Wednesday, February 26, 2014

न्याय के मंदिर में पंडागीरी

जब भी सरकारी पक्ष की पैरवी करने किसी अदालत में जाता हूँ मन परेशान हो जाता है। न्याय के जिन मंदिरों में स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका के कर्णधार न्यायमूर्ति अपने फैसलों से देश के आम नागरिकों को भारतीय लोकतंत्र के प्रति आस्था बनाये रखने का संबल देते हैं उन्हीं के अहाते, बरामदों और गलियों में विधि व्यवसाय की दुकानें खोलकर या दूसरे आनुषंगिक घंधों से रोजी-रोटी का जुगाड़ करने वालों को देखकर मथुरा और विंध्याचल के पंडे याद आ जाते हैं।

एक दुखियारी पार्टी, एक गर्जमंद ग्राहक, एक बदहवास मुवक्किल, एक परेशान सरकारी मुलाजिम के रूप में आप जब न्यायालय की शरण में जाते हैं तो आपको माननीय न्यायमूर्ति के दर्शन हो न हों लेकिन उनके प्रांगण में काम करने वाले तमाम ऐसे कर्मचारियों का सामना करना पड़ता है जो आपकी मजबूरी को भुनाने की ताक में रहते हैं। सरकार द्वारा निर्धारित फीस चुका भर देने से न तो आपको अपनी फाइल देखने को मिलेगी और न ही सरकारी वकील आपका मुकदमा लड़ेगा। अपनी जेब से यदि आप ‘खर्चा-पानी’ के नाम पर कुछ ढीला करने को तैयार नहीं हैं तो एक साधारण शपथ पत्र दाखिल करने में आपको नाकों चने चबाने पड़ सकते हैं। कई-कई दिन तक वकील साहब को आपका शपथपत्र डिक्टेट करने के लिए समय नहीं मिलेगा। उसके बाद स्टेनो साहब को खुश नहीं किया तो उन्हें दूसरे तमाम काम आ जाएंगे और आपकी सी.ए. टाइपिंग का इन्तजार करती रहेगी। उसके बाद ‘ओथ कमिश्नर’ का हक-महसूल अलग है। जबकि इन सभी कार्यों के लिए उन्हें बाकायदा सरकारी फीस मिलती है।

कदाचित्‌ इन परेशानियों के कारण ही सरकारी मुकदमों की पैरवी बहुत कठिन हो जाती है। कार्यपालिका के निचले स्तर पर सरकारी मुकदमों के प्रति खुब लापरवाही बरती जाती है। अधिकारी प्रायः कोर्ट की ओर तबतक रुख नहीं करते जबतक अवमानना की नोटिस न मिल जाय। कुछ खुर्राट तो ऐसे हैं जो वैयक्तिक हाजिरी (Personal Appearance) की नोटिस मिलने से पहले नहीं हिलते। सरकार के विरुद्ध जो पार्टी कोर्ट में जाती है उसे तो अपनी जेब से खर्च करके मनचाहा वकील रखने और जोरदार पैरवी करने का सुभीता है; लेकिन सरकार की ओर से जो वकील एलॉट किये जाते हैं और शासन से जो मुकदमा लड़ने की अनुमति लेनी होती है उसमें निहित जद्दोजहद आपको हतोत्साहित करती है। ऐसे में अगर कमजोर पैरवी करने से व्यक्तिगत लाभ मिलने लगे तो क्या कहने। ऐसे बहुत से उदाहरण देखने में आते है।

सरकारी अधिकारी के रूप में जब मैं मूलभूत प्रशिक्षण ले रहा था तो एकदिन उच्च न्यायालय के एक बेहद प्रतिष्ठित माननीय न्यायमूर्ति हम लोगों को पढ़ाने आये थे। उन्होंने कोर्ट केस के प्रति हमारी जिम्मेदारियों के बारे में बताया और समय से कोर्ट में जवाब लगा देने की सलाह दी। इससे पहले मुझे शिक्षा विभाग में काम करने का थोड़ा अनुभव था; जिसके आधार पर मैंने उनसे एक ऐसी समस्या साझा की जिसका संतोषजनक समाधान वे नहीं दे पाये; सिवाय इसके कि इस विडम्बना का ठीकरा अधिकारियों के सिर फोड़ दिया। पहले इस समस्या को संक्षिप्त रूप में बताता हूँ-

