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Sunday, August 25, 2013

हरित-लाल


हरित फलदार पौधा,
पता नहीं लगता
परिवर्तन कि,
नीचे से लाल हुआ जा रहा.

बात कुछ और नहीं
बस मिर्ची 'लगी' है,
गमले में.
'लगती' है तो सुंदर ही.

जोता न बोया,
अपने-आप
फल तैयार,
हलषष्‍ठी सामने है.

Sunday, July 28, 2013

केदारनाथ

यह पिण्ड- धरती, कभी आग का धधकता गोला थी, धीरे-धीरे ठंडी हुई। पृथ्‍वी पर जीवन, मानव और आधुनिक मानव के अस्तित्व में आने तक कई हिम युग बीते, दो-ढाई अरब साल पहले, इसके बाद बार-बार, फिर 25 लाख साल पहले आरंभ हुआ यह दौर, जिसमें हिम युग आगमन की आहट सुनी जाती रही है। ... गंगावतरण की कथा में उसके ''वेग को रोकने के लिए शिव ने अपनी जटाओं में धारण कर, नियंत्रित किया, तब गंगा पृथ्वी पर उतरीं'' केदारनाथ आपदा-2013, कथा-स्मृति या घटना-पुनरावृत्ति तो नहीं ... एक बार फिर बांध के मुद्दे पर बहस है, अब मुख्‍यमंत्री बहुगुणा और पर्यावरणरक्षक बहुगुणा आमने-सामने हैं। निसंदेह पर्यावरण में पेड़, पहाड़, पानी पर आबादी और विकास का दबाव तेजी से बढ़ा है।

आपदा में मरने वालों में 15 मौत की पुष्टि से गिनती शुरू हुई। पखवाड़ा बीतते-बीतते मृतकों का आंकड़ा 1000 पार करने की आशंका व्यक्त की गई। खबरों के अनुसार विधानसभा अध्यक्ष ने मृतकों की संख्‍या 10000, केन्द्रीय गृहमंत्री ने 900, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने 580 और गंगा सेवा मिशन के संचालक स्वामी जी ने 20000 बताई। मुख्‍यमंत्री ने यह भी कहा है- कभी नहीं जान पाएंगे कि इस आपदा में कितने लोग मारे गए हैं। मृतकों का अनुमान कर बताई जाने वाली संख्‍या और उनकी पहचान-पुष्टि करते हुए संख्‍या की अधिकृत घोषणा में यह अंतर हमेशा की तरह और स्वाभाविक है।

देवदूत बने फौजी और मानवता की मिसाल कायम करते स्थानीय लोगों के बीच लाशों ही नहीं अधमरों के सामान, आभूषण और नगद की लूट मचने के खबर के साथ जिज्ञासा हुई कि मृतकों के शरीर पर, उनके साथ के आभूषण, सामग्री आदि के लिए सरकारी व्यवस्था किस तरह होगी? सामान राजसात होगा? यह जानकारी सार्वजनिक होगी? ... खबरों से पता लगा कि अधिकृत आंकड़ों के लिए मृतकों के अंतिम संस्कार के पहले उनके उंगलियों के निशान लिये जा रहे हैं। व्यवस्था बनाई गई है कि उत्तराखंड के लापता निवासी 30 दिनों के अंदर वापस नहीं आ जाते तो उन्हें मृत मान लिया जाएगा। इस आपदा में मारे गए लोगों के मृत्यु प्रमाण-पत्र घटना स्थल से जारी किए जाएंगे।

