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साधों, मिलीजुली ये कुश्ती – महेन्द्र नेह के पद

साथी, संस्कृति एक न होई – महेन्द्र नेह के पद

mahendra nehइस बार प्रस्तुत हैं कोटा ( राजस्थान ) से ही साहित्यकार और जनगीतकार महेन्द्र नेह के कुछ नई पद-रचनाएं। जनआंदोलनों में संघर्षशील अवाम और साथी जिन बहुत से जनगीतों से ऊर्जा पाया करते थे और हैं, उनमें महेन्द्र नेह के कई मशहूर जनगीत भी शामिल रहे हैं। जनसंघर्षों में स्वयं अपना जीवन होम कर देने वाले साथी महेन्द्र नेह आज भी भरसक सक्रिय रहते हैं और विभिन्न स्तरों पर कई कार्रवाइयों में लगे हुए हैं। ‘विकल्प’ अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक-सामाजिक मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी निभा रहे हैं, और कई संगठनों में भी सक्रिय हैं। साथ ही ‘अभिव्यक्ति’ पत्रिका का संपादन भी उन्हीं के जिम्मे हैं।

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( १ )

साथी, संस्कृति एक न होई ।
जो संस्कृति लुट्टन खोरन की अपनी कैसे होई ।।

हमरा किया शिकार, रोंधते और पकाते हमको ।
देते हैं उपदेश, भगाना भू-तल से है तम को ।।

जो हम को चंडाल समझते, छुआछूत करते हैं ।
उनका भाग्य चमकता है, हम बिना मौत मरते हैं ।।

उनकी संस्कृति राजे-रजवाड़ों, सेठों की गाथा ।
उनकी संस्कृति अधिनायक है, जन-गण ठोके माथा ।।

उनकी संस्कृति भ्रम रचती है, सिर के बल चलती है ।
अपनी संस्कृति सृजन-कर्म, परिवर्तन में ढलती है ।।

उनकी संस्कृति सच पूछें तो दुष्कृति है, विकृति है ।
अपनी संस्कृति सच्चे माने जन-जन की संस्कृति है ।।

( २ )

साधों, मिलीजुली ये कुश्ती ।
लोकतंत्र की ढपली ले कर करते धींगामुश्ती ।।

जनता की मेहनत से बनती अरबों-खरबों पूंजी ।
उसे लूट कर बन जाते हैं, चन्द लुटेरे मूँजी ।।

उन्ही लुटेरों की सेवा में रहते हैं ये पंडे ।
जनता को ताबीज बाँटते कभी बाँटते गंडे ।।

इनका काम दलाली करना धर्म न दूजा इनका ।
भले लुटेरा पच्छिम का हो या उत्तर-दक्खिन का ।।

धोखा दे कर वोट मांगते पक्के ठग हैं यारों ।
इनके चक्रव्यूह से निकलो नूतन पंथ विचारो ।।

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( ३ )

साधो, घर में घुसे कसाई ।
बोटी-बोटी काट हमारी हमरे हाथ थमाई ।।

छीने खेत, जिनावर छीने, छीनी सकल कमाई ।
भँवरों की गुनगुन-रस छीना, तितली पंख कटाई ।।

मधु छीना, छत्तों को काटा, नीचे आग लगाई ।
इतना धुँआ भरा आँखों में, देता नहीं दिखाई ।।

नदियाँ गँदली, पोखर गँदले, गँदले ताल-तलाई ।
पानी बिके दूध से मँहगा, कैसी रीत चलाई ।।

नये झुनझुनों की सौगातें, घर-घर में बँटवाई ।
इतनी गहरी मार समय की, देती नहीं सुनाई ।।

किससे हम फरियाद करें, अब किससे करें दुहाई ।
नंगों की महफिल में, नंगे प्रभुओं की प्रभुताई ।।

( ४ )

साधो, यह कैसा मोदी ।

जिसने दिया सहारा पहले उसकी जड़ खोदी ।
फसल घृणा की, फूटपरस्ती की गहरी बो दी ।।

नारे हैं जनता के, बैठा धनिकों की गोदी ।
कौन महावत, किसका अंकुश किसकी है हौदी ।।

विज्ञापन करके विकास की अर्थी तक ढो दी ।
नहीं मिला खेतों को पानी, धरती तक रो दी ।।

