कल्पना का घोड़ा,हिमालय की ऊंचाई और बिम्ब अधिकार आयोग

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कवि और लेखक अपनी बात कहने के लिये उपमा/रूपक का सहारा लेते हैं। फ़ूल सा चेहरा, झील सी आंखे, हिमालय सी ऊंचाई, सागर सी गहराई, मक्खन सा मुलायम, चाकू सा तेज, कल्पना का घोड़ा।

इस तरह से बात समझने में आसानी होती है। पढ़ा/सुना/देखा/सोचा और बात समझ में आ गयी। जिस चीज को किसी ने देखा हो उस सरीखा किसी दूसरे को बताया जाये तो दूसरे के बारे में खट से एक अंदाज हो जाता है।

लेकिन बिम्ब/उपमाओं की भी उमर होती है। समय के साथ वे उपमायें बेमानी सी हो जाती हैं लेकिन रूढ़ हो जाने के चलते चालू रहती हैं। प्रयोग करते रहते हैं लोग! उपमायें कोई ’प्रयोग किया फ़ेंक दिया’ जैसी खपतिया सामान तो होती नहीं। पीढियों तक चलती हैं। लेकिन इसई के चलते लफ़ड़ा भी होता है अक्सर।

अब जैसे देखिये जैसे कल्पना के घोड़े पर सवार होने की बात है। यह उपमा जब प्रयोग में आना शुरु हुई होगी तब घोड़ा ही सबसे तेज सवारी होता होगा। कल्पना को तेज भगाना है सो घोड़े पर बैठा दिया। भागती चली गयी किड़बिड़-किड़बिड़। जिन लोगों ने इसका प्रयोग शुरु किया होगा वे पुरुषवादी मानसिकता के भी बताये जा सकते हैं। क्योंकि घोड़े पर बैठने का काम ज्यादातर पुरुषों ने किया। महिलायें तो डोली/पालकी पर ही चलती रहीं। तो जहां कल्पनाओं की बात चली। पुरुषों की कल्पनायें भागती चली गयी घोड़े पर और स्त्रियों की कल्पनायें धीरे-धीरे पिछलग्गू बनी चलती रहीं। पिछड़ गयीं। क्या यह भी एक कारण है महिलाओं के पीछे रह जाने का?

कल्पना के लिये घोड़े की सवारी करते हुये दिखाना ऐसा ही है जैसा बाढ़ में राहत सामग्री बंटना। कागज पर सब बंट गयी लेकिन पहुंची कहीं नहीं।

अब कोई कह सकता है कि कल्पना तो अंतत: स्त्रीलिंग शब्द है। चाहे पुरुष की हो या स्त्री की। घुड़सवारी तो कल्पना ही करेगी। लेकिन यह भी सोचा जाये कि जो स्त्री पात्र कभी खुद घोड़े पर नहीं बैठी वह अपनी कल्पना को कैसे बैठा देगी। बैठायेगी भी तो बहुत दूर तक भेजने में सकुचाइयेगी। इत्ती दूर तक ही भेजेगी ताकि अंधेरा होने के पहले कल्पना वापस घर लौट आये। या फ़िर किसी पुरुष कल्पना के साथ सवार होकर उसके साथ जायेगी।

बहरहाल छोड़िये औरत/मर्द की बात। अब आप यह सोचिये कि आजकल तेज सवारी कार के जमाने में कल्पना को घोड़े पर सवार बताना क्या सही है। सड़कों से घोड़े गायब हैं, गांवों से अस्तबल गायब हैं, सेनाओं में घोड़े केवल परेड के लिये बचे। ले-देकर घोड़े सिनेमा में बचे हैं जहां हीरो या विलेन को किसी घोड़े पर दांव लगाते दिखाना होता है बस्स। ऐसे में कल्पना के लिये घोड़े की सवारी करते हुये दिखाना ऐसा ही है जैसा बाढ़ में राहत सामग्री बंटना। कागज पर सब बंट गयी लेकिन पहुंची कहीं नहीं।

अब कल्पना के घोड़े की जगह कल्पना की साइकिल,मोटर साइकिल, कार, मर्सिडीज ,आल्टो प्रयोग होना चाहिये। सामूहिक कल्पनाओं के लिये मेट्रो कल्पना, राजधानी कल्पना, शताब्दी कल्पनायें प्रयोग की जा सकती हैं।

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कभी-कभी लोग बड़ी अटपटी उपमायें प्रयोग करते हैं। ऐसा लगता है कि कवि/लेखक लोग हमेशा क्रांति के मूड में रहते हैं। जो चीज दिखी सामने उसे हथियार में बदल लिया। जो बिम्ब दिखा उसे जोत दिया अपनी रचना सवारी में। चल बेटा पाठक के पास। पाठक अपना दिल खोले इंतजार कर रहा है। पलक पांवड़े बिछाये हुये।

बिम्ब/ उपमानों का भी कोई बिम्ब-उपमान अधिकार होना चाहिये। जिस किसी बिम्ब को उसकी गरिमा के अनुरूप न लगाया जाये वो भाग के चला जाये बिम्ब अधिकार आयोग में और ठोंक से मानहानि का दावा।

आये दिन इस तरह के अन्याय/अत्याचार होते रहते हैं बिम्बों/उपमानों के साथ। किसी को कहीं फ़िट कर दिया कोई कहीं। बिम्ब/ उपमानों का भी कोई बिम्ब-उपमान अधिकार होना चाहिये। जिस किसी बिम्ब को उसकी गरिमा के अनुरूप न लगाया जाये वो भाग के चला जाये बिम्ब अधिकार आयोग में और ठोंक से मानहानि का दावा। ऊंचाई का बिम्ब ऊंचाई के लिये, नीचाई का नीचाई के लिये। महानता का बिम्ब महान लोगों के साथ लगेगा, कम महान लोगों का कम महान लोगों के साथ। सीनियर बिम्ब सीनियर पात्र के लिये जूनियर बिम्ब नये,ताजे, फ़ड़कते पात्र के लिये। किसी भी बिम्ब के साथ दुभांती हुई तो वह बिना फ़ीस के अदालत में मुकदमा ठोंक सकता है। उसका केस कोई सरकारी वकील बिम्ब लड़ेगा जिसको साहित्य की भी जानकारी होगी।

बहुतायत में प्रयोग किये जाने वाले बिम्ब बिम्ब आयोग अधिकार में अर्जी लगा सकते हैं कि साहब देखिये काम तो हमसे हचक के लिया जाता है लेकिन मजूरी वही जो सबको मिलती है। फ़िंच जाते हैं प्रयोग होते-होते लेकिन उसके हिसाब से भुगतान नहीं होता। कम उमर वाले नये बिम्ब को खतरे वाली जगहों में भेजने की मनाही हो सकती है। स्त्री बिम्बों की सुरक्षा के लिये विशेष उपाय किये जायें। उनके भी आरक्षण की बात चल सकती है ताकि उसे भी लटकाया जा सके।

अगर ऐसा हुआ तो बड़े मजेदार किस्से आयेंगे सामने। अब देखिये एक नामचीन च लोकप्रिय गीतकार ने शहीद की शान में कवितापेश की है।

शहीद की शान में कवितायें लिखना एक उज्ज्वल परम्परा शहीदों पर कविता लिखना हमेशा सुरक्षित रहता है। कोई कुछ बोल नहीं सकता सिवाय सर झुकाकर आंखे नम कर लेने के। कवि को भी कविता में शहीद अलाउंस मिल जाता है। उसके काव्यदोष को अनदेखा कर दिया जाता है। पोयटिक जस्टिस का भी विशेषाधिकार तो हमेशा ही रहता है कवि के साथ।

हां तो बात शहीद पर लिखी गयी कविता की हो रही थी। तो कवि ने लिखा है और फ़िर सुर में गाया भी है- है नमन उनको कि, जिनके सामने बौना हिमालय अब बताइये इसका मतलब क्या समझा जाये। हिमालय को बौना बना दिया शहीद के सम्मान में।

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हिमालय को हम दिनकरजी की कविताओं से जानते आये हैं।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!

