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Mohalla Live

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रवीश की रिपोर्ट बंद, एनडीटीवी में हिंदी से शूद्रों सा बर्ताव

Posted: 11 Jun 2011 09:00 PM PDT

धुंधले प्रतीकों के दौर में अभिशप्त मिथक थे हुसैन!
[12 June 2011 | Read Comments | ]
प्रभात रंजन ♦ हुसैन को इस रूप में देखना भी दिलचस्प होगा कि जब तक देश में सेक्युलर राजनीति का दौर प्रबल रहा, उन्होंने अनेक बार समकालीन राजनीति से अपनी कला को जोड़कर प्रासंगिक बनाया। Read the full story »
बृजेश सिंह ♦ NDTV हिंदी के पत्रकारों की स्थिति NDTV समूह में वैसी ही है, जो समाज में दलितों की है। बरखा की सामाजिक समझ विनोद दुआ और रवीश कुमार के मुकाबले कहां ठहरती है, यह मुझे बताने की जरूरत नहीं है।


हुसैन को एक खांचे में फिट करके देखना फिजूल है!

Posted: 11 Jun 2011 11:49 AM PDT

राजेश प्रियदर्शी ♦ बीबीसी के ही इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वे आत्म-निर्वासन में नहीं हैं, वे तो प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए कतर में हैं क्योंकि स्पॉन्सरशिप मिली है। उन्होंने भारत की नागरिकता छोड़ी नहीं है बल्कि ओवरसीज इंडियन सिटीजनशिप ले ली है। वे जब चाहें भारत जा सकते हैं बल्कि जाएंगे भी वगैरह-वगैरह... मगर साथ ही उन्होंने अपने खिलाफ मुकदमों और राजनीतिक साजिशों की बात भी की। इस मामले में भी उन्होंने एक ऐसी तस्वीर पेश की जिसमें देखने वाला जो चाहे देख सकता है। उन्होंने न तो भारत छोड़ने वाले व्यक्ति के तौर पर खुद को पेश किया, न ही बुढ़ापे में देश से निकाले गये एक कलाकार को मिलने वाली सहानुभूति को बटोरने में कमी रखी।


धुंधले प्रतीकों के इस दौर में एक अभिशप्त मिथक थे हुसैन!

Posted: 11 Jun 2011 10:58 AM PDT

प्रभात रंजन ♦ हुसैन की उपस्थिति चित्रकला के जगत में विराट के रूप में देखी जाती है। एक ऐसा कलाकार, जिसकी ख्याति उस आम जनता तक में थी, जिसकी पहुंच से उसकी कला लगातार दूर होती चली गयी। हुसैन देश में पेंटिंग के ग्लैमर के प्रतीक बन गये। कहा जाता है कि अपने जीवन-काल में उन्होंने लगभग साठ हजार कैनवास चित्रित किये, लेकिन धीरे-धीरे वे अपनी कला के लिए नहीं अपने व्यक्तित्व के लिए अधिक जाने गये।


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मोहल्‍ले की मुकम्‍मल बसावट अब जहां है,

