मनमोहक अलंकरणों से युक्त, सातवीं सदी में निर्मित “परशुरामेश्वर”, भुबनेश्वर का प्राचीनतम शिव मंदिर है. यह किसने बनाया यह तो नहीं मालूम परन्तु संभवतः पूर्वी गंग वंश के शासन काल का है. हमसे एक बड़ी भूल हो गयी. ऐसे ऐतिहासिक स्थलों के दर्शनार्थ जाने के पूर्व उनसे सम्बंधित साहित्य से परिचित हो लेना चाहिए था. ऐसा करने पर हम वहां की कला को समझने में अधिक सक्षम होते. यह मंदिर मुक्तेश्वर, जिसकी चर्चा पिछले पोस्ट में की थी, से एक छोटे मैदान को पार कर पहुंचा जा सकता है. जब हमलोग चल ही रहे थे, तो कई कोयलों का सहगान मानो हमें आमंत्रित भी कर रहे थे.
पश्चिम मुखी यह मंदिर परिसर दीवार से घिरा और सड़क से लगा हुआ है. सामने से एक प्रवेश द्वार के अतिरिक्त दक्षिण दिशा में भी एक द्वार बना हुआ है. यहाँ कौतूहल का विषय था, इस मंदिर के जगमोहन (मंडप) का सपाट
परन्तु सुन्दर रूप. जगमोहन के तीनों तरफ छज्जा बना है और ऊपर थोड़ी सी ढलान लिए छत. छत और छज्जे के बीच अंतराल में चौकोर चौकोर खाली जगह छोड़ी गयी है जिससे अन्दर वायु का संचारण बना रहे. साधारणतया ऐसे सभी मंडप पिरामिड नुमा होते हैं. गर्भगृह (यहाँ देउल कहते हैं) के ऊपर १९ मीटर ऊंचा शिखर त्रिरथ शैली में बना है जो उस काल विशेष की विशेषता रही है. मंदिर शिखर के पृष्ठ भाग में और अन्यत्र लकुलीश को अपने शिष्यों सहित बुद्ध की भांति ध्यान मुद्रा में दर्शाया जाना इस बात की ओर इंगित करता है कि उस काल में पाशुपत सम्प्रदाय का वर्चस्व था.
वाह्य दीवारों पर पालतू हाथियों द्वारा जंगली हाथियों को पकड़ने, प्रेमातुर युगल, सप्त मातृकाएं, और नाना देवी देवताओं को बड़े ही मोहक ढंग से बनाया गया है. शैव मत के मिथकों को भी बड़ी सजीवता से दर्शाया गया है.
गणेश और कार्तिकेय भी विद्यमान हैं. हाथियों पर सिंहों को आसीन दिखा कर प्रतीकात्मक रूप से बौद्ध धर्म के दुर्बल पड जाने को भले ही रूपांकित किया गया हो, मंदिर का कलापक्ष, बौद्ध धर्म के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाया. इसका प्रमाण जगमोहन के वाह्य दीवार पर बौद्ध स्तूप का उकेरा जाना है. वहीँ लकुलीश को भी बुद्ध जैसा दिखाया जाना है.
मंदिर के प्रांगण में ही सामने बायीं तरफ किनारे एक सहस्त्र लिंग है. हमने तो उसे मात्र एक खूंटा समझ ध्यान ही नहीं दिया. हमारी भतीजी गौरी ने आवाज देकर बुलाया और कहा देखो इसमें क्या है. देखा तो पाया कि वह एक ४ फीट का शिव लिंग है जिसमें छोटे छोटे शिव लिंग अलग अलग स्तर पर बने हुए हैं. एक २० मंजिली ईमारत जैसा. कितनी मेहनत की होगी उस बेचारे कलाकार ने! इससे प्रेरणा लेकर अपने यहाँ भी कोई बहुत ऊंचा सा टावर बनाया जा सकता है. हमारा चित्र उतना स्पष्ट नहीं है फिर भी एक अनुमान लगाया ही जा सकता है.
