नये चर्चाकार साथी
चिट्ठाचर्चा से संबंधित पिछली पोस्ट में मैंने लिखा था–“चिट्ठाचर्चा के बारे में आपकी प्रतिक्रिया, सलाह,सुझाव, आलोचनायें आमंत्रित हैं। अगली पोस्ट में मैं कुछ सवाल जो पहले उठाये गये हैं उनके बारे में चर्चा करूंगा।”
प्रतिक्रिया, सलाह ,सुझाव ,और आलोचनाओं का ओपेन टेंडर करने पर केवल एक सलाह आई। लवली बोली–सुन्दर है यादों का सफ़र ..किसी को विज्ञान चर्चा में भी लगाइए .. यह पक्ष कई बार अछूता रह जाता है.
हमने उनकी सलाह पर फ़ौरन अमल किया और रास्ता बताओ तो आगे चलो की तर्ज पर उनको ही विज्ञान चर्चा काम सौंप दिया। उन्होंने चर्चा का फ़ीता भी काट के डाल दिया। अब आगे उनके जौहर देखने बाकी हैं।
इसके अलावा इस बीच डा.अनुराग आर्य, श्रीश शर्मा मास्टरजी उर्फ़ ई पण्डित और प्राइमरी वाले मास्टर प्रवीण त्रिवेदी को भी चर्चा सुपारी भेज दी गयी है। डा.अनुराग के यहां तो सुना है चर्चा उनके लाइव राइटर पर सजी-संवरी धरी भी है। बस उसके मंच पर आने भर की देर है (आ भी गई अब तो भाई! और क्या खूब आई है) । श्रीश शर्मा तकनीकी पोस्टों की चर्चा (विज्ञान चर्चा से अलग) करेंगे और मास्टर प्रवीण जी अपनी मर्जी से जब मन आये तब वाले अंदाज में चर्चा क्लास लेंगे। वैसे भी मास्टरों पर किसका बस चला है आजतक?
चिट्ठाचर्चा और हजार पोस्टें
देबाशीष ने इस मौके पर एक मौजूं पोस्ट लिखी। देबू ने चर्चा के नये संभावित स्वरूप पर अपने सुझाव भी दिये हैं। जो भी सुझाव दिये हैं हम अभी उनको समझ रहे हैं फ़िर समझ में आये चाहे न आयें लागू करने के लिये उनको और रतलामीजी को ही लगा देंगे। अब तो ई-पण्डित भी आ गये हैं तकनीकी लफ़ड़े संभालने के लिये।
चर्चा की हजार पोस्टें भले हो गयीं लेकिन अगर कोई कहे कि यह सब योजना, अभ्यास ,लगन, सतत मेहनत जैसे धीर-गंभीर गुणों के कारण हो गया तो कह ले –हम किसी का की बोर्ड थोड़ी पकड लेंगे। लेकिन यह सच है कि यह सब मजाक-मजाक में हो गया। जब शुरु किये और उसके बाद भी यह अंदाज नहीं था कि इतने दिन चर्चा–वर्चा होती रहेगी और यह दिन देखना पड़ेगा।
चर्चा में हम बल भर मौज-मजे का रुख बनाये रहे। जो मजा हमको अपनी पोस्ट लिखने में आता है चर्चा में हम उससे कम नहीं लेते रहे। इस लिये चर्चा का काम हमको कभी बोझ नहीं लगता रहा। साथी भी धक्काड़े से अपना काम करते रहे। जिसने जो सुझाव दिया हमने कहा —कर डालो। साथी लोग करते रहे, करके डालते रहे। इत्ते दिन मजे से पोस्टें आती रहीं, चर्चा होती रही।
चिट्ठाचर्चा और चर्चाकारों की मनमानी
चिट्ठाचर्चा के बारे में लोगों ने कोई सवाल नहीं किये लेकिन कई बार शुरू से ही यह बात उठती रही है और लोग कहते रहे कि चर्चा में लोग मनमानी करते हैं। कुछ खास चिट्ठों की चर्चा करते हैं। मंच का दुरुपयोग होता है। चिट्ठाचर्चा मतलब चिथड़ा चर्चा। आदि-इत्यादि। वगैरह-वगैरह।
हम इस मसले पर खाली यही कहना चाहते हैं कि चिट्ठाचर्चा का कोई गुप्त एजेंडा नहीं है कि इनकी चर्चा होनी है, इनकी नहीं होनी है। चर्चाकारों को जो मन आता है, जैसी समझ है उसके हिसाब से चर्चा करते हैं। इस मसले पर चर्चाकारों में आपसै में मतैक्य नहीं है। हर चर्चाकार का अलग अंदाज है। हर चर्चाकार अपने चर्चा दिन का बादशाह होता है।