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मायावी मायानगरी

मशहूर मॉडल विवेका बाबाजी ने शुक्रवार को बांद्रा स्थित अपने घर में फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली। 1993 में मिस मॉरीशस का ताज पहने के बाद विवेका ने मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भी हिस्सा लिया। फैशन जगत में नाम कमाने के साथ ही विवेका ने ऐड वर्ल्ड और बॉलीवुड में भी काम किया। लेकिन इस दर्दनाक हादसे ने फिर साबित कर दिया कि फैशन की दुनिया पर्दे पर कुछ और पर्दे के पीछे कुछ और है।
मुंबई के खार इलाके के अपार्टमेंट में रहने वाली विवेका बाबाजी की सूचना उसके पड़ोसियों ने पुलिस को दी। जिसके बाद उसके कमरे का दरवाजा तोड़ा गया तो भीतर विवेका की लाश पंखे पर झूल रही थी। प्रारंभिक जांच में मौत की यही तस्वीर नजर आ रही है कि विवेका अपनी जिंदगी से आजीज आ चुकी थी। मुंबई के पश्चिमी क्षेत्र के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त अमिताभ गुप्ता के मुताबिक विवेका अपने बॉयफ्रेंड से संबंध टूटने की वजह से तनाव में थी। ये भी पता चला है कि विवेका ने फांसी लगाने से ठीक पहले अपनी मां से फोन पर बात की थी। विवेका की दोस्त एना सिंह ने ट्विटर पर लिखा है कि विवेका को मोहब्बत में धोखा मिला और इसी वजह से उसने मौत को गले लगा लिया। ग्लैमर और फैशन की दुनिया का एक बड़ा नाम... यूं खुद के अंधेरों में गुम हो जाएगा किसी ने सोचा नहीं था।
मौत और मिस्ट्री से मायानगरी का पुराना नाता रहा है। ग्लैमर की रोशनी इससे पहले भी कई जिंदगियों को अंधेरा कर चुकी है। महज 19 साल में बुलंदी को हासिल करने वाली दिव्या भारती की मौत आज भी सस्पेंश बनी हुई है। स्टारडम और बुलदिंयों को छूने वाली परवीन बॉबी का आखिरी वक्त काफी गुमनामी भरा रहा। परवीन की मौत भी संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई। फिल्म निर्माताओं और सिनेमा के छात्रों की प्रेरणा गुरुदत्त के जीवन की आखिरी रात भी नाटकीय दृश्य की ही तरह बीती थी। 10 अक्टूबर 1964 की हुई उनकी मौत इस चकाचौंध दुनिया के दूसरे पहलू को उजागर करती है। ग्लेमर्स अभिनेत्री सिल्क स्मिता,प्रिया राजवंश नफीसा जोसेफ, कुलजीत रंधावा, कुणाल सिंह जैसे कई नाम को रंगीन रोशनी की स्याह पराछाई लील चुकी है।
ग्लैमर की दुनिया की ये हकीकत महज बॉलीवुड तक नहीं सिमटी है। मौत और मिस्ट्री का ये राज दुनिया भर में फैला है। पॉप सिंगर माइकल जैक्सन हों या सुपर स्टार मर्लिन मुनरो, गायक एल्विस प्रेस्ले हों या बीटल के जॉन लैनन, इन सभी की मौतों पर पड़ा रहस्य का परदा आज भी पूरी तरह उठ नहीं पाया है।
ग्लैमर की दुनिया में नाम कमाने की ख्वाहिश लोगों को यहां तक खींच लाती है। लेकिन इस चकाचौंध दुनिया का दूसरा पहलू भी है।
ग्लैमर की इस दुनिया में नाम-गिरामी मॉडल से लेकर छोटे कलाकार तक हर कोई शोषण का शिकार है। कोमल और छरहरी काया का जादू बिखरने वाले मॉडल यहां आकर कई बार कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो उनकी जिंदगी को भटकाव की राह पर ले जाता है। नेम और फेम की चाहत में लोग यहां जिस्म का सौदा करने से भी गुरेज नहीं करते। दौलत और शोहरत की खातिर कई बार ये बुलंदियों के फरेब का शिकार बन जाते हैं तो कई बार ग्लैमर का झूठ शोहरत की हकीकत पर भारी पड़ता है। और फिर यही ग्लैमर, स्टारडम और रौनक घुटन का सबब बन जाती है। ग्लैमर की दुनिया में मुस्कराते चेहरों के पीछे छुपी कड़वी हकीकत इनकी जिंदगी की एक अलग दास्तां बयां करती है।

