28.5.11

काश तुम्हें होता यह ज्ञात

काश तुम्हें भी होता ज्ञात
मौन बहा शब्दों के पार,
हृदय समेटे यह उपकार ।
समय-शून्य हो जगत बसाया,
सपनों का विस्तार सजाया ।

चंचलता का झोंका, मुझको भूल गयी तुम,
पेंग बढ़ा कर समय डाल पर झूल गयी तुम,

सहसा जीवन में फिर से घिर आयी रात,
काश तुम्हें होता यह ज्ञात ।1

सभी बिसारे जाते सार,
आकृति क्या पायेगा प्यार।
आँखों का आश्रय अकुलाया,
ढेरों खारा नीर बहाया।

तुमको किसने रोका, क्यों स्थूल हुयी तुम,
तेज हवायें ही थीं, क्यों प्रतिकूल हुयी तुम,

मन रोया है, तुमको जब घेरें संताप,
काश तुम्हें होता यह ज्ञात ।2

है संवाद नहीं रुक पाता,
कह देने को उपजा जाता,
जाने कितनी सारी बातें,
शान्त बितायी अनगिन रातें,

संसाधन थे, उनमें डूबी, तृप्त रही तुम,
अत्म मुग्ध हो अपने में अनुरक्त रही तुम,

शब्द नहीं पर नित ही तुमसे होती बात,
काश तुम्हें होता यह ज्ञात ।3

रिक्त कक्ष क्यों, मन लड़ता है,
हृदय धैर्य-भाषा गढ़ता है।
अभिलाषा, सुधि आ जायेगी,
तुम्हें प्रतीक्षा पा जायेगी।

कितना बदले रंग, किन्तु हो अभी वही तुम,
देखूँ कितनी बार, हृदय में वही रही तुम

पीड़ा बनकर बरस रही रिमझिम बरसात,
काश तुम्हें होता यह ज्ञात ।4

चित्र साभार - राजा रवि वर्मा

25.5.11

जीवन दिग्भ्रम

अंग्रेजी में एक शब्द है, मिड लाइफ क्राइसिस। शाब्दिक अर्थ तो "बीच जीवन का दिग्भ्रम" हुआ पर इसका सामान्य उपयोग मन की उस विचित्र स्थिति को बताने के लिये होता है जिसका निराकरण लगभग सभी को करना पडता है, देर सबेर। आप चाह लें तो यह दिग्भ्रम कभी भी हो सकता है पर 35 से 50 के बीच की अवस्था उन स्थितियों के लिये अधिक उपयुक्त है जिनकी चर्चा यहाँ की जा रही है।

जीवन में घटनाक्रम गतिमान रहता है और हम उसमें उलझे रहते हैं। जैसे जैसे स्थिरता आती है, हमारी उलझन कम होने लगती है और सुलझन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, जिसे सार्थक चिन्तन भी कहते हैं। पहले पढ़ाई, प्रतियोगी परीक्षायें, नौकरी, विवाह, बच्चों का लालन पालन, यह सब होते होते सहसा एक स्थिति पहुँच आती है, जब लगता है कि अब आगे क्या? कुछ लोगों का भौतिकता के प्रति अति उन्माद नौकरियाँ बदलने व अकूत सम्पदा एकत्र करने में व्यक्त होता है, उनके लिये थोड़ा देर से यह प्रश्न उठता है पर यह प्रश्न उठता अवश्य है, हर जीवन में। जब तक ऊँचाईयाँ दिखती रहती हैं, हम चढ़ते रहते हैं, जब जीवन का समतल सपाट आ जाता है, हमें दिग्भ्रम हो जाता है कि अब किस दिशा जायें?

जीवन में एकरूपता, उन्हीं चेहरों को नित्य देखना, रोचकता का लुप्त हो जाना, यह सब मन को रह रह कर विचलित करता है। मन का गुण है बदलाव, उसे संतुष्ट करने के लिये बदलाव होते रहना चाहिये। जब बदलाव की गति शून्यप्राय होने लगती है, मन व्यग्र होने लगता है। अब सामान्य जीवन में 35 वर्ष के बाद तेज गति से बदलाव लाने के लिये तो बहुत उछल कूद करनी होगी, नहीं तो भला कैसे आ पायेगा बदलाव?

