Holi khele nanda lalaहोली में कुछ मेरी भी सुन।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।

जब शोभित नर्तित त्वरित सरित पर
वासंती चन्द्रिका धवल।
विचरता पृष्ठ पर पोत पीत
श्यामल अलि मृदुल मुकुल परिमल।
कामिनी-केलि-कान्तार-क्वणित
तुम कंकण किंकिणि नूपुर सुन ।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।1।।

जब खग कुल संकुल ऋतु वसंत में
होता गगन गीत गुंजित।
मनुहार प्रिया रसना नकारती
स्वीकृत करते नयन नमित।
तुम मौन मानसी शतरंगी
प्रेयसी पयोधर अम्बर बुन।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।2।।

जब झुकी अवनि पर पवन प्रेरिता
पीत पक्व गोधूम फली।
दिनमणि स्वागत-हित विटप वृन्त पर
तुहिन विन्दु शत सिहर हिलीं।
तुम शाश्वत सामवेद पाती
अनुराग राग गाओ गुन-गुन।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।3।।

जब सरसिज संकुल सर में शिशुदल
विहॅंस बिखेर सलिल सीकर।
सखि कंजमुखी के कम्बुग्रीव में
पहना देता इन्दीवर।
तुम क्यों न चूमते ललक विमल
मृदु उनके गोल कपोल अरुण।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।4।।

है एक ओर संसृति-संस्तुत
प्रतिमा पुराण मन्दिर ईश्वर।
है एक ओर मधु-सुधा-स्नात
रमणी अरुणाभ कपोल अधर।
हे तृप्ति-तृषित दिग्भ्रान्त पथिक
वांछित ‘पंकिल’ पथ-संबल चुन।
मन, मत अपने में ही जल भुन ।।5।
---प्रेम नारायण ’पंकिल’

आज बिरज में होली रे रसिया: शोभा गुर्टू 



चित्र साभार: फ्लिकर (बिश्वजीत दास)

’सौन्दर्य-लहरी’ संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है यह काव्य। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है ’सौन्दर्य-लहरी’ में। उत्कंठावश इसे पढ़ना शुरु किया था, सुविधानुसार शब्दों के अर्थ लिखे, मन की प्रतीति के लिये सस्वर पढ़ा, और भाव की तुष्टि के लिये हिन्दी में इसे अपने ढंग से गढ़ा। अब यह आपके सामने प्रस्तुत है। ’तर्तुं उडुपे नापि सागरम्’ - सा प्रयास है यह । अपनी थाती को संजो रहे बालक का लड़कपन भी दिखेगा इसमें। सो इसमें न कविताई ढूँढ़ें, न विद्वता। मुझे उचकाये जाँय, उस तरफ की गली में बहुत कुछ अपना अपरिचित यूँ ही छूट गया है। उमग कर चला हूँ, जिससे परिचित होउँगा, उँगली पकड़ आपके पास ले आऊँगा। जो सहेजूँगा,यहाँ लाकर रख दूँगा। पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठीं, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवींग्यारहवीं के बाद आज बारहवीं कड़ी -
भ्रुवौ भुग्ने किं चिद्‌भुवनभयभंगव्यसनिनि
त्वदीये नेत्राभ्यां मधुकररुचिभ्यां धृतगुणम्‌ ॥
धनुर्मन्ये सव्येतरकरगृहीतं रतिपतेः
प्रकोष्ठे मुष्टौ च स्थगयति निगूढान्तरमुमे ॥४६॥

कुटिल भृकुटि युगल नयन की
ओ भुवनभयहारिणी हे!
तुल्यताधृत ज्यों शरासन
सुसज्जित मधुकरमयी अभिराम प्रत्यंचा जहाँ है
वाम करतल में स्वयं  धारण किए
जिसको मदन है
भ्रू धनुष के मध्य उसकी मुष्टि स्थापन की
सुसंगत बन गयी सम्यक व्यवस्था है॥