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बस प्यार नहीं खरीदा जा सकता

अथाह संपत्ति होने के बाद भी हम अपने दिवंगत परिजन के लिए जीवन खरीदना तो दूर परिवार के दो सदस्यों के बीच समाप्त हुआ प्यार तक नहीं खरीद सकते। फिर ऐसे पैसे की अंधी दौड़ भी किस काम की जो भाइयों में दीवार खड़ी कर दे, एक दूसरे के खून का प्यासा बना दे। और हम अपने बुजुर्गों से विरासत में मिले संस्कारों को भी भुला दे।
पिता जी की माली हालत ठीक नहीं थी। एक परिचित के पेट्रोल पंप पर सर्विस कर के परिवार पाल रहे थे। किस्मत को कोसने की अपेक्षा सपने देखने में विश्वास करने वाले बाकी पिताओं की तरह इनका भी सपना था कि ऐसा ही एक पंप अपना भी होना चाहिए। उन्हें पता था कि जो सपने देखते हैं उन्हें उस शिखर तक पहुंचने के लिए रात-दिन भी एक करना पड़ता है। संघर्ष किया तो परिणाम भी मनमाफिक आया। रोड से करोड़पति बने, तरक्की होती गई। पिता के कारोबार को दोनों बेटों ने और आगे बढ़ाया, चूंकि लक्ष्मी का वाहन उल्लू है, इसलिए जब वह प्रसन्न होती है तो उसका वाहन भी अपनी खुशी जाहिर करता है लिहाजा कई बार व्यक्ति की अच्छा बुरा सोचने की क्षमता भी क्षीण कर देता है। धन ने मन में मतभेद की दीवार उठा दी, दोनों भाई अलग हो गए। अथाह संपत्ति के बाद भी जो खोया वह था पारिवारिक सुख और आत्मिक शांति। अंतत मां की समझाइश, आध्यात्मिक गुरु की सीख ने देर से ही सही हृदय परिवर्तन कर दिया। किसी सुपर हिट हिंदी फिल्म के सुखद अंत की तरह अब दोनों भाइयों के परिवार एक हो गए हैं। चौका चूल्हा भले ही अलग है लेकिन मतभेद की वह दीवार ढह गई है।
ये दोनों भाई हमें जानें यह जरूरी नहीं, लेकिन हम में से ज्यादातर लोग इन्हें जानते हैँ। लगभग हर महीने एकाध बार मुकेश और अनिल अंबानी की संपत्ति, इनके वेतन, बंगला निर्माण, मंदिर दर्शन के दौरान भारी भरकम दान, समाजसेवा के कार्य आदि को लेकर कुछ ना कुछ पढऩे-सुनने में आता ही रहता है। अंबानी बंधुओं की संपत्ति की खबरों से अधिक हममें से ज्यादातर लोगों को इस बात ने सुकून दिया है कि सुबह के भूले शाम को घर आ गए। ये अलग थे तब और अब एक हो गए तो भी हम में से तो किसी का भला होना नहीं लेकिन इस एक केस स्टडी से हमें यह तो समझ ही लेना चाहिए कि अकूत संपत्ति से भी बढ़कर कोई अनमोल चीज है तो वह है भाइयों, परिवार के बीच का प्यार।
झोपड़ी में रहने वाले दो निरक्षर भाइयों के बीच मतभेद की यही स्थिति रही होती तो संभवत: इनमें से कोई एक दूसरी दुनिया में और दूसरा भाई सींखचों के पीछे होता। सम्पन्न और संस्कारिक भाइयों को यह बात जल्दी ही समझ आ गई कि सब कुछ होते हुए भी पे्रम का अभाव है। मुझे तो यह समझ आया कि पैसे से प्रेम प्रदर्शित करने वालों की फौज तो खड़ी की जा सकती है फिर भी पे्रम नहीं खरीदा जा सकता। कहने को यह भी कहा जा सकता है कि पैसा कमाने की ऐसी होड़ भी क्या कि अंधी दौड़ में एक ही कोख से जन्में दो भाई एक दूसरे को फूटी आंख न सुहाए।
कहा भी तो है एक लकड़ी को तो आसानी से तोड़ा जा सकता है लेकिन जब लकडिय़ों का ढेर हो तो कुल्हाड़ी के वार भी बेकार साबित हो जाते हैं। अंगुलियां जब एक होकर मुट्ठी में बदल जाती हैं तो उस घूंसे की चोंट ज्यादा प्रभावी होती है। बिखरा हुआ परिवार सबकी अनदेखी, हंसी का पात्र भी बनता है। परिवार के बीच बहती प्रेम की नदी ही सूख जाए तो हिलोरे मारता अथाह संपत्ति का समुद्र भी किस काम का। पैसा होना चाहिए लेकिन पैसा ही सब क ुछ हो जाए तो भी महल से लेकर झोपड़ी तक भूख मिटाने के लिए तो रोटी ही चाहिए। फ र्क है भी तो इतना कि अमीर आदमी रोटी पचाने के लिए दौड़ता है और गरीब रोटी कमाने के लिए भागता रहता है। रोटी चाहे घी में तरबतर हो या रूखी-सूखी, वह तभी अच्छी लगती है जब परिवार के सभी सदस्यों के बीच प्यार हो, परिवार में मतभेद हो तो भाई लोग अपने कमरे में बैठकर चाहे रसमलाई ही क्यों ना खाएं वह भी बेस्वाद लगती है।। एक कतरा प्यार पाने के लिए पैसों का पहाड़ खड़ा किया जाए यह जरूरी नहीं है। रोटी से पहले गोली खाना पड़े, नींद भी बगैर गोली खाए नहीं आए तो मान लेना चाहिए हमारे तन,मन और मानसिकता में विकार पैदा हो गए हैं और बुजुर्गों से जो संस्कार हमें मिले थे उनका हम हमारे स्वार्थों, सुविधा के मुताबिक पालन कर रहे हैं।

