव पर पाँव रखना तो बड़ी बात होती है, कन्धे से कन्धा रगड़ा जाना ही झगड़े के लिए पर्याप्त कारण होता है। झगड़ा न हो तो ‘अभी लग जाती तो?’ जैसे काल्पनिक खतरों के दम पर जोरदार कहा-सुनी तो हो ही जाती है।   
 
भीमाशंकर पहुँचने पर मैंने भारती का फोटो लेना चाहा। वह खुशी-खुशी खड़ी हो गई। मैंने केमरा क्लिक किया। उसे फोटो दिखाया तो तनिक असहज होकर बोली - ‘ये क्या? ये तो मेरा अकेले का है! नई चलेंगा। तुम्हारी औरत के साथ खींचो और वो ही फोटू छापने का। क्या?’ मैंने उसके आदेश का पालन किया। मेरी उत्तमार्द्ध के साथ लिया फोटो उसे दिखाया। वह बच्चों की तरह खुश हो कर बोली - ‘हाँ। ये बरोबर है। येईज छापने का। बरोबर?’ मैंने कहा - ‘बरोबर।’
 
लेकिन मैं ‘बरोबर’ नहीं कर रहा हूँ। भारती को दिया वादा तोड़ रहा हूँ। मेरी उत्तमार्द्ध के साथवाला फोटो देकर मैं भारती की और उसके ‘पुरुषार्थ’ की प्रमुखता को किंचित मात्र भी कम नहीं करना चाहता। अपनी इस वादा-खिलाफी पर मुझे दुख तो है किन्तु शर्म नहीं। 

पुणे के महान् ऑटोवाले

पुणे के ऑटो रिक्शावाले महान् हैं - अत्यधिक और अद्भुत क्षमतावान। वे चरम नास्तिक को भी आस्तिक बना देने का माद्दा रखते हैं। मेरा पुणे प्रवास यूँ तो चार दिनों का था किन्तु ऑटोवालों से पाला एक ही दिन पड़ा और इस एक ही दिन में मैं उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुँच गया।
 
सोमवार, 26 नवम्बर 2012 को मुझे पुणे में नौ (9) ऑटो रिक्शावालों से काम पड़ा। एक में डिजिटल मीटर लगा था, शायद इसीलिए वह कुछ नहीं बोला। दूसरे ने साफ-साफ कहा कि वह मीटर से पाँच रुपये ज्यादा लेगा। लकिन बाकी सात? लगा - सातों में प्रतियोगिता थी - कौन अधिक ‘धारदार’ साबित हो। उन सातों से मिले अनुभव के बाद लगा कि पाँच रुपये ज्यादा माँगनेवाला तो उन सबका बाप ही रहा होगा।
 
 
 
 
 
 
इन आठों आटो रिक्शों में सामान्य मीटर लगे थे किन्तु सबमें एक अद्भुत साम्य था - रुपयों का, दहाई वाला अंक किसी में भी नहीं देखा जा सकता था। यहाँ दिए दो चित्र नमूना मात्र हैं। पूरे पुणे के तमाम ऑटो रिक्शों में यही स्थिति है। आप चाहे जो कर लें (मैंने दो-एक रिक्शों में ‘कुछ’ करने की असफल कोशिश की थी), होगा वही जो ऑटोवाला चाहेगा और कहेगा। आप कितनी ही बहस कर लें, चाहें तो उसकी खिल्ली भी उड़ा लें, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मीटर भले ही दो रुपये तीस पैसे बता रहा हो, आपको वही रकम चुकानी पड़ेगी जो ऑटोवाला बता दे। यह आपकी तकदीर होगी कि वह बत्तीस रुपये बताए या बयालीस। मीटर में एक रुपया सत्तर पैसे नजर आनेवाला भाड़ा ग्यारह रुपये भी हो सकता है और इक्यानबे रुपये भी। जो दूरी पार करने में एक ऑटोवाले ने मुझसे तीस रुपये लिए, उसी दूरी को पार करने के लिए दूसरे ने पैंतालीस रुपये लिए और दोनों ही बार भुगतान मीटर से किया गया। आप कल्पना कर सकते हैं कि मीटर से पाँच रुपये अधिक माँगनेवाले ने मुझसे किस तरह दोहरी वसूली की - मीटर की रकम तो मनमानी बताई ही, पाँच रुपये भी ज्यादा लिए?
 
इस स्थिति पर मैंने (जिस-जिस ऑटो में मैं बैठा) प्रत्येक ऑटोवाले से बात की। जाहिर है कि बात अलग-अलग समय पर, अलग-अलग आदमी से हुई किन्तु जवाब सबका एक ही था - ‘यहाँ तो ऐसा ही चलता है।’ मैंने पुलिस का हवाला दिया तो शब्दावली तो सबकी अलग-अलग रही किन्तु मतलब एक ही था - ‘पुलिसवालों के चूल्हे हम ऑटोवालों के दम पर ही तो चल रहे हैं!’ एक ऑटोवाले ने तो पूछा - ‘आप कहें तो आपको पुलिस थाने ले चलूँ? देख लीजिएगा कि क्या होता है।’ दूसरे ने मेरी ‘नादानी’ पर हँसते हुए कहा  - ‘आप क्या समझते हैं! पुलिसवालों को पता नहीं?’ तीसरा ऑटोवाला तनिक शरीफ था। बोला - ‘क्यों अपना खून जला रहे हैं? हर चौराहे पर तो वर्दीवाला खड़ा हुआ है! आप कहेंगे तो भी वह मदद नहीं करेगा। आप तो परदेसी हैं। चले जाएँगे। उन्हें तो हमारे साथ, पुण में ही रहना है।’ ऐसी बात सुनने के बाद हर बार मैं यह सोच-सोच कर खुश हुआ कि मुझसे ज्यादा रकम लेने के बाद भी प्रत्येक ऑटोवाले ने मुझ पर महरबानी की - उसे तो और अधिक रकम लेने की ‘स्वयम्भू-छूट’ और ‘निर्बाध-स्वतन्त्रता’ मिली हुई थी।
 
पुणे से प्रकाशित हो रहे तमाम हिन्दी अखबार, रोज ही ऑटो रिक्शावालों के ‘कारनामों’ से भरे होते हैं। मुझे मराठी नहीं आती किन्तु विश्वास कर रहा हूँ कि मराठी अखबार भी ऐसा ही कर रहे होंगे। किन्तु पुलिस पर कोई असर नहीं हो रहा। ऑटोवालों पर कार्रवाई करना तो दूर रहा, ‘प्री-पेड’ बूथ की अच्छी-भली चल रही व्यवस्था को पुलिस ने बन्द करा दिया। इस व्यवस्था से ऑटोवालों और पुलिसवालों के सिवाय बाकी सबको आराम मिल रहा था। चार दिनों में पढ़े सारे (हिन्दी) अखबारों की एक राय थी कि पुलिस ने पुणे के जनसामान्य को ऑटोवालों की दया पर छोड़ दिया है।

मेरे ‘थोड़े’ लिखे को ‘बहुत’ समझा जाए और चाहे जो किया जाए, एक मेहरबानी जरूर की जाए - मुझ पर, मेरी बेचारगी पर हँसा नहीं जाए। मैं ‘कुछ’ कर ही नहीं सकता था। ‘कुछ’ करने की कोशिश करता तो मुमकिन है कि पुलिस का तो सवाल ही नहीं उठता, भगवान भी मुझे शायद ही बचा पाता। पुणे में तो भगवान भी ऑटोवालों के भरोसे जी रहा होगा।