अब बताइये कभी का साकार,दिव्य,गौरव विराट बौना होकर कैसा लगेगा? कवि हिमालय को बौना बनाये बिना भी शहीद को महान बता सकता था। हिमालय से अनुरोध करता तो वह शहीद के सम्मान में अपना माथा झुका देता। उससे कहते तो वह शहीद की याद में नदियों के रूप में बह जाता। लेकिन शायद कवि मजबूर है। उसका काम हिमालय को बौना बिना चल नहीं पायेगा।

एक सैनिक के मुंह से ही कभी हमें सुनवाया गया था-
कट गये सर हमारे तो कुछ गम नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया।

शहीद की शान में कवितायें लिखना एक उज्ज्वल परम्परा शहीदों पर कविता लिखना हमेशा सुरक्षित रहता है। कोई कुछ बोल नहीं सकता सिवाय सर झुकाकर आंखे नम कर लेने के। कवि को भी कविता में शहीद अलाउंस मिल जाता है।

अपनी जान देकर भी जिस हिमालय के सर को झुकने से बचा पाने का संतोष सैनिक के मन रहा होगा उसी हिमालय को सैनिक के सम्मान में बौना बना दिया। सैनिक की आत्मा कलपती होगी। जिसकी रक्षा के लिये वह शहीद हो गया वही उसके चलते बौना हो गया। बेटे की शहादत पर बाप का सीना चौड़ा होता है, सर फ़ख्र से ऊंचा होता है। किसी बेटे की शहादत के बारे में लिखते हुये कोई कवि लिखे बेटे के शहीद होने से बाप बौना हो गया-इसी तरह की बात लगती है हिमालय को बौना बताना।

धर्मपाल अवस्थीजी ने कारगिल के शहीदों की याद करते हुये कविता में पाकिस्तानी सैनिकों का जिक्र करते हुये लिखा है- अउना, बउना सब पउना सब। ( वे सब भगोड़े तुम्हारे सामने (शहीदों के सामने) औने,बौने, पौने हैं)। लेकिन यहां कवि जी ने हिमालय का हिसाब कर दिया। देश का गौरव सैनिक की शहादत से बौना हो गया। बलिहारी है कवी जी की।

कोई आशु कवि इस तरह की उपमायें लिखे तो बात समझ में आती हैं लेकिन हमारे समय के लोकप्रिय गीतकार इस तरह की वीरतायें दिखायें हैं तो उनको कौन रोकेगा? कौन टोकेगा? खासकर तब जब वे इस बात को अपना कविता पाठ शुरू करने से पहले बताते हैं अंग्रेजी में- Its better to be a good poet than a bad engineer. जब अच्छे कवि के ये हाल हैं तो खराब कविगणों के क्या हवाल होंगे। उनके प्रशंसक जो उनको अनुकरण करके लिखने-पढ़ने का अभ्यास करते हैं वे भी इसी महान परम्परा को आगे बढ़ायेंगे। अटपटे,चौंकाने वाले बिम्ब इस्तेमाल करेंगे, बेमेल उपमायें देंगे और कविता- कल्याण करेंगे।

वैसे कवि की अपनी स्वतंत्र सत्ता होती है। वह अपने मन, मूड, मौका, मर्जी के अनुसार अपने बिंब तय करता है। कभी-कभी तो चाहकर भी अटपटा बिम्ब बदल नहीं पाता। किसी-किसी कविता में तो बिम्ब का अटपटापन ही उसकी खूबसूरती बन जाता है। बिम्ब से अटपटापन हटा दो कविता की खूबसूरती का फ़ेयरवेल हो जाता है।

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रचनाओं के साथ नये-नये प्रयोग करने की चाह के चलते भी चौंकाने वाले बिम्ब प्रयोग में लाये जाते हैं। अक्सर इस तरह के प्रयोग देखते रहने के चलते अब तो इस तरह के प्रयोगों में चौंकाने की क्षमता भी खोते जा रहे हैं।

निदा फ़ाजली जी की बहुत प्रसिद्ध गजल है जिसमें उन्होंने मां के बारे में लिखते हुये लिखा था- बेसन की सोंधी रोटी पर ,खट्टी चटनी जैसी मां। बहुत प्यारी सी बलि-बलि जाऊं टाइप उपमा है मां की। न जाने कितने लोगों ने इस जमीन पर गजलें लिखीं होंगी। लेकिन इसको अलग नजरिये से देखा जाये तो लगता है कि संबंधो की वस्तुओं में बदलने की कवायद की शुरुआत है। मां का दर्जा दुनिया के हर साहित्य में ऊंचा ,सबसे ऊंचा माना गया है। मां के उदात्त गुणों की बात की जाती है। मां की ममता , प्रेम, क्षमा, त्याग के न जाने कितनी-कितनी तरह उपमायें प्रयोग की गयीं होंगी। लेकिन इसमें मां की याद को खट्टी चटनी,चौका-बासन,चिमटा, फुकनी जैसी बताकर शायर ने मां को सामान में बदल दिया। बहुत प्यारा बिम्ब है लेकिन मां को सामान में बदलने के बाद।

रचनाओं के साथ नये-नये प्रयोग करने की चाह के चलते भी चौंकाने वाले बिम्ब प्रयोग में लाये जाते हैं। अक्सर इस तरह के प्रयोग देखते रहने के चलते अब तो इस तरह के प्रयोगों में चौंकाने की क्षमता भी खोते जा रहे हैं।

अरे लेकिन हम भी यह सब क्यों लिख रहे हैं। हम कोई कवि या आलोचक तो हैं नहीं। मात्र पाठक और श्रोता हैं। एक श्रोता और पाठक को यह अधिकार थोड़ी होता है कि वह कवि और शायर के काम में दखल दे। है कि नहीं!

मेरी पसंद

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गीत !
हम गाते नहीं
तो कौन गाता?

ये पटरियां
ये धुआँ
उस पर अंधरे रास्ते
तुम चले आओ यहाँ
हम हैं तुम्हारे वास्ते।

गीत !
हम आते नहीं तो
कौन आता?

छीनकर सब ले चले
हमको
हमारे शहर से
पर कहाँ सम्भव
कि बह ले
नीर
बचकर लहर से।

गीत!
हम लाते नहीं
तो कौन लाता?

प्यार ही छूटा नहीं
घर-बार भी
त्यौहार भी
और शायद छूट जाये
प्राण का आधार भी

गीत!
हम पाते नहीं
तो कौन पाता?

-विनोद श्रीवास्तव,कानपुर

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

84 responses to “कल्पना का घोड़ा,हिमालय की ऊंचाई और बिम्ब अधिकार आयोग”

  1. प्रवीण पाण्डेय

    चिन्तनात्मक चिन्ता।

  2. anitakumar

    वाह आज तो बिम्बों का मानवीकरण हो गया। आज कल कल्पना सुपर सौनिक जेट पर बैठ कर उड़ती है। अब तक तो इसी दुनिया में रहती थी अब सेटलाइट के चलते पूरे ब्रम्हांड में घूम आती है।बहुत दिनो बाद आप की पोस्ट पर विनोद श्रीवास्तव जी की कविता का आगमन हुआ है,कविता अच्छी लगी। आप की चिन्तायें जायज हैं।

  3. समीर लाल

    अनावश्यक एवं अफसोसजनक विवेचन.

    चूँकि बात सभी कवियों और कवि समुदाय के रचनाकर्म की चली है, तो किसी भी रचनाकार की लेखनी, उसकी सोच और उसकी कल्पना का आधार उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति एवं विशिष्टता होती है, उस पर अनावश्यक टीका टिप्पणी करना शोभा नहीं देता वो भी तब जबकि वो बेवजह हो.

    चूँकि यह कमेंट आपने मेरी फेस बुक की वाल पर किया अतः मुझे कहना पड़ा. अभी अभी उसी वाल पर राजेश स्वार्थी का कमेंट भी देखा तो सोचा कि आपके संज्ञान में वो भी लाता चलूँ.

    Rajesh Swarthi

    हिमालय पर्वत की सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट को फतह कर इन्सान कितना गौरवान्वित महसूस करता है अपनी विजय पर. वही हिमालय, जिसे भारत की सीमा पर खड़ा प्रहरी कहा गया है और जिसकी ऊँचाईयों के आगे सारे पर्वत नत मस्तक है, जब उसे लाँघ कर सीमा पार से दुश्मन हमारे देश पर हमला करने घुस आता है, तो इन सैनिकों की बहादुरी, हौसले, शहादत उन दुश्मनों के नापाक इरादों को रौंद देते है. ये बहादुर जांबाज अपनी जान की परवाह न करते हुए उन्हें मूँह तोड़ जबाब देते हैं. तब इनके हौसलों की ऊँचाई के आगे हिमालय की ऊँची से ऊँची चोटी भी बौनी ही नजर आती है. किसी को बौना या खुद से छोटा करने के अर्थ यह कतई नहीं होता कि हमने उसका कद काट दिया. किसी लकीर को छोटा करने के लिए उससे बड़ी लकीर खींच देना काफी है. उसे काटने या असम्मानित करने की जरुरत भी नहीं.

    यहाँ कविता में कवि उन जाबांजों के हौसलों की बात कर रहा है, जिनकी ऊँचाईयों की कोई सीमा ही नहीं. हिमालय को तो फिर भी आप फुट और मीटर में माप सकते हैं.

    मित्र, कवि की भावनाओं को समझो और अपनी सोच व्यापक करो. यह एक श्रृद्धांजलि गीत है और शहीदों के प्रति कवि की भावनाओं की अभिव्यक्ति. कयदा यह कहता है कि अगर साथ गा न सको, शहीदों का साथ निभा न सको तो कम से कम उनके सम्मान में बोले जा रहे दो शब्दों को किसी की शोहरत की जलन से उत्पन्न अपनी खीज का माध्यम न मनाओ. मत मानो अहसान उन शहीदों का किन्तु उनके सम्मान में कहे जा रहे शब्दों को काट उनका अपमान तो न करो.