ख़ुद के ही अमचों-चमचों ने मालाएं पो दीं ।
ख़ुद ही पहना ताज, स्वयं ही बन बैठा लोदी ।।

० महेन्द्र नेह

क़यामत ढा दिया करता है इक टूटा सितारा भी – पुरुषोत्तम यक़ीन

क़यामत ढा दिया करता है इक टूटा सितारा भी
( gazals by purushottam yaqeen )

इस बार प्रस्तुत है कोटा (राजस्थान) के एक महत्त्वपूर्ण रचनाकार पुरुषोत्तम यक़ीन के कुछ अश्‍आर। ढेर सारी किताबों, उस्तादगी और एक बड़ी पहचान के बावज़ूद वे जिस सहजता और सरलता के साथ सभी के लिए उपलब्ध होते हैं उसी सहजता के साथ वे दुनिया की पेचीदगियों से भी पूरी जिम्मेदारी से बाबस्ता होते हैं। यही उनके गीतों-गज़लों की ताक़त है और उनकी विशिष्ट पहचान भी।

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( 1 )

इक कहानी थी हक़ीक़ी-सी लगी
इक हक़ीक़त भी कहानी-सी लगी

उस ने जो बोला वो सच होगा ज़रूर
उस की इक-इक बात चुभती-सी लगी

ग़ौर से डाली जो दुनिया पर नज़र
मुझ को इक-इक आंख भीगी-सी लगी

हर कोई तपता है इक अंगार-सा
दुनिया इक जलती अंगीठी-सी लगी

( 2 )

किस क़दर तंग ज़माना है कि फ़ुरसत ही नहीं
वो समझते हैं हमें उन से मुहब्बत ही नहीं

दोपहर सख़्त है, सूरज से ठनी है मेरी
ऐसे हालात में आराम की सूरत ही नहीं

शाम से पहले पहुंचना है उफ़ुक़ तक मुझ को
मुड़ के देखूं कभी इतनी मुझे मुहलत ही नहीं

देखा कुछ और था महफ़िल में बयां और करूं
ये न होगा कभी, ऐसी मेरी फ़ितरत ही नहीं

यूं तो बनते भी हैं क़ानून यहां रोज़ नये
न्याय मुफ़्लिस को मिले ऐसी हुकूमत ही नहीं

( उफ़ुक़ – क्षितिज )

( 3 )

हम समझते थे जिसे ताबो-तवाँ का पैकर
वक़्त पर निकला वही आहो-फ़ुग़ाँ का पैकर

मतलबो-मौक़ापरस्ती के हैं किरदार सभी
किस बलंदी पे है देखो तो जहाँ का पैकर

हर तरफ़ अब तो नज़र में हैं लहू के धब्बे
कितना बदरंग हुआ अम्नो-अमाँ का पैकर

( ताबो-तवाँ – ओजस्व और सामर्थ्य, पैकर – आकृति, मूर्ति )

( 4 )

लोग रहते भी हैं वीरान मकाँ लगते हैं
क्यूं सभी अपने सिवा ग़ैर यहाँ लगते हैं

इन दरीचों को ज़रा खोल दो आने दो हवा
वर्ना दम घुटने के आसार अयाँ लगते हैं

नक़्शे-पा जिन पे तू चल के चला आया है
वो तेरे अपने ही क़दमों के निशाँ लगते हैं

( दरीचों – खिड़कियों, अयाँ – स्पष्ट, नक़्शे-पा – पद-चिह्न )

( 5 )

ग़मों के इस समुंदर का कहीं होगा किनारा भी
सफ़र जारी है, हम पायेंगे मंज़िल का इशारा भी

दिया दिल का तो है रोशन कि नफ़रत के अंधेरों में
है काफ़ी डूबतों को एक तिनके का सहारा भी

तुम्हारे फ़ैसलों पर सर बहुत हमने कटाये हैं
मुक़द्दर अब हमें लिखना है अपना भी तुम्हारा भी

मेरी हस्ती पे मत जाना, कभी ऐसा भी होता है
क़यामत ढा दिया करता है इक टूटा सितारा भी

( 6 )