कुछ खास चिट्ठाकारों को तरजीह देने की जहां तक बात है तो जिस चर्चाकार को जो अच्छा लगता है उसका जिक्र करता है। रचनाजी तो मुझे टोंकती भी रहीं कि मुझे समीरलाल और ज्ञानजी के अलावा और लोग क्यों नहीं दिखते कि उनके ही ब्लाग की चर्चा करते हैं। अब मुझे इनकी पोस्टें अच्छी लगती रहीं तो हम उसके लिये क्या करें। ज्ञानजी ने कभी कहा भी नहीं कि हमारी पोस्ट का जिक्र नहीं किया। समीरलाल अलबत्ता अपनी बालसुलभ लीलाकिट लिये इधर-उधर मायूसस दिखने की अदा दिखाते रहते हैं –हमारी पोस्ट का जिक्र नहीं होने के बावजूद्चर्चा बढ़िया है/कम से कम यहां जिक्र तो है। सबसे ज्यादा चर्चित होने के बावजूद समीर बाबू का और चर्चित होने का हुलास देखकर लगता है कि एक बच्चा है जिसके सारी जेबें टाफ़ी/लेमनचूस से भरी हैं लेकिन बालक एक और कम्पट के लिये मचल रहा है।
अब तो हम भैया रचनाजी के उलाहनों से ज्यादा समीरलाल के आंसुओं से डरने लगे हैं। रचनाजी के उलाहने हमको उत्ता परेशान नहीं करते जित्ता पिंटू बबुआ की रुंआसी शकल। इसीलिये हम चर्चा शुरू करने के पहले सबसे पहले देख लेते हैं कि बालक ने कुछ लिखा है क्या? चर्चा पोस्ट करने के पहले देख लेते हैं कि बबुआ ने कोई पोस्ट-गुल तो नहीं खिला दिया। उसका जिक्र करने के बाद ही मामला आगे बढ़ता है।
जहां तक रही पक्षपात की बात तो वह बात एकदम सच भी है और सिरे से गलत भी। अब हमको कोई लेखक पसंद आता है तो उसकी चर्चा करते हैं। इसमें कौन पाप है भाई। मुकेश कुमार तिवारी की कवितायें मुझे पसंद हैं, पूजा उपाध्याय , सागर, कार्तिकेय मिश्र , शेफ़ाली पाण्डेय, कुश, डा.अनुराग आर्य, शिवकुमार मिसिर, पूजा बड़्थ्वाल ,अभिषेक ओझा , चंद्रभूषण ,कबाड़ी ,प्रत्यक्षा, मानसी ,विनीत कुमार इनका-उनका न जाने किन-किन का लिखा मुझे पसंद आता है तो मैं उनकी चर्चा करता हूं। चर्चा करता हूं! बार-बार करता हूं। नयी पोस्ट आती है दिख जाती है तो करता हूं। नहीं दिखती तो बाद में करता हूं। चर्चा के लिये पोस्ट का कोई एकस्पायरी पीरियड तो है नहीं। तमाम साथी ब्लागर हैं जिनकी चर्चा मन की फ़ाइल में करी पड़ी है लेकिन ससुर की बोर्ड पर नहीं आ पाई अब तक। इनमें एक प्रशान्त उर्फ़ पीडी हैं। इनकी पोस्टें मुझे एकदम सहज और अपनी सी लगती हैं लेकिन अभी तक चर्चाइच नहीं कर पाये।
लफ़ड़े ये भी होते हैं
कई बार यह भी सोचते हैं कि इस पोस्ट की चर्चा करेंगे ! ऐसे करेंगे ,वैसे करेंगे। लेकिन पोस्ट बटन दबने के बाद दिखता है अल्लेव वो हमारी दिलरुबा पोस्ट तो नदारद है। उसकी चर्चाइच नहीं हो पायी। शकुन्तला की अंगूंठी की तरह उसे समय मछली निगल गयी। फ़िर सोचते हैं कि दुबारा करेंगे/तिबारा करेंगे तो उसे शामिल कर लेंगे लेकिन ऐसा अक्सर नहीं होता। सब मामला उधारी पर चला जाता है। लेकिन कभी-कभी सरकी पोस्टें मेले में बिछड़े जुड़वां भाइयों से दिख जाती हैं तो उनका जिक्र धक्काड़े से कर देते हैं।
यह तो हमारी बात है। हमारे अलावा हमारे साथियों की पसन्द/नापन्द है। किसी को एक तरह की पोस्ट पसंद हैं किसी को दूसरी तरह की। उसके हिसाब से चर्चा करते हैं साथी लोग। अब इसके बावजूद किसी के चिट्ठे की चर्चा चिट्ठाचर्चा में नहीं हो पाती और कोई कहता है कि चर्चा में पक्षपात होता है, मठाधीशी है तो यह कहने का उसका हक बनता है। उसका मौलिक अधिकार है– हरेक को अपनी समझ जाहिर करने का बुनियादी अधिकार है।
कभी-कभी यह भी होता है कि कोई पोस्ट चर्चा के तुरंत पहले पोस्ट होती है या फ़िर चर्चा के तुरंत बाद। वह शामिल नहीं हो पाती। अगले दिन तक वह इधर-उधर हो जाती है। वैसे भी हमारा यह कोई दावा भी नहीं है कि हम लोग सब चिट्ठों की चर्चा करेंगे। या सब बेहतरीन पोस्टों की चर्चा करेंगे। या ऐसा या वैसा। हम तो जैसा बनता है वैसा चर्चा करते रहने वाले घराने के चर्चाकार हैं। उत्कृष्टता या श्रेष्ठता का कोई दावा हम नहीं करते। हमे तो जो चिट्ठे दिख गये, जित्ते हमने पढ़ लिये उनकी चर्चा कर देते हैं। जितना खिड़की से दिखता है/बस उतना ही सावन मेरा है वाले सिद्धान्त के अनुसार जित्ते चिट्ठे बांच लिये उतने लिंक टांच दिये के नारे के हिसाब से चर्चा कर देते हैं। अब उसी में कोई चर्चा अच्छी या बहुत अच्छी निकल जाये तो उसका दोष हमें न दिया जाये।