मंदिर के प्रांगण में यह बालक विश्राम कर रहा था और हम लोगों को देख उठ बैठा. अपनी भाव भंगिमाओं से उसने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया.
चित्रों का रसास्वादन करें. बस इतना कह कर हम अपना स्थान लेते हैं.
पहले तीन और अंतिम दो चित्रों पर चटका लगा कर सूक्ष्मता से बड़े आकार में देख सकते हैं.
.
जुलाई 16, 2010 को 6:40 पूर्वाह्न पर
बहुत आभार इस बेहतरीन विवरण और तस्वीरों का.
आपको पूरा कम्पाईल करके एक पुस्तक के रुप में इसे निकालना चाहिये अब!
जुलाई 16, 2010 को 8:37 पूर्वाह्न पर
सुन्दर सचित्र वर्णन इतिहास की धरोहरों का।
जुलाई 16, 2010 को 9:05 पूर्वाह्न पर
“परशुरामेश्वर” मंदिर के सुन्दर विवरण और मन भावन चित्र , एक और अनमोल शिल्पकला से परिचय करने का आभार
Regards
जुलाई 16, 2010 को 9:13 पूर्वाह्न पर
रोचक ,व्याल यहाँ भी है ! लिंग स्तम्भ तो सचमुच स्तंभित कर रहा !
जुलाई 16, 2010 को 10:36 पूर्वाह्न पर
आदरणीय सुब्रमनियन जी ,
तो क्या भगवान के घर भी बच्चे को सोने ना दीजियेगा
ईश्वर का धन्यवाद कि मंदिरों को प्रेमातुर युगलों के शिल्प से परहेज नहीं वर्ना मोहल्ले पड़ोस में भाई बन्दों नें खाप बिठा रखी हैं !
पुरातत्व पर आपकी जानकारी हैरान करती है ! कभी हाथी बनाम सिंह वाले मसले को विस्तार दीजिए ! आज की पोस्ट हमेशा की तरह शानदार है भले ही आप पूर्व साहित्य के बिना ही वहां पहुंचे थे !
आदर सहित
अली
जुलाई 16, 2010 को 10:53 पूर्वाह्न पर
सुब्रह्मणयन् जी,
आपने यह अनुमान कैसे लगा लिया कि हाथियों पर
सिंहों को विराजित कर बौद्ध धर्म को दुर्बल दर्शाने की
चेष्टा की गई है । वैसे वेदान्त में यह मनरूपी हाथी
पर पराक्रम रूपी वेदान्त-केसरी के वर्चस्व का प्रतीक
समझा जाता है ।
इस रोचक पोस्ट के लिये धन्यवाद और आभार,
सादर,
विनय
जुलाई 16, 2010 को 11:30 पूर्वाह्न पर
समीर लाल जी की बात पर गौर करियेगा ! हार्दिक शुभकामनायें !
जुलाई 16, 2010 को 4:14 अपराह्न पर
बेहद सुन्दर चित्र .विवरण भी ज्ञानवर्धक लगा.कितने सूक्ष्म डिटेल लिए हुए हैं चित्र..हैरत भी होती है प्राचीन कलाकारी को देख कर.
आभार
जुलाई 16, 2010 को 5:31 अपराह्न पर
सुन्दर सचित्र वर्णन
जुलाई 16, 2010 को 7:03 अपराह्न पर
विवरण तो लाजवाब रहता ही है पर चित्र बांध कर रख लेते हैं।
साधूवाद।
जुलाई 16, 2010 को 7:26 अपराह्न पर
bahut shukriya itni sundar rachna ke liye.
जुलाई 16, 2010 को 7:45 अपराह्न पर
जबाब नही जी आप की सभी पोस्टे एक से बध कर एक है, आप इने विकि पिडिया मै डाल दे, सभी चित्र बहुत सुंदर ओर संजीव लगे. धन्यवाद
जुलाई 16, 2010 को 8:10 अपराह्न पर
बहुत बढिया सचित्र विस्तृत जानकारी। धन्यवाद।
जुलाई 16, 2010 को 9:05 अपराह्न पर
मज़ा आ गया पढ़ कर और सजीव चित्रों को देख कर !