    हिमालय के कद की चिन्ता में घुलते रहे किन्तु शहीदों के सम्मान में दो शब्द न फूटे.

    वैसे यह कोई नई बात नहीं, आजकल शोक सभाओं और शमशान तक में लोग गुट बनायें हँसते नजर आते हैं और शोक संदेशों तक में व्याकरण की त्रुटियाँ निकाल अपने आपको व्याकरणाचार्य मनवाने से नहीं चुकते.

    यह गीत तो सुना होगा:

    जब घायल हुआ हिमालय
    खतरे में पड़ी आज़ादी
    जब तक थी साँस लड़े वो
    फिर अपनी लाश बिछा दी

    अब यह न कहने लगना कि कवि की सोच पर तरस आ रहा है कि अटल, अडिग, विराट हिमालय को घायल बता दिया.

    बाकी तो आप भी लिखने को स्वतंत्र हैं, मुझे क्यूँ बोलना चाहिये. शुभकामनाएँ.

  4. वन्दना अवस्थी दुबे

    जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि…. मतलब अनूप जी. पता नहीं कितने “आइडिये” हैं आपके पास….
    लेकिन सच है बिम्बों के बिना हमारी कोई बात पूरी ही नहीं होती जैसे. शाम को ही मैं एक बच्चे को कह रही थी- कैसे बांस जैसे लम्बे होते जा रहे हो? गधे की तरह पूरा बोझा (बैग) क्यों लादे रहते हो? मेंढक की तरह कूदते क्यों रहते हो?….. कमाल का विषय चुना है आज आपने.
    आपकी विशिष्ट शैली के वाक्य पूरा दृश्य उकेर रहे हैं.
    “बहुतायत में प्रयोग किये जाने वाले बिम्ब बिम्ब आयोग अधिकार में अर्जी लगा सकते हैं कि साहब देखिये काम तो हमसे हचक के लिया जाता है लेकिन मजूरी वही जो सबको मिलती है। फ़िंच जाते हैं प्रयोग होते-होते लेकिन उसके हिसाब से भुगतान नहीं होता। कम उमर वाले नये बिम्ब को खतरे वाली जगहों में भेजने की मनाही हो सकती है। स्त्री बिम्बों की सुरक्षा के लिये विशेष उपाय किये जायें। उनके भी आरक्षण की बात चल सकती है ताकि उसे भी लटकाया जा सके”

    बहुत पते की बात है ये-
    “शहीद की शान में कवितायें लिखना एक उज्ज्वल परम्परा शहीदों पर कविता लिखना हमेशा सुरक्षित रहता है। कोई कुछ बोल नहीं सकता सिवाय सर झुकाकर आंखे नम कर लेने के। कवि को भी कविता में शहीद अलाउंस मिल जाता है। उसके काव्यदोष को अनदेखा कर दिया जाता है।”

    ये चिन्ता तो बहुत सार्थक चिन्ता है, केवल शहीदों की ही नहीं, हम सबकी भी-

    “अपनी जान देकर भी जिस हिमालय के सर को झुकने से बचा पाने का संतोष सैनिक के मन रहा होगा उसी हिमालय को सैनिक के सम्मान में बौना बना दिया। सैनिक की आत्मा कलपती होगी। जिसकी रक्षा के लिये वह शहीद हो गया वही उसके चलते बौना हो गया।”
    कमाल की नज़र-
    “लेकिन इसमें मां की याद को खट्टी चटनी,चौका-बासन,चिमटा, फुकनी जैसी बताकर शायर ने मां को सामान में बदल दिया। बहुत प्यारा बिम्ब है लेकिन मां को सामान में बदलने के बाद”
    सब बहुत बढिया, लेकिन एक जगह कर दी न गड़बड़?
    ” पुरुषों की कल्पनायें भागती चली गयी घोड़े पर और स्त्रियों की कल्पनायें धीरे-धीरे पिछलग्गू बनी चलती रहीं। पिछड़ गयीं। क्या यह भी एक कारण है महिलाओं के पीछे रह जाने का?”

    भले ही कल्पनाओं के लिये पिछलग्गू शब्द का इस्तेमाल हुआ, लेकिन ये कल्पनाएं थीं तो स्त्री की ही न? कब तक पिछलग्गू और पीछे मानी जाती रहेंगीं महिलाएं?
    आज एक पत्रिका में राजेन्द्र यादव का ” मर्द-नामा” कॉलम पढ रही थी, उन्होंने भी वहां महिलाओं को खूब कम-बुद्धि , डांवाडोल और पता नहीं क्या-क्या कहा…. :(

  5. amrendra nath tripathi

    पहले तो राजेश स्वार्थी जी को दिया गया ( समीर लाल जी की फेसबुक पर भी ) जवाब रख दूँ , फिर आपकी पोस्ट पर बात जारी करूंगा .. इत्मीनान से …

    @ समीर लाल जी ,
    कवि की जिस निजता का तर्क आप रख रहे हैं , वह किसी निर्जन-आइलैंड में नहीं है , वह निर्वात की जद पर नहीं है , वह इसी समाज में और इसी के विधान ( सामाजिक और सांस्कृतिक दोनों ) में परखी जायेगी .. कमजोरियों पर टीका-टिप्पणी होनी ही चाहिए .. सीमाओं की उपेक्षा और शक्ति का स्वीकार होना चाहिए .. !!

    ” @ Rajesh Swarthi जी ,

    खांची भर वाग्जाल रचने से बेहतर होता है छटाक भर काम की बात करना .. अफ़सोस है कि इतने ज्यादा अनावश्यक विस्तार के बाद भी आप कोई ठोस तर्क नहीं दे सके , आप इस घटिया कवि को बचा नहीं सके .. भावुलता के ”माइलेज” का तर्क कोई तर्क नहीं .. यह कोई नई बात नहीं है कि दोयम दर्जे का आत्ममुग्ध लेखक अपनी कला के घटियापन को शहादत , मजहबी , निजी बेचारगी … आदि-आदि के के लपेट के साथ चला देने का नाटक करता रहा है .. ” सच बात मान लो चेहरे पे धूल है / इल्जाम आईने पे लगाना फिजूल है ! ” .. आपकी कविता की छिछली-समझ पर तरस आता है कि श्रेष्ठ कवि प्रदीप की जिन पंक्तियों को आपने रखा है उसमें हिमालय का घायल होना देश के हृदय – प्रदेश / संवेदना – निलय के घायल होने से है , हिमालय वहाँ पूरे भारत का रूपक है , यहाँ हिमालय की सकारात्मक उपस्थिति है , इसलिए कवि प्रदीप का काव्य विवेक सही है .. यह अर्थ – गौरव कुमार विश्वास की दोयम दर्जे की कविताई में ढूँढने से भी नहीं मिलेगा .. क्या वहाँ बौने हिमालय के भाव-साम्य को पूरे भारत के बौनेपन से बैठाएंगे , कुमार विश्वास की कविता में उनके घटिया काव्य-विवेक की वजह से हिमालय नकारात्मक रूप में दिखाया गया है .. यह बात अगर समझ में आ सके तो बेहतर .. बाकी शहीदों की शहादत की चिंता आपसे कम नहीं है मुझे , हाँ उनकी बेमोल कुर्बानियों पर किसी घटिया कवि को ”माइलेज” नहीं लेने देंगे .. और हम देशभक्त हैं या नहीं इसके लिए आप या किसी कुमार विश्वास का ‘सर्टिफिकेट’ नहीं चाहिए !! .. आभार !! ”

  6. Pankaj Upadhyay

    ऎसे सारे कवियो को या कहे तो सारे ही कवियो को एक बार ये पढना चाहिये और पूछना चाहिये कि वो लिखते क्यो है?

    रेनर मारिया रिल्के का पहला पत्र फ़्रैंज कापुस के नाम

  7. जी मैं, ख़्वामखाँ !


    तन कातिक मन अगहन
    बार-बार हो रहा
    मुझमें तेरा कुआर
    जैसे कुछ बो रहा हो

    जैसी कविताओं को घँटों सिर धुनने के बाद भी महसूस नहीं कर पाया,
    ऎसे अमूर्त भावों की अपनी नासमझी पर शर्म के मारे टहनी पर टँगे हुये चाँद को देखने की प्रैक्टिस / तपस्या करना चाहा, पर वह हैलुसिनेशन जग ही न सका ।
    इस प्रकार मैं अपनी मूढ़ता से उऋण न हो पाया ।
    हाँ, याद आया.. मारी कटारी मर जाना हो नयनों की धार से.. इन जैसों से तो मैं कई कई बार घायल होकर मरने से बचा हूँ । न तो नयन-कटारी की धार किसी को दिखा, न ही मेरा घायल होकर ज़िन्दा बच निकलना कोई भाँप पाया ।

    नासमझों.. ना समझे ? समझने वाले समझ गये.. ना समझे वो अनाड़ी है.. अईसा एकु दईं नरगिस मऊसी फिलिम मॉ बोलिन रहा.. हम वहिका गाँठि मा बाँधे डोल रहेन हैं !

