Friday, May 9, 2014

बारिश मेरा घर है


कुमार अनुपम की कविताओं का अपना मिजाज है जो न सिर्फ उनके शिल्प की बुनावट से बनता है बल्कि कथ्य में इतना तरल है कि एकाग्रचित हुए बिना पढ़े जाने पर जो कटोरे से छलकते पानी की तरह इधर उधर बिखर सकता है. यहां  तमगा लूटने के लिए लगाये जाते निशाने को साधने वाली एकाग्रता से कोई लेना देना नही. वह पारे की सी तरलता है जो उतनी ही ठोस है जितना किसी ठोस को होना चाहिए अपनी तरलता को बचाये रखते हुए.
माना कि दिल्ली में इस वक्त धूप तीखी पड़ रही. बेहद गरमी. उमस और चिपचिपापन. तो क्या उसे चुनौति देने के लिए हमें भी दोहराना होगा कवि के साथ बारिश मेरा घर है? कुमार अनुपम की कविता का यह पद तेज रफ्तार वाली दिल्ली को बारिश के पानी के कारण हो जाने वाले घिचपिचेपन  में फंसा देना चाहता है.चौकन्ने होकर सुनो वह कितना कुछ कह रहा. मसलन
यह
धार्मिकता का
सुपीरियारिटी का सत्यापन

फासिस्ट गर्व और भय
की हीनता का उन्मांद

यह
जाति धारकों
के निठल्लेपन का पश्चाताप

यह तत्काल टिप्पणी है. विस्तार से लिखने का मन है.

Thursday, May 8, 2014

चाय की प्याली में तूफान उठा देने वालों

हमारे सहयोगी यादवेन्द्र जी का यह आलेख उनके लेखन की ऐसी बानगी है कि हमारा आसपास बज बजाता हुआ सामने आने लगत है.



आज सुबह चाय बना कर पीने ही जा रहा था कि एक मित्र का फ़ोन आ गया -- आम तौर पर देर से उठने के आदी मित्रों और परिजनों के फ़ोन से मुक्त रहती हैं मेरी सुबहें ,पर कुछ चुनिंदा लोगों को सुबह सुबह मुझे पकड़ लेने की तरकीब मुफ़ीद लगती है। मित्र ने मुझसे कुछ पढ़ कर सुनाने का आग्रह किया सो चाय किनारे रखनी पड़ी -- हाँलाकि बीच बीच में चुस्कियाँ लेने से खुद को रोक नहीं पा रहा था।
पर अंत में बची हुई चाय ने अपने हाव भाव ( स्वाद और गंध) से साफ़ साफ़ कह दिया कि पीनी है तो ढंग से चाय पियो प्यारे.... कई काम एक साथ करते हुए सब के साथ नाइंसाफ़ी और तौहीनी करते हो .... मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं।
चाय ने सचमुच इस बेरुखी पर क्रोधित होकर अपना स्वाद बदल लिया था -- सुबह की ताज़गी के बदले उसमें उबा देने वाला बासीपन घर कर गया था। दिलचस्प बात ये कि एक घूँट ख़राब चाय पी कर चार पाँच बार अच्छी चाय पी भी लें तो मामला बनता नहीं -- चाय मेरे लिए ऐसी प्रेमिका की मानिंद है जो पल पल समझाती रहती है कि मेरे जीवन में जो कुछ भी श्रेष्ठ और चमकदार है उसमें उसका स्थान हमेशा सबसे ऊपर रहेगा … जिसका मूड ख़राब करने का जोखिम आप उठा नहीं सकते .... और ऐसी गलती कर ही बैठे तो आपको  एड़ी छोटी का जोर लगाना पड़ेगा , फिर भी सब कुछ सहज सामान्य हो ही जाएगा इसकी कोई गारण्टी नहीं।
दरअसल चाय के इतने रूप रंग होते हैं कि एक से दूसरे के बीच के अंदर को मैं पहचान तो सकता हूँ पर शब्दों में उनका वर्णन नहीं कर सकता .... जैसे सुबह सुबह बनायी चाय के ही थोड़े से अंतराल के बाद बदल गये दो अलग अलग स्वाद को ही लें। यदि चाय किसी पतली गर्दन वाले बर्तन में बनाई जाये तो भगौने जैसे चौड़े मुँह के बर्तन में बनाई गयी चाय से उसका स्वाद बिलकुल अलग होगा। वैसे ही उबलते पानी में चाय की पत्ती डाल कर ढक्कन से ढँक दिया जाए तो उसका स्वाद बगैर ढक्कन के देर तक उबाल कर बनायीं गयी चाय से बिलकुल अलहदा होगा। जो लोग पानी और दूध बगैर नापे अंदाज से डाल कर चाय बनाते हैं उनकी चाय का स्वाद सब कुछ नाप तोल कर डाली गयी सामग्री की चाय से जुदा होगा। पानी दूध और चीनी का अनुपात  बदल जाने से ज़ाहिर है चाय का स्वाद बदल जाता है। गाय ,भैस और डेयरी के दूध ( वह भी टोन्ड और फ़ुल क्रीम ) से बनायीं गयी चाय एकदम अलग स्वाद और गंध की होती है। इतना ही नहीं अलग अलग व्यक्ति की बनायीं चाय में अलग अलग स्वाद मिलेगा। शाम को दफ़्तर की थकान के बाद मिलने वाली दैनिक रूटीन वाली चाय का स्वाद वह हो ही नहीं सकता जो लिखाई पढ़ाई में तल्लीन रहने पर देर रात मिलती है .... या रात भर अच्छी नींद लेकर उठने के बाद दिन की पहली चाय ( आहार) का होता है।यानि चाय पानी दूध चीनी चाय की पत्ती को फेंट कर तैयार किया गया महज़ एक द्रव नहीं होती बल्कि एक जीवंत शख्सियत होती है --- और मन के भावों के प्रति बेहद संवेदनशील होती है।

