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पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं, तफसील पूछोगे तो कह दूँगा - मुझे कुछ नहीं पता।

रविवार, २५ अक्तूबर २००९

इलाहाबाद से 'इ' गायब, भाग -1


प्रयाग ब्लॉगर संगोष्ठी (जी हाँ ब्लॉगरी में इलाहाबाद को प्रयाग कहने वालों के लिए भी जगह है।) के बारे में सोचा था कि नहीं लिखूँगा लेकिन बहुत बार अपना सोचा नहीं होता।
(पहला दिन)  
हिन्दुस्तानी एकेडमी के सभागार में प्रेमचन्द, निराला, राजर्षि टंडन और हिन्दी के कितने ही आदि पुरुषों के साए तले हिन्दी आलोचना के एक पुरनिया स्तम्भद्वारा उद्घाटन - देख सोच कर ही रोंगटे खड़े हो गए। (वक्त ने खम्भे पर बहुत दाग निशान लगाए हैं - बहुत बार खम्भा भी इसके लिए जिम्मेदार रहा है)। लेकिन अभी तो बहुत कुछ बाकी था।...
ब्लॉगरी अभिव्यक्ति, संप्रेषण, सम्वाद और जाने क्या क्या (इसलिए लिख रहा हूँ कि आगम का नहीं पता) की एक नई और अपारम्परिक विधा है। लिहाजा इससे जुड़े सम्मेलन का प्रारम्भ और उद्घाटन ही पारम्परिकों को चिकोट गया। उद्घाटन के पहले वरिष्ठ ब्लॉगर ज्ञानदत्त पाण्डेय द्वारा विषय प्रवर्तन और फिर रवि रतलामी द्वारा पॉवर प्वाइण्ट प्रस्तुति! पुरनिया नामवर जी भन्ना गए। वे इतना भी नहीं सोच पाए कि इस निहायत ही नई विधा से सबका चीन्हा परिचय कराने के लिए यह आवश्यक था। चिढ़ को उन्हों ने पहले से ही उद्घाटित विषय का उद्घाटन करने की बात कह कर व्यक्त किया। बाद में नामवर जी ने तमाम अच्छी बातें भी  कहीं। ब्लॉगिंग की सम्भावना को स्वीकारा। चौथे पाँचवें स्तम्भ वगैरह जैसी बातें भी शायद हुईं। फिर खतरों की बात उठाई गई। राज्य सत्ता के भय, दमन वगैरह बातों के साथ सावधान किया गया - पुरनिए कर ही क्या सकते हैं? ब्लॉगिंग क्या है- इसका कख उन्हें कहाँ पता है? जो चीज न पता हो उससे खतरा तो लाजमी है। 
ये वही पुरनिए हैं जो मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति के खतरे उठाने और गढ़ मठ तोड़ने वाली कविता की दिन में चार बार जरूर सराहना करते हैं। ऐसा करने से उनकी मेधा शायद तीखी बनी रहती है।  
सम्प्रेषण,संवाद,खतरा,भय। ब्लॉग पर लिखने के लिए यह चतुष्ट्य मुझे बड़ा सम्भावनाशील लगता है। 
आप पैदा होने के बाद जब पहली बार रोते हैं तो खतरा मोलना शुरू करते हैं और जारी रहते हैं मृत्यु के पहले की अंतिम हिचकी तक। खतरा कहाँ नहीं है? जीना छोड़ दें इसके कारण? 
ब्लॉगिंग में ऐसा अभी तक नहीं आया है जिस पर मुक्तिबोध की आत्मा खुश हो रही हो। वैसे भी ब्लॉगरी को मुक्तिबोधी मानकों की नहीं, अपनी परम्परा से विकसित मानकों की आवश्यकता है। लेकिन जब तक परम्परा न विकसे तब तक तो पुरनियों की अच्छी बातों का ही सहारा रहेगा। है कि नहीं?
अब आइए सिखावन पक्ष पर। हमारे बहुत से ब्लॉगर यह समझते हैं कि कुछ भी लिखो, कोई कुछ कर नहीं सकता। इस गलतफहमी को दूर करने के लिए पुरनियों की सिखावन पर ध्यान देना चाहिए। राज्य सत्ता वाकई शक्तिशाली है और आप का गला पकड़ कर पुलिस वैन में बैठाने में उसे देर नहीं लगती। इस लिहाज से ब्लॉगरों को स्व-अनुशासित रहना चाहिए। बस उतना अनुशासन कि अपराध न हो। अपराध क्या हो सकते हैं इसके लिए थोड़ी समझ का प्रयोग और थोड़ा अध्ययन आवश्यक है। कानूनी बैकग्राउण्ड वाले ब्लॉगर इस पर प्रकाश डाल सकते हैं।     
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.....
सभा का स्थल उद्घाटन के बाद बदल कर महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का प्रयाग केन्द्र कर दिया गया। निहायत ही अनुपयुक्त स्थान - किसी भी तरह से इस स्तर के जमावड़े के लायक नहीं। ब्लॉगरों के इकठ्ठे होने लायक तो हरगिज नहीं। सभागार जो कि एक पुराने घरनुमा भवन में बनाया (?) गया है कहीं से भी सभागार नहीं लगा। बन्दिशें न मानने के आदी ब्लॉगरों के अराजक व्यवहार का मार्ग इसने सुगम कर दिया। पहला दिन जुमलों का दिन रहा। इस तरह के जुमले उछाले गए:
- ब्लॉगर खाए,पिए और अघाए लोग हैं।
- ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है।
- अनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा।
- पिछड़े हिन्दी समाज के हाथ आकर ब्लॉग माध्यम भी वैसा ही कुछ कर रहा है।
- एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं।
- इंटरनेट पर जाकर हमारी पोस्ट प्रोडक्ट बन जाती है।
- एक अंश में हम आत्म-मुग्धता के शिकार हैं। 
- औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। . . .(बन्द करो कोई पीछे से कुंठासुर जैसा कुछ कह रहा है।)  