एक लाईना का मतलब चिट्ठाचर्चा नहीं है
हम जो एक लाईना लिखते हैं उसकी भी अलग कहानी है। आलोक पुराणिक के उकसावे पर हम ये करना शुरू किये और लोगों ने पसंद किया तो हमने जारी रखा। आलोक जी का मानना है कि आगे आने वाले समय में बहुत कम शब्दों में अपनी बात कह लेने का समय आयेगा। उस समय फ़ुरसतिया टाइप लफ़्फ़ाजी पढ़ने के लिये लोगों के पास समय नहीं होगा। तब एक लाईना साइज की पढ़ाई ही चलेगी। हम उनकी बात सही मानकर जुट गये और जुटे हैं एक लाईना लिखने में।
कुछ लोग कहते हैं और सही ही कहते हैं कि एक लाईना का मतलब चिट्ठाचर्चा नहीं है। ये तो हम अपनी तमाम पोस्टें न पढ़ पाने की कमी को ढकने के लिये और तमाम पोस्टों का लिंक देने के लिये ठेल देते हैं। एक लाईना लिखना एक खुराफ़ाती और कभी-कभी खतरनाक काम भी है। खुराफ़ाती इसलिये कि शीर्षक देखते ही उसका खुराफ़ाती संस्करण बनाने के लिये मन के घोड़े दौड़ने लगते हैं। अमूमन जब तक पोस्ट का शीर्षक टाइप होकर लिंक लगता है तब तक एक लाईना तय हो जाता है। स्वत:स्फ़ूर्त। खतरनाक इसलिये कि कभी-कभी हड़बड़ी में दुखद/दुखान्त और भारी पोस्टों के साथ उत्फ़ुल्ला और खुराफ़ाती शीर्षक लग जाते हैं तो बेचैनी होती है। इसलिये कोशिश रहती है कि इस तरह की पोस्टों को एक बार देख ही लिया जाये।
और भी चर्चाये हैं
आजकल चिट्ठाचर्चा के अलावा और साथी लोग भी चर्चा करते हैं। सबके अलग-अलग अंदाज हैं। कुछ लोग नियमित रूप से बेहतरीन चर्चा करते हैं। लेकिन इतने दिन की चर्चा के अनुभव के बाद मुझे लगता है कि चर्चा में नियमितता और विविधता बहुत अहम बात है। चिट्ठाचर्चा की सफ़लता का सबसे बड़ा कारण मुझे लगता है इस मंच से जुड़े चर्चाकारों के अलग और अनूठे अंदाज के कारण चर्चा में विविधता का होना रहा है। अकेले –अकेले की चर्चा में एकरसता होने की गुंजाइश रहती है। मुझे लगता है जो और चर्चा मंच हैं उनमें भी और लोगों को शामिल होना चाहिये ताकि ब्लाग जगत में चर्चा का काम और रोचक तरह से हो सके।
चिट्ठाचर्चा का उपयोग या कुछ लोगों की नजर में दुरुपयोग हमने ब्लाग जगत की कुछ प्रवृत्तियों पर अपनी राय व्यक्त करने/अपनी बात कहने के लिये किया। साथी चर्चाकारों से जुड़ी हुई बात होने के चलते उस मंच से अपनी बात कहना ही मुझे ज्यादा सटीक लगा। जरूरी नहीं कि सभी लोग मेरी बात से सहमत हों। लेकिन ब्लाग जगत में घट रही घटनाओं की चर्चा और उस पर अपनी राय हम चिट्ठाचर्चा में नहीं करेंगे तो कहां करेंगे?
समय-समय पर चर्चा के प्रारूप में बदलाव आते रहे। टेम्पलेट बदलते रहे। नये साथी जुड़ते रहे। जो भी चर्चा से जुड़ा उसने कुछ न कुछ अपनी तरफ़ से सार्थक योगदान किया।
आने वाले समय में चर्चा:
आगे आने वाले समय में चर्चा का स्वरूप क्या होगा इस बारे में आगे आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन यह सच है कि समय के साथ बढ़ते चिट्ठों के चलते चर्चा के लिये पोस्ट का चुनाव करना कठिन काम होता जायेगा। देबू ने सुझाया है कि एक तरह की पोस्टों को एक साथ रखने के लिहाज से चर्चा का प्रयास करना चाहिये।
आगे आने वाले समय में चर्चा का स्वरूप तय करने में शायद विनीत कुमार की यह बात कुछ निर्देशक का काम करे-अगर कायदे से ब्लॉगिंग की जाए तो सरोकार की गुंजाईश बहुत अधिक है। जो कि बाजार और मुनाफे के दबाब में टेलीविजन,प्रिंट मीडिया से धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं।.
