10.5.14

कहाँ अकेले रहते हैं हम

कहाँ अकेले रहते हैं हम?

अपने से ही सब दिखते हैं,
जितने गतिमय हम, उतने ही,
जितने जड़वत हम, उतने ही,
भले न बोलें शब्द एक भी,
पर सहता मन रिक्त एक ही,
और भरे उत्साह, न थमता,
भीतर भारी शब्द धमकता,
लगता अपने संग चल रहा,
पथ पर प्रेरित दीप जल रहा,
लगता जीवन एक नियत क्रम,
कहाँँ अकेले रहते हैं हम?

औरों से हम क्यों छिपते हैं,
कर लें हृद को रुक्ष,  अनवरत,
नहीं वाह्यवत, अपने में रत,
मन में मन के क्रम उलझाये,
सहजीवन के तत्व छिपाये,
नहीं कहीं कुछ सुनना चाहें,
अपनी सुविधा, नियम बनायें,
एकान्ती भावुक उद्बोधन,
मूक रहे वैश्विक संबोधन,
शुष्क व्यवस्था और हृदय नम,
कहाँ अकेले रहते हैं हम? 

7.5.14

झम झमाझम

ढाढ़सी मौसम,
बस रसद कम,
जी ले लल्ला,
बैठ निठल्ला,
पानी बरसे,
झम झमाझम। 

3.5.14

तुम्हीं पर

प्रश्न कुछ भी पूछता हूँ,
उत्तरों की विविध नदियाँ,
ज्ञान का विस्तार तज कर,
मात्र तुझमें सिमटती हैं ।

नेत्र से कुछ ढूँढ़ता हूँ,
दृष्टियों की तीक्ष्ण धारें,
अन्य सब आसार तजकर,
तुम्हीं पर कब से टिकी हैं ।

जब कभी कुछ सोचता हूँ,
विचारों की दिशा सारी,
व्यर्थ का संसार तजकर,
तुम्हीं पर आ अटकती हैं ।

नहीं खुद को रोकता हूँ,
हृदय के खाली भवन में,
जब तुम्हारी ही तरंगें,
अनवरत ही भटकती हैं ।

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30.4.14

बचपन

बचपन फिर से जाग उठा है,
सुख-तरंग उत्पादित करने,
ऊर्जा का उन्माद उठा है ।

वे क्षण भी कितने निश्छल थे,
चंचलता का छोर नहीं था ।
जीवन का हर रूप सही था,
व्यथा युक्त कोई भोर नहीं था ।।१।।

अनुपस्थित था निष्फल चिन्तन,
शान्ति अथक थी, चैन मुक्त था ।
घर थी सारी ज्ञात धरा तब,
दम्भ-युक्त अज्ञान दूर था  ।।२।।
 
व्यक्त सदा मन की अभिलाषा,
छलना तब व्यवहार नहीं था ।
मन में दीपित मुक्त दीप था,
अन्धकार का स्याह नहीं था ।।३।।

अनुभव का अंबार नहीं यदि,
ऊर्जा का हर कुम्भ भरा था ।
नहीं उम्र के वृहद भवन थे,
हृदय क्षेत्र विस्तार बड़ा था ।।४।।

थे अनुपम वे ज्ञानरहित क्षण,
अन्तः अपना भरा हुआ था ।
आज हृदय है खाली खाली,
ज्ञान कोष में अनल भरा है ।।५।।

26.4.14

कविता झरती

आनन्द रहित मन की तृष्णा, जब मधु का प्याला कहती है,
जब यादों के मद ज्वारों की, सारी सीमायें ढहती हैं,
जब मेरे सोये अन्तः में इच्छायें रिक्त बहकती हैं,
तब मन रूपी इस सरिता में भावों की धारा बहती है ।

तो उमड़ रही इस धारा से, छन्दों का अमृत कर निर्मित,
मैं उसको जीवन के सुन्दर रस-कलशों में कर एकत्रित,
मन की सारी पीड़ाआें के उपचार हेतु ही रखता हूँ ।
और,
मेरी यह कविता, मेरे ही उन निष्कर्षों की साक्षी है ।।