जुमले बड़े लुभावने होते हैं। ये आप को विशिष्ट बनाते हैं। आप जब इन्हें उछालते हैं तो असल में आप अपने आम जन होने के इम्प्रेशन को फेंक रहे होते हैं। कई बार आमजन की वकालत के बहाने अपने को विशिष्ट बना रहे होते हैं। . . . 
ब्लॉगर खाया, पिया और अघाया टाइप का आदमी है। बिल्कुल है। प्राइमरी का मास्टर जब 250 रुपए प्रति माह के बी एस एन एल कनेक्शन की धीमी स्पीड और आती जाती लाइट को कोसता पोस्ट लिख रहा होता है तो वह अघाया ही रहता है। चन्दौली जिले के हेमंत जब मोबाइल की रोशनी में अगले दिन की पोस्ट लिख रहे होते हैं तो अपनी आर्थिक स्थिति पर एकदम निश्चिंत होते हैं। 10/-रुपए प्रति आधे घंटे की दर से जब कोई आर्जव अपने ब्लॉग पर लेख लिख रहा होता है तो अपने बाप की कमाई को एकदम कोस नहीं रहा होता है। वैसे अखबार पढ़ने वालों, टी वी देखने वालों, रेडियो सुनने वालों के बारे में क्या खयाल है? खाए पिए अघाए लोग हैं?...  एलीट क्लास के जुमलाबाजों! दरवाजा खोल कर हमने अपने गोड़ अड़ा दिए हैं। (मैं भी जुमला तो नहीं उछाल रहा? नहीं भाई एक अभिनेता का डायलॉग अपनी भाषा बोली में दुहरा रहा हूँ।) अब हमसे सहानुभूति जताती बकवासें बन्द कमरे में जब होंगी तो हम सुनेंगे और उन्हें नकारेंगे। हम जोर से अपनी बात खुद कहेंगे। तुम्हारा एसी कमरों में बैठ कर बदहाली का रोमानीकरण करना हमें हरगिज बर्दास्त नहीं है। उपर चहारदीवारी को तोड़ता पेंड़ का फोटो देख रहे हो? (सभास्थल के पास ही था - तुम्हें नहीं दिखा होगा, सामने गोबर पट्टी का जानवर जो है। अरे!उस पर तो इंग्लिश स्पीकिंग कोचिंग का प्रचार टँगा है।) जब वह कर सकता है तो हम तो आदमी हैं।  काट सकते हो क्या? 


ब्लॉग बहस का प्लेटफॉर्म नहीं है। तो क्या है भाई? अगर नहीं भी है तो उससे क्या होता है? किस लिए यह कह रहे हो? मैं जब किसी बालसुब्रमण्यम या 'मैं समय हूँ'जैसे छ्द्मनामी के साथ बतकही करता हूँ तो क्या वह बहस नहीं होती? सही है तुम हर ब्लॉग तो देख नहीं सकते लेकिन ऐसे शक्तिशाली से दिखते खोखले जुमले क्यों उछालते हो भाई? 


अनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा। ये अनामी दूसरे ग्रह से आता है क्या जो इसे आदमियों जैसे चलने की तमीज नहीं है? भैया, सारे अनामी/बेनामी/छ्द्मनामी ब्लॉग जगत से ही आते हैं। उन्हें चलना बखूबी पता है। आप इसकी फिकर करें कि कैसे गैर ब्लॉगर आप के ब्लॉग पर आए, पढ़े और आप की बात पर टिप्पणी करने को या आप से संवाद करने के लिए बाध्य हो ! वह बेनामी भी कर जाय तो उसे सीसे में मढ़ा कर रखिए। अगर आप उसे नहीं ला सकते तो अपने ब्लॉग को आलमारी में रखी डायरी की तरह बन्द कर दीजिए। खुद लिखिए और खुद पढ़िए। (यह बात सबके उपर लागू होती है।)


पिछड़े हिन्दी समाज के हाथ आकर ब्लॉग माध्यम भी वैसा ही कुछ कर रहा है। वह कुछ क्या है, थोड़ा समझाएंगे? आप का पिछड़ेपन का पैमाना क्या है? अगड़े समाज (अंग्रेजी ब्लॉगिंग) की बात बताइए। वहाँ लैंगिक पूर्वग्रह नहीं हैं? वहाँ जूतम पैजार नहीं होती? रेप नहीं होता? छेड़खानी नहीं होती? यौन शोषण नहीं होता? वहाँ साइबर अपराध नहीं होते? जरा बताइए तो हम पिछ्ड़ों में (आप तो अगड़ी जमात से हैं, मजबूरी में हिन्दी में ब्लॉगिंग कर हम पिछड़ों को तार रहे हैं।)ऐसी क्या बात है जो हमें उनकी तुलना में (जी हाँ मानक तो होना ही चाहिए)पिछड़ा बनाती है। एके लउरी सबको हाँकना बन्द कीजिए। हाँकना आप को शोभा नहीं देता क्यों कि वह कला आप को नहीं हम देहातियों को आती है।


एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं। कोई मर्द यह भी नहीं स्वीकारता कि रोज रोज मानसिक घुटन और सौम्य (नहीं फेयर?)अत्याचार झेलते उसका जीना मुहाल हो गया है। उसको इस बात की आदत सी हो गई है - वैसे ही जैसे उस सौम्य अत्याचार और षड़यंत्रकारी की जननी को पीटने की हो गई है। परिवार नाम की किसी संस्था का पता है आप को? अगर हाँ तो वह कैसे चलाई जाती है? आप के साधारणीकरण द्वारा? ..क्या कहा? मैं मर्दवादी हूँ जो सन्दर्भ से बात को अलग कर के कह रहा है। जी नहीं महाशय मुझे आप के बात कहने के इस 'व्याकरण (गलत प्रयोग! मेरी मर्जी)' पर आपत्ति है। आप इसे किसी और तरीके से कह सकते थे। लेकिन क्या करिएगा आप भी मजबूर हैं - कहने में पंच नहीं आता। कुछ पूर्वग्रह और पुख्ता हो जाँय तो आप को क्या फर्क पड़ता है?    
                                  
इंटरनेट पर जाकर हमारी पोस्ट प्रोडक्ट बन जाती है। बाजार....वाद..... यह इस सभ्यता का सबसे बड़ा जुमला है लेकिन घिस चुका है। कहीं भी चल जाता है, पोस्ट की जगह भले सचाई ही क्यों न कह दो! क्या बुराई है भाई प्रोडक्ट होने में? अगर हम फोकट में उड़ा रहे हैं और बाजार उसे इकट्ठा कर रहा है तो शिकायत क्यों भाई? और अगर हम उड़ा नहीं रहे, पगहा पकड़ कर तमाशा दिखा रहे हैं तो पगहा की मजबूती को हम, चोर और दारोगा जी समझ लेंगे। आप क्यों चेता रहे हैं? मलाई आप चाभें और हमें बताएँ कि बड़ी खुन्नुस लगती है - बड़ी गन्दी बात है। आप के प्रयाग तक आने, ठहरने, खाने पीने, प्रलाप करने और फिर वापस जाने में बाजार के जितने प्रोडक्ट काम आए उनकी लिस्ट लगा दीजिए। क्या कहा? नहीं लगा सकते? अच्छा सिर में दरद है। ठीक है हम ठीक होने तक इंतजार कर लेंगे। 


