बड़े मनुहार के बाद बारिश आयी है। अपने लाव लश्कर के साथ। सब ताम-झाम साथ लाई हैं वर्षा महारानी। अकेले चलना उनको सुहाता भी नहीं। वे वी आई पी की तरह आयी हैं। वीआईपी देर से आता है लेकिन ताम-झाम साथ में लाता है। बारिश भी तमाम बवाल संलग्नक की तरह लाई है। रास्तों पर पानी, याद आई नानी। सड़कों पर जाम, नगरवासी हलकान। मकान गिरा धड़ाम, कित्ते निपट गये हाय राम।
बारिश आते ही लोगों के मन-मयूर नृत्य करने लगे। जिन लोगों ने मोर नाचते हुये नहीं देखे वे इसे मन नचबलिये हो गया हो गया पढ़ें। बारिश होते ही तमाम लोग सरोज खान की तरह सीटी बचाने लगे। भीगने का प्लान बनाने लगे। भीगते ही कपड़े सुखाने लगे। सड़कें पानी से धुल गयीं। तमाम सड़कें तो धुलते-धुलते खुल गयीं। पानी को देखते ही सड़कों के मन जमाखोर से हो गये। उन्होंने अपने-अपने सीने खोल दिये पानी के स्वागत में। पानी की हवस में टूट गयीं लेकिन पानी को नाली तक जाने नहीं दिया। सच तो यह है कि नालियां हैं ही नहीं। शहरों में नालियां प्राइमरी हेल्थ क्लीनिक के डाक्टरों सी नदारद दिखती हैं हमेशा।
सड़क पर पानी को अकेले डर लगता है। उसने सड़क पर खुदी सीवर लाइन की मिट्टी से गठबंधन कर लिया है और कीचड़ बन गया है। कीचड़ गढ्ढों में गुम्म-सुम्म सा बैठ गया है। कोई सवारी आती है उससे मिलने तो छटककर गढ्ढे से दूर भाग जाता है। सवारी दूर जाते ही फ़िर वापस आ जाता है।
बारिश आते ही अखबारों के संवाददाता कैमरा लेकर नीचे इलाकों की तरफ़ टूट पड़ते हैं। उलटे-पुलटे ट्रक,धंसी सड़कों, दरके मकान , तालाब बने पार्क की फ़ोटो लेकर अखबारों में सटाने लगते हैं। एक महिला की तस्वीर में दिखाया है कि वह पानी के बीच स्कूटर हाथ से घसीटकर जा रही है। ऐसे में गंदगी दिख जाये पानी के किनारे फ़ोटोग्राफ़र को तो सोने में सुहागा। लेकिन पानी जब तेज बहता है तो गंदगी को भी अपने साथ ले लेता है। कहां अकेले बोर होगी -चल मेरे साथ। कहीं गप्पे लड़ायेंगे। दो-चार दिन ऐश करेंगे। सूखे में साथ नसीब न हुआ तो क्या। बारिश में तो साथ रह ही सकते हैं।
एक आटो वाला सवारी लादे एक पानी भरे गढ्ढे के बगल से मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर निकल रहा है। गढ्ढा पार ही होने वाला है तब तक एक बस बगल से आकर सड़क का सारा कीचड़ उठाकर उसके ऊपर फ़ेंककर बेशरम सी आगे चली जाती है। आटो में बैठी सवारी बस वाले को कोसने की सोचती है लेकिन अचानक सड़क पर आये गढ्ढे के कारण आटो सहित टेढ़ा होने पर अपने दूसरी तरह मेढा हो जाती है। आटो के सीधा होने और बच जाने के सुकून की सांस लेती है । बस से मिला कीचड़ भी इस सुकून कर्म में साथ देता है। मुसीबत में साथ देने के कारण वह कीचड़ के प्रति कटुता भुला देती है। उसने मुसीबत में साथ जो दिया है।
मुसीबत में साथ देने वाली मुसीबत भी हमें प्यारी लगती है।
