Tuesday, February 4, 2014

बसंत ॠतु के आगमन पर

बसंत ॠतु  पर रचनाएं तो बहुत हैं पर आज की ताज़ा, नई युवा और दमदार आवाज़  को ढूंढना भी वाकई एक दुरूह कार्य है, पुरानी रेकार्डिंग में तो कुछ रचनाएं मिल तो जायेंगी,  भाई यूनुस जी के रेडियोवाणी  पर बहुत पहले  वारसी बधुओं की आवाज़ में इस रचना को सुना था और पिछले साल मैने इस रचना को सारा रज़ा ख़ान की आवाज़ में सुना था तब से इसी मौके की तलाश थी, 
पड़ोसी देश पाकिस्तान की सारा रज़ा ख़ान की मोहक आवाज़ में अमीर ख़ुसरो की इस रचना  का आप भी लुत्फ़ लें | 





फूल रही सरसों, सकल बन (सघन बन) फूल रही.... 
फूल रही सरसों, सकल बन (सघन बन) फूल रही.... 

अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार डार, 
और गोरी करत
सिंगार,लिनियां गढवा ले आईं करसों, 
सकल बन फूल रही... 

तरह तरह के फूल लगाए, ले गढवा हातन में आए । 
निजामुदीन के दरवाजे पर, आवन कह गए आशिक रंग, 
और बीत गए बरसों । 
सकल बन फूल रही सरसों ।






Sunday, August 25, 2013

आसमां पे है ख़ुदा - फ़िल्म - फिर सुबह होगी (1958)






                                                                       साहिर लुधियानवी
आसमां पे है ख़ुदा - फ़िल्म - फिर सुबह होगी (1958)

 आसमां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम
 आज कल वो इस तरफ़ देखता है कम

 आजकल वो किसी को टोकता नहीं
 चाहे कुछ भी कीजिये रोकता नहीं
 हो रही है लूट मार फट रहे हैं बम

आसमां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम
 आज कल वो इस तरफ़ देखता है कम
 किसको भेजे वो यहां, हाथ थाम ले
 इस तमाम भीड़ का हाल जान ले
 आदमी है अनगिनत देवता हैं कम

 आसमां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम
 आज कल वो इस तरफ़ देखता है कम

 जो भी है वो ठीक है ज़िक्र क्यों करें
  हम ही सब जहान की फ़िक्र क्यों करें
 जब उसे ही ग़म नहीं तो क्यों हमें हो ग़म

आसमां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम
 आज कल वो इस तरफ़ देखता है कम

(  साहिर लुधियानवी )








Sunday, September 16, 2012

कैरेबियन चटनी( Caribbean chutney) और भारतीय लोकगीत (Indian folk song)


सैकड़ों साल पहले हमारे देश के एक कोने से मज़दूरों के एक बड़े जत्थे को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था ,गये तो वे मजबूरी में थे या यूँ कहें कि गये नहीं ज़बरन ले जहाज में ठेल ठेल कर ठूंस ठूंस कर अपने वतन से बेदखल कर दिया गया था ……अपने रिश्तेदारों, मित्रों, अपने-अपने साजो सामान के साथ,पर अब तो कई सौ साल गुज़र चुके हैं,उनके सीने में आज भी अपने देश की मिट्टी हरदम उन्हें अपने वतन की याद दिलाती रहती है | मैं जब भी इनके वीडियो देखता हूँ, इस दुनिया के बारे में सोचता ही रह जाता हूँ, आज भी उनका "लोक" जैसा भी है सुरक्षित है,भले ही इन सकड़ों सालों में न जाने उनका रूप किस किस तरह से बदल कर क्या हो गया ? पर आज भी उनका अपना समाज इन लोकगीतों को गाकर शायद अपनी जड़ो को सींच सींच कर बचाने की कोशिश कर रहे हों,आइये कुछ इसी दिशा में हो रहे उन प्रयासों से अपना दिल बहलाते है | एक पुराना गाना है जिसे राकेश यन्करण बड़े मज़े ले कर गा रहे हैं, अंदाज़ तो देखिये | "नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर" फ़िल्म "मुझे जीने दो" पर यहां इस गाने को संदीप की आवाज़ में सुनिये मज़ा आयेगा| राम कैलाश यादव को हमने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कभी सुना था, आज तो हमारे बीच वे नहीं हैं,पर उनकी लोक गायकी और अंदाज़ गज़ब का था,उनकी आवाज़ में ज़रा इस लोकगीत को सुनें और बताएं कि यहां और वहां में अन्तर नज़र आता है ? एक लोकगीत (निर्गुन) का आनन्द लें |

