(1944 – 2006)
जनकवि कैलाश गौतम (1944 – 2006) विरल प्रजाति के गीतकार थे . लोकभाषा का अनुपम छंद और लोकसंवेदना से गहरी संपृक्ति उनकी कविताओं और गीतों को विशिष्ट किस्म के आत्मीय-प्रकाश से भर देती है . आंचलिक बिम्बों से परिपुष्ट लोकराग की एक अनूठी बयार बहती है उनके गीतों में . पारम्परिक समाज और मानवीय संबंधों के टूटने के एक प्रच्छन्न करुण-संगीत — एक दबी कराह — के साथ नॉस्टैल्जिया की एक अंतर्धारा उनकी कविता में हमेशा विद्यमान दिखाई देती है. यहां तक कि बाहरी तौर पर हास्य-व्यंग्य का बाना धरने वाली कविताओं में भी पीड़ा की यह रेख स्पष्ट लक्षित की जा सकती है. वे खुद भी वैसे ही थे . आत्मीयता से भरे-पूरे,हँसमुख और हरदिल अजीज़ . ‘गांव गया था,गांव से भागा’,’अमवसा क मेला’,’सब जैसा का तैसा’,’गान्ही जी’, और ‘कचहरी न जाना’ जैसी उनकी कविताएं/गीत लोकप्रियता का मानक बन गए थे. ‘बाबू आन्हर माई आन्हर’ जैसे गीत कबीरी परम्परा के बिना नहीं आ सकते थे. बीसवीं सदी के आधुनिक हिंदी गीति-काव्य का अगर कोई ठेठ पूर्वी घराना है तो कैलाश गौतम उसके प्रतिनिधि कवि-गीतकार हैं . हिंदी के पूरब अंग के अपूर्व कवि.
‘सिर पर आग’ की भूमिका में प्रो. दूधनाथ सिंह ने ठीक ही लिखा है कि : “कैलाश गौतम कोई दुधमुहें कवि नहीं हैं कि उनका परिचय देना जरूरी हो। लेकिन जो कवि फन और फैशन से बाहर खड़ा हो उससे लोग परिचित होना भी जरुरी नहीं समझते। क्योंकि अक्सर लोगों का ध्यान तो सौंदर्यशास्त्र की बनी बनायी श्रेणियाँ खींचती हैं। कैलाश गौतम उस खांचे में नहीं अंटते। वह खांचा उनके काम का नहीं है या वे उस खांचे के काम के नहीं। इसका सीधा मतलब है कि यह कवि अपनी कविताओं के लिये एक अलग और और विशिष्ट सौंदर्यशास्त्र की मांग करता है।”
कैलाश गौतम के गीत अपने स्कूल-कॉलेज दिनों से ही धर्मयुग तथा अन्य पत्रिकाओं में पढता रहा था . और उनका बड़ा प्रशंसक था . विवाह के बाद मेरे छोटे भाई,विशेषकर कनु , अपनी भाभी की हंसी को लक्षित करके कैलाश जी की कविता ‘बड़की भौजी’ की पंक्तियां बार-बार दुहराया करते थे . यह कविता उस समय धर्मयुग के किसी अंक में बहुत आकर्षक ढंग से छपी थी . जनवरी 2006 में शांतिनिकेतन में आकाशवाणी की स्वर्णजयंती पर आयोजित कवि सम्मेलन में मुझे उनके साथ काव्य पाठ करने का और उनके साथ दो दिन रहने का मौका मिला . जब उन्हें ‘बड़की भौजी’ से संबंधित यह पारिवारिक प्रसंग बताया तो वे बहुत प्रसन्न हुए और मुझे खींचकर गले से लगा लिया . कविता प्रस्तुत है :
बड़की भौजी
जब देखो तब बड़की भौजी हँसती रहती है
हँसती रहती है कामों में फँसती रहती है।
झरझर झरझर हँसी होंठ पर झरती रहती है
घर का खाली कोना भौजी भरती रहती है॥
डोरा देह कटोरा आँखें जिधर निकलती है
बड़की भौजी की ही घंटों चर्चा चलती है।
खुद से बड़ी उमर के आगे झुककर चलती है
आधी रात गए तक भौजी घर में खटती है॥
कभी न करती नखरा-तिल्ला सादा रहती है
जैसे बहती नाव नदी में वैसे बहती है।
सबका मन रखती है घर में सबको जीती है
गम खाती है बड़की भौजी गुस्सा पीती है॥
चौका-चूल्हा, खेत-कियारी, सानी-पानी में
आगे-आगे रहती है कल की अगवानी में।
पीढ़ा देती पानी देती थाली देती है
निकल गई आगे से बिल्ली गाली देती है॥
भौजी दोनों हाथ दौड़कर काम पकड़ती है
दूध पकड़ती दवा पकड़ती दाम पकड़ती है।
इधर भागती उधर भागती नाचा करती है
बड़की भौजी सबका चेहरा बांचा करती है॥
फुर्सत में जब रहती है खुलकर बतियाती है
अदरक वाली चाय पिलाती पान खिलाती है।
भईया बदल गये पर भौजी बदली नहीं कभी
सास के आगे उल्टे पल्ला निकली नहीं कभी॥
हारी नहीं कभी मौसम से सटकर चलने में
गीत बदलने में है आगे राग बदलने में।
मुंह पर छींटा मार-मार कर ननद जगाती है
कौवा को ननदोई कहकर हँसी उड़ाती है ॥
बुद्धू को बेमशरफ कहती भौजी फागुन में
छोटी को कहती है गरी-चिरौंजी फागुन में।
छ्ठे-छमासे गंगा जाती पुण्य कमाती है
इनकी-उनकी सबकी डुबकी स्वयं लगाती है॥
आँगन की तुलसी को भौजी दूध चढ़ाती है
घर में कोई सौत न आये यही मनाती है।
भइया की बातों में भौजी इतना फूल गयी
दाल परसकर बैठी रोटी देना भूल गयी॥
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