  8. eswami

    वीर रस और वीर प्रसंग में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग ऐतिहासिक रूप से किया जाता रहा है!
    हनुमान की पूंछ में लगन न पायी आगि ।
    सगरी लंका जल गई ,गये निसाचर भागि। ।

    अब कर दिया तो कर दिया हिमालय को सैनिक से बौन इसी लाईसेंस के तहत! हां अतिशयोक्ति और बिंब/उपमा की अतार्किकता/अटपटेपन का फ़र्क जानना जरूरी है. अतार्किक हुए बिना भी अतिशयोक्तिपूर्ण हुआ जा सकता है. और अटपटा हुए बिना भी नई उपमाएं गढी जा सकती हैं.

    बीडी जलाईले जिगर से पिया वाले बिंब में गुलज़ार नें कामाग्नि का उल्लेख किये बिना उसकी उष्णता का जो चित्र खींचा है, अपने लोक साहित्यिक प्रसंग में परम काव्य है. आगे दैहिक संबंध की गुप्तता बनाए रखने पर “धुआं ना निकालीं ओ लब से पिया/ ये दुनिया बडी घाघ है” जैसा करिश्मा और प्रयोग गुलज़ार के यहां ही संभव है.

    मानता रहा हूं कि कविता का युग खत्म हुआ लेकिन वो अपवाद स्वरूप घटित होती जरूर है.
    हाल ही में रेडियो पर एक गीत सुना, जिसके मायने हैं –
    “जिंदा हूं बमुश्किल सांस लेता हूं.
    उस खुदा के आगे झुका हूं जिस पर ऐतबार नही करता
    क्योंकि मुझे कैद मिली उसे रिहाई
    क्योंकि जब दिल टूटता है हिस्से बराबर नही होते

    मैं क्या करूं जब मेरा बेहतर हिस्सा तुम थीं
    मैं क्या कहूं जब मेरा दम घुटता है तुम्हे फ़र्क नही पडता

    मेरे टुकडे टुकडे हो रहे हैं

    जब दिल टूटता है हिस्से बराबर नही होते.” ( http://www.youtube.com/watch?v=9yZ1uI5yPbY )

    ऐसे बिंब मेरी उम्मीद जिंदा रखते रहे हैं.

  9. amrendra nath tripathi

    कवि की चेतना पर जब हुल्लड़ और कुल्हड़ की अंधी चिकनाई चढ़ जाती है तो वह कहीं से भी दो बेमेल शब्दों-उपमाओं-रूपकों-बिम्बों को कविता में लड़ाने लगता है जैसे मेला में लड़ाने वाले तमाशा दिखाते वक़्त तीतर और बटेर को लड़ाते हैं .. फिर चारों तरफ दर्शक खड़े होकर हत्थी मारने का काम बखूबी करते ही रहते हैं .. वैसे तो कवि अपने मन का मालिक है , चाहे चाँद को चौराहे पर गिरवीं रखे चाहे अपनी मेहरारू का जेवर चंद्रमा पर लोकर में जमा कर आये , पर जब ससुरा अपने आपको ‘कबिरा दीवाना था , मीरा दीवानी थी ‘ की परम्परा में जोड़ के ”गुड कवि” की सामाजिक स्वीकृति का दावा ठोंकने लगता है ( भिखारी की तरह माँगी गयी कुछ अंध-भक्तों की करतल ध्वनि के बल पर ..) , तो जरूरी हो जाता है कि एक सामाजिक इकाई के तौर पर ( किसी के द्वारा भी ) उस ‘मगरूर’ कवि को उसकी औकात बताई जाय !.. दिखाया जाय कि कबीर-मीरा आदि की हिन्दी-कविता की परम्परा इतनी सस्ती नहीं है कि उसमें बच्चू तुमको आसानी से इंट्री-कार्ड मिल जाएगा .. मर्सिडीज में बैठो और कल्पना की मर्सिडीज दौडाते रहो , लन्दन – अमेरिका जाते रहो , पर साहित्य/साहित्यकार के सामने चौड़ाई लिए तो सेकण्ड भर में तुम्हे नापकर बता देगा कि कितने पानी में हो , कितने बौने हो .. क्योंकि साहिय-कर्म इतना आसान नहीं —
    `’कबीर’ यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
    सीस उतारे हाथि धरि, सो पैठे घर माहिं॥ ”
    — ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे सबके बस का नहीं है इसका ‘इंट्री-कार्ड’ पाना ! इस शाश्वत – प्रासाद में पैठ के लिए विरल वाणी-साधना की अपेक्षा होती है , ऐसे ‘फ्री-फंड’ में नहीं होता यह !!

  10. Abhishek

    हम्म…
    बाकी कुछ भी हो लिखने वाले ने उपमा पर इतना तो नहिये सोचा होगा इसकी गारंटी :)

  11. Ghost Buster

    समीर लाल जी से सहमत हूं.

    कुमार विश्वास को नहीं जानता, पहली बार देखा, सुना. गीत ठीक-ठाक लगा. वीडियो का अच्छा प्रयोग कर भावनाओं को बखूबी उभारा गया है. अच्छा काम है.

    उनके द्वारा हिमालय के साथ किये गये व्यवहार पर आपकी आपत्तियाँ मुझे कन्विन्सिंग नहीं लगीं. कहीं पूर्वाग्रह जैसा कुछ मामला तो नहीं?

  12. समीर लाल

    साहित्य जगत का एन्ट्री पास?? बहुत ही अजीब सी लगी यह बात-कौन बांटता है यह एन्ट्री पास और क्या योग्यता है इसे पाने की? कितने का है, जरुर जानना चाहूँगा. हर लिखने वाला जानना चाहेगा कि कैसे प्राप्त किया जाये इसको. सर्वोपरि तो यही जानना कठिन हो रहा है कि साहित्य कहते किसे हैं??? सब अलग अलग परिभाषा लिए घूम रहे हैं, पहले हम इस पर एकमत हो लें तो आगे बढ़ें.
    समीर लाल की हालिया प्रविष्टी..कैसी हत्या – लघुत्तम कथा और कविताMy ComLuv Profile

  13. समीर लाल

    शायद इसी एन्ट्री पास की अवधारणा ने हिन्दी साहित्य जगत का बंटाधार किया है, दोस्त!! कुछ लोग एन्ट्री पास बांटने का बीड़ा उठाये घूम रहे हैं और कुछ एन्ट्री पास पाने का. जो तथाकथित एन्ट्री पास पा गये हैं, वो खुली हवा में पनपते वृक्ष की बजाये गमले में लगे बोनसाई बन एक विशिष्ट वर्ग के बीच प्रसंशित हो मुग्धमना बने बैठे हैं बिना किसी विस्तार के. न छाया है और न कोई प्रयोजन. महज सजावट की वस्तु!!

    काश!! एन्ट्री पास का इन्सपेक्टर राज भी चूंगी नाकों की तरह खत्म हो और साहित्य का वृक्ष अपना स्वभाविक विस्तार पा सके. फल का स्वाद और छाया का आराम तो आम जन के हाथ है, वो बता ही देंगे.
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  14. amrendra nath tripathi

    @ समीर लाल जी ,
    इन्ट्रीपास और साहित्य दोनों मूल्य तो लोकमंगल की साधनावस्था हैं , कोई दूसरा नहीं बांटता , व्यक्ति के अन्दर विराजमान वाक्-शक्ति ही उसे प्राप्त करती/कराती है एक स्थिति विशेष के बाद ..जिसके लिए ‘प्रतिभा’ , ‘व्युत्पत्ति’ और ‘अभ्यास’ जैसे साहित्य-मूल कारकों की चर्चा होती आयी है ..पर यह साधनभूत स्थिति है .. अफ़सोस होता है कि आप सा साहित्य-साधक इतना भी नहीं समझ पाया कि मेरे बातों में साहित्य के सन्दर्भ में ‘इन्ट्रीपास’ का मतलब किसी सिनेमा टिकेट से नहीं है .. कबीर का दोहा भी इसी विचार से दिया है , इसके बाद भी आपने समझने का प्रयासभर भी नहीं किया ..साहित्य में व्यंजना शब्द-शक्ति भी होती है , उसका भी काम लिया करें कभी कभी .. सीधा सीधा ‘हिंट’ भी मैंने अपनी टीप में दिया है — ” इस शाश्वत – प्रासाद में पैठ के लिए विरल वाणी-साधना की अपेक्षा होती है ” अफ़सोस है कि इसके बाद भी आप पूर्वाग्रह से ही आगे बढ़े और मेरी बातों का उत्स न समझ सके , आप जैसे श्रेष्ठ ब्लोगर से यह पूर्वाग्रह-पूर्ण चूक विस्मय में डालती है !

  15. नीरज रोहिल्ला

    जिस युग में “टूटा टूटा एक परिन्दा ऐसे टूटा, फ़िर जुड न पाया” गीतकार, संगीतकार और गायक तीनों की नजरों से पास हो जाये वहां और क्या उम्मीद है।

    खैर, हमको कविता की समझ नहीं है तो इस बार Fence पर बैठ कर केवल टिप्पणियां पढेंगे :)
    नीरज रोहिल्ला की हालिया प्रविष्टी..हे दईया कहाँ गये वे लोगMy ComLuv Profile

  16. जी मैं, ख़्वामखाँ ..

