आदमी जो काम कभी नहीं करता वह घर से बाहर निकल कर करने लगता है। कम से कम उसके बारे में मन तो बनाता है।
हमारे साथ के तीन दोस्तों ने मन बनाया कि सुबह-सबेरे उठकर आसपास टहलने का काम किया जाये। आसपास के बारे में जाना जाये। कुछ देखा-दिखाई हो जायेगी।
सुबह का सबसे बड़ा अपराध मुझे बिस्तर छोड़ना लगता है। उठते हैं तो लगता है बिस्तर यार से बेवफ़ाई कर रहे हैं। रात भर जिस यार ने आसरा दिया, चैन से सुलाया उसे सुबह होते ही झट से छोड़ देना मुझे बहुत अखरता है। लगता है उस बेचारे का मन टूट जायेगा।
इसीलिये हम उठने के पहले तमाम करवटें बदलते हैं। हर करवट के बाद सोचते हैं यह आखिरी होगी इसके बाद उठ जायेंगे। इस तरह की तमाम आखिरी करवटें लेने के बाद ही बिस्तर से समर्थन वापस लेते हैं।
बहरहाल तीन -एक के बहुमत से सुबह टहलने जाना तय हुआ। हम बिस्तर छोड़कर टहलने जाने के सख्त तो नहीं लेकिन काम भर के खिलाफ़ थे लेकिन दोस्तों का दिल भी नहीं तोड़ा जा सकता था सो हामी भर दिये।
लेकिन सुबह जब टहलने का हांका हुआ तो हमें लगा हमने गलत बात पर हामी भर दी। हमें ऐसी बिस्तरविरोधी हरकत नहीं करनी चाहिये। इन दोस्तों का साथ तो यहीं भर का है। बिस्तर के साथ तो जिंदगी भर रहना है। उससे यथासंभव सट के ही रहना चाहिये। बहरहाल हमने अपने दोस्तों से कहा कि तुम लोग चलो हम आते हैं।
वे चले गये। मुझे हल्का सा भी अफ़सोस भी हुआ कि किसी ने जबरदस्ती नहीं की। समय के साथ ऐसा होता जाता है कि आपके आसपास से ऐसे लोग कम होते जाते हैं जो आपसे जबरियन वह काम करा लें जो कि किया ही जाना चाहिये। लेकिन ये दुख वाली बात तो ऐसे ही नाटक है। वह तो हम आज लिख रहे हैं ऐवैं ही! सच तो है कि दोस्तों को विदा करके हमें घणी खुशी हुई। सोचा आराम से कुछ देर और लोटपोट होंगे। कल्पना के घोड़े दौड़ायेंगे कड़बड़,कड़बड़!
लेकिन कुछ देर बाद चयास ने हमें बिस्तर से जुदा ही कर दिया और हम चल पड़े खरामा-खरामा उस दिशा में जिधर दोस्त लोग कह गये थे। रास्ता चढाई वाला था। चप्पल पहने थे। चमड़े की। वह सरक-सरक जा रही थी। अब लोगों ने रुख से नकाब सरकने पर आहिस्ता-आहिस्ता के बहाने तो बहुत कुछ लिख मारा है। लेकिन पैर से चप्पल सरकने के बारे में कुछ नहीं लिखा। अलबत्ता पैर के नीचे से जमीन खिसकने की बात जरूर लिखी है।
मुझे लगा कि जिन लोगों ने पैर के नीचे से जमीन सरकने की बात लिखी है उनके पैर की चप्पलें ही सरकी होंगी किसी पहाड़ी रास्ते पर मन की इच्छा के खिलाफ़ टहलने जाते हुये और लोगों ने तिल का ताड़ बनाने की माननीय प्रवृत्ति के चलते पैर के नीचे से जमीन खिसकने की बात लिख मारी होगी।
बहरहाल हम चप्पल को मनाते अपने शरीर को संभालते, खरामा-खरामा सड़क चढ़ते रहे। जहां सड़क मुख्य मार्ग पर मिली वहां एक पालीटेक्निक है। वहां पुलिया के पास खड़े हुये इधर-उधर बेमतलब देखते रहे, ताकते रहे। सोचा कोई कविता फ़ूट पड़े तो उसे कागज में समेट दें लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। अलबत्ता पुलिया पर ईंटो के नीचे कुछ कागज जरूर दिख गये।