अहः सूते सव्यं तव नयनमर्कात्मकतया
त्रियामां वामं ते सृजति रजनीनायकतया ।
तृतीया ते दृष्टिर्दरदलितहेमाम्बुजरुचिः
समाधत्ते सन्ध्यां दिवसनिशयोरन्तरचरीम्‌ ॥४७॥

प्रकट करता है
दिवाकर को नयन दक्षिण तुम्हारा
वाम लोचन से तुम्हारे
सोम का होता सृजन है
विकच स्वर्ण विमल कमल सम
रूपवंत तृतीय लोचन
हे त्रिनयने!
समुद्भासित हो रहा ज्यों
दिवस निशि के मध्य
संध्या समासीना॥

विशाला कल्याणी स्फुटरुचिरयोध्या कुवलयैः
कृपाधाराधारा किमपि मधुराभोगवतिका ।
अवन्ती दृष्टिस्ते बहुनगरविस्तारविजया
ध्रुवं तत्तन्नामव्यवहरणयोग्या विजयते ॥४८॥
दृष्टि कल्याणी तुम्हारी विशालाख्या
कमलिनी ज्यों
वह अयोध्या पद्मरुचिरा
कृपाधाराधराधारा
भोगवति मथुरा वरेण्या
दृष्टि जयवन्ती अवन्ती
बहुनगर विस्तार विजया
व्यवहृता तद्नाम संज्ञक
दृष्टिभंगी
विजयिनी हे!

कवीनां सन्दर्भस्तवकमकरन्दैकरसिकं 
कटाक्षव्याक्षेपभ्रमरकलभौ कर्णयुगलम्‌
अमुश्चन्तौ दृष्ट्वा तव नवरसास्वादतरला-
वसूयासंसर्गादलिकनयनं किंचिदरुणम्‌ ॥४९॥
कवि भणितपद पुष्प गुच्छ
मरंद गंध रसार्द्र
कर्ण तक पसरे तुम्हारे
नवल नव रस स्वाद लोलुप
भ्रमर शिशुवत चपल लोचन
कर्णकोर न छोड़ते हैं,
देख यह ईर्ष्या विवश हो
भालस्थित जो चक्षु तेरे
सहज किंचित लालिमा
स्वीकारते
हे अरुण नयने!

शिवे शृंगारार्द्रा तदितरजने कुत्सनपरा
सरोषा गंगायां गिरिशचरिते विस्मयवती 
हराहिभ्यो भीता सरसिरुहसौभाग्यजननी
सखीषु स्मेरा ते मयि जननि दृष्टिः सकरुणा ॥५०॥
हर हृदीश्वर हेतु
अति शृंगारमयि स्नेहाम्बुतरला
इतर जनहित उपेक्षामयि
देवसरिता हित सरोषा
शिव चरित्र विमुग्धिता विस्मयवती
शिव सर्पभीता
कमलिनी
सौभाग्यजननी
सखीगणहित मधु सुहासा
मुझ अकिंचन हेतु
तेरी दृष्टि करुणामयि
जननि हे!

क्रमशः---

पहलीदूसरी एवं तीसरी कड़ी से आगे...

पंचम दृश्य 
(दमयंती स्वयंवर का महोत्सव। नृत्य गीतादि चल रहे हैं। राजा महाराजा पधार रहे हैं। सब अपने अपने निवास स्थान पर यथास्थान विराजित होते हैं। सुन्दरी दमयंती अपनी अंगकांति से राजाओं के मन और नेत्रों को अपनी ओर आकर्षित करती हुई रंगमंडप में प्रवेश करती है। संग में सखी मंडल है। हाथ में वरमाला है। राजाओं का परिचय दिया जा रहा है।)