    हम इँन्ट्रेस तऽ पास करि भयेन..
    ई एन्ट्री-पास हमहू का चहित रहा हो,
    ई कउनों अलग तिना केर पास आय का ?
    कउने देश माँ मिली, केहिसे पाई.. यूनीभर्सिटी का नामौ मिली जात तौन भल रहत ।
    हम तो जाना रहा के पहिले इँन्ट्रेस पास लोगन का साहित्त का लैसन्स मिली जात रहा ।
    नियम बदलि गा होय त, एक ठईं पास हमहूँ का देवाय द्यातौ फुरसतिया भाय !
    तबहिन जनौ आपौ जबरिया लिखत हो, फुरसतिया भाय ?

  17. Shiv Kumar Mishra

    बिंब के बिना कविता लिखना अपराध है. बिंब ही कविता का डिंब है. लेकिन बिंब के लिए कभी-कभी कवि कुछ ज्यादा ऊंची उड़ान भर लेता है. और जब ऐसा होता है अतिउत्साह में कवि गज़ब कर डालता है. एक बांग्ला ‘गान’ है;

    सींग नेई तोबू नाम तार सिंघो
    डीम नेई तोबू अश्वो डिम्बो
    गाये लागचेका – भेबाचेका
    हम्बा-हम्बा, डिक-डिक

    इसका मतलब है जिसकी सींग नहीं है उसका भी नाम सिंह है…जहाँ अंडा नहीं हो वहां भी घोड़े का अंडा पैदा किया जा सकता है……………

    और लिखें का?
    Shiv Kumar Mishra की हालिया प्रविष्टी..हलवा-प्रेमी राजाMy ComLuv Profile

  18. amrendra nath tripathi

    @ ‘इंट्रीपास’ और उसके प्रेमियों ..
    सबके भीतर ही है वह , खोजिये , बाकी चीजें स्पष्ट कर चुका हूँ …
    @ ” कउने देश माँ मिली, केहिसे पाई.. यूनीभर्सिटी का नामौ मिली जात तौन भल रहत ।”
    — समीरलाल जी को समझ में आ गया हो तो उनसे इस विषय में ज्ञान-परामर्श लीजिये , नासमझी की कवायद वहीं से शुरू हुई और मौक़ा मिलते ही ‘मत चूकौ चौहान ‘के अंदाज में तकुवाये बैठे लोगों को लगने लगा कि ‘कौवा कान लिहे भागा जाय ‘ , फिर अपना कान कौन देखता है ! समीर जी की रहनुमाई में किसी पर चढ़-बजने का भी अपना मजा है न ! जो लिखा है उसे समझ तो लिया होता कम-से-कम !! खैर …….
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile

  19. Harshit

    समीर लाल जी आपको देखा तो सोचा मैं भी कुछ लिख कर ही जाऊं ……ब्लॉग लिखने वाला और ब्लॉग पर बार-बार कुमार विरोधी टिपण्णी लिख कुतर्क देने वाला दोनों ही व्यथित चित्त-वृति वाले लोग हैं …इन्हें साहित्य की चिंता मात्र भर नहीं …….ये परेशान है क्योंकि इनका पडोसी भर पेट खाना खा रहा है….इज्ज़त पा रहा है .. वरिष्ट लोगों के बीच उठ-बैठ रहा है…..वास्तव में ये वो सब पाना चाहते हैं जों डॉ. कुमार विश्वास पा रहे हैं. …..इनके हिसाब से साहित्यकार वो है जों बड़ा ही दीन-हीन हो ….कविसम्मेलन में मिली हुई शॉल को रास्ते पे बैठे भिखारी को दान दे दें…..ये तब भी उसकी प्रशंसा नहीं करेंगे बल्कि उसके मरने का इंतज़ार करेंगे ……क्योंकि मरणोपरांत किये कार्यो की समीक्षा करना ही इन्हें संस्कारों में मिला है

    अमरेद्र तो वैसे भी कुमार विश्वास से द्वेष रखने वाले इंसान हैं…..वो साहित्य से तो कम छात्र राजनीति से प्रभावित ज्यादा ज्यादा देखते हैं……कुमार विश्वास के खिलाफ लिखकर लोकप्रियता बटोरने के चक्कर में हैं……और सफल भी हुए , ब्लॉग जगत में लोग जान गए इन्हें …..इस सफलता के लिए इन्हें मुबारकबाद …और फुरसतिया ब्लॉग्गिंग जगत में गिरती अपनी लोकप्रियता को सँभालने की कोशिश करते हुए ….भाई दोनों ही मार्केटिंग कर रहे हैं तो करने देते हैं …..वैसे भी डॉ. विश्वास के समकक्ष तो कहीं पर से नहीं…..जिन साहित्यकारों के साथ विश्वास साहब का उठाना-बैठा हैं उनकी एक झलक इन्हें मिले. या फिर हाथ मिलाने का मौका तो तपाक से एक पोस्ट लिख टिप्पणिया बटोर लेंगे ……

    जों व्यक्ति शिष्ट नहीं है ….जिसकी कलम हिंदी की उच्च डिग्री रखने के बाद में अपने से उम्र में, ओहदे में और तजुर्बे में बड़े व्यक्ति के लिए शब्दों का चुनाव नहीं जानती ….ऐसे कूप-मंडूक से क्या शिकायत….अब आदतन अमरेन्द्र जवाब देगा….और तीखा,पैना :-) क्यों ऊर्जा व्यर्थ गवाते हो भाई …..

    अब हवाएं ही करेंगी रोशनी का फैसला,
    जिस दिए में तेल होगा बस वही रह जाएगा

    ॐ शांति ॐ

  20. Uchit Awasthi

    “ससुरा” लिखे हैं एक भद्र कवि को अमरेन्द्र. पाखी के समारोह में जिस कवि के लिए इन के कुलगुरु और मान्य विद्वान नामवर जी भी “अद्भुत भाषा और विषद स्मरण शक्ति ” वाला कवि बोले थे {रिपोर्ट देख लें}…[जब ससुरा अपने आपको ‘कबिरा दीवाना था , मीरा दीवानी थी ‘ की परम्परा में जोड़ के ”गुड कवि” की सामाजिक स्वीकृति का दावा ठोंकने लगता है ( भिखारी की तरह माँगी गयी कुछ अंध-भक्तों की करतल ध्वनि के बल पर ..) ]
    इस से पहले भी पढ़ा था एकवचन में इनका संवाद …..अफसोसनाक है की इर्ष्या और डाह किसी को इतना असभ्य बना सकती है. हो सकता है की आप सही हों किन्तु साहित्य की एक शाब्दिक मर्यादा है …या तो मामला व्यक्तिगत है जिस की बू आ रही है या आप को क्षमा मांगनी चाहिए …..और यह असभ्यता भी एक ऐसे व्यक्ति के लिए जो यहाँ आप से संवाद के लिए उपस्थित नहीं है.

  21. Harshit

    शर्म आ रही है क्या …..कमेन्ट प्रकाशित करने में….चिटठा जो खोल दिए हैं

  22. जी मैं, ख़्वामखाँ ..

    क्यॊं इतने कुँठित हो, अमरेन्द्र ?
    हर जगह तुम्हारी छवि यूँ ही धूमिल होती जाती है !
    गाल तुम्हारे अपने हैं, जितना मर्ज़ी हो बजाओ.. पर दूसरों के गाल पर नज़र डालोगे, तो…
    मुझे तुम पर तरस आता है । मैं घुमा फिरा कर बातें क्यों करूँ, प्रखरबुद्धि होते हुये भी, क्यॊं इतने कुँठित हो, अमरेन्द्र ?

  23. Uchit Awasthi

    “ससुरा” “भिखारी”, “कविता का बनिया ” “घटिया”,और ना जाने क्या क्या ???? अनूप जी आप का ब्लॉग बहुत मन से पढ़ते हैं हम सब किन्तु इसे ऐसा मत होने दीजिये की हमे लगे की हम किसी चरित्रहनन कार्यशाला मे बैठे हैं. सहमती असहमति अपनी जगह. बातचीत का सलीका अपनी जगह. अमरेन्द्र जी भी शायद सहमत हों

  24. जनता का सवाल है कि देश का अगला इन्डियन आयडल कौन बनेगा?

    समीर लाल जी के फेसबुक पर कमेन्ट करने वाले भी उन्ही की स्टाईल में कमेन्ट करते है | देखिये ना स्वार्थी जी भी समीर लाल जी की तरह ही हर लाईन के बाद फुल स्टॉप लगा रहे है

    देखिये समीर लाल जी लिखते है – विवेचन. बेवजह हो. चलूँ.
    और देखिये स्वार्थी जी लिखते है – विजय पर. भी नहीं. सकते हैं.