Thursday, June 14, 2012

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ... मेंहदी हसन/ अहमद फ़राज़


दिल्ली के एक अपार्टमेंट में रंग-ए-महफ़िल सजी हुई है,ये मंज़र मुम्बई, इलाहाबाद या किसी भी शहर का  हो सकता है | जाड़े का दिन है,बाहर कुहासा घिर आया है, रात  का समा है, महफ़िल,कव्वाली से लेकर फिल्मी गानों से तर है, कभी मुन्नी बेगम तो कभी फ़रीदा खानम, कभी किशोर कुमार तो कभी रफ़ी,इधर हारमोनियम पर उंगलिया फिर -फिर रही थी और उधर   लोग बाग झूम -झूम से रहे हैं ,गुनगुना रहे हैं, साथ साथ सुरों के साथ ताल मेल बिठाने में में लगे हैं, कुछ सुर में हैं तो कुछ बेसुरे,जितने भी लोग बैठे हैं इस महफ़िल में, सब अलहदा अपनी अपनी दुनिया में डूब उतरा रहे हैं, रात गहरी और गहरी होती जा रही है, खिड़की के बाहर  काले आसमान पर नीले रंग ने अपनी दस्तक देनी शुरु कर दी है ,गज़लों को सुन सुन कर कुछ तो वहीं ढेर से हो चुके हैं ……अधनींदी अलसाई सी महफ़िल | ऐसे में एक तीखी लड़खड़ाती सी आवाज़ उभरती है "भाई रंजिश ही सही  याद है? अगर सुना सको तो ये तुम्हारा एहसान होगा मुझपर" और फिर क्या था गायक,   हारमोनियम पर रखी डायरी के पन्नों  को फ़ड़फ़ड़ाना  शुरु कर देता है  और तभी भीगी भीगी सी आवाज़ में "रजिश ही सही ……आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ "  शुरु हो जाता है "समा धीरे  धीरे फिर से बंधने सा लग जाता है – मुरीद, प्यार में पटकी खाए मजनूं  के अंदाज़ में आह आह और  वाह वाह  से कर उठते हैं, कुछ तो प्यार की कल्पनाओं में खो जाते हैं और महफ़िल फिर से जवान  हो जाती है, ऐसा लगने लगता है  कि ये गज़ल उन्हीं को देखकर शायर ने लिखी हो  |  “रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ”   गज़ल मेंहदी साहब की महकती जादुई आवाज़ में है, इस गज़ल की लम्बाई कोई 28 मिनट की है,तो पेश ए खिदमत है मेंहदी साहब के तिलस्म का जादू शायर हैं अहमद फ़राज़ |    || मेंहदी साहब को हमारी तरफ़ से विनम्र श्रद्धांजलि || ये ऑडियो गुड्डा नवीन वर्मा के सौजन्य से प्राप्त हुआ है तो गुड्डा को शुक्रिया !!