दमयंती: (सखियों के मुख की ओर निहारती है, फिर रंगभूमि की ओर देखती है, फिर चकित हो कर स्वगत भाषण करती हुई एक-एक को देखकर आगे बढ़ने लगती है। आगे एक ही स्थान पर नल के समान आकार और वेषभूषा के पाँच राजाओं को इकट्ठे ही बैठे हुए देखती है। संदेह और विस्मय के साथ स्वयमेव स्वयं से बातें कर रही है।) 
A play based on the story of Nal and Damayantiअरे! मेरे प्राणेश्वर नल कौन है,यह कैसे जानूँ? कौन देवता हैं, कौन मेरे हृदयेश्वर हैं, यह कैसे पहचानूँ? (ठिठक जाती है, फिर अपनी अंगुलियों को अपने वक्षस्थल पर स्थापित कर दीर्घश्वांस भरती हुई कहने लगती है) बन्द करो मेरे दुर्भाग्य, यह नंगा नाच! अरे जगन्नियंता! मेरे किस अपराध की सजा मिलने वाली है। अरे मेरे व्याकुल नयन! तुम कौन-सा दृश्य देख रहे हो? जीवनधन कहाँ हो? हे विरहाग्नि में संतप्त होते हुए हृदय, यदि तुम लौहमय हो तो द्रवित क्यों नहीं होते। अरे जीवन! क्यों विलम्ब करते हो? तुम्हारा निवासभूत यह हृदय जल रहा है। क्यों नहीं निकल जाते? अरे मंद-मंद बहते हुए मारुत! यदि विरहाग्नि में मैं जल कर मरूँ तो दीन वचन कह कर प्रार्थना करती हूँ कि मेरे मृत शरीर की भस्म को उत्तर दिशा में स्थित निषध देश में उड़ते हुए पहूँचा देना। ओ राजहंस! नल का संदेश देने वाले प्यारे विहंगम! किस तड़ाग में छिप गए हो? तुम मिल जाते तो मेरी इस यातना को मेरे हृदयेश्वर से परिचित करा देते। प्यारे नल! हे हृदयेश्वर! आपको वरण किए बिना ही यदि मेरे हतभाग्य प्राण निकल जाँय तो जन्म जन्मांतर में भी मैं हृदय से अनुरक्त हो कर आप को ही पुनः प्राप्त करूँ, यही मेरी याचना है। अनसुनी मत करना देव! छोड़ना मत प्राणनाथ! 

यह प्रस्तुति

नल दमयंती की यह कहानी अद्भुत है। भारत वर्ष के अनोखे अतीत की पिटारी खोलने पर अमूल्य रत्नों की विशाल राशि विस्मित करती है। इस पिटारी में यह कथा-संयोग ऐसा ही राग का एक अनमोल चमकता मोती है। भाव-विभाव और संचारी भाव ऐसे नाच उठे हैं कि अद्भुत रस की निष्पत्ति हो गयी है। निषध राजकुमार नल और विदर्भ राजकुमारी दमयंती के मिलन-परिणय की अद्भुत कथा है यह। रुदन, हास, मिलन, विछोह के मनके इस तरह संयुक्त हो उठे हैं इस कहानी में कि नल दमयंती मिलन की एक मनोहारी माला बन गयी है- अनोखी सुगंध से भरपूर। नल दमयंती की यह कथा नाट्य-रूप में संक्षिप्ततः प्रस्तुत है। दृश्य-परिवर्तन के क्रम में कुछ घटनायें तीव्रता से घटित होती दिखेंगी। इसका कारण नाट्य के अत्यधिक विस्तृत  हो जाने का भय है, और शायद मेरी लेखनी की सीमा भी। प्रस्तुत है पहलीदूसरीतीसरी के बाद चौथी कड़ी।