    चंद्रबिंदु का उपयोग भी केवल इन्ही दो लोगो ने किया है |

    और वैसे भी ये बात तो बच्चा बच्चा जानता है कि जब भी समीर लाल जी के खिलाफ कोई बात होती है स्वार्थी जी तुरंत वहां उपस्थित हो जाते है | समीर जी की फ्रेंड्स लिस्ट में मेरा भी नाम है और इस से पहले स्वार्थी साहब ने उनको कभी कमेन्ट नहीं किया | बल्कि समीर लाल जी की वाल पोस्ट आने पर ही स्वार्थी जी और समीर लाल जी फेसबुक पर दोस्त बने है | इस बात की पुष्टि समीर लाल जी के फेसबुक प्रोफाईल पर जाकर की जा सकती है | तो क्या स्वार्थी जी को सपना आया था कि समीर जी की वाल पर ये सब हो रहा है ?

    तो जब स्वार्थी समीर जी के मित्र ही नहीं थे उन्होंने वाल पोस्ट कैसे पढ़ ली और अपना कमेन्ट कैसे कर दिया | स्पस्ट है कि हमेशा की तरह समीर लाल जी ने जब देखा कि उनके खिलाफ कुछ कहा गया तो उन्होंने अपना लोगिन चेंज किया और स्वार्थी के नाम से फेसबुक में लोगिन किया फिर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी और तुरंत अनूप जी को जवाब लिखा और अपने मन की खुन्नस साफ़ की |

    और उसी खुन्नस की वजह से उन्होंने राजेश स्वार्थी की प्रोफाईल की बजाय अपने नाम से यहाँ पर कमेन्ट पोस्ट किया क्योंकि यदि यहाँ वो स्वार्थी के नाम से कमेन्ट करते तो उनका आई पी अनूप जी दो मिनट में पकड़ लेते |

    समीर लाल जी जब तर्कों से नहीं जीत सकते तो वे ऐसे ही हथकंडे अपना लेते है ये उनका पुराना और प्रिय शगल है |

  25. sanjay bengani

    कविताजी की ज्यादा समझ नहीं है, बिम्ब, छाया हमें बिन्दी, लाली से शब्द लगते है अतः बोलना अपराध होगा. बाकि हमारे भीतर भी वीररस का कवि भोत बार जोर मारता है, धरती फटने से बचाने के लिए दबा देते है. एंट्रीपास की परवाह किसे है, ब्लॉग है ना…

  26. सतीश पंचम

    अरे भई…इहां तो बड़ी बमचक मची है ।

    वैसे भी कविता फविता की समझ अपने को ज्यादा नहीं है। कुछ जो थोड़ी बहुत है समझ है वह किसी खाने पीने वाली कविताओं के आसपास ही है…….. याद है…पीपल के घने साये थे….गिलहरी के जूठे मटर खाए थे……टाइप…….और अपन तो इसी में खुश हैं।

    यहां गंभीर चिंतन चल रहा है सो नो हा हा ही ही…..। इतना जरूर कहूंगा कि साहित्य रचने वाला कोई भी हो सकता है…..उसमें एंट्री पास वाली बात अमरेन्द्र जी ने एक व्यंजना के तौर पर कही लगती है…..यह कहना कि लोहे के चने चबवा दिए का मतलब यह नही कि बंदा लोहा ही चबाएगा…….कुछ बातें समझाइश वाली भी होती हैं।

    रही बात बिंबो के इस्तेमाल की तो वह कविता का एक ऐसा हिस्सा है जिसकी तुलना मैं खेतों में हल चलाने से करूँगा। ( गँवईं माणूस हूँ इसलिए उसी अंदाज में कहूंगा :)

    हाँ तो मैं बिंबों की तुलना हल से इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि यदि ज्यादा गहराई से खेत में हल चला दिया जाय तो नीचे की मिट्टी उपर आकर सत्यानाश कर देगी…..और फसल का तो जो होगा सो होगा…. साला फिर से सोड़ा खाद देकर उसकी उर्वरता वापस लाने में बंदे का भट्ठा बैठ जाएगा……। बिंब उतने ही अच्छे लगते हैं जितने कि कविता को उर्वर बनाए रखे, उसमें हरितिमा और जीवंतता को दर्शाए…न कि कस्तूनतूनिया और ओकलाहोमा को लाकर सामने पटक दे और कहे इसमें से होरी और धनिया कहीं दिख रहे हों तो बताओ :)
    सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..मुन्नी झण्डू बाम हुई आईटम सांग कॉमनवेल्थ के लिए बिल्कुल सटीक बैठ रहा हैसतीश पंचमMy ComLuv Profile

  27. amrendra nath tripathi

    वो बात जिसका सारे फ़साने में जिक्र न था,
    वो बात उनको बहुत नाग़वार गुज़री है। ( ~ फैज़ )
    — आप लोगों की अधिकाँश बाते रोष और रुदन में की गयी अभिव्यक्तियाँ है , तर्क की बातें होतीं तो जवाब दिया जाता , मैंने जो भी आरंभिक कमेन्ट में लिखा वह फोक-स्टाइल में व्यंजना में लिखा है , लोक-समझ से दूर लोग भाव-ग्रहण न कर सके , जब समझ में बात न आये तो गाल नहीं बजाना चाहिए ..गुट बना कर तो आप ही लोग धावा बोले हैं , मैं न तो कवि हूँ , न ही कुमार विश्वास जैसा प्रसिद्धि , चाटुकारों और तालियों का भिखारी , इसलिए मजे में हूँ , याद रहे मेरा लक्ष्य कुमार विश्वास का व्यक्तित्व नहीं बल्कि कवित्व है , कुमार विश्वास को एक प्रवृत्ति मान के चल रहा हूँ , उससे मेरा विरोध है !

    — गुरुवर नामवर जी बड़े समीक्षक हैं , सम्मान करता हूँ … और किसी के द्वारा कही कोई भी बात समीक्षा/तर्क की कसौटी पर कसी जानी चाहिए/ कसी जा सकती है / कसी जायेगी ..

    — कुंठित ?.. वह जो किसी दुसरे के ब्लॉग पर बाबा बना किसी के कमेन्ट को वीटो पावर से डिलीट करवाता है क्या वह नहीं ? .. याद आया ? .. ‘जे बिनु काज दाहिने बाएं’ , जाने किस सुपरमैसी के लिए घूमता रहता है क्या वह नहीं ? .. ‘चिराग तले अन्धेरा देखिये पहले’ ..! .. तर्क के बजाय फतवे पे उतरना आपकी नियति है !

    ”ये वो जगह है जहां चुप रहें तो बेहतर है,
    लोग नुक्ते का भी अफ़साना बना लेते हैं | ” … अफ़साने भी मनगढ़ंत/फिजूल/नासमझी/गुटबाजी/व्यक्ति-द्रोह/’आइदेंतिती-क्राइसिस’/अंध-आका-भक्ति/अवसरवाद/……आदि के ! ये अफ़साने आपको मुबारक !
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile

  28. kanchan

    एक बहुत ही सुन्दर व्यंग्य, जो कि व्यक्तिगत आक्षेपों कि बलि चढ़ गया… पढ़ कर कष्ट हुआ

    आश्चर्य हुआ कि माँ की बेसन और खट्टी चटनी से तुलना करने का विरोध यूँ कर होता है क्यों कि वो वस्तु है और फिर वहीँ किसी वस्तु के ही एक शहीद व्यक्ति से बौना हो जाने पर इतना विरोध.

    क्या हम शिव सेना नहीं हो गए जिन्हें जिनका विरोध करना है, उनका बस करना है. चाहे जो है, जैसे हो.

    हिमालय सम्मानित है इसलिए, क्यों कि हमने ही उसे अपनी किसी कविता में सम्मान दे दिया और भारत के प्रहरी के रूप में मान लिया. मगर वो जो जीता जगता शख्स था, जिसकी अपनी पारिवारिक संवेदनाएं भी थीं, जिसने उन्हें छोड़ मौत को चुना और भारत माँ के प्रहरी होने का धर्म निभाया, उसके सामने अगर दूसरे प्रहरी को बौना मान लिया जाये तो इतना शोर क्यों ?

    पता नहीं मै अपनी बात ठीक से कह पा रही हूँ या नहीं मगर मुझे बुरा लग रहा है यूँ बेबात की बात का मुद्दा बनाना.

    मै kumar विश्वास के समर्थन या अमरेन्द्र के विपक्ष में बोलने के लिए नहीं कह रही, फिर भी मुझे लगता है की अमरेन्द्र जी के पास जो अपनी उर्जा है, उसका प्रयोग जहाँ तहां कुमार विश्वास का नाम पढ़ कर विरोध करने से बेहतर है की कुछ अलग रचनात्मकता उकेरी जाये.

    अपनी बात कहते समय हम अगर अपनी भाषा नियंत्रण करने में असफल रहते हैं तो हम शब्दों के पुजारियों और गाँव के पट्टीदारो में क्या अंतर रह जाता है ?

