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Monday 18 June 2012

धइलें रही हमके भर अंकवरीया.....बमचक - 8

      तन्मय ने कुछ लोगों को अपनी बर्थ पर कब्जा किये देखा तो पूछ बैठा,- "भाई साब, आप लोगों का टिकट" ?


"टिकस तो है लेकिन वेटिन्न में है, क्या करें हम तीन महीना पहले से टिकस निकाले लेकिन तब्बौ कन्फम नहीं हो पाया".

"लेकिन मेरा तो कन्फम है, मुझे तो बैठने दिजिए"।

"हां हां बैठिये न आप ही की सीट है इसी में हम लोग भी चल चलेंगे...तनिक खसकिये बैठने दिजिए भाई साब को"

"कमाल है, सीट एक की है और आप लोग इतने मतलब क्या मेरे उपर बैठ कर चलेंगे"

"अरे नहीं भाई, आप को कौनो असुविधा नहीं होगी, आप निसाखातिर रहें ये तो मजबूरी आय गई है जो जाना जरूरी है नहीं तो हम खुदै किसी को तकलीफ नहीं देना चाहते"

"लेकिन तकलीफ तो दे रहे हैं"

"अब थोड़ा बहुत असोविधा प्रेम ब्यौहार में चल जाता है..है कि नहीं....आपको हम बेलकुल तकलीफ न होने देंगे, आप सोइये जितना सोना है, जहां सोना है हम लोग हे....यहीं भूईंया बिछाकर चल चलेंगे"।

"अजीब जबरदस्ती है"

"भाई साब आपसे जबरी हम नहीं करेंगे भाई, ई तो मोसीबत है तो जाना पड़ रहा है"

"देखिये अभी टीसी आएगा तो मुझे बात करनी पड़ेगी आप लोग इस तरह .....आखिर एक दो घंटे का रास्ता थोड़ी है पूरा चौबीस घंटा"

"तो वही आप भी हमारी परेसानी समझिये न, हम लोग भी एक दो घंटा का रास्ता होता तो खड़े-खड़ चल चलते लेकिन अब चौबीस घंटा अपाढ़ हो जाता है, अब देखिये उहां बाथरूम के पास कुछ लोग हैं लइका बच्चा लेके, चाहते तो हम भी उहां बइठ सकते थे लेकिन जो पहले से तकलीफ में है उसे और तकलीफ देना ठीक नहीं न है"।

         तन्मय उनकी बातें सुन हैरान हुआ कि एक तो ससुरे मेरी सीट कब्जियाये हुए हैं तिस पर अपनी दयालुता को भी तिखार रहे हैं, इनसे कैसे पार पाया जाय। तभी 69, 70 बर्थ वाले यात्री भी आ गये। एक महिला, एक पुरूष, और एक आठ दस साल का बच्चा। बतकही फिर शुरू हो गई।

"आप लोग का सीट" ?

"यहीं समझिये"

"समझने का क्या मतलब है" ?

"अरे भाई अभी यही बात तो मैं इन भाई साहब को समझा रहा था कि हम लोगों को जाना ओही ठिन है त काहे न संगे संग चल चलें"

"संग संग चल चलें क्या अइसे ही चल चलें, उठिये आप लोग सीट खाली किजिए"

"अरे भाई साहब हम लोग आप लोग को कौनो तकलीफ नहीं देंगे मान कर चलिये"।

"अरे तो मानने न मानने की बात बाद में है अभी आप सीटिया तो खाली किजिए, देख रहे हैं लड़का बच्चा लिये हैं तौने पे आप लोग उठ नहीं रहे"

"अरे त आप का सीट उपर का दोनों न है, हम तो नीचे बइठे हैं भाई साहब से पूछिये"

"ये लोग आपके साथ हैं" ?

"अरे नहीं, आप ही की तरह मैं भी परेशान हूं, मेरी सीट पर ही बैठे हैं और ..."

"अरे तो हटाइये न, जब इन लोगों का टिकट नहीं है तो क्यों जबरी बइठे हैं लोग"

"कह तो रहा हूं लेकिन सुन नहीं रहे"

"अब भाई साब आप लोग से हाथ जोड़ के बिनती है हट जाइये न अभी टीसी आएगा तो खुदै उठा कर बहरियायेगा, उससे पहले ही आप लोग अपना कहीं और ठिकाना ढूंढ लेते तो अच्छा था"।

"अरे तो हम कहां मन कर रहे हैं कि नहीं हटेंगे, आप की सीट है आप बैठिये तनिक सरकिये पांड़े जी, आइये बइठिये"

"अरे आप लोग समझते क्यों नहीं, लेडिज हैं साथ में बच्चा है एक और ...."

"अरे भई हम भी बाल बच्चे वाले हैं, हे यादौ जी हैं साथ में पूछिये हम लोग अभी एक बिबाह के सिलसिले में लड़का देखने जा रहे हैं, टिकस कन्फरम न हो पाया तो मजबूरी है"

"अरे तो जाइये न कोई और जगह"

"अरे भाई साब, आइये हम उठ जाते हैं, बइठिये, रामबचन जी आप बइठिये, सब लोग उसी में चल चलेंगे पारी क पारा आप को कोई तकलीफ नहीं होने दी जाएगी"।

    महिला और उसका बच्चा, खाली हुई जगह पर सिमटे-सिकुड़े जैसे तैसे बैठ गये। तीनों में से एक जो खड़ा हुआ था उसकी भावभंगिमा कुछ शहीदाना थी, मानों त्याग की मूर्ति हो। असर इतना कि उसके त्याग को देख तन्मय को अपनी सीट त्यागने की इच्छा हो गई लेकिन उससे त्यागा न गया, मामला चौबीस घंटे की लंबी यात्रा का ठहरा। जैसे तैसे मामला इस बात पर सुलझा कि अभी चले चला जाय आगे जाकर समझ लिया जायगा।

            गाड़ी छूटने में अभी एक दो मिनट की देरी थी। अब तक काफी लोग डिब्बे में सेटल हो गये थे और जो नहीं सेटल हो पाये थे वे टीसी नामक कल्कि अवतार का इंतजार कर रहे थे जिससे उम्मीद थी कि वो आएगा और सबकी सीटें कन्फर्म कर देगा, सबको उबार लेगा, सारी अड़चनें छूमंतर हो जाएंगी। और वाकई में कल्कि का अवतार लिये टीसी प्रकट भी हुआ लेकिन यह छोटा कल्कि था बल्कि 'थी' कहना उचित होगा। पंजाबी सलवार सूट के उपर से काला कोट पहने, हाथ में रसीद बुक और उस रसीद बुक के नीचे एल्यूमिनियम का छोटा सा टुकड़ा। कुल मिलाकर यही धज थी उन मोहतरमा की। पहुंचते ही उद्गार कुछ यूँ हुए – "हाँ भाई, किसी का कोई चालू टिकट कन्फरम कराना है, किसी को कोई फाइन ओइन भरना हो तो भर दे"।

        उन महिला कल्कि की उद्घोषणा सुन तन्मय को महसूस हुआ कि वाकई कोई अच्छा सा युग आ गया है कि लोग फाइन भी घोषित अंदाज में भरने-भरवाने लगे हैं। कि भई ल्यौ...ये हम इनके साथ जा रहे हैं, इनका टिकट कनफम है और मेरा चालू ....जो चारज बन पड़े लगा दिजिए...देने को तइयार हूँ। भला इस तरह की इमानदारी सतयुग में हो सकती है, वहां तो एक से एक चालू लोग थे लेकिन मजाल है जो रसीद कटवाये हों कभी। इधर तो एल्यूमिनियम के पतरे पर बाकायदा कार्बन कापी रखकर रसीद काटी जाती है।

    उन मोहतरमा की बात सुनकर तन्मय के उपर वाली बर्थे के बाशिंदे कुछ कहने को हुए - "देखिये बहन जी हमारी सीट पर ये लोग कब्जा किये हैं"।

उन लोगों की ओर देखकर बहन जी ने प्रश्नवाचक हो पूछ लिया – "आप लोग का कौन टिकट है" ?

"जी वेटिंग है कनफम नहीं हुआ है"

"तो इन लोगों की सीट पर आप लोग क्यों बैठे हैं" ?

"अरे हम कहां बैठे है, बस संग साथ चल चलेंगे, सीट तो आखिर उनकी ही है"

"तो बैठने दिजिए" – कहते हुए मोहतरमा आगे कहीं किसी का उद्धार करने चली गईं, जाते जाते एक और वक्तव्य देतीं गईं कि - "आगे लाइन टीसी आएंगे उनसे बात किजिए, सीट आपको जरूर मिलेगी आपकी है तो परेशान न होइये...हां भई किसी का चालू टिकट है जो रसीद बनवानी हो तो बनवा लिजिए न आगे जाकर ज्यादा चार्ज पड़ जायेगा"।

  अब मोहतरमा रसीदों की सेल लगाने के मूड़ में आ गईं थीं। ले लो...जल्दी से ले लो न बाद में भाव बढ़ जायेगा।

        तन्मय ने मन ही मन सोचा – शायद कोई बड़ा कल्कि आयेगा तब ही उद्धार होगा, तब तक ऐसे ही बैठे चला जाय। इसी सोच विचार में गाड़ी खुल गई, ट्रेन रेंगने लगी..... लोग टाटा बाय बाय करने में लग गये। जो लोग छोड़ने आये थे वे खिड़की की छड़ पकड़ खुद भी कुछ देर रेंगते हुए रेंगे और फिर जिस तरह से शेयरों, इन्श्यूरेंस आदि के विज्ञापनों में मार्केट रिस्क जल्दी जल्दी बोला जाता है कुछ उसी अंदाज में अपनी छिटपुट बातें तेजी-तेजी से कहते हुए बिना कोई रिस्क लिये ट्रेन की छड़ से अलग हो लिये।

       तन्मय ने अब अपने आसपास नज़र दौड़ाई। सामने की सीट पर कोई परिवार था जिसमें एक उम्रदराज दम्पत्ति और एक बाइस तेईस साल का लड़का था। साईड सीट नंबर 71 पर कोई बीस इक्कीस साल का लड़का झोला लिये बैठा था। उसी के पास 72 नंबर पर कोई राजस्थानी पगड़ी पहने एक शख्स बैठा था जिसकी फोन पर बातचीत से पता चल रहा था कि उसके कुछ संगी-साथी बगल के डिब्बे में भी थे जो इस मोहनजोदड़ो और हड़प्पा काल के रेल सिद्धांत को अवैध साबित करता था जिसके अनुसार रेलवे लोगों को जोड़ती है। उस शख्स के सामान की तरफ नजर पड़ने पर वहां केवल एक काले रंग की सरकारी खजाना ढोने वाली कलेक्शन पेटी थी जिसे अक्सर कोषागार की यात्रा जैसा आनंद लेने में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन यह शख्स तो सरकारी नहीं लग रहा, फिर आसपास कोई अधिकारी या मुंसिफ भी तो नहीं दिख रहा.....और तभी किसी के मोबाइल पर कुछ बजने सा लगा.....इस हड़हड़- तड़-तड़ में तन्मय का ध्यान ही नहीं गया कि असल चीज तो अभी सुना ही नहीं जो ऐसी यात्राओं का मौजूं हिस्सा है......यानि किसी शख्स की लहरीया मोबाइल....और बोल भी क्या खूब फूट रहे थे.....


अपने पियवा से निहोरा करिस गोरिया
नजरीया के सोझा रहीं जी

ध्यान देने पर कुछ और बोल सुनने मिले...


नेहिया के सुख खोजे देहिया
एतना मत तरसाईं
चार दिन के रहे जवानी
फेर ना लौट के आईं
कर लीं कुछ दिन नैन मटक्का
मन मोरा बहलाईं

धइले रहीं हमके भर अंकवरीया
नजरीया के सोझा रहीं जी

अपने पियवा से निहोरा....
- Satish Pancham

( जारी....)

(बमचक सीरीज़ की कुछ पोस्टें पहले ही पब्लिश हो चुकी हैं...जिन्हें बमचक लेबल के साथ यहां पढ़ा जा सकता है )




1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

प्यार प्यार में सीनाजोरी..

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