अब कई लोग जिन्होने स्वयं के बारे में कभी कुछ सोचा ही नहीं, उन्हें यह स्थिति सोचने के लिये प्रेरित करती है और उनके लिये चिन्तन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। वहीं कुछ लोग ऐसे भी रहते हैं जिन्हें यह स्थिरता नहीं सुहाती है और वह अपने जीवन में गति बनाये रखने के लिये कुछ नया ढूढ़ने लगते हैं। स्वयं की खोज करें या स्वयं को इतना व्यस्त रखें कि मन को कोई कष्ट न हो, इस दुविधा का नाम ही जीवन दिग्भ्रम है।

अपनी उपयोगिता पर सन्देह और सारे निकटस्थों पर उसका दोष, कि कोई उन्हें समझ नहीं पा रहा है। यह दो लक्षण हैं सम्भवतः इस दिग्भ्रम के। जो इसे पार कर ले जाता है, सफलतापूर्वक, उसे जीवन में कभी कोई मानसिक कष्ट नहीं आता है। जो इसे टालता रहता है, उसे इसकी और अधिक जटिलता झेलनी पड़ती है। यही एक अवस्था भी होती है जिसे जीवन में संक्रमणकाल भी कहते हैं। यही समय होता है जब आप अपने निर्णय लेते हुये जीवन को एक निश्चित दिशा दे जाते हैं, सारे दिग्भ्रमों से परे।
 
समस्या सबकी है, उपाय एक ही है। अपने जीवन पर एक बार नये सिरे से सोच अवश्य लें, हो सकता है कि एक नये व्यक्तित्व को पा जायें आप अपने अन्दर, हो सकता है कि आप स्वयं को पहचान जायें। कुछ इस प्रक्रिया को जीवन समेटना कहते हैं, कुछ इसे सार्थक जीवन की संज्ञा देते हैं, अन्ततः दिग्भ्रम कुछ न कुछ तो सिखा ही जाते हैं। वैसे भी जीवन से सम्बन्धित सारा ज्ञान हम अपने शैक्षणिक जीवन में ही नहीं सीख जाते हैं, हमारा अनुभव सतत हमें कुछ न कुछ सिखाता रहता है। कई परिस्थितियाँ जीवन के पथ पर ऐसे प्रश्न छोड़ देती हैं जिनको सम्हालने में पूरा अस्तित्व झंकृत हो जाता है। कोई भी झटका खाकर आहत हों तो चोट झाड़ने के पहले ही यह प्रश्न स्वयं से पूछ लें कि क्या सीखा इससे?

जो इसे पार कर चुके हैं, वे यह पढ़कर मुस्करा रहे होंगे। जो अभी यहाँ पर पहुँच रहे हैं, उन्हें यह व्यर्थ का आलाप लगेगा। जो इस दिग्भ्रम में मेरे साथ हैं, वे पुनः यह पढ़ेंगे।


चित्र साभार - http://www.middleastpost.com/

21.5.11

डायरी का जीवन

बहुत दिन हो गये, डायरी नहीं लिखी। ऐसा नहीं है कि जीवन में कुछ घट नहीं रहा है, ऐसा भी नहीं है कि मैं लिख नहीं रहा हूँ, पर पता नहीं क्यों डायरी नहीं लिख पा रहा हूँ। डायरी लिखना एक अत्यन्त अनुशासनात्मक कार्य है और बहुधा अनुशासन अवसर पाते ही सरक लिया करता है जीवन से। मन में बहुत कुछ चलता रहता है, बहुत ही व्यक्तिगत, साधारणतया बाहर आता ही नहीं है, सार्वजनिक लेखन में तो कभी भी नहीं। डायरी ही एक ऐसा माध्यम है जिसमें आप अपने व्यक्तिगत क्षणों को उतार सकते हैं और वह भी निःसंकोच। बहुत बार जब डायरी में औपचारिक होने लगता हूँ तो स्वयं पर हँसता हूँ, लगता है किसी और के लिये लिख रहा हूँ, किसी नाटक में किसी और पात्र को जी रहा हूँ। स्वयं को स्वयं समझ स्वयं के लिये लिख लेना ही डायरी लेखन है।

मन गहरा  उलीच दो, लिख दो
डायरी लिखने का एक और लाभ होता है, स्वयं से पारदर्शिता। जब औपचारिकताओं को न बता कर गहरी बातों को करना हो तो व्यक्ति स्वयं से निश्छल रहता है। विवशताओं के बीच उसे एक ठौर मिलता है मन को व्यक्त करने का। जीवन में विवशताओं का विष न चढ़े इसके लिये आवश्यक है कि वह निकलता रहे किसी न किसी माध्यम से। इस कार्य के लिये डायरी से अधिक आत्मीय क्या और हो सकता है भला?

