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26.3.14

घरेलू चिकित्सा

वैसे तो रसोई में प्रयुक्त हर खाद्य और हर मसाले के गुण वाग्भट्ट ने बताये हैं, यही कारण है कि उनकी कृति को आयुर्वेद का एक संदर्भग्रन्थ माना जाता है। किन्तु उन सबको याद रखना यदि संभव न हो तो भी खाद्यों को उनके स्वाद के अनुसार भी वर्गीकृत किया जा सकता है और उसके गुण बताये जा सकते हैं। हम जो भी खाते हैं, उन्हें मुख्यतः ६ रसों में विभक्त किया जा सकता है। ये ६ रस हैं, मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु, कषाय। प्रथम तीन रस कफ बढ़ाते हैं, वात कम करते हैं। अन्तिम तीन रस वात बढ़ाते हैं, कफ कम करते हैं। अम्ल, लवण और कटु पित्त बढ़ाते हैं, शेष तीन रस पित्त कम करते हैं। इन रसों के प्रभाव को उनकी मौलिक संरचना से समझा जा सकता है। इन रसों में क्रमशः पृथ्वी-जल, अग्नि-जल, अग्नि-पृथ्वी, आकाश-वायु, अग्नि-वायु, पृथ्वी-वायु के मौलिक तत्व विद्यमान रहते हैं।

किस समय क्या, प्रकृति पर निर्भर है
कोई भी द्रव्य किसी दोष विशेष का शमन, कोपन या स्वस्थहित करता है। बहुत ही कम ऐसे द्रव्य हैं जो कफ, वात और पित्त, तीनों को संतुलित रखते हैं। हरडे, बहेड़ा और आँवला ऐसे ही तीन फल हैं। इन तीन फलों के एक, दो और तीन के अनुपात में मिलने से बनता है त्रिफला, वाग्भट्ट इससे अभिभूत हैं और इसे दैवीय औषधि मानते हैं। त्रिफला तीनों दोषों का नाश करता है। सुबह में त्रिफला गुड़ के साथ लें, यह पोषण करता है। रात में त्रिफला दूध या गरम पानी के साथ लें, यह पेट साफ करने वाला होता है, रेचक। इससे अच्छा और कोई एण्टीऑक्सीडेण्ट नहीं है। आवश्यकता के अनुसार इसे सुबह या रात में खाया जा सकता है। शरीर पर इसका प्रभाव सतत बना रहे, इसलिये तीन माह में एक बार १५ दिन के लिये इसका सेवन छोड़ देना चाहिये।

वात को कम रखने के लिये सबसे अच्छा है, शुद्ध सरसों का तेल, चिपचिपा और अपनी मौलिक गंध वाला। तेल की गंध उसमें निहित प्रोटीन से आती है और चिपचिपापन फैटी एसिड के कारण होता है। जब किसी तेल को हम रिफाइन करते हैं तो यही दो लाभदायक तत्व हम उससे निकाल फेकते हैं और उसे बनाने की प्रक्रिया में न जाने कितने दूषित कृत्रिम रसायन उसमें मिला बैठते हैं। इस तरह रिफाइण्ड तेल किसी दूषित पानी की तरह हो जाता है, गुणहीन, प्रभावहीन। जब सर्वाधिक रोग वातजनित हों तो सरसों के तेल का प्रयोग अमृत सा हो जाता है। हमारे पूर्वजों ने घी और तेल खाने में कभी कोई कंजूसी नहीं की और उन्हें कभी हृदयाघात भी नहीं हुये। तेल की मूल प्रकृति बिना समझे उसे रिफाइण्ड करके खाने से हम इतने रोगों को आमन्त्रित कर बैठे हैं। प्राकृतिक तेलों में पर्याप्त मात्रा में एचडीएल होता है जो स्वास्थ्य को अच्छा रखता है। घर में ध्यान से देखें तो हर त्योहार में पकवान विशेष तरह से बनते हैं। जाड़े में तिल और मूँगफली बहुतायत से खाया जाता और वह शरीर को लाभ पहुँचाता है। इसके अतिरिक्त जिन चीजों में पानी की मात्रा अधिक होती है, वे सभी वातनाशक हैं, दूध, दही, मठ्ठा, फलों के रस आदि। चूना भी वातनाशक है।

