डायरी के पुराने पन्नों को
उलट-पुलट के देखता हूँ,
तुम्हारी मुलाकातों का ज़िक्र
अब अतीत में ढूँढता हूँ.
खुद की पकड़ में सूर्यास्त |
सोचता हूँ,
इसी बहाने
तुमसे फिर मुलाक़ात हो जाये,
न वे दिन रहे,न तुम
जब घूमते रहे हम बौराए.
तुम्हारा हँसता-खनकता चेहरा
बाखुदा,अब भी मुझको याद है,
आम के पत्ते जब सिमट गए थे,
गुलाब चू पड़ा था,
तुम्हारी जुल्फ के झोंके से !
बसंत भी ठिठक गया था
निहारकर तुम्हें,
और तुमने उसी अंदाज़ से
अवाक् कर दिया था मुझको !
बिलकुल उसी तरह
अवाक हूँ मैं आज भी ,
इसीलिए
तुम्हें पन्नों में
गर्द पड़े हर्फों में
तलाश रहा हूँ इधर-उधर !
तुम्हारा इंतजार है
हकीकत में
सपनों में,
पर अब तुम खामोश हो
युगों से,
अनजान हो
मेरे एहसास से,
और यह कि तुम तनहा हो !
तुम आओ तो आ जाओ
मेरे लिए,अपने लिए ,
क्या तुम्हें भी इंतजार है
हमारे खामोश होने का ,
मेरी तन्हाई का ?
बाप रे यह तो बड़ी गहन है ....जो बिछड़े वे कब मिले हैं फराज ..फिर भी तू इंतज़ार कर शायद!
प्रत्युत्तर देंहटाएंअत्यन्त भावपूर्ण और अतीतोंमुखी कविता ! वर्तमान यदि तुलनात्मक रूप से असंतोषप्रद हो तो अतीत आह्लाद भरता है ! उससे वे क्षण एक बार फिर से मांग लेना चाहिये जो संतोष दें ! लगता है कि आपकी डायरी इस तरह के मामलात में काफी समृद्ध है यानि कि वर्तमान के भूगोल से अतीत का इतिहास ज्यादा बेहतर प्रतीत होता है :)
हटाएंमान गए हम आप को,रखते सबका मान
हटाएंवर्त्तमान को भी अतीत के हाथो करते दान
अली साब....भूगोल के मामले में मैं हमेशा अनलकी रहा हूँ...अतीत के ही भरोसे जीने की कोशिश जारी है,डायरी में मगर अब कुछ नहीं मिलता !
हटाएंमिश्रजी...यह सब आपकी सोहबत का असर है !
हटाएंयह इंतज़ार बड़ा बेबस कर देता है ... बेहद उम्दा लिखा आपने !
प्रत्युत्तर देंहटाएंइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - किसी अपने के कंधे से कम नहीं कागज का साथ - ब्लॉग बुलेटिन
हटाएंआभार शिवम भाई !
हटाएंयादों की घनी छाँव तले लिखी गाई गहन अभिव्यक्ती .....मर्मस्पर्शी है ...
प्रत्युत्तर देंहटाएंशुभकामनायें ....!
यादों की यह छाँव ही,जीवन का आधार
हटाएंखुसनसीब होते यहाँ, जो पाते हैं प्यार
अनुपमजी...आभार आपका और शुभकामनाएँ भी !
हटाएंbahut sundar bhavatmak prastuti.मंज़िल पास आएगी.
प्रत्युत्तर देंहटाएंशुक्रिया शालिनी जी !
हटाएंयादों के आँगन में दिल के रास्ते स्मृतियों की आवाजाही का संवेदनशील चित्रण !
प्रत्युत्तर देंहटाएंदिल के आँगन में स्मृतियों का बाजार लगायेगें
हटाएंआज यहाँ कल और कही पर हम दूकान सजायेगें
आभार प्रेम भाई !
हटाएंमाट्साब!
प्रत्युत्तर देंहटाएंदोनों तनहा हैं अपनी-अपनी दुनिया में..
