आजकल जनप्रतिनियों के बारह बजे हैं। वे हलकान हैं। चुनाव के मौसम में पचास लफ़ड़े हैं। एक तो टिकट जुगाड़ने में ही फ़िचकुर निकल जाता है इसके बाद प्रचार की मारामारी। जनता के बीच जाओ। वोट मांगो। सबको भरमाओ । शेखचिल्ली सपने देखो दिखाओ।
चुनाव भी अब पहले की तरह आसान नहीं रहे। जनता नेता को जोकरों की तरह झुलाती है। उसके मनोरंजन के लिये जनप्रतिनिधि को कभी गजनी जैसा बनकर दिखाना पड़ता है, कभी सजनी जैसा। शक्ति प्रदर्शन, गाली-गलौज तो कोई बात नहीं वो तो चलता ही रहता है।
इधर एक नई आफ़त आफ़त आ गयी है चुनाव आचार संहिता की। पहिले तो जनप्रतिधि समझते रहें होंगे कि आचार संहिता भी कोई अचार जैसी चटखारे दार चीज होती होगी। लेकिन जब लगी तो मिर्ची जैसी लगी। जिसको लगती है पानी मांगने लगता है। सफ़ाई देते-देते जबान खिया जाती है।
जनप्रतिनिधि बेचारा कुछ भी करता है करने के बाद पता चलता है यह काम तो आचार संहिता के खिलाफ़ था। पैसा बांटो तो आफ़त, गाली दो तो आफ़त, धमकाओ तो आफ़त, दूसरे धर्म की निन्दा करो तो आफ़त, गुंडे लगाओ तो आफ़त, बूथ कैप्चर करो तो आफ़त, राहत कार्य करो तो आफ़त। मतलब चुनाव जीतना का कॊई काम करो तो आफ़त। जनप्रतिनिधि को खुल के खेलने ही नहीं दिया जाता। कैसे लड़े वो चुनाव!
चुनाव आयोग जनता और नेता के मिलन मे दीवार की तरह खड़ा हो जाता है। अब बताओ कहता है चुनाव में पैसा न बांटो! अब बताओ आजकल कहीं उधारी में काम चलता है? लोग कहते भी हैं उधार प्रेम की कैंची है। जो एडवांस पेमेंट देगा सामान तो उसी का होगा न!
चुनाव आयोग और जनप्रतिनिधि के बीच वैचारिक मतभेद भी एक लफ़ड़ा है। चुनाव आयोग मानता है कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव जीते बिना गड़बड़ तरीक अपनाता है वो चुनाव जीतने के बाद क्या करेगा? और गड़बड़। वहीं जनप्रतिनिधि मानता है कि जनता समझती होगी कि जो जनप्रतिनिधि चुनाव के पहले हमारे लिये पैसा खर्चा नहीं कर सकता वो बाद में क्या करेगा?
अब चूंकि जनप्रतिनिधि बहुत हलकान हैं। उनका भाषण लिखने वाले ही उनको नहीं मिल रहे। ऐसे में अगर कोई जनप्रतिनिधि अगर चुनाव आयोग की नजरों में फ़ंस जाये तो क्या कर सकता है?
अब एक बार फ़ंसने के बाद जनप्रतिनिधि के फ़ंसने के बाद उसके करने के लिये कुछ बचता तो नहीं है क्योंकि जो करना होता है वह तो चुनाव आयोग को करना है लेकिन फ़िर भी ऐसी स्थिति में फ़ंसने पर बचने के लिये कुछ लचर बहाने यहां पेश किये जा रहे हैं जो जनप्रतिनिधि अपने हिसाब से जनता/चुनाव आयोग के सामने पेश कर सकता है।
बहाने और भी हैं लेकिन उनको बताने में दफ़्तर की आचार संहिता की उलंधन हो सकता है जहां कोई बहाना नहीं चलता इसलिये फ़िलहाल इत्ते से ही संतोष करें।
बड़ी समस्या है जी… इन भोले भाले नेता लोगों को बहुत परेशान किया जा रहा है. हाथ-पाँव ही काट दिए गए हैं… बेचारों के. मुझे इनकी मुसीबतों पर बड़ा बुरा फील हो रहा है
आचार संहिता का अचार पसंद आया। मुरब्बा भी मिलेगा न?