मुझे लगता है कि जो बात ब्लाग के मामले में सही होगी वही चर्चा के मामले में भी। आने वाले समय में इस तरह की पोस्टों के सार्थक जिक्र करते रहना होगा जिनमें सामाजिक सरोकारों की बात हो।
आगे आने वाले समय में केवल ब्लाग पोस्ट के लिंक देकर और उसका उद्धरण देने से आगे पोस्ट पर अपनी समझ और राय देने का चलन भी शायद जल्दी ही शुरू हो। चर्चा के माध्यम से अगर हम पोस्ट में कुछ इजाफ़ा नहीं कर रहे तो फ़िर चर्चा कैसी? इससे अच्छा तो फ़िर फ़िर संकलक ही भले।
और अंत में
ऐसे तो ब्लाग जगत में अक्सर काम भर की साधुवादी और वाह-वाही टिप्पणियां मुझे मिलती रहीं और मेरे सामने यह रोना कभी नहीं रहा कि हमारे प्रशंसक नहीं हैं। लेकिन कल जब चंड़ीगढ़ से मुझे एक पाठक ने मेरा फोन नम्बर खोजकर मुझसे उलाहना दिया कि मैंने पिछले पन्द्रह दिन से कोई पोस्ट नहीं लिखी तो सुखद आश्चर्य हुआ।
कल सुबह चंड़ीगढ़ से मेरे आफ़िस के फोन पर शैलेन्द्र कुमार झा का फोन आया। उन्होंने मेरे ब्लाग पर मेरी फ़ैक्ट्री कीसाइट से मेरी फ़ैक्ट्री का फोन नम्बर लिया और मुझसे पूछा कहा कि मैंने अगली पोस्ट क्यों नहीं लिखी? शैलेन्द्र झा ने बताया कि वे मेरा ब्लाग नियमित पढ़ते हैं और लगभग सभी पोस्टें दो-तीन बार पढ़ चुके हैं। इसके अलावा अन्य ब्लागरों के भी ब्लाग वे पढ़ते हैं। मैंने अपने ब्लाग को पसंद करने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि सहज-सरल और मौज-मजे के अंदाज के चलते उनको मेरा ब्लाग पसंद है। मूलत: मधुबनी ,बिहार के रहने वाले शैलेन्द्र एक फ़ार्मा कम्पनी में काम करते हैं।
ब्लाग पर उनकी समझ और रुचि को देखकर मैंने उनसे अपना ब्लाग शुरू करने का अनुरोध किया। तकनीकी सीमाओं के चलते ब्लाग न लिख पाने की बात जब उन्होंने बताई तो मैंने उनका ब्लाग बना दिया –कासे कहूं! आगे की तकनीकी जानकारी उनको शायद आदि चिट्ठाकार आलोक कुमार से मिल जायेगी।
मैं कल से सच में यही सोचता रहा और अपने दोस्तों से बताता भी रहा कि क्या सच में मैं ऐसा लिख पाता हूं कि कोई पाठक मेरा नम्बर खोजकर मुझे अपनापे से भरा उलाहना दे कि मैं अगली पोस्ट क्यों नहीं लिखता।
अगर शैलेन्द्र झा कहते नहीं तो शायद इस महीने पोस्ट लिखना टलता ही रहता। इसलिये यह पोस्ट शैलेन्द्र झा के नाम।
वाह! वाह! आज चर्चा की चर्चा! चर्चा के भी दिन मान निकल पडे है.
बहुत सही अंदाज में ठेली गई पोस्ट. शाबास!! पूरा नहा धो लिए.
नियमित लिखिये वरना सिर्फ झा जी नहीं, हम भी फोन नम्बर खोज निकालेंगे.
आज चर्चा करने वाले हैं क्या? पोस्ट आई है उधर पिन्टु बबुआ की..हा हा!!
० चर्चा से नये जुड़ने वाले नये चिट्टाकारों के नाम देख खुश हुआ – मास्टर साहब आ गये ।
० हम ने कभी नहीं कहा – पक्षपात हो रहा है । कहा हो तो बताईये । अपनी पसन्द जाहिर करने का अधिकार तो उस विशेष दिन में चर्चाकार के पास सुरक्षित ही है ।
० समीरलाल जी और ज्ञान जी को आप क्या, कोई भी चर्चाकार नहीं छोड़ सकता ।
० उत्कृष्टता और श्रेष्ठता का दावा तो नहीं करते, पर क्या उत्कृष्ट और श्रेष्ठ होना/कहलाना पसन्द भी नहीं करते ? तो फिर यह क्यों “जितना खिड़की से दिखता है / बस उतना ही सावन मेरा है”| खिड़कियों से आकाश नहीं दिखता, और खिड़की भर जितने आकाश की ही चाह क्यों ? खिड़कियाँ क्यों न खुलें, और एक विस्तरित नील गगन दृश्योन्मुख हो !
० एक लाइना का अपना एक सौन्दर्य है – मादक । इसे चलते ही रहना चाहिये ।
० आपका कहना सही है कि चर्चा मंचों से अधिकाधिक समर्थ लोगों को जुड़ना चाहिये, जो एक सरोकार के तहत चर्चा करने को प्रवृत्त हों । दूसरे चर्चा मंच बेहतर ही कर रहे हैं – उनके लिये कामना यही कि वे दीर्घजीवी हों ।
० आपकी लेखनी कह सकता हूँ अकेली है अपने ढंग की , मैंने तो कहा ही है पहले ।
० मेरी पसन्द में आपके द्वारा प्रस्तुत कवितायें बहुधा मेरी भी पसन्द बन जाती हैं । यहाँ वस्तुतः दिखती है आपकी रुचि, आपका पठन ।
वाह भाई…इतना रोचक …यदि देश का इतिहास लिखा जाए तो कसम …..की देश के हर बच्चे को सरे फैक्ट सर्र से याद रहे….!