अपनी लिखी हुयी डायरी के पृष्ठों को पुनः पढ़ना एक विशेष अनुभव है। आपके वास्तविक जीवन का जो प्रक्षेप होता है उससे नितान्त अलग दिखता है डायरी में व्यतीत किया हुआ जीवन। आप यह मानकर तो चलिये कि यदि किसी के मन में अपने जीवन का सत्य सहेजकर रखने का संकल्प है तो वह सत्य को बचाकर रखना चाहेगा, अपनी सुरक्षा के लिये या अपने विकास के लिये। मुझे अपने जीवन के व अपनी डायरी के तटों में बहुत अधिक निकटता दिखायी पड़ती है, पतली सी धारा में बहता निश्चित सा जीवन। बहुत महापुरुष ऐसे हैं जिनकी डायरी को पढ़ना न केवल रुचिकर रहता है वरन उसमें रहस्यों के उद्घाटन की विशेष संभावनायें बन जाती हैं। विकीलीक्स जैसा विस्फोटक कुछ भी न हो पर फिर भी बहुत कुछ ऐसा निकल आता है जिस पर चर्चाओं का बवंडर मचा ही रहता है, बहुत दिनों तक।

मैं यही सोचता हूँ कि कभी मेरी डायरी इस तरह अपने रहस्य खोलेगी तो कितना बवाल मचेगा? जीवन जब सपाट राह में भाग रहा हो तो इस संदर्भ में बहुत अधिक संभावना नहीं है कि कुछ रोचक मिलेगा। मर्यादावश जिन भावों को मन में छिपाना पड़ा है, बस वही निकलने को उतावले होंगे। बहुधा मन मानता नहीं है बिना अपनी बात कहे। किसी तरह उसको मना कर उसका पक्ष ही डायरी में लिखना पड़ता है। यद्यपि डायरी में लिख लेने भर से पूरा द्वन्द शमित नहीं हो पाता है पर एक सन्तोष बना रहता है कि मन और मर्यादा को समान अवसर दिया गया।

डायरी लेखन किसी संभावित निष्कर्ष को ध्यान में रख कर नहीं होता है, पर उसमें विस्फोट की संभानायें बनी रहती हैं। कुछ भी हो, आपबीती को औरों के दृष्टिकोण से न देखकर स्वयं से बतियाने का एक सशक्त माध्यम हो सकता है डायरी लेखन। स्वयं से बतियाना, अपने अन्दर देखना, अपनी क्षमताओं को स्वयं आकना और आत्म-साक्षात्कार का एक सशक्त माध्यम हो सकता है डायरी लेखन। दिन में कुछ पल सच के बीच बिताने का माध्यम हो सकता है डायरी लेखन। स्वयं को समझाने और मनाने का माध्यम हो सकता है डायरी लेखन।

डायरी का जीवन हृदय के निकटतम होता है।


चित्र साभार - http://www.flickr.com/photos/dou_ble_you/

18.5.11

वह बरसात और हमारे कर्म

दोपहर है और जोर का पानी बरस रहा है, सड़कों पर अनवरत पानी बह रहा है। वैसे तो सायं होते ही बंगलोर का मौसम ऐसे ही सड़कों की सफाई करने उतर आता है, आज अधिक कार्य निपटाना है अतः सवेग आया है और वह भी समय से पहले। सहसा सड़कें अधिक चौड़ी लगने लगती हैं। पैदल चलने वाले दुकानों के अन्दर खड़े मुलकते हैं, कोई चाय पी रहा है, कोई सिगरेट। दुपहिया वाहन भी सरक लेते हैं किसी आश्रय को ढूढ़ने जहाँ झमाझम बरसती बूँदों के प्रकोप से बचा जा सके। अब सड़क पर चौपहिया वाहन सीना चौड़ाकर बढ़े जा रहे हैं, निरीक्षण के लिये जाना है, लगता है आज शीघ्र पहुँच जायेंगे।