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भोपाल गैस त्रासदी : एंडरसन, इंसाफ और सियासत

अरविन्द शर्मा
फाइलों में लगभग दफन हो भोपाल गैस त्रासदी की फाइल 25 साल बाद खुली तो एंडरसन, इंसाफ और सियासत में फंसकर रह गई। लेकिन बड़ा सवाल आज भी जवाब मांग रहा है, सवाल उस कायरत से जुड़ा है, जो उस वक्त देश के सियासतदारों ने दिखाई। अब हम अमेरिका को कोस रहे हैं? यह भी हैरान करने वाली बात है कि उस वक्त मामले को दबाने और एंडरसन को भगाने से जुड़े अफसर व सियासतदार इस मामले पर चुप्पी साधे हुए है। कई अफसर तो इस मामले की बजाए मीडिया को बनारस जैसे शहरों की खुबसूरती की बात करने के लिए कह रहे हैं। यानी हर कोई चुप्प रहना चाहता है? जाहिर है कि इस चुप्पी के पीछे ऐसा राज छिपा है जो सामने आया तो कई चेहरे बेनकाब होंगे। आज भोपाल के गैस पीडि़तों के लिए शोर मचा रहे सब लोग अपने गिरेबान में झांकें और यह सोचे कि 25 बरसों में उन्होंने गैस पीडि़तों के लिए कौनसा विशेष कार्य किया? केंद्र व राज्य सरकार मिलकर इस बात की जांच करें कि क्या सचमुच यूनियन कार्बाइड भोपाल के आस-पास का भूमिगत जल दूषित व प्रदूषित है या सिर्फ यह कोरी अफवाह है। सवाल यह भी है कि कैसे कोई संस्था वैज्ञानिक आधार पर यह दावा कर सकती है कि पानी दूषित है, वहीं राज्य सरकार कहती है कि ऐसा कुछ भी नहीं है। यूनियन कार्बाइड के आसपास का पानी बिल्कुल स्वच्छ है। हैरानी और दुख की बात है कि इस मामले में कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया।
ऐसे बड़े सवाल, जिनका जवाब शायद आपके पास हो?
पढऩे के लिए क्लीक कीजिए............... आपकी खबर