मुझे याद है जब 1995 में मैं पहली दफ़ा विदेश ( अमेरिका ) गया और वहाँ पहुँच कर होटल में चाय की माँग की तो मुझे मिंट ( पुदीना ) की गंध वाली चाय का पैकेट दिया गया --- जबरदस्त तलब के बावज़ूद मैं उस चाय को स्वीकार नहीं कर पाया ,क्योंकि अपने चालीस साल के जीवन में पहले कभी चाय के साथ पुदीने की गंध /स्वाद का अनुभव नहीं किया था। जब मुझसे पुदीने वाली चाय नहीं चली तो बार बार माँगने पर दूसरी गंध वाले टी बैग्स मिले , सादा चाय मिली ही नहीं। जैसे तैसे कुछ घंटे होटल में गुज़ारने के बाद मैं निकल कर खुद डिपार्टमेंटल स्टोर गया और सादा चाय के लिए मगजपच्ची करता रहा। पूछ ताछ करने पर मुझे बताया गया कि दार्जिलिंग टी का पैकेट खरीदो ,यहाँ सादा चाय वही मानी जाती है --- हाँलाकि मुझ जैसे इंसान के लिए उबाल कर बनायी गयी सादा  चाय ही चाय का स्थायी भाव है ,दार्जिलिंग चाय तो कभी कभार मिल जाने वाली लग्ज़री है। इसी यात्रा में मेरा सामना काँच के पारदर्शी प्याले में बर्फ़ और नींबू की पतली फाँक तैरती हुई ठण्डी चाय से हुआ --- तज़ुर्बे के तौर पर मेरी स्मृति में सिर्फ़ आग पर उबली हुई चाय मौज़ूद थी और बर्फ़ वाली चाय मुझे बड़ी अटपटी लगी थी पर बाद के दिनों में जब भारत में नेस्ले ने आइस टी बेचनी शुरू की तो इसका स्वाद मेरे मुँह को खूब लगा।