किसके कर्मों का फल है यह
यह सब होने पर भी एक जगह ट्रैफिक की गति लगभग शून्य सी हो जाती है, कारण समझ नहीं आता है। धीरे धीरे गाड़ी आगे बढ़ती है तो पता लगता है सड़क पर दो फुट गहरा पानी भरा हुआ है, पानी का स्तर थोड़ा कम होता तो ट्रैफिक थोड़ा आगे सरकता। पैदलों और दुपहिया वाहनों के न चलने से उपजी गतिमयी आशा क्षुब्ध निराशा में बदल गयी थी।

देखा जाये तो भौगोलिक दृष्टि से बंगलोर समतल शहर नहीं है, जलभराव की समस्या होनी ही नहीं चाहिये, शहर को साफ कर वर्षा के जल को सहज ही बह जाना चाहिये। पुराने निवासियों से पता लगा कि पहले यह समस्या कभी नहीं रहती थी, सड़के सदा ही स्वच्छ और धूल रहित रहती थीं। सारा का सारा वर्षाजल सौ से अधिक जलाशयों में ससम्मान पहुँच जाता था, कहीं निकट आश्रय मिल ही जाता था। आजकल कुछ बड़ी झीलों को छोड़ दें तो शेष जलाशय विकास की भेंट चढ़ गये हैं, अब वर्षाजल सड़कों पर मारा मारा फिर रहा है।

मनुष्य ने विकासीय-बुखार में जंगल से पशुओं व वृक्षों को बाहर लखेद दिया, अब शहर के जलाशयों से जल को लखेदने का प्रयास चल रहे हैं। पशु निरीह थे, वृक्ष स्थूल थे, उन्होने हार मान ली और पुनः लौटकर नहीं आये और न ही विरोध व्यक्त किया। इन्द्र का संस्पर्श लिये जल न तो हार मानता है और न ही अपने सिद्धान्त बदलता है। कैसे भी हो अपने लिये समुचित आश्रय ढूढ़ ही लेता है। यदि आप जलाशय पाट देंगे तो वह आकर सड़क पर फैला रहेगा, आप कितना भी खीझ लें अपनी भव्य गाड़ियों में बैठकर, विकास का प्रतिमान बनी सड़कों को जलभराव से छुटकारा मिलने वाला नहीं है। जल इसी प्रकार अपना विरोध व्यक्त करता रहेगा।

मुझे लगा जल अपना क्रोध व्यक्त कर बह जायेगा पर अपना पुराना कर्म तो निभायेगा, शहर को स्वच्छ करने का। निरीक्षण कर के लगभग तीन घंटे बाद जब उसी रास्ते से वापस जाता हूँ तो सड़क के किनारे कीचड़ सा पड़ा मिला, लगभग हर जगह। हम अपने गर्व में जल का सम्मान भूल गये तो जल भी न केवल अपना कर्म भूला वरन उल्टा एक संदेश छोड़ गया। जो जल पहले शहर की सड़कों को स्वच्छ कर जाता था, आज अपने विरोध स्वरूप उन्ही सड़कों को गन्दा करके चला गया है, हमारी विकास की नासमझी और अन्ध-लोलुपता पर करारा तमाचा मारकर।

कहाँ एक ओर मंच तैयार था, झमाझम वर्षा का समुचित आनन्द उठाने का, मदमाती बूँदों की धुंधभरी फुहारों पर छंद लिखने का, एक गहरी साँस भरकर प्राकृतिक पवित्रता को अपने अन्दर भर लेने का, पर आज पहली बार वर्षा रुला गयी, हमारे कर्म हमें ढंग से समझा गयी।