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दर्द बढ़ाने के लिए ना जाएं

अस्पताल मे दाखिल अपने किसी परिचित को हम जाते तो हैं यह अहसास कराने के लिए कि इस संकट में हम आपके साथ हैं। इसके विपरीत अंजाने में ही हम अपने अधकचरे मेडिकल नालेज को इस तरह बयां करते हैं कि इलाज करने वाले डाक्टरों की टीम से मरीज के परिजनों का विश्वास उठने लगता है। इसके विपरीत एक अन्य मित्र हैं, जितनी देर मरीज के पास बैठते हैं हल्के-फुल्के मजाक से कुछ देर के लिए ही सही मरीज की सारी उदासी ठहाकों में बदल देते हैं।
हमारे एक दोस्त की माताजी आईजीएमसी अस्पताल मे दाखिल थीं। सूचना मिली तो हम भी उनकी मिजाजपुर्सी के लिए चले गए। करीब आधा घंटा वहां रुकने के दौरान मेरे लिए सीखने की बात यह थी कि वे डाक्टरों द्वारा दिए जा रहे उपचार से पूर्ण संतुष्ट दिखे शायद यही कारण था कि मां के स्वास्थ्य को लेकर अनावश्यक रूप से चिंतित भी नहीं थे। उनका तर्क सही भी था चिंता करने से तो मां ठीक होने से रही। हमने भी माताजी की बीमारी को लेकर अपना अधकचरा ज्ञान नहीं बघारा। जितने वक्त वहां बैठे, हम उनके साथ इधर उधर की बातें करते रहे। सुबह से रात तक अकेले ही मां की सेवा में लगे रहने के साथ अस्पताल से ही आफिस के अपने साथियों को कार्य संबंधी निर्देश भी देते जा रहे थे।
मैं जिस मित्र के साथ गया था, उन्होंने मदद के लिए जो प्रस्ताव रखा सुनकर मुझे अच्छा लगा। उन्होंने कहा माताजी की देखभाल के लिए या रात में अस्पताल रुकना हो तो तुम्हारी भाभी और मैं रुक जाऊंगा। तुम आराम कर लेना । चूंकि वे दिन रात अकेले ही अस्पताल में रुक रहे थे तो मैने उन्हें वक्त काटने के लिए किताब भिजवाने का प्रस्ताव रखा, उन्होंने जिस उत्साह से स्वीकृ ति दी उससे हमें लग गया कि अकेले आदमी के लिए, वह भी अस्पताल में समय काटना कितना मुश्किल होता है।
इस सोच के विपरीत हमारे सामने अकसर ऐसे दृश्य भी आते रहते हैं जब अस्पताल में मरीज की तबीयत देखने की खानापूर्ति करने वाले बजाय उसे और परिजनों को ढाढस बंधाने की अपेक्षा उसी तरह की बीमारी के शिकार रहे लोगों की ऐसी हारर स्टोरी सुनाते हैं कि ठीक होता मरीज भी दहशत का शिकार हो जाता है। यही नहीं बीमारी को लेकर अपना आधा अधूरा ज्ञान इस विश्वास के साथ दोहराते हैं कि कई बार मरीज और परिजन पसोपेश में पड़ जाते हैं कि ईलाज सही भी हो रहा है या नहीं।
क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि अपने किसी प्रियजन के अस्पताप में दाखिल होने की सूचना मिले तो कल देख आएंगे कि अपेक्षा बाकी कामों से थोड़ा वक्त निकाल कर उसी दिन देख आएं क्योंकि कल किसने देखा, शायद इसीलिए कहा भी तो जाता है काल करे सो आज क र । कोई भरोसा नहीं कि कल हम और ज्यादा आवश्यक काम में उलझ जाएं, मरीज को अस्पताल से छुट्टी मिल जाए या हालत ज्यादा बिगड़ जाने पर अन्य किसी शहर ले जाना पड़े।
हममें से कई लोग अस्पताल में तबीयत देखने जाते भी हैं तो खाली हाथ। एक गुलदस्ता साथ लेकर तो जाएं, अस्पताल के उस पूरे रूम के साथ मरीज के चेहरे पर भी फूलों सी ताजगी झलकती नजर आएगी। एक परिचित हैं उन्हें बस पता चलना चाहिए कि कोई अपना परिचित दाखिल है। उसके परिजनों को अपना ब्लडग्रुप बताएंगे, फोन नंबर नोट कराएंगे कि आपरेशन की स्थिति में खून की जरूरत पड़े तो तत्काल सूचित कर दें। मरीज के पास जितनी देर भी बैठेंगे, उससे उसकी बीमारी पर तो चर्चा करेंगेे ही नहीं। उसे जोक्स सुनाएंगे, हल्के फुल्केे मजाक करते रहेंगे। मैंने जब उनसे कारण पूछा तो उनका जवाब था, एक तो पहले ही वह सुबह से शाम तक अपनी बीमारी को लेकर लोगों के सुझाव सुनता रहता है। लोग आते तो हैं उसका दुख कम करने के लिए लेकिन अंजाने में ही उसका तनाव बढ़ाकर चले जाते हैं। ऐसी स्थिति में हल्के फुल्के मजाक से वह थोड़ी देर खुलकर हँस लेता है तो इसमें गलत क्या है। बात तो एकदम सही है। मैने जब खुद का मूल्यांकन किया तो कई कमियां नजर आई हैं जिनमें सुधार के लिए मैने तो शुरुआत भी कर दी है। कहा भी तो है हम दूसरों की गलतियों से खुद में सुधार ला सकते हैं।