धार-धार हो रही बरसात छतों को उलाहना देते हुये कह रही हैं अरे नामुरादियों अब न टपकोगी तो कब टपकोगी। छतें बरसात के बहकावे में आकर टपकने लगी हैं। दरारें पानी की संगत पाकर चौड़ी हो रही हैं और मीरजाफ़र बनी अपने बीच से पानी को घर में जाने का रास्ता दे रही हैं। घर के पुराने बर्तन मुसीबत में पुरानी कहावतों की तरह काम आ रहे हैं। लोग उनको यहां से वहां और वहां से फ़िर वहां न जाने कहां-कहां लिये टहल रहे हैं। बाहर होती बारिश से लोग अंदर तक दहल रहे हैं। इस कमरे से उस कमरे में टहल रहे हैं।
साल भर बारिश की बाट जोहने वाले और उसमें भीगने की तमन्ना रखने वाले कवि-कवियत्रियां अपने-अपने घर में घुसकर कविताओं/गजलों का मसौदा बनाने लगे हैं। वे उन देश भक्त नेताओं की तरह लग रहे हैं जो किसी आतंकी हमले के समय जेड सुरक्षा की गोद में दुबक में जाते हैं।
एक कवि अपने घर में सुरक्षित बैठा सामने की मूसलाधार बारिश का फ़ोटोस्नैप लेकर उसको बहुत पहले की अपने याद-कबाड़ की झोपड़ी के स्नैप शाट से मिलाता है। प्रभाव लाने के लिये याद-कबाड़ की झोपड़ी में दो-चार छेद करता है और उसमें से पानी अंदर घुसाकर सब गीला-सीला करके गीली-सीली कवितायें रच डालता है।कविता में मार्मिकता लाने के लिये वह उसमें डेढ़ किलो दर्द मिलाता है। झोपड़ी के बच्चे के कपड़े फ़ाड़कर उसकी मासूम हंसी को अनदेखाकर उसमें अपनी बेबसी चस्पा करता है और कविता फ़ाइनल कर देता है। उसके चेहरे पर सृजन का दर्द फ़ैला हुआ है।
बारिश अभी खतम नहीं हुई सो कवि फ़िर दूसरी कविता रचने लगता है। इसमें वह बच्चे की मुस्कान को उसके पास ही छोड़ देता है और बिजली की चमक को चपला बताकर लिखता है कि वह(बिजली) उसके (बालक के ) दांतों की चमक से हीन भावना ग्रस्त होकर धरती पर सरपटक कर आत्महत्या कर लेती है।
एक दूसरा कवि नये मूड की कविता लिखने की जिद पाले पन्ने-पन्ने पर बरबाद किये जा रहा है। कविता उसे सूझ नहीं रही है जैसे हमें अपने देश की आबादी, अशिक्षा, गरीबी, बिजली,पानी की समस्यायों के हल नहीं सूझते। अचानक वह एकदम नये मूड में आकर हायकू रचने लगता है:
पानी बरसा,
छत टपक गई
अरे बाप रे!मिट्टी थी जो,
कीचड़ बन गई,
अरे बाप रे!दरारें बोली,
मेरे पानी भइया
धीरे निकलो!छाता चहका,
सुन मेरी छतरी
पूरी बिक जा!
कवियत्रियां भी कविता रत हैं। कुछ बारिश में मायके को याद कर रही हैं। कुछ अपनी सहेलियों को और बाकी अपने दोस्तों को। बरसते पानी में उनको कविताओं के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा है। मायकों के नीम के पेड़ पर पड़े झूले पर न जाने कितनों ने अपनी कवितायें टांग दी हैं। नीम के पेड़ पर कविताओं का जाम सा लग गया है। ट्रैफ़िक आगे बढ़ ही नहीं रहा है।
एक तो कवियत्री तो बारिश के बिम्ब तलाशने के लिये अपने आफ़िस में ही नेट आन करके बैठ गयी है। संयोग से उसी समय उसकी सहेली भी आनलाइन हुई और दोनों बतियाने लगीं। होते करते एक ने सलाह दी कि बारिश में प्रियतम पर भी तो कविता लिखी जा सकती है। अगली ने ’नाट अ बैड आइडिया’ कहते हुये उससे प्रियतम का ’इक्जैक्ट मीनिंग’ पूंछ लिया। उसने बताया कि प्रियतम माने सबसे ज्यादा प्यारा। फ़िर तो उनके बीच प्रियतम पर शब्द चर्चा होने लगी। देखिये आप भी:
सहेली नं १: आर यू श्योर कि प्रियतम माने सबसे प्यारा होता है?