एक अंश में हम आत्म-मुग्धता के शिकार हैं।  हम जब यहाँ आए तो अपने सबसे अच्छे कपड़े पहन कर दाढ़ी वगैरह बना कर आए थे। आइने में जब जब अपने को देखे मुग्ध हो गए। यह भी आत्ममुग्धता है क्या? हम कुछ ऐसा करते हैं जो हमें संतुष्टि देता है और दूसरों को नुकसान भी नहीं पहुँचाता। हम प्रसन्न हो जाते हैं। आप दु:खी क्यों हो जाते हैं? बुद्ध के खानदान से हैं क्या? हम बड़े बेहूदे नासमझ हैं - अज्ञानी। लेकिन क्या करें? मन मानता ही नहीं। बहुत दिनों तक अगोरने के बाद तो कुछ हाथ लगा है। उत्सव मना लेने दीजिए न। उसके बाद तो आप जैसा कहेंगे वैसा होगा। हम मुँह गाड़े कोने में बैठे कभी खुद को कभी दूसरों को गरियाते रहेंगे। आप के उपदेश सुनेंगे और पालन भी करेंगे। अब देखिए न कोई पीछे से आप का परिचय पूछ रहा है। बता दूँ?


औरत बिना दुपट्टे के चलना चाहती है जैसे जुमले। दुपट्टा औरत का सबसे बड़ा दुश्मन है। (आज कल कपड़ा ही दुश्मन हो गया है। सुना है कि पूरे संसार में कपास का उत्पादन कम हो गया है। इस प्रोडक्ट की कमी से बाजार खुश है। अजीब स्थिति है।... ससुरी ये तो कविता हो गई। कोई इसका बहर शहर बताइए।) हाँ, दुपट्टा न रहने से हमरे बापू की आँखों को बहुत तकलीफ होती है। अम्माँ तो गरियाने लगती हैं । पता नहीं दोनों को दुपट्टे से इतना प्रेम क्यों है? बड़े पिछड़े हैं बेचारे। हमको भी कुछ कुछ ...। कल सल्लू मियाँ कह रहे थे कि हम तो बिना बुशट पहने सड़क पर चलना चाहते हैं। हमने उनको कह दिया - बिन्दाश चलो।आजाद जमाना है। वैसे दुपट्टा और नारी की स्वतंत्रता पर एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने लेख प्रतियोगिता आयोजित की है। आप जरूर भाग लीजिएगा। . . .पुरुषवादी,बैकवर्ड, मेल सुविनिस्ट ... खुसफुसाते चिल्लाते रहिए, हम सुन रहे हैं। अब कुछ दिनों में आँख पर पट्टी बाँध चलेंगे तो उसके लिए कानों को तेज होना ही चाहिए। एक्सरसाइज हो रही है उनकी... 


... जुमले बहुत खतरनाक होते हैं। ओरेटरों की जुबान पर चढ़े हथियार होते हैं। आप घायल नहीं होते बल्कि अपना दिमाग टुकड़ा टुकड़ा काट रहे होते हैं। सुना है दिमाग काटने पर दर्द भी नहीं होता।


(दूसरा दिन )             