हमने लपक कर कागज देखे। सोचा कुछ प्रेम-श्रेम पत्र टाइप की चीज होगी। लेकिन अफ़सोस। उन सबमें कुछ न कुछ पढ़ाई से संबंधित चीजें लिखीं थी। किसी में बिजली के मोटर के काम करने की विधि , किसी में कोई त्रिकोणमिति का सवाल। किसी में कुछ,किसी में कुछ। सब कुछ ठोस मामला। कोई भी मुलायम चीज न दिखी जिसे बांचकर मन हरा-हरा हो जाता। मजबूरी में हम प्रकृति की हरीतिमा निरखने में लग गये।
सूरज ने ड्यूटी ज्वाइन कर ली थी। नये-नवेले अफ़सर की तरह चेहरा उत्साह और जोश से लबालब भरा था। बिना किसी भाई-भतीजा वाद के सबको समान भाव से रोशनी की ग्रांट बांट रहे थे।
पास में एक चाय की दुकान थी। वहां जाकर बैठ गये। लोग-बाग नमस्कारी-नमस्कारा करते हुये चाय -साय पी रहे थे। तब तक अखबार वाला अखबार दे गया। अखबार में भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के निधन का समाचार हासिये पर था। मुंबई में आतंकवादियों की कहानी रात से शुरू हो गयी थी। उसका किस्सा अखबार में छाया था।
लोग इस बात से भी चिंतित थे कि इस तरह की घटनाओं से नैनीताल में पर्यटकों की आमद घटेगी।
विश्वनाथ प्रताप सिंह जी की भी बात चली। एक ने कहा- ही वाज द मोस्ट होपलेस प्राइममिनिस्टर आप इंडिया।
किसी ने इस मुद्दे पर और ज्यादा चर्चा नहीं की। चाय की दुकान वाले ने बताया कि पालीटेक्निक के सारे लड़के वहीं नास्ता करने आते हैं। पराठा उसका फ़ेमस है। दस रुपये का एक।
चाय पीकर मैं आगे टहलने लगा। एक बस्ती में एक महिला सीमेंन्ट की बेंच पर अपने बच्चे को नहला रही थी। पास ही कनस्तर में पानी उबल रहा था। एक बुजुर्ग अपनी दाड़ी खैंच रहे थे। खुले में। मुझे वहां खड़ा देखकर बोले -आग तापनी हो ताप लो।
पता चला बुजुर्गवार पोस्ट आफ़िस में काम करते हैं। उनके लड़के को नौकरी नहीं मिली तो थोड़ा खिन्न हैं। लेकिन क्या करें? आजकल ऐसा ही होता है न! नौकरी धरी कहां हैं?
लौटते में एक बाबा-पोता टहलते हुये मिले। हम नीचे जा रहे थे वो ऊपर आ रहे थे। हमको मुस्कराते देखकर बाबा ने अपने पोते को हमें नमस्ते करने को कहा। हम भी उनसे बतिया लिये दो मिनट और फोटूबाजी भी कर लिये।
लौट के जब कमरे पर पहुंचे तो पता लगा दोस्त लोग तैयार होकर क्लास जाने के लिये निकलने वाले हैं। हमें भी निकलना पड़ा।
मजबूरी है।
इत्ता सूरज चढ़ आता है तो जाते हैं आप टहलने.. ये तो सूरज के साथ बेवफ़ाई है?
अरे अश्लीलता फैलाई जा रही है . स्लाइड शो में एक बच्चा बिना अधोवस्त्र के खडा है
दादा पोते की फ़ोटो चकाचक लगी ! सारा स्लाईड शो दो बार देख लिया पर कल वाली फ़ोटो नही दिखी ! वो क्या नैनीताल यात्रा व्रुतान्त के आखिरी एपिसोड मे लगायेंगे ?
क्या सर, कितनी पुरानी बात को लेकर बैठ गये हैं.. होती है गलती कभी-कभी.. मगर उस गलती से सबक लेनी चाहिये ना की उसे याद करके परेशान होना चाहिये..
खैर आपके बहाने हम भी टहल्ला मार आये आपके ही साथ..