सहेली नं २: या आई थिंक सो। नाट १००% श्योर। बट मेरे ख्याल में यही होता है।
सहेली नं १: लेकिन मुझे तो लगता है कि प्रिय माने प्यारा तम माने अंधेरा तो प्रियतम=प्रिय + तम =प्यारा अंधेरा होना चाहिये।
सहेली नं२: तुझे अंधेरे ही प्यारे लगते होंगे इसी लिये ऐसा कह रही है। लेकिन प्रियतम माने मेरे ख्याल से सबसे प्यारा ही होना चाहिये।
सहेली नं१: ओके कोई एक्जाम्पल देकर बताओ। आई मीन किसके लिये कहा जाता है प्रियतम?
सहेली नं२: एज सच कोई रूल तो नहीं है। जिसको जो प्यारा लगता है उसको प्रियतम कहने लगता है। कहीं-कहीं तो लोग अपने लवर को, हसबैंड को ही प्रियतम कहने लगते हैं। आजकल तो किसी को भी कोई भी प्रियतम कह देता है। किसी की कोई भरोसा नहीं। रिश्ते आजकल गतिशील हो गये हैं। अभी-अभी जिन लोगों में सर-फ़ुटौव्वल होने वाली है अगले क्षण वे ही एक दूसरे के प्रियतम बन सकते हैं। एक दूसरे को फ़ूटी आंखों न सुहाने वाले भी एक दूसरे की आंखों में डूबे हुये जिन्दगी गुजारने लगते हैं , प्रियतम बन जाते हैं।
सहेली नं१: लेकिन यार तुझको ये नहीं लगता कि जो मैं कह रही हूं वह सही है। प्रियतम माने प्यारा अंधेरा ही होता है।
सहेली नं२: अब भाई मैं क्या कहूं? मैं जो बता रही हूं तेरी समझ में आ नहीं रहा है। तू बहुत काबिल है न! मैं ठहरी बेवकूफ़। तू जो सही समझती है वही सही है।
अपने को बेवकूफ़ कहकर सहेली नं २ ने बहस में हनक लाने की कोशिश की। सहेली नं १ इस चालाकी को समझ गयी। वह अच्छी तरह समझती है कि उसकी सहेली बेवकूफ़ी को हथियार की तरह प्रयोग करती है। जहां कहीं फ़ंस गयी वहां अपने को बेवकूफ़ बताकर जमानत करा ली।
अपने समाज में यह अक्सर होता है। जब शातिर लोग चिरकुटई करते पकड़े जाते हैं तो अपने को जाहिल और भुच्च देहाती बताकर बच निकलते हैं। जाहिलियत और देहातीपने को हथियार की तरह प्रयोग करते हैं।
सहेली नं २ के पलट वार करते हुये कहा- तू अपने को बहुत बेवकूफ़ समझती है। मैं तेरे को चैलेंज करती हूं कि अगर मैं चाहूं तो तेरे को एक महीने में बेवकूफ़ी में पछाड़ कर रख दूंगी। तेरे से बड़ी बेवकूफ़ बनकर दिखा दूंगी।
सहेलियां बरसात, कविता, प्रियतम और अंधेरे को अकेला छोड़कर आपस में बहस करने लगीं। समय की कमी थी और बहस बहुत सारी करनी थी इसलिये वे हिन्दी छोड़कर फ़ुल अंग्रेजी में उतर कर बहस करने लगीं।
अंग्रेजी में बहस की स्पीड रहती है और बहसियाने वाले ग्रेसफ़ुल लगते हैं। अंग्रेजी में बहस करने का यही फ़ायदा है कि बकबास करते लोग भी ऊंची बात कहते प्रतीत होते हैं। औपनिवेशिक देशों के अग्रेंजी वह तिरपाल है जिसके नीचे लोग अपनी तमाम कमियां छुपा लेते हैं।
दोनों सहेलियां के बहस में व्यवधान डाला उनमें से एक के दफ़्तर के बाबू ने। उसने पूछा -मैडम ये बताइये कि कम्प्यूटर पर हिंदी में ’बाढ़ ’ कैसे लिखते हैं?