चीजों को बहुत ही स्पष्ट ढंग से रखा है आपने..आपकी शैली लेखन की वाकई मुझे हतप्रभ करती है इसमे कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं है. अल्हड़पन और बेबाकी…और फिर तखल्लुस..”फुरसतिया”
मज़ा आगया…सच्ची में…!!!
चर्चा का अपना महत्व है। कहें तो एक दस्तावेज का तैयार होते जाना भी। इसीलिए यह जिम्मेदारी भरा काम हो जाता है। यदि सवाल उठा है कि सिर्फ़ कुछ की ही चर्चा ज्यादा होती है तो सवाल का जवाब अतार्किक तरह से देकर किनारा करने की बजाय चर्चा को गम्भीर कर्म माना जाए और जिम्मेदारी से उठे सवाल से टकराया जाए ताकि स्थिति साफ़ हो और सवाल उठाने वाला भी संतुष्ट हो। मुझे उम्मीद है इस चर्चा कर्म के महत्व को “रचनाजी के उलाहने हमको उत्ता परेशान नहीं करते जित्ता पिंटू बबुआ की रुंआसी शकल।” रूंआसी शक्लों के हिसाब से ( यदि ऎसा है तो) लिखे जाने वाली मजबूरी से बचाया जाएगा।
वाह जी वाह !!
चर्चा की सुपारी गुलिया रहे थे की आप हाजिर !
हिमांशु भाई के अधिकांश बिंदु क्या? सभी पर सहमति है हमरी !!
दरअसल चर्चा मंच से जुड़ने की चाहत में कभी कभी हम लोग रुआसें हो जाए तो कुछ कम्पट धरा करिए न हमेशा अपने जेबिया मा!
आपका लेखन बिलकुल अलग होने के बावजूद मन को भाता है लुभाता है …….भले ही मौज लें आप ?
वैसे हम जैसे तो एक लाइना में ही निहाल रहे !!!!
आपकी पसंद की ये कविता मेरी भी पसंद की कविताओं में से एक है। इसी विषय पर एक शेर भी लिखा था कभी, “बाबुल की कच्ची कलियाँ हैं, खुशियाँ रंगती फ़ुलझड़ियाँ हैं”।
चिट्ठा चर्चा इतना मशहूर होगा, कभी सोचा न था। जब शुरु की थी आपने चिट्ठा चर्चा तो मुझे लगा था नारद (उस वक़्त) या ब्लागवाणी तो है ही, इसकी क्या ज़रूरत है। मगर आपके सतत प्रयास ने चिट्ठा चर्चा को आगे बढ़ाया है। सभी जो इस में सम्मिलित हैं, बधाई के पात्र हैं। कभी-कभी अचानक ही मेरी पोस्ट भी दिख जाती है यहाँ, तो बड़ा अच्छा लगता है। जारी रखें।
बहुत दिनों से आप का कुछ नहीं पढ़ा। लेकिन आप बीच बीच में गायब होते रहते हैं। अब की बार लंबे हो गए। आप की यह बात सही है कि चर्चा को सामाजिक सरोकारों से जुड़ना होगा। आप ने आज चर्चा पर ही पोस्ट लिख दी, ये ठीक है। लेकिन यह ओरिजनल फुरसतिया नहीं है। हमें तो चाहिए वही फुरसतिया पोस्ट।
शैलेन्द्र झा ने बताया कि वे मेरा ब्लाग नियमित पढ़ते हैं और लगभग सभी पोस्टें दो-तीन बार पढ़ चुके हैं।
हम भी तो पढते हैं.:) और पिंटू बबूआ का ध्यान रख लिये ये अच्छा किया.:)
रामराम.
और ये साईड पट्टी वाले विज्ञापनों से कितना पैसा मिल रहा है इसको भी चर्चा मे हिसाब सहित बताया जाये.:)
रामराम.
ये जो ऊपर हमारे मास्साब प्रवीणजी पुलकित च फुदकित हा रहे हें सुपारी सुनकर तो उनकी समझाईश की जाए कि ये सुपारी गुलियाने वाली सुपारी नहीं है ‘भाई’ वाली सुपारी है… अनूपजी की भाईगिरी से उनका पाला अब पड़ेगा ही
बाई द वे ये चर्चा तो आज की तिथि में है सो हमारे लिए आदेश क्या है…
चिट्ठाचर्चा निरंतर पूर्वाग्रस्त होता जा रहा है और इसमें ऐसे लोगों का जमावड़ा हो रहा है -अब इसे छोड़ तो दूं मगर फिर यह मेरा पूर्वाग्रह हो जाएगा ! आप विज्ञान चर्चा कोबख्श दें तो ही विज्ञान की आत्मा बची रहेगी -आगे आपकी मर्जी!
baaqi charchaa kaaron kaa zikr link sahit denaa uchit tha
baharhal achchhee charcha
आपका पोस्ट पढ़ते वक़्त एक मंद और कुटिल मुस्कान तैरते रहता है… ऐसा लगता है ऐसी लेखनी से पहले से कोई रिश्ता रहा है. या जैसे इस लेखक को जानता हूँ ब्लॉग्गिंग से पहले… पता नहीं क्यों… मैं भावुक हो रहा हूँ… चलना चाहिए मुझे …
शानदार चर्चा. मेरी पसंद आपके व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है. इतनी खूबसूरत कवितायें इसमें प्रकाशित हो चुकी हैं कि यदि आप चाहें तो श्रेष्ठ कविताओं का एक अनूठा संग्रह तैयार कर सकता है.
