Showing posts with label भारत. Show all posts
Showing posts with label भारत. Show all posts

26.6.13

बोझ प्रधान देश का बचपन

मुझे लगता है कि बोझ का जितना स्तर अपने देश में है, उतना विश्व के किसी देश में नहीं है। कोई ऐसे तथ्य तो नहीं हैं जिनके आधार पर मैं यह सिद्ध कर पाऊँ, पर लगता है कि यह ही सत्य हैं।

वैसे कहने को तो सारे तथ्य होने के पश्चात भी लोग सत्य स्थापित नहीं कर पाते हैं, तर्क होने के बाद भी कुछ सिद्ध नहीं कर पाते हैं, सिद्ध करने के बाद उसे क्रियान्वित नहीं कर पाते हैं। जिनके पास कुछ भी नहीं होता, उनके पास बस सत्य होता है, वे कह देते हैं और सब मान भी जाते हैं। जब तक गुणीजन उसे असिद्ध कर सकते हैं, वह सत्य बना रहता है। कभी कभी ऐसे सत्य राजनैतिक गरिमा के लिये तो कभी अपने को समझाने के लिये टपकाये जाते हैं।

हम भी इसी तरह का सत्य टपका रहे हैं, कि भारत के बच्चे सर्वाधिक दबे हैं, हर तरह के बोझ से, जीवन के बोझ से। तर्क को उल्टे सिरे से पकड़ते हैं और इसे असिद्ध करने का प्रयास करते हैं। यदि असिद्ध न कर पाये तो तर्क सिद्ध माना जायेगा, स्थापित सत्यों की तरह। जैसा लगता है कि जितनी हमारी सामर्थ्य है, हम असिद्ध करने को बड़ा कठिन मानते हैं और वहाँ तक नहीं पहुँच पाते हैं। चलिये कठिन ही सही, असिद्ध करने का प्रयास करते हैं।

असिद्ध करने का पहला स्तर है, स्वयं का, विशेषकर स्वयं के अनुभव का। यदि हमारा बचपन आनन्द में बीता हो, पढ़ाई का तनिक भी बोझ न पड़ा हो, तो प्रस्तुत सत्य असत्य माना जायेे। बचपन में एक तथ्य बड़ी स्पष्टता से समझ आ गया था कि यदि भविष्य आर्थिक रूप से सुरक्षित चाहिये तो पढ़ते रहना पड़ेगा, न केवल पढ़ना पड़ेगा, वरन अपनी कक्षा की ऊपरी बौद्धिक सतह में टिके रहना पड़ेगा। मन्त्र न केवल समझाया गया वरन पड़ेसियों के कई उदाहरणों के द्वारा सिद्ध भी किया गया। देखो उनको, बचपन में पढ़ने की जगह खेलते रहे, अब जीवन के दुख भोग रहे हैं।

कभी कभी कुछ भय अकारण ही दिखाये जाते हैं, पर यह भय सच था। थोड़ा बड़ा होने पर पता लग गया कि प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल प्रतियोगियों का प्रतिशत प्रयासरत प्रतियोगियों का पाँच प्रतिशत भी नहीं। प्रथम पाँच में रहना है तो, पुस्तकों को सर पर धरे चलना ही होगा, जागते समय भी, सोते समय भी। भारत में मध्यमवर्ग की बहुलता है और उनकी आर्थिक बचत एक पीढ़ी के परे जा भी नहीं पाती है। यदि कोई नौकरी नहीं मिली तो अगली पीढ़ी निम्न मध्यमवर्ग और उसकी अगली पीढी सीधे गरीबी रेखा के नीचे।

स्थापित व्यवसाय और परम्परागत आर्थिक आधार टूटने के कारण सारे बच्चों को नौकरी के राह पर जूझना स्वाभाविक है। नौकरियों का आश्रय केवल उन्हें ही मिल पाता है जो पढ़ने में और उसे परीक्षाओं में उगल देने में अच्छे होते हैं। शेष जूझते हैं, शेष जीवन। बोझ का बोध रहता ही है, जीवन के पूर्वार्ध में या जीवन के उत्तरार्ध में।

कभी सोचा कि कितना अच्छा होता कि हमारा देश भी विकसित होता, हर गाँव में एक तेल का कुँआ होता, एक सोनी के सामानों की फैक्टरी होती। रुचि और आवश्यकता अनुसार ज्ञान प्राप्तकर हम भी कहीं लग जाते। दुर्भाग्य ही है हमारे देश का कि हम जनसंख्या और भ्रष्टाचार में तो अग्रणी हैं, पर औद्योगिक विकास और अनुशासन में पिछड़े हुये हैं।

विदेशों में बच्चे राज्य के अनमोल उपहार माने जाते हैं, उन पर किसी प्रकार का अत्याचार अपराध की श्रेणी में आता है। स्वास्थ्य और शिक्षा राज्य का कर्तव्य होता है और बड़े होने पर उन्हें अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिये पर्याप्त आर्थिक सहायता मिलती है। हमारे यहाँ जिन बच्चों को शिक्षा का आग्रही बोझ नहीं मिल पाता है, हमारा आर्थिक तन्त्र उन्हें और उनके बचपन को बालश्रम के माध्यम से सोख लेता है।

कहते हैं कि संघर्ष व्यर्थ नहीं जाता है, जितना जूझेंगे उतना निखरेंगे। जिन उन्नत क्षेत्रों के लिये हमें अपनी जुझारू क्षमता बचाकर रखनी थी, उनके स्थान पर हम सारी ऊर्जा प्रतियोगी परीक्षाओं की उन पुस्तकों को रटने में और हल करने में लगा देते हैं जिनकी उत्पादकता केवल प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने तक ही सीमित रहती है। नौकरी मिल जाने के बाद उनकी उपयोगिता शून्य हो जाती है। हमने ज्ञान के पहाड़ पढ़ डाले, उनका उपयोग अब कुछ भी नहीं, छूछे कीर्तमान स्थापित कर डाले, उनका उपयोग अब कुछ भी नहीं। बौद्धिक उत्कृष्टता के आधार पर तकनीक के जिन क्षेत्रों में हमें आगे होना था, वे हमारे ध्येय में रहे ही नहीं। संभवतः जिस दिन प्रतियोगी परीक्षाओं के बोझ से हमें मुक्ति मिलेगी, उस दिन हम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना हित अहित समझ पायेंगे।

जिस भय को हमने जिया है, जिस तन्त्र का गरल हमने पिया है, उसी में अपने बच्चों को जाते देख मन पीड़ा से कराह उठता है। हृदय कहता है कि उन्हें अपना बचपन सिद्ध करने दो, उड़ना सीख गये तो आकाश से अपना लक्ष्य साझ ही लेगे। बुद्धि कहती है कि इस देश में कहाँ से उड़ पायेगा बच्चा।, उसे अपने कंधों पर आर्थिक सुनिश्चितता और सामाजिक आकांक्षाओं का बोझ जो उठाना है।

उपरोक्त कहे सत्य को असिद्ध करने के जितने भी तर्क एकत्र करता हूँ, मन उतना ही भारी हो जाता है। काश मेरा कथन असिद्ध हो जाये, आज नहीं तो कल, देश के बच्चे भी शिक्षा और आर्थिक तन्त्र के बीच बैल की तरह जुते न दिखायी दें।