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इन आंसुओं से डरिए, क्योंकि इनमें साम्राज्य तक डूब सकते हैं

अरविन्द शर्मा
यहां सपने बिकते हैं, आसूं भी टपकते हैं, लेकिन इनकी कीमत....। यह सवाल इसलिए उठ रहा हैं, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से अखबारों में इसी तरह के विज्ञापन नजर आ रहे हैं। कोई बेहतर फ्यूचर बनाने का दाव कर रहा है तो कोई यहां तक कह रहा है कि हमारे बिना आपका कॅरिअर बनना मुश्किल है। बस, इनकी कीमत चुकानी होगी। कीमत भी एक लाख रुपए से शुरू होती है। अब ऐसे में दूसरा सवाल यह भी उठता है कि केंद्र सरकार किस दम पर 14 साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा का दावा कर रही है। शिक्षा के नाम पर खुल रहे इन लूट के अड्डों का कड़वा सच दिल्ली से लेकर राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार हर राज्य में कई बार नजर आ चुका है। ताजा मामला राजस्थान के सवाईमाधोपुर का है। 100 करोड़ से अधिक की छात्रवृत्तियां ऐसे कॉलेजों को बांटी गई जो या तो है या नहीं, या फिर ऐसे कॉलेजों को, जिनमें चार सालों से एक भी छात्र पढऩे नहीं आ रहा। देखा जाए तो यह खेल सरकार के आला अफसरों की मिलीभगत से चलना मुश्किल है।
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अच्छे सिर्फ बाहर के लिए ही क्यों

हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। हमारा चरित्र भी कुछ ऐसा ही हो गया है। हम अन्य शहरों में जब सपरिवार जाते हैं तो पत्नी बच्चों के साथ हमारा व्यवहार बदल जाता है। हम खुद को उस शहर के मुताबिक ढालने का भी प्रयास करते हैं लेकिन जैसे ही अपने शहर की सीमा में प्रवेश करते हैं, फिर पुराने वाले हो जाते हैं। हम अच्छाइयां स्वीकार भी करते हैं तो अपनी सुविधा से लेकिन बुराइयां आसानी से और हमेशा के लिए पालन करने लग जाते है।