सहेली ने बताने के पहले कारण पूछा। उसको शक हुआ कि शायद बाबू भी बारिश पर कोई कविता लिखना चाहता है।
लेकिन बाबू के इरादे नेक थे। वह सूखा राहत कार्यों के लिये खरीदी गयी फ़ाइलों में से बच गयी फ़ाइलों का उपयोग बाढ़ राहत के कामों के लिये करके सरकारी पैसे बचाने की मंशा से सूखा की जगह बाढ़ लिखना चाह रहा था। वह कम्प्यूटर पर बाढ़ की चिप्पियां तैयार कर रहा था। लिख रहा था baaDHx= बाढ़|
बरसात अभी हो रही है। छत अभी टपक रही हैं। बिम्ब पर बहस जारी है। कविगण कवितायें लिख रहे हैं। छते चू रही हैं। छतरियां खुल रही हैं। खिल रही हैं। पानी झमाझम बरस रहा है।
ऐसे में बताओ मैं यह पोस्ट लिखे जा रहा हूं। बेवकूफ़ी ही है न!
अच्छा बताओ आप होते तो क्या करते ऐसी बरसात में?
मेरी पसन्द
बिन बरसे मत जाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना।
मेरा सावन रूठ गया है
मुझको उसे मनाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
झुकी बदरिया आसमान पर
मन मेरा सूना।
सूखा सावन सूखा भादों
दुख होता दूना
दुख का
तिनका-तिनका लेकर
मन को खूब सजाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
एक अपरिचय के आँगन में
तुलसी दल बोये
फँसे कुशंकाओं के जंगल में
चुपचुप रोए
चुप-चुप रोना भर असली है
बाकी सिर्फ़ बहाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना।
पिसे काँच पर धरी ज़िंदगी
कात रही सपने!
मुठ्ठी की-सी रेत
खिसकते चले गए अपने!
भ्रम के इंद्रधनुष रंग बाँटें
उन पर क्या इतराना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
मेरा सावन रूठ गया है
मुझको उसे मनाना रे बादल!
बिन बरसे मत जाना!
ये दो महीने पहले नहीं सोचा जब चिल्ला चिल्ला के गला फाड़ के गा रहे थे – वर्षा रानी जरा जम के बरसो और अब ये आंसू – ये अच्छी बात नहीं (वाजपेयी स्टाइल में परा जाए)
हमें तो अपकी आदतों का पता है न गुरुदेव, सो हम भी आपके पीछे लगे हैं..अब हम क्या करते की बात दीगर… हमें पता है कि ऐसे मुआफिक मौसम में जब आप बरसात न आने पर एकाध पोस्ट ठेल चुके हैं हैं तो आने पर क्यों चूकेंगे… सो लगे रहे आपके पीछे..इधर आप पोस्ट फाइनल किए उधर हम भी अपनी टिप्पणी के साथ तैयार हैं..पता है आप टिप्पणी की बरसात पर छतरी लगाए हुए हैं.. कोई बात नहीं, जब छतरी समेटिएगा तो हमरा ई कमेंट भी टपक जाएगा… आप जो किए हैं वो बेवक़ूफी है ये बोलें तो मेरी ज़ुबान गल जाए, लेकिन आधी रात के बाद आपके पोस्ट पर इतनी लम्बी तिप्पणी लिखना तो वाक़ई वही है…
अब हम क्या बोले.? हम तो ठहरे बेवकूफ!
किन्तु आपने तो बारिश में एक साथ कई लोगो को भिगो दिया है..
कविता लिखने की जबरदस्त प्रतिभा है आपमें गुरु …वाह वाह.. लिखते रहिये !
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..पता नहीं मां सावन में-यह ऑंखें क्यों भर आती हैं – सतीश सक्सेना
सृजन का दर्द ….. मत पूछिए साहब पाठको को होता है ….उन कविताओं को बांचने के बाद ……
बाई दी वे ……मोबाइल में पैसे भरवाए के नहीं ….
बहुत दिनो बाद इतनी बढ़िया रचना पढ़ने को मिली है कि हर शब्द पर मुंह से वाह निकल रहा है।
जब इतने कम दिन के लिये आये बारिश तो लोग भी अरमान सजाये बैठे रहते हैं।
पिछली तीन रचनायें पढ़ीं, तीनों मजेदार और गुदगुदाने वाली थीं. लिखने की यही फ्रीक्वेन्सी वांछनीय है.