पिछले साल राजस्थान में नाथद्वारा जाने पर पुदीने वाली चाय पी और खूब छक कर पी -- यह वहाँ की वैसी ही खासियत है जैसे सैकड़ों की संख्या में बनी दूकानों में बिक रहा मंदिर में दिन में सात बार चढ़ाया गया प्रसाद। जब जब वहाँ चाय पीता  हूँ मुझे अमेरिका का वह अनुभव याद आता है और अचरज होता है कि वहाँ जिसको स्वीकार करना मुश्किल था वहीँ नाथद्वारा पहुँचते ही मुझे पुदीने वाली चाय की जबरदस्त तलब होती है।
 
पचमढ़ी में खूब देर तक अदरक के साथ उबाल कर तीन चरणों में बनायीं गयी चाय लोगों के इतने मुँह लगी रहती है कि एक कप चाय के लिए बीस पच्चीस मिनट तक इन्तज़ार करते हैं-- इस प्रक्रिया को पूरा होने में आधे घंटे तक का समय लगता है।पहली बार में मुझे तेज अदरक वाली यह चाय इतनी कड़वी लगी कि एक दो घूँट के बाद छोड़ दी पर थोड़ी देर बाद उसमें ही अनूठा स्वाद आने लगा।

तिरुपति में चाय बनाने का अलग ढंग है -- कॉफी के लिकर की तर्ज पर चाय का भी लिकर बना कर ताम्बे के लम्बे गोल बर्तन में रखा जाता है और ग्राहक के आने पर दूध और चीनी मिला कर दे दिया जाता है।

हालिया अनुसंधान से मालूम हुआ कि हमारी नाक लाखों अलग अलग गंधों को पहचान सकती है ,यह अलग बात है कि हम अपनी इस क्षमता का उपयोग करना भूलते जा रहे हैं। वैसे ही हमारी जीभ और स्वाद पहचानने वाली ग्रंथियाँ भी भिन्न भिन्न प्रकार के स्वाद पहचान सकती हैं पर हम उनका प्रयोग करना भूलने लगे हैं .... और  उनके बारीक अंतर को शब्दों में बयान करना तो बिलकुल असंभव है।

कैसी विडंबना है कि चाय के  इतने सारे भिन्न स्वरुपों को समेट कर हम देशवासियों पर यह धौंस जमा रहे हैं कि चाय पीनी है तो सिर्फ़ नमो चाय पियो ,वरना पाकिस्तान जाओ।    

--
यादवेन्द्र
*Mob.*    *+ 09411100294*

Friday, April 18, 2014

सो गया दास्ताँ कहते-कहते



        उसने अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखा है-उस वक्त हर कोई युवा था लेकिन हम हमेशा अपने से अधिक युवा लोगों से मिल रहे थे. पीढियाँ एक दूसरे से आगे निकलने को आतुर थीं ,खासतौर से कवियों और अपरधियों की;जब तक आप कुछ नया करते कोई और शख्स प्रगट हो जाता जो आपसे भी बेहतर करते हुए दिखाये देता.

          सतासी साल की भर-पूर जिन्दगी जीने वाले गैब्रीयल गार्सिया मार्खेज़ के लेखन का जादू यह साबित करने के लिये पर्याप्त है कि उनके फ़न में उनसे आगे निकलने की कोई कोशिश भी नहीं कर सका.हिन्दी की दुनिया में शायद ही कोई हो जिसने अस्सी के दशक की शुरूआत में साहित्य की दुनिया में प्रवेश लिया हो और मार्खेज़ के जादुई यथार्थ का नाम सुना हो.‘एकान्त के सौ वर्षकी चर्चा के साथ लैटिन अमेरिका के कथा साहित्य की तरफ पूरी दुनिया का ध्यान गया हालाँकि इसी दुनिया में बोर्खेज़ जैसे विद्वान,जटिल और बीहड़ लेखक  की भी बसाहट है.पत्रकारिता से कैरियर की शुरूआत करने वाले मार्खेज़ ने किस्सागोई की नायाब शैली विकसित की.हालाँकि एक साक्षात्कार में वह बताते हैं कि जिसे दुनिया जादुई कह रही है वह लैटिन अमेरिकी दुनिया का सहज यथार्थ है.पौराणिक पात्रों और मिथकीय सन्दर्भों से संवेदित भारतीय समाज के लिये यह बात इतनी अजूबी थी भी नहीं.अस्सी के दशक में हम टेलीविजन में रामायण के प्रसारण के साथ टीवी सेट के सम्मुख सिक्कों का चढ़ावा भी देख ही रहे थे!हम एक साथ दो अलग-अलग समय में जी रहे थे!(आज भी जी रहे हैंमंगल पर यान भेज रहे हैं  और मन्दिर में सफलता की कामनायें कर रहे हैं!)