चित्र साभार - http://bangalorebuzz.blogspot.com

14.5.11

हर दिल जो प्यार करेगा


अब आप बोल उठेंगे कि गाना गायेगा। कैसा विचित्र संयोग है कि पहला कवि तो वियोगी था, कविता लिख गया, अब उस कविता को गाने के लिये वही आगे आयेगा, जो प्यार करेगा। प्रकृति में यह नियम कूट कूट के घुला है कि हर प्रभाव अपने स्रोत के विरोध की दिशा में होता है।

लहराता, गाता, मदमाता प्यार
प्रकृति की गति तो अकल्पनीय है पर संगम के राजकपूर के बारे में एक अपनापन सा लगता है, लहराता हुआ उसका एकांगी प्यार, उस प्यार का निश्छल उछाह, उसका उन्मुक्त प्रकटन, अधिकारजनित, नकार दिये जाने के संशय व भय से कोसों दूर, रुदन-युगल के ऊपर बादल सा बरसता और अपनी बात कहता, हर दिल जो प्यार करेगा, वह गाना गायेगा।

राजकपूर की अधिकारपूर्ण प्रेमाभिव्यक्ति इसी गीत के माध्यम से होती है। निश्चय ही हर दिल जो प्यार में डूबता है वह गाना गुगुनाने लगता है। अब दो और प्रश्न उठते हैं। पहलाक्या हर प्यार करने वाला निश्चय ही गाना गाता है? दूसराक्या हर गाना गाने वाला प्यार करता है? मुझे तो दोनों ही प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक लगते हैं। बहुत लोग तो ऐसे प्यार करते हैं कि उसको भी नहीं पता चलता है, जिससे वे प्यार कर बैठते हैं, बड़ा चुपचाप सा प्यार होता है वह, गाना तो कभी नहीं गाया जाता है। दूसरी ओर बहुत लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी गाते रहते हैं, अपने मन की बताते रहते हैं, पर प्यार के उपहार से कोसों दूर रहते हैं। मुझे तो इन दोनों प्रश्नों के उत्तर सकारात्मक नहीं मिले जिस पर आधारित गणितीय प्रमेय के आधार पर प्रेम और गाने को एकरूप समझा जा सकता हो।

पारिवारिक परिवेश में सत्य कितना भी स्पष्ट हो पर श्रीमतीजी की सहमति पाने तक त्रिशंकु सा लटका रहता है। श्रीमती जी को राजकपूर के गाने पर चौतरफा विश्वास है और उन्हें यहाँ तक लगता है कि बिना गाना गाये मन में प्यार उत्पन्न ही नहीं हो सकता है। पर यही कारण नहीं है कि मेरी गीत गाने में बहुत रुचि है, बचपन से धुन है गुनगुनाने की। जब रौ में होता हूँ तो कहीं भी गुनगुनाने लगता हूँ। जब तक पता लगता कि कहाँ पर खड़ा होकर गा रहा हूँ तब तक दो तीन पंक्तियाँ सुर में ढलकर निकल भागती हैं। बचपन की लयात्मक लहरियाँ अभी भी जीवित हैंअभी भी घर में सहसा ही गा उठता हूँवृन्दावन का कृष्ण कन्हैयासबकी आँखों का तारा।

पिछले कई दिनों से घर में सुरों के उद्गार नहीं उठ रहे थेकारण मेरी व्यस्तता का थाबंगलोर में ही वाणिज्य के स्थान पर परिचालन का नया दायित्व सम्हालने के कारण भारी भरकम ट्रेनों और इंजनों से आत्मीयता बढ़ गयी थी। घर में टेलीफोन पर पूर्णनिमग्ना हो घंटे भर बतियाने के बाद कण्ठ गाने योग्य बचता ही नहीं है। गाना कम हो गयाघर के वातावरण में स्वर गूँजने कम हो गये,  श्रीमतीजी को लगने लगा कि प्यार कम हो गया। आप कितना भी समझा लें कि न गाने से प्यार कम नहीं होता हैकण्ठ भले ही न कुछ कहे पर मन गुनगुनाता रहता है। श्रीमतीजी तो मानती ही नहीं, अब राजकपूर ने जो इतना जोर जोर से गा दिया है, बिल्कुल स्पष्ट,  हर दिल जो प्यार करेगावो गाना गायेगा।