    चन्दर बरदाई जो बात बात में पृथ्वी राज को हिमालय, सागर और इन्द्र से भी बड़ा batate हैं, कबीर दास जिनकी जीभ में राम पुकार पुकार के छाले पड़ गए हैं (हद है कबीर के jhooth की), जायसी, जिनकी नायिका के हाथ की अंगूठी विरहावस्था में उसके हाथ का कंगन हो गयी है…

    इन सब रचनाकारों से हम वंचित रह जाते अगर वो इस कंप्यूटर युग में पैदा हुए होते और इस त्वरित विरोध के भागी बने होते….

    हर विधा का अपना आनंद है, इन बिंबों का भी… आप को नहीं पसंद आप ना प्रयोग करें और ना पढ़ें मगर हम जैसे लोगो का आनंद ना छीने.. गुलज़ार की कत्थई आँखों वाली लड़की मिले तो डर जाऊँगी मै. मगर पढ़ कर जो आनंद मिलता हैं उसे khona नहीं chahti.

    एक बात और.. andhbhakti से kam jahreeli ये andh विरोध कि bhavana नहीं है….
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  29. Uchit Awasthi

    भाई अमरेन्द्र जी! एक तो आप “हकीर तिनका ” और “फैज़ साहब का यही शेर किस-किस जगह और कितनी बार लिखेंगे,अरे भाई कौन आप को हकीर कह रहा है ?आप खूब छाती कूटीये लेकिन ऐसी की आप के हाथ लोगों के चाँद पर ना नाचने लगें ….अब आप गाली गलौच करेंगे तो यही लगेगा की आप को एक स्टार का छाया भय हो गया है .पर कुमार साहब को तो आप लोगों का आभरी होना चाहिए की मंच के महाकवि नीरज तक को आप की पाठशाला ने नोटिस नहीं लिया और उसी मंच के महारथी डॉ कुमार पर आप पेज दर पेज लिखे जा रहें हैं. और तो और आप के ही परिसर मे वो एक स्टार की तरह आये.थैले भर रूपया, तीन घंटा भर का धमाल और पीछे भागती भीड़ बटोर कर अगले मंच पर चल दिए. आप के यहाँ के एक इरफ़ान साहब हैं ,इस बार भारत आने पर उन्होंने जो सी डी दी थी JNU की उस मे तो भाई ने धुंआ कर दिया था. कहीं वही घाव तो नहीं रिस रहा.

  30. दोस्ताना सलामत

    सहमत हूँ कँचन, टिप्पणियों का ट्रैक चिरँजीवी अमरेन्द्र जी के टीप के बाद ही बिगड़ा है ।
    जोधपुरिये जासूस की टिप्पणी पर यह ट्रैक किधर जायेगा, हम्मैं खेद है..अनूप जी । अब होय देयो जौन हुई रहा है ।

  31. amrendra nath tripathi

    @ …. JNU , कुमार विश्वास के व्यक्तित्व और इन फिजूल की बातों को क्यों हमसे शेयर कर रहे हो जब मैं कुमार विश्वास के ‘कवित्व’ पर बात कर रहा हूँ ( जिसका कि अब आप से अंध-भक्तों से करने का कोई माने भी नहीं रह गया है ) .. इस सबके लिए आप कुमार विश्वास से बतलाइये वही बेहतर … कोई शेर जहां जहां प्रासंगिक लगेगा , वहाँ वहाँ उद्धृत करूंगा , काहे इसका ‘टेंसन’ लेते हो !!

    @ कंचन जी , ‘क्या करना चाहिए ‘- इसका स्मरण कराने का शुक्रिया .. आभारी हूँ !
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  32. Harshit

    @ कंचन जी आपकी तर्कसंगत बात का पूर्ण मन और आदर के साथ समर्थन करता हूँ ….लेकिन व्यक्ति विरोधी लोग यहाँ भी कुतर्क ढून्ढ लेंगे …..मुझे ये बात नहीं समझ आती की इनकी आलोचना की कलम गुलज़ार, प्रदीप , समीर, साहिर, आनंद बक्षी, प्रसून जोशी के बिम्बों पर क्यों नहीं चलती …….क्यों पड़े हैं कुमार विश्वास के पीछे ?
    और अनूप जी उर्फ़ फुरसतिया जी इनको कुमार विश्वास के देशभक्ति गीत ( बिम्बों )से इतनी ही समस्या थी तो स्वयम उनसे सम्पर्क करते….. कवि का भाव समझ लेते ….एक पोस्ट लिख ब्लॉग जगत में अमरेन्द्र जैसे लोगों के साथ ग्रुपबाजी क्या प्राप्त कर लिया इन्होने ? यकीनन दुराशय ही मुख्य भावना है.

    वरना टिप्पणीकार द्वारा शब्दों की सीमायें तोड़ने पर प्रथम आपत्ति तो स्वयम ब्लॉग लेखक की तरफ से ही आनी चाहिए थी …..असहमति जताइए लेकिन शालीनता और शब्दों की मर्यादा में रहकर….किसी की तरफ जब एक ऊंगली उठाई जाती है तो बाकी की तीन आपकी तरफ ही इशारा करती हैं.

  33. amrendra nath tripathi

    @ ……आपने लिखा – JNU में .” थैले भर रूपया, तीन घंटा भर का धमाल ” — लग रहा है कि किसी ”गुड पोयट” नहीं बल्कि किसी आइटम-बाज की हकीकत उसी के अंध-भक्त ने रख दी .. मैंने भी तो यही कहता आया हूँ कि वह ‘गुड पोयट’ नहीं बल्कि ”गुड थैला-बाज या धमाल-बाज ” है ! .. जैसे भी सही , रोष-रुदन में ही सही पर आपने कम-से-कम यह कबूला तो .. आभारी हूँ मित्र इसके लिए आपका !!
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  34. समीर लाल

    @ समीर लाल जी जब तर्कों से नहीं जीत सकते तो वे ऐसे ही हथकंडे अपना लेते है ये उनका पुराना और प्रिय शगल है |

    -इतना पुराना और प्रिय शगल और ऐसी गल्तियाँ??

    समीर लाल तो बहुत कच्चे खिलाड़ी निकले. इतना भी नहीं समझते कि चन्द्र बिन्दु और फुल स्टाप तो बदल देते. :)
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  35. गिरिजेश राव

    हम आप से भरपूर सहमत हैं अनूप जी।
    कभी किसी ने कुछ बिम्ब, प्रतीक आदि आदि के लिए कहा था – “… इनके देवता कर गए हैं कूच।”

    स्वस्थ आलोचना न तो फैन क्लब में भाषण है और न तो विश्वास प्रस्ताव पर विरोध पक्ष का वक्तव्य।…
    एक इंजीनियर (बेहतर वाला हूँ) की जुबान में कहूँ तो Load goes to stiffness.
    आलोचना के साथ भी ऐसा ही है और उसे इसी अर्थ में लिया जाना चाहिए न कि व्यक्तिगत स्तर पर।
    अमरेन्द्र जी की तल्खी उस ‘हल्केपन’ के प्रति है जो ग़ैर ज़िम्मेदार प्रशंसा की हवाओं पर उँचासें भरता है। किसी प्रवृत्ति के शीर्ष जन ही आलोचना के लक्ष्य होते हैं।
    हाँ, अभिधा, व्यन्जना और लक्षणा शब्द शक्तियों का आदर करना चाहिए। समझना चाहिए। अब अमरेन्द्र जी को क्या कहूँ? कितने दिनों से पीछे पड़ा हूँ कि ‘हिन्दी’ ब्लॉग पर कुछ लिखें इस बारे में । ये हैं कि लोगों को करेर शायरी सुना कर और गम्भीर कउड़ा बहस कर तंग करने में ही आनन्द मनाते हैं।
    का किया जाय? ज़माना बहुत खराब है, लोग सुनते ही नहीं।
    [डिस्क्लेमर: यह टिप्पणी किसी भी भूत, वर्तमान या भविष्य़ के प्राणी के विरुद्ध नहीं है।
    बताना पड़ता है यार ! ]
    गिरिजेश राव की हालिया प्रविष्टी..पिन कोड 273010- एक अधूरा प्रेमपत्र – 7My ComLuv Profile

  36. सुशीला पूरी

    इतना गज़ब आप ही कर सकते हैं …………. विनोद श्रीवास्तव जी का गीत पढ़कर आनंद आ गया ।

  37. गौतम राजरिशी

    जैसा कि अपने ब्लौग की परिपाटी बन चुकी है ऐसा ही यहाँ होते देखकर अब कोई आश्चर्य नहीं हो रहा। अनूप जी का अपना एक अनूठा अंदाज़ है, उनकी अपनी शैली है आलोचना की…या फिर तारीफ़ की।

    किसका बिम्ब, कौन-सा अच्छा है, कौन-सा बुरा है, कौन-सा तार्किक है, कौन-सा बेतुका…? अपना-अपना तरीका है हर लिखने वाले का, अपनी राय जाहिर करने का। दुनिया भर के शायर अभी भी समंदर से प्यास बुझाते रहते हैं अपने शेरों में…समंदर के खारे पानी से। लेकिन जैसा कि कंचन लिखती है, उनके पाठक आनंद उठाते हैं।सारी कविता यदि तर्कों पे चलने लगी फिर तो उठा लिया हमने कविता का लुत्फ़।

    हाँ, तमाम टिप्पणियों ने एक अच्छे-भले व्यंग्य का जायका जरूर खराब कर दिया।
    गौतम राजरिशी की हालिया प्रविष्टी..उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैंMy ComLuv Profile

  38. eswami

    संजय का कहना ठीक है “एन्ट्री-पास” कि फ़िक्र किसे है? ब्लॉग है ना. जो मन मे आए लिखो, करो, किसने रोका है?