     हिन्दी में मार्खेज़ के उपन्यास का अनुवाद बहुत बाद  में आया लेकिन उनकी कहानियों के अनुवाद लगातर प्रकाशित होते रहे.मार्खेज़ ने इतने विषयों पर कलम चलायी कि आश्चर्य होता है.तनाशाहों  के जीवन पर आटम आफ़ पैट्रिआर्क जैसा उपन्यास लिखने वाले मार्खेज़ पौ गायिका शकीरा पर भी मुग्ध कर देने वाला गद्य  लिखते हुए दिखायी देते हैं .पत्रकारिता का त्वरित लेखन बहुत से महान कथाकारों की अभ्यास स्थली तो रहा है लेकिन किसी  स्थापित उपन्यासकार को उसी शिद्दत से पत्रकारिता करते देखना अजूबे से कम नहीं. किसी जमाने में उनके लघु उपन्यास ‘क्रोनिकल आफ अ डेथ फ़ोरटोल्ड’ की  हिन्दी जगत में खूब चर्चा रही जिसके प्रभाव के अनुमान कुछ रचनाओं पर भी लगाये गये.लेकिन यहाँ राजेन्द्र यादव जैसे लेखक भी हुए जिन्हें यह रचना पढ़ते हुए इससे बहुत पहले लिखी गयी रघुवीर सहाय की कविता पंक्ति ‘रामदास की हत्या होगी’ याद आती रही.

     नोबुल पुरस्कार मिलने के बाद मार्खेज़ का अद्भुत उपन्यास ‘लव इन द टाइम आफ कोलरा’ आता है.इस उपन्यास में मार्खेज़ ने दिल टूटने के बाद इक्यावन वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा करने वाले अद्भुत प्रेमी की सृष्टि की है.फ़्लोरेन्तीनो अरीजा जैसा दृढ़,धैर्यवान और बेशर्म आशिक विश्व-साहित्य में दूसरा नहीं जो उम्र की सीमाओं को लांघते हुए उस रात के एकान्त में अपना प्रणय सन्देश सद्य:विधवा प्रेमिका के सम्मुख रखने में नहीं हिचकता  !प्रेमिका फ़र्मिना दाज़ा के पति डाक्टर अर्बीनो की मृत्यु अचानक घटित होती है-प्रिय तोते का पीछा करते हुए एक डाल से फिसलने के बाद…मृत्यु और जीवन के इस शाश्वत द्वन्द्व में भग्न-हृदय फ़्लोरेन्तीनो अरीजा की जिन्दगी की आधी सदी की हलचलों के साथ कैरेबियन द्वीपों की जीवन्त दुनिया में प्रेम का मादक संगीत बजता है.

             मार्खेज़ की दुनिया में  उद्दाम प्रेम के बहुरंगी दृश्य हैं;न खत्म होने वाली बारिशें हैं;पसीनों की और अमरूदों की और समुद्रों की नम हवाओं वाली गन्ध है;दुपहरियों की अलसायी नींद भरी झपकियाँ हैं. जीवन के जादू को साहित्य में बहुत सारे लेखक लाते रहे हैं लेकिन मार्खेज़ का होना हमें बताता है कि जीवन को साहित्य में किस तरह जादुई बनाया जा सकता है!