हिमांशु जी को बोलने के लिए 'हिन्दी ब्लॉगिंग और कविता'विषय दिया गया था। एक कवि हृदय ब्लॉगर जिसका कविता/काव्य ब्लॉग सर्वप्रिय हो, उसे इस विषय पर कहने के लिए चुनना स्वाभाविक ही था।(मुझे पता है कि कीड़ा कुलबुलाया होगा,अरे ब्लॉगिंग करते ही कितने हैं जो सर्व की बात कर रहे हो - भाई अल्पसंख्यकों को ही गिन लो। वैसे भी कविता पर ब्लॉगिंग सम्भवत: सबसे अधिक होती है।) हिमांशु जी इस विषय पर दूसरे वक्ता थे। उनके पहले हेमंत जी ब्लॉगरी की कविताओं के नमूने सुना चुके थे। उसके बाद समय था विवेचन और बहस का और हिमांशु जी से बेहतर विकल्प उपस्थित ब्लॉगरों में नहीं था। अपनी भावभूमि में मग्न हिमांशु जब कहना प्रारम्भ किया तो ब्लॉगर श्रोताओं  (जी हाँ, गैर ब्लॉगर श्रोता बहुत कम थे) के मीडियाबाज और इसी टाइप के वर्ग के सिर के उपर से बात जाती दिखी। एक दिन पहले जिन लोगों ने इस प्लेटफॉर्म का उपयोग निर्लज्ज होकर अपनी कुंठाओं और ब्लॉगरी से इतर झगड़ों को परोक्ष भाव से जबरिया अभिव्यक्त करने के लिए किया था और सबने उन्हें सहा सुना था, उनमें इतनी भी तमीज नहीं थी कि चुपचाप सुनें। बेचारे हिमांशु जी तो पूरी भूमिका देने के मूड में थे, सो दिए। समस्या गहन होती गई। 
गलती उनसे यह हुई कि इस युग की जटिल परिस्थितियों से जूझते आम आदमी की जटिल सी झुंझलाहट  को व्यक्त करती इस नाचीज की कविता को ही उन्हों ने पहले उठाया। मैं चौंका - इतना भोलापन कि बवालियों के चेहरों पर नाचते असहजता के भावों को पढ़ ही नहीं पाए! इतना भी नहीं समझ पाए कि यह वर्ग अपनी बात सुनाने को व्यग्र तो रहता है और अवसर न मिलें तो छीन भी लेता है लेकिन दूसरों की बात सुनने की परवाह ही नहीं करता, गम्भीर विमर्श तो दूर की बात है। ...
मेरे मन में अब दूसरे भाव उमड़ने लगे। वक्ताओं के लिए निर्धारित मंच (पता नहीं सही शब्द है कि नहीं?) पर मैं हिमांशु की बगल में बैठा था और पहली बार मिले होने के कारण बीच बीच में अंतरंग सी दिखती खुसुर पुसुर में व्यस्त हो जाता था। गोबर पट्टी के इस देहाती के दिमाग में आशंका उठी - तमाम कविताओं में से मेरी ही कविता क्यों? वह भी इतनी अपारम्परिक? लोग क्या सोचेंगे? ... मेरी छठी इन्द्रिय सही चल रही थी।
एक तरफ से ऑबजेक्शन उठा। उन्हें बी.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ाते रामचन्द्र शुक्ल याद आ गए थे। बड़ा ऑबजेक्सन था उन्हें? (ब्लॉगरी में क्या सचमुच रामचन्द्र शुक्ल का स्थान नहीं? अरुन्धती रॉय के बारे में क्या ख्याल है?) ये वही थीं जो पहले भी और बाद में भी तमाम असम्बद्ध सी अनर्गल बातें धड़ल्ले से कहती रहीं और पब्लिक सुनती रही थी। हिमांशु जी ने विषय की प्रकृति को बताते हुए उन्हें समझाया लेकिन उन्हें समझ में शायद ही आया हो। भोला चन्दौलीवासी अभी भी समझ नहीं पाया। उसके उपरांत फिर मेरी ही एक अत्यंत ही दूसरे मिजाज की कविता की बात उठाई ही थी कि बगल से आवाज आई ,"आप कहना क्या चाहते हैं?" जो कथ्य को विषय से जोड़ सुनने की कोशिश भी नहीं कर रहे थे उन्हें कथ्य के बारे में तफसील चाहिए थी। [अरे हिमांशु भैया! मुझे बाद में लगा कि एक ही कवि (गुस्ताखी कर रहा हूँ, ब्लॉगर कहना अधिक उपयुक्त होता। नहीं?) की दो आम जीवन से जुड़ी और एकदम विपरीत भावभूमियों की कविताओं द्वारा आप यह दर्शाना चाहते थे कि ब्लॉगरी की कविता की भावभूमि कितनी विविध है और ब्लॉगर कवि कितने विविध तरीकों से अपनी बात कहते हैं. . .लेकिन देखनहार देखना चाहें तब न !]
मंचासीन ब्लॉगर की ही कविताएँ सुनाई जा रही हैं! स्वप्रचार?
शायद हिमांशु जी को सामने वालों की मन: स्थिति और उथली सोच का अहसास अब हो चला था। 
तुरंत उन्हों ने संभालने की कोशिश की और दूसरी कविता पर बहस शिफ्ट करने की बात की कि संचालक महोदय को 13 मिनट नजर आने लगे। टोक बैठे। यह 13 का अंक ससुरा बहुत अपशकुनी होता है। मुझे पूरा विश्वास हो आया है। 
भावुक कवि अब समझ गया। दिल वाले जब दिमाग पर आ जाते हैं तो फिर उन्हें सँभालना कठिन होता है। हिमांशु जी ने मंच छोड़ दिया। जिन संचालक महोदय को 13 मिनट भारी लगे वे इंटर्लूड के बहाने हर वक्ता के बदलाव पर जाने कितने मिनटों तक अपनी बातें कहते रहे। तब उन्हें घड़ी के मिनट नहीं दिखे - नजर सामने हो तो कहाँ और कैसे जा रहे हैं,नहीं दिखते क्या? बाद में उन्हों ने (उन्हीं का शब्द है) अपने इस  कमीनेपन को स्वीकारा भी। मैं उनकी निर्लज्जता की निर्लज्ज स्व-स्वीकृति पर निहाल हो गया। लेकिन हिमांशु जैसों की बात तो रह ही गई न । .... बात अभी बाकी है।             

30 comments:

दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi ने कहा…

बहुते अच्छा। वहाँ वक्ता को पीसी सरकार का चेला होना चाहिए था। जो कम से कम संचालक की घड़ी की सुइयों को रोके रखता।

P.N. Subramanian ने कहा…

लाहाबाद (इ गायब कर) के आयोजन पर बहुत कुछ पढ़ा. बैठे ठाले समझने की कोशिश की. आपके आलेख ने मस्त कर दिया. आभार.

शरद कोकास ने कहा…

वहाँ से आकर इतना लिख भी लिये ..? गजब का सामर्थ्य है भाई !! आयोजकों को अनुमान नहीं होगा कि इतने धुरन्धर लिख्खाड और वक्ता प्रजाति के ब्लॉगर भी हो सकते हैं वरना वे तीन दिन का आयो जन रखते । शायद बजट इतना ही होगा । चलो हम लोग घर बैठे ही गंगा नहा लिये । सब किस्से तो अलग अलग लोगो से सुनने को मिल ही गये थे इस बतकही के शिल्प मे भी मज़ा आ गया । अभी तो बहुत से लोग बाकी है जो ताज़ादम होने मे लगे है । एकाध महीना तो यह सिलसिला चल ही सकता है । तब तक हम लोग दूसरा सम्मेलन प्लान करते हैं । अबकी बार कवियों क्रे लिये एक पूरा दिन रखा जायेगा । रात्रिकालीन सत्र मे ब्लॉगर कवि सम्मेलन जैसा भी कुछ रखा जा सकता है । जो कविता पढ़ने मे अच्छी नही लगती साभिनय प्रस्तुत करने मे अच्छी लगती है । एक दिन तकनीक पर बात रखेंगे हमारे ब्लॉग इंजीनीयरों के लिये ,फिर एक दिन कानूनी सलाहकारो के लिये ( अभी आपने इशारा किया है ना ) हमारे वकील साहब को सत्र अध्यक्ष बनायेंगे । एक दिन संगीत वालों के लिये सस्वर गायन और वादन , एक दिन फिल्म प्रदर्शन और फिल्म से सम्बन्धित ब्लागो पर चर्चा । फिर एक दिन...अरे सब अभी ही बता दे क्या । अब समाप्त करें वैसे भी आजकल बदनाम हो रहे है कि पोस्ट से बडी टिप्पणी लिखता है ( हाँ एक सत्र टिप्पणी कला (?) पर भी रखा जा सकता है । तो ठीक है ।

Arvind Mishra ने कहा…

गिरिजेश आपने तो बलागर का धर्म निभाते हुए दुतरफा संवाद किया है और बहुत सशक्त तरीके से सभी जुमलों और नारों पर अपनी बात कह दी है -बहुत सात्विक संवाद करती पोस्ट !

Mishra Pankaj ने कहा…

गिरिजेश जी सही कहा आपने , भाई अच्छा हुआ विस्तार में पढा रहे हो ....यहाँ तो कई लोग गलत सलत के आल्हा बिरहा गाना शुरू कर दिए है ...........................और हां कुछ लोग बड़े अजीब के होते है ऐसे करेक्टर आपके पोस्ट में मिल रहा है ........हिमांश जी ने कविता का व्याख्यान किया क्युकी उनको कविता के व्याख्यान के लिए जी बलाय गया था जहा तक मै जानता हु......अब अगर डा. इलाज के समय आला निक्लाले और आप बोलो की आला नहीं कुछ और निकालीय तो कैसा लगेगा ?.......