जुलाई 17, 2010 को 1:15 पूर्वाह्न पर
आप हमें भारत के मंदिरों का दर्शन परदेस में करवाते हैं इस कारण आप् का ,
जितना भी आभार प्रकट करूं, वह , कम ही होगा ……..
बहुत सुन्दर वर्णन के साथ
चित्रोँ को देख कर मन प्रसन्न हो गया है
- स स्नेह, आभार
- लावण्या
जुलाई 17, 2010 को 2:10 अपराह्न पर
इतिहास में रूची है, मगर आपके चिट्ठे को पढ़ते रहने से अब ऐसी जगहों पर जाना होता है तब बारिक निरिक्षण करने की आदत होती जा रही है.
चिट्ठे के विस्तृत लेख ईबुक के रूप में डाउनलोड के लिए रखी जा सकती है.
जुलाई 17, 2010 को 3:25 अपराह्न पर
रोचक जानकारी है, आभार।
…………….
नाग बाबा का कारनामा।
व्यायाम और सेक्स का आपसी सम्बंध?
जुलाई 17, 2010 को 7:43 अपराह्न पर
सचित्र रोचक वर्णन |बहुत ही अच्छा लगा पढ़कर इतनी जानकारी के साथ |
आभार
जुलाई 18, 2010 को 2:07 अपराह्न पर
बढिया सचित्र विस्तृत जानकारी देने के लिए। धन्यवाद।
जुलाई 18, 2010 को 9:37 अपराह्न पर
पिछली पोस्ट्स की ही तरह यह पोस्ट भी अचंभित करती है।
सर, मुझे ध्यान है कि कुछ साल पहले उड़ीसा में एक भयंकर तूफ़ान आया था जिसने जान माल के साथ इमारतों का बहुत नुक्सान किया था, उस समय अखबारों में यह बहुत आया था कि सदियों पुराने मन्दिरों को कुछ नुकसान नहीं झेलना पड़ा था। कोई कुछ समझे, अपनी समझ में तो यह प्राचीन काल के स्थापत्य की जीत थी। आस्तिक हूं लेकिन बहुत ज्यादा धार्मिक नहीं, लेकिन अपने देश को देखने की जानने की इच्छा बहुत है। जब भी इच्छापूर्ति का साधन बनेगा, आप सरीखे विद्वानों की पोस्ट्स बहुत मददगार सिद्ध होंगी, यह तय है।
आभार स्वीकार करें।
जुलाई 19, 2010 को 12:44 पूर्वाह्न पर
सर माँ की लम्बी बीमारी और उनके फिर चाचाजी के बीस दिनों के भीतर ही अवसान के कारन पारिवारिक अवसाद ,अनुष्ठानों के चलते गाँव में था ( जहां नेट क्या फोन का भी सिग्नल नहीं मिलता था ) अतः अरसे बाद नेट पर न ऐसे ही roआ पाया इसलिए पिछले आलेखों सहित सब एकसाथ ही पढ़ा .
सब तो कह ही दिया गया है हाँ कुछ सुझाव दिए गए हैं जो मेरे भी मान लें.
आपको पढने का इंतजार तो रहता ही है .
जुलाई 19, 2010 को 4:30 पूर्वाह्न पर
बेहतरीन जानकारी और चित्र!!
जुलाई 19, 2010 को 7:45 पूर्वाह्न पर
सहेजने योग्य जानकारी . देरी के लिये क्षमा
जुलाई 19, 2010 को 7:57 पूर्वाह्न पर
Ek aur yatra karane ke liye aabhar.