गाय का घी पित्त के लिये सबसे अच्छा है। जो लोग शारीरिक श्रम करते हैं या कुश्ती लड़ते हैं, उनके लिये भैंस का घी अच्छा है। देशी घी के बाद सर्वाधिक पित्तनाशक है, अजवाइन। दोपहर में पित्त बढ़ा रहता है अतः दोपहर में बनी सब्जियों में अजवाइन का छौंक लगता है। मठ्ठे में भी अजवाइन का छौंक लगाने से पित्त संतुलित रहता है। उसी कारण एसिडिटी में अजवाइन बड़ी लाभकारी है। काले नमक के साथ खाने से अजवाइन के लाभ और बढ़ जाते हैं। अजवाइन के बाद, इस श्रेणी में है, काला जीरा, हींग और धनिया।

कफ को शान्त रखने के लिये सर्वोत्तम हैं, गुड़ और शहद। कफ कुपित होने से शरीर में फॉस्फोरस की कमी हो जाती है, गुड़ उस फॉस्फोरस की कमी पूरी करता है। गाढ़े रंग और ढेली का गुड़ सबसे अच्छा है। गुड़ का रंग साफ करने के प्रयास में लोग उसमें केमिकल आदि मिला देते हैं जिससे वह लाभदायक नहीं रहता है। चीनी की तुलना में गुड़ बहुत अच्छा है। चीनी पचने के बाद अम्ल बनती है जो रक्तअम्लता बढ़ाती। चीनी न स्वयं पचती है और जिसके साथ खायी जाये, उसे भी नहीं पचने देती है। वहीं दूसरी ओर गुड़ पचने के बाद क्षार बनता है, स्वयं पचता है और जिसके साथ खाया जाता है, उसे भी पचाता है। गुड़ को दूध में मिलाकर न खायें, दूध के आगे पीछे खायें। दही में गुड़ मिलाकर ही खायें, दही चूड़ा की तरह। मकरसंक्रान्ति के समय, जब कफ और वात दोनों ही बढ़ा रहता है, गुड़, तिल और मूँगफली की गज़क और पट्टी खाने की परम्परा है, गुड़ कफ शान्त रखता है और तिल वात। कफ कम करने और तत्व हैं, अदरक, सोंठ, देशी पान, गुलकन्द, सौंफ, लौंग। संभवतः अब भोजन के बाद रात में पान खाने का अर्थ समझ में आ रहा है। मोटापा कफ का रोग है, मोटापे के लिये इन सबका सेवन करते रहने से लाभ है। 


मेथी वात और कफ नाशक है, पर पित्त को बढ़ाती है। जिन्हें पित्त की बीमारी पहले से है, वे इसका उपयोग न करें। रात को एक गिलास गुनगुने पानी में मेथीदाना डाल दें और सुबह चबा चबा कर खायें। चबा चबा कर खाने से लार बनती है जो अत्यधिक उपयोगी है। अचारों में मेथी पड़ती है, वह औषधि है। अचार में मेथी और अजवाइन अत्यधिक उपयोगी है। इन औषधियों के बिना आचार न खायें। चूना सबसे अधिक वातनाशक है। कैल्शियम के लिये सबसे अच्छा है चूना, हमारे यहाँ पान के साथ शरीर को चूना मिलता रहता है। इसकी उपस्थिति में अन्य पोषक तत्वों का शोषण अच्छा होता है। ४० तक की अवस्था में कैल्शियम हमें दूध, दही आदि से मिलता है, केला और खट्टे फलों से मिलता रहता है, उसके बाद कम होने लगता है। पान खाने की परम्परा संभवतः इसी कारण से विकसित हुयी होगी, पान हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है।