हमारे तर्क धरे के धरे रह गयेगाना तो गाना ही पड़ेगा। स्वयं नहीं गायेंगे तो गवाया जायेगा। इसी बीच हमारा जन्म दिवस आया। हम तो जीवन को ही उपहार मानते हैं अतः उपहार माँगते नहीं। सहसा सामने एक बड़ा सा उपहार देखकर आश्चर्य हुआ। उत्सुकतावश खोला तो एक करोओके उपकरण निकला। टीवी स्क्रीन से जोड़ामनपसन्द गाना चुना और गाने लगाआनन्द आ गयाएक के बाद गाने गाये।

श्रीमतीजी के चेहरे पर मुस्कान थी। पति गा रहे हैं, अब राजकपूरजी के अनुसार प्यार भी जागेगा।

हर दिल जो प्यार करेगावह गाना गायेगा,
गाना रूखे सूखे दिल में प्यार जगायेगा।

काश, ऐसे ध्यानस्थ हो हम गा पाते

चित्र साभार - http://blindgossip.com/

11.5.11

व्यस्त रहो या मस्त रहो

कितना रखना, कितना तजना,
नैसर्गिक या विधिवत सजना,
संचय कर लूँ या त्याग करूँ,
अनुशासन या अनुराग रखूँ,
कुछ कह दूँ या सहता जाऊँ,
तट रहूँ या संग बहता जाऊँ,

द्वन्द, दिशायें तोड़ सघन होता जाता,
अभिलाषायें, जीवन यह खोता जाता,
किन्तु हृदय में कोई कहता, सुन साथी,
व्यर्थ व्यग्रता जीवन को भरती जाती,
हाथ लिया जो कार्य, उसे निपटा डालो,
स्वप्नों के उपक्रम जीवन में मत पालो,
भय छोड़ो, आश्वस्त रहो,
व्यस्त रहो या मस्त रहो।1।

लम्बा जीवन, विश्राम यहीं,
राहों में भी, संग्राम यहीं,
अतिशय आश्वासन पाकर भी,
शंकायें मन किसने भर दी,
आगत दुख से घबराने का,
जो बीत गया, पछताने का,

निर्माण किये अपने भवनों में खो जाता,
बहुधा प्रात हुयी, मै थककर सो जाता,
प्रकृति-विषम जीवन हमने चुन ही डाला,
व्यर्थ अकारण धधक रही उर में ज्वाला,
तन, मन, जीवन तिक्त रहे, अवसाद रहे,
क्यों खण्डयुक्त जीवन का प्रखर विषाद रहे,
तन-मन साधन है, स्वस्थ रहो,
व्यस्त रहो या मस्त रहो।2।

निर्वात बने पर रुके नहीं,
देखो अब ऊर्जा चुके नहीं,
भरती जाये, बढ़ती जाये,
अधिकारों को लड़ती जाये,
वह स्रोत कहीं से आना है,
हमको ही पता लगाना,

जीवन अपना कुछ दुष्कर है कुछ रुचिकर है,
सुख दुख खींच रहे, जो भी मन अन्तर है,
दशा आत्म की, दिशा पंथ की मायावी,
कहने को, सुख भर लायेंगे, क्षण भावी,
चाह हमारी वर्तमान को प्रस्तुत हों,
क्षितिज ओर हों, पैर धरा से ना च्युत हों
जगते स्वप्नों में व्यक्त रहो,
व्यस्त रहो या मस्त रहो।3।

मस्त रहने की व्यस्तता



चित्र साभार - http://www.lotussculpture.com/

7.5.11

विश्व बंधुत्व

बहुत पहले बीटल के एक सदस्य जॉन लेनन का एक गीत सुना था, शीर्षक था 'इमैजिन'। बहुत ही प्यारा गीत लगता है, सुनने में, समझने में और कल्पना करने में। भाव वसुधैव कुटुम्बकम् के हैं, सीमाओं से रहित विश्व की परिकल्पना है, वर्तमान में ही जी लेने को प्राथमिकता है, लोभ और भूख से मुक्त समाज का अह्वान है, जीवट स्वप्नशीलता है और उसके आगमन के प्रति उत्कट आशावादिता है।