     नवीन कुमार नैथानी

Saturday, March 8, 2014

यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय ह


अपने स्ारकारी आवास, टॉलिगंज से निकलकर नेताजी नगर के स्टूच्यू पर मिलने के वायदे के साथ पहुंचते हुए कोलकाता के सचेत नागरिक और हिन्दी के कवि नील कमल से मिलकर लौटा हूं। आज शनिवार है। कदम दर कदम मन्दिरों की अनंत श्रृंखला वाले कोलकाता में शनिपूजा की धूम है। ऋत्विज प्रकाशन, कोलकता से प्रकाशित भाई नील कमल का सद्य प्रकाशित कविता संग्रह हाथ में है ''यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है""। छपाई में आकर्षक और नये में नये की भव्यता का आतंक न मचाते रंग वाले कागज पर छपी इस किताब के लिए नील कमल को बधाई एवं शुभ कामनायें।  


सुना आपने


कभी आप विचार को
जनेऊ की तरह धारण करते हैं

कभी आप जनेऊ को
विचार को की तरह धारण करते हैं

दोनों ही स्थितियों में सुविधानुसार
Vichaar को कान पर टांग लेने की सुविधा है
कविता की दुनिया में बस यह एक सुविधा है

फिलहाल
कविता के कान पर
टंगा हुआ एक धागा
ख्ाता मुआफ़ हो मेरे दोस्तो
आप जो बनते हैं कविता के हिमायती
सबसे ज्यादा सांसत में कविता की जान
आप से।।। हां आ ही से है।।। सुना आपने ?


Friday, February 28, 2014

मध दा ने कर दी है दिन की शुरूआत



विजय गौड़

गांव और शहर दो ऐसे भूगोल हैं जो मनुष्य निर्मित हैं। उनकी निर्मिति को मैदान, पहाड़ और समुद्र किनारों की भौगोलिक भिन्नता की तरह नहीं देखा जा सकता। भिन्नता की ये दूसरी स्थितियां प्रकृति जनक हैं। हालांकि बहुधा देखते हैं कि गांव के जनसमाज के सवाल पर हो रही बातों को भी वैसे ही मान लिया जाता है जैसे किसी खास प्राकृतिक भूगोल पर केन्द्रित बातें। साहित्य में ऐसी सभी रचनाओं को अंाचलिक मान लेने का चलन आम है। यही वजह है कि पलायन की कितनी ही कथाओं को 'कथा में गांव" या 'कथा में पहाड़" जैसे शीर्षकों के दायरे में समेटने की कोशिश जब तक होती रहती है। पलायन की समस्या सिर्फ भौगोलिक दूरियों के दायरे में विस्तार लेते समाज का मसला नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा, बदलते श्रम संबंध और अतिरिक्त पर नियंत्रण की होड़ में विकसित होती बाजार व्यवस्था के नतीजे के तौर पर है। यदि विकास की कोई प्रक्रिया वास्तविक जनतांत्रिक व्यवस्था के विस्तार में आकार लेते कायदे कानूनों के तय मानदण्ड के भीतर जारी रही होती तो शहर और गांव के भेद को न तो चिहि्नत करना संभव होता और न ही उनके बीच कोई बहुत स्पष्ट सीमा रेखा जैसी खिंची हुई होती। गांव में शहर और शहर में गांव जैसे दृश्य देखने को न मिलते। यदि चरणबद्ध प्रक्रिया जैसा कुछ दिखता भी तो दोनों निर्मितियों के बीच की संज्ञा 'कस्बा" वहां हमेशा मौजूद रहता। गांव से शहर और शहर से गांव तक हवाई यात्रा क्षेत्र जैसा न बनता। आदिवासी और जंगल समाज की स्थितियां भी विकास की एक अवस्था में पहुंची होती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
महेश की कविताऐं ऐसे ही एक भूगोल को पाया जा सकता है तथाकथित विकास के नाम पर जहां विनाश की कथाओं के दिल दहलाने वाले हादसे अक्सर खबरों का हिससा होते सुने जा सकते है। ऐसे भूगोल विशेष का समाज, उसके अन्तर्विरोध और प्राकृतिक भिन्नता में विस्तार लेती प्रकृति से सीधा साक्षात्कार महेश की कविताओं के ऐसे विषय हैं जिन्हें व्यापक दायरे में लिखी जा हिन्दी कविता के बीच अलग से पहचानना मुश्किल नहीं। ''भय अतल में"" उनकी कविताओं के ऐसी ही पुस्तक है जिसमें पहाड़ी पक्षी सिंटोले की आवाज के साथ, घ्ासियारनों के दुख-दर्द को समेटते हुए दुल्हन की डोली की कथाऐं, लच्छू ड्राइवर की गमक में सभ्य होने की कितनी ही तस्वीरें हैं जिनसे महेश के भूगोल को पहचाना जा सकता है। पहाड़ी हिमालय क्षेत्र के जन समाज की संभावनाओं भरी तस्वीर और उन्हें ध्वस्त करने के चालक षडयंत्रों वाली सम्पूर्ण देश-समाज में विस्तार लेती स्थितियों का बयान करती ये कविताऐं मनुष्यता का पक्ष चुनते हुए अपने पाठक संवाद करती हुई हैं। मसलन,
भूल जाता हूं मैं/ यह सारी बातें
अवतरित हो जाता है दुखहरन मास्टर भीतर तक