गोमूत्र वात और कफ को तो समाप्त कर देता है, पित्त को कुछ औषधियों के साथ समाप्त कर देता है। पानी के अतिरिक्त कैल्शियम, आयरन, सल्फर, सिलीकॉन, बोरॉन आदि है। यही तत्व हमारे शरीर में हैं, यही तत्व मिट्टी में भी हैं। यही कारण है कि गाय का और गोमूत्र का आयुर्वेद में विशेष महत्व है। गाय को माँ समान पूजने की परम्परा उतनी ही पुरानी है, जितना कि आयुर्वेद। गाय की महत्ता का विषय अलग पोस्ट में बताया जायेगा। 

हाई ब्लड प्रेसर आदि रोग जो रक्तअम्लता से होते है, उसमें मेथी, गाजर, लौकी, बिन रस वाले फल, सेव, अमरूद आदि, पालक, हरे पत्ते को कोई सब्जी। इन सबमें क्षारीयता होती है जो शरीर की रक्तअम्लता को कम करती है। नारियल का पानी रस होते हुये भी क्षारीय है। अर्जुन की छाल का काढ़ा वात नाशक होता है, सोंठ के साथ तो और भी अच्छा। दमा आदि वात की बीमारियाँ है, इसमें दालचीनी लाभदायक है। जोड़ों में दर्द के लिये चूना लें, छाछ के साथ। डायबिटीज में त्रिफला मेथीदाना के साथ अत्यन्त लाभकारी होता है। पथरी वाले चूना कभी न खायें, पाखाणबेल का काढ़ा पियें। दातों के दर्द में लौंग लाभदायक है। हल्दी का दूध टॉन्सिल के लिये उपयोगी है। जो बच्चे बिस्तर पर पेशाब करते हैं, उन्हें खजूर खिलायें। जीवन में किसी भी प्रक्रिया को अधिक गतिशील न करें, इससे भी बात बढ़ता है। कोई भी दवा तीन महीने से अधिक न ले, बीच में विराम लें, नहीं तो दवा अपना प्रभाव खोने लगती है।

अभी कुछ दिन पहले फेसबुक पर वात संबंधित एक बीमारी पर चर्चा चल रही थी। उपाय था लहसुन को खाली पेट कच्चा चबा कर खाने का। तभी एक सज्जन ने देशीघी के साथ उसे छौंकने की सलाह दी। उत्सुकतावश अष्टांगहृदयम् से लहसुन के गुण देखे, तो पाया कि लहसुन वात और कफनाशक होती है, पर पित्त बढ़ाती है। देशी घी के साथ छौंक देने से उससे पित्तवर्धक गुण भी कम हो जाता है, और वह वात रोगों के लिये और भी प्रभावी औषधि बन जाती है। अष्टांगहृदयम् के प्रथम भाग में जहाँ द्रव्यों के गुण बताये गये हैं, द्वितीय और तृतीय भाग में रोगों के लक्षण सहित उनका उपचार वर्णित किया गया है। कालान्तर में रसोई स्थिति औषधियों के गुणों के आधार पर उपचार बनते गये और प्रचलित होते गये।

अभी तक आयुर्वेद को जनसामान्य की दृष्टि से समझने और उसकी जीवन शैली में उपस्थिति की थाह लेने का प्रयास कर रहा था। अनुभवी वैद्यों का ज्ञान कहीं अधिक गहरा और व्यापक है। रोगपरीक्षा और चिकित्सा की विशेषज्ञता उनके पास होने के बाद भी आयुर्वेद को जिस प्रकार जनसामान्य में प्रचारित किया गया है, वह सच में अद्भुत है। अगली पोस्ट में पंचकर्म के बारे में जानकारी।

चित्र साभार - www.womens-health-naturally.com