(फिर देवताओं से ही हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक स्तुति करती हुई-) हे देवताओं! हंसों के मुख से नल का वर्णन सुनकर मैंने उन्हें पति रूप से वरण कर लिया है। मैं मन से और वाणी से नल के अतिरिक्त किसी को भी नहीं चाहती। देवताओं! आपने ही, आपकी भाग्यविधाता सृष्टि ने ही, निषधेश्वर नल को ही मेरा पति बना दिया है, तथा मैंने नल की आराधना के लिए ही यह व्रत प्रारंभ किया है। मेरी इस सत्य शपथ के बल पर देवता लोग मुझे उन्हें ही दिखला दें। मैं  विनीता करबद्ध प्रार्थना करती हूँ। ऐश्वर्यशाली लोकपालों! आप लोग अपना रूप प्रकट कर दें, जिससे मैं पुण्यश्लोक नराधिराज राजा नल को पहचान लूँ।
(दमयंती का अंतर्विलाप सुन कर देवता द्रवित हो जाते हैं। वे उसके दृढ़ निश्चय, सच्चे प्रेम, आत्मशुद्धि, बुद्दि, भक्ति और नल परायणता को देख कर उसे देवता और मनुष्य में भेद करने की शक्ति प्रदान कर देते हैं। उसको हृदय में ’विजयी भव’ का शब्द सुनायी पड़ता है।)

दमयंती: (पुनः चमत्कृत होती हुई) अहा! अहा! अब तो पार्थक्या मुझे साफ दिखायी देने लगा है। देवताओं के शरीर पर पसीना नहीं है। पलकें गिरती नहीं हैं। उनकी ग्रीवा में पड़ी पुष्पमाला कुम्हलायी नहीं है। शरीर पर मैल नहीं है। वे सिंहासन पर स्थित हैं पर उनके पैर धरती को नहीं छूते और उनकी परछाईं नहीं पड़ती। इधर नल के शरीर की छाया पड़ रही है। माला कुम्हला गयी है। शरीर पर कुछ धूल और पसीना भी है। पलकें बराबर गिर रही हैं। अब मैं पहचान गयी। (फिर सकुचा कर घूँघट काढ़ लेती हैं, और नल के गले में वरमाला डाल देती हैं। देवता और महर्षि साधु-साधु कहने लगते हैं। पुष्पवृष्टि होने लगती है। राजागण आश्चर्यचकित हो जाते हैं।) 

नल: (आनंद से फूले न समाते हुए) कल्याणी! तुमने देवताओं के सामने रहते हुए भी उन्हें वरण न करके मुझे ही वरण कर लिया है, इसलिए तुम मुझको प्रेम परायण पति समझना। मैं तुम्हारी बात मानूँगा। जब तक मेरे शरीर में प्राण रहेंगे तब तक मैं तुमसे प्रेम करूँगा, यह मैं तुमसे शपथ पूर्वक कहता हूँ। तुम्हारे योग्य आसन मेरा वक्षस्थल ही है। निष्कपट दूतता करने से इन्द्रादि देव मुझ पर दया करें। (देवता बहुत प्रसन्न होकर प्रकट हो जाते हैं तथा नल को वरदान देते हुए फूल बरसान लगते हैं।)

इन्द्र: नल! तुम्हें यज्ञ में मेरा स्मरण करते ही दर्शन होगा और उत्तम गति मिलेगी।

अग्नि: राजा नल! जहाँ तुम मेरा स्मरण करोगे, वहीं मैं प्रकट हो जाऊँगा। मेरे ही समान प्रकाशमय लोक तुम्हें प्राप्त होंगे।

यम: नल! तुम्हारी बनायी हुई रसोई बहुत मीठी होगी और स्मरण रखो, तुम अपने धर्म में सदा दृढ़ रहोगे।

वरुण: हे महाराज! जहाँ तुम चाहोगे,वहीं जल प्रकट हो जाएगा। तुम्हारी माला निरंतर उत्तम गंध से परिपूर्ण रहेगी।
(सभी समवेत आशीर्वाद देते हैं।) 
(राजा नल महाराज भी की राजधानी कुण्डिनपुर में राजसम्मान से सुशोभित होते हैं। महामहोत्सव मनाया जाता है। तदनन्तर राजा भीम की अनुमति प्राप्त करके महाराज नल दमयंती के साथ अपनी राजधानी लौट आते हैं।)