हम अंधेरे में चरागों को जला देते हैं
हम पे इल्ज़ाम है हम आग लगा देते हैं

कल को खुर्शीद भी निकलेगा, सहर भी होगी
शब के सौदागरों ! हम इतना जता देते हैं

बीहडों में से गुज़रते है मुसलसल जो क़दम
चलते-चलते वो वहां राह बना देते हैं

जड़ हुए मील के पत्थर ये बजा है लेकिन
चलने वालों को ये मंज़िल का पता देते हैं

अब गुनह्गार वो ठहराऐं तो ठहराऐं मुझे
मेरे अशआर शरारों को हवा देते हैं

एक-एक जुगनू इकट्ठा किया करते हैं ‘यक़ीन’
रोशनी कर के रहेंगे ये बता देते हैं

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( रेखाचित्र – पुरुषोत्तम यक़ीन – द्वारा रवि कुमार )

०००००
पुरुषोत्तम यक़ीन

सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प – शिवराम

सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प

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मनमोहन की नाव में, छेद पचास हजार।
तबहु तैरे ठाठ से, बार-बार बलिहार॥
नाव में नदिया डूबी
नदी की किस्मत फूटी
नदी में सिंधु डूबा जाए
सिंधु में सेतु रहा दिखाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

वाम झरौखा बैठिके, दांयी मारी आंख।
कबहुं दिखावे नैन तो, कबहुं खुजावे कांख॥
नयन से नयन लड़ावै
प्रम बढ़तौ ही जावै
नयनन कुर्सी रही इतराय
‘सेज’ में मनुवा डूबौ जाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

माया सच्ची, माया झूठी, सिंहासन की माया।
ये जग झूठा, ये जग सांचा, ये जग ब्रह्म की माया॥
माया ब्रह्म अंग लगे
ब्रह्म माया में रमे
ब्रह्म की माया बरनी न जाय
ब्रह्म को माया रही लुभाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

अड़-अड़ के वाणी हुई, अडियल, चपल, कठोर।
सपने सब बिखरन लगे, घात करी चितचोर॥
चित्त की बात निराली
तुरुप बिन पत्ते खाली
चेला चाल चल रहा
गुरू अब हाथ मल रहा
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

००००००

शिवराम

रेखाचित्र – कोरल बीच, अंड़मान का दृश्य

रेखाचित्र – कोरल बीच, अंड़मान

लगभग सात वर्ष पूर्व एक बार अंड़मान जाना हुआ था, वहां की मनोरम दृश्यावलियों के ताज़ा प्रभाव में यह तय किया था कि इन पर पेन-स्कैच की एक श्रृंखला तैयार करनी चाहिए। सिर्फ़ एक चित्र बनाया जा सका, दूसरा अधूरा ही रह गया…और जोश ख़त्म। यह वही रेखाचित्र है, जो कि अंड़मान के कोरल बीच का है।

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रवि कुमार

भगत सिंह – संक्षिप्त जीवन-यात्रा

“क्रांति से हमारा अर्थ है – अंत में समाज की ऐसी व्यवस्था की स्थापना जिसमें किसी प्रकार के हड़कम्प का भय न हो, जिसमें मज़दूर वर्ग के प्रभुत्व को मान्यता दी जाए, और उसके फलस्वरूप विश्व संघ पूंजीवाद के बंधनों, दुखों तथा युद्धों की मुसीबतों से मानवता का उद्वार कर सके…”  - भगत सिंह

भगत सिंह – संक्षिप्त जीवन-यात्रा

प्रस्तुत है भगत सिंह की जीवन-यात्रा को संक्षिप्त रूप से प्रदर्शित करते हुए, कुछ पुराने पोस्टर जो कि शहादत-दिवस के मौके पर ही किए जाने वाले कार्यक्रमों में प्रदर्शन के लिए बनाए गए थे.