शायद पूर्णता तभी संभव है जब दोनों तन्हाइयां मिल जाए.. शून्य के साथ शून्य मिलकर ही परिपूर्ण बनता है! लगता है पिछली यात्रा में गाँव की पुरबाई छूकर गुजारी है!! बरकरार रखिये!!
बनने आये कुछ यहाँ,क्यां बन बैठे, यार
हटाएंशून्य मिला के पूर्ण की रचना की साकार
सलिलजी....आप गहरी नज़र रखते हैं...आभार
हटाएंपुरानी यादों की कशिश तड़पाती भी है और जिलाए भी रखती है...भावुक कविता
प्रत्युत्तर देंहटाएंसच कहना है आप का नारी ठहरीं आप
हटाएंबात काट कर आप की,लेना है क्यां श्राप
दीपिका जी....अतीत के सहारे ही समय व्यतीत हो रहा है !
हटाएंउफ़ !!
प्रत्युत्तर देंहटाएंबहुत मुश्किल,
समझाना दिल ।
आज भी हुलकता-
अब तो मिल ।।
इतना मत हुलाकाइये,दिल आखिर है दिल
हटाएंहोश उडा ले जाएगा ,माशूका का बिल
रविकर भाई,बहुत आभार !
हटाएंतडपते थे हम एक दिन अपने प्यार में कभी,
प्रत्युत्तर देंहटाएंमुझको भुला के तुम वह दिन न भुला सकोगी!
अनुपम भाव लिए पुरानी यादो की कशिश में लिखी सुंदर रचना...बेहतरीन पोस्ट संतोष जी
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
आप यहाँ भी आ गये ,देने को संतोष
हटाएंअरे संभल भी जाइये,घर में फैला रोष
धीरेन्द्र भाई ,शुक्रिया !
हटाएंसोचता हूँ,
प्रत्युत्तर देंहटाएंइसी बहाने
तुमसे फिर मुलाक़ात हो जाये,
bahut sundar srijan, aabhaar.
इतना भी मत सोचिये,बहुत बड़ा ये रोग
हटाएंकही आप को लग गया,भूलेगा हर भोग
शुक्ल जी शुक्रिया !
हटाएंयादों की बरसात में ,भीग रहे क्यूँ यार
प्रत्युत्तर देंहटाएंघर वापस भी जाइये,वही मिलेगा प्यार
..आभार दोहा-वीर साब !
हटाएंबहुत सुंदर................
प्रत्युत्तर देंहटाएंडायरी के पन्नो में जाने क्या क्या छुपा होता है......
सादर.
पन्नो में क्यां क्या लिखा पढ पाते जो यार
हटाएंकहते सबसे बस यही नहीं करेगें प्यार
अनु जी,पर आपकी डायरी ज़्यादा समृद्ध है !
हटाएंतुम आओ तो आ जाओ
प्रत्युत्तर देंहटाएंपहले भी ऐसे ही भगाते थे
बुलाते थे और जाने के लिए
जाओ कहकर जोर से चिल्लाते थे
इसलिए अब दोबारा आना
नहीं है पॉसीबल
अब नहीं है किसी में इतना बल
कि आए और फिर जाए
अब इतना चला नहीं जाता
आएंगे तो ठहरेंगे
ठहरेंगे तो अगले दिन भी
नहीं जाएंगे
फिर आप शोर मचाओगे
अतिथि कब जाओगे
जबकि हम अतिथि नहीं हैं
आपने बुलाया है
पर जाओ पहले ही सुनाया है।
इतना सब कुछ हो गया कहाँ रहे सरकार
हटाएंअब आये हो यार तो छोड़ो हर तकरार
:):):)
हटाएंसदा रहो अविनाश.....यूँ ही बचा रहे कुछ हास !
हटाएंमाफी सबसे चाहता ,माफ करेगें यार
प्रत्युत्तर देंहटाएंइसी बहानें चाहता आप सभी का प्यार
कल कहाँ मिलूगा इंतजार करिये....शुभ रात्रि
हटाएंकुछ लोग अपने निशान छोड़ने में समर्थ होते हैं, शुभकामनायें विजय सिंह !