(पर्दा गिरता है।)

मुझे वहीं ले चलो मदिर मन जहाँ दिवानों की मस्त टोली 
होली, होली, होली।

कभी भंग मे, कभी रंग में, कभीं फूल से खिले अंग में
कभी राग में, कभी फाग में, कभीं लचक उठती उमंग में
पीला कोई गाल न छूटे मल दो सबमें कुंकुम रोली - 
होली, होली, होली॥१॥

किसी षोडसी का थाम अंचल, वसंत गा ले वयस्क चंचल 
सतरंगी भींगी कंचुकि में, भटक अटकना सदैव मनचल 
भर पेटाँव वैकुण्ठ भोग है, वसंत बाला की मस्त बोली -
होली, होली, होली॥२॥

जग की रंजित परिधि बढ़ा दो, वसंत की रागिनी पढ़ा दो
प्रति उल्लास हर्ष वनिता को रंग भरी चूनरी उढ़ा दो 
हर तरुणी का चुम्बन कर लो भुला के बातों में भोली-भोली -
होली, होली, होली॥३॥

रंगों की इन्द्रधनुषी माया, सबकी सुरभित बना दो काया 
हुड़दंगी स्वर में झूम गाओ, ’वसंत आया, वसंत आया’
’फागुन में प्रियतमे न रूठो, कर दो अबकी माफ ठिठोली’ -
होली, होली, होली॥४॥

पहली एवं दूसरी कड़ी से आगे...

A play based on the story of Nal and Damayanti
नल: (उसकी बाहें पकड़कर सम्हालते हुए तथा आँसू पोंछते हुए) सुकुमारी! रोना अशुभ है, अतः मत रोओ। यदि मेरे अपराध के कारण तुम रो रही हो तो उस अपराध के लिए राजा नल हाथ जोड़कर क्षमा माँगता है। निष्कारण क्रोध न करो, प्रिये! क्रोध को छोड़ो। मेरे ऊपर प्रसन्न हो जाओ। चाहे परिणाम जो हो, नल देवताओं के प्रतिशोध को झेल लेगा। तुम अधरों को मधुर हास्य से सुशोभित करो। नेत्रों को अपनी विलास लीला से चंचल करो। दृग बिन्दु की वर्षा समाप्त करो। प्रसन्नमुखी हो जाओ। मेरे सिंहासन को अलंकृत करो। मेरे अंक का विशिष्ट अलंकार बनो। तुम मेरी पीर का पराभव करो। वचन से अनुकंपा करो, अन्यथा मैं अब जी नहीं सकता। 

यह प्रस्तुति

नल दमयंती की यह कहानी अद्भुत है। भारत वर्ष के अनोखे अतीत की पिटारी खोलने पर अमूल्य रत्नों की विशाल राशि विस्मित करती है। इस पिटारी में यह कथा-संयोग ऐसा ही राग का एक अनमोल चमकता मोती है। भाव-विभाव और संचारी भाव ऐसे नाच उठे हैं कि अद्भुत रस की निष्पत्ति हो गयी है। निषध राजकुमार नल और विदर्भ राजकुमारी दमयंती के मिलन-परिणय की अद्भुत कथा है यह। रुदन, हास, मिलन, विछोह के मनके इस तरह संयुक्त हो उठे हैं इस कहानी में कि नल दमयंती मिलन की एक मनोहारी माला बन गयी है- अनोखी सुगंध से भरपूर। नल दमयंती की यह कथा नाट्य-रूप में संक्षिप्ततः प्रस्तुत है। दृश्य-परिवर्तन के क्रम में कुछ घटनायें तीव्रता से घटित होती दिखेंगी। इसका कारण नाट्य के अत्यधिक विस्तृत  हो जाने का भय है, और शायद मेरी लेखनी की सीमा भी। प्रस्तुत है पहलीदूसरी के बाद तीसरी कड़ी।