जुलाई 19, 2010 को 9:48 पूर्वाह्न पर
रोचक और ज्ञानवर्द्धक आलेख। चित्रों की तो बात ही क्या! हां! हाथी और सिंह की मूर्तियों की प्रतीकात्मकता पर विस्तृत चर्चा अलग से हो तो बेह्तर होगा।
जुलाई 19, 2010 को 10:39 पूर्वाह्न पर
बहुत बढ़िया जानकारी
खूबसूरत मंदिर
खूबसूरत तस्वीरें
धन्यवाद|
जुलाई 19, 2010 को 1:25 अपराह्न पर
आपका ये ऐतिहासिक विवरण हमें अपनी संस्कृति और हमारी इनसे हमें करवा रही है, इसके लिए हम आभार प्रकट करते हैं.
जुलाई 19, 2010 को 6:10 अपराह्न पर
बहुत ज्ञानवर्धक तथा उम्दा जानकारी से भरा पोस्ट है, हमेशा की तरह।
अब तो वाकई किताब आ ही जाना चाहिए।
जुलाई 19, 2010 को 9:37 अपराह्न पर
आप महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं …पर चित्र देते समय अपेक्षित व्याख्याएं देते चलें ..इससे पाठकों का ज्ञान वर्धन होगा ….इसे अनुरोध समझे …
जुलाई 20, 2010 को 12:35 पूर्वाह्न पर
अमेज़िंग सर जी
जुलाई 20, 2010 को 8:27 पूर्वाह्न पर
दुखी हूँ कि मेरे ब्लॉगरोल में बहुत पहले से शामिल होने के बावजूद मुझसे कुछ कड़ियाँ छूटी जा रही थीं।
बहुत शानदार रिपोर्ट। आप यह बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। साधुवाद।
जुलाई 20, 2010 को 1:17 अपराह्न पर
सचित्र विवरण देकर आप हर जगह को सजीव कर देते हैं धन्यवाद
जुलाई 23, 2010 को 12:14 पूर्वाह्न पर
चित्रों के लिहाज से यह पोस्ट तो पहलेवाली पोस्ट से अत्यधिक समृद्ध और नयनाभिराम बन पडी है।
समीरजी की सलाह से सहमत हूँ। काम मँहगा तो बहुत होगा किन्तु पुस्तकाकार में यह सचित्र सामग्री अनूठी बन पडेगी।
जुलाई 23, 2010 को 12:12 अपराह्न पर
साकार शिवलिंग द्योतक है (विष के उल्टे शिव) ‘अमृत’, अजन्मे एवं अनंत निराकार जीव का जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है एक महाशून्य के रूप में…
जुलाई 23, 2010 को 4:11 अपराह्न पर
Atti Sundar. Tasveer sare bade kuboosoort hain. Kash main Hindi teek se pad pata. Translate kar na pada
जुलाई 24, 2010 को 4:26 अपराह्न पर
बहुत सुन्दर आलेख, रोचक और ज्ञानवर्धक. टेम्प्लेट खुलने में थोड़ा समय ले रही है और कुछ ठीक से भी नहीं खुल रही.
जुलाई 24, 2010 को 5:49 अपराह्न पर
सुंदर जानकारी के लिए धन्यवाद.
जुलाई 26, 2010 को 10:50 पूर्वाह्न पर
आज कई दिन बाद ब्लॉग पढने का मौका मिला तो इस देरी के लिए माफ़ी चाहते है।
सुन्दर चित्रों के साथ खूबसूरत विवरण पढ़कर मजा आ गया।
जुलाई 29, 2010 को 8:54 पूर्वाह्न पर
अभी सिर्फ लाजवाब कह रहा हूँ , फिर से कुछ और जोडूंगा.