लड़कियाँ,
अपने आप में
एक मुक्कमल जहाँ होती हैं
बहुत सुन्दर पंक्तियां.
भैया !
धुरंधर लिखैया हौ …
चिठ्ठा – चर्चा भी इतनी सृजनात्मक …
चिठ्ठा – चर्चा के साथ-साथ जवाब भी देते गए …
अपनी रीति पर इतना विश्वास कम दीखता है !
एक शेर ठोंक के चुपाई मारि लेब …
” सबकी साकी पे नजर हो ये जरूरी है मगर
सबपे साकी की नजर हो ये जरूरी तो नहीं …”
आभार … …
असल में ब्लॉगर चिरकुट हैं – आपस में लिंक एक्स्चेंज नहीं करते। शायद एक दूसरे को क्रिटिकली पढ़ते भी नहीं। दबादब टिप्पणी ठेलने में लग रहते हैं, जिससे उनको अनुपातिक टिप्पणियां मिलें। हम भी उसी तरह के बन्दों में आते हैं।
लिहाजा लिंक देने की कमी चिठ्ठा-चर्चा पूरा करता है। इसको जो समझ गये हैं वे समान्तर चर्चा-शॉपी खोल लिये हैं। बहुत से आ गये हैं मार्केट में।
लिंक देने लेने की एक विधा ताऊ ब्राण्ड की है और बहुत पापुलर लगती है।
देबाशीष का लेख बढ़िया था और उस दिशा में कुछ करना चाहिये विद्वान लोगों को। श्रीश जैसे शरीफ लोग अब फिर सक्रिय हैं, जोर मारें!
कई दिन से हिंदिनी पर आते और खाली हाथ लौट जाते थे परंतु आज तो दोनों हाथ भर-भर ले जा रहे हैं- धन्यवाद॥
‘चर्चा में हम बल भर मौज-मजे का रुख बनाये रहे। जो मजा हमको अपनी पोस्ट लिखने में आता है चर्चा में हम उससे कम नहीं लेते रहे। इस लिये चर्चा का काम हमको कभी बोझ नहीं लगता रहा। साथी भी धक्काड़े से अपना काम करते रहे। जिसने जो सुझाव दिया हमने कहा —कर डालो। साथी लोग करते रहे, करके डालते रहे। इत्ते दिन मजे से पोस्टें आती रहीं, चर्चा होती रही।’
सही लोकतंत्र …… मौज मस्ती ही तो होनी भी चाहिए। हम आते ही है इस मंच पर मौज मस्ती के लिए, मुंह लटकाए बैठने के लिए थोडे ही
शत-प्रतिशत सहमत आपसे..चर्चा का मज़ा तब और आता है..जब चर्चाकार अपनी पोस्ट से खुद झलके..जैसे कि यह दिल ले गया…
शकुन्तला की अंगूंठी की तरह उसे समय मछली निगल गयी।
चिट्ठा-विश्व के अपने अल्पावधि के परिचय से जाना है..कि यह जगह लिखने से ज्यादा पढ़ने और कहने से ज्यादा सुनने और उससे भी ज्यादा गुनने की है….
…सो चिट्ठाचर्चा अपना नाम देखने की स्वाभाविक उत्सुकता से ज्यादा कुछ पठनीय ब्लॉगों से परिचित होने का आदर्श प्लेटफ़ॉर्म भी है..
उम्मीद की मशाल जलती रहेगी हमेशा..
एक्दम झ्क्कास
फोन करने वाले मित्र को हम भी धन्यवाद देते हैं । आपको पढना अच्छा लगता है ।
ये साईड पट्टी वाले विज्ञापनों से कितना पैसा मिल रहा है इसको भी चर्चा मे हिसाब सहित बताया जाये.
तेरे सुकुत पे थीं बदगुमानियाँ क्या क्या
तुझे करीब से देखा तो आँख भर आयी
आई लव यू, अनूप !
लेख महत्वपूर्ण होता है लेखक नहीं…….चिटठा चर्चा तो बस कुछ चुनी हुई पोस्टो का संकलन है .जिसे उस चिट्ठकार ने अपनी समझ ओर अपनी पसंद से चुना है …….अजीब बात है के हम कागजो में वो क्यों दिखने की कोशिश करते है जो हम असल में नहीं है …आप टी वी देखते है .उसमे आने वाले सरे कार्यकर्म आपको पसंद नहीं आते तो आप क्या करते है .रिमोट से चैनल बदल देते है ….यही ब्लोगिंग में कीजिये जो आपको अच्छा लगे उसे पढ़िए जो नहीं…उसे नहीं ….जिस पर मन टिपियाने का हो उस पर टिपिया दीजिये …प्रशंसा सभी को अच्छी लगती है ….परन्तु किसी ब्लोगर को सर्टिफाइड होने के लिए न तो किसी अखबार की प्रशंसा या चिटठा चर्चा के सरटिफिकेट की जरुरत है.?.नया ज्ञानोदय में ने प्रेम पर चार विशेषांक निकले है ….पर बिहार के किसी नौजवान अनजाने लेखक की एक प्रेमकहानी मुझे सबसे अच्छी लगी थी ……कितने ओर लोगो को भी अच्छी लगी होगी .किसी को नहीं भी…पसंद एक निजी मसला है …
बढ़िया लेख.
