कहाँ अकेले रहते हैं हम?
अपने से ही सब दिखते हैं,
जितने गतिमय हम, उतने ही,
जितने जड़वत हम, उतने ही,
भले न बोलें शब्द एक भी,
पर सहता मन रिक्त एक ही,
और भरे उत्साह, न थमता,
भीतर भारी शब्द धमकता,
लगता अपने संग चल रहा,
पथ पर प्रेरित दीप जल रहा,
लगता जीवन एक नियत क्रम,
कहाँँ अकेले रहते हैं हम?
औरों से हम क्यों छिपते हैं,
कर लें हृद को रुक्ष, अनवरत,
नहीं वाह्यवत, अपने में रत,
मन में मन के क्रम उलझाये,
सहजीवन के तत्व छिपाये,
नहीं कहीं कुछ सुनना चाहें,
अपनी सुविधा, नियम बनायें,
एकान्ती भावुक उद्बोधन,
मूक रहे वैश्विक संबोधन,
शुष्क व्यवस्था और हृदय नम,
कहाँ अकेले रहते हैं हम?