” bhut mnmohak or sunder tasvereyn..”
regards
सूरज को मिली भाई-भतीजावाद से मुक्त नये नवेले अफ़सर की उपमा..
सच्ची, यू आर ओरिज़िनल.. एन्ड दैट्स व्हाय
यू आर द वन एन्ड ओनली अनूप शुक्ल फ़ुरसतिया !
ये खुपड़िया हमें दे दे, पंडित !
अच्छा चल, खुपड़िया मत दे
लेकिन यह मेरी फोटो भी ना बदल भाई
कोई मैं ही अकेला ब्लागर उछल-कूद थोड़े मचा रहा हूँ ?
“बिस्तर यार से बेवफ़ाई”
“बिस्तरविरोधी”
ऐसे ही कई शब्द आप अपनी जेब मे रखते हैं या टाईप करते दिमाग़ मे घुस आते हैं ?
स्लाईड शो बढिया रहा।
बढ़िया वृत्तांत। फुरसतिया के साथ सचित्र भ्रमण सुखद रहा….
पढ़ लिया गया है. हाजरी लगाई जाय.
बढिया तस्वीरें और संस्मरण
हमको लगा आज कुछ झील वील का फोटू ठेलेंगे ….पर आप ठहरे पक्के फुरसतिया .टीन का कनस्तर ठेल दिया ओर इस बालक की फोटू….बेचारा बड़ा होगा तो आप कहोगे बेटा तेरी असलियत जानते है…..सबूत है हमारे ब्लॉग पर……..कई साल बाद किसी ब्लोगर की अपनी फोटू मिलेगी…..”.ओरिजनल “
एक बस्ती में एक महिला सीमेंन्ट की बेंच पर अपने बच्चे को नहला रही थी। पास ही कनस्तर में पानी उबल रहा था। एक बुजुर्ग अपनी दाड़ी खैंच रहे थे। खुले में। मुझे वहां खड़ा देखकर बोले -आग तापनी हो ताप लो।
पता चला बुजुर्गवार पोस्ट आफ़िस में काम करते हैं। उनके लड़के को नौकरी नहीं मिली तो थोड़ा खिन्न हैं। लेकिन क्या करें? आजकल ऐसा ही होता है न! नौकरी धरी कहां हैं?
लौटते में एक बाबा-पोता टहलते हुये मिले। हम नीचे जा रहे थे वो ऊपर आ रहे थे। हमको मुस्कराते देखकर बाबा ने अपने पोते को हमें नमस्ते करने को कहा।
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इस चित्रात्मकता द्वारा असली अंचल दिखाया आपने। बधाई।
मुझे उस अंचल में बिताए अपने दिन तलाशने की भावुकता पर जबरदस्ती लगम लागानी पड़ी।
लेखन से ये बात कन्फर्म हो जाती है कि कवियों को नए बिम्ब की तलाश करने के लिए कहने का अधिकार खाली एक जन को है. और उनका नाम है फुरसतिया जी.
माने ये कि ये सब बिम्ब, प्रतिबिम्ब वगैरह का इस्तेमाल करके कविता-वबिता, शेर, गजल, त्रिवेणी वगैरह पाहिले ही लिख के स्रेड कर चुके हैं. शायद इसीलिए कविगन पर गन ताने रहते हैं.
शुएब जी का सवाल मेरा भी सवाल है. ये उपमा, ये शब्द और ये सबकुछ जेब में रखा रहता है या फिर की-बोर्डवा पर धरा रहता है?
अजी उन कागजो को धयान से देखना था कही …..
चलिये हम तो ना उठे इतनी जलदी सिर्फ़ घुमने के लिये.
धन्यवाद
इतना जबरदस्त लिखा है कि हमारी चप्पल ही सरक गई – यह सोच कि कैसे लिखा जा सकता है ऐसा!
बहुत बढ़िया ! कनस्टर में पानी तो हमने भी गरम किया है ।
घुघूती बासूती
हम बिस्तर छोड़कर ….
हमबिस्तर छोडने वाले को बेवफा कहते हैं ना!!!:)
झक्कास है -बाईस्कोप भी !
रोचक विवरण।
हा हा हा हा हा !!!