मेरा अनुभव यह रहा है कि चिट्ठाचर्चा एक लोकतान्त्रिक मंच है. कम से कम चर्चाकार होकर मैं यह कह सकता हूँ कि चिट्ठाचर्चा का कोई गुप्त अजेंडा नहीं है. सफाई नहीं दे रहा हूँ क्योंकि मैं समझता हूँ कि सफाई देने की ज़रुरत नहीं है. रही बात आरोपों की तो ऐसी बातें शक की वजह से होती रही हैं.
ये साईड पट्टी वाले विज्ञापनों से कितना पैसा मिल रहा है इसको भी चर्चा मे हिसाब सहित बताया जाये.
पोस्ट पढ़ते हुए बहुत सी बात ध्यान में आ रही थी,जिन्हें सोचा टिपण्णी में सजा दूंगी…पर मुकेश जी की इस कविता ने कुछ ऐसे भावुक किया कि दिमाग से सब फुर्र हो गया…
चिठ्ठा चर्चा मुझे तो बड़ा ही जिम्मेदारी का काम लगता है..क्योंकि मुझे लगता है,चर्चाकाल में एक निष्पक्ष पञ्च सा कर्तब्य निबाहना चाहिए…जब चिठ्ठों की चर्चा की बात /उदेश्य हो तो अधिकाधिक चिठ्ठों को पढ़कर फिर उनमे से बेहतर चिठ्ठों का जिक्र होना चाहिए और निश्चित टूर पर सामाजिक सरोकार तथा ऐसे विषय जिसमे समाज हित की बात हो,को प्रमुखता मिलनी चाहिए…
@ डा. अनुराग
नहीं डा. अनुराग ऎसा नहीं है, ठीक है पसंद एक निजी मसला है …
यह मैं भी मानता हूँ कि पसंद एक निजी मसला है … पर मुख्य लोचा भी यही है
यदि किसी घर के मुखिया को बैंगन पसँद हो, तो ऎसा नहीं कि घर के सभी सदस्य यहाँ तक कि आगँतुक, मेहमान सभी उसका लुत्फ़ ( ? ) उठाने और उसकी वाह वाह करने को बाध्य हों । अलबत्ता यदि वह सम्पूर्ण भोज के उपराँत इतना भर इँगित कर दे कि ’ भई मेरे को काला कलूटा बैंगन ही प्रिय है, और वह भी आज के मीनू में है.. ’ फिर कोई भी पूर्वाग्रह का अँदेशा लेकर नहीं आयेगा, क्योंकि उसके अन्य विकल्प की अपेक्षायें पूर्ण होती हैं !
एक सार्वजनिक मँच पर जब आप कोई विषय उठाते हैं, तो यह तय हो जाना चाहिये कि आज की चर्चा की थीम क्या है
यदि किसी चर्चा में केवल निजी पसँद के चिट्ठों की ही बात करनी है, तो यह पहले स्पष्ट हो जाये कोई बखेड़ा ही नहीं
अगली चर्चा किसी सामाजिक विषय को लेकर हो सकती है, मसलन ’ मधु कौड़ा ’,
अब यह बदज़ायका डिश जिन भी ब्लॉगर्स ने परोसी है.. उस सब को समेट लिया जाय, वह एक अलग मज़ा देगी !
यदि किसी दिन पिछले 24 घँटों या पिछले सप्ताह आये चिट्ठों की चर्चा की जाये, तो पाठकों का भी सहभागिता करने का मन बनेगा ।
मुझे नहीं लगता कि मुझे यहाँ यह स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि चर्चा और रनिंग कमेन्ट्री में अँतर है..
चर्चा के मायने हैं विमर्श, जो सहमति और असहमति के बीच आपकी सोच को नये आयाम दे
मैं पहले भी कह चुका हूँ, देर सवेर श्रेणीबद्ध या विषयबद्ध चर्चाओं की आवश्यकता पड़ेगी, वरना चूल्हे अलग होते रहेंगे !
नतीज़ा, बहु-खिचड़ी त्रस्त हिन्दी ब्लॉगर समाज !
नहीं जानता कि यह टिप्पणी तुम तक पहुँचेगी भी या नहीं, क्योंकि टिप्पणी फ़ॉलो=अप का विकल्प रखना या न रखना भी ब्लॉग मालिक के परिधि में आता है, अब ?
@ डा. अनुराग
नहीं डा. अनुराग ऎसा नहीं है, ठीक है पसंद एक निजी मसला है …
यह मैं भी मानता हूँ कि पसंद एक निजी मसला है … पर मुख्य लोचा भी यही है
यदि किसी घर के मुखिया को बैंगन पसँद हो, तो ऎसा नहीं कि घर के सभी सदस्य यहाँ तक कि आगँतुक, मेहमान सभी उसका लुत्फ़ ( ? ) उठाने और उसकी वाह वाह करने को बाध्य हों । अलबत्ता यदि वह सम्पूर्ण भोज के उपराँत इतना भर इँगित कर दे कि ’ भई मेरे को काला कलूटा बैंगन ही प्रिय है, और वह भी आज के मीनू में है.. ’ फिर कोई भी पूर्वाग्रह का अँदेशा लेकर नहीं आयेगा, क्योंकि उसके अन्य विकल्प की अपेक्षायें पूर्ण होती हैं !