एक बेवकूफ़ लम्पट तो हम भी है… बह गये सर जी आपकी इस बरसात स्पेशल पोस्ट मे.. शुरआत से लेकर अन्त तक मौलिकता और मौज.. और क्या चाहिये
- जिन लोगों ने मोर नाचते हुये नहीं देखे वे इसे मन नचबलिये हो गया हो गया पढ़ें
नचबलिया मन
- “एक कवि अपने घर में सुरक्षित बैठा सामने की मूसलाधार बारिश का फ़ोटोस्नैप लेकर उसको बहुत पहले की अपने याद-कबाड़ की झोपड़ी के स्नैप शाट से मिलाता है। प्रभाव लाने के लिये याद-कबाड़ की झोपड़ी में दो-चार छेद करता है और उसमें से पानी अंदर घुसाकर सब गीला-सीला करके गीली-सीली कवितायें रच डालता है।कविता में मार्मिकता लाने के लिये वह उसमें डेढ़ किलो दर्द मिलाता है। झोपड़ी के बच्चे के कपड़े फ़ाड़कर उसकी मासूम हंसी को अनदेखाकर उसमें अपनी बेबसी चस्पा करता है और कविता फ़ाइनल कर देता है। उसके चेहरे पर सृजन का दर्द फ़ैला हुआ है।”
इसपर तालिया है सर जी…
- मायकों के नीम के पेड़ पर पड़े झूले पर न जाने कितनों ने अपनी कवितायें टांग दी हैं। नीम के पेड़ पर कविताओं का जाम सा लग गया है। ट्रैफ़िक आगे बढ़ ही नहीं रहा है।
बेचार ’नीम का पेड़’
- एज सच कोई रूल तो नहीं है। जिसको जो प्यारा लगता है उसको प्रियतम कहने लगता है। कहीं-कहीं तो लोग अपने लवर को, हसबैंड को ही प्रियतम कहने लगते हैं।
हे हे.. इतनीईईईई रिसर्च.. पर कैसे?
- अंग्रेजी में बहस की स्पीड रहती है और बहसियाने वाले ग्रेसफ़ुल लगते हैं। अंग्रेजी में बहस करने का यही फ़ायदा है कि बकबास करते लोग भी ऊंची बात कहते प्रतीत होते हैं। औपनिवेशिक देशों के अग्रेंजी वह तिरपाल है जिसके नीचे लोग अपनी तमाम कमियां छुपा लेते हैं।
वाह, जबरदस्त ’मौज’… चालू आहे.. हम तो बह लिये..
(:(:(:
जय हो.
पोस्ट के साथ-साथ गीली-गीली फ़ोटो व
पानी बरसा,
छत टपक गई
अरे बाप रे!
मिट्टी थी जो,
कीचड़ बन गई,
अरे बाप रे!
जैसी शरारती-सी लाइनें पढ़ कर मज़ा आ गया. धन्यवाद.
बाप रे ! इत्ता अच्छा कैसे लिख लेते हैं आप??? आधा कमेन्ट तो मेरा पंकज वाला ही समझ लीजिए. आधे में मैं ये कहना चाहती हूँ कि जब आपको पढ़ती हूँ तो हँसते-हँसते पेट फूल जाता है… या तो कुछ नहीं सूझता या फिर लगता है कि पूरी पोस्ट ही उतार दूँ कमेन्ट में …
और ये एकलाइनें तो गजब हैं -
-रिश्ते आजकल गतिशील हो गये हैं।
…अभी-अभी जिन लोगों में सर-फ़ुटौव्वल होने वाली है अगले क्षण वे ही एक दूसरे के प्रियतम बन सकते हैं।
-मुसीबत में साथ देने वाली मुसीबत भी हमें प्यारी लगती है.