दमयंती: हे प्राणनाथ!  मैं सब देवताओं को प्रणाम करके आप को ही पतिरूप में वरण कर रही हूँ। यह मैं सत्य-सत्य शपथ खा रही हूँ।

नल: प्रिये! ज्यों ही पहली बार पाया तुम्हारी मुख छवि का दर्शन तो देखते ही निमिष मात्र में अन्तरतम्‌ के चिन्मय वातायन खुल गए। मेरे रोम रोम में आत्मरमण का आलोड़न जागा। मैं तन,मन, प्राण, आत्मा के सारे ही धरातलों पर समूचा ही तुमको पा गया। निहाल हो गए मेरे प्राण! देवताओं के वरण का तुमसे अनुरोध करने चला आया। तुम्हें नल ने घोर कष्ट दिया। किन्तु मैं धर्म विरुद्ध  अपना स्वार्थ कैसे साधूँ, कमल नयने!

दमयंती: (नल का मुख अपनी मृणाल कोमल अंगुलियों से ऊपर उठाती हुई गद्गद स्वर में) समझ रही हूँ प्राण! आप की अमोघ धर्मनिष्ठा को कौन नहीं जानता। नरेश्वर! इसके लिए एक निर्दोष उपाय है। इसके अनुसार काम करने से आपको को कोई दोष नहीं लगेगा। उपाय है कि आप लोकपालों के साथ स्वयंवर में मण्डप में आयें। मैं उनके सामने ही आपको वरण कर लूँगी। मेरा विनय अस्वीकार न करें जीवन-धन! 

नल: (दमयंती का सिर सहलाते हुए स्नेहमयी वाणी में)मुझे यशस्वी एवं कृतकार्य बनाने वाली गुणमयी राजकन्ये! तुम्हारी विनयशीलता एवं हृदय की पवित्रता के लिए कोई शब्द नहीं है मेरे पास। विधाता तुम्हें सफल मनोरथा करे। कल स्वयंवर में मुझे सनाथ करना।
(नल का प्रस्थान। पर्दा गिरता है।)

चतुर्थ दृश्य 
(देवता बाहर प्रतीक्षा कर रहे हैं। नल उन्हें प्रणाम करते हुए कहते हैं-)
नल: हे देवगण! मैं आपलोगों की आज्ञा से दमयंती के महल में गया। बाहर अनेकों द्वारपाल पहरा दे रहे थे, परंतु उन्होंने आप लोगों के प्रभाव से मुझे देखा नहीं। केवल दमयन्ती और उसकी सखियों ने मुझे देखा। मैंने दमयंती से आप लोगों के गुण और प्रभाव का विशद वर्णन किया। कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, परंतु वह तो आप लोगों को न चाह कर मुझे ही वरण करने पर तुली हुई है। देववरों! वस्तुस्थिति तो यह है कि किसी भी सद्गुण का एक कण भी मुझमें नहीं है और सम्पूर्ण दोषों की जीवंत प्रतिमा हूँ मैं। पर बलिहारी है उसके अनुराग भरे नयनों की- उसके समर्पणपूर्ण उरस्थल की, कि वह केवल, केवल मुझ पर ही न्यौछावर हो गयी थी और उसे मेरे अतिरिक्त अन्य सबकी विस्मृति हो गयी थी। एक बार नहीं शत-सहस्र बार लज्जा में मेरे प्राण जैसे भूमि में समा जाते थे। पर वह समर्पिता मुझे ही अपना जीवन-सर्वस्व मान चुकी थी। उस लावण्यमयी की विभोरावस्था अवर्णनीय है सुरवरों! जल से पूरित  उसके उन नयन सरोजों को मैं भूल नहीं पाता। मैं उस भावमयी के भावों की आँधीं में ऐसा बह गया कि आपलोगों के पास पुनरावर्तित होने में इतना विलम्ब हो गया। उसके ताम्बूलरंजित अधर अभी कम्पित ही थे कि मैं किसी भाँति उसके प्राण रमण की संबोधनमयी वाणी को विस्तृत करता हुआ बाहर आप तक आ गया हूँ।