एक सार्वजनिक मँच पर जब आप कोई विषय उठाते हैं, तो यह तय हो जाना चाहिये कि आज की चर्चा की थीम क्या है… यदि किसी चर्चा में केवल निजी पसँद के चिट्ठों की ही बात करनी है, तो यह पहले स्पष्ट हो जाये कोई बखेड़ा ही नहीं
इसके बाद की अगली चर्चा किसी सामाजिक विषय को लेकर हो सकती है, मसलन ’ मधु कौड़ा ’,
अब यह बदज़ायका डिश जिन भी ब्लॉगर्स ने परोसी है.. उस सब को समेट लिया जाय, वह एक अलग मज़ा देगी !
यदि किसी दिन पिछले 24 घँटों या पिछले सप्ताह आये चिट्ठों की चर्चा की जाये, तो भी ठीक !
ऎसे में पाठकों का भी सहभागिता करने का मन बनेगा ।
मुझे नहीं लगता कि मुझे यहाँ यह स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि चर्चा और रनिंग कमेन्ट्री में अँतर है..
चर्चा के मायने हैं विमर्श, जो सहमति और असहमति के बीच आपकी सोच को नये आयाम दे
मैं पहले भी कह चुका हूँ, देर सवेर श्रेणीबद्ध या विषयबद्ध चर्चाओं की आवश्यकता पड़ेगी, वरना चूल्हे अलग होते रहेंगे ! नतीज़ा, बहु-खिचड़ी त्रस्त हिन्दी ब्लॉगर समाज !
नहीं जानता कि यह टिप्पणी तुम तक पहुँचेगी भी या नहीं, क्योंकि टिप्पणी फ़ॉलो=अप का विकल्प रखना या न रखना भी ब्लॉग मालिक के परिधि में आता है, अब ?
हम तो जब भी यहाँ या चिठ्ठाचर्चा के मछ पर आते हैं तो बहुत लाभान्वित होकर जाते हैं। लिखने और पढ़ने के अनेक गुर दिख जाते हैं यहाँ।
इसके लिए हम इस मंच के संचालकों के आभारी हैं। आदरणीय अनूप जी विशेष बधाई के पात्र हैं।
Apki ye post abhi abhi Twitiya kar aa rahe hain..
ये अद्भुत पोस्ट पता नहीं कैसे मुझसे रह गयी थी।…
और इसी बहाने “जितना खिड़की से दिखता है बस उतना ही सावन मेरा है” पर भी नजर गयी। पहले इसके लिये शुक्रिया कह लेता हूँ, फिर पोस्ट पर आता हूँ।
चिट्ठा-चर्चा वाले तमाम चर्चाकारों का तो मैं जबर्दस्त फैन हूं। जो लोग बोलते हैं, उनका काम बस बोलना है….वो ये नहीं देखते कि कितनी मेहनत जुड़ी है। और इतनी ही शिकायत है तो खुद शामिल हो जाओ चर्चाकारी में।
शैलेन्द्र झा जैसे पाठक ही तो लेखक की असली पहचान हैं। देखिये वो मेरे ननिहाल के निकले,,,वैसे सच कहूं, ये झा लोग बड़े श्रद्धालु होते हैं। क्योंकि मैं भी झा हूँ…
आपकी इस पोस्ट से चिट्ठाचर्चा की बारीकिया सीखने को मिली, आज कल हम भी हाथ अजमा ले रहे है पर जैसा कि आपने बताया कि एक लाईना चर्चा नही है तो अब इससे गुरेज रखने का प्रयास करेगे।
विवाद से कोई नही बच सकता है, विवाद से तो ब्लाग संसार में प्रेम बढ़ता है मानो या न मानो एक बार जिससे विवाद हो उससे जब मिलेगे तो उतनी ही गर्म जोशी से गले मिलेगे।
तो पंसद आये, उसी की चर्चा करना कोई गलत नही है।
अरे वाह, बहुत पसन्द आयी आपकी बेबाकी.. आप एक बहुत ही सुलझे हुये इन्सान है.. इस पोस्ट का एक पर्मानेन्ट लिन्क चिट्टाचर्चा पर कही क्यू नही दे देते… समझदार लोग समझ जायेगे..
मुकेश तिवारी जी मेरे भी फ़ेवरेट है.. उनकी एक कविता तो मैने अपने ब्लाग पर भी शेयर की थी.. और आपने सही कहा चिट्ठाचर्चा की खासियत है कि इतने अलग अलग कलर है इसमे..
वैसे एक सजेशन है.. अगर आप फ़ेसबुक, बज़ या टिवटर पर एक्टिव है तब तो आपको पता ही होगा ही की पीडी बाबू कितनी सारी पोस्ट्स शेयर करते रहते है… मुझे लगता है कि वो चिट्ठा चर्चा की विन्डो को और बढाने की कुव्वत रखता है
इसे बस एक सजेशन के तौर पर देखे… एक दिन आपकी भी पुरानी पोस्ट्स पढनी है.. जैसे आप लोगो का पूरा ब्लाग ही चाय की चन्द चुस्कियो मे बाच जाते है..
[...] से प्रयास करते हैं। उनके लिये मैंने लिखा भी था- सबसे ज्यादा चर्चित होने के बावजूद [...]
[...] 50. चिट्ठाचर्चा के बहाने कुछ और बातें: इसमें मैंने चिट्ठाचर्चा से जुड़े कुछ सवालों के जबाब देने की कोशिश की थी। [...]