हम जहाँ पंहुचें वहां कुछ ख़ास लगना चाहिए,
हम विदा हो जाएँ तो पदचिन्ह रहने चाहिए !
आते ही कर दी विजय,दोहों की बौछार,
हटाएंरविकर भाई की तरह,लिया नया अवतार !!
सतीशजी,
हटाएंआप जहाँ जाते हैं,खुशहाली छा जाय,
कविता पूरे रंग में ,संग पधारे आय!
यह नज़र आप जैसे मित्रों की है , अन्यथा कई लोग बड़े खफा रहते हैं ...
हटाएंनज़र नज़र का फर्क है !
दोस्तों की दुआएं चाहिए !
आभार भाई जी ...
बहुत ही सुंदर और प्यारी कविता... मन के भावों का मंद मंद झोंका मन प्रसन्न कर गया.
प्रत्युत्तर देंहटाएंतुम आओ तो आ जाओ
प्रत्युत्तर देंहटाएंमेरे लिए,अपने लिए ,
क्या तुम्हें भी इंतजार है
हमारे खामोश होने का ,
मेरी तन्हाई का ?
.............इस आभास को बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है!
...जय हो आपकी !
हटाएंबसंत भी ठिठक गया था
प्रत्युत्तर देंहटाएंनिहारकर तुम्हें,
और तुमने उसी अंदाज़ से
अवाक् कर दिया था मुझको !.... बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति
...आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.......
प्रत्युत्तर देंहटाएं...कभी इस देश में भी आ जाओ !
हटाएंdiary mehi shi, khin to sanjo rakha hai:)
प्रत्युत्तर देंहटाएंpyari see rachna.....
शुक्रिया मुकेश जी !
हटाएंडायरी के पन्नों से निकल के साक्षात सामने आ जाएँ और फिर हम दोनों उन लम्हों में खो जाएँ ...
प्रत्युत्तर देंहटाएंगजाब का एहसास है ...
...यही विश्वास है !
हटाएंवक़्त बदला न बदला, कोई बात नहीं
प्रत्युत्तर देंहटाएंतू जो बदला तो मैं टूट के गिर जाऊंगा
क्या बात है ???
हटाएंराह तके हैं, थाल सजाये, सुख आता ही होगा, घर में।
प्रत्युत्तर देंहटाएंइसी आस में,हर इक साँस में,उसको ही महसूस कर रहा...!
हटाएंपुकार दिल से होगी तो वे जरूर आयेंगी । सुंदर रचना ।
प्रत्युत्तर देंहटाएं...वे आ जाएँगी तो फिर यह रचना नहीं रहेगी !
हटाएंभाउक दिल की मीठी पुकार।
प्रत्युत्तर देंहटाएंवैसे मैं जब अपने डायरी के पुराने पन्ने पलटता हूँ तो मनाता हूँ...
तू आये तो
तू ही आये
पूरी
वैसी की वैसी
जैसी थी
तीस साल पहले :)
...भाई,उसकी कोई उम्र नहीं,कोई मियाद नहीं,
हटाएंजब भी कोई देखे,सदाबहार दिखे !
यानि किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है !
प्रत्युत्तर देंहटाएंइंतज़ार में जो सुख है , वह मिलन में नहीं ।
बाकि तो देवेन्द्र जी ने दुखती रग पर हाथ रख ही दिया ।
डॉ.साब ,मिलन में आनंद नहीं है,इसीलिए श्रृंगार रस में वियोग का अलग ही मजा है !
हटाएंकृपया अवलोकन करें
प्रत्युत्तर देंहटाएंvijay9: आधे अधूरे सच के साथ .....
बहुत खूब अभिव्यक्ति !! सच कहा आपने, कि वो आ जाएगी तो रचना नहीं रह जाएगी, वियोग ही रचना को जन्म देता है !
प्रत्युत्तर देंहटाएंरचना तो आ ही गई है,अभी तक नहीं थी...!
हटाएंjab bhi apni poorani diary dekho,, ansu aane lagte hai...