दो दिन की लगातार बारिश के बाद जैसे ही मौसम खुला शिमला में रंगीन छतरियों की रौनक के बदले माल रोड पर सैलानियों की चहल पहल नजर आने लगी। नगर निगम भवन के सामने माल रोड पर एक दुकान से अपने बच्चों के लिए पिता ने नाश्ते का सामान लिया और बच्चों के हाथ में प्लेट पकड़ा दी। ये सभी खाते-खाते आगे बढ़ गए। उनमें से एक बच्चे ने सबसे पहले नाश्ता खत्म किया और खाली प्लेट सड़क पर उछाल दी। कुछ आगे जाने पर पिता को ध्यान आया कि बेटे ने जूठी प्लेट सड़क पर ही फेंक दी है। बच्चों को वहीं रुकने की समझाइश देकर पिता पीछे लौटे और सड़क से प्लेट उठाकर एमसी भवन के बाहर सड़क किनारे रखे डस्टबीन में डाल दी। वापस बच्चों के पास लौटते वक्त उनकी आंखों में इस तरह के भाव थे कि उनके इस अच्छे काम को किसी ने नोटिस भी किया या नहीं।
कितना अजीब लगता है जब हम अपने किसी रिश्तेदार के यहां, किसी अन्य शहर या विदेश में कहीं जाते हैं तो हमारा व्यवहार बिना किसी की सलाह या समझाइश के खुदबखुद बदल जाता है। हम उस शहर के मुताबिक खुद को ढालने की कोशिश करने लग जाते हैं। इस बदलाव के पीछे दंड-जुर्माने का भय तो रहता ही है साथ ही अपने शहर, अपने परिवार की नाक नीची न हो जाए यह सजगता भी रहती है। इस दौरान हम अपने स्टेटस को लेकर इतने सतर्क रहते हैं कि पत्नी बच्चों से भी कुछ ज्यादा ही सम्मान से पेश आते हैं। कई बार तो हमारे बच्चे इस व्यवहार पर त्वरित प्रतिक्रिया भी व्यक्त कर देते हैं।
ऐसा क्यों होता है कि अपने घर, अपने शहर पहुंचते ही फिर हम पुराने ढर्रे पर चलने लगते हैं। विदेशों, अन्य शहरों की अच्छाइयों को हम अपने लोगों के बीच प्रचारित भी करते हैं तो उसमें मुख्य भाव यह दर्शाना ज्यादा होता है कि लोग जान लें हम उस जगह होकर आए हैं। शहर तो दूर हम अपने घर तक में उन बातों क ो लागू नहीं कर पाते जिनकी प्रशंसा करते नहीं थकते । पत्नी को जो सम्मान हम बाहर देते हैं, घर पहुंचने के बाद उसे हम कामकाजी महिला से ज्यादा कुछ समझते ही नहीं। हमारा रवैया ऐसा क्यों हो जाता है कि उसकी उपयोगिता ऑर्डर का पालन करने वाली से ज्यादा नहीं है। तब हम यह क्यों नहीं याद रखते कि वह सुबह से शाम तक शासकीय कार्यालय, बैंक आदि संस्थान में सेवा देने के बाद घर के सारे काम अपनी पीड़ा छुपाकर पूरे कर रही है। हमें हमारा सिरदर्द तो असहनीय लगता है लेकिन भीषण कमर दर्द के बाद भी रसोईघर में काम निपटाती पत्नी का हाथ बटाना तो दूर उसका दर्द पूछना भी जरूरी नहीं समझते।
शिमला में पॉलीथिन पर प्रतिबंध हमें बहुत अच्छा लगता है लेकिन अपने शहर में जाने के बाद फिर हम यह अच्छी बात भूल जाते हैं। पहले की तरह फिर पॉलीथिन में रात का बचा खाना आदि बांधकर खिड़की से ही सीधे कचरे के ढेर की तरफ उछाल देते हैं। तब हमें यह अहसास नहीं होता कि उस जूठन को खाने की कोशिश में गाय पूरी पॉलीथिन भी निगल जाएगी।
हमारे कारण उसकी आंतों में उलझी यही पॉलीथिन उसकी मौत का कारण भी बन सकती है यह भी भूल जाते हैं। हमारा चरित्र कुछ ऐसा हो गया है कि अच्छाइयां या तो हमें स्थायी तौर पर प्रभावित नहीं करती या फिर अच्छी बातों का पालन भी हम अपनी सुविधा या डंडे के जोर से ही करने के आदी हो गए हैं।

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काम तो अपने ही आएंगे,पैसा नहीं