खड़ा होता हूं जब/ पांच अलग-अलग कक्षाओं के
सत्तर-अस्सी बच्चों के सामने।

यहां भय है तो संभावनाओं के खो जाने का है। जिज्ञासाओं के दुबक जाने का है। निराशा और पस्ती के पसर जाने का है। और इसीलिए इस भय से मुक्ति को तलाशने के लिए अतल हो जा रहे तल को खोजने की कोशिश है। उसे ढूंढ निकालने की स्वाभाविक छटपटाहट है। अपने आस-पास की बहुत जानी-पहचानी स्थितियों से टकराना है। पेशे से अध्यापक महेश की चिन्ताओं में इसीलिए वह बुनियादी शिक्षा जो आदर्श नागरिक तैयार करने वाली पाठशालाओं में जारी है, निशाने में होती है। एक दृष्टि संपन्न शिक्षक के भी अप्रत्याशित व्यवहार को निर्धारित करने वाले शिक्षा तंत्र का मकड़ जाल यहां तार-तार होता हुआ है। प्राइमरी शिक्षा को आवश्यक मानने वाले तंत्र का झूठ यहां स्पष्ट दिखने लगता है जब कविता उस दृश्य-चित्र को अपने पाठक के सामने रखती है कि कक्षाओं के दर्जे का मायने क्या जब एक ही पाठ वह भी एक ही अंदाज में सबको पढ़ने को मजबूर होना पढ़े। यानी कुछ के लिए उस एक पाठ का लगातार दोहराया जाना निराशाजनक होकर सामने आये तो दूसरों के लिए उसका नया लेकिन अबूझपन कक्षा से छलांग लगाकर कूदने की दुस्साहसिक घ्ाटना तक पहुंचने को मजबूर करे। प्रकृति की सुुरम्यता का वर्णन भर नहीं बल्कि प्राकृतिक वातावरण की विशेष स्थितियों के बीच दैनिक जीवन की हलचलों को काव्य विशेष बनाती महेश की कविता में बहुत से चरित्र उभरते हैं, पाठक के भीतर जो हमेशा के लिए उसकी स्मृतियांे का हिस्सा हो जाते हैं। सुमित्रानंदन पंत के बरक्स गोपीदास गायक जैसे पात्रों के जिक्र से भरी महेश की कविता का पक्ष एक छोटे से भू-भाग के वंचित, शोषित जन समाज का पक्ष है। स्वंय को हीन मान लेने वाली नैतिक शिक्षाओं वालंे पाठों ने जातिवादी विभेद भरे जिस समाज को रचा है, महेश उसके हर छलावे को बहुत साफ देख पाते हैं और उसे साफ-साफ रख देने की हर संभव कोशिश करते हैं। कहीं-कहीं उनकी कविताओं को शिल्प के लिहाज से कच्चेपन के साथ देखा जा सकता है लेकिन दृष्टि की मौलिकता में वे अनूठी है।  