Saturday, November 26, 2011

त्रिनिडाड का चटनी संगीत मस्त मस्त है

लम्बे समय के विराम के बाद ठुमरी पर कुछ सुनाने का मन है । दरअसल बहुत कुछ तो नहीं है मेरे पास सुनाने के लिये... पर अभी थोड़ी चटनी हो जाय ... पहले भी मैने कैरेबियन चटनी कुछ पोस्ट चढ़ाई थी और आज भी धमकता, अनोखा संगीत एक दम से मन पर छा सा जाता है ....बस यही सोचता हूं कि ढाई तीन सौ सालों पहले हमारे देश के कुछ हिस्सों से उठा कर ले जाय गये गुलाम मज़दूर अपने साथ लोक संगीत की विरासत अपने साथ ले गये थे, समय के साथ आज उसमें भी बहुत परिवर्तन हो चुकने के बावजूद आज भी उसे ज़िन्दा रखने की कोशिश हो रही है... कुछ तेज़ संगीत में त्रिनिडाड या कैरेबियन देशों में जा बसे भारतीयों ने अभी भी अपना अतीत अपने पास बचा रखा है.....जिसे यहां आज मैं आपको सुनाना चाहता हूं । राकेश यनकरण की आवाज़ में एक विवाह गीत का आनन्द लेते है।

त्रिनिडाड के चटनी किंग सैम बूडराम की इस आवाज़ का तो मैं कायल हूं ।


अभी बस इतना ही, अगली पोस्ट का करें इंतज़ार।

Thursday, August 4, 2011

जब मोहम्मद रफ़ी साहब ने किशोर कुमार के लिये अपनी आवाज़ दी !!!!

ज  सुबह से ही किशोर कुमार के  गाये गीत रेडियो पर करीब करीब हर स्टेशन पर बज रहे हैं … किशोर कुमार जी  का आज जन्म दिन है और मैं इस मौके पर उनसे जुड़ी एक घटना को याद करते हुए अपनी श्रद्धांजलि दर्ज़ करना चाहता हूँ ।


बात 1956 की है हिन्दी फिल्म रागिनी के संगीत निर्देशक थे श्री ओ.पी नैय्यर  और इस फ़िल्म में किशोर कुमार, अशोक कुमार और पद्मिनी ने अभिनय  किया था, इसी फ़िल्म रागिनी का एक सीन जिसमें किशोर जी पर एक शास्त्रीय  गीत फ़िल्माया जाना था्…… तो ऐसी स्थिति में किशोर साहब ने रफ़ी साहब से मिलकर  उस गीत को गाने का आग्रह किया था …ऐसा नहीं  कि किशोर कुमार शास्त्रीय गीत  गा नहीं सकते थे लेकिन मैं चकित इसी बात से हूँ कि ऐसा उन्होंने क्यों कर किया होगा ? …आज तो सभी जगह किशोर कुमार को याद करते हुए उनके गाने हर तरफ़ बज रहे हैं पर आज ठुमरी पर इस वीडियो को चिपका रहा हूँ जिसके इस सीन में  किशोर कुमार के लिये मोहम्मद रफ़ी साहब अपनी  आवाज़ दे रहे हैं, …किशोर कुमार जी के जन्म दिन पर आज रफ़ी साहब को सुनते हुए किशोर दा को श्रद्धांजलि।यहाँ चटका लगा के "रागिनी" फ़िल्म के इस गीत  "मन मोरा बांवरा" आप सुन सकते है……अगर धैर्य धारण रखें तो यू-ट्यूब के इस लिंक को आप बफ़र करने के बाद सुने… आनन्द आयेगा |

Saturday, May 14, 2011

महान रंगद्रष्टा बादल सरकार को हमारी भाव भीनी श्रद्धांजलि !


बादल सरकार ( 1925- 2011)