प्रत्युत्तर देंहटाएंआभार रूचि जी !
हटाएंकृपया अवलोकन करे ,मेरी नई पोस्ट ''अरे तू भी बोल्ड हो गई,और मै भी''
प्रत्युत्तर देंहटाएं'बोल्ड' से ज़रा बच रहे हैं आजकल !
हटाएंबहुत खूब ..... मन के सरल भावों को सुंदर शब्द दिए .....
प्रत्युत्तर देंहटाएंशुक्रिया मोनिका जी !
हटाएंगुलाब चू पड़ा था,
प्रत्युत्तर देंहटाएंतुम्हारी जुल्फ के झोंके से !
सुंदर...
शुभकामनायें आपको !
आपके आशीर्वाद की ज़रूरत है...!
हटाएंअद्भुत एहसास - उन लम्हों का.... मजेदार.. सादर.
प्रत्युत्तर देंहटाएंजोशी जी स्वागत है !
हटाएंबसंत भी ठिठक गया था
प्रत्युत्तर देंहटाएंनिहारकर तुम्हें,
और तुमने उसी अंदाज़ से
अवाक् कर दिया था मुझको !
वाह .......
बेहतरीन रचना
अरे विजय जी यहाँ भी ..........
विजय जी ने बरसात कर दी,आपने भेजा था क्या ?
हटाएंआभार विक्रम भाई !
कभी- कभी किसी एक के न होने से कितना सूनापन हो जाता है.
प्रत्युत्तर देंहटाएंभावुक करती कविता.
बहुत दिनों बाद दिखाई दिए...आभार आपका !
हटाएंबहुत खूब
प्रत्युत्तर देंहटाएंशुक्रिया जी !
हटाएंसोचता हूँ,
प्रत्युत्तर देंहटाएंइसी बहाने
तुमसे फिर मुलाक़ात हो जाये,
न वे दिन रहे,न तुम
जब घूमते रहे हम बौराए.
....सब समय के फेर है ....
बीते लम्हें यूँ ही देर सबेर मन में उमड़-घुमड़ उठते हैं ..
बहुत बढ़िया रचना
आभार कविता जी !
हटाएंबैसवारी जी कहाँ छुप कर बैठे आप ,
प्रत्युत्तर देंहटाएंकविता वाली दे गई,लगता लाली पाप .
...हमें तो लगा था कि कविता वाली आप ही हैं !
हटाएंअरे नही ऐसा मत करना,शाक लगेगा मुझको तगड़ा
हटाएंब्लॉग जगत को मिल जायेगा,मिर्च -मशाला तगड़ा
मानी नेक सलाह आपकी,नाम बदल है डाला
पीने वाले कही आ गए,मुझे समझ मधु-शाला
Bahut hi Sundar prastuti. Mere post par aapka intazar rahega. Dhanyavad.
प्रत्युत्तर देंहटाएंप्रेम भाई ! आपके पास कित्ते निमंत्रण-कार्ड हैं ?
हटाएंआभार !
कार्ड बहुत रखते भाई जी ,भले कार्ड न चलते
हटाएंभरत संग उर्मिला मिलाया,तुलसी की न सुनते ?
kuch rishte sirf yaadon aur panno mein hi simat kar rah jate hai...sundar prastuti
प्रत्युत्तर देंहटाएंशुक्रिया....पंछी जी उर्फ मोनिका जी !
हटाएंलीजिए हम भी आ गए।
प्रत्युत्तर देंहटाएं...अब मेरा उत्साह बढ़ गया :-)
हटाएंतुम्हारा हँसता-खनकता चेहरा
प्रत्युत्तर देंहटाएंबाखुदा,अब भी मुझको याद है,
आम के पत्ते जब सिमट गए थे,
गुलाब चू पड़ा था,
तुम्हारी जुल्फ के झोंके से !
बहुत ही बेहतरीन कविता, सुन्दर भाव लिये, उस भूमि का प्रभाव है जहाँ से आप है,हिन्दी भाषा के नए रूप के जनक परम पूज्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की धरा से,j