हो गई है दिन की शुरूआत/बाजार सजने लगी है
सामने मध दा ने भी खड़ा कर दिया है
अपना साग-पात का ठेला
तरतीब से सजाए/ताजी-ताजी सब्जियां
।।।।।।।।
।।।।।।।।।
ब्ास के चलने से पहले तक
छेख लेना चाहता हूं इसे जी भरकर
क्या पता अगली बार
दिखाई दे या नहीं फिर यहां
छोटी होती हुई इस दुनिया में

शराब ने उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर इतना नशा बिखेरा है कि गैर-जिम्मेदार किस्म की मनोवृत्ति वाले पुरूष समाज से हमेशा प्रताड़ित और हर जगह खटती पहाड़ी स्त्री की तकलीफ को और ज्यादा बढ़ाया है। परिवार, बच्चों का भविष्य और अपने समाज की खुशहाली का प्रश्न पहाड़ी स्त्री की चिन्ताओं में हमेशा घ्ार किये रहा है। सेवा-निवृत फौजी को आबंटित होने वाली शराब के नशे की व्याप्तियां सस्ती शराब के लिए गांव भर में ऐसी शराब भटि्टयों के रूप्ा में पैदा हुईं हैं कि भोजन के लिए पैदा होने वाले अनाज तक को नशा पैदा करने वाली खदबदा में स्वाहा कर दिया जाने से अनाज के अभाव में भूखे रह जाने को मजबूर हो जाते गांवों की त्रासदियां न सिर्फ उत्तराखण्ड बल्कि हिमालयी क्षेत्र के दूसरे भू-भागों में भी बहुत आम है। ऐसी विकट स्थितियों के विरोध में ''नशा नहीं रोजगार दो"" - शराबबंदी आंदोलन की आवाज उठाती पहाड़ी स्त्रियों मंें जीवन को बचा ले जाने की अकुलाहट जैसे कितने ही विषय हैं जो हिन्दी कविता में अछूते रहे और उन्हीं आवाजों को महेश की कविताओं सुना-पढ़ा जा सकता है।
हम फालतू नहीं हैं/ न ही हैं हम ऐसी-वैसी औरतें
हम मजबूर औरते हैं जो/ लाख कोशिशों के बावजूद
नहीं ला सकी हैं पटरी में/ अपने शराबी पतियों को।

महेश की कविताऐं उस पहाड़ की कविताऐं हैं, जिसकी आबो-हवा बेशक स्थानीय जन के जीवन में दुश्वारियां भरने वाली हो लेकिन सैलानियों के मनोभावों को सरस बना देती है। जहां तरह-तरह की बे-जरूरत उत्पादों की जरूरत पैदा करवाता बहुराष्ट्रीय पूंजी का चमकदार बाजार कचरे से पूरे भू-भाग को पाट देने की स्थितियां पैदा कर रहा है। ऐसा कचरा जो भौगोलिक संरचना को ही बदल देने पर ही अमामदा है और प्राकृतिक आपदाओं के संकटों से हर वक्त पहाड़ों को ही नहीं, जब-तब स्थानीय जीवन को भी कंपाता रहता है। ऐसे गैर-जरूरी, गैर-सामाजिक, गैर-प्राकृतिक वातावरण को निर्मित करते बाजार के विरुद्ध ही उन पहाड़ी ढलानों को अपनी कविता में पिरोते हुए महेश की कविताऐं प्रतिरोध की नागरिक चेतना होना चाहती है। साग-पात का ठेला लेकर जाता 'मध दा" और उसके जैसे दूसरे कितने ही स्थानीय उद्यमियों द्धारा सजने वाले बाजार के साथ पहाड़ के उस सौन्दर्य को पाठक से शेयर करती हैं जो स्थानीय जन के भीतर भी उत्साह का संचरण कर सकती है।
सामने मध-दा ने भी खड़ा कर लिया है
अपना साग-पात का ठेला
बाजार सजने लगा है।