क्या झकास शब्द ढूंढते हैं दादा जी!!!!!
that’s ओरिजनल !!!!!!!!!!!!!!!!!
जो कुछ आप ने नैनीताल में देख कर बताया वह कानपुर में भी देखने को मिल जाएगा, यदि सुबह सुबह घूमने निकल जाएं। भारत में हर जगह मिल जाएगा। बिस्तर विछोह किस को सुहाता है जी। हम तो इस चक्कर में मुटियाने लगे हैं। एक्सरसाइज करने के लिए रोज एक स्पीच पत्नी जी की सुनने को मिलती है। मगर इस मुटियाए शरीर को लगती ही नहीं।
फोटू अच्छी हैं जी। सड़कों वाले बहुत अच्छे हैं। लगता है नैनीताल के हैं।
एकदम फुरसतिया इस्टईल पोस्ट है
चित्र भी गज़बै हैँ
बहरहाल हमने अपने दोस्तों से कहा कि तुम लोग चलो हम आते हैं। वे चले गये। मुझे हल्का सा भी अफ़सोस भी हुआ कि किसी ने जबरदस्ती नहीं की। समय के साथ ऐसा होता जाता है कि आपके आसपास से ऐसे लोग कम होते जाते हैं जो आपसे जबरियन वह काम करा लें जो कि किया ही जाना चाहिये।
नैनीताल का विवरण बहुत ही सजीव बन पड़ा है. उपर्युक्त लाइनों के जरिये जो संदेश है.. अंतर्मन को छूने वाला है..
वृतान्त के साथ स्लाइड षो देखने का यह पहला ही अनुभव है । आनन्द आया । लिखा भी अच्छा और दिखाया भी अच्छा ।
बढिया है जी. हमें तो सुबह जागना होता है तो रात को सुबह में मिला लेते हैं. पर अगर एक बार सो गए तो आखिरी करवट कहाँ आ पाती है… और ठंढ हो तो फिर तो…
प्रेम-पत्र का अब ज़माना कहाँ रहा. इ ससुरा मोबाइल
थोड़ा देर से पहुंचे हैं जो हमें कहना था वो डा अमर कुमार, ज्ञा्न जी और शिव जी ने पहले ही कह दिया। इस कवितामयी पोस्ट को पढ़ कर बहुत आनंद आया, अगली कड़ी का इंतजार है।
इस सुबह-सुबह करवट-बदल वाली दर्द से भली-भाँती वाकिफ हूँ अनूप जी…हर सुबह उठ कर दौड़ने जो जाना पड़ता है.प्रोफेशन का हिस्सा ठहरा….
हर करवट के बाद सोचते हैं यह आखिरी होगी …हा!हा!! एकदम सटीक
[...] पिछली पोस्ट हम ऐसे ही घसीट दिये। सीधे बिना कुछ सोचे। घसीट दिये बस्स। उसी में डा.अमर कुमार हमारी खुपड़िया मांग लिये। शुऐब पूंछ बैठे- ये सब खुराफ़ात कैसे करते हैं- ऐसे ही कई शब्द आप अपनी जेब मे रखते हैं या टाईप करते दिमाग़ मे घुस आते हैं ? शिवबाबू भी मामू बनाने से बाज नहीं आये और आगे उछाल दिये , सवाल नहीं भाई हमको उछाला गया है-शुएब जी का सवाल मेरा भी सवाल है. ये उपमा, ये शब्द और ये सबकुछ जेब में रखा रहता है या फिर की-बोर्डवा पर धरा रहता है? और ज्ञानजी की तो चप्पलै सरक गयी। गोया हम कोई अमेरिका के बुश हैं और ज्ञानजी चप्पल इलाहाबाद से फ़ेंकेगे त हमारे पास आकर गिरेगी और बोलेगी- ज्ञानजी भेजे हैं। बताओ कहां बिराजें? [...]
फुरसतिया तो बहुत अ़़च्छा है। कोई मुझे अनुप शुक्ळ जी का ई मेल दे सकते है।
हमको मुस्कराते देखकर बाबा ने अपने पोते को हमें नमस्ते करने को कहा।
ऐसे बाबा-पोते आजकल भी होते हैं, यह जानकर अच्छा लगा.
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