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा लगा इसे बांचना। समय की बात सही है लेकिन हिमांशु को उनकी पूरी बात कहने मौका मिलता तो और अच्छा होता।

Meenu Khare ने कहा…

बहुत सशक्त लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है ब्लॉग सेमिनार का.प्रस्तुतिकरण की नवीनता ने इसे एक अलग कलेवर प्रदान किया है. बधाई गिरिजेश जी.

Mishra Pankaj ने कहा…

अब पछताए का होत जब चिडिया चुग गयी खेत ........
गिरिजेश जी एक मुहावरा बेनामी महाराज के लिए जिसके लिए सम्मेलन में चर्चा हुई ...
चोर से कहो की चोरी करो साहू को सुबह बोलो की जगता तो अच्छा होता

AlbelaKhatri.com ने कहा…

वाह वाह
बहुत खूब.............
आनन्द आ गया.........
वहाँ क्या हुआ ,इसके साक्षी तो आप ही हैं प्रभु ! लेकिन आपने जिस रोचकतापूर्ण अन्दाज़ में वर्णित किया, वह वाकई काबिल-ए-तारीफ़ है

अभिनन्दन आप का...........

ज्ञानदत्त पाण्डेय| Gyandutt Pandey ने कहा…

हम भी चाहते थे कि नामवर सिंह जी पहले बोलते। उससे एक फायदा होता कि उनके कहे पर कुछ मंच से ही कह पाते। इनवर्टेड ऑर्डर में हुआ था जरूर।

बुजुर्ग संभलकर चलने और खतरे से आगाह करने की बात ही करेंगे। वह उन्होने किया। कोई गलत बात नहीं की।

समग्र रूप से देखें तो अच्छा ही रहा कार्यक्रम। ब्लॉगिंग की दशा पता चली। दिशा इस प्रकार के सम्मेलन तय नहीं करते।

Udan Tashtari ने कहा…

एक अलग तरीके की रिपोर्ट रही आपकी इतनी रिपोर्टों के बीच, अच्छा लगा. काफी स्थितियाँ साफ हुई. आभार आपका.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

;-)
श्री गिरीजेश भाई जी ,
आपका आलेख अच्छा लगा
स स्नेह,
- लावण्या

सतीश पंचम ने कहा…

एक स्वस्थ रिपोर्टिंग ।

सभी बातों को करीने से पिरोया गया है।

वाणी गीत ने कहा…

ब्लोगर्स मीट की इस विस्तृत रिपोर्ट से उक्त सम्मलेन के बारे काफी कुछ जानकारी मिली ...जब बहुत सारे प्रबुद्ध (तेरी कमीज मेरी कमीज से उजली कैसे ) जैसे भावों के साथ एक ही स्थान पर एकत्रित हों तो इस तरह की घटनाएँ (!) संभावित ही होती हैं ....शायद भविष्य में होने वाले ऐसे सम्मेलनों को कुछ सीख मिल सके ...!!

Kishore Choudhary ने कहा…

सुबह से शायद इसी रपट की प्रतीक्षा में था, बहुत अच्छी पोस्ट है या फिर मेरे मन के मुताबिक है इसलिए ऐसा लग रहा है. अभी अगली कड़ी के लिए बाट जोह रहा हूँ.

खुशदीप सहगल ने कहा…

ब्लॉगर खाया, पिया, अघाया है, फिर भी एडसेंस के लिए भरमाया है...सब माया की माया है....

जय हिंद...

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

आपकी रिपोर्ट से बात काफ़ी स्पष्ट हो रही है. बहुत सटीक रिपोर्ट बनाई आपने. धन्यवाद.

रामराम.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ने कहा…

अच्छा ही हुआ जो हम इस महासमर में नही गये।

s3Ca24Fnjdnv9QShB.afn2mdGE6A7JDi4oMo0UWdCdXkOPI- ने कहा…

बेहतर रपट
कृपया अगले भाग के लिये अधिक प्रतीक्षा न करायें तो अच्छा रहेगा.