अभी अभी पता चला कि बादल दा नहीं रहे .....बादल दा को हमारी श्रद्धांजलि... बादल दा से मेरी पहली मुलाकात ( सन १९८0-८1 ) में आज़मगढ़ शहर के एक रंग शिविर के दौरान हुई थी,मेरे लिये किसी भी रंगशिविर में शामिलहोने का यह पहला अवसर था या यूं कहे कि मैं पहली बार रगंमंच से जुड़ रहा था। तब तारसप्तक के कवि श्रीराम वर्मा, प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक,निर्देशक श्री अनिल भौमिक भी शहर की संस्था "समानान्तर" से जुड़े हुए थे, तब छोटे शहरों की नाटक मंडलियों में लड़कियों का अभाव रहता था ।नाटक की मंडलियां भी उतनी सक्रीय नही थीं , तब शहर और कस्बों में प्रोसीनियम रंगमंच ही ज़्यादा लोकप्रिय थे .....ऐसे समय में बादल दा ने रिचर्ड शेखनर और लोकनाट्य "जात्रा" से प्रभावित होकर "थर्ड थियेटर" शैली की परिकल्पना की , रगमंच के लिये ये दौर ही कुछ ऐसा था कि तब मनोशारीरिक रंगमंच, शारीरिक रंगंमंच,इन्टीमेट थियेटर और न जाने कितने तो प्रयोग हो रहे थे प्रोसिनीयम शैली के एक से एक लोकप्रिय नाटकों को लिखने के बाद अब दादा ने "तृतीय रगमंच"से अपना नाता जोड़ लिया था इसके लिये अलग से नाटक भी लिखे|

"भोमा""सपार्टकस"(निर्देशक अनिल भौमिक) "मानुषे मानुषे" "बासी खबर" बर्टोल्ट ब्रेख्त के नाटक " कॉकेशियन चॉक सर्किल" पर आधारित नाटक "घेरा"(निर्देशक अनिल भौमिक) बादल दा ने ये सारे नाटक विशेष तौर पर "तृतीय रगमंच" को ध्यान में रखकर लिखा,जिसमें चारों तरफ़ दर्शक के बीच में नाटक होता था दर्शक सबकुछ अपने सामने बहुत नज़दीक से देखता था उनके नाटक भी कुछ ऐसे थे जिसमें दर्शक भी एक पात्र होते थे उनका लिखा नाटक "मिछिल" जिसे हिन्दी में "जुलूस" नाम से खूब खेला गया, इस नाटक के हज़ारों प्रदर्शन हुए, अमोल पालेकर ने तो जुलूस के रिकार्ड तोड़ प्रदर्शन किये थे, हर तरफ़ बादल दा के नाटकों का शोर था पर दादा को सिर्फ़ को उनके नाटय लेखन, तृतीय रगमंच या थर्ड थियेटर" फ़ॉर्म की वजह से ही नहीं याद किया जायेगा बादल सरकार के इस शैली की वजह से छोटे- छोटे कस्बों और शहरों में सैकड़ों नाटक की संस्थाओं ने जन्म लिया , यही दौर नुक्कड़ नाटकों का भी था, उस समय बिहार के आरा में "युवा नीति" पटना में "हिरावल" दिल्ली में "जन नाट्य मंच" और इलाहाबाद की "दस्ता" पटना की "इप्टा" अपने अपने इलाके में बहुत ज़्यादा सक्रीय थे।


आज़मगढ़ की "समानान्तर" लखनऊ की "लक्रीस" और इलाहाबद की संस्था "दस्ता" ने मिलकर अस्सी के दौर में "टुवर्डस दि इन्टरैक्शन" नाम से एक नाट्य समारोह का आयोजन हमने किया था जिसमें "लक्रीस" लखनऊ ने शशांक बहुगुणा के निर्देशन में खासकर मनोशारीरिक रगमंचीय शैली में गिरीश कर्नाड का "तुगलक" खेला गया था और बादल दा के लिखे नाटक बाकी इतिहास का मंचन हुआ था , कोलकाता से बादल दा अपनी संस्था " शताब्दी" और खरदा बंगाल से प्रबीर गुहा अपनी संस्था लिविंग थियेटर ग्रुप ने अपने नाटकों के इलाहाबाद, आज़मगढ और लखनऊ में सफ़ल प्रदर्शन किये थे तब बादल दा और उनकी पत्नी को हमने पहली बार "मानुषे -मानुषे" और "बासी खबर"में अभिनय करते देखा था |समानन्तर इलाहाबाद के निर्देशक श्री अनिल भौमिक उत्तर प्रदेश में " तृतीय रंगमंच" विधा को गम्भीरता से अपनाने के लिये जाने जाते हैं, उन्होंने लम्बे समय तक "थर्ड थियेटर" फार्म में अपने सारे नाटक निर्देशित किये है और अनिल दा का आज भी अनवरत ये सिलसिला ज़ारी है|