देवगण: अब तुमसे क्या पूछना और क्या कहना! जब तुम्हारे साथ स्वयंवर में बैठना है, तो कल जो होगा, देखा जायेगा। बाकी बातें व्यर्थ ही हैं। (देवता अदृश्य हो जाते हैं।) 
 (पर्दा गिरता है।) 

क्रमशः---
Hindi translation of Saundarya Lahari-a well-known and appriciated tantra and poetic work of Acharya Shankar
’सौन्दर्य-लहरी’ संस्कृत के स्तोत्र-साहित्य का गौरव-ग्रंथ व अनुपम काव्योपलब्धि है। आचार्य शंकर की चमत्कृत करने वाली मेधा का दूसरा आयाम है यह काव्य। निर्गुण, निराकार अद्वैत ब्रह्म की आराधना करने वाले आचार्य ने शिव और शक्ति की सगुण रागात्मक लीला का विभोर गान किया है ’सौन्दर्य-लहरी’ में। उत्कंठावश इसे पढ़ना शुरु किया था, सुविधानुसार शब्दों के अर्थ लिखे, मन की प्रतीति के लिये सस्वर पढ़ा, और भाव की तुष्टि के लिये हिन्दी में इसे अपने ढंग से गढ़ा। अब यह आपके सामने प्रस्तुत है। ’तर्तुं उडुपे नापि सागरम्’ - सा प्रयास है यह । अपनी थाती को संजो रहे बालक का लड़कपन भी दिखेगा इसमें। सो इसमें न कविताई ढूँढ़ें, न विद्वता। मुझे उचकाये जाँय, उस तरफ की गली में बहुत कुछ अपना अपरिचित यूँ ही छूट गया है। उमग कर चला हूँ, जिससे परिचित होउँगा, उँगली पकड़ आपके पास ले आऊँगा। जो सहेजूँगा,यहाँ लाकर रख दूँगा। पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठीं, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवीं के बाद आज ग्यारहवीं कड़ी -

गतै-र्माणिक्यत्वं गगनमणिभिः सांद्रघटितं
किरीटं ते हैमं हिमगिरिसुते कीतयति यः ॥
स नीडेयच्छाया-च्छुरण-शकलं चंद्र-शकलं
धनुः शौनासीरं किमिति न निबध्नाति धिषणाम् ॥४१॥

गगनमणि द्वादश दिवाकर
सान्द्र किरण समूह सुघटित
चमत्कृत माणिक्य-सम
कलधौत निर्मित मुकुट तेरा
ध्यान में किसके नहीं
होता स्फुरित यह इन्द्रधनु-सा
ग्रहण कर माणिक्य की द्युति
भाल संस्थित चन्द्रमा में
जो तुम्हारा स्वर्ण मंडित मुकुट है
गिरिबालिके हे!

धुनोतु ध्वांतं न-स्तुलित-दलितेंदीवर-वनं
घनस्निग्ध-श्लक्ष्णं चिकुर निकुरुंबं तव शिवे ।
यदीयं सौरभ्यं सहज-मुपलब्धुं सुमनसो
वसंत्यस्मिन् मन्ये बलमथन वाटी-विटपिनाम् ॥४२॥

जो प्रफुल्लित
चिकुर तेरा सघन कोमल
रुचिर भरित सुगंध
उसका सुरभि भार समेटने को
ललक आ बसते मनोज्ञ प्रसूनगण नंदन विपिन के
वह तुम्हारा रम्य केश कलाप
कर दे सहज मेरे हृदय संस्थित
घन तिमिर का नाश
छविचिकुरे शिवे हे!