शिक्षकों के वेतन के लिए सरकारी अनुदान प्राप्त करने वाले निजी प्रबन्धतंत्र के विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड बना है जो प्रतियोगी परीक्षा और इंटरव्यू के आधार पर शिक्षकों का चयन करता है। इन चयनित शिक्षकों को विद्यालय के प्रबंधक द्वारा नियुक्त किया जाना होता है। लेकिन बहुत से खुर्राट प्रबन्धक इन अभ्यर्थियों को नियुक्ति पत्र देकर कार्यभार ग्रहण नहीं कराते  हैं; बल्कि शासन की रोक के बावजूद अपनी पसन्द के शिक्षक (भाई-भतीजा या धनकुबेर) की फर्जी नियुक्ति कर ली जाती है। इनके नियन्त्रक अधिकारी जिला विद्यालय निरीक्षक द्वारा इस नियुक्ति की मान्यता नहीं दी जाती है, लेकिन वे इस फर्जी नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया के दौरान मौन रहते हैं। प्रबन्धक अपने अभिलेखों में उन्हें सूचित करने के रिकार्ड बना कर रखता रहता है। एक दिन अचानक उस फर्जी शिक्षक के वेतन भुगतान हेतु बिल जिला विद्यालय निरीक्षक के कार्यालय में प्रस्तुत कर दिया जाता है। इस फर्जी नियुक्त शिक्षक का वेतन भुगतान नहीं किया जाता है। कुछ समय बाद दबाव बनता है तो जिला विद्यालय निरीक्षक इस आशय का एक आदेश पारित करते है कि अमुक शिक्षक की नियुक्ति नियमानुसार नहीं होने के कारण निरस्त की जाती है। इस आदेश को लेकर प्रबन्धतंत्र कोर्ट की शरण में जाता है। रिट याचिका की सुनवायी के पहले दिन माननीय न्यायमूर्ति द्वारा ‘पीड़ित शिक्षक’ की बात सुनने के बाद कहा जाता है कि नोटिस जारी करके जिला विद्यालय निरीक्षक से पूछा जाय कि उन्होंने नियुक्ति क्यों निरस्त की; साथ ही तदनन्तर जिला विद्यालय निरीक्षक द्वारा जारी निरस्तीकरण आदेश स्थगित कर दिया जाता है। यह ‘स्टे-ऑर्डर’ लेकर शिक्षक विजयी मुद्रा में लौटता है क्योंकि उसे पता है कि न्यायालय की अगली प्रक्रिया इतनी लंबी और थकाऊ है कि कोर्ट का अंतिम फैसला आने में दस-पन्द्रह साल लग सकते हैं। इस बीच डीआईओएस साहब की मेहरबानी से सरकारी पैरवी कमजोर करा दी जाती है और कोर्ट की मेहरबानी से एक फर्जी नियुक्त शिक्षक सरकारी वेतन पाने लगता है।

माननीय न्यायमूर्ति से मेरा प्रश्न यह था कि क्या माननीय न्यायालय को अपने स्टे-ऑर्डर का इस प्रकार किये जा रहे दुरुपयोग का संज्ञान नहीं लेना चाहिए। न्यायहित में दिया गया अंतरिम स्थगनादेश वास्तव में इतना लाभदायक हो जाता है कि कई बार इस लूट में सरकारी अधिकारी भी हिस्सेदार हो जाते हैं। कदाचित यह मुकदमा एक नूराकुश्ती बनकर रह जाता है। वकील तो इस प्रणाली के विशेषज्ञ के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं। इसके जवाब में जज साहब ने कार्यपालिका के फेल हो जाने, चयनबोर्ड द्वारा अपना काम न कर पाने तथा विद्यालय में शिक्षकों की आवश्यकता पूरी करने हेतु प्रबन्धक को जिम्मेदार बताने जैसे कारण गिना डाले। मैं आज भी देखता हूँ कि जो कानूनी दाँवपेंच जानते हैं वे कोर्ट के आदेश से कदाचित्‍ अनियमित कार्य को नियमित बना डालते हैं। सरकारी पैरवी कमजोर होना उसका महत्वपूर्ण कारण तो है लेकिन क्या न्यायपालिका को इस प्रवृत्ति के प्रति सतर्क होकर निरोधात्मक कार्यवाही नहीं करनी चाहिए? न्यायिक सुधार आयोग को इस प्रश्न पर विचारकर कुछ ठोस सुझाव देने चाहिए।