जॉन लेनन
जीवन का सत्य आदर्श की ओर निहार तो सकता है पर उसे स्वयं में बसा लेना सम्भव नहीं हो पाता है। कोई सीमायें न हों, मनुष्य का विघटनप्रिय मन इस उदारता को पचा न पाये सम्भवतः, पर सीमायें सांस्कृतिक शूल बन हृदय को सालती न रहें, इसका प्रयास तो किया ही जा सकता है।

धारा में मिल हम अपना व्यक्तित्व तिरोहित नहीं कर सकते हैं, वह बना रहे और उसकी पहचान भी बनी रहे। सीमाओं का निरूपण इसी तथ्य से ही प्रारम्भ हो जाता है। धीरे धीरे सीमायें सामुदायिक स्वरूप ले लेती हैं, बढ़ती जाती हैं, सबसे परे, होती हैं मनुष्य की ही कृति, पर इतनी बड़ी हो जाती हैं कि उन्हें पार करने में मनुष्य को 'इमैजिन' जैसी भावनात्मक पुकार लगानी होती है।

क्या आपको अच्छा नहीं लगेगा कि आप एक ऐसे विश्व में रहें जहाँ सब एक दूसरे के लिये जीने को कृतसंकल्प हों, जहाँ आँसुओं को निकलते ही काँधे मिल जाते हों, जहाँ कोई भूखा न रहे, जहाँ कोई विवाद न हो, जहाँ कोई रक्त न बहे। चाह कर भी ऐसा संभव नहीं होता है, मानसिक व आर्थिक भिन्नता बनी ही रहती है। कहीं भिन्नतायें मुखर न हो जायें, इसीलिये सीमायें खींच लेते हैं हम। धीरे धीरे सीमाओं से बँधी संवादहीनता विषबेल बन जाती है और विवाद गहराने लगता है। पता नहीं, विवाद कम करने के लिये निर्मित सीमायें विवाद कम करती हैं कि बढ़ा जाती हैं।  

समाज को सम्हालने के लिये बनायी गयी व्यवस्था को सम्हालना समाज को असहनीय हो गया है। आडम्बरों, क्रमों और उपक्रमों में कस कर बाँध दी गयी व्यवस्था असहाय है, संचालक उत्श्रंखल हैं, सर्वजन त्रस्त हैं। हमारी भिन्नता से होने वाले घर्षण से हमें बचाने के लिये निर्मित व्यवस्थायें उससे सौ गुनी अधिक पीड़ा बरसा रही हैं, सर्वजन द्रवित हैं। हम सब अपनी भिन्नता से बहुत ऊपर उठ गये हैं, सब समान हैं, पीड़ा ने सब अन्तरों को समतल कर दिया है, दूर दूर तक कोई भी झुका नहीं दिखायी देता है, कोई भी उठा नहीं दिखायी देता है, सभी निश्चेष्ट हैं, पहले भिन्न थे, अब छिन्न-भिन्न हैं।

हम धरती पर आये, हम स्थापित थे। मनुष्यमात्र भर होने से हमें आनन्द-प्राप्ति का वरदान मिला था। स्वयं को अनेकों उपाधियों में स्थापित करने के श्रम में उलझा हमारा व्यक्तित्व सदा ही उस आनन्द से दूर होता गया जो हमसे निकटस्थ था। प्रथम अवसर से ही मनुष्य बनकर रहना प्रारम्भ करना था हमें, हमने उस मनुष्य से अधिक उसकी उपाधि को ओढ़ना चाहा, हमने विघटन की व्याधि को ओढ़ना चाहा। मनुष्य बन रहना प्रारम्भ कर दें, 'इमैजिन' सच होने लगेगा।

कुछ नहीं तो अपने पड़ोसी से ही कुछ सीखें हम, सीमायें तो हैं पर उसका स्वरूप नहीं है, कोई भी वर्षों तक कहीं भी आकर रह सकता है वहाँ पर, कोई भी वहाँ से आकर धरती के स्वर्ग की सीमा में जा सकता है और वह भी सरकारी प्रयासों से, कोई भी आकर वहाँ पर किसी को मार सकता है और वह भी सगर्व। भारत में भले ही जॉन लेनन के 'इमैजिन' को सीमा में बाँध कर रख दिया जाये पर कई देश इन सीमाओं की परिभाषाओं पर विश्वास नहीं करते हैं।