अगर आचार सहिंता हमेशा लागू रहे तो कितना अच्छा हो .
lagta hai sab ko chunav ka bukhar ho gaya hai blog par chunav ke siva kuchh dikhta hi nahi hai vese post achhi hai
वैसे ही हमें होश ही नहीं रहा कि हमने क्या किया और क्या हो गया। अब अगर भाई-भाई के बीच में लेन-देन को भी आप आचार संहिता का उल्लंघन मानेंगे तो देश का सारा सद्भाव ही गड़बड़ा जायेगा।
सही बात है ये लोग समझने को ही तैयार नही हैं.:)
रामराम.
जब आचार संहिता पर बात हो रही हो, वो भी चिट्ठों पर तो यहाँ लिखी चिट्ठाकार आचार संहिता को भी याद करना ही चाहिए -
http://raviratlami.blogspot.com/2007/03/blog-blogger-bloggest-rules.html
यह जोर का झटका धीरे से दे तो दिया आपने मगर क्या बेहया लोग समझेंगें भीं ? राजीनीति और बेहियाई का तो अब चोली दामन का रिश्ता जो है !
आचार सहिंता तो बरसो से लागू है पर उसका पालन कौन करता है ?सबसे ज्यादा क्रिमनल समाज वादी पार्टी ओर बी एस पी ने भरती कर रखे है …दूसरी बड़ी पार्टियों का भी यही हाल है .मै कहता हूँ वे उन्हें उम्मीदवार ही क्यों बनाती है …
हर उम्मीदवार को कम से कम स्नातक होना जरूरी हो ये भी अनिवार्य कर दिया जाये …
क्या मासूमियत भरे स्पस्टीकरण हैं.
आपने भी खूब जूते चला दिए।
“जो जनप्रतिनिधि चुनाव के पहले हमारे लिये पैसा खर्चा नहीं कर सकता वो बाद में क्या करेगा? ”
इसीलिए तो अब जनता एडवांस से खुश नहीं होती, उन्हें पगडी भी चाहिए। केवल पैसा नहीं, कर्ज़ माफी, कलर टीवी, नैनो आदि इसी पगडी का हिस्सा है ना!!:)
तो हमारे फुरसतिया भैया भी नेताओं की भाषा बोल रहे हैं.. कहीं से टिकट का जुगाड़ हो गया क्या..
अभी कुछ कह नहीं सकते..आचार संहिता लागू है.
बहाने और भी हैं लेकिन?????
यह पोस्ट तो सही है; पर उदाहरण के लिये कोई मस्त अचार बनाने की विधि बताते तो और लाभ होता।
आदरणीय शुक्ल जी
अभिवंदन
आचार संहिता पर लिखे विस्तृत आलेख और इसमें निहित उद्देश्य के हम भी समर्थक हैं.
- विजय तिवारी ‘ किसलय ‘
बहुत मौज लेती मौज़ू पोस्ट है यह। अब चुनाव का भी मजा आने लगा है। कम से कम ब्लॉग मण्डली ने तो मौज लेना शुरू ही कर दिया। बहानों की अगली खेप भी भेंजे। डिमाण्ड ‘हाई’ रहने की पूरी सम्भावना है।
नाम ही कुछ ऐसा दिया है बेचारे नेता “आचार” को “अचार” समझ खाये जाये रहे हैं, बाद में कहते हैं पता ही नही था कि मिर्चा का था हम तो नीबू का समझ के खा रहे थे।
फ़िलहाल इत्ते से ही संतोष कर लिया और मन बेहद आनंदित है पोस्ट बांच के
वाह वाह फ़ुरसतिया साहब ये हुई ना बात। बहुत मौजवा वाली पोस्ट।
Aapka blog itnaa samruddh hai ki mujhe kahan comment likhna ye samajh nahee aata…aur aapke likhepe comment karnekee meree qabiliyat bhee nahee…
Haan, phirbhee tippanee de rahee hun…itne saare logonme bas meree haazree bhar hai.
aadarsahit
Shama
अनूप भाई ,
ये नेता लोग इत्ते दुष्ट हैँ कि
“आचार सँहिता ” गँगाजल मेँ घोल कर पी जाते हैँ
लेकिन कौन नेता इनकी परवाह करता है।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
लेओ सरकार हम आपका आलेखवा भेजे देत हन दैनिक जागरण माँ छपे का !!
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