मुस्लिम संगठन 'जमीउतुल उलमा' ने सभी शवों का हिंदू रीति से अंतिम संस्कार करने पर आपत्ति जताई है और घाटी में जा कर शवों की पहचान करने के लिए इजाजत दी जाने की बात कही है ताकि मुस्लिम शवों को दफन किया जा सके। ... खबरें थीं कि आपदा बादल फटने से नहीं भारी बारिश के कारण हुई, से ले कर मंदिर में पूजा आरंभ किए जाने के मुद्दे पर हो रही बहसों के बीच न जाने कितनी लंबी-उलझी प्रक्रिया और जरूरी तथ्य नजरअंदाज हैं। ... इस घटना में अपने किसी करीबी-परिचित के प्रभावित होने की खबर नहीं मिली, शायद इसीलिए ऐसी बातों पर ध्यान गया।

Monday, July 1, 2013

भाषा-भास्कर

शीर्षक तो अनुप्रास-आकर्षण से बना, लेकिन बात सिर्फ दैनिक भास्कर और समाचार पत्र के भाषा की नहीं, लिपि और तथ्यों की भी है। समाचार पत्र में 'City भास्कर' होता है, इसमें एन. रघुरामन का 'मैनेजमेंट फंडा' नागरी लिपि में होता है। 'फनी गेम्‍स में मैंनेजमेंट के लेसन' भी नागरी शीर्षक के साथ पढ़ाए जाते हैं।
लेकिन नागरी में 'हकीकत कहतीं अमृता प्रीतम की कहानियां' पर रोमन लिपि में 'SAHITYA GOSHTHI' होती है।
हिन्दी-अंगरेजी और नागरी-रोमन का यह प्रयोग भाषा-लिपि का ताल-मेल है या घाल-मेल या सिर्फ प्रयोग या भविष्य का पथ-प्रदर्शन। ('भास्‍कर' 'चलती दुकान' तो है ही, इसलिए मानना पड़ेगा कि उसे लोगों की पसंद, ग्राहक की मांग और बाजार की समझ बेहतर है।)

बहरहाल, इस ''SAHITYA GOSHTHI'' की दैनिक भास्‍कर में छपी खबर के अनुसार अमृता प्रीतम का छत्‍तीसगढ़ के चांपा में आना-जाना था। इसके पहले दिन 23 जून को वास्‍तविक तथ्‍य और उनकी दो कहानियों में आए छत्‍तीसगढ़ के स्‍थान नामों, जिसमें चांपा का कोई जिक्र नहीं है, की ओर ध्‍यान दिलाने पर भी दूसरे दिन यही फिर दुहराया गया। इसके बाद नवभारत के 20 जून 2013 के अवकाश अंक में छपा- ''अमृत प्रीतम और छत्‍तीसगढ़'' (न कि अमृता प्रीतम) इस टिप्‍पणी के साथ कि ''एक बारगी यह शीर्षक चौंकाता है'' लेकिन स्‍पष्‍ट नहीं किया गया है कि यह अमृता के बजाय अमृत के लिए है या अमृता प्रीतम और छत्‍तीसगढ़ के रिश्‍ते के लिए।
पहले समाचार पत्रों में यदा-कदा भूल-सुधार छपता था, अब खबरों को ऐसी भूल की ओर ध्‍यान दिलाया जाना भी कठिन होता है, फोन पर संबंधित का मिलना मुश्किल और मिले तो नाम-परिचय पूछा जाता है, धमकी के अंदाज में। एक संपादक जी कहते थे, ''अखबारों की बात को इतनी गंभीरता से क्‍यों लेते हो, अखबार की जिंदगी 24 घंटे की और अब तो तुम तक पहुंचने के पहले ही आउटडेट भी'' क्‍या करें, बचपन से आदत है समाचार पत्रों को 'गजट' कहने की, और मानते जो हैं कि गजट हो गया, उसमें 'छापी हो गया' तो वही सही होगा, गलती कहीं हमारी ही न हो, लेकिन यह भी कैसे मान लें। पूर्व संपादक महोदय की बात में ही दम है शायद।

पुनश्‍चः 3 जुलाई 2013 के अखबार की कतरन
शीर्षक की भाषा और 'PREE' हिज्‍जे (स्‍पेलिंग) 
ध्‍यान देने योग्‍य है.