4.5.11

सूट नहीं करता सूट

हम कहाँ हैं इसमें
इस समस्या से पिछले 37 वर्षों से जूझ रहा हूँ और अब तक मेरा स्कोर रहा है - 8 या 9। सारे के सारे दिन स्मृतिपटल पर स्पष्ट हैं। साक्षात्कार के समय, कन्वोकेशन के समय, प्रशिक्षण के समय, अपने विवाह पर, भाई के विवाह पर, पुरस्कार लेते समय और कुछ अन्य बार यूँ ही। पर हर बार ठेले जाने पर ही सूट पहना। अब तक कुल तीन सूट सिलवाने पड़े हैं। एक सूट चला लगभग तीन बार। हर बार पहने जाने का मूल्य लगभग 2000 रु। इतना मँहगा पहनावा हो तो भला कौन प्रभावित न हो, होना ही पड़ेगा। घर में हैंगरों में टंगे रहने से एक तो वार्डरोब की शोभा बढ़ती है और हर बार अपनी मूर्खता पर हँस लेने से थोड़ा खून भी बढ़ जाता है। इस दृष्टि से देखा जाये तो श्रीमती जी के आभूषणों से कहीं अधिक बहुमूल्य हैं मेरे सूट।

समस्या पर यही है कि ये सूट शरीर को सूट ही नहीं करते हैं। घुटन सी लगती है, बँधा हुआ सा लगता है अस्तित्व। हाथ ऊपर करने में लगता है कि पूरा पेट खुल गया है। भोजन का कौर मुँह तक पहुँचाने के लिये हाथ को सारे अंगों से युद्ध करना पड़ता है। हैंगर जैसा व्यक्तित्व हो जाता है। टँगे रहिये, जहाँ हैं आप क्योंकि सूट पहनने से आप विशेष हो जाते हैं और विशेष मानुष असभ्य सी लगने वाली सारी गतियाँ कैसे कर सकता है। टाई गर्दन पर लटकी रहने से यह डर रहता है कि कहीं कोई विनोद में ही पकड़कर झटक न दे, ऊपर की साँसे ऊपर और नीचे की नीचे, मस्तिष्क कार्य करना बन्द कर देता है।

मन का डर मन में छिपाये फिरते हैं। क्यों न हो, सब बड़े बड़े लोग पहनते हैं। पहन कर आवश्यकता पड़ने पर भाँगड़ा भी कर लेते हैं। हम तो जब पहनते हैं तो उछलते नहीं और जब उछलना आवश्यक हो तो पहनते नहीं। क्योंकि यदि यह भेद पता चला गया तो हम नीचे गिर जायेंगे सभ्यता के मानकों से, ब्लडी गँवार कह देगा कोई।

कैज़ुअल वस्त्र पहनता हूँ, चेहरा भी वैसा ही है। सौम्यता व गाम्भीर्य चेहरे में टिकने के पहले ही उकता जाते हैं। लोगों को दिखता भी है। कार्यालय में बहुत आगन्तुक बोल चुके हैं कि हम तो सोचे थे कि कोई बड़ी उम्र का (पढ़ें, अधिक सौम्य और गम्भीर) व्यक्ति होगा इस पोस्ट पर। अब पिछले 19 वर्षों से वोट डाल रहा हूँ, कितनी और उम्र चाहिये आपको समझने के लिये और कुर्सी पर बैठने के लिये?

मेरा बस चले तो सूट पहनने का आँकड़ा दहाई नहीं छू पायेगा पर श्रीमती जी बार बार याद दिला देती हैं कि इतने मँहगे सिलवाये हैं तो पहनने की आदत भी डालिये। किसी तरह तो टाल रहे हैं पर यदि असह्य हो गया तो या सूट की जेब में चूहा डाल कर वार्डरोब बन्द कर देंगे या अपने दूध वाले को पकड़ा देंगे। आपको कोई और उपाय समझ में आये तो बताईये।

(गर्मी आ रही है और सूट का प्रकरण चल रहा है, संभवतः इसी बहाने आपको मेरी उलझन गाढ़ी लगेगी। फिर भी विषय सामयिक है क्योंकि बंगलोर में यही माह सबसे ठण्डे होते हैं।)



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