(सत्यार्थमित्र)
satyarthmitra.com

Wednesday, January 29, 2014

यह रिपोर्ट विचलित करती है

आज के अखबार में ये विचलित करने वाले आंकड़े देखने को मिले- भारत में गरीब घरों के वे बच्चे जो लगातार चार साल स्कूल जाते रहे उनमें से 90 प्रतिशत बच्चे साक्षर ही नहीं हो सके। यही नहीं पाँच से छः साल तक स्कूल जाने के बावजूद 30 प्रतिशत बच्चों को अक्षर ज्ञान नहीं हो सका। ग्रामीण क्षेत्रों में कक्षा-पाँच में पढ़ने वाले महाराष्ट्र के 44% विद्यार्थियों और तमिलनाडु के 53% विद्यार्थियों को दो अंको का जोड़-घटाना नहीं आता। बाकी राज्यों में भी हालत खराब ही है। ग्रामीण भारत की गरीब लड़कियों को शतप्रतिशत साक्षर बनाने में अभी 66 साल और लगेंगे। ssa-logo

ये शर्मनाक आंकड़े काल्पनिक नहीं हैं और न ही किसी पार्टी विशेष को लक्ष्य करके तैयार किये गये हैं। भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में संचालित सर्व शिक्षा अभियान को अरबो रूपये की आर्थिक मदद देने वाली संस्था यूनेस्को की 11वीं ग्लोबल मॉनीटरिंग रिपोर्ट में ये आंकड़े बताये गये हैं। स्वतंत्र एजेन्सियों द्वारा किये गये सर्वेक्षण पर आधारित ये आंकड़े हमारी प्रशासनिक असफलता और शिक्षा के प्रति लापरवाह दृष्टिकोण को उजागर करते हैं।

यह रिपोर्ट बताती है कि सर्व शिक्षा अभियान के जो लक्ष्य तय किये गये थे उनमें से अधिकांश 2015 तक पूरे नहीं किये जा सकेंगे। यह भी कि दक्षिण-पश्चिम एशिया के देशों में प्राथमिक, जूनियर हाईस्कूल व हाईस्कूल स्तर पर गरीब और वंचित वर्ग के शत प्रतिशत बच्चों को साक्षर और शिक्षित करने की रफ़्तार बहुत ज्यादा धीमी है। भारत में आर्थिक रूप से संपन्न घरों की लड़कियाँ तो शत प्रतिशत साक्षर हो गयी हैं लेकिन गरीब घरों की लड़कियों को शत प्रतिशत साक्षर करने का लक्ष्य सन्‌ 2080 से पहले पूरा होता नहीं दिखता।

इस रिपोर्ट में यह विश्लेषण भी किया गया है कि समाज के हाशिये पर रहने वाले बच्चों को अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा देने के लिए सरकारे पर्याप्त खर्च नहीं कर पा रही हैं। एक बच्चे पर खर्च की जाने वाली औसत राशि की तुलना उसे अच्छी शिक्षा देने के लिए आवश्यक राशि से की गयी तो स्थिति बहुत खराब पायी गयी। भारत के आंकड़ों के अनुसार अपेक्षाकृत धनी राज्य केरल में प्रति बालक 685 डालर खर्च किये गये जबकि बिहार में प्रति बालक मात्र 100 डालर की ही व्यवस्था की जा सकी।