-जब शातिर लोग चिरकुटई करते पकड़े जाते हैं तो अपने को जाहिल और भुच्च देहाती बताकर बच निकलते हैं। जाहिलियत और देहातीपने को हथियार की तरह प्रयोग करते हैं।
-अंग्रेजी में बहस की स्पीड रहती है और बहसियाने वाले ग्रेसफ़ुल लगते हैं।
-औपनिवेशिक देशों के अग्रेंजी वह तिरपाल है जिसके नीचे लोग अपनी तमाम कमियां छुपा लेते हैं।
और एक बात तो बताइये ये लड़कियों की बातचीत इतनी सटीक कैसे लिखी आपने … मैंने देखा है दिल्ली में लड़कियाँ ऐसे ही अंगरेजी मिश्रित हिन्दी बोलती हैं… क्या आप ऑफिस में चुप्पे-चुप्पे लड़कियों की बात सुनते हैं?
आपने तो वेआकई में बारिश के पानी में भिगो दिया है…. मेरी पसंद में मामाजी को पढ़कर बहुत अच्छा लगा…. मामा जी को प्रणाम…
वर्षा रानी सचमुच वीआई पी है …….हवा अंलक , सूरज चाचा भी तो,एक धरती मैया ,बड़ी भारी वीआईपी हैं ,लेकिन हमेशा हमारा भार उठाए फिरती रहती है …..सहेलियों की वर्ता, मामा जी की कविता सब अच्छी.
हम होते तो ऐसे बरसात में गरमा गरम पकौड़िया खाते
वैसे प्रियतम माने प्यारा अँधेरा ही होना चाहिए.. अंग्रेजी का तिरपाल ओढ़ के बोलूँ?
“बाप रे ! इत्ता अच्छा कैसे लिख लेते हैं आप??? आधा कमेन्ट तो मेरा पंकज वाला ही समझ लीजिए. आधे में मैं ये कहना चाहती हूँ कि जब आपको पढ़ती हूँ तो हँसते-हँसते पेट फूल जाता है… या तो कुछ नहीं सूझता या फिर लगता है कि पूरी पोस्ट ही उतार दूँ कमेन्ट में …
और ये एकलाइनें तो गजब हैं -
-रिश्ते आजकल गतिशील हो गये हैं।
…अभी-अभी जिन लोगों में सर-फ़ुटौव्वल होने वाली है अगले क्षण वे ही एक दूसरे के प्रियतम बन सकते हैं।
-मुसीबत में साथ देने वाली मुसीबत भी हमें प्यारी लगती है.
-जब शातिर लोग चिरकुटई करते पकड़े जाते हैं तो अपने को जाहिल और भुच्च देहाती बताकर बच निकलते हैं। जाहिलियत और देहातीपने को हथियार की तरह प्रयोग करते हैं।
-अंग्रेजी में बहस की स्पीड रहती है और बहसियाने वाले ग्रेसफ़ुल लगते हैं।
-औपनिवेशिक देशों के अग्रेंजी वह तिरपाल है जिसके नीचे लोग अपनी तमाम कमियां छुपा लेते हैं।
और एक बात तो बताइये ये लड़कियों की बातचीत इतनी सटीक कैसे लिखी आपने … मैंने देखा है दिल्ली में लड़कियाँ ऐसे ही अंगरेजी मिश्रित हिन्दी बोलती हैं… क्या आप ऑफिस में चुप्पे-चुप्पे लड़कियों की बात सुनते हैं? ”
मेरे पास तो शब्द ही नहीं बचे कुछ लिखने के लिये सो आराधना का कमेंट ही साभार छापे दे रहे हैं, उन्होंने
पंकज जी के आधे कमेंट को अपना बताया, हमने उनके पूरे कमेंटको अपना लिया :डी
“बारिश अभी खतम नहीं हुई सो कवि फ़िर दूसरी कविता रचने लगता है। इसमें वह बच्चे की मुस्कान को उसके पास ही छोड़ देता है और बिजली की चमक को चपला बताकर लिखता है कि वह(बिजली) उसके (बालक के ) दांतों की चमक से हीन भावना ग्रस्त होकर धरती पर सरपटक कर आत्महत्या कर लेती है।”
पूरी पोस्ट में कहां-कहां किसे-किसे लपेटा है, सब जान गये हैं हम अनूप जी…..
उत्तम पोस्ट, रोचक भी और व्यंग् के छींटे भी
आपकी इस कविता में निराधार स्वप्नशीलता और हवाई उत्साह न होकर सामाजिक बेचैनियां और सामाजिक वर्चस्वों के प्रति गुस्सा, क्षोभ और असहमति का इज़हार बड़ी सशक्तता के साथ प्रकट होता है।
हां, ई कविता नहीं तो और क्या है?