वहंती- सिंदूरं प्रबलकबरी-भार-तिमिर
द्विषां बृंदै-र्वंदीकृतमेव नवीनार्ककिरणम् ॥

तनोतु क्षेमं न-स्तव वदनसौंदर्यलहरी
परीवाहस्रोतः-सरणिरिव सीमंतसरणिः।
४३॥

सघन श्यामल केश-दल में
राजती सिन्दूर रेखा
बैरियों को बाँध जैसे
नवल दिनमणि की किरण हो
वह ललाम चटक
तुम्हारे भाल की सिन्दूर रेखा
विलसती जैसे तुम्हारे
वह वदन सौन्दर्य लहरी के अबाध प्रवाह के हित
सरणि-सी कच में खड़ी हो
स्रोतस्विनी सुषमामयी हे!
वह ललित सीमंत सरणी
नित्य क्षेम सँवार दे मेरा।

अरालै स्वाभाव्या-दलिकलभ-सश्रीभिरलकैः
परीतं ते वक्त्रं परिहसति पंकेरुहरुचिम् ।
दरस्मेरे यस्मिन् दशनरुचि किंजल्क-रुचिरे
सुगंधौ माद्यंति स्मरदहन चक्षु-र्मधुलिहः ॥४४॥

युवा-अलि-दल-सा सहज सुन्दर
कुंचित केश संवृत तुम्हारा मुख कमल है,
इस मुख कमल की सुषमा
तिरस्कृत कर रही सरसिज सुमन को
और इसके वरदंत स्मिति की
कान्तिमय मधु सुरभि रस से
मत्त परिमल गंध
स्मरदहन शिव के विलोचन
घूमते मंदस्मिते हे!

ललाटं लावण्य द्युति विमल-माभाति तव यत्
द्वितीयं तन्मन्ये मकुटघटितं चंद्रशकलम् ।
विपर्यास-न्यासा दुभयमपि संभूय च मिथः
सुधालेपस्यूतिः परिणमति राका-हिमकरः ॥४५॥

विमल द्युति लावण्यमय
जो भाल उद्भासित तुम्हारा
मुकुटमंडित
अपर हिमकर खंड
सदृश विराजता है
इन युगल विपरीत भागों का
अमोलक घटित संगम
सुधालेप प्रवाह पूरित
पूर्णिमा का चन्द्र बन जाता
ललामललाटिके हे!

क्रमशः---

Geetanjali: Rabindra Nath Tagore

Tagore by Chiranjit Mitra
(CC BY-NC-ND 3.0)
Let only that little be left of me
whereby I may name thee my all.

Let only that little be left of my will
whereby I may feel thee on every side, and
come to thee in every thing, and offer to
thee my love every moment.

Let only that little be left of me whereby I
may never hide thee.

Let only that little of my fetters be left
whereby I am bound with thy will,
and thy purpose is carried out in
my life-and that is the fetter of thy love. 

हिन्दी भावानुवाद: प्रेम नारायण पंकिल

बस इतना ही स्वल्प हमारा रहने दो प्रभु शेष
जिससे मैं सर्वस्व कह सकूँ तुमको हे प्राणेश।

हो दिशि दिशि में अनुभव तेरा वस्तु वस्तु में संग
प्रति क्षण प्रीति-दान मय हो ऐसा अभिलाषा रंग
तुम्हें छिपा पाऊँ न कभी भी हे मेरे सर्वेश -
जिससे मैं सर्वस्व कह सकूँ तुमको हे प्राणेश।

बँधा तुम्हारी इच्छा से हूँ रहने दो  यह बंध
तव उद्देश्य पूर्ति ही पंकिल जीवन गति संबंध
यही तुम्हारे प्रेम रज्जु का बंधन हमें न क्लेश-
जिससे मैं सर्वस्व कह सकूँ तुमको हे प्राणेश।

गीतांजलि के अन्य भावानुवाद

एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह, पन्द्रह, सोलह, सत्रह, अट्ठारह, उन्नीस, बीस, इक्कीस, बाइस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताइस, अट्ठाईस, उन्तीस, तीस, इकतीस, बत्तीस, तैतीस 

गवाक्ष