जुलाई 29, 2010 को 7:28 अपराह्न पर
परशुरामेश्वर और शायद वैताल देउल, भुवनेश्वर के मंदिरों में सबसे पुराने हैं. पढ़ा हुआ तो अब याद नहीं रहा, लेकिन देखा हुआ कुछ याद पड़ता है. दक्षिण भारत के मंदिरों को समझने के लिए जैसे महाबलिपुरम देखना जरूरी है, उसी तरह उड़ीसा के लिए इन दोनों मंदिरों के साथ राजा रानी और लिंगराज जरूरी है तभी रेखा, पिड्रढा और खाखरा देउल और उनका विकास समझने में आसानी होती है. लेकिन दृष्टि सम्पन्न नजरों से देखना सबसे जरूरी है. आपकी पोस्ट पढ़कर उन स्थानों को देखने का आनंद ही और होगा.
जुलाई 29, 2010 को 9:37 अपराह्न पर
वैताल देउल ८ वीं शताब्दी का है. परशुरामेश्वर के बाद यही वहां का पुराना मंदिर है. ,मुझे मालूम है की वहां चामुंडा की बड़ी वीभत्स्व मूर्ती है परन्तु हम लोग वहां किन्हीं कारणों से नहीं जा पाए. राजा रानी और लिंगराज को तो केवल सतही तौर पर ही देखा था. लिंगराज में फोटोग्राफी की उस समय मनाही थी. बाहर बने तालाब को देख कर ही हम मस्त हो गए. जिस को देखा न हो, उसपर कैसे लिखें. एक बात और याद आ रही है. पाली के मंदिर के पृष्ठ भाग पर भी चामुंडा और भैरव की गजब की मूर्तियाँ हैं. उन दिनों डिजिटल केमरा अपने पास नहीं था. मंदिरों के उत्पत्ति और विधान के बारे में आपसे बहुत कुछ सीखा था.लोगों में अब भी बहुत भ्रांतियां हैं. आपसे पाली और जांजगीर के मंदिर पर पोस्ट अपेक्षित है. चित्रों का जुगाड़ कर लें.
जुलाई 31, 2010 को 12:53 पूर्वाह्न पर
भुवनेश्वर तो हम भी गये हैं बहुत पहले (1981) पर ये मंदिर परशुरामेश्वर देखा याद नही पडता बिंदुसागर तालाब के पास जो मंदिर है भुवनेश्वर ही नाम है शायद वही देखा था । आप की सचित्र यात्रा ने एक अलग ही आनंद दिया ।
जुलाई 31, 2010 को 10:36 अपराह्न पर
sir,first of all i will give u heartful thanks for providing these unique data.Here i will add some point that not vaital temple but Lakhamenswar,Bharteswar and satrughnewar are the earliest existing temple in orissa which dates back to 6th C.A.D or middle half of the 6th C.A.D.Then comes Parsurameswar temple which dates back 7th C.A.D. on the basis of palaeographical evidences. On the southern entrance,one inscription also mentioned the original temple name is Parasareswar.The unique thingsare the carvings of the Saptamatrikas in the southern wall of the mandap or jagamohan.The another intresting figure is the presence of Ganesh in the marriage ceremony of the uma-maheswar.
जुलाई 31, 2010 को 10:41 अपराह्न पर
The Lakhamenswar,Bharteswar and satrughnewar temples are located on the Bhubaneswar.If one can study the architectural study then one thing coming out that the mandap or the pillared hall is added latter because it covered the eight graha pannel.
अगस्त 1, 2010 को 9:24 पूर्वाह्न पर
अतुल की टिप्पणी के बाद फिर से भुवनेश्वर देखने की इच्छा और प्रबल होने लगी है.
अगस्त 5, 2010 को 1:14 अपराह्न पर
भुबनेश्वर में किस स्थान पर है यह मंदिर कृपया बताएं,ताकि जब हम अगली बार जाएँ तो यहाँ प्रत्यक्ष सब देख पायें…
आपको इस सुन्दर वर्णन के लिए कोटि कोटि आभार.
अगस्त 7, 2010 को 7:38 अपराह्न पर
These temples are located on the opposite side of the Rameshawar temple near Kalpna square.U can take vehicle from Orissa state museum and go forward to Bhubaneswar muncipal cor. road.it is well known place from where a ashokan bell or abacas is found.