दर्पण साह "दर्शन" ने कहा…

" उपर चहारदीवारी को तोड़ता पेंड़ का फोटो देख रहे हो? (सभास्थल के पास ही था - तुम्हें नहीं दिखा होगा, सामने गोबर पट्टी का जानवर जो है। अरे!उस पर तो इंग्लिश स्पीकिंग कोचिंग का प्रचार टँगा है।) जब वह कर सकता है तो हम तो आदमी हैं।"

Awesome !!!

is baat ne bahut der tak aapki posat se baandhe rakha...

...waise itni badhi post ek aalsi likh sakta hai to hum to ashrychakit hain !!

दर्पण साह "दर्शन" ने कहा…

@ Vani ji...

(तेरी कमीज मेरी कमीज से उजली कैसे )

khoob !!

ya yun kahein...

Tu meri khuja main teri !!

hahaha

अभिषेक ओझा ने कहा…

खाए पिए अघाए के साथ सुना ऐसे बहुत खाली समय वाले भी लोग हैं. और अगर यही ब्लोगर समुदाय का समुच्चय परिभाषित करते हैं तो हम तो वैसे ही बाहर हुए. हाँ बाहर वाले की तरह जब मन आएगा पोस्ट ठेल दिया करेंगे. कायदे कानून ही फोलो करने होते तो ब्लॉग पर क्यों लिखते ! खैर अनामी वाली बात मुझे कभी समझ में नहीं आई. मुझे कई ईमेल आते हैं कई पुरानी पोस्ट को लेकर ऐसे पाठकों के जो कभी टिपण्णी नहीं करते. ऐसे लोगों से मिल के भी आया जो मुझे बस मेरे ब्लॉग के कारण जानते हैं पर आजतक एक टिपण्णी नहीं की. अनामी कम से कम अपना विचार तो रख जाता है. क्यों अनामी है ये वो जाने, वैसे मुझे कभी कोई अनामी टिपण्णी आई ही नहीं :) एक-आध जो आई वो अच्छी ही.

cmpershad ने कहा…

मीट एक- चखे कबीट अनेक:)

अर्शिया ने कहा…

अच्छी खैर खबर ली है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।

dhiru singh {धीरू सिंह} ने कहा…

सही व्याख्या पढ़ी अब . वैसे सच है हम है खाए पिए और अघाये लोग . जैसे ट्रक के पीछे लिखा देखा था . लगा के आग दौलत में हमने यह खेल खेला है ...............

Manish Kumar ने कहा…

बेहतरीन लगा आपका इन जुमलों पर तार्किक प्रहार !

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

सही व्याख्या की है .... कुछ बातों का पता आपके पोस्ट से ही लगा ...

Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने कहा…

संवाद-ठेलकों का भी परिचय हो जाता तो पठान का आनंद ज़रा ज़्यादा ही आता. मिसाल के लिए इस जुमले के ठेलक जी:
"एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं।"

arun prakash ने कहा…

आपको नामवर सिंह ही याद आ रहे हैं उर्दू विभाग के हेड साहिब ने कहा था कि blog अनोखा चुटीला और कुछ नुकीला भी है मैं उस दिन से ही सोच रहा हूँ कि इन महानुभावों को जो अपने मुख से स्वीकार भी कर रहे हैं कि वे इसका क ख ग भी नहीं जानते उन्हें ये नुकीला क्यों लग कर चुभ रहा है
रही बात संचालको व अध्यक्षों की तो उनकी पीडा के लिए बयोनिमा ही ठीक था यही इलाज मुखर benaami पक्षधरों के लिए भी था जब सब कुछ मिलता जुलता ही है नाम गुण बायोनीमा तो प्रयोग करने में हिचकिचाहट क्यों इस पर भी विचार करना चाहिए
सशक्त reeport बधाई
माफ करे सभी तो नहीं लेकिन
कई ब्लागरो से जो अपनी पत्नी से पीटने के भय से सम्मलेन में नहीं आये थे उनसे ये प्रश्न क्यों नहीं किया गया कि क्या वे अपनी पत्नी से अब भी पिटते है ??विश्वास माने कोई मर्द इसका उत्तर न हाँ में देगा और ना में चुप ही रहना पसंद करेगा
तो जुमलो और नारे राजनीति में ज्यादा अच्छी लगाती है अरे जो ब्लागिंग karata होगा वह अपनी पत्नी को पिटेगा या पटा कर रखेगा

बी एस पाबला ने कहा…

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बी एस पाबला

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कुछ ऐसी ही आदत है कि हम चुप नहीं रहते

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