आज मेरे लिये वो सारे क्षण अविस्मरणीय और ऐतिहासिक से लग रहे है|बादल दा से सालों पहले दिल्ली के मंडी हाउस में मुलाकात हुई थी और यहीं मेरी दादा से आखिरी मुलाकात थी| 2008 15 जुलाई को उनके जन्म दिन की याद श्री अशोक भौमिक जी ने दिलाई थी और अशोकजी के सौजन्य से प्राप्त बादल दा के टेलीफोन नम्बर पर डायल करके मैने उनके दीर्घायु होने की दादा से कामना भी की थी, मैने अपने ब्लॉग पर दादा को याद करते हुए उनके बारे में लिखा भी था। पर उनके निधन की खबर ने मुझे बेचैन कर दिया और उनको याद करते करते जो कुछ फ्लैशेज़ आ रहे थे लिखता गया । महान रंगद्रष्टा बादल दादा को हमारी श्रद्धांजली । अभी पिछले दिनों श्री अशोक भौमिक जी ने उन पर एक किताब बादल सरकार व्यक्ति और रंगमंच प्रकाशित की थी |
थर्ड थियेटर शैली में इलाहाबाद विश्विविद्यालय के सीनेट हॉल में स्वर्गीय बादल सरकार का लिखा नाटक ’घेरा’ का ’दस्ता द्वारा मंचन

Wednesday, March 2, 2011

गुलाम अली साहब की हीर की तर्ज़ में गाई एक ग़ज़ल !!

गु़लाम अली साहब की ग़ज़लें रेडियो पर जब भी सुनता तो सुनता ही रह जाता उनकी आवाज़ और उनकी अदायगी कमाल की लगतीं और एक समय 90 के दशक में उनको दिल्ली के सीरी फ़ोर्ट में उनको लाईव सुना तो वो आज तक मेरे ज़ेहन में तारी है,आईये आज गुलाम अली साहब की हीर की तर्ज़ में गज़ल सुनते हैं। "करते हैं मोहब्बत सब ही मगर.....

आरिफ़ लोहार की मिर्ज़ा साहिबा और कोक स्टूडियो ...

अभी कुछ ही समय हुआ कि हमने आरिफ़ लोहार की शानदार गायकी का नमूना देखा था, तब आपने जुगणी का रस लिया था, दरअसल
कोक स्टूडियो के वीडियो बनाने की प्रक्रिया आप देखेंगे तो और भी आनन्द आयेगा,मैने आरिफ़ लोहार की रचना मिर्ज़ा-साहिबा का ओरिजनल वर्ज़न बहुत पहले सुना था पर कोक स्टूडियो पर जब पहली बार देखा तो कई बार देखने से अपने को रोक भी नहीं पाया तो आज आरिफ़ लोहार की इस लोक रचना की बनने की प्रक्रिया का यहां वीडियो देखिये उसके बाद उन्होंने इस पूरे गीत का जो वीडियो बनाया है उसका भी आनन्द लीजिये | तो यहां पहले देखते हैं कोक स्टूडियो का वो वीडियो जिसमें आरिफ़ लोहार के साथ बात चीत या यूं कहें कि मेकिंग आफ़ मिर्ज़ा साहिबा |



और अब यहां हम उस वीडियो को देखेंगे जिसमें आरिफ़ लोहार और पूरी संगीत मंडली ने इस रचना को जिस तरह उसके समूचेपन से हमारे सामने रखा है उस शानदार पंजाबी लोक गायक आरिफ़ लोहार और पूरे बैण्ड की इस उर्जा को सलाम ।