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मैं पुरुष खल कामी

मैं पुरुष खल कामी

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चित्र - रवि कुमार, रावतभाटा

मैं पुरुष हूं
एक लोहे का सरिया है
सुदर्शन चक्र सा यह
बार-बार लौट आता है, इतराता है

यह भी मैं ही हूं
आदि-अनादि से, हजारों सालों से
मैं ही हूं जो रहा परे सभी सवालों से

मैं सदा से हूं
मैं अदा से हूं

मैं ही दुहते हुए गाय के स्तनों को
रच रहा था अविकल ऋचाएं
मैं ही स्खलित होते हुए उत्ताप में
रच रहा था पुराण गाथाएं

मैं ही रखने को अपनी सत्ता अक्षुण्ण
गढ़ रहा था अनुशासन स्मृतियां
मैं ही स्वर्गलोक के आरोहण को
गढ़ रहा था महाकाव्य-कृतियां

मैं ही था हर जगह
शासन की परिभाषाओं में
शोर्य की गाथाओं में
मैं ही था स्वर्ग के सिंहासन पर
अश्वमेधी यज्ञों पर
चतुर्दिक लहराते दंड़ों पर

मैं ही निष्कासनों का कर्ता था
मैं ही आश्रमों-आवासों में शील-हर्ता था
मैंनें ही रास रचाए थे
मैंने ही काम-शास्त्रों में पात्र निभाए थे

मै ही क्षीर-सागर में पैर दबवाता हूं
मैं अपनी लंबी आयु के लिए व्रत करवाता हूं
मैं ही उन अंधेरी गंद वीथियों में हूं
मैं ही इन इज्ज़त की बंद रीतियों में हूं

मैं ही परंपराएं चलाती खापों में हूं
गर्दन पर रखी खटिया की टांगों में हूं
ये मेरे ही पैर हैं जिसमें जूती है
ये मेरी ही मूंछे है जो कपाल को छूती हैं

ये मेरा ही शग़ल है, वीरता है
ये मेरा ही दंभ है जो सलवारों को चीरता है
कि नरक के द्वार को
मैं बंद कर सकता हूं तालों से
मैं पत्थरों से इसे पाट सकता हूं
मैं इसे नाना तरीक़ों से कील सकता हूं

मैं ब्रह्म हूं, मैं नर हूं
मैं अजर-अगोचर हूं
मेरी आंखों में
हरदम एक भूखी तपिश है
मेरी उंगलियों में
हरदम एक बेचैन लरजिश है

मेरी जांघों में
एक लपलपाता दरिया है
मेरे हाथों में
एक दंड है, एक सरिया है

मैं सदा से इसी सनातन खराश में हूं
मैं फिर-फिर से मौकों की तलाश में हूं…

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रवि कुमार

माफ़िया ये समय – महेन्द्र नेह के दो गीत

महेन्द्र नेह के दो गीत
( उदयपुर से निकलने वाले पाक्षिक ‘महावीर समता संदेश’ से साभार )

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( एक )

माफ़िया
ये समय
हमको नित्य धमकाता

छोड़ दो यह रास्ता
ईमान वाला
हम कहें वैसे चलो
बदल दो सांचे पुराने
हम कहें जैसे ढलो
माफ़िया यह समय
हमको नित्य हड़काता

त्याग दो ये सत्य की
तोता रटन्ती
हम कहें वैसा कहो
फैंक दो तखरी धरम की
हम कहें जैसा करो
माफ़िया ये समय
हमको नित्य दहलाता

भूल जाओ जो पढ़ा
अब तक किताबी
हम कहें वैसा पढ़ो
तोड़ दो कलमें नुकीली
हम कहें जैसा लिखो
माफ़िया ये समय
हमको नित्य धमकाता

०००००
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( दो )

रो रहे हैं
ख़ून के आंसू
जिन्होंने
इस चमन में गंध रोपी है

फड़फड़ाई सुबह जब
अख़बार बनकर
पांव उनके पैडलों पर थे
झिलमिलाई रात जब
अभिसारिका बन
हाथ उनके सांकलों में थे
सी रहे हैं फट गई चादर
जिन्होंने इस धरा को चांदनी दी है

डगमगाई नाव जब
पतवार बनकर
देह उनकी हर लहर पर थी
गुनगुनाए शब्द जब
पुरवाइयां बन
दृष्टि उनकी हर पहर पर थी
पढ़ रहे हैं धूप की पोथी
जिन्होंने बरगदों को छांह सौंपी है

छलछलाई आंख जब
त्यौहार बनकर
प्राण उनके युद्ध रथ पर थे
खिलखिलाई शाम जब
मदहोश होकर
कदम उनके अग्नि पथ पर थे
सह रहे हैं मार सत्ता की
जिन्होंने इस वतन को ज़िंदगी दी है

०००००

महेन्द्र नेह

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