इस रिपोर्ट के मुताबिक सभी बच्चों को स्कूल तक पहुँचा देने के लक्ष्य को हासिल करने में भारत अग्रणी रहा है लेकिन स्कूल में उन्हें प्राथमिक स्तर की शिक्षा वास्तव में मिल भी जाय इसकी ओर जैसे कोई ध्यान ही नहीं गया। पूरी दुनिया के करीब 25 करोड़ बच्चे स्कूल जाने के बावजूद निरक्षर हैं और इनमें से एक तिहाई दक्षिण-पश्चिम एशिया के देशों में हैं। इस बेहद निराशाजनक स्थिति में भारत प्रमुख रूप से सम्मिलित है।

ssaशैक्षिक स्तर में प्रगति अत्यन्त धीमी है, खासकर वंचित वर्ग के बालको में। गणित में तो उनकी हालत बहुत ही खराब है। ग्रामीण क्षेत्रों के अध्ययन में यह बात स्पष्त रूप से सामने आयी कि आर्थिक रूप से संपन्न राज्यों में शिक्षा का स्तर गरीब राज्यों की अपेक्षा बहुत बेहतर है। लेकिन महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे संपन्न राज्यों में भी गरीब घरों की लड़कियाँ शैक्षिक रूप से बहुत पिछड़ी हुई हैं।

बच्चों द्वारा कक्षा-पाँच में पहुँचने से पहले ही स्कूल छोड़ देने का प्रतिशत सीधे तौर पर गरीबी से जुड़ा है। गरीब राज्यों से और गरीब परिवारों के बच्चे स्कूल में टिके रहना ज्यादा कठिन पाते हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे ड्रॉप-ऑउट्स की संख्या 70% और मध्य प्रदेश में 85% पायी गयी।

प्रथमिक स्तर पर शिक्षा के इस संकट का सबसे बड़ा कारण शिक्षकों पर कुशल प्रशासन का अभाव बताया गया है। स्कूल से गैरहाजिर रहने वाले अध्यापकों का प्रतिशत संपन्न राज्यों में 15% (महाराष्ट्र) और 17% (गुजरात) से लेकर विपन्न राज्यों में 38% (बिहार) और 42% (झारखंड) तक है।

इन आंकड़ों को देखकर यह सुनिश्चित जान पड़ता है कि दुनिया चाहे जितनी कोशिश कर ले, हम भारत के लोग विकसित होने को कतई तैयार नहीं हैं। हमें जो भी अवसर मिलेगा हम उसे अपनी मक्कारी, जाहिली और क्षुद्र स्वार्थों की भ्रष्ट बलि-बेदी पर चढ़ा देंगे और झूठी आत्मप्रशंसा के नारे गढ़कर जश्न मनाते रहेंगे। दुनिया वालों हमारा क्या कल्लोगे...?

(सत्यार्थमित्र)
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Thursday, January 23, 2014

यूँ छोड़कर मत जाइए (तरही ग़जल-III)

यह तरही नसिश्त का सिलसिला भी बड़ा मजेदार है। देखते-देखते आप शायर बन जाते हैं, कुछ बातें तुकबन्दी में जोड़ते-जोड़ते पूरी ग़जल बन जाती है। मेरे साथ ऐसा तीसरी बार हुआ है| रायबरेली कलेक्ट्रेट के पास बने रैन बसेरा में जुटे शायरों के बीच मैं नौसिखिया भी पहुँच गया जहाँ उस्ताद नाज़ प्रतापगढ़ी ने ‘तरह के मिसरे’ पर आयी प्रविष्टियों को सुना और बारीकी से इनकी खूबियाँ और खामियाँ समझायी। मेरी रचना यह रही-
यूँ छोड़कर मत जाइए

जख़्मी है दिल बहलाइए
यूँ छोड़कर मत जाइए
यह चोट ताजा है अभी
कुछ देर तक सहलाइए
घर आपकी खातिर खुला
जब जी करे आ जाइए
है प्यार भी नफ़रत भी है
दिल की दुकाँ में आइए
कर ली सितम की इंतिहा
अब तो करम फरमाइए
रखते हैं हम भी दिल बड़ा
इक बार तो अजमाइए
इक आस थी तो चैन था
क्यूँ कह दिया घर जाइए
(2)
जो आम थे अब खास हैं
थोड़ा अदब दिखलाइए
मर जाएगा अनशन में वो
जैसे भी हो तुड़वाइए
अनशन से होंगे फैसले?
अब और मत भरमाइए
धरना प्रदर्शन कर चुके
अब काम भी निपटाइए
दिल्‍ली में कितना दम बचा
इक और सर्वे लाइए
लो टूटकर जाने लगे
इनको टिकट दिलवाइए
माना प्रवक्ता हो गये
फिर भी शरम दिखलाइए
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
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