इस रचना ने मन मोह लिया।
हास्य व्यंग्य की चाशनी से तैयार माल स्वादिष्ट और मन को तृप्त करने वाला है। शुष्क मन में बहार लाने वाली रचना है यह।
पढ़ने वाला हँसते हँसते दोहरा न हो जाये कोई तो फिर ये फुरसतिया लेख नहीं!
‘बरखा महारानी ताम झाम के साथ आती हैं….:)
और कविता लिखने के प्रयास में हुई बातचीत ..वाह!
प्रियतम=प्रिय + तम =प्यारा अंधेरा
प्रियतम माने प्यारा अंधेरा
अब और क्या क्या अर्थ हो सकते हैं …:)..कल्पना की बड़ी ऊँची उड़ान है.
[अभी तक पढ़ने का चश्मा लगा नहीं है लगता है आप की पोस्ट के नन्हें नन्हें फॉण्ट पढ़ पढ़ कर ज़रूर लग जायेगा.]
हम किसी की टीप से खुन्ची नहीं लगायेंगे .. धूल और जल की बतकहीं उतना ही प्यारी है जितनी दोनों सखियों की बतकहीं .. अंगरेजी के स्टेटस को लेकर इसी टाइप का इलूजन है , सड़क से संसद तक .. कवियों की मगजमारी भी गजब-भारी है ! .. सखियों की बातों में ब्लॉग की सामयिक अनुगूंजों की आवाजाही भी कम दिलचस्प नहीं , विशेष करके ‘बेवकूफी की होड़ाहोडी के दौरान’ , जाहिलानेपन को छुपाने के लिए ‘देहाती’ के सेफ कार्ड खेलने की प्रवृत्ति को सही खींचा आपने .. यह देखना भी बढियां रहा की मुसीबतें भी गाढ़े का साथी बनती हैं .. कन्हैया लाल जी की कविता की तरावट अभी तक बनी हुई है ! .. आद्यंत जबरदस्त !!
[...] दिन पहले झमाझम बारिश हुई। दफ़्तर से घर आने के लिये उसके [...]
@अल्पना के लिए-
कंट्रोल तथा धन (+) कुंजी एक साथ दबाकर देखें. फ़ॉन्ट का आकार बढ़ जाएगा. और बड़ा आकार करने के लिए यही क्रिया एक बार और दोहराएँ.
यदि ऐसा नहीं होता है तो कृपया फायरफाक्स ब्राउज़र का नया संस्करण प्रयोग करें.
आप तो लिख कर निबट लिए. शामत टिपण्णी करने वालों की है.इतनी विविधता लिए श्रेष्ठ रचना के किस मुद्दे पर टिपण्णी करे ? बरखा की मोहकता पर, बारिश के कहर पर, ‘मुसीबत में साथ देने वाली मुसीबत भी हमें प्यारी लगती है ‘ जैसे बोध वाक्य पर, प्रियतम पर या कवि, कवियत्री और कविता पर ? बहरहाल एक अच्छी पोस्ट के लिए साधुवाद.
बाप रे बाप …..कित्तों को एक साथ लपेट लिए हैं आप ….बहुत आनंददायक पोस्ट लिखी है आपने …
[...] [...]
[...] कन्हैयालाल नंदन AKPC_IDS += "3112,";Popularity: unranked [?]Hello there! If you are new here, you might want to subscribe to the RSS feed for updates on this topic.Powered by WP Greet Box WordPress Plugin [...]
क्या वर्णन किया है वर्षा रानी का कि कानपुर शहर की ( कानपुर की इसलिए कि हम यही रहते हैं और यही का हाल देखते हैं ) पूरी कलई खोल कर रख दी . वैसे व्यंग्य से भरा आपका लहजा बहुत अच्छा लगता है और आपकी पसंद को दाद देती हूँ.
Rekha Srivastava की हालिया प्रविष्टी..स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर !
बाप रे.. ! हमने यह लेख अंग्रेजी में समझ लिया…।
बाप रे.. ! बर्षा रानी का जादू चल गया आप पर..।
बाप रे..आप तो बवाल कर गये..।
रचना त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..ए जी, अब तुम बदल गये…!
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