    एक पाठक के बतौर, शहीद की शान में उसके कद और इरादों को हिमालय से बडा करार दिये जाने में भी कोई समस्या नही है. हां ये बिम्ब मुझे प्रभावित नही करता चूंकि मैने इससे बेहतर पढा हुआ है. लेकिन उतना खिजाता भी नहीं कि उसे इग्नोर/दरकिनार ना कर सकूं.

    होता ये है की दरकिनार किये जाने लायक रचनाएं जब बार-बार महिमामंडित की जाती हैं, तब कोफ़्त ज़रूर होती है. “टूटा टूटा एक परिंदा” से मुझे कोफ़्त हुई थी और जब देखता था की लोग इस गीत के दीवाने हुए फ़िर रहे हैं तो अजीब लगता था. ये जान कर अच्छा लगा कि मैं अकेला नही था जिसे पसंद नही आया था बिंब. उसी तरह मां के चटनी-रोटीकरण से भी मुझे खीज हुई थी – दोबारा, अकेला नहीं हूं ये जान कर भी भला लगा.

    बाकी संवाद जारी रहे, बढिया इनपुट आ रहे हैं और हम अलग अलग दृष्टीकोणों से परिचित हो भी रहे हैं. अच्छा है!

  39. Uchit Awasthi

    @अमरेन्द्र ,उस सूचना का और कोई आशय नहीं था. बस ये बताना था की आप अपना तेवर आलोचक का रखें,लठैत का नहीं.बिना किसी को पूरा पढ़े आप ज़बान की लगाम ढीली छोड़ देते हैं.आप से बात के बाद ही आज ऑनलाइन पाखी का एड देखा की काशी में नामवर पर केन्द्रित अंक के विमोचन और सम्मान समरोह में भी वही “ससुरा” “भिखारी”, “कविता का बनिया ” “घटिया” आमंत्रित हैं सञ्चालन हेतु. यहाँ मेरा मन नामवर जी का नाम बता कर आप को चुप करने का नहीं बल्कि बताने का है की किसी की दो चार रचना पढ़ कर गरियाने की बजाय पूरा जानो और पढो तब बोलो. और भाई JNU का कोई bramputra होस्टल जहाँ डॉ साहब ने काव्य पाठ किया और मान+धन लिया इस लिए बताया की आप जान लो की समाज की हर तह पर स्वीकार होना आप को मान्य न हो पर खोज का विषय तो है ही. और भाई अगर कविता ज्यादा पैसे दे कर सुनी जा रही तो कौन लेह में बादल फट गया.आज तक हिंदी वाले राजकीय सेवा में रचे साहित्य को पूंजी माने इतराते हैं. आप से क्यूँ किसी को द्वेष होगा और समीर लाल से प्रेम.एक बार की कुल मुलाकात है वो भी परदेश में जहाँ मिलना होता है घुलना नहीं. आशा है डॉ कुमार को छोड़ कर हमें नहीं गरियांगे.

  40. Uchit Awasthi

    माफ़ करिए पोस्ट इतने जी से लिखी की आदरणीय नामवर जी के साथ जी लगाना भूल गया.

  41. amrendra nath tripathi

    @ …. काफी बात आपसे हो चुकी है .. किसी भी रूप में आप वह बात मान भी बैठे हैं , जो प्रेष्य थी .. आप या कुमार विश्वास को गरियाने का मेरा हेतु न था , न है .. उनकी कविता और उनका यू-ट्यूबीय परफार्मेंस(मान+धन+धमाल) दोनों को देखा है .. आपको अपनी बात कहने का हक है और मुझे अपनी .. आप मुझे अंध-विरोधी कह रहे हैं ठीक वैसे ही जैसे मैं आपको अंध-भक्त .. सबका अपना सोच और अभिव्यक्ति है .. कविता की परख करना मैं जरूरी समझता हूँ , कवि चाहे कुमार हो या कोई और .. आपसे असहमत हूँ पर गरियाया तो कभी भी आपको नहीं .. शुभकामनाएं !!
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile

  42. kanchan

    अमरेंद्र जी के ही मेल से पता चला कि कत्थई आँखों वाली लड़की ज़ावेद अख्तर की कृति है।

    त्रुटि सुधार…!

    एक बार फिर स्पष्ट कर दूँ.. अमरेंद्र में कई खूबियाँ हैं। इस टिप्पणी का अर्थ उनका विरोध कतई नही, बल्कि उन्ही के शब्दों में इस प्रवृत्ति का विरोध है…!
    kanchan की हालिया प्रविष्टी..सलामत रहे दोस्ताना हमाराMy ComLuv Profile

  43. Uchit Awasthi

    ‎@अमरेन्द्र अच्छा लगा आप को ऐसा देख कर.इस बार होली पर भारत आना है तब आप से ज़रूर मिलूँगा.डॉ साहब से तो एक बार Amsterdum में मिला था .कितना अद्भुत अनुभव था,लगभग मेजर गौतम जैसा ही.आप से मुलाकात भी अच्छी ही होगी ऐसी उम्मीद है.हो सके तो एक बार डॉ कुमार की “मद्यन्तिका” पढ़िए.शायद हमें हिंदी की एक महान कविता पर अच्छी आलोचना पढने को मिले.कुछ बुरा लगा हो तो क्षमा करेंगे

  44. वन्दना अवस्थी दुबे

    देख रही हूं, कि कैसे किसी व्यक्ति को महिमा मंडित किया जाता है. हमारे यहां आये दिन इंसान से भगवान बनने की प्रक्रिया इसी लिये फल फूल रही है. एक गम्भीर मुद्दा, जिस पर सार्थक बहस की जानी चाहिये थी, व्यक्तिगत झगड़े में तब्दील हो गया. अब तो कुमार विश्वास जी राष्ट्र ध्वज फिर राष्ट्र को भी बौना बतायेंगे, ये भी तो आखिर प्रतीक ही हैं, हिमालय की तरह. कोई सैनिक हिमालय को दी गई इस विकलांग उपमा से प्रसन्न नहीं हो सकता.
    गौतम जी की तरह मुझे भी यही लग रहा है कि-
    “तमाम टिप्पणियों ने एक अच्छे-भले व्यंग्य का जायका जरूर खराब कर दिया।”
    अमरेन्द्र जी बहुत सही कह रहे हैं, और सच का सुर रूखा तो हो ही जाता है.
    वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..चिट्ठी न कोई संदेशMy ComLuv Profile

  45. Uchit Awasthi

    @अनूप जी …आप के लिए मेरे दादा की एक कहावत पेश है “भुस में दे कै आग ज़मालो दूर खड़ी”

  46. amrendra nath tripathi

    @ उचित अवस्थी .. , स्वागत है आपका भारत में , आइये , जरूर मुलाक़ात होगी .. असहमति के बाद भी संवाद होना चाहिए .. ‘मद्यन्तिका’ देखूंगा , पर उसे मैं ‘महान रचना’ तभी कहूंगा जब वह मुझे परख-प्रक्रिया में महान लगेगी .. ;-) .. आभार !!

    @ वन्दना अवस्थी दूबे जी , शुक्रिया , इस बात का कि आप किसी श्रेष्ठ या अ-श्रेष्ठ कविता में मूलस्थ औपम्य-विधान की भूमिका को बखूबी पहचान रही हैं/

    व्यंग्य के जायके के असमय / कुसमय (कु)टीप-कवलित होने का अफ़सोस मुझे भी है !
    amrendra nath tripathi की हालिया प्रविष्टी..बजार के माहौल मा चेतना कै भरमब रमई काका कै कविता ध्वाखा My ComLuv Profile

  47. (डॉ.) कविता वाचक्नवी

    भावभूमि, हिमालय के मानापमान या उपमाओं और प्रतीकों के सार्थक या तार्किक / अतार्किक प्रयोग की बात छोड़ भी दी जाए तो कम से कम रसोद्रेक के लिए ही सही सचेत होना चाहिए. रस भंग होने की स्थिति काव्य और साहित्य की प्रभविष्णुता की उत्पादक कैसे हो सकती है भला ?
    इस पर भी विचार न करें…. तब भी रस की निष्पत्ति…….? …. / साहित्य…. ?

  48. anil pusadkar

    बस इतना ही कहूंगा “हे राम”
    anil pusadkar की हालिया प्रविष्टी..इफ़ बास इज़ रांगMy ComLuv Profile

  49. राम त्यागी

    चिंतन मन को भाया …फोटो झकास हैं !!
    राम त्यागी की हालिया प्रविष्टी..वारेन ड्यून स्टेट पार्क – मिशीगनMy ComLuv Profile

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