महेश की कविताओं की विशेषता है कि वे अपने उपजने की पृष्ठभूमि का वर्णन करते हुए स्वंय भी तटस्थ होने का खेल रचती है और उन दर्शकीय चिन्ताओं का हिस्सा होना चाहती जिसके लिए सौन्दर्य के मान दण्ड चम-चमाती दुनिया के रूप्ा में ही मौजूद रहते हैं,
बस के चलने से पहले तक
देख लेना चाहता हूं इसे जी भर कर
क्या पता अगली बार/ दिखाई दे या नहीं फिर यहां
छोटी होती हुई इस दुनिया में।

त्ामाम तरह से जनता के पक्ष को प्रस्तुत करती इन कविताओं पर यदि कोई एक सवाल पूछा जा सकता है तो यही कि सांस्कृतिक होने की 'गैर-सरकारी संस्थाओं वाली" मानसिकता, यूं जिसके आधार पर ही सरकारी नीतियां भी फलीभूत होती हैं, जिसने सारे उत्तराखण्ड को और उत्तराखण्ड के बौद्धिक समाज को अपनी चपेट में लिया हुआ है, उससे महेश भी पूरी तरह मुक्त नहीं। यानी एक गैर-जनपदीय मानसिकता जो सिर्फ दया, करुणा के भावों के साथ सांस्कृतिक झूठ के प्रदर्शन में अपने असलियत के प्रविरोध की किसी भी आशंका को जड़ से मिटा देने वाली चालाकियों में संलग्न है। पोशाक, भोजन और गीत एवं नृत्यों के प्रदर्शनीय संरक्षण वाली स्थितियों में जो खुद को स्थानिकता के पक्ष में बनाये रखना चाहती है। देख सकते हैं तमाम पिछड़ी आर्थिक स्थितियों वाले वे भूगोल जहां संसाधनों की भरमार है और जिन पर कब्जे की लगातार कार्रवाइयां जारी है, ऐसे सांस्कृतिक परिदृश्यों को खड़ा करती वैश्विक पूंजी ने संभावनाशील स्थानिक ऊर्जा को ही अपनी चपेट में लिया है। महेश की कविताऐं भी ऐसी चालाकियों को पकड़ने में चूक जा रही है,

खाना चाहता हूं/ फाफर की बनी रोटी
आलू-राजमा का साग/ छौंक हो जिसमें
सेंकुवा-गंगरैण की।

यहां यह स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है कि विशेष प्राकृतिक उत्पादों की इच्छाओं वाली सांस्कृतिक पहचान का तब तक कोई मायने नहीं जब तक इसे किन्हीं इतर कारणों से विशिष्ट मानने वाले मंसूबों को भी ध्वस्त न किया जाये। महेश की इन चिन्ताओं के मायने कि जैव-विधिता वाले प्राकृतिक उत्पाद बचे रहें, तभी ज्यादा सार्थक हो सकते हैं जब ऐसी ही चालाक भाषा में पांव पसारती वैश्विक पूंजी का भी पर्दाफाश होता हुआ हो, वरना दो भिन्न उद्देश्यों वाली लेकिन सिर्फ कुछ तात्कालिक गतिविधियों की समानता वाली स्थिति में स्पष्ट फर्क करना संभव नहीं।

पुस्तक: भय अतल में
रचनाकार: महेश चन्द्र पुनेठा
मूल्य : 125/-
प्रकाशक: आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद।