Saturday, March 22, 2014

मुर्गा और संविधान में प्रदत्त बन्धुत्व और गरिमा...

कल मेरे एक मित्र ने मुझसे संविधान की प्रस्तावना के बारे में पूछा था. उन्हें पूरी याद थी और मैं भूल चुका था. इसमें समाजवादी प्रभुत्व सम्पन्न, बन्धुत्व और गरिमा जैसे बड़े बड़े शब्द थे और आत्मार्पित करने जैसा गुरुतर दायित्व.
आज एक चौराहे पर दो लड़के मोटरसाइकिल से जा रहे थे, दीवान जी और सिपाही जी ने उन्हें रोक लिया. कागजातों में कोई कमी थी. जिस पर उस लड़के को यह मुर्गा बनने का लघुतम दन्ड देकर छोड़ दिया. दूर कई सज्जन(?) हंस रहे थे. बन्धुत्व और गरिमा संविधान की प्रस्तावना में शोभा बढा रहे थे.
शायद सब-इन्स्पेक्टर से नीचे का कोई पुलिस कर्मी कागजात चेक नहीं कर सकता लेकिन दीवान जी चेकिंग कर रहे थे . किस कानून के अन्तर्गत कागजातों में कमी होने पर मुर्गा बनाने का दन्ड आरोपित किया जा सकता है.
और यह सब वही पुलिस कर्मी होते हैं जिनके सामने धड़ल्ले से ओवर लोडिड आटो-बसें सड़कों को रौंदते हुये गुजरते रहते हैं. 

Friday, March 7, 2014

नैनों से नैनों तक.....

नैनों से नैनों तक पहुंची
कितनी सुन्दर भाषा प्रेम
दिल से दिल के तार जोड़ती
बस इतनी परिभाषा प्रेम
लैला-मजनूं, मीरा-नटवर
सबके मन की आशा प्रेम
चाँद-चकोरी, शमां-पतंगा
हर एक की प्रत्याशा प्रेम
पत्थर के दिल मोम बना दे
कुछ ऐसी ही भाषा प्रेम
चार दिनों के इस जीवन में
आँसू कभी दिलासा प्रेम
जवां दिलों के मीठे सपने
सबकी यह अभिलाषा प्रेम
मन से मन का है ये नाता
तन की जिज्ञासा प्रेम
धर्म का बंधन देश की सीमा
सबसे है निरबासा प्रेम...

Sunday, August 25, 2013

क्या हमारे यहाँ सही अर्थों में लोकतन्त्रिक व्यवस्था लागू है?

हम लोग अपने सांसद-विधायकों को चुनते हैं. पहली बात तो यह कि मतदान का प्रतिशत औसत ४०-४५% रहता है. उसके बाद इसमें आधे से अधिक मत जीतने वाले के अलावा अन्य प्रत्याशियों में बंट जाते हैं, मतलब यह कि कुल मतों का १५-२०% पाने वाले प्रत्याशी को जीत हासिल हो जाती है, फिर इसका ५१% वाले सत्ता पा जाते हैं. सार यह कि सत्ता किसे देनी है यह कुल मतों के दसवें हिस्से से निर्धारित होता है. 

अब आते हैं दूसरी बात पर.  लोकतन्त्र की दुहाई देने वाले राजनीतिक दल मतदाताओं के लिये तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था की बात करते हैं लेकिन उनके स्वयं के अन्दर न तो पारदर्शिता है और न ही कोई लोकतान्त्रिक व्यवस्था. पारदर्शिता के नाम पर एक मात्र अधिनियम सूचना का अधिकार अधिनियम, २००५ है जिसके दायरे में कोई राजनीतिक दल नहीं रहना चाहता. क्यों? क्या राजनीतिक दलों के पदाधिकारी/ कार्यकर्ता भारत के नागरिक नहीं हैं. वे स्वयं सूचना माँग सकते हैं लेकिन सूचना देने में इतना कष्ट!

मूल मुद्दा था लोकतान्त्रिक व्यवस्था का. आमतौर पर सबसे बड़े दल के सांसद/विधायक दल का नेता सरकार बनाने का दावा करता है. लेकिन इन दलों में नेता कैसे चुना जाता है? बड़ी बात यह है कि लोकतन्त्र की दुहाई देने वाले अधिकतर दलों के पदाधिकारियों में चुनाव न कर मनोनयन किया जाता है. और इन दलों के अन्दर कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कि चुनाव होने के बाद लोकतान्त्रिक तरीके से अपने दल के नेता का चुनाव किया जाये. कहीं सांसद/विधायक यह कह देते हैं कि हमारे दल के मुखिया जिसे चुनेंगे वह स्वीकार्य होगा. कहीं पहले से ही किसी व्यक्ति को बतौर मुखिया प्रोजेक्ट कर दिया जाता है. क्या लोकतन्त्र केवल आम मतदाता के लिये है, दलों में लोकतन्त्र नहीं होना चाहिये.

ऐसे में जो मुखिया बनता है वह चुना हुआ कहाँ से हुआ, और जब उसका चुनाव सीधे नहीं हुआ तो फिर किसके प्रति उत्तरदायी हुआ. इससे तो बेहतर है कि राज्य और देश के प्रमुख का चुनाव भी सीधे ही जनता के द्वारा कराया जाये जिससे कम से कम जनता और मुखिया दोनों ही एक दूसरे के प्रति सीधे ही उत्तरदायी हो सकें.

Saturday, April 20, 2013

पुलिस का रवैया


दिल्ली में पाँच वर्षीया बच्ची के साथ हुये अमानुषिक कृत्य के बाद प्रदर्शन कर रही एक युवती के ऊपर थप्पड़ मारकर पौरुष दिखाने का कृत्य पुलिस के एक अधिकारी ने किया. यद्यपि उस अधिकारी को सस्पैंड कर दिया गया है, लेकिन पुलिस में लाइन-हाजिर होना, सस्पैंड होना आम बात है. अधिकारियों को थाने से हटा दिया जाता है बाद में दूसरी जगह तैनाती दे दी जाती है. लखनऊ में एक युवक की मौत थाने में हो गयी. कुछ अधिकारियों को सस्पैंड कर मामले की इतिश्री कर दी गयी. अलीगढ़ में एक बलात्कार की घटना के बाद वहाँ भी पुलिस अधिकारी प्रदर्शन कर रहे लोगों को लात-जूतों से निपटाते नजर आये. जाहिर है कि पुलिस वाले अपने लिये इस कारण कानून से ऊपर समझते हैं कि किसी भी प्रकार की त्वरित और कठोर कार्रवाई उन पर नहीं की जाती. उत्तर प्रदेश के ही एक अधिकारी को सीबीआई ने फर्जी मुठभेड़ का आरोपी बनाया है, लेकिन कोई प्रशासनिक कार्रवाई नहीं की गयी. पिछले दिनों ही एक डीएसपी और बारह ग्रामीणों की हत्या में पुलिस वालों को सजा सुनाई गयी, लेकिन उसमें भी ढ़ाई दशक लग गया.

मौजूदा ढ़ाँचा राजनीतिज्ञों ने अपने लाभ हेतु बना रखा है. इसीलिये वे किसी भी तरह का सुधार नहीं चाहते. वही हाल इन अधिकारियों का है, इन्हें यह लगता है कि वे खास हैं और उनके यहाँ आम हो ही नहीं सकता. उनके दिमाग में यह बैठ गया है कि वह सबको लठिया सकते हैं और उनके साथ यह नौबत कभी नहीं आ सकती. मुझे इन लोगों के मानसिक स्तर पर कभी संदेह नहीं हुआ, आखिर मानसिक रूप से विचलित कोई व्यक्ति शांति से प्रदर्शन कर रहे लोगों के ऊपर कैसे लाठी चला सकता है, और दूसरी तरफ मुंबई में उपद्रवियों के सामने कोई कैसे निरीह प्राणी बनकर खड़ा रह सकता है. दर-असल ये लोग भी समाज के ही एक अंग हैं और यह समाज की सही स्थिति दर्शाते हैं. सही स्थिति यह है कि आज अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु हर व्यक्ति (अपवादों को छोड़कर) किसी भी हद तक जा सकता है और वही परिस्थिति अपने सामने होने पर चिल्लाता है. 

इस पीड़िता के मामले में जो लोग सौदा करवाने पर उतारू थे, जो अधिकारी कार्रवाई करने में हीला-हवाली कर रहे थे, जो प्रदर्शन करने वालों के दमन पर अड़े हुये थे, अगर उनके विरुद्ध तुरन्त कठोर कार्रवाई की जाती तो कुछ अच्छा संदेश जाता. लेकिन जब नीचे कार्रवाई होने लगेगी तो फिर नीचे वाले ऊपर वालों को भी जद में लेने लगेंगे, और जब ऊपर वालों पर कार्रवाई होगी तो फिर कानून का राज चलने लगेगा, लेकिन कानून का राज इस देश में कौन चाहता है, उसके अलावा जो कानून की व्याख्या अपने हिसाब से नहीं करवा पाता.

Thursday, April 18, 2013

विस्फोटों से फायदा..

एक नेता जी का ट्वीट है कि बम विस्फोट भाजपा के कार्यालय के बाहर होने से भाजपा को राजनीतिक फायदा होगा. फिर वे यह भी बतायें कि अभी तक हुई आतंकवादी वारदातों से किस किस दल को कितना फायदा हुआ है. उनके दल के लोग भी इस प्रकार की आतंकवादी वारदातों में मारे गये हैं. मुझे तो यही लगता था कि विस्फोटों से नुकसान ही होता है, लेकिन फायदे का पहलू पहली बार पता चला. ऐसे लोग जनता के घावों पर कैसा सुन्दर मरहम लगा रहे हैं!
विडम्बना यह है कि हमारे यहां ९० प्रतिशत जनता इस सब से या तो अंजान है, या अंजान बना रहना चाहती है, या फिर उसे अंजान बनाया गया है. अभी भी बहुत समय है, भारतीय यदि अभी भी न चेते तो आने वाले दिनों में भारतीयता बची रहेगी, इसकी संभावना बहुत ही कम है. और लोगों के अन्दर यदि ऐसी प्रवृति आने लगे तो आसार अच्छे नहीं हैं. जागो.