ऐसा क्यों होता है कि साया भी जब हमारा साथ छोड़ जाता है तभी हमें अपनों की कमी महसूस होती है। शायद इसीलिए कि जब ये सब हमारे साथ होते हैं तब हमें इनकी अहमियत का अहसास नहीं होता। विशेषकर राजनीति में अपने नेता के लिए रातदिन एक करने वाले तब ठगे से रह जाते हैं कि लाल बत्ती का सुख मिलते ही नेता अपने ऐसे ही सारे कार्यकर्ताओं को भूल जाता है। सुख-दु:ख के बादल उमड़ते घुमड़ते रहते हैं लेकिन छाते की तरह खुद को भिगोकर हमें बचाने वाले अपने लोगों के त्याग को हम अपने प्रभाव के आगे कुछ समझते ही नहीं। ऐसे ही कारणों से हमें बाद में पछताना भी पड़ता है।
माल रोड की ओर से आ रहे अधेड़ उम्र के एक व्यक्ति मुझ से टकरा गए। कुछ गर्मी का असर और कुछ उनकी लडख़ड़ाती चाल, मैंने ही सॉरी कहना ठीक समझा। बदले में वो ओके-ओके कहकर ठिठक गए तो मुझे भी रुकना ही पड़ा। फिर करीब पंद्रह मिनट वो अंग्रेजी-हिंदी में अपना दर्द सुनाते रहे कि दिल्ली में रह रहे पत्नी बच्चों से कई बार फोन पर कह चुका हूं शिमला आ जाओ, आजकल करते-करते छह महीने निकाल दिए। कमरा लेकर अकेले रह रहे उन सज्जन की बातों से यह भी आभास हुआ कि पति पत्नी में कुछ अनबन चल रही है। अकेलेपन की पीड़ा, बच्चों की याद और कुछ नशे के खुमार से उनकी आंखें छलछला आई। बार बार कह रहे थे पत्नी बच्चों के प्यार से प्यारा दुनिया में और कुछ नहीं, अभी वे लोग आ जाएं तो शिमला के ये गर्मी भरे दिन भी ठंडे हो जाएंगे मेरे लिए। अपना गम सुनाने के साथ ही वे ङ्क्षड्रक करने का सच स्वीकारने के साथ यह भी पूछते जा रहे थे स्मैल तो नहीं आ रही है, ज्यादा नहीं बस दो तीन पैग लिए हैं। मैंने जैसे-तैसे उनसे गुडबॉय कह कर पीछा छुड़ाया।
मैंने कई लोगों को देखा है, यूं तो फर्राटेदार हिंदी में बात करते रहते हैं लेकिन पता नहीं इस अंगूर की बेटी का क्या जादू है, इसका सुरूर चढ़ते ही अंग्रेजी में शुरू हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि लोग अंग्रेजी शराब के कारण अंग्रजी बोलने लगते होंगे। दरअसल मुझे तो कुछ लोगों के साथ यह ठीक से अंगे्रजी नहीं बोल पाने की कुंठा लगती है जो थोड़ा सा नशा होने पर कुलांचे मारने लगती है। इस बहाने ही सही आदमी के मन में दबा सच और उसकी कुंठा बाहर तो आ जाती है। हल्के से नशे ने उस अधेड़ व्यक्ति के लिए तो आत्म साक्षात्कार का ही काम किया होगा वरना इतनी तीव्रता से बीवी, बच्चों से दूरी का अहसास नहीं होता।
इसके विपरीत हम अपने आसपास ऐसे लोगों को भी देखते हैं जो दौलत के नशे में चूर होने के कारण हर चीज को पैसे से ही तोलते हैं उन्हें किसी की भलाई, अपनेपन की भी परवाह नहीं होती क्योंकि ऐसे लोग उस मानसिकता के होते हैं जो यह मानकर चलते हैं हर चीज पैसे से खरीदी जा सकती है। ऐसा सोचने वाले यह भूल जाते हैं कि ऐसा भी वक्त आ सकता है जब पैसा होने के बाद भी कई बार हाथ मलते रह जाने जैसे हाल हो जाते हैं। जोर की भूख लगी हो लेकिन कुछ खाने को ही नहीं मिल पाए, किसी सुनसान रास्ते में हमारे किसी परिचित की तबीयत बिगड़ जाए और उपचार न मिल पाने के कारण जान ही चली जाए। इस तरह के हालात में तो जेब में रखे बैंकों के एटीएम, पर्स में रखे नोट भी कुछ देर तो बेकार ही रहेंगे।
सदियों से कहते और सुनते आए हैं पैसा तो हाथ का मैल है लेकिन हम है कि इस सच को समझना ही नहीं चाहते कि जब पैसा नहीं था तब हम लोगों के कितने करीब थे और जब से पैसा बरसने लगा तब से कौन लोग हमारे करीब हैं। क्यों हमें अपने लोगों की जरूरत अकेलेपन या मुसीबत में ही महसूस होती है। शायद इसीलिए की जो हमारे अपने होते हैं उन्हें हमारे पैसे कि नहीं हमारी परवाह होती है। जो अपना है वह सुख में हमसे दूरी बनाना जानता है लेकिन हम कभी मुसीबत में घिर जाए तो पल पल साथ रहने के बाद भी यह दर्शाने कि कोशिश नहीं करता कि वह हमारे साथ है। ये खुशियों की बारिश और सुख दु:ख के ये बादल शायद इसीलिए उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं कि हम अपने परायों कि पहचान करना तो सीख ही जाएं। ऐसे में भी यदि हम समझ ना पाएं तो फिर अपनों से दूर रहने पर उनकी कमी महसूस करना ही विकल्प बचता है। ऐसा बुरा वक्त जीवन मेें न आए इसका तरीका तो यही है कि हम पैसों से ज्यादा अपनों को महत्व दें। वरना तो चिडिय़ा खेत चुग जाएगी और हम हाथ ही मलते रह जाएंगे।

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